रविवार, 18 अक्तूबर 2020

भारतीय भाषाओं की मीडिया के ये सुनहरे दिन हैं- प्रो. संजय द्विवेदी

 प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार,संपादक और मीडिया प्राध्यापक हैं। देश के अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में कार्यरत रहे प्रो.द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति और कुलसचिव भी रहे। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। संप्रति आप भारतीय जनसंचार संस्थान, (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रो.संजय द्विवेदी जी से अग्निधर्मा के प्रधान सम्पादक आशीष जैन ने खास बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी संवाद के कुछ अंश-

 

सर्वप्रथम आपके जीवन की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहेंगे, पत्रकारिता के बीज पड़ने से लेकर उसके वृक्ष बनने तक की यात्रा के बारे में कुछ बताएं ।

उत्तर प्रदेश के बेहद पिछड़े जिले बस्ती में मेरी आरंभिक शिक्षा हुयी। मेरे पिता डा. परमात्मा नाथ द्विवेदी वहां के कालेज में हिंदी के प्राध्यापक थे। वे दूर्वादल नाम से एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते थे। साथ ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी परिषद नामक एक संस्था की स्थापना भी वहां उन्होंने की। उसके माध्यम से अनेक साहित्यिक गतिविधियां चलती थीं। ऐसे में लिखने-पढ़ने का रूझान पैदा हुआ और मैं इस दुनिया में आ गया। साहित्य में तो बहुत गति नहीं बनी, एक सजग पाठक ही रहा किंतु पत्रकारिता में रमा और लिखने लगा। अब ऐसा है कि भाषा ही मेरा जीवन और जीविका दोनों है।

अपनी 14 वर्षों की सक्रिय पत्रकारिता और तमाम मीडिया संस्थानों सहित शैक्षणिक सेवाओं  के अनुभवों के अनुरूप आप प्रिंट मीडिया,वेब मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया का भविष्य कैसा देखते हैं ?

मेरी पत्रकारिता में अनेक पड़ाव हैं। शहरों को याद करूं तो रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल मेरी पत्रकारिता के कर्मक्षेत्र रहे। उत्तर प्रदेश ने मुझे भाषा के संस्कार दिए, मध्यप्रदेश ने उसे संवारा और छत्तीसगढ़ ने उसे खुला आकाश दिया जिससे मैं खुद में आत्मविश्वास पा सका। इसी तरह महाराष्ट्र के मुंबई शहर ने मुझे पत्रकारिता के विविध अनुभव दिए जिससे मैं पूर्णता की ओर बढ़ सका। बाद के दिनों में एक मीडिया शिक्षक के रूप में अनेक अनुभवों ने मुझे समृध्द किया। अब दिल्ली मुझे नए पाठ सिखा रही है। भारत जैसे देश में मीडिया का भविष्य  अभी सुनहरा ही है। क्योंकि अभी भी देश का एक बड़ा हिस्सा साक्षर होने की प्रतीक्षा में है। देश में 100 प्रतिशत मीडिया उपयोग अभी एक लंबी यात्रा है। मोबाइल ने इसे तेज किया है। किंतु अभी एक लंबी यात्रा तय करनी है।

आपने स्वदेश, हरिभूमि, नवभारत और दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों को स्थापित करने में महत्वपूर्ण  भूमिका का निर्वहन किया हैं।  आज के पत्रकारों में आप किसी समाचार पत्र के प्रति गंभीरता के रूप में क्या विशेष और नया देखते हैं ।

 देश में अनेक महत्वपूर्ण अखबार निकल रहे हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के लिए यह बहुत सुनहरे दिन हैं। देश के पहले 10 अखबारों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के 9 अखबार हैं। यह बहुत बड़ी बात है। आज के अखबार ज्यादा सुदर्शन, विविधतापूर्ण सामग्री लिए हुए और बहुत वैज्ञानिक तरीके से निकाले जा रहे हैं। पढ़ने का वक्त जरूर घटा है किंतु इसके लिए अखबार और उसकी प्रस्तुति जिम्मेदार नहीं है। सूचना के साधनों की बहुलता है। अनेक स्थानों से सूचनाएं आने लगी हैं। टीवी, सोशल मीडिया, वेब मीडिया की अधिकता और प्रसार ने अखबारों के पढ़ने का समय कम किया है। आज के पत्रकार सूचना संपन्न समाज में हैं इसलिए उन्हें ज्यादा कटेंट पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। अब कुछ भी पढ़वाना आसान नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर आपने दशकों लेखन किया, वर्तमान में राजनीतिक पत्रकारिता पर आप क्या कहेंगे? विशेषकर चुनावी परिदृश्य में मीडिया की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, इस विषय पर आपके द्वारा संपादित कृति भी आई है वर्ष -2019 में मीडिया और भारतीय चुनाव प्रक्रियाइस विषय पर कुछ प्रकाश डालें ।

राजनीति पर सरसरी तौर पर लिखना और रिपोर्टिंग करना बहुत आसान काम मान लिया गया है। है भी। किंतु किसी भी विधा में गंभीर काम से ही पहचान बनती है। राजनीति में जितना दिखता है या बताया जाता है, राजनीति उतनी ही नहीं है। यह संभावनाओं का भी खेल है और यहां महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए जाते हैं। इसलिए एक राजनीतिक विश्लेषक का काम आसान नहीं है। उसे अपेक्षित तटस्थता रखते हुए काम करना होता है। समय के पार देखना होता है। चीजों के होने की प्रक्रिया को भी समझना और समझाना होता है। चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है। ऐसे में मीडिया कवरेज लोगों के मत निर्माण में मददगार होती है। चुनावों में पेड न्यूज जैसे आरोप भी मीडिया पर लगते हैं। ऐसे कठिन समय में हमें पूरी ईमानदारी  से काम करने की जरुरत है। चुनाव आएंगे, जाएंगें किंतु हमने ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम नहीं किया तो पाठकों और दर्शकों का भरोसा खो बैठेंगें। एक बार भरोसा खत्म तो मीडिया का कोई मतलब ही नहीं। न तो चीजों में मिलावट होनी चाहिए न ही खबरों में।

दो दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण किताबें लिखने के बाद हाल ही में आपकी 'अपराध पत्रकारिता' पर केंद्रित नई कृति चर्चित रही। मेरे दो प्रश्न हैं यहाँ ---पत्रकारिता की इस विधा के वर्तमान स्वरुप को आप कैसा देखते हैं ?दूसरा क्या इस क्षेत्र में पत्रकार अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से  कर पा रहे हैं ?

अपराध पत्रकारिता का काम चुनौतीपूर्ण है। इसमें हमें सूचनाएं भी देनी हैं और यह भी कोशिश करनी है कि अपराध को ग्लैमराइज्ड न किया जाए। हमारी अपराध पत्रकारिता का स्वर अपराधियों के विपक्ष में तथा समाज को संबल देने वाला होना चाहिए। पुलिस के काम पर निगरानी रखना भी हमारा ही काम है। पुलिस रिपोर्ट पर आधारित पत्रकारिता का चलन बढ़ा है, जिसके अपने खतरे हैं। हमें न्यायपूर्ण और जनपक्ष में खड़े रहना है।

विविध छोटे और बड़े  शैक्षणिक संस्थानों  में पत्रकारिता के शिक्षण के स्तर को आप किस तरह देखते हैं, उन संस्थानों से निकले पत्रकारों में किस  तरह की संभावनाएं दिखाई देती हैं।

पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण को बेहद आसान काम मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता पढ़ाने से आसान काम कुछ भी नहीं है। जबकि अब मीडिया एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में स्थापित हो चुका है। इसकी विशेषज्ञता की मांग बढ़ रही है। अब यह संचार की दुनिया है। जहां हमें संवाद के, सूचना के , मनोरंजन के, मीडिया के अनेक संदर्भों पर विशेषज्ञता के साथ काम करना है। इसलिए बदलती दुनिया, बदली टेक्नालाजी के बीच हमें मीडिया शिक्षण को भी एक खास अनुशासन की तरह बरतना होगा। हर गली में खुलते पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान एक धोखा हैं, उनसे बचना होगा।

युवाओं में पत्रकारिता को लेकर बढ़ता रुझान क्या वाकई उन्हें सामाजिक दायित्व की ओर उन्मुख करता है या प्रसिद्धि का आकर्षण मात्र है ?

देखिए दोनों बातें हैं। विद्यार्थी अलग-अलग कारणों से आते हैं। कुछ चकाचौंध से प्रभावित होकर टीवी स्क्रीन पर चमकने के लिए, कुछ समाज के लिए कुछ करने के भाव से, कुछ नौकरी करने के भाव से तो कुछ सिर्फ एक डिग्री हो जाए इसलिए भी आते हैं। बावजूद इसके पत्रकारिता का काम बिना सामाजिक सोच, संवेदना और गहरी प्रेरणा के बिना नहीं हो सकता। आप इस व्ययवसाय में तभी आएं जब आपके भीतर इस तरह की रुचि हो, वरना आप अपना और मीडिया दोनों का नुकसान करेंगें।

इन दिनों सूचना  के साथ मिलावट या पत्रकारिता में एंगल बनाकर ख़बरों के प्रस्तुतीकरण के अतिरेक पर आप क्या कहेंगे ?

सूचनाओं में जरा सी मिलावट भी उसे बेस्वाद और झूठा बना देती है। इसलिए मिलावट कहीं से स्वीकार्य नहीं है। पत्रकारिता का एक ही मंत्र है भरोसा । अगर हमने भरोसा खो दिया, प्रामाणिकता खो दी तो क्या मतलब? खबर को खबर की तरह, तथ्य और सत्य के साथ प्रस्तुति होनी चाहिए। न तो तथ्य गढ़े जाने चाहिए न ही उसे एंगल देना चाहिए। इससे पत्रकारिता की उजली परंपरा कलंकित होती है। आज मीडिया के क्षेत्र में ऐसे लोग आ गए हैं, जो अपने व्यावसायिक हितों के लिए मूल्यों का गला घोंट रहे हैं। यदि मुनाफा ही कमाना है, तो उन्हें मीडिया के व्यवसाय को छोड़कर अन्य किसी व्यवसाय को अपनाना चाहिए। पत्रकारिता एक ध्येय निष्ठ उपक्रम है, उसे कलंकित नहीं करना चाहिए। जब हम पत्रकारिता में अपने स्वार्थ साधते हैं, तो मीडिया के मूल्यों का क्षरण होता है। आज पेड न्यूज, फेक न्यूज, हेट न्यूज और एजेंडा सैटिंग आदि विकृतियों ने भारतीय मीडिया की साख को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके मीडिया स्वयं ही इन विकृतियों पर अंकुश लगाए, अन्यथा एक बार पाठकों एवं दर्शकों को विश्वास समाप्त हो गया, तो मीडिया के लिए फिर से उसे अर्जित करना मुश्किल हो जाएगा।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न-- लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता में जोखिम उठाकर जो प्रामाणिकता के साथ  पत्रकारिता कर रहे उनकी सुरक्षा का दायित्व किस पर है? कद्दावर नेताओं के  दबाव में पत्रकारों पर झूठे प्रकरण दर्ज कर दिए जाते हैं कुछ राज्यों में पत्रकार सुरक्षा कानून लागू भी हैं अपने अनुपालन के साथ |लेकिन ज़्यादातर राज्यों में खबरें प्रकाशित न करने का दबाव बनाया जाता है, इस गंभीर विषय पर आपके  अनुभव हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं।

पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर बहुत कुछ करने की जरूरत है। हर साल अनेक पत्रकारों की हत्या, उनपर झूठे मुकदमे। माफिया से उनका संघर्ष सब कुछ सामने है। ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर सभी राज्य सरकारों को कड़े कदम उठाने की जरूरत है। क्योंकि एक लोकतंत्र में अगर जनता की आवाज को दबा दिया गया तो नुकसान ही होगा।

लगभग 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष,विश्वविद्यालय के कुलपति,कुलसचिव के दायित्व के साथ ही भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक के दायित्वों में कौन सा अनुभव आपके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण रहा, यहाँ मेरा आशय  वर्तमान की चुनौतियों से भी हैं?

मैं अपने जीवन को संपूर्णता और समग्रता में ही देखता हूं। इस तरह टुकड़ों में बांटकर कभी आकलन नहीं किया। पिंड से पत्रकार हूं, वृत्ति (प्रोफेशन) से शिक्षण या अकादमिक प्रबंधन में आ गया हूं। मैं इसे एक यात्रा ही मानता हूं। जो काम दिया गया उसे ईमानदारी और प्रामाणिकता से करने का स्वभाव है। अपनी संस्थाओं को, उसके लोगों, अपने विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने में क्या भूमिका हो सकती है। इसी पर ध्यान रहता है। शिक्षण संस्थाओं को राजनीति से मुक्त और प्रशासनिक दखलंदाजी से परे रखा जाए, यह मेरा सुझाव है। शिक्षा और उसकी गुणवत्ता हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यही मेरा निवेदन रहा है, रहेगा।

मुंबई, भोपाल रायपुर बिलासपुर जैसे शहरों में आपकी सार्थक पत्रकारिता के पदचिन्ह  अंकित हैं ,नगरों- महानगरों जुड़े अपने इन अनुभवों में आपको कौन सी बात  अलग और कॉमन लगी?

देखिए भारत जैसा देश और उसके जैसे लोग मिलने मुश्किल हैं। जहां भी रहा जो सहज प्रेम मिला, वह विरल है। कभी यह अहसास नहीं आया कि कहीं बाहर से आया हूं। आज रायपुर, बिलासपुर, भोपाल मेरी कर्मभूमि ही नहीं घर हैं। मुंबई में दोस्तों का पूरा संसार है। इन शहरों ने मुझे बनाया है और गढ़ा है। यहां की माटी और पानी का अंश शरीर में है तो वहां के मित्रों की आत्मीयता ह्दय में। मैंने दिमाग से ज्यादा सोचकर कुछ नहीं किया। हमेशा जीवन को एक यात्रा की तरह लिया। इसलिए लोगों और स्थानों के बदलने से मुझमें कुछ नहीं बदलता। मैं जैसा हूं वैसा ही हूं। सारे देश में एक ही चीज कामन है सबका दिल है हिंदुस्तानी। स्वागतभाव और आत्मीयता मुझे हर जगह मिली। मैं अपनी किस्मत पर गर्व कर सकता हूं।

पत्रकारिता के  बहुआयामों में आप पत्रकारिता और अकादमिक दोनों अनुभवों के साथ IIMC  में महानिदेशक के पद पर आसीन हैं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उक्त संस्थान को लेकर आपका क्या स्वप्न हैं ? राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों के साथ काम करने के अपने  अनुभव को आप किस तरह देखते हैं?

आईआईएमसी को उसके गौरवशाली अतीत से जोड़ते हुए नए समय की चुनौतियों से जूझने लायक बनाना ही सपना है। सबका सहयोग रहा तो यह सपना जरूर पूरा भी होगा। जहां तक केंद्र-राज्य सरकारों से अनुभव की बात है तो यह सवाल मुझसे कुछ ज्यादा जल्दी पूछा जा रहा है। समय आने पर इस पर बात जरूर करूंगा।

कोरोना महामारी के दौर में प्रारंभ ऑनलाइन कक्षाएँ और ओपन बुक परीक्षाओं को आप कितना सही मानते हैं?

इसमें सही या गलत कुछ नहीं है। यह आपदा का धर्म है। हमें रास्ता निकालना था। क्या करते। आनलाईन ने इस संकट में हमें संबल दिया कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। मेरा मानना है कि संकट कितना भी गहरा हो जीतता अंततः मनुष्य है। हम भी जीतेंगें और उबरेंगें।

 भारत में पत्रकारिता का एक गौरवशाली इतिहास रहा है, ऐसे में समाचार पत्रों का  व्यवसायीकरण हो जाने के  आरोप  को आप किस तरह देखते हैं ?

अगर हम आज की भाषा में बात करें तो लोग कहते हैं कि मीडिया एक प्रोडक्ट है। लेकिन याद रखिए कि मीडिया अगर प्रोडक्ट है, तो पाठक उपभोक्ता हैं और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है, तो उसे जो माल दिया जा रहा है, उसकी क्वालिटी में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर सकता है। मेरा ये मानना है कि हम बड़ी-बड़ी बातें करके मीडिया के मूल्यबोध को बचाकर नहीं रख सकते। उसके लिए व्यवहार आवश्यक है। हमें अपने जीवन से संदेश देना होगा, राष्ट्र को जीवंत बनाए रखना होगा और लोक जागरण करना। यही मीडिया और पत्रकारों के लिए सूत्र वाक्य है। जब हम अपनी लालसा बढ़ा लेते हैं, तो पतन का रास्ता खुल जाता है। इस दौर में पत्रकारिता को मूल्य आधारित बनाए रखने की बहुत आवश्यकता है। वरना न तो देश बचेगा और न पत्रकारिता बचेगी।

हाल ही में आयी नई शिक्षा नीति से पत्रकारिता किस रूप में लाभान्वित हो सकेगी इस पर कुछ प्रकाश डालें ?

नई शिक्षा नीति में पत्रकारिता शिक्षा को लेकर सीधे तौर पर कोई बात नहीं कही गयी है। लेकिन हमें इसके मूलभाव पर जाना होगा। यह शिक्षा नीति कौशल को सम्मानित करने, भारतबोध और देशभक्ति के भाव को भरनेवाली शिक्षा नीति है। इससे देश के मन पर पड़ी गुलामी की लंबी छाया और औपनिवेशिक सोच से मुक्ति मिलेगी। इसमें दो राय नहीं है। देखिए पत्रकारिता या मीडिया नहीं, बड़ा है हमारा समाज। जब पूरे समाज में ही सकारात्मकता और देशभक्ति का भाव होगा, अच्छे नागरिकों का निर्माण होगा, तब मीडिया भी और उसमें काम करनेवाले पत्रकार भी बेहतर होंगें। समाज में विकृतियां होंगी तो हर वर्ग का पतन होगा, समाज बेहतर होगा तो सभी बेहतर होंगे।

क्या इस दौर की पत्रकारिता लोकतंत्र का  चौथे स्तम्भ होने का अपना दायित्व निर्वहन कर रही है, अगर नहीं तो क्या उन्हें बाधित करता है, इसी परिप्रेक्ष्य में न्यूज चैनलों की भूमिका पर आप क्या कहेंगे ?

निश्चित रूप से हम मीडिया की आलोचना करते हैं। पर मेरा सवाल यह है कि मीडिया विहीन समाज कैसा होगा। क्या हम मीडिया के बिना एक सुंदर समाज और जीवंत लोकतंत्र के बारे में सोच सकते हैं। शायद नहीं। वहीं चैनलों की आलोचना के लिए इस समय बहुत से विषय हैं, आलोचना की भी जा सकती है। किंतु इससे कोई लाभ नहीं है। टीवी चैनल टीआरपी स्पर्धा में सब कुछ कर रहे हैं। इसलिए जब स्पर्धा है तो उसमें यह सब कुछ होगा ही।

अब वह प्रश्न जिसकी जिज्ञासा सभी के भीतर है, आपके पूर्व के  साक्षात्कारों  में भी एक बात जो बार बार उल्लेखित हुई आपके बहुआयामी व्यक्तित्व के बेहद सरल सहज पक्ष को लेकर|  इतने गंभीर दायित्वों के मध्य आप कैसे इतनी सहजता के साथ संतुलन बैठा पाते हैं ?वो कौन सी ख़ास ऊर्जा है, जो आपको प्रेरित करती हैं, आपको अपनी सरलता में इतना ख़ास बना जाती हैं, कि दम्भ और कठोरता दूर- दूर तक आपके व्यक्तित्व और व्यवहार में दिखाई नहीं देती यह गुर तो हर कोई सीखने का अभिलाषी हैं।

मुझे लगता है कि हम सब अपनी-अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं। इस भूमिका में सबका अपना महत्व है। कोई खास या विशेष नहीं होता। जहां तक पद की बात है, पद आज है कल नहीं रहेगा। आयु आज है, कल नहीं रहेगी। ऊर्जा आज है, कल नहीं रहेगी। सो जो चीजें स्थाई नहीं हैं उनका अहंकार पालना समझदारी नहीं। मैं सहजता में आनंद का अनुभव करता हूं। मुझे ऐसा ही अच्छा लगता है।  ईश्वर  आपको जो काम दे रहा है उसे सहज आनंद से करते जाइए, मेरी जीवन शैली यही है।

अपने प्रारंभिक दौर से गुजरता 'अग्निधर्मा' साप्ताहिक   मूल  रूप से 'अपराध एवं भ्रष्टाचार' पत्रकारिता' पर केंद्रित है, इस परिप्रेक्ष्य में आपका सन्देश अग्निधर्मा के लिए किसी प्रतिसाद के समान हैं, आपका संदेश?

अग्निधर्मा के अंक मैंने देखे हैं, पढ़ें हैं। इसमें विचारों की विविधता है। आप कह रहे हैं कि यह मूलतः अपराध और भ्रष्टाचार केंद्रित है। किंतु मैंने हाल में इसके सभी अंक देखें हैं। अंकों की सामग्री में विविधता है। साहित्य, समाज और संस्कृति सबको आपने स्थान दिया है। गहरी समझ और सूझबूझ से आप इसका प्रकाशन कर रहे हैं। मेरी शुभकामनाएं सदैव आपके साथ हैं।

नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए आपका संदेश?

स्वाधीनता से पहले पत्रकारिता का उद्देश्य देश की स्वतंत्रता था, उसी तरह अब मीडिया का लक्ष्य देश का नवनिर्माण होना चाहिए। मीडिया के सामने सामाजिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने का लक्ष्य होना चाहिए। निराशा से जूझते हुए मन को ताकत देने की पत्रकारिता होनी चाहिए। लोकतंत्र के बाकी के स्तंभ जहां भी भटकते दिखाई दें, वहां उन्हें चेताने का काम मीडिया को करना चाहिए। यह हम तभी कर पाएंगे, जब हमारे मन में स्पष्ट होगा कि पत्रकारिता का धर्म क्या है? मानवीय चेतना खत्म होने पर पत्रकारिता की आत्मा मर जाती है। इसलिए मानवीय संवेदना प्रत्येक पत्रकार के भीतर होनी चाहिए। यह मानवीय संवेदना ही हमें पथभ्रष्ट होने से बचाती है। पत्रकारिता भारतीय जनता के विश्वास का बड़ा आधार है। भारत की पत्रकारिता पर जनता का विश्वास है। इस विश्वास को बचाकर रखना है, तो हमें मूल्यबोध को जीना होगा।

 

 

 

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