विजयादशमी
पर विशेष
इस विजयदशमी पर अयोध्या पहली बार बहुत खुश नजर
आ रही है। क्योंकि उसके सबसे लायक बेटे भगवान श्री राम की जन्मभूमि का विवाद हल
हुआ और अब वहां भव्य राममंदिर की तैयारियां हैं। निर्माण कार्य में गति है और
जल्दी ही मंदिर का भव्य रूप हमारे सामने होगा। राम का समूचा जीवन संघर्ष की अनथक
कथा है। इसी तरह राममंदिर का निर्माण भी एक अनथक संघर्ष का प्रतीक है। विजयादशमी
के पर्व पर यह पलट कर देखना सुखद है कि किस तरह राम अपने घर लौटेगें। अयोध्या यानि
वह भूमि जहां कभी युद्ध न हुआ हो। ऐसी भूमि पर कलयुग में एक लंबी लड़ाई चली और त्रेतायुग
में पैदा हुए रघुकुल गौरव भगवान श्रीराम को आखिरकार छत नसीब होने वाली है।
राजनीति कैसे साधारण विषयों को भी उलझाकर
मुद्दे में तब्दील कर देती है, रामजन्मभूमि का विवाद इसका उदाहरण है। आजादी मिलने
के समय सोमनाथ मंदिर के साथ ही यह विषय हल हो जाता तो कितना अच्छा होता। आक्रमणकारियों
द्वारा भारत के मंदिरों के साथ क्या किया गया,यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है। किंतु उन
हजारों मंदिरों की जगह, अयोध्या की जन्मभूमि को नहीं रखा जा सकता। एक ऐतिहासिक
अन्याय की परिणति आखिरकार ऐतिहासिक न्याय ही होता है। यह बहुत संतोष की बात है कि
भारत की न्याय प्रक्रिया के तहत इस आए फैसले से इस मंदिर का निर्माण हो रहा है।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अर्थ
में गौरवशाली हैं कि उनके कार्यकाल में इस विवाद का सौजन्यतापूर्ण हल निकल सका और
मंदिर निर्माण का शुभारंभ हो सका। इस आंदोलन से जुड़े अनेक नायक आज दुनिया में
नहीं हैं। उनकी स्मृति आती है। मुझे ध्यान है उप्र में कांग्रेस के नेता और मंत्री
रहे श्री दाऊदयाल खन्ना ने मंदिर के मुद्दे को आठवें दशक में जोरशोर से उठाया था।
उसके साथ ही श्री अशोक सिंहल जैसे नायक का आगमन हुआ और उन्होंने अपनी संगठन क्षमता
से इस आंदोलन को जनांदोलन में बदल दिया। संत रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ जैसे
संत इस आंदोलन से जुड़े और समूचे देश में इसे लेकर एक भावभूमि बनी। तब से लेकर
आजतक सरयू नदी ने अनेक जमावड़े और कारसेवा के प्रसंग देखे हैं। सुप्रीम कोर्ट के
सुप्रीम फैसले के बाद जिस तरह का संयम हिंदू समाज ने दिखाया वह भी बहुत महत्त्व का
विषय है। क्या ही अच्छा होता कि इस कार्य को साझी समझ से हल कर लिया जाता। किंतु
राजनीतिक आग्रहों ने ऐसा होने नहीं दिया। कई बार जिदें कुछ देकर नहीं जातीं,
भरोसा, सद्भाव और भाईचारे पर ग्रहण जरुर लगा देती हैं। दुनिया के किसी देश में यह संभव नहीं है उसके
आराध्य इतने लंबे समय तक मुकदमों का सामना करें।किंतु यह हुआ और सारी दुनिया ने
इसे देखा। यह भारत के लोकतंत्र, उसके न्यायिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना का समय
भी है। यह सिर्फ मंदिर नहीं है जन्मभूमि है हमें इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। विदेशी
आक्रांताओं का मानस क्या रहा होगा, कहने की जरुरत नहीं है। किंतु हर भारतवासी का
राम से रिश्ता है इसमें भी कोई दो राय नहीं है। वे हमारे प्रेरणापुरुष हैं,
इतिहासपुरुष हैं और उनकी लोकव्याप्ति विस्मयकारी है। ऐसा लोकनायक न सदियों में हुआ
है और न होगा। लोकजीवन में, साहित्य में, इतिहास में, भूगोल में, हमारी
प्रदर्शनकलाओं में उनकी उपस्थिति बताती है राम किस तरह इस देश का जीवन हैं।
राम
का होना मर्यादाओं का होना है, रिश्तों का होना है, संवेदना का होना है, सामाजिक
न्याय का होना है, करूणा का होना है। वे सही मायनों में भारतीयता के उच्चादर्शों
को स्थापित करने वाले नायक हैं। उन्हें ईश्वर कहकर हम अपने से दूर करते हैं। जबकि
एक मनुष्य के नाते उनकी उपस्थिति हमें अधिक प्रेरित करती है। एक आदर्श पुत्र, भाई,
सखा, न्यायप्रिय नायक हर रुप में वे संपूर्ण हैं। उनके राजत्व में भी लोकतत्व और
लोकतंत्र के मूल्य समाहित हैं। वे जीतते हैं किंतु हड़पते नहीं। सुग्रीव और विभीषण
का राजतिलक करके वे उन मूल्यों की स्थापना करते हैं जो विश्वशांति के लिए जरुरी
हैं। वे आक्रामणकारी और विध्वंशक नहीं है। वे देशों का भूगोल बदलने की आसुरी इच्छा
से मुक्त हैं। वे मुक्त करते हैं बांधते नहीं। अयोध्या उनके मन में बसती है। इसलिए
वे कह पाते हैं जननी जन्मभूमिश्य्च स्वर्गादपि गरीयसी। यानि जन्मभूमि स्वर्ग से भी
महान है। अपनी माटी के प्रति यह भाव प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी नागरिक का भाव होना
चाहिए। वे नियमों पर चलते हैं। अति होने पर ही शक्ति का आश्रय लेते हैं। उनमें
अपार धीरज है। वे समुद्र की तीन दिनों तक
प्रार्थना करते हैं।
विनय
न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति
बोले
राम सकोप तब भय बिनु होहिं न प्रीति।
यह उनके
धैर्य का उच्चादर्श है। वे वाणी से, कृति से किसी को दुख नहीं देना चाहते हैं। वे
चेहरे पर हमेशा मधुर मुस्कान रखते हैं। उनके घीरोदात्त नायक की छवि उन्हें बहुत
अलग बनाती है। वे जनता के प्रति समर्पित हैं। इसलिए तुलसीदास जी रामराज की अप्रतिम
छवि का वर्णन करते हैं-
दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज
काहुंहिं नहीं व्यापा।
राम ने जो
आदर्श स्थापित किए उस पर चलना कठिन है। किंतु लोकमन में व्याप्त इस नायक को सबने
अपना आदर्श माना। राम सबके हैं। वे कबीर के भी हैं, रहीम के भी हैं, वे गांधी के
भी हैं, लोहिया के भी हैं। राम का चरित्र सबको बांधता है। अनेक रामायण और रामचरित
पर लिखे गए महाकाव्य इसके उदाहरण हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त स्वयं लिखते
हैं-
राम
तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
कोई
कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।
राम अपने जीवन की सरलता, संघर्ष और लोकजीवन से
सहज रिश्तों के नाते कवियों और लेखकों के सहज आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनकी छवि
अति मनभावन है। वे सबसे जुड़ते हैं, सबसे सहज हैं। उनका हर रूप, उनकी हर भूमिका
इतनी मोहनी है कि कविता अपने आप फूटती है। किंतु सच तो यह है कि आज के कठिन समय
में राम के आदर्शों पर चलता साधारण नहीं है। उनसी सहजता लेकर जीवन जीना कठिन है।
वे सही मायनों में इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उनका समूचा व्यक्तित्व
राजपुत्र होने के बाद भी संघर्षों की अविरलता से बना है। वे कभी सुख और चैन के दिन
कहां देख पाते हैं। वे लगातार युद्ध में हैं। घर में, परिवार में, ऋषियों के
यज्ञों की रक्षा करते हुए, आसुरी शक्तियों से जूझते हुए, निजी जीवन में दुखों का
सामना करते हुए, बालि और रावण जैसी सत्ताओं से टकराते हुए। वे अविचल हैं। योद्धा
हैं। उनकी मुस्कान मलिन नहीं पड़ती। अयोध्या लौटकर वे सबसे पहले मां कैकेयी का
आशीर्वाद लेते हैं। यह विराटता सरल नहीं है। पर राम ऐसे ही हैं। सहज-सरल और इस
दुनिया के एक अबूझ से मनुष्य।
राम भक्त वत्सल हैं, मित्र वत्सल हैं,
प्रजा वत्सल हैं। उनकी एक जिंदगी में अनेक छवियां हैं। जिनसे सीखा जा सकता है।
अयोध्या का मंदिर इन सद् विचारों, श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का प्रेरक बने। राम सबके
हैं। सब राम के हैं। यह भाव प्रसारित हो तो देश जुड़ेगा। यह देश राम का है। इस देश
के सभी नागरिक राम के ही वंशज हैं। हम सब उनके ही वैचारिक और वंशानुगत
उत्तराधिकारी हैं, यह मानने से दायित्वबोध भी जागेगा, राम अपने से लगेगें। जब वे
अपने से लगेगें तो उनके मूल्यों और उनकी विरासतों से मुंह मोड़ना कठिन होगा। सही
मायनों में ‘रामराज्य’
आएगा। कवि बाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, गांधी के राम, कबीर के राम, लोहिया के
राम, हम सबके राम हमारे मनों में होंगे। वे तब एक प्रतीकात्मक उपस्थिति भर नहीं
होंगे, बल्कि तात्विक उपस्थिति भी होंगे। वे सामाजिक समरसता और ममता के प्रेरक भी
बनेंगे और कर्ता भी। इसी में हमारी और इस देश की मुक्ति है।
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