रविवार, 18 अक्तूबर 2020

भारतीय भाषाओं की मीडिया के ये सुनहरे दिन हैं- प्रो. संजय द्विवेदी

 प्रो. संजय द्विवेदी देश के प्रख्यात पत्रकार,संपादक और मीडिया प्राध्यापक हैं। देश के अनेक प्रमुख समाचार पत्रों में कार्यरत रहे प्रो.द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति और कुलसचिव भी रहे। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। संप्रति आप भारतीय जनसंचार संस्थान, (IIMC), नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रो.संजय द्विवेदी जी से अग्निधर्मा के प्रधान सम्पादक आशीष जैन ने खास बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी संवाद के कुछ अंश-

 

सर्वप्रथम आपके जीवन की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहेंगे, पत्रकारिता के बीज पड़ने से लेकर उसके वृक्ष बनने तक की यात्रा के बारे में कुछ बताएं ।

उत्तर प्रदेश के बेहद पिछड़े जिले बस्ती में मेरी आरंभिक शिक्षा हुयी। मेरे पिता डा. परमात्मा नाथ द्विवेदी वहां के कालेज में हिंदी के प्राध्यापक थे। वे दूर्वादल नाम से एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते थे। साथ ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी परिषद नामक एक संस्था की स्थापना भी वहां उन्होंने की। उसके माध्यम से अनेक साहित्यिक गतिविधियां चलती थीं। ऐसे में लिखने-पढ़ने का रूझान पैदा हुआ और मैं इस दुनिया में आ गया। साहित्य में तो बहुत गति नहीं बनी, एक सजग पाठक ही रहा किंतु पत्रकारिता में रमा और लिखने लगा। अब ऐसा है कि भाषा ही मेरा जीवन और जीविका दोनों है।

अपनी 14 वर्षों की सक्रिय पत्रकारिता और तमाम मीडिया संस्थानों सहित शैक्षणिक सेवाओं  के अनुभवों के अनुरूप आप प्रिंट मीडिया,वेब मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया का भविष्य कैसा देखते हैं ?

मेरी पत्रकारिता में अनेक पड़ाव हैं। शहरों को याद करूं तो रायपुर, बिलासपुर, मुंबई और भोपाल मेरी पत्रकारिता के कर्मक्षेत्र रहे। उत्तर प्रदेश ने मुझे भाषा के संस्कार दिए, मध्यप्रदेश ने उसे संवारा और छत्तीसगढ़ ने उसे खुला आकाश दिया जिससे मैं खुद में आत्मविश्वास पा सका। इसी तरह महाराष्ट्र के मुंबई शहर ने मुझे पत्रकारिता के विविध अनुभव दिए जिससे मैं पूर्णता की ओर बढ़ सका। बाद के दिनों में एक मीडिया शिक्षक के रूप में अनेक अनुभवों ने मुझे समृध्द किया। अब दिल्ली मुझे नए पाठ सिखा रही है। भारत जैसे देश में मीडिया का भविष्य  अभी सुनहरा ही है। क्योंकि अभी भी देश का एक बड़ा हिस्सा साक्षर होने की प्रतीक्षा में है। देश में 100 प्रतिशत मीडिया उपयोग अभी एक लंबी यात्रा है। मोबाइल ने इसे तेज किया है। किंतु अभी एक लंबी यात्रा तय करनी है।

आपने स्वदेश, हरिभूमि, नवभारत और दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों को स्थापित करने में महत्वपूर्ण  भूमिका का निर्वहन किया हैं।  आज के पत्रकारों में आप किसी समाचार पत्र के प्रति गंभीरता के रूप में क्या विशेष और नया देखते हैं ।

 देश में अनेक महत्वपूर्ण अखबार निकल रहे हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के लिए यह बहुत सुनहरे दिन हैं। देश के पहले 10 अखबारों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के 9 अखबार हैं। यह बहुत बड़ी बात है। आज के अखबार ज्यादा सुदर्शन, विविधतापूर्ण सामग्री लिए हुए और बहुत वैज्ञानिक तरीके से निकाले जा रहे हैं। पढ़ने का वक्त जरूर घटा है किंतु इसके लिए अखबार और उसकी प्रस्तुति जिम्मेदार नहीं है। सूचना के साधनों की बहुलता है। अनेक स्थानों से सूचनाएं आने लगी हैं। टीवी, सोशल मीडिया, वेब मीडिया की अधिकता और प्रसार ने अखबारों के पढ़ने का समय कम किया है। आज के पत्रकार सूचना संपन्न समाज में हैं इसलिए उन्हें ज्यादा कटेंट पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। अब कुछ भी पढ़वाना आसान नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर आपने दशकों लेखन किया, वर्तमान में राजनीतिक पत्रकारिता पर आप क्या कहेंगे? विशेषकर चुनावी परिदृश्य में मीडिया की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, इस विषय पर आपके द्वारा संपादित कृति भी आई है वर्ष -2019 में मीडिया और भारतीय चुनाव प्रक्रियाइस विषय पर कुछ प्रकाश डालें ।

राजनीति पर सरसरी तौर पर लिखना और रिपोर्टिंग करना बहुत आसान काम मान लिया गया है। है भी। किंतु किसी भी विधा में गंभीर काम से ही पहचान बनती है। राजनीति में जितना दिखता है या बताया जाता है, राजनीति उतनी ही नहीं है। यह संभावनाओं का भी खेल है और यहां महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए जाते हैं। इसलिए एक राजनीतिक विश्लेषक का काम आसान नहीं है। उसे अपेक्षित तटस्थता रखते हुए काम करना होता है। समय के पार देखना होता है। चीजों के होने की प्रक्रिया को भी समझना और समझाना होता है। चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है। ऐसे में मीडिया कवरेज लोगों के मत निर्माण में मददगार होती है। चुनावों में पेड न्यूज जैसे आरोप भी मीडिया पर लगते हैं। ऐसे कठिन समय में हमें पूरी ईमानदारी  से काम करने की जरुरत है। चुनाव आएंगे, जाएंगें किंतु हमने ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम नहीं किया तो पाठकों और दर्शकों का भरोसा खो बैठेंगें। एक बार भरोसा खत्म तो मीडिया का कोई मतलब ही नहीं। न तो चीजों में मिलावट होनी चाहिए न ही खबरों में।

दो दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण किताबें लिखने के बाद हाल ही में आपकी 'अपराध पत्रकारिता' पर केंद्रित नई कृति चर्चित रही। मेरे दो प्रश्न हैं यहाँ ---पत्रकारिता की इस विधा के वर्तमान स्वरुप को आप कैसा देखते हैं ?दूसरा क्या इस क्षेत्र में पत्रकार अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से  कर पा रहे हैं ?

अपराध पत्रकारिता का काम चुनौतीपूर्ण है। इसमें हमें सूचनाएं भी देनी हैं और यह भी कोशिश करनी है कि अपराध को ग्लैमराइज्ड न किया जाए। हमारी अपराध पत्रकारिता का स्वर अपराधियों के विपक्ष में तथा समाज को संबल देने वाला होना चाहिए। पुलिस के काम पर निगरानी रखना भी हमारा ही काम है। पुलिस रिपोर्ट पर आधारित पत्रकारिता का चलन बढ़ा है, जिसके अपने खतरे हैं। हमें न्यायपूर्ण और जनपक्ष में खड़े रहना है।

विविध छोटे और बड़े  शैक्षणिक संस्थानों  में पत्रकारिता के शिक्षण के स्तर को आप किस तरह देखते हैं, उन संस्थानों से निकले पत्रकारों में किस  तरह की संभावनाएं दिखाई देती हैं।

पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण को बेहद आसान काम मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता पढ़ाने से आसान काम कुछ भी नहीं है। जबकि अब मीडिया एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में स्थापित हो चुका है। इसकी विशेषज्ञता की मांग बढ़ रही है। अब यह संचार की दुनिया है। जहां हमें संवाद के, सूचना के , मनोरंजन के, मीडिया के अनेक संदर्भों पर विशेषज्ञता के साथ काम करना है। इसलिए बदलती दुनिया, बदली टेक्नालाजी के बीच हमें मीडिया शिक्षण को भी एक खास अनुशासन की तरह बरतना होगा। हर गली में खुलते पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान एक धोखा हैं, उनसे बचना होगा।

युवाओं में पत्रकारिता को लेकर बढ़ता रुझान क्या वाकई उन्हें सामाजिक दायित्व की ओर उन्मुख करता है या प्रसिद्धि का आकर्षण मात्र है ?

देखिए दोनों बातें हैं। विद्यार्थी अलग-अलग कारणों से आते हैं। कुछ चकाचौंध से प्रभावित होकर टीवी स्क्रीन पर चमकने के लिए, कुछ समाज के लिए कुछ करने के भाव से, कुछ नौकरी करने के भाव से तो कुछ सिर्फ एक डिग्री हो जाए इसलिए भी आते हैं। बावजूद इसके पत्रकारिता का काम बिना सामाजिक सोच, संवेदना और गहरी प्रेरणा के बिना नहीं हो सकता। आप इस व्ययवसाय में तभी आएं जब आपके भीतर इस तरह की रुचि हो, वरना आप अपना और मीडिया दोनों का नुकसान करेंगें।

इन दिनों सूचना  के साथ मिलावट या पत्रकारिता में एंगल बनाकर ख़बरों के प्रस्तुतीकरण के अतिरेक पर आप क्या कहेंगे ?

सूचनाओं में जरा सी मिलावट भी उसे बेस्वाद और झूठा बना देती है। इसलिए मिलावट कहीं से स्वीकार्य नहीं है। पत्रकारिता का एक ही मंत्र है भरोसा । अगर हमने भरोसा खो दिया, प्रामाणिकता खो दी तो क्या मतलब? खबर को खबर की तरह, तथ्य और सत्य के साथ प्रस्तुति होनी चाहिए। न तो तथ्य गढ़े जाने चाहिए न ही उसे एंगल देना चाहिए। इससे पत्रकारिता की उजली परंपरा कलंकित होती है। आज मीडिया के क्षेत्र में ऐसे लोग आ गए हैं, जो अपने व्यावसायिक हितों के लिए मूल्यों का गला घोंट रहे हैं। यदि मुनाफा ही कमाना है, तो उन्हें मीडिया के व्यवसाय को छोड़कर अन्य किसी व्यवसाय को अपनाना चाहिए। पत्रकारिता एक ध्येय निष्ठ उपक्रम है, उसे कलंकित नहीं करना चाहिए। जब हम पत्रकारिता में अपने स्वार्थ साधते हैं, तो मीडिया के मूल्यों का क्षरण होता है। आज पेड न्यूज, फेक न्यूज, हेट न्यूज और एजेंडा सैटिंग आदि विकृतियों ने भारतीय मीडिया की साख को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके मीडिया स्वयं ही इन विकृतियों पर अंकुश लगाए, अन्यथा एक बार पाठकों एवं दर्शकों को विश्वास समाप्त हो गया, तो मीडिया के लिए फिर से उसे अर्जित करना मुश्किल हो जाएगा।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न-- लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता में जोखिम उठाकर जो प्रामाणिकता के साथ  पत्रकारिता कर रहे उनकी सुरक्षा का दायित्व किस पर है? कद्दावर नेताओं के  दबाव में पत्रकारों पर झूठे प्रकरण दर्ज कर दिए जाते हैं कुछ राज्यों में पत्रकार सुरक्षा कानून लागू भी हैं अपने अनुपालन के साथ |लेकिन ज़्यादातर राज्यों में खबरें प्रकाशित न करने का दबाव बनाया जाता है, इस गंभीर विषय पर आपके  अनुभव हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं।

पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर बहुत कुछ करने की जरूरत है। हर साल अनेक पत्रकारों की हत्या, उनपर झूठे मुकदमे। माफिया से उनका संघर्ष सब कुछ सामने है। ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर सभी राज्य सरकारों को कड़े कदम उठाने की जरूरत है। क्योंकि एक लोकतंत्र में अगर जनता की आवाज को दबा दिया गया तो नुकसान ही होगा।

लगभग 10 वर्ष जनसंचार विभाग के अध्यक्ष,विश्वविद्यालय के कुलपति,कुलसचिव के दायित्व के साथ ही भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक के दायित्वों में कौन सा अनुभव आपके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण रहा, यहाँ मेरा आशय  वर्तमान की चुनौतियों से भी हैं?

मैं अपने जीवन को संपूर्णता और समग्रता में ही देखता हूं। इस तरह टुकड़ों में बांटकर कभी आकलन नहीं किया। पिंड से पत्रकार हूं, वृत्ति (प्रोफेशन) से शिक्षण या अकादमिक प्रबंधन में आ गया हूं। मैं इसे एक यात्रा ही मानता हूं। जो काम दिया गया उसे ईमानदारी और प्रामाणिकता से करने का स्वभाव है। अपनी संस्थाओं को, उसके लोगों, अपने विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने में क्या भूमिका हो सकती है। इसी पर ध्यान रहता है। शिक्षण संस्थाओं को राजनीति से मुक्त और प्रशासनिक दखलंदाजी से परे रखा जाए, यह मेरा सुझाव है। शिक्षा और उसकी गुणवत्ता हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यही मेरा निवेदन रहा है, रहेगा।

मुंबई, भोपाल रायपुर बिलासपुर जैसे शहरों में आपकी सार्थक पत्रकारिता के पदचिन्ह  अंकित हैं ,नगरों- महानगरों जुड़े अपने इन अनुभवों में आपको कौन सी बात  अलग और कॉमन लगी?

देखिए भारत जैसा देश और उसके जैसे लोग मिलने मुश्किल हैं। जहां भी रहा जो सहज प्रेम मिला, वह विरल है। कभी यह अहसास नहीं आया कि कहीं बाहर से आया हूं। आज रायपुर, बिलासपुर, भोपाल मेरी कर्मभूमि ही नहीं घर हैं। मुंबई में दोस्तों का पूरा संसार है। इन शहरों ने मुझे बनाया है और गढ़ा है। यहां की माटी और पानी का अंश शरीर में है तो वहां के मित्रों की आत्मीयता ह्दय में। मैंने दिमाग से ज्यादा सोचकर कुछ नहीं किया। हमेशा जीवन को एक यात्रा की तरह लिया। इसलिए लोगों और स्थानों के बदलने से मुझमें कुछ नहीं बदलता। मैं जैसा हूं वैसा ही हूं। सारे देश में एक ही चीज कामन है सबका दिल है हिंदुस्तानी। स्वागतभाव और आत्मीयता मुझे हर जगह मिली। मैं अपनी किस्मत पर गर्व कर सकता हूं।

पत्रकारिता के  बहुआयामों में आप पत्रकारिता और अकादमिक दोनों अनुभवों के साथ IIMC  में महानिदेशक के पद पर आसीन हैं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उक्त संस्थान को लेकर आपका क्या स्वप्न हैं ? राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों के साथ काम करने के अपने  अनुभव को आप किस तरह देखते हैं?

आईआईएमसी को उसके गौरवशाली अतीत से जोड़ते हुए नए समय की चुनौतियों से जूझने लायक बनाना ही सपना है। सबका सहयोग रहा तो यह सपना जरूर पूरा भी होगा। जहां तक केंद्र-राज्य सरकारों से अनुभव की बात है तो यह सवाल मुझसे कुछ ज्यादा जल्दी पूछा जा रहा है। समय आने पर इस पर बात जरूर करूंगा।

कोरोना महामारी के दौर में प्रारंभ ऑनलाइन कक्षाएँ और ओपन बुक परीक्षाओं को आप कितना सही मानते हैं?

इसमें सही या गलत कुछ नहीं है। यह आपदा का धर्म है। हमें रास्ता निकालना था। क्या करते। आनलाईन ने इस संकट में हमें संबल दिया कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। मेरा मानना है कि संकट कितना भी गहरा हो जीतता अंततः मनुष्य है। हम भी जीतेंगें और उबरेंगें।

 भारत में पत्रकारिता का एक गौरवशाली इतिहास रहा है, ऐसे में समाचार पत्रों का  व्यवसायीकरण हो जाने के  आरोप  को आप किस तरह देखते हैं ?

अगर हम आज की भाषा में बात करें तो लोग कहते हैं कि मीडिया एक प्रोडक्ट है। लेकिन याद रखिए कि मीडिया अगर प्रोडक्ट है, तो पाठक उपभोक्ता हैं और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है, तो उसे जो माल दिया जा रहा है, उसकी क्वालिटी में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता शिकायत कर सकता है। मेरा ये मानना है कि हम बड़ी-बड़ी बातें करके मीडिया के मूल्यबोध को बचाकर नहीं रख सकते। उसके लिए व्यवहार आवश्यक है। हमें अपने जीवन से संदेश देना होगा, राष्ट्र को जीवंत बनाए रखना होगा और लोक जागरण करना। यही मीडिया और पत्रकारों के लिए सूत्र वाक्य है। जब हम अपनी लालसा बढ़ा लेते हैं, तो पतन का रास्ता खुल जाता है। इस दौर में पत्रकारिता को मूल्य आधारित बनाए रखने की बहुत आवश्यकता है। वरना न तो देश बचेगा और न पत्रकारिता बचेगी।

हाल ही में आयी नई शिक्षा नीति से पत्रकारिता किस रूप में लाभान्वित हो सकेगी इस पर कुछ प्रकाश डालें ?

नई शिक्षा नीति में पत्रकारिता शिक्षा को लेकर सीधे तौर पर कोई बात नहीं कही गयी है। लेकिन हमें इसके मूलभाव पर जाना होगा। यह शिक्षा नीति कौशल को सम्मानित करने, भारतबोध और देशभक्ति के भाव को भरनेवाली शिक्षा नीति है। इससे देश के मन पर पड़ी गुलामी की लंबी छाया और औपनिवेशिक सोच से मुक्ति मिलेगी। इसमें दो राय नहीं है। देखिए पत्रकारिता या मीडिया नहीं, बड़ा है हमारा समाज। जब पूरे समाज में ही सकारात्मकता और देशभक्ति का भाव होगा, अच्छे नागरिकों का निर्माण होगा, तब मीडिया भी और उसमें काम करनेवाले पत्रकार भी बेहतर होंगें। समाज में विकृतियां होंगी तो हर वर्ग का पतन होगा, समाज बेहतर होगा तो सभी बेहतर होंगे।

क्या इस दौर की पत्रकारिता लोकतंत्र का  चौथे स्तम्भ होने का अपना दायित्व निर्वहन कर रही है, अगर नहीं तो क्या उन्हें बाधित करता है, इसी परिप्रेक्ष्य में न्यूज चैनलों की भूमिका पर आप क्या कहेंगे ?

निश्चित रूप से हम मीडिया की आलोचना करते हैं। पर मेरा सवाल यह है कि मीडिया विहीन समाज कैसा होगा। क्या हम मीडिया के बिना एक सुंदर समाज और जीवंत लोकतंत्र के बारे में सोच सकते हैं। शायद नहीं। वहीं चैनलों की आलोचना के लिए इस समय बहुत से विषय हैं, आलोचना की भी जा सकती है। किंतु इससे कोई लाभ नहीं है। टीवी चैनल टीआरपी स्पर्धा में सब कुछ कर रहे हैं। इसलिए जब स्पर्धा है तो उसमें यह सब कुछ होगा ही।

अब वह प्रश्न जिसकी जिज्ञासा सभी के भीतर है, आपके पूर्व के  साक्षात्कारों  में भी एक बात जो बार बार उल्लेखित हुई आपके बहुआयामी व्यक्तित्व के बेहद सरल सहज पक्ष को लेकर|  इतने गंभीर दायित्वों के मध्य आप कैसे इतनी सहजता के साथ संतुलन बैठा पाते हैं ?वो कौन सी ख़ास ऊर्जा है, जो आपको प्रेरित करती हैं, आपको अपनी सरलता में इतना ख़ास बना जाती हैं, कि दम्भ और कठोरता दूर- दूर तक आपके व्यक्तित्व और व्यवहार में दिखाई नहीं देती यह गुर तो हर कोई सीखने का अभिलाषी हैं।

मुझे लगता है कि हम सब अपनी-अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं। इस भूमिका में सबका अपना महत्व है। कोई खास या विशेष नहीं होता। जहां तक पद की बात है, पद आज है कल नहीं रहेगा। आयु आज है, कल नहीं रहेगी। ऊर्जा आज है, कल नहीं रहेगी। सो जो चीजें स्थाई नहीं हैं उनका अहंकार पालना समझदारी नहीं। मैं सहजता में आनंद का अनुभव करता हूं। मुझे ऐसा ही अच्छा लगता है।  ईश्वर  आपको जो काम दे रहा है उसे सहज आनंद से करते जाइए, मेरी जीवन शैली यही है।

अपने प्रारंभिक दौर से गुजरता 'अग्निधर्मा' साप्ताहिक   मूल  रूप से 'अपराध एवं भ्रष्टाचार' पत्रकारिता' पर केंद्रित है, इस परिप्रेक्ष्य में आपका सन्देश अग्निधर्मा के लिए किसी प्रतिसाद के समान हैं, आपका संदेश?

अग्निधर्मा के अंक मैंने देखे हैं, पढ़ें हैं। इसमें विचारों की विविधता है। आप कह रहे हैं कि यह मूलतः अपराध और भ्रष्टाचार केंद्रित है। किंतु मैंने हाल में इसके सभी अंक देखें हैं। अंकों की सामग्री में विविधता है। साहित्य, समाज और संस्कृति सबको आपने स्थान दिया है। गहरी समझ और सूझबूझ से आप इसका प्रकाशन कर रहे हैं। मेरी शुभकामनाएं सदैव आपके साथ हैं।

नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिए आपका संदेश?

स्वाधीनता से पहले पत्रकारिता का उद्देश्य देश की स्वतंत्रता था, उसी तरह अब मीडिया का लक्ष्य देश का नवनिर्माण होना चाहिए। मीडिया के सामने सामाजिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने का लक्ष्य होना चाहिए। निराशा से जूझते हुए मन को ताकत देने की पत्रकारिता होनी चाहिए। लोकतंत्र के बाकी के स्तंभ जहां भी भटकते दिखाई दें, वहां उन्हें चेताने का काम मीडिया को करना चाहिए। यह हम तभी कर पाएंगे, जब हमारे मन में स्पष्ट होगा कि पत्रकारिता का धर्म क्या है? मानवीय चेतना खत्म होने पर पत्रकारिता की आत्मा मर जाती है। इसलिए मानवीय संवेदना प्रत्येक पत्रकार के भीतर होनी चाहिए। यह मानवीय संवेदना ही हमें पथभ्रष्ट होने से बचाती है। पत्रकारिता भारतीय जनता के विश्वास का बड़ा आधार है। भारत की पत्रकारिता पर जनता का विश्वास है। इस विश्वास को बचाकर रखना है, तो हमें मूल्यबोध को जीना होगा।

 

 

 

हिंदी मेरी जीविका है और जीवन भी- प्रो.संजय द्विवदी

    देश के प्रख्यात पत्रकार, लेखक और मीडिया शिक्षक प्रो.संजय द्विवेदी इन दिनों भारतीय जन संचार संस्थान, दिल्ली के महानिदेशक हैं। इसके पूर्व वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति और कुलसचिव भी रह चुके हैं। अनेक मीडिया संस्थानों में प्रमुख पदों पर कार्य कर चुके प्रो. द्विवेदी की मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर 25 पुस्तकों का लेखन और संपादन कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखी उनकी किताब मोदी युग- संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय चर्चा में रही है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के खास अंश-



आपकी लेखन के प्रति रुचि कैसे जागृत हुई?

   मेरे पिता डा. परमात्मा नाथ द्विवेदी बस्ती(उप्र) में हिंदी के प्राध्यापक थे। घर में लिखने-पढ़ने और साहित्य चर्चा का वातावरण था। मुझे लगता है कि परिवेश ही हमें गढ़ता है और इस तरह हिंदी व लेखन के प्रति रुचि पैदा हो गयी। अब तो हिंदी ही मेरा जीवन और जीविका दोनों है। अखबारों में काम करते हुए,लिखते हुए छपते हुए कितने दिन बीत गए। कुछ एक शायर के इस शेर की तरह-

अब तो ये हालात हैं कि जिंदगी के रात-दिन

सुबह मिलते हैं मुझे अखबार में लिपटे हुए।

 

आप लेखन के क्षेत्र से पत्रकारिता में आए। पत्रकारिता में चुनौतियां बहुत होती हैं। क्या आपको साहित्य और पत्रकारिता में कोई दिक्कत आयी?

    हां, शुरूआत तो लेखन से की। बच्चों के लिए कविताएं लिखीं। 10 वीं में पढ़ते हुए बच्चों के लिए बालसुमन नाम से एक पत्रिका निकाली। किंतु बाद के दिनों में पूरी तरह पत्रकारिता और समसामयिक लेखन को समर्पित हो गया। ऐसे में सृजनात्मक लेखन के लिए वक्त नहीं मिला। अब समसामयिक मुद्दों पर लिखना ही निरंतर है। संपादन, लेखन और व्याख्यान ये तीन काम निरंतर हैं और इन्हीं में सुख तलाशता हूं। जहां तक पत्रकारिता में चुनौतियों की बात है, मुझे बहुत परेशानियां नहीं रहीं। 14 साल जमकर सक्रिय पत्रकारिता की। 2009 से मीडिया शिक्षण और अकादमिक प्रबंधन के क्षेत्र में हूं। मीडिया में रहते हुए पूरी प्रामणिकता के साथ काम किया और अब मीडिया शिक्षण में भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं।

आप कई मीडिया संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे हैं। मीडिया की भाषा को लेकर सवाल उठते रहे हैं। आपने भाषा सुधार के लिए क्या किया?

     भाषा के साथ हमारा रवैया अच्छा नहीं है। एक इरादतन लापरवाही और अंग्रेजी शब्दों को पत्रकारिता में जबरिया ठूसने का चलन बढ़ा है। जो किसी भी भाषा के लिए अच्छा नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग बढ़ा है। मुझे लगता है कि कोई भी अखबार अपनी भाषा की अस्मिता का प्रतीक होता है। उसकी जबावदेही उस भाषा के प्रति है जिसमें वह छपता है। लोग अखबारों के माध्यम से भाषा सीखते हैं। इसलिए हमारी जवाबदेही बहुत बड़ी है। अनेक संगोष्ठियों और विमर्शों के माध्यम से हम और हमारे जैसे अनेक लोग यह बात कह रहे हैं। हिंदी को लेकर मेरी चिंता बहुत है। क्योंकि हमारे लोग हिंदी को लेकर एक हीनताबोध से ग्रस्त हैं। वे सोचकर अंग्रेजी बोलेंगें किंतु दिल से हिंदी नहीं बोलते। मजबूरी में की गयी अभिव्यक्ति में शक्ति कहां से आएगी। उसी भाषा में हम सक्षम अभिव्यक्ति कर सकते हैं जो भाषा हमारे सपनों की भाषा है। मुझे नहीं पता लोग किस भाषा में सपने देखते हैं। किंतु अगर वे इसे पकड़ पाएं तो वही उनकी भाषा है।

आप मीडिया विमर्श के प्रमुख विचारक हैं। मीडिया विमर्श नाम की  पत्रिका भी निकालते हैं। आप क्या मानते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का एक आवश्यक अंग है?

    देखिए किसी भी लोकतंत्र की पहली विशेषता है आजाद मीडिया। अगर मीडिया आजाद नहीं है तो लोकतंत्र बेमानी है। हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई ही मुख्यतः समाचार पत्रों ने लड़ी। हमारे अनेक राष्ट्रनायक पत्रकारिता के क्षेत्र से आते हैं। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी,पं.नेहरू डा.आंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, डा. राममनोहर लोहिया सब पत्रकारिता को एक महत्त्वपूर्ण विषय मानते हैं। सबने लोकतंत्र के साथ मीडिया को मजबूत करने का काम किया। अखबार निकाले और अपने विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया। मीडिया ने लोकतंत्र को हर दिन मजबूत किया है। वह जनता की ही अभिव्यक्ति है। हम जो सवाल पूछते हैं, वह जनता की ओर से ही पूछते हैं। यही प्रश्नाकुलता पत्रकारिता और लोकतंत्र का प्राणतत्व है।

आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव रहे हैं। नई पीढ़ी जो पत्रकारिता सीखने आ रही है, उसे आप किस तरह से देखते हैं?

  नई पीढ़ी बहुत ही संभावनावान और ऊर्जा से भरी हुई है। उनके पास नई नजर है, नया नजरिया है। चीजों को विश्लेषित करने की शक्ति है। वे बहुत देशभक्त हैं और लोगों के प्रति संवेदना से भरे हैं। शायद उन्हें जमीनी तल्ख हकीकतों की जानकारी कम होगी किंतु बदलाव के प्रति वे जागरूक हैं। वे आकांक्षावान भारत के निर्माण में सहायक हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि आज के छात्र-युवा निराशा और अवसाद से भरे नहीं हैं। वे उम्मीदों से भरे हैं और एक समर्थ भारत के निर्माण में अपनी बौद्धिकता, रचनात्मकता, प्रश्नाकुलता, टेक्नालाजी के सार्थक उपयोग और नए आइडियाज के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। मैं इन युवाओं को बहुत उम्मीदों से देखता हूं। ये युवा ही देश को एक बार फिर उन्हीं उंचाइयों पर ले जाएंगें जिसका सपना हमारे राष्ट्रनायकों ने देखा था।

आप शिक्षा विशेषज्ञ भी हैं। नई शिक्षा नीति का हमारे समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। क्या हिंदी कभी राष्ट्रभाषा बन पाएगी?

नई शिक्षा नीति को मैं राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहना चाहूंगा। यह भारतबोध और जड़ों से जोड़ने वाली नीति है। यह हीनताबोध और लाचारी को समाप्त कर एक समर्थ भारत को बनाने वाला विचार है। भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने के साथ यह शिक्षा में क्रांतिकारी बदलावों को संभव कर सकती है। इससे भारत को ज्ञान आधारित महाशक्ति बनाने का रास्ता खुलेगा। गुणवत्ता, उत्कृष्टता और प्रौद्योगिकी के समन्वय से शिक्षा संपूर्ण बनेगी। यह शिक्षा नीति सिर्फ जानकारी नहीं देती बल्कि व्यक्तित्व निर्माण पर जोर देती है। सही मायने में यह युवाओं का सशक्तिकरण करने वाली शिक्षा है। यह एक लाचार और विकल पीढ़ी नहीं एक समर्थ पीढ़ी बनाएगी। समाज में अंग्रेजियत एक मूल्य की तरह स्थापित है, यह उससे मुक्त करने की दिशा में एक प्रयास है। यह शिक्षा नीति शिक्षा और शोध में जो दूरी है उसे भी पाटना चाहती है। यह शिक्षा नीति नैतिक शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करेगी। व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से आपका जीवन सुरक्षित करती है वहीं पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से प्रकृति को संरक्षित करेगी। सही मायने में नई शिक्षा नीति भारत का भारत से परिचय कराने का महान उपक्रम है।

  जहां तक हिंदी की बात है, उसे समूचे भारतीय समाज में अपेक्षित सम्मान और स्वीकार्यता हासिल है। सिर्फ राजनीतिक कारणों से उसका विरोध होता है, इसका लाभ विरोध करने वाले भाषाभाषियों के बजाए अंग्रेजी को मिलता है। मुझे लगता है सामान्यजन ने ह्दय से हिंदी को स्वीकार कर लिया है। राजनीतिक कारणों से थोड़ा बहुत विरोध स्वाभाविक है। इससे हिंदी की अहमियत कम नहीं होती। यह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की भाषा रही है। महात्मा गांधी से लेकर चक्रवर्ती राजगोपालीचारी सबने हिंदी को स्वीकारा और इसे प्रचारित किया। नई शिक्षा नीति में इस भावना को रेखांकित करते हुए ही भाषाओं को रोजगार से जोड़ने की बात कही गयी है। साथ ही आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भारतीय भाषाओं की अकादमियों का निर्माण भी होगा।

हिंदी को दुनिया भर में स्थान मिल रहा है। हमारे प्रधानमंत्री विश्व भर में हिंदी में भाषण देते हैं। आज आप हिंदी को कहां देखते हैं?

मुझे लगता है कि हिंदी सहित हमारी सभी भारतीय भाषाएं आज विश्व भाषा बन चुकी हैं। उन्हें बोलने वालों की आबादी पर ध्यान दीजिए। भूगोल पर उनका विस्तार देखिए तो पता चलेगा कि बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, उर्दू, कन्नड़, असमिया जैसी हमारी सभी भारतीय भाषाएं सिर्फ भारत में ही नहीं समूचे ग्लोब पर उपस्थित हैं। उनका मीडिया, उनका साहित्य सब वेब माध्यमों से आज भूगोल की सीमाएं तोड़कर वैश्विक हो चुका है। हमारे प्रधानमंत्री गुजराती भाषी हैं किंतु हिंदी पर उनकी पकड़, अपनी राष्ट्रभाषा के लिए उनका आदर देखने और सीखने की चीज है। वे सच में भारत की जड़ों, उसकी अस्मिता को पहचानने और उसके मानबिंदुओं को आदर दिलाने के लिए संकल्पित हैं। उन-सी दृढ़ता, आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति ही एक राष्ट्रनायक से अपेक्षित होती है।

आप भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक हैं, जो भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण मीडिया प्रशिक्षण केंद्र है। आप क्या नया करने जा रहे हैं।

जन संचार का क्षेत्र बहुत व्यापक है। यहां बहुत कुछ करने की संभावनाएं हैं। इस डिजीटल समय की चुनौतियों के साथ योग्य संचारकों को तैयार करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही हिंदी, अंग्रेजी सहित सभी भारतीय भाषाओं में योग्य संचारकों का प्रशिक्षण भी हमारी योजना है। अभी हम उड़िया, मलयालम, मराठी और उर्दू भाषा के पाठ्यक्रम चला रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि भारत की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए हम अपने संस्थान को विविध भारतीय भाषाओं के मीडिया प्रशिक्षण और शोध का केंद्र बना सकें। भारतीय भाषाओं में बहुत सार्मथ्य है, उनका मीडिया, साहित्य, रंगमंच, लोककलाएं, प्रदर्शन कलाएं सबसे सीखा जा सकता है। हमारा संस्थान भारतीय समाज और उसकी भाषाई अभिव्यक्तियों का ताकतवर मंच बन सके इसके लिए ज्यादा प्रयत्न करेंगें। हमारी कोशिश होगी कि नई शिक्षा नीति के माध्यम से जो विचार सामने आए हैं उन्हें अपने विचार में लेते हुए जन संचार शिक्षा में क्या हो सकता है इसका विमर्श करेंगें। जनसंचार शिक्षा का आर्दश पाठ्यक्रम क्या हो इस पर भी विचार होगा, एक बड़ा विमर्श आयोजित कर हम परिणामकेंद्रित कार्य करेगें।

क्या भारतीय जनसंचार संस्थान में भाषा और साहित्य विकास पर भी कुछ काम करेगा।  क्या संस्थान साहित्य लेखन पर भी कुछ पाठ्यक्रम चलाएगा।

देखिए हमारी विशेषज्ञता क्षेत्र जनसंचार और इससे जुड़ी विधाएं हैं। रचनात्मक लेखन भी उनमें से एक है। फीचर लेखन भी है। किंतु साहित्य से सीधी जुड़ी विधाओं में हमारी विशेषज्ञता नहीं है। यह काम विश्वविद्यालयों, महाविद्यालय के साहित्य और भाषा के विभागों का है। हमारे देश में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के साहित्य के शिक्षण प्रशिक्षण का बहुत गंभीर काम हो रहा है। वह बड़ा और महत्व का काम है। जिस काम में अपनी दक्षता न हो, वह करना ठीक नहीं। हां भाषा के साथ हमारा रिश्ता है। क्योंकि हमें भी भाषा में ही व्यक्त होना है। उसके लिए हम अपेक्षित श्रम और प्रयास करते हैं कि हमारे संचारकों की भाषा प्रभावशाली हो, अभिव्यक्त में दिल तक उतर जाने का माद्दा हो।

(दैनिक जागरण के रविवारीय संस्करण झंकार में प्रकाशित, दिनांक-6 सितंबर,2020)

  

मानवता को एक सूत्र में जोड़ने वाले नायक हैं राम

 

विजयादशमी पर विशेष


-प्रो.संजय द्विवेदी

  इस विजयदशमी पर अयोध्या पहली बार बहुत खुश नजर आ रही है। क्योंकि उसके सबसे लायक बेटे भगवान श्री राम की जन्मभूमि का विवाद हल हुआ और अब वहां भव्य राममंदिर की तैयारियां हैं। निर्माण कार्य में गति है और जल्दी ही मंदिर का भव्य रूप हमारे सामने होगा। राम का समूचा जीवन संघर्ष की अनथक कथा है। इसी तरह राममंदिर का निर्माण भी एक अनथक संघर्ष का प्रतीक है। विजयादशमी के पर्व पर यह पलट कर देखना सुखद है कि किस तरह राम अपने घर लौटेगें। अयोध्या यानि वह भूमि जहां कभी युद्ध न हुआ हो। ऐसी भूमि पर कलयुग में एक लंबी लड़ाई चली और त्रेतायुग में पैदा हुए रघुकुल गौरव भगवान श्रीराम को आखिरकार छत नसीब होने वाली है।

     राजनीति कैसे साधारण विषयों को भी उलझाकर मुद्दे में तब्दील कर देती है, रामजन्मभूमि का विवाद इसका उदाहरण है। आजादी मिलने के समय सोमनाथ मंदिर के साथ ही यह विषय हल हो जाता तो कितना अच्छा होता। आक्रमणकारियों द्वारा भारत के मंदिरों के साथ क्या किया गया,यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है। किंतु उन हजारों मंदिरों की जगह, अयोध्या की जन्मभूमि को नहीं रखा जा सकता। एक ऐतिहासिक अन्याय की परिणति आखिरकार ऐतिहासिक न्याय ही होता है। यह बहुत संतोष की बात है कि भारत की न्याय प्रक्रिया के तहत इस आए फैसले से इस मंदिर का निर्माण हो रहा है।

    देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अर्थ में गौरवशाली हैं कि उनके कार्यकाल में इस विवाद का सौजन्यतापूर्ण हल निकल सका और मंदिर निर्माण का शुभारंभ हो सका। इस आंदोलन से जुड़े अनेक नायक आज दुनिया में नहीं हैं। उनकी स्मृति आती है। मुझे ध्यान है उप्र में कांग्रेस के नेता और मंत्री रहे श्री दाऊदयाल खन्ना ने मंदिर के मुद्दे को आठवें दशक में जोरशोर से उठाया था। उसके साथ ही श्री अशोक सिंहल जैसे नायक का आगमन हुआ और उन्होंने अपनी संगठन क्षमता से इस आंदोलन को जनांदोलन में बदल दिया। संत रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ जैसे संत इस आंदोलन से जुड़े और समूचे देश में इसे लेकर एक भावभूमि बनी। तब से लेकर आजतक सरयू नदी ने अनेक जमावड़े और कारसेवा के प्रसंग देखे हैं। सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम फैसले के बाद जिस तरह का संयम हिंदू समाज ने दिखाया वह भी बहुत महत्त्व का विषय है। क्या ही अच्छा होता कि इस कार्य को साझी समझ से हल कर लिया जाता। किंतु राजनीतिक आग्रहों ने ऐसा होने नहीं दिया। कई बार जिदें कुछ देकर नहीं जातीं, भरोसा, सद्भाव और भाईचारे पर ग्रहण जरुर लगा देती हैं।  दुनिया के किसी देश में यह संभव नहीं है उसके आराध्य इतने लंबे समय तक मुकदमों का सामना करें।किंतु यह हुआ और सारी दुनिया ने इसे देखा। यह भारत के लोकतंत्र, उसके न्यायिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना का समय भी है। यह सिर्फ मंदिर नहीं है जन्मभूमि है हमें इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। विदेशी आक्रांताओं का मानस क्या रहा होगा, कहने की जरुरत नहीं है। किंतु हर भारतवासी का राम से रिश्ता है इसमें भी कोई दो राय नहीं है। वे हमारे प्रेरणापुरुष हैं, इतिहासपुरुष हैं और उनकी लोकव्याप्ति विस्मयकारी है। ऐसा लोकनायक न सदियों में हुआ है और न होगा। लोकजीवन में, साहित्य में, इतिहास में, भूगोल में, हमारी प्रदर्शनकलाओं में उनकी उपस्थिति बताती है राम किस तरह इस देश का जीवन हैं।

    राम का होना मर्यादाओं का होना है, रिश्तों का होना है, संवेदना का होना है, सामाजिक न्याय का होना है, करूणा का होना है। वे सही मायनों में भारतीयता के उच्चादर्शों को स्थापित करने वाले नायक हैं। उन्हें ईश्वर कहकर हम अपने से दूर करते हैं। जबकि एक मनुष्य के नाते उनकी उपस्थिति हमें अधिक प्रेरित करती है। एक आदर्श पुत्र, भाई, सखा, न्यायप्रिय नायक हर रुप में वे संपूर्ण हैं। उनके राजत्व में भी लोकतत्व और लोकतंत्र के मूल्य समाहित हैं। वे जीतते हैं किंतु हड़पते नहीं। सुग्रीव और विभीषण का राजतिलक करके वे उन मूल्यों की स्थापना करते हैं जो विश्वशांति के लिए जरुरी हैं। वे आक्रामणकारी और विध्वंशक नहीं है। वे देशों का भूगोल बदलने की आसुरी इच्छा से मुक्त हैं। वे मुक्त करते हैं बांधते नहीं। अयोध्या उनके मन में बसती है। इसलिए वे कह पाते हैं जननी जन्मभूमिश्य्च स्वर्गादपि गरीयसी। यानि जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। अपनी माटी के प्रति यह भाव प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी नागरिक का भाव होना चाहिए। वे नियमों पर चलते हैं। अति होने पर ही शक्ति का आश्रय लेते हैं। उनमें अपार धीरज है। वे समुद्र की  तीन दिनों तक प्रार्थना करते हैं।

विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति

बोले राम सकोप तब भय बिनु होहिं न प्रीति।

यह उनके धैर्य का उच्चादर्श है। वे वाणी से, कृति से किसी को दुख नहीं देना चाहते हैं। वे चेहरे पर हमेशा मधुर मुस्कान रखते हैं। उनके घीरोदात्त नायक की छवि उन्हें बहुत अलग बनाती है। वे जनता के प्रति समर्पित हैं। इसलिए तुलसीदास जी रामराज की अप्रतिम छवि का वर्णन करते हैं-

                                       दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज काहुंहिं नहीं व्यापा।

राम ने जो आदर्श स्थापित किए उस पर चलना कठिन है। किंतु लोकमन में व्याप्त इस नायक को सबने अपना आदर्श माना। राम सबके हैं। वे कबीर के भी हैं, रहीम के भी हैं, वे गांधी के भी हैं, लोहिया के भी हैं। राम का चरित्र सबको बांधता है। अनेक रामायण और रामचरित पर लिखे गए महाकाव्य इसके उदाहरण हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त स्वयं लिखते हैं-

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है

कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।

  राम अपने जीवन की सरलता, संघर्ष और लोकजीवन से सहज रिश्तों के नाते कवियों और लेखकों के सहज आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनकी छवि अति मनभावन है। वे सबसे जुड़ते हैं, सबसे सहज हैं। उनका हर रूप, उनकी हर भूमिका इतनी मोहनी है कि कविता अपने आप फूटती है। किंतु सच तो यह है कि आज के कठिन समय में राम के आदर्शों पर चलता साधारण नहीं है। उनसी सहजता लेकर जीवन जीना कठिन है। वे सही मायनों में इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उनका समूचा व्यक्तित्व राजपुत्र होने के बाद भी संघर्षों की अविरलता से बना है। वे कभी सुख और चैन के दिन कहां देख पाते हैं। वे लगातार युद्ध में हैं। घर में, परिवार में, ऋषियों के यज्ञों की रक्षा करते हुए, आसुरी शक्तियों से जूझते हुए, निजी जीवन में दुखों का सामना करते हुए, बालि और रावण जैसी सत्ताओं से टकराते हुए। वे अविचल हैं। योद्धा हैं। उनकी मुस्कान मलिन नहीं पड़ती। अयोध्या लौटकर वे सबसे पहले मां कैकेयी का आशीर्वाद लेते हैं। यह विराटता सरल नहीं है। पर राम ऐसे ही हैं। सहज-सरल और इस दुनिया के एक अबूझ से मनुष्य।

      राम भक्त वत्सल हैं, मित्र वत्सल हैं, प्रजा वत्सल हैं। उनकी एक जिंदगी में अनेक छवियां हैं। जिनसे सीखा जा सकता है। अयोध्या का मंदिर इन सद् विचारों, श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का प्रेरक बने। राम सबके हैं। सब राम के हैं। यह भाव प्रसारित हो तो देश जुड़ेगा। यह देश राम का है। इस देश के सभी नागरिक राम के ही वंशज हैं। हम सब उनके ही वैचारिक और वंशानुगत उत्तराधिकारी हैं, यह मानने से दायित्वबोध भी जागेगा, राम अपने से लगेगें। जब वे अपने से लगेगें तो उनके मूल्यों और उनकी विरासतों से मुंह मोड़ना कठिन होगा। सही मायनों में रामराज्य आएगा। कवि बाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, गांधी के राम, कबीर के राम, लोहिया के राम, हम सबके राम हमारे मनों में होंगे। वे तब एक प्रतीकात्मक उपस्थिति भर नहीं होंगे, बल्कि तात्विक उपस्थिति भी होंगे। वे सामाजिक समरसता और ममता के प्रेरक भी बनेंगे और कर्ता भी। इसी में हमारी और इस देश की मुक्ति है।


बुधवार, 16 सितंबर 2020

मोदी की बातों में है माटी की महक

                                                                     -प्रो.संजय द्विवेदी




    भारत जैसे महादेश को संबोधित करना आसान नहीं है। इस विविधता भरे देश में वाक् चातुर्य से भरे विद्वानों, राजनेताओं, प्रवचनकारों और अदीबों की कमी नहीं है। अपनी वाणी से सम्मोहित कर लेने वाले अनेक विद्वानों को हमने सुना और परखा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्षमताएं उनमें विलक्षण हैं। वे हमारे समय के अप्रतिम संचारकर्ता हैं। संचार का विद्यार्थी होने के नाते मैं उनकी तरफ बहुत विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखता हूं, किंतु वे अपनी देहभाषा, भाव-भंगिमा, शब्दावली और वाक् चातुर्य से जो करते हैं, उसमें कमियां ढूंढ पाना मुश्किल है। उनका आत्मविश्वास और शैली तो विलक्षण है ही, वे जो कहते हैं उस बात पर भी सहज विश्वास करने का मन होता है। मोदी सही मायने में संवाद के महारथी हैं। वे जनसभाओं के नायक हैं तो ट्विटर जैसे नए माध्यमों पर भी उनकी तूती बोलती है। पारंपरिक मंचों से लेकर आधुनिक सोशल मीडिया मंचों पर उनकी धमाकेदार उपस्थिति बताती है संवाद और संचार को वे किस बेहतर अंदाज में समझते हैं।

   गुजरात के एक छोटे से कस्बे बड़नगर में पले-बढ़े नरेंद्र मोदी में ऐसा क्या है जो लोंगों को सम्मोहित करता है? उनकी राजनीतिक यात्रा भी विवादों से परे नहीं रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें जिस तरह निशाना बनाकर उनकी छवि मलिन करने के सचेतन प्रयास हुए, वे सारे प्रसंग लोकविमर्श में हैं। बावजूद इसके वे हिंदुस्तानी समाज के नायक बने हुए हैं तो इसके पीछे उनकी संप्रेषण कला और देहभाषा का अध्ययन प्रासंगिक हो जाता है। नरेंद्र मोदी देश के ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो कभी सांसद नहीं थे और पहली बार लोकसभा पहुंचकर देश के प्रधानमंत्री बने। 2014 के आमचुनावों की याद करें तो देश किस तरह निराशा और अवसाद से भरा हुआ था। लोग राजनीति और राजनेताओं से उम्मादें छोड़ चुके थे। अन्ना आंदोलन से एक अलग तरह का गुस्सा लोगों के मन में पनप रहा था। तभी एक आवाज गूंजती है मैं देश नहीं झुकने दूंगा। दूसरी आवाज थी अच्छे दिन आने वाले हैं। ये दो आवाजें थीं नरेंद्र मोदी की, जो देश को एक विकल्प देने के लिए मैदान में थे। राजनीति में आश्वासनपरक आवाजों का बहुत मतलब नहीं होता, क्योंकि राजनीति तो सपनों और आश्वासनों के आधार पर ही की जाती है। किंतु नरेंद्र मोदी ने इस दौर में जो कुछ कहा उसे देश ने बहुत ध्यान से सुना। उनका दल लंबे समय से सत्ता से बाहर था और वे अपने दल की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनाए जा चुके थे। जाहिर है अवसाद और निराशा से भरी जनता को एक अवसर था परख करने का। मोदी इस अवसर का लाभ उठाते हैं और जनता के मन में भरोसा जगाने का प्रयास करते हैं। वे लगातार अपनी सभाओं में कहते हैं कि वे ही इस देश को उसके संकटों से उबार सकने की क्षमता से लैस हैं। जनता मुग्ध होकर उनके भाषणों को सुनती है। अपनी अप्रतिम संवादकला से वे लोगों में यह भरोसा जगाने में सफल हो जाते हैं कि वे कुछ कर सकते हैं।

        2014 में मोदी सत्ता में आते हैं और संचार के सबसे प्रभावकारी माध्यम को साधते हैं। वे आकाशवाणी पर मन की बात के माध्यम से लोगों से संवाद का अवसर चुनते हैं। यानि उनका संवाद अवसर और चुनाव केंद्रित नहीं है, निरंतर है। उनमें एक सातत्य है। बदलाव के लिए, परिवर्तन के लिए, लोकजागरण के लिए। वे मन की बात को राजनीतिक विमर्शों के बजाए लोकविमर्शों का केंद्र बनाते हैं। जिसमें जिंदगी की बात है, सफाई की बात है, शिक्षा और परीक्षा की बात है, योग की बात है। मन की बात के माध्यम से वे खुद को एक ऐसे अभिभावक की तरह पेश करने में सफल होते हैं, जिसे देश और देशवासियों की चिंता है। संवाद की यही सफलता है और यही उसका उद्देश्य है। अपने लक्ष्य समूह को निरंतर अपने साथ जोड़े रखना मोदी की संवाद कला की दूसरी सफलता है। करोना संकट में भी हमने देखा कि उनकी अपीलों को किस तरह जनमानस ने स्वीकार किया, चाहे वे करोना वारियर्स के सम्मान में दीप जलाने और थाली बजाने की ही क्यों न हों। यह बातें बताती हैं कि अपने नायक पर देश का भरोसा किस तरह कायम है।  

     मोदी अपनी देहभाषा से कमाल करते हैं। कई बार चौंकाते भी हैं। देश की गहरी समझ भी इसका बड़ा कारण है, यही कारण है वे देश के जिस हिस्से में होते हैं वहां की स्थानीय बोली, वस्त्रों और प्रतीकों का सचेत इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ ही उनकी पोशाकें, उनका हाफ कुर्ता, जैकेट्स आज एक तरह से स्टाइल स्टेटमेंट है। उनका अनुसरण कर नौजवान आज खद्दर और सूती कपड़ों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। हम विश्लेषण करें तो पाते हैं कि उनका समर्पित जीवन और ईमानदारी से उनकी वाणी का भी एक रिश्ता है। जब हम सिर्फ बोलते हैं तो उसका असर अलग होता है। किंतु अगर हम जो बोलते हैं उसमें कृतित्व भी शामिल हो तो बात का असर बढ़ जाता है। नरेंद्र मोदी अपनी असंदिग्ध ईमानदारी, राष्ट्रनिष्ठा और देशभक्ति के प्रतीक हैं। उनका समूचा जीवन राष्ट्र के लिए अर्पित है। ऐसा व्यक्ति जब कोई बात कहता है तो उसका असर बहुत ज्यादा होता है। क्योंकि आपकी वाणी को आपके जीवन का समर्थन है। सिर्फ देश की बात करना और देश के लिए जीना दो बातें हैं। मुझे लगता है जीवन और कर्म में एक रूप होने के नाते मोदी बाकी राजनेताओं से बहुत आगे निकल जाते हैं। क्योंकि उनकी राष्ट्रनिष्ठा पर सबको भरोसा है, इसलिए उनकी वाणी पर भी सहज विश्वास आता है। इस तरह उनकी वाणी भाषण न होकर ह्दय से ह्दय के संवाद में बदल जाती है। लोंगों को भरोसा है कि वे हमारी ही बात कर रहे हैं और हमारे लिए ही कर रहे हैं। मोदी ने अपनी साधारण पृष्ठभूमि की बात कभी छिपाई नहीं, जब भी उनकी साधारण स्थितियों का मजाक बनाया गया तो उसे भी उन्होंने एक सफल अभियान में बदल दिया। चाय पर चर्चा का कार्यक्रम किस तरह बना, उसके संदर्भ हम सबके ध्यान में हैं। नरेंद्र मोदी सही मायने में सामान्य जनों में भरोसा जगाते हैं कि अगर संकल्प हों, इच्छाशक्ति हो तो व्यक्ति क्या नहीं कर सकता। यह एक बात लोगों को उनसे कनेक्ट करती है। अनेक राजनेता हैं, जो साधारण पृष्ठभूमि से आए हैं। किंतु उनका या तो अपनी जड़ों से उनका रिश्ता टूट गया है या वे उन विथिकाओं को याद नहीं करना चाहते। जबकि नरेंद्र मोदी अपनी जड़ों को नहीं भूलते वे हमेशा उसे याद करते हैं और खुद पर भरोसा करते हैं। यही कारण है उनका कनेक्ट सीधा जनता से बनता है। वे प्रधानमंत्री होकर भी अपने से नजर आते हैं। संचार, संवाद और पोजिशिनिंग की यह कला उनमें सहज है। बिना जतन के भी वे इन सबको साधते हैं और साधते रहेंगें क्योंकि आसमान पर होकर भी माटी की सोंधी महक उन्हें जड़ों से जोड़े रखती है। इसलिए उनका संवाद दिलों को जोड़ता है, देश को भी।

   

रविवार, 16 अगस्त 2020

गौरवशाली इतिहास को समेटे एक परिसर

                    आईआईएमसी के 56 वें स्थापना दिवस(17 अगस्त) पर विशेष

-प्रो. संजय द्विवेदी



   भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी) ने अपने गौरवशाली इतिहास के 56 वर्ष पूरे कर लिए हैं। किसी भी संस्था के लिए यह गर्व का क्षण भी है और विहंगावलोकन का भी। ऐसे में अपने अतीत को देखना और भविष्य के लिए लक्ष्य तय करना बहुत महत्वपूर्ण है। 17 अगस्त,1965 को देश की तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस संस्थान का शुभारंभ किया और तब से लेकर आजतक इस परिसर ने प्रगति और विकास के अनेक चरण देखे हैं।

     प्रारंभ में आईआईएमसी का आकार बहुत छोटा था, उन दिनों यूनेस्को के दो सलाहकारों के साथ मुख्यतः केंद्रीय सूचना सेवा के अधिकारियों के लिए पाठ्यक्रम आयोजित किए गए। साथ ही छोटे स्तर पर कुछ शोध कार्यों की शुरुआत भी हुई। यह एक आगाज था, किंतु यह यात्रा यहीं नहीं रुकी। 1969 में अफ्रीकी-एशियाई देशों के मध्यम स्तर के पत्रकारों लिए विकासशील देशों के लिए पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम का एक अंतरराष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ किया गया, जिसे अपार सफलता मिली और संस्थान को अपनी वैश्विक उपस्थिति जताने का मौका भी मिला। इसके साथ ही आईआईएमसी की एक खास उपलब्धि केंद्र और राज्य सरकारों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों के जनसंपर्क, संचार कर्मियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी रही। इन पाठ्यक्रमों के माध्यम से देश के तमाम संगठनों के संचार प्रोफेशनल्स की प्रशिक्षण संबंधी जरुरतों का पूर्ति भी हुई और कुशल मानवसंसाधन के विकास में योगदान रहा।

   बाद के दिनों में आईआईएमसी ने स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रमों की शुरुआत की। जिसमें आज दिल्ली परिसर सहित  उसके अन्य पांच परिसरों कई पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। दिल्ली परिसर में जहां रेडियो और टीवी पत्रकारिता,अंग्रेजी पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता, उर्दू पत्रकारिता, विज्ञापन और जनसंपर्क के पांच पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं। वहीं उड़ीसा स्थित ढेंकानाल परिसर में उड़िया पत्रकारिता और अंग्रेजी पत्रकारिता के दो पाठ्यक्रम हैं। आइजोल(मिजोरम) परिसर अंग्रेजी पत्रकारिता में एक डिप्लोमा पाठ्यक्रम का संचालन करता है।  अमरावती(महाराष्ट्र) परिसर में अंग्रेजी और मराठी पत्रकारिता में पाठ्यक्रम चलते हैं। जम्मू (जम्मू एवं कश्मीर)परिसर में अंग्रेजी पत्रकारिता और कोयट्टम(केरल) परिसर में अंग्रेजी और मलयालम पत्रकारिता के पाठ्यक्रम संचालित किए  जाते हैं। इस तरह देश के विविध हिस्सों में अपनी उपस्थिति से आईआईएमसी भाषाई पत्रकारिता के विकास में एक खास योगदान दिया  है। हिंदी, मलयालम, उर्दू, उड़िया और मराठी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम इसके उदाहरण हैं। भविष्य में अन्य भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रमों के साथ उस भाषा में पाठ्य सामग्री की उपलब्धता भी महत्वपूर्ण होगी।

विजन है खासः

भारतीय जनसंचार संस्थान के विजन(दृष्टि) को देखें तो वह बहुत महत्वाकांक्षी है। ज्ञान आधारित सूचना समाज के निर्माण, मानव विकास , सशक्तिकरण एवं सहभागिता आधारित जनतंत्र में योगदान देने की बातें कही गयी हैं। इसमें साफ कहा गया है कि इन आदर्शों में अनेकत्व, सार्वभौमिक मूल्य और नैतिकता होगी। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हुए मीडिया शिक्षा शोध, विस्तार एवं प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलाए जाएंगें। इस दृष्टि को  अपने पाठ्यक्रमों, प्रशिक्षण, शोध और संविमर्शों में शामिल करते हुए आईआईएमसी ने एक लंबी यात्रा तय की है। अपने प्रकाशनों के माध्यम से जनसंचार की विविध विधाओं पर विशेषज्ञतापूर्ण सामग्री तैयार की है। कम्युनिकेटर(अंग्रेजी) और संचार  माध्यम(हिंदी) दो शोध पत्रिकाओं के माध्यम से शोध और अनुसंधान का वातावरण बनाने का काम भी संस्थान ने किया है। आज जबकि सूचना एक शक्ति के रुप में उभर रही है। ज्ञान आधारित समाज बनाने में ऐसे उपक्रम और संविमर्श सहायक हो सकते हैं। जनसंचार को एक ज्ञान-विज्ञान के अनुशासन के रूप में स्थापित करने और उसमें बेहतर मानवसंसाधन के विकास के लिए तमाम यत्न किए जाने की जरुरत है।इन चुनौतियों के बीच भारतीय जनसंचार संस्थान शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध के क्षेत्र में एक बड़ी जगह बनाई है। संस्थान की विशेषता है कि इसका संचालन और प्रबंध एक स्वशासी निकाय भारतीय जनसंचार संस्थान समिति करती है। इसके अध्यक्ष सूचना और प्रसारण मंत्रालय  के सचिव श्री अमित खरे हैं। इस सोसायटी में देश भर के सूचना,संचार वृत्तिज्ञों(प्रोफेशनल्स) के अलावा देश के शिक्षा, संस्कृति और कला क्षेत्र के गणमान्य लोग भी शामिल होते हैं। मीडिया क्षेत्र की जरुरतों के मद्देनजर पाठ्यक्रमों को निरंतर अपडेट किया जाता है और संचार विशेषज्ञों के सुझाव इसमें शामिल किए जाते हैं। इसके अलावा कार्यकारी परिषद प्रबंध के कार्य  देखती है।

नेतृत्वकारी भूमिका में हैं पूर्व छात्र-


 आईआईएमसी के पूर्व छात्र आज देश के ही नहीं, विदेशों के भी तमाम मीडिया, सूचना और संचार संगठनों में नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। उनकी उपलब्धियां असाधारण हैं और हमें गौरवान्वित करती हैं। आईआईएमसी के पूर्व छात्रों का संगठन इतना प्रभावशाली और सरोकारी है, वह सबको जोड़कर सौजन्य व सहभाग के तमाम कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। पूर्व विद्यार्थियों का सामाजिक सरोकार और आयोजनों के माध्यम से उनकी सक्रियता रेखांकित करने योग्य है। कोई भी संस्थान अपने ऐसे प्रतिभावान,संवेदनशील पूर्व छात्रों पर गर्व का अनुभव करेगा।

  आईआईएमसी का परिसर अपने प्राकृतिक सौंदर्य और स्वच्छता के लिए भी जाना जाता है। इस मनोरम परिसर में प्रकृति के साथ हमारा साहचर्य और संवाद संभव है। परिसर में विद्यार्थियों के लिए छात्रावास, समृद्ध पुस्तकालय, अपना रेडियो नाम से एक सामुदायिक रेडियो भी संचालित  है। इसके अलावा भारतीय सूचना सेवा के अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए विशेष सुविधाएं और उनके लिए आफीसर्स हास्टल भी संचालित  है। अपने दूरदर्शी  पूर्व अध्यक्षों, महानिदेशकों, निदेशकों, अधिकारियों, सम्मानित प्राध्यापकों और विद्यार्थियों के कारण यह परिसर स्वयं अपने इतिहास पर गौरवान्वित अनुभव करता है। आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर अभी और आगे  जाना  है। अपने सपनों में रंग भरना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि संस्थान अपने अतीत से प्रेरणा लेकर बेहतर भविष्य  के लिए कुछ बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करेगा, साथ ही जनसंचार शिक्षा में वैश्विक स्तर पर स्वयं को स्थापित करने में सफल रहेगा।

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान,नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।)