IIMC
के डायरेक्टर जनरल प्रो.संजय द्विवेदी से खास बातचीत
हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में
प्रो.संजय द्विवेदी एक चर्चित नाम हैं।
अपनी किताबों, निरंतर लेखन, वैचारिक भाषणों से आपने बौद्धिक दुनिया में एक खास जगह
बनाई है। 14 साल सक्रिय पत्रकारिता में रहे प्रो.संजय द्विवेदी ने संपादक, समाचार
संपादक, इनपुट एडीटर, एंकर जैसे भूमिकाओं में काम किया है। वे प्रिंट,
इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया के तीनों मंचों पर सक्रिय रहे हैं। मुंबई, भोपाल,
रायपुर, बिलासपुर जैसे शहरों में आपने अपनी सार्थक पत्रकारिता के पदचिन्ह छोड़े
हैं। इस बीच 25 किताबों का लेखन और संपादन कर उन्होंने एक लेखक के रुप में भी
पहचान कायम की है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार
विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष रहे
प्रो.संजय द्विवेदी ने विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव पद का भी दायित्व
संभाला है। हाल ही में वे भारतीय जनसंचार संस्थान IIMC
के महानिदेशक नियुक्त किए गए हैं। इस मौके पर उनसे खास बातचीत की प्रभासाक्षी
के संपादक नीरज कुमार दुबे ने। बातचीत के अंश-
IIMC को लेकर आपकी क्या योजनाएँ हैं? आप संस्थान के लिए किन लक्ष्यों को लेकर दिल्ली आये हैं ?
भारतीय जन संचार संस्थान वैसे भी
राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्थान है। इसकी शैक्षणिक गुणवत्ता और शोधकार्यों में
संस्थान के योगदान पर हम सभी को गर्व है। भारतीय सूचना सेवा के अधिकारियों का
प्रशिक्षण केंद्र होने के नाते इसकी विशेष महत्ता है। दुनिया के तमाम देशों के
संचारक यहां प्रशिक्षण प्राप्त कर नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। संस्थान को वैश्विक
स्तर पर संचार शिक्षा, प्रशिक्षण और शोध का केंद्र बनाना ही लक्ष्य है। साथ ही
हमारी भारतीय भाषाओं के संचार, मीडिया और पत्रकारिता क्षेत्र में गुणवत्तावृद्धि
के लिए हम निरंतर प्रयास करते रहेंगे। अभी हिंदी, अंग्रेजी के अलावा मराठी,
मलयालम, उड़िया और उर्दू के पाठ्यक्रम हम चला रहे हैं, भविष्य में अन्य भारतीय
भाषाओं पर भी ऐसे पाठ्यक्रम, कार्यशालाएं और प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलेंगे।
मीडिया और संचार शिक्षा का एक आर्दश पाठ्यक्रम तैयार हो यह भी हमारा लक्ष्य है। हम
देश के तमाम केंद्रीय व राज्य विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर इस दिशा में प्रयास
करेंगें।
मेरी चिंता के केंद्र में सिर्फ मेरे विद्यार्थी
हैं। मेरी कोशिश होगी उन्हें उच्च गुणवत्ता की शिक्षा और प्रशिक्षण मिले। वे यहां वह
ज्ञान और कौशल पाएं जो अन्यत्र उपलब्ध न हो। मैं चाहता हूं दुनिया के सफलतम लोगों
से हमारे विद्यार्थी संवाद कर पाएं। उनसे वह गुण और जिजीविषा सीख पाएं, जिससे कोई
भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका में आता है। हम चाहते हैं कि
हम लीडर्स पैदा करें। जो आने वाले दस सालों में संचार की दुनिया में सबसे बड़े और
वैश्विक स्तर के नाम बन चुके हों। विद्यार्थियों की सफलता ही किसी संस्थान, उसके
शिक्षकों और उसके प्रबंधकों की सफलता है। हम अपने विद्यार्थियों के लिए हर वह अवसर
सुलभ कराएंगें जो उनके सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी हैं। कार्य में गुणवत्ता,
श्रेष्ठता और सुसंवाद से एक बेहतर दुनिया का सृजन ही हमारा अंतिम लक्ष्य है।
आप माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय
पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे और वर्षों तक आपने उक्त
संस्थान में विभिन्न पदों को सुशोभित किया,
IIMC आपके लिए MCU से कितना अलग है और आप
भोपाल के अपने अनुभव का यहाँ कैसे उपयोग कर रहे हैं?
देखिए हर अनुभव हमें ज्यादा समृद्ध
बनाता है। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के अनुभव मेरे जीवन में बहुत खास हैं। क्योंकि
मैं तो पत्रकार था और अकादमिक दुनिया से बहुत परिचित नहीं था। किंतु 11 सालों में
माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से मैंने अकादमिक प्रबंधन का पाठ पढ़ा।
विभागाध्यक्ष, कुलसचिव, कुछ समय कुलपति के प्रभार के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा।
मुझे लगता है मीडिया के संस्थानों में प्रत्यक्ष काम करके और बाद में अकादमिक क्षेंत्र
में काम कर मैंने बहुत सीखा है। अब आईआईएमसी के महानिदेशक के रूप में भी बहुत कुछ
सीखूंगा। सीखने की प्रक्रिया जारी रहती है। राज्य सरकार के विश्वविद्यालय में काम
करते हुए और अब केंद्र सरकार के साथ काम करते हुए सीखने के बहुत से विषय हैं। काम
करने के अनेक अनुभव आते हैं। उनका उपयोग सभी करते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय के
सचिव श्री अमित खरे, बहुत सक्षम और योग्य अधिकारी हैं। वे हमारे संस्थान के
अध्यक्ष भी हैं, उनका मार्गदर्शन निरंतर हमें
मिलता ही है। इसलिए हम संस्थान को वैश्विक ऊंचाई देने के संकल्प को पूरा करके
दिखाएंगें।
कोरोना महामारी के दौर में IIMC में भी क्या ऑनलाइन कक्षाएँ चल रही
हैं, यदि हाँ तो संस्थान का अनुभव कैसा रहा और ऑनलाइन
कक्षाओं को और बेहतर बनाने की आगे की क्या कार्ययोजना है?
अभी हमारा नया सत्र प्रारंभ नहीं
हुआ है। प्रवेश प्रक्रिया चल रही है। हमने सभी प्राध्यापकों और अधिकारियों से
चर्चा कर यह तय किया है कि पहला सत्र आनलाईन ही चलेगा। इसलिए आनलाईन कक्षाएं
चलेंगीं ही। अभी सूचना सेवा के अधिकारियों का प्रशिक्षण चल रहा है, वह भी आनलाईन
ही चल रहा है। यह तात्कालिक संकट है, आगे दूर हो जाएगा। जहां तक आनलाईन कक्षाओं की
बात है उनके अनुभव बहुत अच्छे हैं। बड़े से बड़े विषय विशेषज्ञ जो हमें उपलब्ध
नहीं हो पाते। वे आनलाईन मिल जाते हैं। क्योंकि इसमें उन्हें दिल्ली आने या
आने-जाने में समय लगाने की जरुरत नहीं है। इससे एक नया मार्ग खुला है। अवसर खुला
है। दिल्ली में न होकर भी वे हमारे साथ हो सकते हैं।
पत्रकारिता के हर छात्र का सपना रहता
है कि IIMC में दाखिला मिले
लेकिन दाखिले की प्रक्रिया अभी जटिल है साथ ही शाखाएँ भी सीमित हैं, इस दिशा में क्या सुधार किये जाने की योजना है?
देखिए यह ठीक बात है कि संचार के
क्षेत्र में जाने वाला विद्यार्थी आईआईएमसी आने का स्वप्न देखता। किंतु किसी भी
संस्था में सीमित सीटें होती हैं। सीमित स्थान होते हैं। संसाधनों की भी सीमा है।
ऐसे में बहुत ज्यादा विद्यार्थियों को साथ ले पाना संभव नहीं होता। इसलिए हमने
पांच अलग-अलग राज्यों में केरल, महाराष्ट्र, मिजोरम, उड़ीसा और जम्मू में अपने
परिसर खोले हैं। वहां भी विद्यार्थियों का प्रशिक्षण होता है। देश में अनेक
केंद्रीय व राज्य विश्वविद्यालय भी अब मीडिया और संचार के अनेक पाठ्यक्रम चलाते
हैं। ऐसे में विद्यार्थियों को निराश होने की जरूरत नहीं है। हम कोशिश कर रहे हैं
कि कुछ आनलाईन पाठ्यक्रम प्रारंभ करें और कुछ सीमित समय की कार्यशालाएं चलाएं
जिनमें देश भर के विद्यार्थी और पत्रकार मित्र भी प्रशिक्षण ले सकें। इससे एक
दूसरे के अनुभव साझा हो सकेंगें। हम आपस में सीखकर आगे बढ़ सकेंगे।
आज के डिजिटल युग में पत्रकारिता का
स्वरूप भी बदल रहा है, क्या
इसको ध्यान में रखते हुए जल्द ही या भविष्य में कुछ और कोर्सेज लाये जाने की योजना
है?
समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा
सकता। इसलिए डिजीटल मीडिया होना एक हकीकत है, इसे कुछ लोग मान गए हैं। कुछ मान
जाएंगें। डिजीटल मीडिया और मीडिया कन्वर्जेंस हमारी जरूरतें हैं हमें इसे
स्वीकारना होगा। तभी परंपरागत मीडिया भी बचेगा। मीडिया में जो बदलाव हो रहे हैं
उसे पहचान कर ही हमें नई पीढ़ी को तैयार करना होगा। अब पुराने हथियारों से यह जंग
नहीं जीती जा सकती। जाहिर है पाठ्यक्रमों को भी बदलना होगा, शिक्षकों को बदलना
होगा, पढ़ाने की शैली भी बदलनी होगी। आज का विद्यार्थी ज्यादा सजग, ज्यादा जागरुक
और सूचनाओं से लैस है- उसे उसके तल पर आकर ही संवाद करना होगा।
संस्थान की फीस भी छात्रों के लिए एक अहम मुद्दा रहा
है इस दिशा में क्या कोई कदम उठाये जाएँगे?
यह विषय गत वर्ष चर्चा में रहा है।
उस पर संवाद भी हुआ है। जो भी हल निकलेगा, वह छात्र हित में ही होगा। किसी भी
संस्थान की सीमाएं हैं। फिर भी संवाद से हर समस्या का हल निकल सकता है।बातचीत विफल
होने पर अन्य मार्ग और मंच हैं, जहां लोग जाते रहे हैं, जाना भी चाहिए।
MCU में रहते हुए आप छात्रों
के बीच बेहद लोकप्रिय रहे और आज भी आपको छात्र बहुत मिस करते हैं, यहाँ के छात्रों के साथ किस तरह अपनत्व को बढ़ाएँगे? आप संस्थान के डीजी पद पर विराजमान हैं और अक्सर देखा जाता है कि वरिष्ठ
पदों पर बैठे लोग या तो आम लोगों से दूर हो जाते हैं या आम लोग उनके निकट नहीं
जाते, इस दूरी को आप कैसे पाटेंगे?
एक शिक्षक के लिए उसके
विद्यार्थियों से प्रिय कोई चीज नहीं होती। मेरा जीवन तो मेरे विद्यार्थियों के
लिए समर्पित है। बिना किसी भेदभाव, राग-द्वेष, मत-मतांतर के मेरे पूरा स्नेह
आईआईएमसी के सभी विद्यार्थियों मिलेगा। परिसर बदलने से व्यक्ति और उसका मूल स्वभाव
नहीं बदलता। एमसीयू में जो व्यक्ति था वही तो आईआईएमसी में आया है। मैं कोई बदला
हुआ व्यक्ति नहीं हूं। मैं उनमें से नहीं जो मौसम की तरह बदल जाते हों। मेरा पिंड
एक शिक्षक का है, लेखक का है, पत्रकार का है। मुझे लगता है तीनों ही भूमिकाएं
संवाद के बिना, संवेदना के बिना निभायी नहीं जा सकतीं। इसलिए मैं कुछ समय कुलपति
रहा, कुलसचिव रहा अब महानिदेशक हूं। यह बात मायने नहीं रखती। मायने यही है कि यह
सारा कुछ किसके लिए। सारा सरंजाम किसके लिए। जाहिर तौर पर विद्यार्थियों के लिए,
उनके उजले भविष्य के लिए। मैं यही कह सकता हूं कि मेरा बिना शर्त प्रेम अपने हर
विद्यार्थी के लिए है, कुछ पाने के लिए नहीं सिर्फ इसलिए क्योंकि वे ही इस देश के
भविष्य हैं। उनकी बेहतरी में ही एक सुंदर दुनिया का सपना छिपा है। मैं
यहां यह भी जोड़ना चाहता हूं पिता और गुरू दो ही ऐसे रिश्ते हैं जो हमेशा चाहते
हैं कि उसका पुत्र या शिष्य उससे आगे निकल जाए। उसका जीवन सफल हो। बहुत सगे
रिश्तों और पक्के दोस्तों भी ऐसी पवित्र कामनाएं बहुत कम देखी जाती हैं। हर दोस्त
में, हर रिश्ते में एक प्रतिद्वंदी भी छिपा होता है।
आजकल शिक्षण संस्थानों पर एक विचारधारा
को आगे बढ़ाने का आरोप लगाया जाता है, इसे कैसे देखते हैं आप?
विचारधारा कोई बुरी चीज नहीं है। हर आदमी का एक सपना
होता है कि वह कैसी दुनिया चाहता है। यही सपने एकत्र होकर विचारधारा बन जाते हैं।
विचारधारा का होना बुरा नहीं है। वैचारिक कट्टरता बुरी है, असहमति को कुचल देना
गलत है, अपने वैचारिक विरोधी को शत्रु मानना गलत है, व्यवस्था का न्यायपूर्ण न
होना गलत है। हम भारत के लोग तो संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा के पोषक रहे हैं।
जहां संवाद से ही सब संकटों के हल निकलते हैं। पांच हजार साल की लिखित परंपरा और
इतिहास में हमने कभी किसी सभ्यता को कुचलने और नष्ट करने के प्रयास नहीं किए।
वैचारिक और बौद्धिक व्यक्ति कभी कट्टर नहीं होता। किंतु कुछ विचार बौद्धिक क्षेत्र
में कट्टरता के प्रतीक बन गए। उन्हें अपने वैचारिक विरोधियों को कुचलने, उन्हें
समाप्त करने और हत्याएं करने में ही आनंद मिलता रहा। किंतु अब दुनिया बदल रही है।
भारत 200
सालों के वैचारिक आत्मदैन्य से मुक्त होकर अपने को पहचान रहा है। अपनी जड़ों पर
गर्व कर रहा है। अपनी अस्मिता पर अब वह मुग्ध है। यही नए भारत का परिचय है। अफसोस
कुछ लोग इस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि उनकी वैचारिक निष्ठाएं
कहीं गिरवी पड़ी हैं। इसलिए वे समय-समय पर नए-नए नारों के साथ प्रकट होती हैं।
जिसमें भारत को ही लांछित और पददलित करने के यत्न होते हैं। किंतु देश इस तरह की
वैचारिक असहिष्णुता से बाहर आ चुका है। संचार माध्यमों ने, सोशल मीडिया ने एक ऐसा
लोकतांत्रिक परिवेश बनाया है जिसमें अब विमर्श एकतरफा नहीं है। बल्कि ‘कथित
बौद्धिकता’ को समाज जमकर चुनौती दे रहा है। इसलिए अब एकालाप
का समय नहीं है। हमें इस बदलते हुए समय को पहचानना होगा। शिक्षण संस्थाओं में आने
वाले युवा आज सूचनाओं से लैस हैं। उन्हें गुमराह करना कठिन है। उन्हें बरगलाने का
प्रयास नहीं करना चाहिए।
मैं सभी
शिक्षकों से यही आग्रह करता हूं कि वे अपने विद्यार्थियों से वही काम कराएं जो वे
अपने बच्चों से कराना चाहेंगे। यह ठीक नहीं है कि आपका बच्चा तो अमेरिका के
सपने देखे और आप अपने विद्यार्थी को पार्टी का काडर बनाएं। यह धोखा है। शिक्षकों
को इससे बचना चाहिए। आप अपने विद्यार्थी के समझ दें, जानकारी दें, फैसला उसे करने
दें। वह जिस भी विचार को चुनेगा, वह उसकी अपनी आजादी है। मेरी विचारधारा तो एक ही
है सबसे पहले भारत। भारत में रहने वाले हर नागरिक मेरे भाई-बहन हैं। उनके दुख से
मैं दुखी और उनके सुख से मैं सुखी होता हूं। भारतीयता से बड़ी कोई विचारधारा
नहीं है। क्योंकि भारतीयता ही यह बात जोर से कह सकती है- वसुधैव कुटुम्बकम्।
यह एक समावेशी और वैश्विक विचार विचार है, क्योंकि इसमें सर्वश्रेष्ठ होने का
अहंकार नहीं है। यही कह सकती है आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः। यानि
श्रेष्ठ विचारों को सभी दिशाओं से आने दो।
IIMC में इस सत्र की कक्षाओं का संचालन
कब से बहाल होने की उम्मीद है और संस्थान की ओर से किन बातों का विशेष रूप से
ध्यान रखने की योजना बनाई जा रही है?
इस सत्र में पहला सेमेस्टर आनलाइन ही चलेगा। प्रवेश
प्रक्रिया चल रही है।इसके पूरा होते ही नया सत्र प्रारंभ हो जाएगा। दूसरे सेमेस्टर
में क्या होगा अभी कहना कठिन है।भारत सरकार के दिशा निर्देश हमारे लिए लागू होंगे।
उसी अनुरूप हमें व्यवस्थाएं खड़ी करनी होंगीं।
आज की पत्रकारिता के सामने आपकी दृष्टि में सबसे बड़ी
चुनौती क्या है?
सबसे बड़ी चुनौती खबरों में मिलावट की है। खबरें
परिशुद्धता के साथ कैसे प्रस्तुत हों, कैसे लिखी जाएं, बिना झुकाव, बिना आग्रह
कैसे वे सत्य को अपने पाठकों तक संप्रेषित करें। क्या विचारधारा रखते हुए एक
पत्रकार इस तरह की साफ-सुथरी खबरें लिख सकता है? ऐसे सवाल हमारे सामने हैं। इसके उत्तर भी साफ हैं, जी हां हो सकता है। हमारे
समय के महत्त्वपूर्ण पत्रकार और संपादक श्री प्रभाष जोशी हमें बताकर गए हैं। वे
कहते थे “पत्रकार की पोलिटकल लाइन तो हो किंतु
उसकी पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए।” प्रभाष जी का
मंत्र सबसे प्रभावकारी है, अचूक है। सवाल यह भी है कि एक विचारवान पत्रकार और
संपादक विचार निरपेक्ष कैसे हो सकता है? संभव हो उसके पास
विचारधारा हो, मूल्य हों और गहरी सैंद्धांतिकता का उसके जीवन और मन पर असर हो। ऐसे
में खबरें लिखता हुआ वह अपने वैचारिक आग्रहों से कैसे बचेगा ? अगर नहीं बचेगा तो मीडिया की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का क्या होगा? उत्पादन के कारखानों में ‘क्वालिटी कंट्रोल’ के विभाग होते हैं। मीडिया में यह काम संपादक और रिर्पोटर के अलावा कौन
करेगा? तथ्य और सत्य का संघर्ष भी यहां सामने आता है। कई बार
तथ्य गढ़ने की सुविधा होती है और सत्य किनारे पड़ा रह जाता है।
पत्रकार ऐसा करते हुए खबरों में मिलावट कर सकता है। वह सुविधा से तथ्यों को
चुन सकता है, सुविधा से परोस सकता है। इन सबके बीच भी खबरों को प्रस्तुत करने के
आधार बताए गए हैं, वे अकादमिक भी हैं और सैद्धांतिक भी। हम खबर देते हुए
न्यायपूर्ण हो सकते हैं। ईमान की बात कर सकते हैं। परीक्षण की अनेक कसौटियां हैं।
उस पर कसकर खबरें की जाती रही हैं और की जाती रहेंगी। विचारधारा के साथ गहरी
लोकतांत्रिकता भी जरुरी है जिसमें आप असहमति और अकेली आवाजों को भी जगह देते हैं,
उनका स्वागत करते हैं। एजेंडा पत्रकारिता के समय में यह कठिन जरूर लगता है पर
मुश्किल नहीं।
इस पूरे दौर में टीवी मीडिया की भूमिका को आप
किस तरह से देखते हैं?
इस समय का संकट यह है कि एंकर या विशेषज्ञ
तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ
व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। दर्शक अवाक
रह जाता है कि आखिर क्या हो रहा है। कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार,
संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं। ऐसे
में इस पूरी बौद्धिक जमात को वही आदर मिलेगा जो आप किसी दल के प्रवक्ता को देते
हैं। मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान
को रेखांकित जरूर किया जाएगा। यह साधारण नहीं है कि टीवी के नामी एंकर भी अब टीवी
न देखने की सलाहें दे रहे हैं। ऐसे में यह टीवी मीडिया कहां ले जाएगा कहना कठिन
है। हमें पक्षधरता के बजाए जनपक्ष की ओर देखना होगा। अनेक पत्रकार आज भी अपने धर्म
का पूरी जिम्मेदारी से निर्वाह कर रहे हैं। उनके प्रयासों से ही भरोसा बचा और बना
हुआ है। सत्ता और समाज के बीच सेतु की भूमिका भी पत्रकारिता निभा रही है।
छोटे-छोटे स्थानों से पत्रकार आज सक्रियता के साथ काम कर रहे हैं और विकास तथा
जनमुद्दों के सवाल उठा रहे हैं। यह सुखद है और सरकारों के लिए फीडबैक का काम भी
करता है।
आपने कई विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं, आगे की योजना क्या है?
अभी तो सारा ध्यान आईआईएमसी पर है। इसे श्रेष्ठता,
गुणवत्ता के शीर्ष पर ले जाना। समय मिला तो लिखेंगें जरूर, वह मेरा पहला प्यार है।
किंतु दायित्वबोध उससे बड़ी चीज है। अभी तो यही सपना है कि अपने विद्यार्थियों के
लिए वह सब कुछ कर सकूं, जो उनके लिए जरूरी है। उन्हें शीर्ष पर जाने में जो भी
चीजें सहायक हैं, वह जुटा सकूं। उनकी सफलता में अपनी सफलता का सुख पा सकूं। मैं अपने
खुद के लिए सुख लिए नहीं, अपने तमाम विद्यार्थियों के सपनों, उनकी आकांक्षाओं को
पूरा होते देखने के लिए काम करना चाहता हूं। मुझे लगता है अगर आईआईएमसी को प्रतिभा
के श्रेष्ठतम विकास, गुणवत्ता के शीर्षतम मानकों तक ले जा सका तो मेरा कार्यकाल
सार्थक होगा। तीन साल का समय मिला है। बहुत काम है। अभी इसी पर फोकस है।
(प्रभासाक्षी डाटकाम
में प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें