रविवार, 2 नवंबर 2014

एकात्म मानवदर्शन के पचास साल और दीनदयाल जी


-संजय द्विवेदी
   भरोसा करना कठिन है कि श्री दीनदयाल उपाध्याय जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने भारतीय राजनीति को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया कि जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी मालिका तैयार हुयी, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली। क्या विचार सच में इतने ताकतवर होते हैं या यह सिर्फ समय का खेल है? किसी भी देश की जनता राजनीतिक निष्ठाएं एकाएक नहीं बदलतीं। उसे बदलने में सालों लगते हैं। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर श्री नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इसमें इस विचार को समर्पित लाखों-लाखों अनाम सहयोगियों को भुलाया तो जा सकता है किंतु उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
  पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के लिए नहीं बने थे, उन्हें तो एक नए बने राजनीतिक दल जनसंघ में उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मांग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर (गुरूजी) ने राजनीति में भेजा था। यह एक संयोग ही था कि डा. मुखर्जी और दीनदयाल जी दोनों की मृत्यु सहज नहीं रही और दोनों की मौत और हत्या के कारण आज भी रहस्य में हैं। दीनदयालजी तो संघ के प्रचारक थे। आरएसएस की परिपाटी में प्रचारक एक गृहत्यागी सन्यासी सरीखा व्यक्ति होता है, जो समाज के संगठन के लिए अलग-अलग संगठनों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में काम करता है। देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन बन चुके आरएसएस के लिए वे बेहद कठिन दिन थे। राजसत्ता उन्हें गांधी का हत्यारा कहकर लांछित करती थी, तो समाज में उनके लिए जगह धीरे-धीरे बन रही थी। शुद्ध सात्विक प्रेम और संपर्कों के आधार पर जैसा स्वाभाविक विस्तार संघ का होना था, वह हो रहा था, किंतु निरंतर राजनीतिक हमलों ने उसे मजबूर किया कि वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आए। खासकर संघ पर प्रतिबंध के दौर में तो उसके पक्ष में दो बातें कहने वाले लोग भी संसद और विधानसभाओं में नहीं थे। यही पीड़ा भारतीय जनसंघ के गठन का आधार बनी। डा. मुखर्जी उसके वाहक बने और दीनदयाल जी के नाते उन्हें एक ऐसा महामंत्री मिला जिसने दल को न सिर्फ सांगठनिक आधार दिया बल्कि उसके वैचारिक अधिष्ठान को भी स्पष्ट करने का काम किया।
     पं. दीनदयाल जी को गुरूजी ने जिस भी अपेक्षा से वहां भेजा वे उससे ज्यादा सफल रहे। अपने जीवन की प्रामणिकता, कार्यकुशलता, सतत प्रवास, लेखन, संगठन कौशल और विचार के प्रति निरंतरता ने उन्हें जल्दी ही संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं का श्रद्धाभाजन बना दिया। बेहद साधारण परिवार और परिवेश से आए दीनदयालजी भारतीय राजनीति के मंच पर बिना बड़ी चमत्कारी सफलताओं के भी एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित होते दिखे, जिसे आप आदर्श मान सकते हैं। उनके हिस्से चुनावी सफलताएं नहीं रहीं, एक चुनाव जो वे जौनपुर से लड़े वह भी हार गए, किंतु उनका सामाजिक कद बहुत बड़ा हो चुका था। उनकी बातें गौर से सुनी जाने लगी थीं। वे दिग्गज राजनेताओं की भीड़ में एक राष्ट्रऋषि सरीखे नजर आते थे। उदारता और सौजन्यता से लोगों के मनों में, संगठन कौशल से कार्यकर्ताओं के दिलों में जगह बना रहे थे तो वैचारिक विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए देश के बौद्धिक जगत को वे आंदोलित-प्रभावित कर रहे थे। वामपंथी आंदोलन के मुखर बौद्धिक नेताओं की एक लंबी श्रृखंला, कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से तपकर निकले तमाम नेताओं और समाजवादी आंदोलन के डा. राममनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण जैसे प्रखर राजनीतिक चिंतकों के बीच अगर दीनदयाल उपाध्याय स्वीकृति पा रहे थे, तो यह साधारण घटना नहीं थी। यह बात बताती है गुरूजी का चयन कितना सही था। उनके साथ खड़ी हो रही सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख. जेपी माथुर,सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे सैकड़ों कार्यकर्ताओं की पीढ़ी को याद करना होगा, जिनके आधार पर जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा परवान चढ़ी है। दीनदयाल जी इन सबके रोलमाडल थे। अपनी सादगी, सज्जनता, व्यक्तियों का निर्माण करने की उनकी शैली और उसके साथ वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें बनाया और गढ़ा था। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश जैसे पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के माध्यम से उन्होंने एक नया वैचारिक क्षितिज तैयार किया। अनेक लेखक और पत्रकारों को अपनी वैचारिक धारा से जोडने का काम किया। उनकी प्रेरणा तमाम लोग राजनीति में आए तो तमाम लोग लेखन और पत्रकारिता से भी जुड़े।
    एकात्म मानववाद के माध्यम से सर्वथा एक भारतीय विचार को प्रवर्तित कर उन्होंने हमारे राजनीतिक विमर्श को एक नया आकाश दिया। यह बहुत से प्रचलित राजनीतिक विचारों के समकक्ष एक भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसे वे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना रहे थे। उसके लिए उनके मुंबई जनसंघ के अधिवेशन में दिए गए मूल चार भाषणों की ओर देखना होगा। अपने इस विचार को वे व्यापक आधार दे पाते इसके पूर्व उनकी हत्या ने तमाम सपनों पर पानी फेर दिया। जब वे अपना श्रेष्ठतम देने की ओर बढ़ रहे थे, तब हुयी उनकी हत्या ने पूरे देश को अवाक् कर दिया।

   दीनदयाल जी ने अपने प्रलेखों और भाषणों में एकात्म मानववाद शब्द पद का उपयोग किया है। भाजपा ने 1985 में इसे इसी नाम से स्वीकार किया, किंतु नानाजी देशमुख की पहल से संघ परिवार के बीच एकात्म मानवदर्शन नामक शब्दपद स्वीकृति पा चुका है।  यह एक सुखद संयोग ही है कि उनके द्वारा प्रवर्तित एकात्म मानवदर्शन की विचारयात्रा अपने पांच दशक पूर्ण कर चुकी है। यह उसकी स्वर्णजयंती का साल है। इसके साथ ही अगले साल दीनदयाल जी का शताब्दी वर्ष भी प्रारंभ होगा। अब जबकि केंद्र में दीनदयाल जी के विचारों की सरकार स्थापित है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अपने वैचारिक अधिष्ठान की ओर भी देखेगी और कुछ सार्थक करके दिखाएगी। आज भी दीनदयाल जी की स्मृतियां उन लाखों लोगों को शक्ति देती हैं जो आज भी सादगी, सौजन्यता और जनधर्मी राजनीति पर भरोसा करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद भवन में अपने सांसदों के साथ प्रथम संबोधन में जब दीनदयाल जी को याद करते हुए बताया था कि अगला साल उनकी शताब्दी का साल है, तो उन्होंने न सिर्फ अपने वैचारिक अधिष्ठान को स्पष्ट किया वरन यह भी स्थापित किया कि दीनदयाल जी आज की राजनीतिक गिरावट के दौर में एक प्रकाश पुंज की तरह प्रेरणा दे सकते हैं। राजनीति को उन बुनियादी वसूलों से जोड़ने का हौसला दे सकते हैं, जहां सत्ता का उपयोग सेवा के लिए ही किया जाता है और जनप्रतिनिधि खुद को शासक नहीं सेवक ही समझता है।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

क्या आप इस नरेंद्र मोदी को जानते थे !

-संजय द्विवेदी

  एक हफ्ते में मीडिया और एनडीए सांसदों से संवाद करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस प्रचार की भी हवा निकालने की कोशिश की है कि वे संवाद नहीं करते या बातचीत से भागना चाहते हैं। एक अधिनायकवादी फ्रेम में उन्हें जकड़ने की कोशिशें उनके विरोधी करते रहे हैं और नरेंद्र मोदी हर बार उन्हें गलत साबित करते रहे हैं। लक्ष्य को लेकर उनका समर्पण, काम को लेकर दीवानगी उन्हें एक वर्कोहलिक मनुष्य के नाते स्थापित करती है। काम करने वाला ही उनके आसपास ठहर सकता है। एक वातावरण जो ठहराव का था, आराम से काम करने की सरकारी शैली का था, उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तोड़ने की कोशिश की है। सरकार भी आराम की नहीं, काम की चीज हो सकती है, यह वे स्थापित करना चाहते हैं।
  वे जानते हैं कि नए समय की चुनौतियों विकराल हैं। ऐसे में लिजलिजेपन,अकर्मण्यता या सिर्फ नारों और हुंकारों से काम नहीं चल सकता। वे भारत की जनाकांक्षाओं को समझने की निरंतर कोशिश कर रहे हैं और यही आग अपने मंत्रियों और सांसदों में फूंकना चाहते हैं। इसलिए बड़े लक्ष्यों के साथ, छोटे लक्ष्य भी रख रहे हैं। जैसे सांसदों से उन्होंने एक गांव गोद लेने का आग्रह किया है। समाज के हर वर्ग से सफाई अभियान में जुटने का वादा मांगा है। ये बातें बताती हैं कि वे सरकार के भरोसे बैठने के बजाए लोकतंत्र को जनभागीदारी से सार्थक करना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी को पता है कि जनता ने उन्हें यूं ही बहुमत देकर राजसत्ता नहीं दी है। यह सत्ता का स्थानांतरण मात्र नहीं है। यह राजनीतिक शैली, व्यवस्था और परंपरा का भी स्थानांतरण है। एक खास शैली की राजनीति से उबी हुयी जनता की यह प्रतिक्रिया थी, जिसने मोदी को कांटों का ताज पहनाया है। इसलिए वे न आराम कर रहे हैं, न करने दे रहे हैं। उन्हें पता है कि आराम के मायने क्या होते हैं। आखिर दस साल की नेतृत्वहीनता के बाद वे अगर सक्रियता, सौजन्यता और सहभाग की बातें कर पा रहे  हैं तो यह जनादेश उनके साथ संयुक्त है। उन्हें जनादेश शासन करने भर के लिए नहीं, बदलाव लाने के लिए भी मिला है। इसलिए वे ठहरे हुए पानी को मथ रहे हैं। इसे आप समुद्र मंथन भी कह सकते हैं। इसमें अमृत और विष दोनों निकल रहे हैं। इस अमृत पर अधिकार कर्मठ लोगों, सजग देशवासियों को मिले यह उनकी चिंता के केंद्र में है। एक साधारण परिवेश से असाधारण परिस्थितियों को पार करते हुए उनका सात-रेसकोर्स रोड तक पहुंच जाना बहुत आसान बात नहीं है। नियति और भाग्य को मानने वाले भी मानेंगें कि उन्हें किसी खास कारण ने वहां तक पहुंचाया है। यानि उनका दिल्ली आना एक असाधारण घटना है। मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की सरकार का हर मोर्चे पर विफल होना, देश में निराशा का एक घना अंधकार भर जाना, ऐसे में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से पूरे देश में एक आलोड़न और बदलाव की आग का फैल जाना, तब मोदी का अवतरण और जनता का उनके साथ आना यह घटनाएं बताती हैं कि कैसे चीजें बदलती और आकार लेती हैं। राजनीति की साधारण समझ रखने वाले भी इन घटनाओं और प्रसंगों को जोड़कर एक कोलाज बना सकते हैं। यानि वे उम्मीदों का चेहरा हैं, आशाओं का चेहरा हैं और समस्याओं का समाधान करने वाले नायक सरीखे दिखते हैं। नरेंद्र मोदी में इतिहास के इस मोड़ पर महानायक बन जाने की संभावना भी छिपी हुयी है। आप देखें चुनावों के बाद वे किस तरह एक देश के नेता के नाते व्यवहार कर रहे हैं। चुनावों तक वे गुजरात और उसकी कहानियों में उलझे थे। अब वे एक नई लकीर खींच रहे हैं। गुजरात तक की उनकी यात्रा में सरदार पटेल की छवि साथ थी, अब वे महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और इंदिराजी की याद ही नहीं कर रहे हैं। उनकी सरकार तो गजल गायिका बेगम अख्तर की जन्मशताब्दी मनाने भी जा रही है।  एक देश के नेता की देहभाषा, उसका संस्कार, वाणी,  सारा कुछ मोदी ने अंगीकार किया है।

   अपनी छवि के विपरीत अब वे लोगों को साधारण बातों का श्रेय दे रहे हैं। जैसे देश के विकास के लिए वे सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों को श्रेय देते हैं, स्वच्छता अभियान के उनके प्रयासों में शामिल मीडिया के लोगों, लेखकों से लेकर कांग्रेस सांसद शशि थरूर को श्रेय देना वे नहीं भूलते। वे अपने सांसदों और अपनी सरकार को अपने सपनों से जोड़ना चाहते हैं। आखिर इसमें गलत क्या है? सरकार कैसे चल रही है, इसे जानने का हक देश की जनता और सांसदों दोनों को है। दीवाली मिलन के बहाने इसलिए प्रमुख मंत्री, राजग के सांसदों को सामने प्रस्तुति देते हैं। यह घटनाएं नई भले हों पर संकेतक हैं कि प्रधानमंत्री चाहते क्या हैं। दीपावली मिलन पर मीडिया से संवाद से वे भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में करते हैं, इसका भी एक संदेश है। वे चाहते तो मीडिया को सात रेसकोर्स भी बुला सकते थे। किंतु वे बताना चाहते हैं कि संगठन क्या है और उसकी जरूरतें अभी और कभी भी उन्हें पड़ेगी। अमित शाह के रूप में दल को एक ऐसा अध्यक्ष मिला है जो न सिर्फ सपने देखना जानता है बल्कि उन्हें उसमें रंग भरना भी आता है। उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और हरियाणा की कहानियां बताती हैं कि वे कैसे रणनीति को जमीन पर उतारना जानते हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह  का लंबा साथ रहा है। सत्ता और संगठन की यह जुगलबंदी सफलता की अनेक कथाएं रचने को उत्सुक हैं। भाजपा का पीढ़ीगत परिवर्तन का कार्यक्रम न सिर्फ सफल रहा बल्कि समय पर परिणाम देता हुआ भी दिख रहा है। देखना है कि सत्ता के मोर्चे पर प्रारंभ में उम्मीदों का नया क्षितिज बना रहे मोदी आने वाले समय में देश को परिणामों के रूप में क्या दे पाते हैं? देश की जनता उन्हें जहां उम्मीदों से देख रही है, वहीं उनके विरोधी चौकस तरीके से उनके प्रत्येक कदम पर नजर रखे हुए हैं। दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है और उसकी ताकत भी। सच तो यह है कि आज देश में नरेंद्र मोदी के कट्टर आलोचक रहे लोग भी भौचक होकर उनकी तरफ देख रहे हैं। उनकी कार्यशैली और अंदाज की आलोचना के लिए उनको मुद्दे नहीं मिल रहे हैं। लोकसभा चुनावों के पूर्व हो रहे विश्लेषणों, अखबारों में छप रहे लेखों को याद कीजिए। क्या उसमें मोदी का आज का अक्स दिखता था। उनकी आलोचना के सारे तीर आज व्यर्थ साबित हो रहे हैं। उन्हें जो-जो कहा गया वो वैसे कहां दिख रहे हैं। गुजरात के चश्मे से मोदी को देखने वालों को एक नए चश्मे से उन्हें देखना होगा। यह नया मोदी है जो श्रीनगर जाने के लिए दिल्ली से निकलता है तो सियाचिन में सैनिकों के बीच दिखता है। यह वो प्रधानमंत्री है जो दीवाली का त्यौहार दिल्ली या अहमदाबाद में नहीं, श्रीनगर में बाढ़ पीड़ितों के बीच मनाता है। मोदी की इस चौंकाऊ राजनीतिक शैली पर आप क्या कह सकते हैं। वे सही मायने में देश में राष्ट्रवाद को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं। वे ही हैं जो लोगों के दिल में उतर कर उनकी ही बात कर रहे हैं। देश ने पिछले 12 सालों में मीडिया के माध्यम जिस नरेंद्र मोदी को जाना और समझा अब वही देश एक नए नरेंद्र मोदी को देखकर मुग्ध है। दरअसल मोदी वही हैं नजरिया और जगहें बदल गयी हैं। उनकी राजनीतिक सफलताओं ने सारे गणित बदल दिए हैं।  राजनीतिक विरोधियों की इस बेबसी पर आप मुस्करा सकते हैं। भारतीय राजनीति सही मायने में एक नए दौर में प्रवेश कर चुकी है, इसके फलितार्थ क्या होंगें कह पाना कठिन है किंतु देश तेजी से दो ध्रुवीय राजनीति की ओर बढ़ रहा है इसमें दो राय नहीं है। संकट यह है कि कांग्रेस राजनीति का दूसरा ध्रुव बनने की महात्वाकांक्षा से आज भी खाली है।

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

मोदीमय भारत या कांग्रेसमुक्त भारत!

-संजय द्विवेदी

 भारतीय राजनीति का यह मोदी समय है। हर तरफ मोदी। चारो तरफ मोदी। भाजपा में मोदी, कांग्रेस में भी मोदी। आप मोदी को नकारें या स्वीकारें उन्हें इग्नोर नहीं कर सकते। नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति की एक ऐसी परिघटना हैं जिसने लंबे समय के बाद व्यक्तित्व के जादू या करिश्मे का अहसास देश को कराया है। कांग्रेस की परंपरा में पंडित जवाहरलाल नेहरू का ऐसा ही करिश्मा और व्यक्तित्व रहा है, इंदिरा जी उससे कम, किंतु करिश्माई नेत्री रहीं। वहीं अपने विचार परिवार और भारतीय विपक्ष की पूरी परंपरा में नरेंद्र मोदी सबसे करिश्माई नेता बनकर उभरे हैं। यहां तक कि चुनावी सफलताओं के मामले में वे अपने दल के सबसे बडे नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी आगे जाते हुए दिख रहे हैं। भारत की जनसंघ और भाजपा की राजनीतिक धारा का यह सही मायने में स्वर्णयुग है। इसने भारतीय राजनीति के सबसे पुराने दल (कांग्रेस) को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है। मैदान में लड़ाईयां भाजपा और क्षेत्रीय दलों में हो रही हैं। कांग्रेस यहां लड़ाई से भी बाहर दिखती है।
   हरियाणा में अपने दम पर सरकार बनाती हुई भाजपा कोई साधारण घटना नहीं है। यह राजनीति का एकदम से बदल जाना है। धारा के विरूद्ध एक सफलता है, जबकि उनके सहयोगी रहे दल हरियाणा जनहित कांग्रेस से लेकर अकाली दल तक यहां भाजपा का विरोध करते दिखते हैं। निश्चय ही नरेंद्र मोदी और भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के आत्मविश्वास ने भी इन परिणामों को इस रूप में व्यक्त किया है। आत्मविश्वास से भरी भाजपा आज हर मैदान में अकेले दम पर उतर कर भी बेहतर परिणाम ला रही है। महाराष्ट्र में जहां शिवसेना उसे 120 सीटें से अधिक एक भी सीट देने को तैयार नहीं थी, अब वहा भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गयी है। एक तरह से यह समय क्षेत्रीय दलों के सिमटने का भी समय है। एक अखिलभारतीय पार्टी को मिलती जनस्वीकृति सुखद है किंतु कांग्रेस की बदहाली चिंता में डालती है। हाल के चुनाव परिणामों में क्षेत्रीय दलों की ताकत सिमट रही है, किंतु कांग्रेस की ताकत नहीं बढ़ रही है। जबकि देश में राष्ट्रीय दल के नाते कांग्रेस और भाजपा दोनों का ताकतवर होना जरूरी है। आप देखें तो हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल प्रमुख विपक्ष बनकर उभरी है तो महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर दिखते हैं। यह बात बताती है कांग्रेस मुक्त भारत का मोदी का नारा सच होता नजर आ रहा है। इन झटकों के बावजूद कांग्रेस के आलाकमान और उसके तंत्र में कोई हलचल होती नहीं दिखती। वे अभी भी अपनी परंपरागत शैली और आरामतलबी में डूबे हैं। कुछ उत्साही प्रियंका लाओ के नारे भी लगा रहे हैं। किंतु यह संकट को अतिसरलीकृत करके देखना है। आज कांग्रेस संगठन विचारशून्यता का एक ऐसा केंद्र बन गया है जहां गांधी परिवार का कोई भी चेहरा उसे चुनावी वैतरणी पार नहीं करवा सकता। शायद इसे ही समय कहते हैं।
  पिछले दिनों उप्र और कुछ अन्य राज्यों के उपचुनावों में प्रतिपक्ष को मिली हल्की-फुल्की सफलताओं से राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी लहर के खात्मे की भविष्यवाणी कर दी थी किंतु अब दो राज्यों के परिणाम बताते हैं भाजपा और नरेंद्र मोदी का जादू अभी टूटा नहीं हैं। वे आज भी देश की ज्यादातर जनता की आकांक्षाओं और सपनों का चेहरा हैं। वे राजनीतिक पटल पर उभरे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनसे लोगों की उम्मीदें कायम हैं। उन्हें इस दिशा में बहुत कुछ करना शेष है, किंतु जनता का भरोसा मोदी में निरंतर है। अपने कठिन परिश्रम और लगातार चुनाव सभाओं से उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में ऐसा वातावरण बना दिया जिससे भाजपा लड़ाई के केंद्र में आ गई। आप कल्पना करें कि महाराष्ट्र में बिना गठबंधन के भाजपा-शिवसेना का प्रदर्शन इतना श्रेष्ठ है तो गठबंधन कर लड़े होते तो शायद प्रतिपक्ष को काफी हानि उठानी पड़ती। दोनों का गठबंधन लहर के बजाए सुनामी बन जाता। सुनामीशब्द का उपयोग अमित शाह पिछले लोकसभा चुनाव में करते रहे। गठबंधन को तोड़कर भी शिवसेना- भाजपा एक स्वाभाविक सहयोगी हैं। वे विचारधारा के स्तर पर ही नहीं संगठनात्मक स्तर पर भी काफी करीब हैं। यह साधारण नहीं है कि गठबंधन की टूट के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ठीक नहीं ठहराया था। किंतु एक बार की दोस्ताना जंग ने बहुत कुछ साफ कर दिया है और हालात ऐसे बना दिए हैं दोनों दलों का साथ आना तय हो गया है। यह वैसे भी तय था क्योंकि शिवसेना ने रिश्तों के बिगड़ने के बावजूद केंद्र से अपने मंत्री का इस्तीफा नहीं लिया था। अब बनने वाली सरकार दरअसल उम्मीदों के पहाड़ पर खड़ी सरकार होगी। प्रधानमंत्री मोदी की वाणी पर भरोसा कर दोनों राज्यों की जनता ने भाजपा को सर्वाधिक समर्थन देकर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया है। हरियाणा और महाराष्ट्र में लंबे समय से कांग्रेस सत्ता में रही है अब जबकि 1995 के बाद एक अरसे बाद महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनने जा रही है तो वह एक बेहतर शासन देने के वादे पर ही स्वीकार्य हुयी है। जनादेश स्पष्ट तौर पर भाजपा-शिवसेना के पक्ष में है। इसलिए इस जनादेश की भावना समझना और उस अनुरूप आचरण करना दोनों दलों की जिम्मेदारी है।
   भाजपा-शिवसेना के लिए यह अवसर एक चुनौती भी है कि वे महाराष्ट्र की पटरी से उतरती गाड़ी को पुनः ट्रेक पर लाएं। इसी तरह विकसित राज्य होने के बावजूद हरियाणा ने पिछले दस सालों में अलग तरह की चुनौतियों का सामना किया है। हुडडा की सरकार से लोगों का काफी शिकायतें रही हैं। बेरोजगारी के अलावा तमाम सामाजिक संकट हरियाणा के सामने खड़े हैं। इसमें जमीनों और कृषि से जुड़ी समस्याएं भी हैं। इन सबसे जूझते हुए सुशासन और अनुशासन दोनों प्रदान करना नई सरकार की जिम्मेदारी है।

     दो राज्यों के चुनाव परिणामों ने एक दल के रूप में भाजपा की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब सुशासन और विकास के सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी उसकी ही है। एक रणनीतिकार के तौर पर अमित शाह का भाजपा की केंद्रीय राजनीति में आगमन उसके लिए शुभ साबित हुआ है। वे फैसले लेने वाले और उस पर अमल करवा ले जाने वाले नेता के तौर पर पहचान बना रहे हैं। भाजपा के संगठन को अरसे से एक ऐसे नायक की तलाश थी। लालकृष्ण आडवानी के बाद वे शायद वे पहले ऐसे अध्यक्ष हैं जिसका इकबाल इस तरह कायम हुआ है। वे सही मायने में संगठन की समझ और उसके निर्णयों को लेकर काफी सचेत दिखते हैं। दल के सार्वजनिक चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी इसमें एक निधि की तरह हैं। बहुत दिनों के बाद भाजपा में अटल-आडवानी के विकल्प की तरह एक जोड़ी मोदी-शाह के रूप में ख्यात हो सकती है। देखना है अटल-आडवानी के युग के समापन के बाद आई यह जोड़ी पार्टी और सरकार को कैसे और कितनी दूर तक ले जाती है। फिलहाल तो इस जीत पर मुग्ध भाजपाईयों को दीवाली की शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं। दीवाली और जीत का खुमार उतरे तो उन्हें भी डटकर काम में लगना होगा, आखिर देश की जनता भी तो यही चाहती है और उनके नेता नरेंद्र मोदी भी।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

अंधेरों की चीरती शब्दों की रौशनी – हिन्द स्वराज्य

-संजय द्विवेदी



  महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य  हमारे समय के तमाम सवालों से जूझती है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है कि पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था। 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।
गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चा पन नजर आया। गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। मिडलटन मरी कहते हैं- गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है। हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।
वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।
महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।
वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है।
गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।
गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं। एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं। गांधी कहते हैं- हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।
महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।
गांधी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं उनपर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिंदु-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। हमारी राजनीति की मुख्यधारा के नेता अगर गांधी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिंदु-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे। वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे जैसे की गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि  मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगें।

हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।

सोमवार, 29 सितंबर 2014

सार्वजनिक जीवन से शुचिता के निर्वासन का समय

-संजय द्विवेदी


    तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का जेल जाना एक ऐसी सूचना है जो कानून के प्रति आदर बढ़ाती है। यह बात बताती है कि आप कितने भी शक्तिमान हों, कानून की नजर में आ जाने पर आपका बचना मुश्किल है। एक सक्षम प्रशासक, जनप्रिय राजनेता और प्रभावी हस्ती होने के बावजूद जयललिता को जेल जाना पड़ा। उन पर सौ करोड़ रूपए का जुर्माना भी लगाया गया है। कानून की यह ताकत ही किसी भी लोकतंत्र का प्राणतत्व है। झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौडा, शिबू सोरेन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव,कांग्रेस नेता रशीद मसूद, सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत राय, संत आशाराम बापू जैसे तमाम उदाहरण हमारे आसपास दिखते हैं, जिसमें कानून ने अपनी शक्ति और निष्पक्षता का अहसास कराया है। ताकतवर लोग आज भले जेल के सीकचों के पीछे दिखते हैं किंतु इससे यह कहा नहीं जा सकता कि ये सिलसिला रूक जाएगा। हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां और वातावरण भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भ्रष्ट आचरण के लिए विवश कर रहा है। ऐसे में हमें उन विचारों की तरफ बढ़ना चाहिए जिससे राजनीति में धन का महत्व कम हो और सेवा के मूल्य स्थापित हों। वर्तमान व्यवस्था में तो राजनेताओं से शुचिता, सादगी की अपेक्षा करना संभव नहीं है।

मदांध आचरण का फलितार्थः
   यह घटना सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली हस्तियों के लिए एक संदेश भी है कि सत्ता और प्रभाव के नशे में चूर होकर मदांध आचरण कभी भी आपको आपकी सही जगह पहुंचा सकता है। देर के बावजूद कानून के राज में अंधेर नहीं है। चीजें पुख्ता होकर आपके खिलाफ खड़ी हो ही जाती हैं। कहा भी जाता है कि सत्ता पाए केहि मद नहीं।सत्ता और प्रशासन में बड़े पदों पर बैठे लोग जिस तरह मदांध होकर आचरण करते हैं,कानूनों को अपने हिसाब से बनाते और इस्तेमाल करते हैं उससे बड़ा खतरा खड़ा होता है। जयललिता मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी खजाने से मात्र एक रूपए वेतन लेती थीं, किंतु उनका निजी खजाना बढ़ता ही रहा । ऐसी सूचनाएं विस्मित भी करती हैं और ऐसी ईमानदारी को प्रश्नांकित भी करती हैं। एक प्रशासक और लोकप्रिय नेता के रूप में आज भी अपने समर्थकों के लिए वे पूज्य हैं। किंतु निजी ईमानदारी का सवाल आज सबसे बड़ा है। जनता के बीच उनकी छवि उन्हें एक लोकनेता से ईश्वर का अवतार तक बनाती हुयी दिखती है। यह उनके समर्थकों का अधिकार भी है। किंतु यहां यह देखना होगा कि सत्ता का दुरूपयोग करते हुए हमारे राजनेता किस तरह सार्वजनिक धन को निजी संपत्ति में बदलने की प्रतियोगिता में लगे हैं। इस मामले में शशिकला और मुख्यमंत्री के परित्यक्त दत्तक पुत्र को चार साल की कैद और दस-दस करोड़ का जुर्माना लगाया गया है।यह बात बताती है किस तरह मुख्यमंत्री के आसपास रहे लोगों ने भी जमकर पैसे की बंदरबांट की है या जयललिता के पद पर होने का लाभ उठाया है। राजनीतिक क्षेत्र की यह आम कथा है कि लोग पहले नेता पर पैसे लगाते हैं फिर उसके सफल होने पर उसके  प्रभाव का जमकर लाभ उठाते हुए जायज-नाजायज तरीकों से धन का अर्जन करते हैं। देश भर से सार्वजनिक धन, जमीनों, खदानों, दूकानों, मकानों और उद्योगों के लूट की कहानियां आ रही हैं। किंतु सिलसिला रूकने के बजाए तेज हो रहा है।

पैसे की प्रकट पिपासाः
कभी सार्वजनिक जीवन में आने वाले लोग मस्तमौला, बिंदास और साधारण जीवन जीने वाले लोग होते थे। उनके जीवन की सादगी से कार्यकर्ता प्रेरित होते थे और उनसा बनने-दिखने का प्रयास करते थे। महात्मा गांधी ने सादगी को भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित किया तो कांग्रेस के विरोधी विचारों के नेता राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय जैसे तमाम लोग भी इसे स्वीकारते दिखे। कांग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी, जनसंध की हर धारा के नायक सादगी और सज्जनता की प्रतिमूर्ति थे। उनके सार्वजनिक और निजी जीवन में सादगी का प्रगटीकरण दिखता है। बहुत बड़े और धनी परिवारों से आए राजनेता भी सादगी में लिपटे होते थे। खद्दर के साधारण कपड़े उनकी पहचान बन जाते थे, सेवा ही उनका काम। राजनीति से यह सादगी आज लुप्त होती दिखती है। नेताओं का वैभव बढ़ने लगा और उनकी संपत्ति भी। सार्वजनिक धन को निजी धन में तब्दील करने की यह स्पर्धा आज चरम पर है। खासकर उदारीकरण के बाद के दौर में राजनीतिक क्षेत्र में विकृति के किस्से आम होने लगे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और विचारक राजनेता पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र कहा करते थे कि जिस व्यक्ति को राजनीति करनी हो उसे व्यापार नहीं करना चाहिए और जिसे व्यापार करना हो उसे राजनीति नहीं करनी चाहिए।किंतु में एक ऐसी पीढ़ी आयी जिसके लिए राजनीति ही एक व्यापार बन गयी। आज सौ-हजार करोड़ जमा करने की प्रतियोगिता में ज्यादातर राजनेता शामिल हैं। उनकी नामी-बेनामी सपत्तियां बढ़ती जा रही हैं, शर्म घटती जा रही है। पैसे बांटकर चुनाव जीतने की स्पर्धा चरम पर है। वोटबैंक इसमें उनका मददगार बनता है।

महंगी होती राजनीतिः

 सार्वजनिक जीवन से यह सादगी और शुचिता के निर्वासन का समय है। महंगी होती राजनीति, महंगे होते चुनाव आज की एक बड़ी चुनौती हैं। किसी पद पर न रहने वाले राजनेता के लिए रोजाना की राजनीति का खर्च भी निकालना कठिन है। बड़ी गाड़ियां, रोजाना के खर्च, खुद को बाजार में बनाए रखने के लिए चमकते फ्लैक्स और अखबारी विज्ञापन की राजनीति कष्टसाध्य है। आज की राजनीति में पैसे का बढ़ता महत्व चिंता में डालता है। राजनीति के शिखरपुरूषों का आज बेदाग रहना कठिन है।पार्टियों के संचालन में लगने वाला खर्च बताता है कि चीजें साधारण नहीं रह गयी हैं।लोकतंत्र की मंडी में राजनीति अब साधारण नहीं है। आप देखें तो राज्यों का नेतृत्व तमाम आरोपों से घिरा है। स्थानीय और छोटी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर ऐसे आरोप ज्यादा दिखते हैं। क्या कारण है टिकट से लेकर वोट भी खरीदे और बेचे जाते हैं। राजनीति की यह अवस्था चिंता में डालती है। जब हमारे नायक ही ऐसे होंगें तो वे समाज को क्या प्रेरणा देंगें। वे देश में शुचिता की राजनीति को कैसे स्थापित करेंगें? मधु कौड़ा से लेकर लालू यादव और जयललिता तक एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। सवाल यह भी है कि क्या बिना पैसे के राजनीति की जा सकती है। सवाल यह भी है कि काले पैसे से बनता और सृजित होता लोकतंत्र कैसे वास्तविक जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर सकता है?

प्रधानमंत्री के सपनों की दुनियाः मेक इन इंडिया

-संजय द्विवेदी


   प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेकइन इंडिया की योजना का शुभारंभ करते हुए एक ऐसे भारत का सपना देखा है, जिसमें रोजगार सृजन की अभूतपूर्व संभावनाएं अर्जित की जा सकती हैं। यह एक ऐसी योजना है जो एक नौजवान देश के हाथों को काम दे सकती है और व्यापार तथा उद्योग के क्षेत्र में देश एक लंबी छलांग लगा सकता है।
  इस अभियान के दो खास उद्देश्य हैं, जिसमें देश के युवाओं को काम उपलब्ध कराना तथा वैश्विक उद्योग जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना है। देश में मैनुफैक्चरिंग यानी विनिर्माण क्षेत्र को एक नई उंचाई की ओर ले जाना इस योजना का लक्ष्य है। इसके नतीजे निश्चित रूप से भारतीय उद्योग को एक नई उर्जा से भर देगें। दुनिया भर के बाजारों में आ रही मंदी के दौर के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की गति और प्रगति बनी हुयी है। मेकइन इंडिया इसे और प्रखर बनाएगा। भारत की संभावनाओं और उसमें छिपे अवसरों का अभी पूरी तरह प्रगटीकरण नहीं हुआ है। दुनिया में सर्वाधिक युवा आबादी का देश होने के नाते हर तरह के काम कर सकने वाली श्रमशक्ति हमारे पास मौजूद है। इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री मेकइन इंडिया के साथ-साथ ही स्किल डेवलेपमेंट यानि कौशल विकास की बात भी कर रहे हैं। तमाम तरह के कौशल से युक्त नौजवान आज अपने सपनों में रंग भर सकता है। जब उसके सामने अवसर होंगें तो वह उन उपलब्ध अवसरों को प्राप्त करते हुए देश की प्रगति में अपना योगदान दे सकता है। एक ठहरी हुए प्रगति के बजाए छलांग लगाकर आगे बढ़ने की भावना इससे बलवती हो सकती है।
    मेकइन इंडिया के चलते देश में कारोबारी माहौल में खासा बदलाव आएगा और दुनिया भर के निवेशक हमारी ओर आकर्षित होंगें। निवेशकों के अनूकूल वातावरण बनाना और उन्हें पल-पल होती कठिनाइयों से निजात दिलाकर उनके काम में सहयोगी माहौल देना भी इस योजना के लक्ष्य हैं। जाहिर तौर पर सरकार ने मेकइन इंडिया को प्रारंभ करने से पहले इस योजना के लक्ष्यों और इसके रास्ते आने वाली कठिनाईयों पर भी सोचा है। चिंतन किया है। यह योजना सिर्फ एक नारा नहीं है, बल्कि नए भारत का नया नजरिया भी है। जिसमें एक विकास दृष्टि तो है ही साथ ही अपने युवाओं को प्रशिक्षित कर एक नया वातावरण देने की तैयारी भी है। प्रधानमंत्री का कारोबारियों से यह वादा करना साधारण नहीं है कि वे उनका पैसा डूबने नहीं देगें। यह धोषणा निश्चय ही कारोबारियों और निवेशकों का हौसला बढ़ाती है। लालफीताशाही को कम करने, कर ढांचे को सरल बनाने की निरंतर कोशिशें बताती है कि केंद्र सरकार अपने सपनों को सच करने की दिशा में प्रयास कर रही है।
   तमाम कठिनाईयों के चलते आज देश के बड़े उद्यमी भी दुनिया के तमाम देशों में निवेश कर रहे हैं। अप्रवासी भारतीय भी जो आज उद्यमिता की दुनिया में बड़ा नाम बना चुके हैं, लालफीता शाही के चलते स्वदेश में निवेश से घबराते हैं। प्रधानमंत्री इस समुदाय की चिंताओं को समझते हुए निरंतर एक सकारात्मक वातावरण बनाने के प्रयास कर रहे हैं। अमरीका में भी भारत वंशियों से संवाद करते हुए उन्होंने यह आह्वान किया कि उनका एक पैर भारत में भी होना चाहिए। यह सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहने का आह्वान भर नहीं है बल्कि देश की प्रगति में भारतवंशियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की अपील भी है। प्रधानमंत्री स्वयं मानते हैं कि तमाम पुराने पड़ चुके कानून अब अप्रासंगिक हो चुके हैं। अप्रवासी भारतीयों, विदेशी पर्यटकों और निवेशकों को आकर्षित करने वाली नीतियों से ही आने वाला भारत खुशहाल हो सकता है। इसीलिए वे भारतीय की संभावनाओं से पूरी दुनिया को परिचित करवा रहे हैं।
   तमाम देशों में उनका भ्रमण और अन्य नेताओं का भारत आना एक नए तरह के संवाद को जन्म दे रहा है। जिससे एक आत्मविश्वास और भविष्य की ओर देखते भारत का चेहरा सामने आ रहा है। मेकइन इंडिया एक नारा नहीं सरकार और जनता का सामूहिक संकल्प है। देश की चौतरफा प्रगति के सपने देख रहे लोगों और युवाओं को विकास की धारा से जोड़ने और उनकी क्षमताओं का प्रदर्शन भी इसमें जुड़ा है। आज देश में लघु और मध्यम उद्योगों की विकास दर लगभग दस प्रतिशत है। इसमें रोजगार की अपार संभावनाएं छिपी हैं। करीब आठ करोड़ लोग अपनी आजीवका इनसे प्राप्त करते हैं। मेकइन इंडिया के माध्यम से मैनुफैक्चरिंग उद्योगों का खासा विकास हो सकता है और रोजगार सृजन की अपार संभावनाएं पैदा हो सकती हैं।
    मेकइन इंडिया का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा था कि पूरी दुनिया को भारत एक बहुत बड़ा बाजार नजर आता है,लेकिन जब तक यहां के लोगों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी, बाजार बन नहीं सकता। प्रधानमंत्री की चिंता में वे लोग हैं जो गरीबी और मुफलिसी में जिंदगी गुजार रहे हैं। उनके जीवन स्तर को उठाना, उनका कौशल विकास कर उन्हें काम में लगाना उनकी चिंता का हिस्सा है। एक समर्थ भारत बनाने के उनके सपनों में सही मायने में अंतिम व्यक्ति का उत्थान ही निहित है। आखिरी आदमी को ताकत दिए बिना हम विश्व शक्ति नहीं बन सकते प्रधानमंत्री इस बात को बार-बार रेखांकित करते हैं। मेकइन इंडिया उसी उजले और समर्थ भारत का एक चेहरा बन सकता है, जिसका सपना हम भारत के लोग देख रहे हैं। सही मायने में यह अभियान, विकास की दिशा में भारत सरकार का एक महत्वाकांक्षी कदम है, जो जनसहभागिता से निश्चित ही अपने लक्ष्यों को हासिल कर सकेगा।



बुधवार, 17 सितंबर 2014

राजनाथ को सराहौं या सराहौं आदित्यनाथ को!






-संजय द्विवेदी
  भारतीय जनता पार्टी में लंबे समय से एक चीज मुझे बहुत चुभती रही है कि आखिर एक ही दल के लोगों को अलग-अलग सुर में बोलने की जरूरत क्या है? क्यों वे एक सा व्यवहार और एक सी वाणी नहीं बोल सकते? माना कि कुछ मुद्दों पर बोल नहीं सकते तो क्या चुप भी नहीं रह सकते? एक जिम्मेदार पार्टी की तरह आचरण क्या बहुत जरूरी नहीं है?
     ऐसे समय में जब देश में एक राजनीतिक शून्य है। कांग्रेस, माकपा, भाकपा और बसपा जैसे राष्ट्रीय दल अपने सबसे बुरे अंजाम तक पहुंच चुके हैं, क्योंकि संसदीय राजनीति में संख्याबल का विशेष महत्व है। भाजपा जैसे दल जिसे देश की जनता ने अभूतपूर्व बहुमत देकर दिल्ली की सत्ता दी है, उसके नायकों का आचरण आज संदेह से परे नहीं है। आचरण व्यक्तिगत शुचिता और पैसे न लेने से ही साबित नहीं होता। वाणी भी उसमें एक बड़ा कारक है। पिछले दिनों में घटी दो घटनाओं ने यह संकेत किए हैं कि अभी भी भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को ज्यादा जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है। पहली घटना लव जेहाद पर बनाए गए वातावरण की है, दूसरी छोटी किंतु उल्लेखनीय घटना उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहर लाल कौल के खिलाफ प्रदर्शन से जुड़ी है, जिसके बाद उन्हें आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा।
    पहले लव जेहाद का प्रसंग। अपने सौ दिनों के कामकाज को प्रेस से बताते हुए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि वे नहीं जानते कि लव जेहाद क्या है। माना जा सकता है कि उन्हें नहीं पता कि लव जेहाद क्या है। किंतु उन्हें अपने सांसदों आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे लोगों को नियंत्रित करना चाहिए कि पहले वे गृहमंत्री और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते पता कर लें लव जेहाद क्या है। तब ये संत-सांसद अपने विचार जनता के सामने रखें। आखिर आपने जनता को क्या समझ रखा है? एक तरफ आपके सांसद और कार्यकर्ता लव जेहाद को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं तो दूसरी ओर पार्टी और सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की यह मासूम अदा कि वे इसे जानते ही नहीं चिंता में डालने वाली है। यह बात बताती है कि संगठन में या तो गहरी संवादहीनता है या आजादी जरूरत से ज्यादा है। भाजपा के कुछ समर्थकों को अगर लगता है कि लव जेहाद देश के सामने बहुत बड़ा खतरा है तो पूरी पार्टी और सरकार को तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए और ऐसी वृत्ति पर रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए। क्योंकि धोखा और फरेब देकर स्त्रियों के खिलाफ अगर जधन्य अपराध हो रहे हैं जिस पर दल के सांसद और कार्यकर्ता चिंतित हैं तो यह बात उसी दल के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अब गृहमंत्री की चिंताओं में क्यों नहीं होनी चाहिए? आपको तय करना पड़ेगा कि आखिर इस मामले का आप समाधान चाहते हैं, स्त्री की सुरक्षा चाहते हैं या यह मामला सिर्फ राजनीतिक लाभ और धुव्रीकरण की राजनीति का एक हिस्सा है। केंद्रीय सत्ता में होने के नाते अब, आरोप लगाकर भाग जाने वाला आपका रवैया नहीं चलेगा। दूसरे सामाजिक संगठन लव जेहाद के विषय पर सामने आ रहे हैं यह उनकी आजादी भी है कि वे आएं और प्रश्न करें। किंतु देश का एक जिम्मेदार राजनीतिक दल, केद्रीय गृहमंत्री और उनके सांसदों को किसी विषय पर अलग-अलग बातें करने की आजादी नहीं दी जा सकती। झारखंड के तारा शाहदेव के मामले के बाद अखबारों और टीवी मीडिया में तमाम मामले सामने आए हैं, तमाम पीड़ित महिलाएं सामने आयी हैं। जिससे इस विषय की गंभीरता का पता चलता है। यह साधारण मामला इसलिए भी नहीं है क्योंकि स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी इस विषय पर अपनी बात कही। संघ के मुखपत्र पांचजन्य और आर्गनाइजर ने इसी विषय पर अपनी आवरण कथा छापी है। ऐसे में गृहमंत्री का वक्तव्य आश्चर्य में डालता है। ऐसे में सरकार को, भाजपा संगठन को अपना रूख साफ करना चाहिए कि वह इस विषय पर अपनी क्या राय रखते हैं।
  दूसरा विषय कश्मीर से जुड़ा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने जिस तत्परता से कश्मीर पर आए संकट में आगे बढ़कर मदद के हाथ बढ़ाए,अपनी संवेदना का प्रदर्शन किया। उसकी सारे देश में और सीमापार से भी सराहना मिली। एक राष्ट्रीय नेता की तरह उनका और उनकी सरकार का आचरण निश्चय ही सराहना योग्य है। स्वयं प्रधानमंत्री और उनके दिग्गज मंत्रियों राजनाथ सिंह, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, डा. जितेंद्र सिंह ने जिस तरह तुरंत पहुंच कर वहां राहत की व्यवस्थाएं सुनिश्चत कीं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यही इस देश की शक्ति है कि वह संकट में एक साथ खड़ा हो जाता है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार द्वारा पैदा की गयी इसी राष्ट्रीय संवेदना का विस्तार हमें उज्जैन में देखने को मिला, जहां विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.जवाहरलाल कौल की कश्मीरी छात्रों की मदद करने की अपील उन पर भारी पड़ गयी और वे अस्पताल पहुंच गए। यह घोर संवेदनहीनता का मामला है जहां एक कुलपति और विद्वान प्रोफेसर को बजरंग दल और विहिप कार्यकर्ताओं के गुस्से का शिकार होना पड़ा। डा. कौल जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं और जाने-माने विद्वान हैं। वे स्वंय काश्मीरी हैं। उनका यह बयान काश्मीरी होने के नाते नहीं, एक मनुष्य होने के नाते बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले काश्मीरी विद्यार्थियों को उनके मकान मालिक बाढ़ आपदा के चलते कुछ महीनों के लिए किराए में रियायत दें और उन्हें तत्काल किराया देने के लिए बाध्य न करें। क्या ऐसा संवेदनशील बयान किसी तरह की आलोचना का कारण बन सकता है। जबकि देश के अनेक हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन स्वयं काश्मीर के सैलाब पीड़ितों के निरंतर मदद हेतु अभियान चला रहे हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री और संघ परिवार के संगठन राहत के लिए काम कर रहे हैं। भारतीय सेना और सरकारी संसाधन जम्मू-कश्मीर में झोंक रखे हैं। ऐसी मानवीय आपदा के समय ऐसी सूचनाएं आहत करती हैं। उज्जैन की यह घटना समूचे संगठन की समझ पर तो सवाल उठाती ही है, घटना के बाद नेताओं की चुप्पी भी खतरनाक है। क्या एक शिक्षा परिसर में इस प्रकार की गुंडागर्दी की आजादी किसी को दी जानी चाहिए कि वह कुलपति कार्यालय में घुसकर न सिर्फ तोड़ फोड़ करें बल्कि इस अभ्रदता से आहत कुलपति को आईसीयू में भर्ती करना पड़े। सरकार को चाहिए कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ न सिर्फ कड़ी कार्रवाई हो बल्कि उन्हें संगठन से बाहर का रास्ता भी दिखाना चाहिए। एक व्यापक मानवीय त्रासदी पर, जब मनुष्य मात्र को उसके खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट होना चाहिए तब ऐसी सूचनाएं बताती हैं कि हमारे राजनीतिक समाज को अभी सांस्कृतिक साक्षरता लेने की जरूरत है। कर्म और वाणी का अंतर ही ऐसी घटनाओं के मूल में है। नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत इस रवैये से नहीं बन सकता, तय मानिए।
(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं, विचार निजी तौर व्यक्त किए गए हैं)

     

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है?

यह सवाल आज फिर मौजूं हो उठा है कि आखिर सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है? देश के तमाम इलाकों में घट रही घटनाएं बताती हैं कि समाज में नैतिकता और समझदारी के बीज अभी और बोने हैं। हिंसा कर रहे समूह, या हिंसक विचारों को फैला रहे गुट आखिर यह हिंसा किसके खिलाफ कर रहे हैं? वे किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? मानवता के मूल्यों और धार्मिकता को भूलने से ही ऐसे मामले खड़े होते हैं। कभी देश की राजनीति को दिशा देने वाले उत्तर प्रदेश ने अपना चेहरा इस मामले में सबसे अधिक बदरंग किया है। 
उत्तर प्रदेश में आए दिन हो रही हिंसक वारदातें बता रही हैं कि लोगों में कानून का, प्रशासन का खौफ नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह कि राजसत्ता ही इन वृत्तियों को बढ़ाने में सहायक बन रही है। राजसत्ता का यह चरित्र बताता है कि कैसे समय बदला है और कैसे राजनीति बदल रही है। एक चुनाव से दूसरा चुनाव और एक उपचुनाव से दूसरा उपचुनाव यही आज की राजनीति के लक्ष्य और संधान हैं। इसमें जनता की गोलबंदी जनता के एजेंडे पर नहीं, उसके विरूद्ध की जा रही है। जनता को यह नहीं बताया जा रहा है कि आखिर उसके सपनों की दुनिया कैसे बनेगी, कैसे भारत को एक समर्थ देश के रूप में तब्दील किया जा सकता है? उसे पंथ के नारों पर भड़काकर, उसके धर्म से विलग किया जा रहा है। यह वोट बैंक बनाने की राजनीति इस राष्ट्र की सबसे बड़ी शत्रु है।
बांटो और राज करोः
  अंग्रेजी राज ने हमें कुछ सिखाया हो या न सिखाया हो, बांटना जरूर सिखा दिया है। ‘एक राष्ट्र और एक जन’ के भाव से विलग हम एक राष्ट्र में कितने राष्ट्र बनाना चाहते हैं? देश की आम जनता के मनोभावों को विकृत कर हम उनमें विभेद क्यों भरना चाहते हैं? क्या हमारी कुर्सियों की कीमत इस देश की एकता से बड़ी है? क्या हमारी राजनीति लोगों के लिए नहीं, कुर्सियों के लिए होगी? ऐसे तमाम सवाल हैं जो हमारे समाज को मथ रहे हैं। हम एक परिवार और एक माता के पुत्र हैं, यही भावना हमें बचा सकती है। 
हम भारत के लोग अपनी एकता और अखंडता के लिए जब तक कृतसंकल्पित हैं, तभी तक यह देश सुरक्षित है। यह कैसा समय है कि हमारे नौजवान खून बहाते ईराकी लड़ाकों की मदद के लिए निकल जाते हैं? क्या हमारी मातृभूमि अब खून बहाने वाले हत्यारों को जन्म देगी? हमें सोचना होगा कि आखिर यह जूनुन हमारे समाज को कहां ले जाएगा? गौतम बुद्ध,गांधी और महावीर के देश में यह कैसा जहर पल रहा है। हमने दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया है। अपने भारतीय दर्शन में सबके लिए जगह दी है। विरोधी विचारों को भी स्वीकारा और अंगीकार किया है। आखिर क्या कारण है कि यह आतंक, हिंसा और तमाम तरह की दुश्चितांएं हमारे देश को ग्रहण लगा रही हैं?
एक राष्ट्र-एक जन का भाव जगाएः
 हमारी आज की राजनीति भले फूट डालने वाली हो, किंतु हमारे नायक हमें जोड़ना सिखाते हैं। महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया से लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सिखाए पाठ हमें बताते हैं कि किस तरह हम एक मां के पुत्र हैं। किस रास्ते से हम दुनिया के सामने एक वैकल्पिक और शांतिपूर्ण समाज का दर्शन दे सकते हैं। हमें ये नायक बताते हैं कि हमारी जड़ों और उसकी पहचान से ही हमें यह अवसर मिलेगा कि हम कैसे खुद को एक नई यात्रा पर डाल सकें। दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन, इसी की बात करता है। वे भारत राष्ट्र की संकल्पना करते हुए ‘एक राष्ट्र -एक जन’ की बात करते हैं। यह बहुत गहरी बात है। जब हम सब एक मां के बेटे हैं, एक मां के पुत्र हैं। तो हम सब भाई-बहन हैं। हमारे पुरखे, हमारे नायक, हमारी आकांक्षाएं, हमारे सपने समान हैं। अगर हम यह मान लें तो सांप्रदायिकता की समस्या का अंत तुरंत हो जाएगा। किंतु सांप्रदायिक सवालों पर हम चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं। हमें यह मानने में आज भी हिचक है कि सांप्रदायिकता-सांप्रदायिकता है, उसका रंग अलग-अलग नहीं होता। सांप्रदायिकता मुस्लिम हो या हिंदू, वह सांप्रदायिकता है। दंगाईयों को अलग-अलग रंगों से देखने और व्यवहार करने के कारण सत्ता और राजनीति दोनों प्रश्नांकित होते हैं। 
कानून को अगर अपना काम करने दिया जाए और सांप्रदायिकता फैला रहे तत्वों के साथ कड़ाई से निपटा जाए तो ऐसे घटनाएं रोकी जा सकती हैं। इसके साथ ही हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में यह बात भी जोड़ने की जरूरत है जिससे राष्ट्रवाद और भारतीयता के विचारों को बल मिले। सांप्रदायिकता की भावना को प्रचारित करने और युवाओं का गलत इस्तेमाल करने वाली ताकतों को कड़ाई से कुचल दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय संकट पर ही नहीं सामान्य दिनों में भी बनें राष्ट्रवादीः
 भारत का संकट यह है कि हम संकट के दिनों में ही राष्ट्रवादी बनते हुए दिखते हैं। जैसे इस समय कश्मीर गहरे संकट में है, तो पूरा देश उस पीड़ा को महसूस करते हुए उसके दर्द में साथ खड़ा है। यही राष्ट्रीय भावना है, कि देश के किसी भी हिस्से में भारत मां के पुत्र दुखी हैं तो वह दुख हमें भी अनुभव होना चाहिए। उदाहरण के लिए केरल के किसी गांव में यह खबर आती है कि चीनी सैनिकों ने हमारे कुछ भारतीय सैनिकों की हत्या की है तो उस गांव में दुख फैल जाता है। लोग अपनी चर्चाओं में दुख व्यक्त करते हैं। सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि देते हैं। जबकि उन सैनिकों में कोई भी न तो उस गांव का, केरल का या वहां रह रही जातियों का है। किंतु समान दुख, वह सब भी अनुभव करते हैं जो एक उत्तर भारतीय करता है। यही राष्ट्रीय भावना है। दरअसल इसे ही पोषित करने की जरूरत है।
  
यह दुखद है कि हमारे नौजवान ईराक की धर्मांध आतंकी हिंसा को पोषित करने के लिए जा रहे हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हमने अपने इन नौजवानों का पालन-पोषण कैसे किया है। कैसे एक भारतीय किसी दूसरे देश की जमीन पर जाकर निर्दोष बच्चों और महिलाओं को कत्ल को अंजाम देने वाले समूहों के साथ खड़ा हो रहा है? बढ़ती सांप्रदायिकता, सांप्रदायिक विचार हमारी युवा शक्ति को रचना के मार्ग से विरत कर रहे हैं। 

इसलिए वे विध्वंश रच रहे हैं। आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न युवा की पूरी जिंदगी तबाह हो जाती है। उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। ऐसी अंधसांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने और खड़ा होने का साहस हमारे समाज को विकसित करना होगा। भारत इस समय बेहद कठिन समय से गुजर रहा है, जब उसके सामने एक उजला भविष्य तो है किंतु उसके उजले भविष्य को ग्रहण लगाने वाली ताकतें भी बहुत सक्रिय हैं। हमें यह कोशिशें तेज करनी होगीं कि राष्ट्रविरोधी विचारों, सांप्रदायिक राजनीति करने वालों और भाई-भाई में मतभेद कर अपनी राजनीति करने वालों की पहचान करें। एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए भारत का अपना विचार हमारे साथ है। हम ही हैं जो दुनिया को उसकी विविधताओं-विभिन्नताओं-विशेषताओं के साथ स्वीकार कर सकते हैं। यह जिम्मेदारी हमने आज नहीं ली तो कल बहुत देर हो जाएगी।