रविवार, 19 अक्तूबर 2014

मोदीमय भारत या कांग्रेसमुक्त भारत!

-संजय द्विवेदी

 भारतीय राजनीति का यह मोदी समय है। हर तरफ मोदी। चारो तरफ मोदी। भाजपा में मोदी, कांग्रेस में भी मोदी। आप मोदी को नकारें या स्वीकारें उन्हें इग्नोर नहीं कर सकते। नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति की एक ऐसी परिघटना हैं जिसने लंबे समय के बाद व्यक्तित्व के जादू या करिश्मे का अहसास देश को कराया है। कांग्रेस की परंपरा में पंडित जवाहरलाल नेहरू का ऐसा ही करिश्मा और व्यक्तित्व रहा है, इंदिरा जी उससे कम, किंतु करिश्माई नेत्री रहीं। वहीं अपने विचार परिवार और भारतीय विपक्ष की पूरी परंपरा में नरेंद्र मोदी सबसे करिश्माई नेता बनकर उभरे हैं। यहां तक कि चुनावी सफलताओं के मामले में वे अपने दल के सबसे बडे नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी आगे जाते हुए दिख रहे हैं। भारत की जनसंघ और भाजपा की राजनीतिक धारा का यह सही मायने में स्वर्णयुग है। इसने भारतीय राजनीति के सबसे पुराने दल (कांग्रेस) को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है। मैदान में लड़ाईयां भाजपा और क्षेत्रीय दलों में हो रही हैं। कांग्रेस यहां लड़ाई से भी बाहर दिखती है।
   हरियाणा में अपने दम पर सरकार बनाती हुई भाजपा कोई साधारण घटना नहीं है। यह राजनीति का एकदम से बदल जाना है। धारा के विरूद्ध एक सफलता है, जबकि उनके सहयोगी रहे दल हरियाणा जनहित कांग्रेस से लेकर अकाली दल तक यहां भाजपा का विरोध करते दिखते हैं। निश्चय ही नरेंद्र मोदी और भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के आत्मविश्वास ने भी इन परिणामों को इस रूप में व्यक्त किया है। आत्मविश्वास से भरी भाजपा आज हर मैदान में अकेले दम पर उतर कर भी बेहतर परिणाम ला रही है। महाराष्ट्र में जहां शिवसेना उसे 120 सीटें से अधिक एक भी सीट देने को तैयार नहीं थी, अब वहा भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गयी है। एक तरह से यह समय क्षेत्रीय दलों के सिमटने का भी समय है। एक अखिलभारतीय पार्टी को मिलती जनस्वीकृति सुखद है किंतु कांग्रेस की बदहाली चिंता में डालती है। हाल के चुनाव परिणामों में क्षेत्रीय दलों की ताकत सिमट रही है, किंतु कांग्रेस की ताकत नहीं बढ़ रही है। जबकि देश में राष्ट्रीय दल के नाते कांग्रेस और भाजपा दोनों का ताकतवर होना जरूरी है। आप देखें तो हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल प्रमुख विपक्ष बनकर उभरी है तो महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर दिखते हैं। यह बात बताती है कांग्रेस मुक्त भारत का मोदी का नारा सच होता नजर आ रहा है। इन झटकों के बावजूद कांग्रेस के आलाकमान और उसके तंत्र में कोई हलचल होती नहीं दिखती। वे अभी भी अपनी परंपरागत शैली और आरामतलबी में डूबे हैं। कुछ उत्साही प्रियंका लाओ के नारे भी लगा रहे हैं। किंतु यह संकट को अतिसरलीकृत करके देखना है। आज कांग्रेस संगठन विचारशून्यता का एक ऐसा केंद्र बन गया है जहां गांधी परिवार का कोई भी चेहरा उसे चुनावी वैतरणी पार नहीं करवा सकता। शायद इसे ही समय कहते हैं।
  पिछले दिनों उप्र और कुछ अन्य राज्यों के उपचुनावों में प्रतिपक्ष को मिली हल्की-फुल्की सफलताओं से राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी लहर के खात्मे की भविष्यवाणी कर दी थी किंतु अब दो राज्यों के परिणाम बताते हैं भाजपा और नरेंद्र मोदी का जादू अभी टूटा नहीं हैं। वे आज भी देश की ज्यादातर जनता की आकांक्षाओं और सपनों का चेहरा हैं। वे राजनीतिक पटल पर उभरे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनसे लोगों की उम्मीदें कायम हैं। उन्हें इस दिशा में बहुत कुछ करना शेष है, किंतु जनता का भरोसा मोदी में निरंतर है। अपने कठिन परिश्रम और लगातार चुनाव सभाओं से उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में ऐसा वातावरण बना दिया जिससे भाजपा लड़ाई के केंद्र में आ गई। आप कल्पना करें कि महाराष्ट्र में बिना गठबंधन के भाजपा-शिवसेना का प्रदर्शन इतना श्रेष्ठ है तो गठबंधन कर लड़े होते तो शायद प्रतिपक्ष को काफी हानि उठानी पड़ती। दोनों का गठबंधन लहर के बजाए सुनामी बन जाता। सुनामीशब्द का उपयोग अमित शाह पिछले लोकसभा चुनाव में करते रहे। गठबंधन को तोड़कर भी शिवसेना- भाजपा एक स्वाभाविक सहयोगी हैं। वे विचारधारा के स्तर पर ही नहीं संगठनात्मक स्तर पर भी काफी करीब हैं। यह साधारण नहीं है कि गठबंधन की टूट के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ठीक नहीं ठहराया था। किंतु एक बार की दोस्ताना जंग ने बहुत कुछ साफ कर दिया है और हालात ऐसे बना दिए हैं दोनों दलों का साथ आना तय हो गया है। यह वैसे भी तय था क्योंकि शिवसेना ने रिश्तों के बिगड़ने के बावजूद केंद्र से अपने मंत्री का इस्तीफा नहीं लिया था। अब बनने वाली सरकार दरअसल उम्मीदों के पहाड़ पर खड़ी सरकार होगी। प्रधानमंत्री मोदी की वाणी पर भरोसा कर दोनों राज्यों की जनता ने भाजपा को सर्वाधिक समर्थन देकर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया है। हरियाणा और महाराष्ट्र में लंबे समय से कांग्रेस सत्ता में रही है अब जबकि 1995 के बाद एक अरसे बाद महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनने जा रही है तो वह एक बेहतर शासन देने के वादे पर ही स्वीकार्य हुयी है। जनादेश स्पष्ट तौर पर भाजपा-शिवसेना के पक्ष में है। इसलिए इस जनादेश की भावना समझना और उस अनुरूप आचरण करना दोनों दलों की जिम्मेदारी है।
   भाजपा-शिवसेना के लिए यह अवसर एक चुनौती भी है कि वे महाराष्ट्र की पटरी से उतरती गाड़ी को पुनः ट्रेक पर लाएं। इसी तरह विकसित राज्य होने के बावजूद हरियाणा ने पिछले दस सालों में अलग तरह की चुनौतियों का सामना किया है। हुडडा की सरकार से लोगों का काफी शिकायतें रही हैं। बेरोजगारी के अलावा तमाम सामाजिक संकट हरियाणा के सामने खड़े हैं। इसमें जमीनों और कृषि से जुड़ी समस्याएं भी हैं। इन सबसे जूझते हुए सुशासन और अनुशासन दोनों प्रदान करना नई सरकार की जिम्मेदारी है।

     दो राज्यों के चुनाव परिणामों ने एक दल के रूप में भाजपा की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब सुशासन और विकास के सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी उसकी ही है। एक रणनीतिकार के तौर पर अमित शाह का भाजपा की केंद्रीय राजनीति में आगमन उसके लिए शुभ साबित हुआ है। वे फैसले लेने वाले और उस पर अमल करवा ले जाने वाले नेता के तौर पर पहचान बना रहे हैं। भाजपा के संगठन को अरसे से एक ऐसे नायक की तलाश थी। लालकृष्ण आडवानी के बाद वे शायद वे पहले ऐसे अध्यक्ष हैं जिसका इकबाल इस तरह कायम हुआ है। वे सही मायने में संगठन की समझ और उसके निर्णयों को लेकर काफी सचेत दिखते हैं। दल के सार्वजनिक चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी इसमें एक निधि की तरह हैं। बहुत दिनों के बाद भाजपा में अटल-आडवानी के विकल्प की तरह एक जोड़ी मोदी-शाह के रूप में ख्यात हो सकती है। देखना है अटल-आडवानी के युग के समापन के बाद आई यह जोड़ी पार्टी और सरकार को कैसे और कितनी दूर तक ले जाती है। फिलहाल तो इस जीत पर मुग्ध भाजपाईयों को दीवाली की शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं। दीवाली और जीत का खुमार उतरे तो उन्हें भी डटकर काम में लगना होगा, आखिर देश की जनता भी तो यही चाहती है और उनके नेता नरेंद्र मोदी भी।

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