रविवार, 18 अक्तूबर 2020

हिंदी मेरी जीविका है और जीवन भी- प्रो.संजय द्विवदी

    देश के प्रख्यात पत्रकार, लेखक और मीडिया शिक्षक प्रो.संजय द्विवेदी इन दिनों भारतीय जन संचार संस्थान, दिल्ली के महानिदेशक हैं। इसके पूर्व वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति और कुलसचिव भी रह चुके हैं। अनेक मीडिया संस्थानों में प्रमुख पदों पर कार्य कर चुके प्रो. द्विवेदी की मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर 25 पुस्तकों का लेखन और संपादन कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखी उनकी किताब मोदी युग- संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय चर्चा में रही है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के खास अंश-



आपकी लेखन के प्रति रुचि कैसे जागृत हुई?

   मेरे पिता डा. परमात्मा नाथ द्विवेदी बस्ती(उप्र) में हिंदी के प्राध्यापक थे। घर में लिखने-पढ़ने और साहित्य चर्चा का वातावरण था। मुझे लगता है कि परिवेश ही हमें गढ़ता है और इस तरह हिंदी व लेखन के प्रति रुचि पैदा हो गयी। अब तो हिंदी ही मेरा जीवन और जीविका दोनों है। अखबारों में काम करते हुए,लिखते हुए छपते हुए कितने दिन बीत गए। कुछ एक शायर के इस शेर की तरह-

अब तो ये हालात हैं कि जिंदगी के रात-दिन

सुबह मिलते हैं मुझे अखबार में लिपटे हुए।

 

आप लेखन के क्षेत्र से पत्रकारिता में आए। पत्रकारिता में चुनौतियां बहुत होती हैं। क्या आपको साहित्य और पत्रकारिता में कोई दिक्कत आयी?

    हां, शुरूआत तो लेखन से की। बच्चों के लिए कविताएं लिखीं। 10 वीं में पढ़ते हुए बच्चों के लिए बालसुमन नाम से एक पत्रिका निकाली। किंतु बाद के दिनों में पूरी तरह पत्रकारिता और समसामयिक लेखन को समर्पित हो गया। ऐसे में सृजनात्मक लेखन के लिए वक्त नहीं मिला। अब समसामयिक मुद्दों पर लिखना ही निरंतर है। संपादन, लेखन और व्याख्यान ये तीन काम निरंतर हैं और इन्हीं में सुख तलाशता हूं। जहां तक पत्रकारिता में चुनौतियों की बात है, मुझे बहुत परेशानियां नहीं रहीं। 14 साल जमकर सक्रिय पत्रकारिता की। 2009 से मीडिया शिक्षण और अकादमिक प्रबंधन के क्षेत्र में हूं। मीडिया में रहते हुए पूरी प्रामणिकता के साथ काम किया और अब मीडिया शिक्षण में भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं।

आप कई मीडिया संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे हैं। मीडिया की भाषा को लेकर सवाल उठते रहे हैं। आपने भाषा सुधार के लिए क्या किया?

     भाषा के साथ हमारा रवैया अच्छा नहीं है। एक इरादतन लापरवाही और अंग्रेजी शब्दों को पत्रकारिता में जबरिया ठूसने का चलन बढ़ा है। जो किसी भी भाषा के लिए अच्छा नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग बढ़ा है। मुझे लगता है कि कोई भी अखबार अपनी भाषा की अस्मिता का प्रतीक होता है। उसकी जबावदेही उस भाषा के प्रति है जिसमें वह छपता है। लोग अखबारों के माध्यम से भाषा सीखते हैं। इसलिए हमारी जवाबदेही बहुत बड़ी है। अनेक संगोष्ठियों और विमर्शों के माध्यम से हम और हमारे जैसे अनेक लोग यह बात कह रहे हैं। हिंदी को लेकर मेरी चिंता बहुत है। क्योंकि हमारे लोग हिंदी को लेकर एक हीनताबोध से ग्रस्त हैं। वे सोचकर अंग्रेजी बोलेंगें किंतु दिल से हिंदी नहीं बोलते। मजबूरी में की गयी अभिव्यक्ति में शक्ति कहां से आएगी। उसी भाषा में हम सक्षम अभिव्यक्ति कर सकते हैं जो भाषा हमारे सपनों की भाषा है। मुझे नहीं पता लोग किस भाषा में सपने देखते हैं। किंतु अगर वे इसे पकड़ पाएं तो वही उनकी भाषा है।

आप मीडिया विमर्श के प्रमुख विचारक हैं। मीडिया विमर्श नाम की  पत्रिका भी निकालते हैं। आप क्या मानते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का एक आवश्यक अंग है?

    देखिए किसी भी लोकतंत्र की पहली विशेषता है आजाद मीडिया। अगर मीडिया आजाद नहीं है तो लोकतंत्र बेमानी है। हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई ही मुख्यतः समाचार पत्रों ने लड़ी। हमारे अनेक राष्ट्रनायक पत्रकारिता के क्षेत्र से आते हैं। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी,पं.नेहरू डा.आंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, डा. राममनोहर लोहिया सब पत्रकारिता को एक महत्त्वपूर्ण विषय मानते हैं। सबने लोकतंत्र के साथ मीडिया को मजबूत करने का काम किया। अखबार निकाले और अपने विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया। मीडिया ने लोकतंत्र को हर दिन मजबूत किया है। वह जनता की ही अभिव्यक्ति है। हम जो सवाल पूछते हैं, वह जनता की ओर से ही पूछते हैं। यही प्रश्नाकुलता पत्रकारिता और लोकतंत्र का प्राणतत्व है।

आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव रहे हैं। नई पीढ़ी जो पत्रकारिता सीखने आ रही है, उसे आप किस तरह से देखते हैं?

  नई पीढ़ी बहुत ही संभावनावान और ऊर्जा से भरी हुई है। उनके पास नई नजर है, नया नजरिया है। चीजों को विश्लेषित करने की शक्ति है। वे बहुत देशभक्त हैं और लोगों के प्रति संवेदना से भरे हैं। शायद उन्हें जमीनी तल्ख हकीकतों की जानकारी कम होगी किंतु बदलाव के प्रति वे जागरूक हैं। वे आकांक्षावान भारत के निर्माण में सहायक हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि आज के छात्र-युवा निराशा और अवसाद से भरे नहीं हैं। वे उम्मीदों से भरे हैं और एक समर्थ भारत के निर्माण में अपनी बौद्धिकता, रचनात्मकता, प्रश्नाकुलता, टेक्नालाजी के सार्थक उपयोग और नए आइडियाज के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। मैं इन युवाओं को बहुत उम्मीदों से देखता हूं। ये युवा ही देश को एक बार फिर उन्हीं उंचाइयों पर ले जाएंगें जिसका सपना हमारे राष्ट्रनायकों ने देखा था।

आप शिक्षा विशेषज्ञ भी हैं। नई शिक्षा नीति का हमारे समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। क्या हिंदी कभी राष्ट्रभाषा बन पाएगी?

नई शिक्षा नीति को मैं राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहना चाहूंगा। यह भारतबोध और जड़ों से जोड़ने वाली नीति है। यह हीनताबोध और लाचारी को समाप्त कर एक समर्थ भारत को बनाने वाला विचार है। भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने के साथ यह शिक्षा में क्रांतिकारी बदलावों को संभव कर सकती है। इससे भारत को ज्ञान आधारित महाशक्ति बनाने का रास्ता खुलेगा। गुणवत्ता, उत्कृष्टता और प्रौद्योगिकी के समन्वय से शिक्षा संपूर्ण बनेगी। यह शिक्षा नीति सिर्फ जानकारी नहीं देती बल्कि व्यक्तित्व निर्माण पर जोर देती है। सही मायने में यह युवाओं का सशक्तिकरण करने वाली शिक्षा है। यह एक लाचार और विकल पीढ़ी नहीं एक समर्थ पीढ़ी बनाएगी। समाज में अंग्रेजियत एक मूल्य की तरह स्थापित है, यह उससे मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है। यह शिक्षा नीति शिक्षा और शोध में जो दूरी है उसे भी पाटना चाहती है। यह शिक्षा नीति नैतिक शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करेगी। व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से आपका जीवन सुरक्षित करती है वहीं पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से प्रकृति को संरक्षित करेगी। सही मायने में नई शिक्षा नीति भारत का भारत से परिचय कराने का महान उपक्रम है।

  जहां तक हिंदी की बात है, उसे समूचे भारतीय समाज में अपेक्षित सम्मान और स्वीकार्यता हासिल है। सिर्फ राजनीतिक कारणों से उसका विरोध होता है, इसका लाभ विरोध करने वाले भाषाभाषियों के बजाए अंग्रेजी को मिलता है। मुझे लगता है सामान्यजन ने ह्दय से हिंदी को स्वीकार कर लिया है। राजनीतिक कारणों से थोड़ा बहुत विरोध स्वाभाविक है। इससे हिंदी की अहमियत कम नहीं होती। यह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की भाषा रही है। महात्मा गांधी से लेकर चक्रवर्ती राजगोपालीचारी सबने हिंदी को स्वीकारा और इसे प्रचारित किया। नई शिक्षा नीति में इस भावना को रेखांकित करते हुए ही भाषाओं को रोजगार से जोड़ने की बात कही गयी है। साथ ही आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भारतीय भाषाओं की अकादमियों का निर्माण भी होगा।

हिंदी को दुनिया भर में स्थान मिल रहा है। हमारे प्रधानमंत्री विश्व भर में हिंदी में भाषण देते हैं। आज आप हिंदी को कहां देखते हैं?

मुझे लगता है कि हिंदी सहित हमारी सभी भारतीय भाषाएं आज विश्व भाषा बन चुकी हैं। उन्हें बोलने वालों की आबादी पर ध्यान दीजिए। भूगोल पर उनका विस्तार देखिए तो पता चलेगा कि बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, उर्दू, कन्नड़, असमिया जैसी हमारी सभी भारतीय भाषाएं सिर्फ भारत में ही नहीं समूचे ग्लोब पर उपस्थित हैं। उनका मीडिया, उनका साहित्य सब वेब माध्यमों से आज भूगोल की सीमाएं तोड़कर वैश्विक हो चुका है। हमारे प्रधानमंत्री गुजराती भाषी हैं किंतु हिंदी पर उनकी पकड़, अपनी राष्ट्रभाषा के लिए उनका आदर देखने और सीखने की चीज है। वे सच में भारत की जड़ों, उसकी अस्मिता को पहचानने और उसके मानबिंदुओं को आदर दिलाने के लिए संकल्पित हैं। उन-सी दृढ़ता, आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति ही एक राष्ट्रनायक से अपेक्षित होती है।

आप भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक हैं, जो भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण मीडिया प्रशिक्षण केंद्र है। आप क्या नया करने जा रहे हैं।

जन संचार का क्षेत्र बहुत व्यापक है। यहां बहुत कुछ करने की संभावनाएं हैं। इस डिजीटल समय की चुनौतियों के साथ योग्य संचारकों को तैयार करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही हिंदी, अंग्रेजी सहित सभी भारतीय भाषाओं में योग्य संचारकों का प्रशिक्षण भी हमारी योजना है। अभी हम उड़िया, मलयालम, मराठी और उर्दू भाषा के पाठ्यक्रम चला रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि भारत की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए हम अपने संस्थान को विविध भारतीय भाषाओं के मीडिया प्रशिक्षण और शोध का केंद्र बना सकें। भारतीय भाषाओं में बहुत सार्मथ्य है, उनका मीडिया, साहित्य, रंगमंच, लोककलाएं, प्रदर्शन कलाएं सबसे सीखा जा सकता है। हमारा संस्थान भारतीय समाज और उसकी भाषाई अभिव्यक्तियों का ताकतवर मंच बन सके इसके लिए ज्यादा प्रयत्न करेंगें। हमारी कोशिश होगी कि नई शिक्षा नीति के माध्यम से जो विचार सामने आए हैं उन्हें अपने विचार में लेते हुए जन संचार शिक्षा में क्या हो सकता है इसका विमर्श करेंगें। जनसंचार शिक्षा का आर्दश पाठ्यक्रम क्या हो इस पर भी विचार होगा, एक बड़ा विमर्श आयोजित कर हम परिणामकेंद्रित कार्य करेगें।

क्या भारतीय जनसंचार संस्थान में भाषा और साहित्य विकास पर भी कुछ काम करेगा।  क्या संस्थान साहित्य लेखन पर भी कुछ पाठ्यक्रम चलाएगा।

देखिए हमारी विशेषज्ञता क्षेत्र जनसंचार और इससे जुड़ी विधाएं हैं। रचनात्मक लेखन भी उनमें से एक है। फीचर लेखन भी है। किंतु साहित्य से सीधी जुड़ी विधाओं में हमारी विशेषज्ञता नहीं है। यह काम विश्वविद्यालयों, महाविद्यालय के साहित्य और भाषा के विभागों का है। हमारे देश में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के साहित्य के शिक्षण प्रशिक्षण का बहुत गंभीर काम हो रहा है। वह बड़ा और महत्व का काम है। जिस काम में अपनी दक्षता न हो, वह करना ठीक नहीं। हां भाषा के साथ हमारा रिश्ता है। क्योंकि हमें भी भाषा में ही व्यक्त होना है। उसके लिए हम अपेक्षित श्रम और प्रयास करते हैं कि हमारे संचारकों की भाषा प्रभावशाली हो, अभिव्यक्त में दिल तक उतर जाने का माद्दा हो।

(दैनिक जागरण के रविवारीय संस्करण झंकार में प्रकाशित, दिनांक-6 सितंबर,2020)

  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें