शनिवार, 11 जून 2011

यहां लिखी जा रही है कायरता की पटकथा

-संजय द्विवेदी
भारतीय राज्य की निर्ममता और बहादुरी के किस्से हमें दिल्ली के रामलीला मैदान में देखने को मिले। यहां भारतीय राज्य अपने समूचे विद्रूप के साथ अहिंसक लोगों के दमन पर उतारू था। लेकिन देश का एक इलाका ऐसा भी है जहां इस बहादुर राज्य की कायरता की कथा लिखी जा रही है। यहां हमारे जवान रोज मारे जा रहे हैं और राज्य के हाथ बंधे हुए लगते हैं। बात बस्तर की हो रही हैं, जहां गुरूवार की रात(9 जून,2011) को नक्सलियों ने 10 पुलिसवालों को मौत के घाट उतार दिया। ठीक कुछ दिन पहले 23 मई,2011 को वे एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें छ्त्तीसगढ़ में आम हो गयी हैं। बाबा रामदेव के पीछे पड़े हमारे गृहमंत्री पी. चिंदबरम और केंद्रीय सरकार के बहादुर मंत्री क्या नक्सलवादियों की तरफ भी रूख करेंगें।
खूनी खेल का विस्तारः
भारतीय राज्य के द्वारा पैदा किए गए भ्रम का सबसे ज्यादा फायदा नक्सली उठा रहे हैं। उनका खूनी खेल नित नए क्षेत्रों में विस्तार कर रहा है। निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे नक्सल संगठन हमारे राज्य को निरंतर चुनौती देते हुए आगे बढ़ रहे हैं। उनका निशाना दिल्ली है। 2050 में भारतीय राजसत्ता पर कब्जे का उनका दुस्वप्न बहुत प्रकट हैं किंतु जाने क्यों हमारी सरकारें इस अघोषित युद्ध के समक्ष अत्यंत विनीत नजर आती हैं। एक बड़ी सोची- समझी साजिश के तहत नक्सलवाद को एक विचार के साथ जोड़ कर विचारधारा बताया जा रहा है। क्या आतंक का भी कोई ‘वाद’ हो सकता है? क्या रक्त बहाने की भी कोई विचारधारा हो सकती है? राक्षसी आतंक का दमन और उसका समूल नाश ही इसका उत्तर है। किंतु हमारी सरकारों में बैठे कुछ राजनेता, नौकरशाह, मीडिया कर्मी, बुद्धिजीवी और जनसंगठनों के लोग नक्सलवाद को लेकर समाज को भ्रमित करने में सफल हो रहे हैं। गोली का जवाब, गोली से देना गलत है-ऐसा कहना सरल है किंतु ऐसी स्थितियों में रहते हुए सहज जीवन जीना भी कठिन है। एक विचार ने जब आपके गणतंत्र के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है तो क्या आप उसे शांतिप्रवचन ही देते रहेंगे। आप उनसे संवाद की अपीलें करते रहेंगे और बातचीत के लिए तैयार हो जाएंगे। जबकि सामने वाला पक्ष इस भ्रम का फायदा उठाकर निरंतर नई शक्ति अर्जित कर रहा है।
यह आम आदमी की लडाई नहीं:
देश को तोड़ने और आम आदमी की लड़ाई लड़ने के नाम पर हमारे जनतंत्र को बदनाम करने में लगी ये ताकतें व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा उठाना चाहती हैं। अफसोस, व्यवस्था के नियामक इस सत्य को नहीं समझ रहे हैं। वे तो बस शांति प्रवचन करते हुए लोकतंत्र की कायरता के प्रतीक बन गए हैं। अपने भूगोल और अपने नागरिकों की रक्षा का धर्म हमें लोकतंत्र ही सिखाता है। निरंतर मारे जा रहे आदिवासी समाज के लोग और हमारे पुलिस और सुरक्षा बलों के जवान आखिर हमारी पीड़ा का कारण क्यों नहीं हैं? जब भारतीय राज्य को अपनी कायरता की ही पटकथा लिखनी है तो क्या कारण है कि अपने अपने जवानों को जंगलों में घकेल रखा है? इन इलाकों से सुरक्षाबलों को वापस बुलाइए क्योंकि वे ही नक्सलियों के सबसे बड़े शत्रु हैं। नक्सलियों के निशाने पर आम आदमी ,पुलिस व सुरक्षाबलों के जवान हैं। शेष सरकारी अमले से उनका कोई संधर्ष नहीं दिखता। वे सबसे लेवी वसूलते हुए जंगल में मंगल कर रहे हैं। नक्सली अपना अर्थतंत्र मजबूत कर रहे हैं, हथियार खरीद रहे हैं, शहरों में जनसंगठन खड़े कर रहे हैं और एक न पूरा होने वाला स्वप्न देख रहे हैं। किंतु जिस राज्य पर उनके स्वप्न भंग की जिम्मेदारी है, वह क्या कर रहा है।
हिंसा के खिलाफ बने एक रायः
विचारधारा के आधार पर बंटे देश में यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे सवालों पर भी हम एक आम सहमति नहीं बना पा रहे हैं। प्लीज, अब इसे लोकतंत्र का सौंदर्य या विशेषता न कहिए। क्योंकि जहां हमारे लोग मारे जा रहे हों वहां भी हम असहमति के सौंदर्य पर मुग्ध हैं। तो यह चिंतन बेहद अमानवीय है। हिंसा का कोई भी रूप, वह वैचारिक रूप से कहीं से भी प्रेरणा पाता हो, आदर योग्य नहीं हो सकता। यह हिंसा के खिलाफ हमारी सामूहिक सोच बनाने का समय है। आतंकवाद के विविध रूपों से जूझता भारत और अपने-अपने आतंक को सैद्धांतिक जामा व वैचारिक कवच पहनाने में लगे बुद्धिजीवी इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
कौन सुनेगा आम आदिवासी की आवाजः
आदिवासी समाज को निकट से जानने वाले जानते है कि यह दुनिया का सबसे निर्दोष समाज है। ऐसे समाज की पीड़ा को देखकर भी न जाने कैसे हम चुप रह जाते हैं। पर यह तय मानिए कि इस बेहद अहिंसक, प्रकृतिपूजक समाज के खिलाफ चल रहा नक्सलवादी अभियान एक मानवताविरोधी अभियान भी है। हमें किसी भी रूप में इस सवाल पर किंतु-परंतु जैसे शब्दों के माध्यम से बाजीगरी दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। भारत की भूमि के वास्तविक पुत्र आदिवासी ही हैं, कोई विदेशी विचार उन्हें मिटाने में सफल नहीं हो सकता। उनके शांत जीवन में बंदूकों का खलल, बारूदों की गंध हटाने का यही सही समय है। केंद्र और राज्य सरकारों में समन्वय और स्पष्ट नीति के अभाव ने इस संकट को और गहरा किया है। राजनीति की अपनी चाल और प्रकृति होती है। किंतु बस्तर से आ रहे संदेश यह कह रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र यहां एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है जहां हमारे आदिवासी बंधु उसका सबसे बड़ा शिकार हैं। उन्हें बचाना दरअसल दुनिया के सबसे खूबसूरत लोगों को बचाना है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी सरकारों और राजनीति की प्राथमिकता में आदिवासी कहीं आते हैं। क्योंकि आदिवासियों की अस्मिता के इस ज्वलंत प्रश्न पर आदिवासियों को छोड़कर सब लोग बात कर रहे हैं, इस कोलाहल में आदिवासियों के मौन को पढ़ने का साहस क्या हमारे पास है ?

गुरुवार, 9 जून 2011

कांग्रेस पार्टी को आखिर हुआ क्या है ?


संसदीय राजनीति और संस्थाओं की विश्वसनीयता बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

देश जिन हालात से गुजर रहा है उसमें सबसे बड़ा खतरा हमारी संसदीय राजनीति और राजनीतिक दलों को है। उनकी प्रामणिकता को है, विश्वसनीयता को है। लोकतंत्र जनविश्वास पर चलता है, किंतु जब संस्थानों से भरोसा उठ रहा हो और उसे बचाने की कोई सार्थक पहल न हो रही हो, तो क्या कहा जा सकता है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों ने सही मायने में संसदीय राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। आम आदमी त्रस्त है ,महंगाई व काला धन के सवाल चौतरफा गूंज रहे हैं। संसदीय व्यवस्था पर अगर सवाल उठ रहे हैं तो उनके उत्तर हमारे पास कहां हैं? राजनीति तो नारों, हुंकारों, बदले की कार्रवाईयों और शातिर चालें चलने में ही लगी हुयी है। कांग्रेस जैसी सत्ता की पार्टी भी इन दिनों जिस तरह की बदहवाशी से गुजर रही, उसे देखकर आश्चर्य होता है।

एक अराजनीतिक प्रधानमंत्री देश और अपने दल को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, मनमोहन सिंह इसके उदाहरण हैं। उनकी समूची राजनीति में कहीं जनता और देश के लोग केंद्र में नहीं है। वे एक विश्वमानव हैं। या तो अमरीका की ओर देखते हैं या दस-जनपथ की तरफ। जनता के सवाल, सरोकार, दुखः-दर्द से उनका वास्ता नहीं दिखता। उन्हें किसी चीज से दुख या खुशी मिलती है, ऐसा उन्हें देखकर नहीं लगता। वे सही मायने में एक वीतरागी सरीखे दिखते हैं, जो अपने किस गुण से कुर्सी पर टिका है यह शायद सोनिया गांधी ही बता सकें। यूपीए-1 के बाद लगता था कि दूसरी पारी पाकर उनमें आत्मविश्वास आएगा किंतु वे अब हर संकट पर यही कहते हैं कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं है। भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई हर सवाल पर उनके पास एक लंबी खामोशी और निराशाजनक वक्तव्य हैं।

विपक्षी पार्टियां भी कौरव दल सरीखी ही हैं। उनकी भूमिका भी लोकतंत्र को मजबूत करने और सवालों को प्रखरता से उठाने की नहीं हैं। यही कारण है कि कभी वे अन्ना हजारे तो कभी बाबा रामदेव की पालकी उठाती हुयी नजर आती हैं। आज हालात यह हैं कि देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों का जवाब सत्ता पक्ष के पास नहीं है। यूं लगता है कि जैसे हमारे नेता किसी तरह पांच साल काट लेने की जुगत में हों। इससे एक अराजकता की स्थिति दिखती है। आतंकवाद, आतंरिक सुरक्षा, माओवादी चुनौती, अर्थव्यवस्था पर आम आदमी पर पड़ता प्रभाव, पूर्वोत्तर के राज्यों समेत कश्मीर का संकट, भ्रष्टाचार का भस्मासुर, बांग्लादेशी घुसपैठ की चुनौती, नेपाल और चीन सीमा से लगे संकट, बेरोजगारी के कठिन सवाल हमारे सामने हैं। लेकिन इन सवालों से जूझने और कोई परिणामकेंद्रित कदम बढ़ाने की हिचक पूरे तंत्र में साफ दिखती है। विपक्ष भी कोई रचनात्मक भूमिका निभाने की इच्छाशक्ति से रिक्त है। ऐसे में देश के सामने अँधेरा घना होता जा रहा है। राहुल गांधी जैसी कांग्रेस की आम आदमी समर्थक छवियां भी बहुत प्रतीकात्मक हैं, यह लोगों के समझ में आने लगा है। यह विडंबना ही है कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार चरम पर है। अर्थशास्त्र के जानकार प्रधानमंत्री के राज में जनता महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है। ऐसी निजी ईमानदारियों और विद्वता का यह देश क्या करे ? यूपीए-दो की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इस सरकार में कुछ करने की इच्छाशक्ति ही बाकी नहीं है। युवराज के राजतिलक के इंतजार में मनमोहन और उनके मंत्री आधी-अधूरी इच्छाशक्ति से काम कर रहे हैं। दस जनपथ के सेवक निरंतर सरकार पर एक अज्ञात दबाव बनाए रखते हैं। सरकार पर हावी श्रीमती सोनिया गांधी की सलाहकार मंडली (एनएसी) की राय तो सरकार से भी बड़ी है। उसकी अनाप-शनाप इच्छाएं कठिन सलाहों में बदल रही हैं।

बाबा रामदेव के आंदोलन से निपटने का जो तरीका कांग्रेस ने अख्तियार किया वह बताता है कि कांग्रेस के प्रबंधकों में कुटिलता के साथ मूर्खता का अद्भुत संयोग है। एक समय में गुलाम नबी आजाद, कमलनाथ, अंबिका सोनी, मणिशंकर अय्यर जैसे नेता कांग्रेस की तरफ संवाद और बातचीत का काम देखते थे। अगर बाबा रामदेव से संवाद में कपिल सिब्बल, पवन बंसल और सुबोधकांत सहाय की जगह उपरोक्त चेहरे होते तो शायद परिणति वह न होती जो सामने आई। किंतु देखें तो सिब्बल, बसंल पर उनकी वकालत हावी है। सिब्बल की बाडी लैंग्वेज और कुटिलता उनकी हर प्रस्तुति में प्रकट होती है।सोनिया गांधी के अपने सलाहकार मंडल में अहमद पटेल हैं जो दस-जनपथ की हनक बनाए रखने से ज्यादा उपयोगी नहीं हैं। वहीं सरकार में सोनिया जी का प्रिय चेहरा माने जाने वाले एके एंटोनी-बाकी दुनिया के बहुत काम के नहीं हैं। सिब्बल, चिदंबरम, बंसल और सहाय जैसे नेताओं की अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर बहुत पहुंच और प्रभाव नहीं है। मंत्री होकर भी वे एक इलाकाई नेता से ज्यादा प्रभावी नहीं हैं किंतु ये ही सारे अहम मोर्चों पर लगाए जाते हैं। ले -देकर बचते हैं दिग्विजय सिंह, जो राहुल गांधी की निकटता का लाभ लेकर जो कर रहे हैं, वह सबके सामने है। सवाल उठता है कि अभिषेक मनु सिंधवी, दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी के बयान क्या कांग्रेस का भला कर रहे हैं? एक विपक्षी पार्टी की वाचलता तो सही जा सकती है, किंतु सत्तापक्ष से लोग गरिमामय वक्तव्यों की उम्मीद करते हैं। यही कारण है कि लाठीचार्ज को जायज ठहराते मंत्री और उसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते प्रधानमंत्री और प्रणव मुखर्जी जैसे दृश्य आम हैं। यह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट इस घटना का संज्ञान लेकर नोटिस दे चुका है। आखिर यह चपलता और त्वरा क्यों ? इससे कांग्रेस के प्रति गुस्सा बढ़ता है। युवराज और श्रीमती सोनिया गांधी पर हमले बढ़ते हैं ? साथ ही कांग्रेस की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवाल उठते हैं।

हर बात को आरएसएस का नाम लेकर जायज ठहराने की राजनीति कतई बेहतर नहीं कही जा सकती। आरएसएस का नाम लेकर अल्पसंख्यकों में भय पैदा करने की राजनीति अब पुरानी हो चुकी है। देश के नागरिक इस राजनीति के मायने भी समझते हैं। पर नए समय में नए हथियारों के बजाए कांग्रेस उन्हीं पुरानी टूटे तीरों और जंग खाए हथियारों से लड़ना चाहती है। यह समय मीडिया के उत्कर्ष का समय है। कैमरे आपकी हर हकरत को दर्ज करते हैं। ऐसे बेहद वाचाल समय में जब बाबा रामदेव की दिन में तीन प्रेस कांफ्रेंस भी देश में लाइव है, तो आप देश के लोगों को गुमराह नहीं कर सकते। रामलीला मैदान का सच कैमरों और टीवी चैनलों के माध्यम से जिस तरह पहुंचा और लोगों में आक्रोश का सृजन हुआ, वह साधारण नहीं है। ऐसे कठिन समय में भी कांग्रेस अगर सत्ता के पुराने दमनकारी रवैये के सहारे अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहती है तो यह संभव नहीं लगता। उसे एक नए तरीके से आगे आकर संसदीय राजनीति की गरिमा की पुर्नस्थापना के लिए प्रयास करने चाहिए। सत्तारूढ़ दल होने के नाते कांग्रेस और प्रमुख विपक्ष होने के नाते भाजपा दोनों की यह जिम्मेदारी है कि वे इस दौर में आ रहे संदेशों को पढ़ें और देश में बन रहे हालात से सबक लें।

डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे-लोकराज लोकलाज से चलता है। लेकिन आज की राजनीति के लिए शायद यह बात अप्रासंगिक हो चुकी, क्योंकि यह सबक याद होता तो हमारी संसदीय राजनीति पर यूं सवाल नहीं उठ रहे होते। अपनी संसद और विधानसभाओं को हम व्यर्थ नहीं बना रहे होते। अब भी समय है कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपनी चालाकियों और सत्ता की होड़ से परे एक स्वस्थ जनतंत्र और संस्थाओं की गरिमा की बहाली के लिए प्रतिबद्ध हो जाएं तो कोई कारण नहीं कि वे फिर से आम जनता का आदर पा सकेंगें।

बुधवार, 8 जून 2011

उमा भारती से कौन डरता है ?

क्या उनकी ऊर्जा का सार्थक इस्तेमाल कर पाएगी भाजपा
-संजय द्विवेदी

ना-ना करते आखिरकार उमा भारती की घर वापसी हो ही गयी। उमा भारती यानि भारतीय जनता पार्टी का वह चेहरा जिसने राममंदिर आंदोलन में एक आंच पैदा की और बाद के दिनों मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की 10 साल से चल रही सरकार को अपने तेवरों से न सिर्फ घेरा, वरन उनको सत्ता से बाहर कर भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाई। बावजूद इसके उमा भारती अगर भाजपा की देहरी पर एक लंबे समय से प्रतीक्षारत थीं, तो इसके मायने बहुत गंभीर हैं।

यह सिर्फ इतना ही नहीं था कि उन्होंने भाजपा के लौहपुरूष लालकृष्ण आडवानी को जिस मुद्रा में चुनौती दी थी, वह बात माफी के काबिल नहीं थी। आडवानी तो उन्हें कब का माफ कर चुके थे, किंतु भाजपा की दूसरी पीढ़ी के प्रायः सभी नेता उमा भारती के साथ खुद को असहज पाते हैं। उनके अपने गृहराज्य मध्यप्रदेश में भी राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। पहले शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर की जोड़ी और अब प्रभात झा के रूप में मध्यप्रदेश भाजपा को पूरी तरह से नया चेहरा मिल गया है। ऐसे में उमा भारती की पार्टी में वापसी के लिए सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बने उत्तर प्रदेश से रास्ता बनाया गया है। राजनीति और दबाव की लीला देखिए, यह नेत्री अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर लंबे समय से भाजपा के द्वार पर खड़ी हैं। लालकृष्ण आडवानी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का आशीर्वाद पाने के बाद भी उनकी घर वापसी सहज नहीं रही। यह उमा भारती का कौशल ही है कि वे बिना दल और पार्टी के अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती हैं। वे गंगा अभियान से देश का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं और बाबा रामदेव के आश्रम में भी हो आती हैं। यानि उनकी त्वरा और गति में, विपरीत हालात के बावजूद भी कोई कमी नहीं है। वे सही मायने में एक ऐसी नेत्री साबित हुयी हैं जो लौट-लौटकर अपने उसी प्रस्थान बिंदु की ओर आता है, जहां उसकी आत्मा है। वे भाजपा और संघ परिवार का प्रिय चेहरा हैं। कार्यकर्ताओं के बीच उनकी अपील है। शायद इसीलिए संघ के नेता चाहते थे कि भाजपा में उनकी वापसी हो। उत्तराखंड में अपने अनशन से जिस तरह उन्होंने देश का ध्यान खींचा। सोनिया गांधी ने भी उन्हें समर्थन देते हुए खत लिखा। यह उमा ही कर सकती हैं क्योंकि वे अकेले चलकर भी न घबराती हैं, न ऊबती हैं।

सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बने उत्तरप्रदेश में पार्टी ने उनको मुख्य प्रचारक के रूप में उतारना तय किया है। उप्र का राजनीतिक मैदान इस समय बसपा, सपा और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ है। भाजपा यहां चौथे नंबर की खिलाडी है। उमा भारती राममंदिर आंदोलन का प्रिय चेहरा रही हैं और जाति से लोध हैं, जो पिछड़ा वर्ग की एक जाति है। उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह लोध जाति से आते हैं। वे भाजपा का उप्र में सबसे बड़ा चेहरा थे। अन्यान्य कारणों से वे दो बार भाजपा छोड़ चुके हैं। तीसरी बार उनके पार्टी में आने की उम्मीद अगर हो भी, तो वे अपनी आभा खो चुके हैं। पिछले चुनाव में वे मुलायम सिंह की पार्टी के साथ नजर आए और इससे मुलायम सिंह की भी फजीहत भी अपने दल में हुयी और कल्याण सिंह ने भी अपनी विश्वसनीयता खो दी। उप्र में पिछड़े वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए भाजपा तमाम कोशिशें कर चुकी है। राममंदिर आंदोलन से जुडे रहे विनय कटियार, जो जाति से कुर्मी हैं को भी राज्य भाजपा की कमान दी गयी, किंतु पार्टी को खास फायदा नहीं हुआ। विनय कटियार पहले अयोध्या से फिर लखीमपुर से भी हारे। कुल मिलाकर भाजपा के सामने विकल्प न्यूनतम हैं। उसके अनेक दिग्गज नेता राजनाथ सिंह, डा.मुरलीमनोहर जोशी, मुख्तार अब्बास नकवी, विनय कटियार, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी, मेनका गांधी इसी इलाके से आते हैं पर मास अपील के लिए कोई लोकप्रिय चेहरा पार्टी के पास नहीं है। ले देकर युवाओं में सांसद वरूण गांधी और योगी आदित्यनाथ थोड़ी भीड़ जरूर खींचते हैं परंतु भाजपा के संगठन तंत्र के हिसाब से उन्हें चला पाना कठिन है। योगी संत हैं, तो उनकी अपनी राजनीति है। वहीं गांधीहोने के नाते वरूण गांधी को नियंत्रित कर, चला पाना भी भाजपा के बस का नहीं दिखता। ऐसे में उमा भारती भाजपा का एक ऐसा चेहरा हैं जिनके पास राजनीतिक अभियान चलाने का अनुभव और मप्र में एक सरकार को उखाड़ फेंकने का स्वर्णिम इतिहास भी है। वे भगवाधारी होने के नाते उप्र के ओबीसी ही नहीं एक बड़े हिंदू जनमानस के बीच परिचित चेहरा हैं। ऐसे में उन्हें आगे कर भाजपा उस लोध और पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक को अपने साथ लाना चाहती है, जो उसका साथ छोड़ गए हैं। नए पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी बार-बार कह रहे हैं, दिल्ली का रास्ता उप्र से होकर जाता है। किंतु पार्टी यहां एक विश्वसनीय विपक्ष भी नहीं बची है। सपा और बसपा से बचा- खुचा वोट बैंक कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को लाभ पहुंचाता है। ऐसे में भाजपा की कोशिश है कि उप्र में सरकार भले न बने किंतु एक सशक्त विपक्ष के रूप में पार्टी विधानसभा में जरूर उभरे। किंतु संकट यह है कि क्या उमा भारती को भाजपा के नेता इस बार भी नियंत्रित कर पाएंगें? उप्र का संकट यह है कि यहां नेता ज्यादा हैं और कार्यकर्ता हताश। उमा भारती कार्यकर्ताओं में उत्साह तो जगा सकती हैं किंतु भाजपा के राज्य से जुड़े नेताओं का वे क्या करेंगीं, जिसमें हर नेता अपने हिसाब से ही पार्टी को चलाना चाहता है। अब भले उमा भारती चुनाव अभियान के कैंपेनर और गंगा अभियान के संयोजक के नाते भाजपा को उप्र में उबारने के प्रयासों में जुटें किंतु उन्हें स्थानीय नेतृत्व का साथ तो आवश्यक है ही। उमा के पास मप्र जैसे बहुत व्यवस्थित प्रदेश संगठन के साथ काम करने का अनुभव है। ऐसे में उमा भारती का जो परंपरागत टेंपरामेंट है, वह उप्र जैसी संगठनात्मक अव्यवस्थाओं को कितना झेल पाएगा, यह भी एक बड़ा सवाल है।

यह बात कही और बताई जा रही है कि वे मध्यप्रदेश भाजपा की राजनीति में ज्यादा रूचि नहीं लेंगीं लेकिन यह भी एक बहुत हवाई बात है। वे मप्र की मुख्यमंत्री रहीं हैं, उनकी सारी राजनीति का केंद्र मध्य प्रदेश रहा है, ऐसे में वे अपने गृहराज्य से निरपेक्ष होकर काम कर पाएंगी, यह संभव नहीं दिखता। किंतु मप्र में भाजपा के समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं और उप्र का मैदान बहुत कठिन है। उमा इस समय मप्र और उप्र दोनों राज्यों में एक असहज उपस्थिति हैं। उन्हें अपनी स्वीकार्यता बनाने और स्थापित करने के लिए फिर से एक लंबी यात्रा तय करनी होगी। उप्र का मैदान उनके लिए एक कठिन कुरूक्षेत्र हैं, जहां से सार्थक परिणाम लाना एक दूर की कौड़ी है। किंतु अपनी मेहनत, वक्रता और आक्रामक अभियान के अपने पिछले रिकार्ड के चलते वे पस्तहाल उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए एक बड़ी सौगात है। किंतु इसके लिए उमा भारती को अपेक्षित श्रम, रचनाशीलता का परिचय देते हुए धैर्य भी रखना होगा। अपने विवादित बयानों, पल-पल बदलते व्यवहार से उन्होंने खूब सुर्खियां बटोरी हैं, किंतु इस दौर में उन्होंने खुद का विश्लेषण जरूर किया होगा। वे अगर संभलकर अपनी दूसरी पारी की शुरूआत करती हैं तो कोई कारण नहीं कि उमा भारती फिर से भाजपा व संघ परिवार का सबसे प्रिय चेहरा बन सकती हैं।

मंगलवार, 7 जून 2011

कांग्रेस नहीं संभली तो चलता रहेगा ‘बाबा लाइव’


-संजय द्विवेदी

दिल्ली में जो कुछ घटा उसने सही मायने में बाबा रामदेव को जीवनदान दे दिया है। वरना बालकृष्ण का पत्र लीक करके चतुर वकील कपिल सिब्बल ने तो बाबा के सत्याग्रह की हवा ही निकाल दी थी। किंतु कहते हैं ज्यादा चालाकियां कभी-कभी भारी पड़ जाती हैं। अपनी देहभाषा और शैली से ही कपिल सिब्बल बहुत कुछ कहते नजर आते हैं। उनके सामने हरियाणा के एक गांव से आए बाबा रामदेव और बालकृष्ण की क्या बिसात। कांग्रेस जरा सा धीरज रखती तो बाबा का मजमा तो उजड़ ही चुका था। किंतु इसे विनाशकाले विपरीत बुद्धि ही कहा जाएगा कि बाबा के उजड़ते मजमे को कांग्रेस ने बाबा लाइव में बदल दिया। सरकार नहीं बाबा टीआरपी देते हैं, इसलिए टीवी चैनलों पर तमाम दबावों और मैनेजरों की कवायद के बाद भी पांच दिनों से बाबा लाइव जारी है। रविवार को बाबा ने एक दिन में तीन प्रेस कांफ्रेस की। हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में ऐसे अवसर कितनों को मिलते हैं। इस अकेले आंदोलन में बाबा जितने घंटें हिंदुस्तानी टीवी न्यूज चैनलों पर छाए रहे, वह अपने आप में मिसाल है।

राजू, राखी और रामदेव वैसे भी टीवी चैनलों को बहुत भाते हैं, किंतु यह अवसर तो सरकार ने बाबा को परोसकर दिया। बाबा दिल्ली आए तो चार मंत्री अगवानी में। संवाद का हाईबोल्टेज ड्रामा। मुद्दे जो भी हों पर विजुवल तो गजब हैं। बाबा के भगवा वस्त्र और उनकी भंगिमाएं, संवाद शैली सारा कुछ फुल टीवी मामला है। सामने भी वाचाल और चतुर सुजान कपिल सिब्बल यानि सुपरहिट मुकाबला। रही सही कमी दिग्विजय सिंह के रचितबाबा गुणानुवाद ने पूरी कर दी। यानि टीवी के यहां पूरा मसाला था। बाइट और क्रास बाइट के ऐसे संयोग कहां बनते हैं। बाबा लाइव की यह कथा इसीलिए मीडिया को भाती है। बाबा के पास भी एक अच्छी संवाद शैली के साथ फुल ड्रामा मौजूद है। पुलिसिया बर्बरता के समय भी बाबा खबर देते हैं। वे मंच पर कूद आ जाते हैं और फिर जनता के बीच कूद जाते हैं। पुलिसिया लाठियों और आंसू गैस के गोलों के वहशी आयोजन भी बाबा को रोक नहीं पाते। वे महिलाओं के बीच छिपकर एक और ड्रामा खड़ा कर देते हैं। यह लीला गजब है। वे महिलाओं का वेश धारण कर लेते हैं। यहां भी एक लाइव लीला। कांग्रेसियों को बाबा से मीडिया का इस्तेमाल सीखना चाहिए। किंतु कांग्रेसजनों की हरकतें और बदजुबानी बाबा के लिए सहानुभूति ही बढ़ा रही है। दिग्विजय सिंह जैसे प्रचारक बाबा को मुफ्त में ही पब्लिसिटी दे रहे हैं। बाबा को पता है कि वे भारत सरकार से मुकाबला नहीं कर सकते किंतु कांग्रेस ने उन्हें अपने कर्मों से भाजपा के पाले में फेंक दिया। यह साधारण नहीं था कि अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की लखनऊ बैठक से लौटे भाजपा के शिखर नेतृत्व को सडकों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा। भाजपा का पूरा शिखर नेतृत्व बाबा के समर्थन में उतर आया। जबकि बाबा ने जैसी लीला रची थी और राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखी थी उसमें भाजपा को बाबा के मंच पर मौका नहीं था। अब बाबा को पूरी तरह से भाजपा ने हाईजैक कर लिया है। बाबा चाहकर भी भाजपा से अलग कैसे दिखें, वे कैसे कह सकते हैं कि आप मेरे समर्थन में न उतरें। कांग्रेस के पास अपनी कारगुजारियों का ले-देकर एक ही जवाब है कि बाबा के पीछे आरएसएस है। क्या किसी आंदोलन के पीछे आरएसएस है तो उसका इस तरह से दमन होगा? क्या हम एक लोकतंत्र में रह रहे हैं या राजतंत्र में? आरएसएस इतनी बुरी है तो उस पर प्रतिबंध लगाइए पर निर्दोंषो पर दमन मत कीजिए। अपने पाप को आरएसएस की आड़ लेकर जायज मत ठहराइए।

बाबा ने आखिरी समय तक अपने भक्तों से कहा कि संयम रखें। किंतु आप पंडाल में आंसू गैस छोड़ रहे हैं। जबकि आंसू गैस का इस्तेमाल खुले स्थान में ही होना चाहिए। बाबा की खोज में आपकी पुलिस पंडाल में आग लगा देती है। यह कहां की मानवता है? रात में एक बजे देश के तमाम इलाकों से आए लोगों को आप उस दिल्ली में छोड़ देते हैं जहां महिलाओं के साथ बलात्कार की खबरें अक्सर चैनलों पर दिखती हैं। बाबा के शिविर से निकाली गयीं महिलाएं, बच्चे और बुर्जुग आखिर अँधेरी रात में कहां जाते? उनमें तमाम ऐसे भी रहे होंगें जो पहली बार दिल्ली आए होंगें। क्या यह अपने देशवासियों के साथ किया जा रहा व्यवहार है? अमरीका को अपना माई-बाप समझने वालों को अमरीका से अपने नागरिकों का सम्मान करने की तमीज भी सीखनी चाहिए। यह युद्ध आप किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? इसे जीतकर भी आपको हासिल क्या है? बाबा रामदेव एक ठग या व्यापारी जो भी हों, निर्दोष भारतीयों को आधी रात तबाह करने के पाप से कांग्रेस नेतृत्व मुक्त नहीं हो सकता। लोकतंत्र सालों के संघर्ष से अर्जित हुआ है। उसे तोड़ने में लगी ताकतों के साथ कांग्रेसियों की गलबहियां साफ दिखती है। दिल्ली में अली शाह गिलानी और अरूंधती राय जहर उगलकर चले जाते हैं, हमारा गृहमंत्रालय और यह बहादुर दिल्ली पुलिस उनके खिलाफ एक मुकदमा नहीं दर्ज कर पाती। अफजल गुरू की फाइल दिल्ली प्रदेश की इसी महान सरकार ने महीनों दबाकर रखी। नक्सलियों से लेकर देश को तोड़ने के प्रयासों में लगे हर हिंसक समूह से सरकार वार्ता के लिए आतुर है। किंतु सारी बहादुरी देश के उन नागरिकों पर ही दिखाई जाती है जो शांति से, संवाद से अपनी बात कहना चाहते हैं।

उप्र के भट्टा पारसौल में प्रकट होने वाले कांग्रेस के युवराज कहां है? उस दिन मायावती की पुलिसिया कार्रवाई पर वे भारतीय होने में शर्म महसूस कर रहे थे, दिल्ली में उनके कारिंदों ने जो किया है, उस पर गरीबों के नेता की प्रतिक्रिया क्यों नहीं आ रही है ? कांग्रेस का नारा है कांग्रेस का हाथ गरीबों के साथ, किंतु बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और पुलिस दमन के रिकार्ड देखें तो यह हाथ गरीबों के गले पर नजर आता है। जिस देश की राष्ट्रपति, यूपीए चेयरपर्सन, लोकसभा अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष जैसे पदों पर महिलाएं बैठी हों, उस राजधानी में महिलाओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे आप जायज कैसे ठहरा सकते हैं?

देश की इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर अफसोस जताने के बजाए कांग्रेस नेताओं ने जख्मों पर नमक छिड़कने का काम ही किया है। इस पूरे मामले में बाबा रामदेव का मजमा उजाड़कर कांग्रेस स्वयं को भले ही महावीर समझे किंतु यह दृश्य पूरे देश ने देखा है। कालेधन और लोकपाल की बहस अब देश के हर चौराहे और हर गांव में हो रही है। दिल्ली का सच अब लोगों तक पहुंच रहा है। सबसे खतरनाक है इस राय का कायम हो जाना कि कांग्रेस भ्रष्टाचारियों का साथ दे रही है और उसका विरोध कर रहे लोगों का उत्पीड़न। कांग्रेस अब बाबा और अन्ना हजारे की सिविल सोसाइटी पर हमले कर अपना ही नुकसान करेगी। क्योंकि सत्ता बाबा का सबसे बड़ा नुकसान जो कर सकती थी कर चुकी है। क्योंकि बाबा और अन्ना हजारे के पास आखिर खोने के लिए क्या है? एक गांव से आए व्यक्ति ने अपने योग ज्ञान के बल जो हासिल किया, हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में जो जगह बनाई वह साधारण नहीं है। सत्ता अब बाबा का क्या छीन सकती है? बाबा ने इस बहाने अपनी साधारण क्षमताओं से जो पा लिया उसके लिए हमारे बड़े नेता भी तरसते हैं। बाबा के संस्थानों और उनके काम को लेकर आप जो भी दमनचक्र चलाएंगें वह बात अब सत्ता के खिलाफ ही जाएगी। इसलिए बेहतर होगा कि कांग्रेस इस समय को पहचाने और ऐसा कुछ न करे जिससे वह जनता की नजरों से और गिरे। कांग्रेस के रणनीतिकार अगर ऐसी ही भूलें करते रहे तो मीडिया पर बाबा लाइव जारी रहेगा और वह जनता की नजरों से बहुत गिर जाएगी। हालांकि नेताओं को इस बात की आश्वस्ति होती है कि जनता की स्मृति बहुत कम है, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए अगर जनता राय बना लेती है तो वह राय नहीं बदलती। इसलिए कांग्रेस को अब संभलकर चलने और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े संदेश देने की जरूरत है।

सोमवार, 6 जून 2011

यह बेदिल दिल्ली का लोकतंत्र है देख लीजिए !

-संजय द्विवेदी
दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के साथ जो कुछ हुआ, वही दरअसल हमारी राजसत्ताओं का असली चेहरा है। उन्हें सार्थक सवालों पर प्रतिरोध नहीं भाते। अहिंसा और सत्याग्रह को वे भुला चुके हैं। उनका आर्दश ओबामा का लोकतंत्र है जो हर विरोधी आवाज को सीमापार भी जाकर कुचल सकता है। दिल्ली की ये बेदिली आज की नहीं है। आजादी के बाद हम सबने ऐसे दृश्य अनेक बार देखे हैं। किंतु दिल्ली ऐसी ही है और उसके सुधरने की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती। कल्पना कीजिए जो सरकारें इतने कैमरों के सामने इतनी हिंसक, अमानवीय और बर्बर हो सकती हैं, वे बिना कैमरों वाले समय में कैसी रही होंगी। ऐसा लगता है कि आजादी, हमने अपने बर्बर राजनीतिक, प्रशासनिक तंत्र और प्रभु वर्गों के लिए पायी है। आप देखें कि बाबा रामदेव जब तक योग सिखाते और दवाईयां बेचते और संपत्तियां खड़ी करते रहे,उनसे किसी को परेशानी नहीं हुयी। बल्कि ऐसे बाबा और प्रवचनकार जो हमारे समय के सवालों से मुठभेड़ करने के बजाए योग,तप, दान, प्रवचन में जनता को उलझाए रखते हैं- सत्ताओं को बहुत भाते हैं। देश के ऐसे मायावी संतों, प्रवचनकारों से राजनेताओं और प्रभुवर्गों की गलबहियां हम रोज देखते हैं। आप देखें तो पिछले दस सालों में किसी दिग्विजय सिंह को बाबा रामदेव से कोई परेशानी नहीं हुयी और अब वही उन्हें ठग कह रहे हैं। वे ठग तब भी रहे होंगें जब चार मंत्री दिल्ली में उनकी आगवानी कर रहे थे। किंतु सत्ता आपसे तब तक सहज रहती है, जब तक आप उसके मानकों पर खरें हों और वह आपका इस्तेमाल कर सकती हो।

सत्ताओं को नहीं भाते कठिन सवालः

निश्चित ही बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं वे कठिन सवाल हैं। हमारी सत्ताओं और प्रभु वर्गों को ये सवाल नहीं भाते। दिल्ली के भद्रलोक में यह गंवार, अंग्रेजी न जानने वाला गेरूआ वस्त्र धारी कहां से आ गया? इसलिए दिल्ली पुलिस को बाबा का आगे से दिल्ली आना पसंद नहीं है। उनके समर्थकों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे दिल्ली का रास्ता भूल जाएं। किंतु ध्यान रहे यह लोकतंत्र है। यहां जनता के पास पल-पल का हिसाब है। यह साधारण नहीं है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को नजरंदाज कर पाना उस मीडिया के लिए भी मुश्किल नजर आया, जो लाफ्टर शो और वीआईपीज की हरकतें दिखाकर आनंदित होता रहता है। बाबा रामदेव के सवाल दरअसल देश के जनमानस में अरसे से गूंजते हुए सवाल हैं। ये सवाल असुविधाजनक भी हैं। क्योंकि वे भाषा का भी सवाल उठा रहे हैं। हिंदी और स्थानीय भाषाओं को महत्व देने की बात कर रहे हैं। जबकि हमारी सरकार का ताजा फैसला लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेज की परीक्षा में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य करने का है। यानि भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए आईएएस बनने का रास्ता बंद करने की तैयारी है। ऐसे कठिन समय में बाबा दिल्ली आते हैं। सरकार हिल जाती है क्योंकि सरकार के मन में कहीं न कहीं एक अज्ञात भय है। यह असुरक्षा ही कपिल सिब्बल से वह पत्र लीक करवाती है ताकि बाबा की विश्वसनीयता खंडित हो। उन पर अविश्वास हो। क्योंकि राजनेताओं को विश्वसनीयता के मामले में रामदेव और अन्ना हजारे मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। आप याद करें इसी तरह की विश्वसनीयता खराब करने की कोशिश में सरकार से जुड़े कुछ लोग शांति भूषण के पीछे पड़ गए थे। संतोष हेगड़े पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि उन्हें अन्ना जैसे निर्दोष व्यक्ति में कुछ ढूंढने से भी नहीं मिला। लेकिन निशाने पर तो अन्ना और उनकी विश्वसनीयता ही थी। शायद इसीलिए अन्ना हजारे ने सत्याग्रह शुरू करने से पहले रामदेव को सचेत किया था कि सरकार बहुत धोखेबाज है उससे बचकर रहना। काश रामदेव इस सलाह में छिपी हुयी चेतावनी को ठीक से समझ पाते तो उनके सहयोगी बालकृष्ण होटल में मंत्रियों के कहने पर वह पत्र देकर नहीं आते। जिस पत्र के सहारे बाबा रामदेव की तपस्या भंग करने की कोशिश कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेस में की।

बिगड़ रहा है कांग्रेस का चेहराः

बाबा रामदेव के सत्याग्रह आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने जिस तरह कुचला उसकी कोई भी आर्दश लोकतंत्र इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और घरना देने की सबको आजादी है। दिल्ली में जुटे सत्याग्रहियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि उन पर इस तरह आधी रात में लाठियां बरसाई जाती या आँसू गैस के गोले छोड़ जाते। किंतु सरकारों का अपना चिंतन होता है। वे अपने तरीके से काम करती हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बर्बर कार्रवाई से केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी प्रतिष्ठा गिरी है। एक तरफ सरकार के मंत्री लगातार बाबा रामदेव से चर्चा करते हैं और एक बिंदु पर सहमति भी बन जाती है। संभव था कि सारा कुछ आसानी से निपट जाता किंतु ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि सरकार को यह दमनात्मक रवैया अपनाना पड़ा। इससे बाबा रामदेव का कुछ नुकसान हुआ यह सोचना गलत है। कांग्रेस ने जरूर अपना जनविरोधी और भ्रष्टाचार समर्थक चेहरा बना लिया है। क्योंकि आम जनता बड़ी बातें और अंदरखाने की राजनीति नहीं समझती। उसे सिर्फ इतना पता है कि बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह सरकार को पसंद नहीं है। इसलिए उसने ऐसी दमनात्मक कार्रवाई की। जाहिर तौर पर इस प्रकार का संदेश कहीं से भी कांग्रेस के लिए शुभ नहीं है। बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं, उसको लेकर उन्होंने एक लंबी तैयारी की है। पूरे देश में सतत प्रवास करते हुए और अपने योग शिविरों के माध्यम से उन्होंने लगातार इस विषय को जनता के सामने रखा है। इसके चलते यह विषय जनमन के बीच चर्चित हो चुका है। भ्रष्टाचार का विषय आज एक केंद्रीय विषय बन चुका है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे दो नायकों ने इस सवाल को आज जन-जन का विषय बना दिया है। आम जनता स्वयं बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं से उसे घोर निराशा है। ऐसे कठिन समय में जनता को यह लगने लगा है कि हमारा जनतंत्र बेमानी हो चुका है। यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि यह जनतंत्र, हमारे आजादी के सिपाहियों ने बहुत संर्धष से अर्जित किया है। उसके प्रति अविश्वास पैदा होना या जनता के मन में निराशा की भावनाएं पैदा होना बहुत खतरनाक है।

अन्ना या रामदेव के पास खोने को क्या हैः

बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसी आवाजों को दबाकर हम अपने लोकतंत्र का ही गला घोंट रहे हैं। आज जनतंत्र और उसके मूल्यों को बचाना बहुत जरूरी है। जनता के विश्वास और दरकते भरोसे को बचाना बहुत जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे राजनीतिक दल अगर ईमानदार प्रयास कर रहे होते तो ऐसे आंदोलनों की आवश्यक्ता भी क्या थी? सरकार कुछ भी सोचे किंतु आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जनता के सामने एक आशा की किरण बनकर उभरे हैं। इन नायकों की हार दरअसल देश के आम आदमी की हार होगी। केंद्र की सरकार को ईमानदार प्रयास करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हुए दिखना होगा। क्योंकि जनतंत्र में जनविश्वास से ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। यह बात बहुत साफ है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी रूप में सत्ता में नहीं हैं। जबकि कांग्रेस के पास एक सत्ता है और उसकी परीक्षा जनता की अदालत में होनी तय है, क्या ऐसे प्रसंगों से कांग्रेस जनता का भरोसा नहीं खो रही है, यह एक लाख टके का सवाल है। आज भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली में रामलीला मैदान की सफाई करके खुद को महावीर साबित कर ले किंतु यह आंदोलन और उससे उठे सवाल खत्म नहीं होते। वे अब जनता के बीच हैं। देश में बहस चल पड़ी है और इससे उठने वाली आंच में सरकार को असहजता जरूर महसूस होगी। केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है।

बाबा रामदेव इस मुकाम पर हारे नहीं हैं, उन्होंने इस आंदोलन के बहाने हमारी सत्ताओं के एक जनविरोधी और दमनकारी चेहरे को सामने रख दिया है। सत्ताएं ऐसी ही होती हैं और इसलिए समाज को एकजुट होकर एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करना होगा। यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी होगी। रामदेव के सामने भी रास्ता बहुत सहज नहीं है,क्योंकि वे अन्ना हजारे नहीं हैं। सरकार हर तरह से उनके अभियान और उनके संस्थानों को कुचलने की कोशिश करेगी। क्योंकि बदला लेना सत्ता का चरित्र होता है। इस खतरे के बावजूद अगर वे अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहते हैं तो देश की जनता उनके साथ खड़ी रहेगी, इसमें संदेह नहीं है। बाबा रामदेव ने अपनी संवाद और संचार की शैली से लोगों को प्रभावित किया है। खासकर हिंदुस्तान के मध्यवर्ग में उनको लेकर दीवानगी है और अब इस दीवानगी को, योग से हठयोग की ओर ले जाकर उन्होंने एक नया रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता कठिन भी है और उनकी असली परीक्षा दरअसल इसी मार्ग पर होनी हैं। देखना है कि बाबा इस कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपने साथ कितने लोगों को चला पाते हैं ?

बुधवार, 25 मई 2011

नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है ?


दुनिया के सबसे निर्दोष लोगों को खत्म करने का पाप कर रहे हैं हम

-संजय द्विवेदी

उनका वहशीपन अपने चरम पर है, सोमवार की रात (23 मई,2011) को वे फिर वही करते हैं जो करते आए हैं। एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में वे मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें आए दिन छ्त्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में आम हैं। मैं दो दिनों से इंतजार में हूं कि छत्तीसगढ़ के धरतीपुत्र और अब भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी अग्निवेश, लेखिका अरूंघती राय, गांधीवादी संदीप पाण्डेय, पूर्व आईएएस हर्षमंदर या ब्रम्हदेव शर्मा कुछ कहेंगें। पुलिस दमन की सामान्य सूचनाओं पर तुरंत बस्तर की दौड़ लगाने वाले इन गगनविहारी और फाइवस्टार समाजसेवियों में किसी को भी ऐसी घटनाएं प्रभावित नहीं करतीं। मौत भी अब इन इलाकों में खबर नहीं है। वह बस आ जाती है। मरता है एक आम आदिवासी अथवा एक पुलिस या सीआरपीएफ का जवान। नक्सलियों के शहरी नेटवर्क का काम देखने के आरोपी योजना आयोग में नामित किए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर नक्सलवाद से क्या हमारी राजनीति और राज्य लड़ना चाहता है। या वह तमाम किंतु-परंतु के बीच सिर्फ अपने लोगों की मौत से ही मुग्ध है।

दोहरा खेल खेलती सरकारें-

केंद्र सरकार के मुखिया हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। उनके ही अधीन चलने वाला योजना आयोग अपनी एक समिति में नक्सल समर्थक होने के आरोपों से घिरे व्यक्ति को नामित कर देता है। जबकि उनपर राष्ट्रद्गोह के मामले में अभी फैसला आना बाकी है। यानि अदालतें और कानून सब बेमतलब हैं और राजनीति की सनक सबसे बड़ी है। केंद्र और राज्य सरकारें अगर इस खतरे के प्रति ईमानदार हैं तो इसके समाधान के लिए उनकी कोशिशें क्या हैं? लगातार नक्सली अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं और यह तब हो रहा है जब उनके उन्मूलन पर सरकार हर साल अपना बजट बढ़ाती जा रही है। यानि हमारी कोशिशें ईमानदार नहीं है। 2005 से 2010 के बीच 3,299 नागरिक और 1,379 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। साथ ही 1,226 नक्सली भी इन घटनाओं में मारे गए हैं- वे भी भारतीय नागरिक ही हैं। बावजूद इसके नक्सलवाद को लेकर भ्रम कायम हैं। सरकारों में बैठे नौकरशाह, राजनेता, कुछ बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का निर्माण कर रहे हैं। टीवी चैनलों और वातानुकूलित सभागारों में बैठकर ये एक विदेशी और आक्रांता विचार को भारत की जनता की मुक्ति का माध्यम और लोकतंत्र का विकल्प बता रहे हैं।

आदिवासियों की मौतों का पाप-

किंतु हमारी सरकार क्या कर रही है? क्यों उसने एक पूरे इलाके को स्थाई युद्ध क्षेत्र में बदल दिया है। इसके खतरे बहुत बड़े हैं। एक तो यह कि हम दुनिया के सबसे सुंदर और सबसे निर्दोष इंसानों (आदिवासी) को लगातार खो रहे हैं। उनकी मौत सही मायने में प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले लोगों की मौत है। निर्मल ह्रदय आदिवासियों का सैन्यीकरण किया जा रहा है। माओवादी उनके शांत जीवन में खलल डालकर उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा रहे हैं। प्रकृतिपूजक समाज बंदूकों के खेल और लैंडमाइंस बिछाने में लगाया जा रहा है। आदिवासियों की परंपरा, उनका परिवेश, उनका परिधान, उनका धर्म और उनका खानपान सारा कुछ बदलकर उन्हें मिलिटेंट बनाने में लगे लोग आखिर विविधताओं का सम्मान करना कब सीखेंगें? आदिवासियों की लगातार मौतों के लिए जिम्मेदार माओवादी भी जिम्मेदार नहीं हैं? सरकार की कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण एक पूरी प्रजाति को नष्ट करने और उन्हें उनकी जमीनों से उखाड़ने का यह सुनियोजित षडयंत्र साफ दिख रहा है। आदिवासी समाज प्रकृति के साथ रहने वाला और न्यूनतम आवश्यक्ताओं के साथ जीने वाला समाज है। उसे माओवादियों या हमारी सरकारों से कुछ नहीं चाहिए। किंतु ये दोनों तंत्र उनके जीवन में जहर घोल रहे हैं। आदिवासियों की आवश्यक्ताएं उनके अपने जंगल से पूरी हो जाती हैं। राज्य और बेईमान व्यापारियों के आगमन से उनके संकट प्रारंभ होते हैं और अब माओवादियों की मौजूदगी ने तो पूरे बस्तर को नरक में बदल दिया है। शोषण का यह दोहरा चक्र अब उनके सामने है। जहां एक तरफ राज्य की बंदूकें हैं तो दूसरी ओर हिंसक नक्सलियों की हैवानी करतूतें। ऐसे में आम आदिवासी का जीवन बद से बदतर हुआ है।

शोषकों के सहायक हैं माओवादीः

नक्सलियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये नक्सली ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा नक्सलवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्य पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे नक्सलवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। क्योंकि अगर आप कोई लड़ाई लड़ रहे हैं तो उसका तरीका यह नहीं है। लड़ाई शुरू होती है और खत्म भी होती है किंतु हम यहां एक अंतहीन युद्ध लड़ रहे हैं। जो कब खत्म होगा नजर नहीं आता।

माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। विदेशी विचार और विदेशी मदद से इनकी पकड़ हमारे तंत्र पर बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों का तमाशा बनाने की शक्ति इन्होंने अर्जित कर ली है। दुनिया भर के संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सहयोग इन्हें हासिल है। किंतु यह बात बहुत साफ है उनकी जंग हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है। वे हमारे जनतंत्र को खत्म कर माओ का राज लाने का स्वप्न देख रहे हैं। वे अपने सपनों को पूरा कभी नहीं कर पाएंगें यह तय है किंतु भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश की प्रगति और शांति को नष्ट कर हमारे विकास को प्रभावित करने की क्षमता उनमें जरूर है। हमें इस अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र को समझना होगा। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों के तार मुस्लिम जेहादियों से जुड़े पाए गए तो कुछ विदेशी एवं स्वयंसेवी संगठन भी यहां वातावरण बिगाड़ने के प्रयासो में लगे हैं।

समय दर्ज करेगा हमारा अपराध-

किंतु सबसे बड़ा संकट हमारा खुद का है। क्या हम और हमारा राज्य नक्सलवाद से जूझने और मुक्ति पाने की इच्छा रखता है? क्या उसमें चीजों के समाधान खोजने का आत्मविश्वास शेष है? क्या उसे निरंतर कम होते आदिवासियों की मौतों और अपने जवानों की मौत का दुख है? क्या उसे पता है कि नक्सली करोड़ों की लेवी वसूलकर किस तरह हमारे विकास को प्रभावित कर रहे हैं? लगता है हमारे राज्य से आत्मविश्वास लापता है। अगर ऐसा नहीं है तो नक्सलवाद या आतंकवाद के खिलाफ हमारे शुतुरमुर्गी रवैयै का कारण क्या है ? हमारे हाथ किसने बांध रखे हैं? किसने हमसे यह कहा कि हमें अपने लोगों की रक्षा करने का अधिकार नहीं है। हर मामले में अगर हमारे राज्य का आदर्श अमरीका है, तो अपने लोगों को सुरक्षा देने के सवाल पर हमारा आदर्श अमरीका क्यों नहीं बनता? सवाल तमाम हैं उनके उत्तर हमें तलाशने हैं। किंतु सबसे बड़ा सवाल यही है कि नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है और क्या हमारे भ्रष्ट तंत्र में इस संगठित माओवाद से लड़ने की शक्ति है ?

मंगलवार, 24 मई 2011

पत्रकार रामबहादुर राय पर केंद्रित होगा मीडिया विमर्श का अगला अंक


भोपाल। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का आगामी अंक देश के चर्चित पत्रकार श्री रामबहादुर राय पर केंद्रित होगा। हमारे समय की पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्री राय के योगदान, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित यह अंक जुलाई माह में प्रकाशित होगा। एक छात्रनेता और जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख सेनानी के रूप में, बाद में एक पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में श्री राय की अनेक छवियां हैं। हमारे समय में जब मूल्यों और आदर्शों की पत्रकारिता का क्षरण हो रहा है, श्री राय जैसे लोग एक आस जगाते हैं कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। इस अंक हेतु लेख, विचार, विश्वलेषण, संस्मरण, फोटोग्राफ एवं आवश्यक पत्र 15 जुलाई,2011 तक भेजे जा सकते हैं। इससे इस अंक को महत्वपूर्ण बनाने में मदद मिलेगी। लेख भेजने के लिए पता है- संजय द्विवेदी, कार्यकारी संपादकः मीडिया विमर्श, 428-रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 या अपनी सामग्री मेल भी कर सकते हैं-

123dwivedi@gmail.com , mediavimarsh@gmail.com

सोमवार, 23 मई 2011

योजना आयोग में माओवादी समर्थक !

विनायक सेन को भारत रत्न दे दीजिए पर दोषमुक्त होने के बाद

-संजय द्विवेदी

सामाजिक कार्यकर्ता विनायक सेन को मीडिया, कुछ जनसंगठनों और एक खास विचार के लोगों ने महानायक तो बना दिया है, किंतु केंद्र सरकार की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वह उन्हें योजना आयोग की किसी समिति में नामित कर दे। क्योंकि विनायक सेन एक गंभीर मामले के आरोपी हैं और अदालत ने उन्हें सिर्फ जमानत पर रिहा किया है, दोषमुक्त नहीं किया है। विनायक सेन पर आरोप है कि वे नक्सलियों के मददगार रहे हैं। यह आरोप गलत भी हो सकता है किंतु अदालती कार्यवाही पूरी तो होने दीजिए, आखिर इतनी जल्दी क्या है? क्या योजना आयोग अदालत से ऊपर है ? इस मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की आपत्ति बहुत जायज है कि ऐसी बैठकों में आखिर वे क्या करेंगें।

एक तरफ जहां राज्य और केंद्र सरकारें हमारे लोकतंत्र के खिलाफ चल रहे इस कथित जनयुद्ध से जूझ रही हैं तो दूसरी ओर योजना आयोग एक ऐसे व्यक्ति को अपनी समिति का सदस्य नामित कर रहा है जिस पर लगे गंभीर आरोपों पर अभी अदालत का फैसला प्रतीक्षित है। क्या यह प्रकारांतर से एक संदेश देने और अदालतों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं मानी जानी चाहिए? विनायक सेन को महान मानने और बनाने का हक उनके समर्थकों को है किंतु केंद्र सरकार इस प्रयास में सहयोग क्यों कर रही है यह समझ से परे है। जबकि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते रहे हैं। क्या अब उनकी यह राय बदल गयी है? नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को तोडने के प्रयास और उनके प्रति सहानुभूति रखने वालों के प्रति क्या सरकार का नजरिया बदल गया है ? नक्सली आए दिन वारदात कर रहे हैं और हजारों लोग इस हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं। लेकिन सरकार अगर इसी प्रकार एक कदम आगे बढ़कर और फिर एक कदम पीछे चलने का रवैया अपनाती है, तो इससे नक्सलियों को संबल ही मिलेगा। इससे अंततः वे भ्रम के निर्माण में सफल होगें और लोकतंत्र की चूलें हिल जाएंगी। लोकतंत्र में असहमति के लिए स्पेस है और होना ही चाहिए किंतु अगर लोकतंत्र को ही तोड़ने और समाप्त करने के प्रयासों में लगे लोगों के प्रति भी राज्य सहानूभूति रखता है तो हमारे पास क्या बचेगा। हमारे भूगोल को देश के अंदर और बाहर से तमाम चुनौतियां मिल रही हैं। आतंकवाद के खिलाफ देश की बेबसी हम देख रहे हैं। गृहमंत्रालय की बदहवासी की खबरें हमें रोज मिल रही हैं। देश के सामने सुरक्षा की चुनौतियां इतनी असाधारण हैं कि पहले कभी नहीं थीं। आतंकवाद के बराबर ही खतरा नक्सलवाद को माना जा रहा है। ऐसे में हमारा योजना आयोग इस जंग को भोथरा करने के प्रयासों में क्यों लगा है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या कारण है कि हमारी सरकार एक ओर तो माओवाद से लडने की कसमें खाती है, करोड़ों का बजट नक्सलियों के दमन के लिए खर्च कर रही है तो वहीं उसके संकल्प को सरकारी संगठन ही हवा निकाल रहे हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले जनसंगठनों और स्वयंसेवी संगठनों को धन देने से लेकर उनको उपकृत करने के प्रयासों की तमाम खबरें हमारे बीच हैं। हमारे नौजवान रोजाना बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ में नक्सली हमलों में मारे जा रहे हैं। उनकी आर्तनाद करती विधवाओं की आवाज सुनिए। बेहतर है इन इलाकों से सीआरपीएफ और अन्य बलों को वापस लीजिए और उनका कत्लेआम रोकिए। आखिर सरकार की नीति क्या है, यह तो सामने आए।

जरूर नक्सलियों के मददगारों को केंद्रीय सरकार के संगठनों में नामित कीजिए, किसी को कोई आपत्ति न होगी। विनायक सेन को उनकी सेवाओं के लिए भारत रत्न दे दीजिए। लेकिन दोहरा खेल न खेलिए। जहां हमारे नौजवान जान पर खेल कर इस जनतंत्र को बचाने के लिए लगे हों, जहां नक्सली आदिवासी समाज का सैन्यीकरण कर रहे हों- वहां नक्सलियों के शहरी मददगार संगठनों और व्यक्तियों का सरकार ही संरक्षण करे यह कैसी विडंबना है। देश के मानस को भ्रम न रखा जाए। क्योंकि विनायक सेन को एक आपराधिक मामले में आरोपी होने के बावजूद योजना आयोग जैसे संगठन से जोड़ना वास्तव में खतरनाक है। जब तक वे अदालत से दोषमुक्त होकर नहीं आते सरकार का इस तरह का कोई भी कदम माओवाद के खिलाफ हमारी जंग को भोथरा ही करेगा। क्या हम और आप अपने लोगों की लाशों पर यह सौदा करने के लिए तैयार हैं ? माओवाद की जंग इस देश के लोकतंत्र को समाप्त कर बंदूकों का राज लाने की है। वे 2050 में लोकतंत्र को समाप्त कर देश में माओवाद लाने का स्वप्न देख रहे हैं। हिंसा के पैरोकारों ने आम आदमी के नाम पर आम आदिवासी के दमन और शोषण का ही मार्ग पकड़ा है। अफसोस कि हमारे कुछ बुद्धिजीवी नक्सलियों को बंदूकधारी गांधीवादी कहने से बाज नहीं आते। ये तथाकथित बुद्धिजीवी ही माओवादियों को वैचारिक खाद-पानी दे रहे हैं और हमारे कुछ स्वार्थी राजनेता और गुमराह अफसर सरकारों को गुमराह करने में सफल हैं। यह मिथ्या बात फैलाई जा रही है कि नक्सलवादी असमानता और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है। किंतु क्या हमारे राज्य को नक्सलवाद या माओवाद का फलसफा नहीं पता है। क्या हमारे नेताओं को नहीं पता कि यह कैसी विचारधारा है और इसके उद्देश्य क्या हैं। अगर हम जानकर भी अनजान बन रहे हैं तो हमारा भगवान ही मालिक है। लेकिन आम जनता की लाशों पर जो लोग सौदे कर रहे हैं इतिहास उन्हें माफ तो बिल्कुल नहीं करेगा।

शनिवार, 14 मई 2011

माखनलाल पत्रकारिता विवि में कई पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश प्रारंभ

भोपाल,14 मई,2011। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में शैक्षणिक सत्र 2011-12 में संचालित होने वाले विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई है। विश्वविद्यालय द्वारा मीडिया मैनेजमेंट, विज्ञापन एवं विपणन संचार, मनोरंजन संचार, कॉर्पोरेट संचार तथा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संचार में एम.बी.ए. पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत एम.जे. (पत्रकारिता स्नातकोत्तर), एम.ए.-विज्ञापन एवं जनसंपर्क, एम.ए.-जनसंचार, एम.ए.-प्रसारण पत्रकारिता, एम.एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं । तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रमों के अंतर्गत बी.ए.-जनसंचार, बी.एससी.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बी.एससी.-ग्राफिक्स एवं एनीमेशन, बी.एससी.-मल्टीमीडिया तथा बी.सी.ए. पाठ्यक्रम संचालित हैं। एक वर्षीय पाठ्यक्रम के अंतर्गत विडियो प्रोडक्शन, वेब संचार, पर्यावरण संचार, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं अध्यात्मिक संचार तथा भारतीय संचार परंपराएँ तथा पीजीडीसीए जैसे स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त एमसीए तथा बी.लिब. पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। मीडिया अध्ययन में एम.फिल. तथा संचार, जनसंचार, कंप्यूटर विज्ञान तथा पुस्तकालय विज्ञान में पीएच.डी. हेतु आवेदन आमंत्रित किये गए हैं। यह प्रवेश प्रक्रिया विश्वविद्यालय के भोपाल, नॉएडा एवं खंडवा स्थित परिसरों के लिए है। पाठ्यक्रमों में आवेदन करने की अंतिम तिथि 25 मई 2011 है। प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा का आयोजन 12 जून 2011 को भोपाल, कोलकाता जयपुर, पटना, रांची, लखनऊ तथा दिल्ली/नोएडा केन्द्रों पर किया जायेगा। अधिक जानकारी विवरणिका और आवेदन पत्र हेतु दिनांक 16-22 अप्रैल 2011 के रोजगार समाचारतथा एम्प्लोयेमेंट न्यूज़एवं दिनांक 18-24 अप्रैल 2011 के रोजगार और निर्माणमें प्रकाशित विज्ञापन देखें अथवा विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in पर लोगऑन करें या किसी भी परिसर में पधारें अथवा फोन करें 0755-2553523 (भोपाल), 0120-4260640 (नोएडा), 0733-2248895 (खंडवा)।विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रम रोजगारोन्मुखी हैं एवं मीडिया के क्षेत्र में रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराते हैं।

मीडिया को नई राह बताते हैं नारद के भक्ति सूत्र

नारद जयंती (19 मई) पर विशेष

- प्रो.बृज किशोर कुठियाला

सभी पुराणों में महर्षि नारद एक अनिवार्य भूमिका में प्रस्तुत हैं। उन्हें देवर्षि की संज्ञा दी गई, परन्तु उनका कार्य देवताओं तक ही सीमित नहीं था। वे दानवों और मनुष्यों के भी मित्र, मार्गदर्शक, सलाहकार और आचार्य के रूप में उपस्थित हैं। परमात्मा के विषय में संपूर्ण ज्ञान प्रदान करने वाले दार्शनिक को नारद कहा गया है। महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि नारद आदर्श व्यक्तित्व हैं। श्री कृष्ण ने उग्रसेन से कहा कि नारद की विशेषताएं अनुकरणीय हैं।

पुराणों में नारद को भागवत संवाददाता के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह भी सर्वमान्य है कि नारद की ही प्रेरणा से वाल्मीकि ने रामायण जैसे महाकाव्य और व्यास ने भागवत गीता जैसे संपूर्ण भक्ति काव्य की रचना की थी। ऐसे नारद को कुछ मूढ़ लोग कलह प्रिय के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं, परन्तु नारद जब-जब कलह कराने की भूमिका में आते हैं तो उन परिस्थितयों का गहरा अध्ययन करने से सिद्ध होता है कि नारद ने विवाद और संघर्ष को भी लोकमंगल के लिए प्रयोग किया है। नारद कई रूपों में श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदर्शित करते हैं। संगीत में अपनी अपूर्णता ध्यान में आते ही उन्होंने कठोर तपस्या और अभ्यास से एक उच्च कोटि के संगीतज्ञ बनने को भी सिद्ध किया। उन्होंने संगीत गन्धर्वों से सीखा और नारद संहिताग्रंथ की रचना की। घोर तप करके विष्णु से संगीत का वरदान प्राप्त किया। वे तत्व ज्ञानी महर्षि थे। नारद के भक्ति सूत्रों में उनके परमात्मा व भक्त के संबंधों की व्याख्या से वे एक दार्शनिक के रूप में सामने आते हैं। परन्तु नारद अन्य ऋषियों, मुनियों से इस प्रकार से भिन्न हैं कि उनका कोई अपना आश्रम नहीं है। वे निरंतर प्रवास पर रहते हैं। परन्तु यह प्रवास व्यक्तिगत नहीं है। इस प्रवास में भी वे समकालीन महत्वपूर्ण देवताओं, मानवों व असुरों से संपर्क करते हैं और उनके प्रश्न, उनके वक्तव्य व उनके कटाक्ष सभी को दिशा देते हैं। उनके हर परामर्श में और प्रत्येक वक्तव्य में कहीं-न-कहीं लोकहित झलकता है। उन्होंने दैत्य अंधक को भगवान शिव द्वारा मिले वरदान को अपने ऊपर इस्तेमाल करने की सलाह दी। रावण को बाली की पूंछ में उलझने पर विवश किया और कंस को सुझाया की देवकी के बच्चों को मार डाले। वह कृष्ण के दूत बनकर इन्द्र के पास गए और उन्हें कृष्ण को पारिजात से वंचित रखने का अहंकार त्यागने की सलाह दी। यह और इस तरह के अनेक परामर्श नारद के विरोधाभासी व्यक्तित्व को उजागर करते दिखते हैं। परन्तु समझने की बात यह है कि कहीं भी नारद का कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता है। वे सदैव सामूहिक कल्याण की नेक भावना रखते हैं। उन्होंने आसुरी शक्तियों को भी अपने विवेक का लाभ पहुंचाया। जब हिरण्य तपस्या करने के लिए मंदाक पर्वत पर चले गए तो देवताओं ने दानवों की पत्नियों व महिलाओं का दमन प्रारंभ कर दिया, परन्तु दूरदर्शी नारद ने हिरण्य की पत्नी की सुरक्षा की जिससे प्रहृलाद का जन्म हो सका। परन्तु उसी प्रहृलाद को अपनी आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित करके हिरण्य कशिपु के अंत का साधन बनाया।इन सभी गुणों के अतिरिक्त नारद की जिन विशेषताओं की ओर कम ध्यान गया है वह है उनकी संचारयोग्यता व क्षमता। नारद ने वाणीका प्रयोग इस प्रकार किया। जिससे घटनाओं का सृजन हुआ। नारद द्वारा प्रेरित हर घटना का परिणाम लोकहित में निकला। इसलिए वर्तमान संदर्भ में यदि नारद को आज तक के विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोक संचारककहा जाये तो कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। नारद के हर वाक्य, हर वार्ता और हर घटनाक्रम का विश्लेषण करने से यह बार-बार सिद्ध होता है कि वे एक अति निपुण व प्रभावी संचारकथे। दूसरा उनका संवाद शत-प्रतिशत लोकहित में रहता था। वे अपना हित तो कभी नहीं देखते थे, उन्होंने समूहों पर जातियों आदि का भी अहित नहीं साधा। उनके संवाद में हमेशा लोक कल्याण की भावना रहती थी। तीसरे, नारद द्वारा रचित भक्ति सूत्र में 84 सूत्र हैं। प्रत्यक्ष रूप से ऐसा लगता है कि इन सूत्रों में भक्ति मार्ग का दर्शन दिया गया है और भक्त ईश्वर को कैसे प्राप्त करे ? यह साधन बताए गए हैं। परन्तु इन्हीं सूत्रों का यदि सूक्ष्म अध्ययन करें तो केवल पत्रकारिता ही नहीं पूरे मीडिया के लिए शाश्वत सिद्धांतों का प्रतिपालन दृष्टिगत होता है। नारद भक्ति सूत्र का 15वां सूत्र इस प्रकार से हैः

तल्लक्षणानि वच्यन्ते नानामतभेदात ।।

अर्थात मतों में विभिन्नता व अनेकता है, यही पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी सूत्र की व्याख्या नारद ने भक्ति सूत्र 16 से 19 तक लिखी है और बताया है कि व्यास, गर्ग, शांडिल्य आदि ऋषिमुनियों ने भक्ति के विषय में विभिन्न मत प्रकट किए हैं। अंत में नारद ने अपना मत भी प्रकट किया है, परन्तु उसी के साथ यह भी कह दिया कि किसी भी मत को मानने से पहले स्वयं उसकी अनुभूति करना आवश्यक है और तभी विवेकानुसार निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। वर्तमान में भी एक ही विषय पर अनेक दृष्टियां होती हैं, परन्तु पत्रकार या मीडिया कर्मी को सभी दृष्टियों का अध्ययन करके निष्पक्ष दृष्टि लोकहित में प्रस्तुत करनी चाहिए। यह आदर्श पत्रकारिताका मूल सिद्धांत हो सकता है। आज की पत्रकारिता में मीडिया को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न संवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सबको मालूम है कि यह भ्रम है। मीडिया पूरे सामाजिक संवाद की व्यवस्थाओं का केवल एक अंश हो सकता है और मीडिया की अपनी सीमाएं भी है। भक्ति सूत्र 20 में नारद ने कहा है कि:

अस्त्येवमेवम् ।।

अर्थात यही है, परन्तु इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह पत्रकारिता की सीमा का द्योतक है। इसी प्रकार सूत्र 26 में कहा गया कि:

फलरूपत्वात् ।।

अर्थात पत्रकारिता संचार का प्रारंभ नहीं है यह तो सामाजिक संवाद का परिणाम है। यदि पत्रकारिता को इस दृष्टि से देखा जाए तो पत्रकार का दायित्व कहीं अधिक हो जाता है। सूत्र 43, पत्रकारिता के लिए मार्गदर्शक हो सकता है: दुःसंङ्गः सर्वथैव त्याज्यः

नकारात्मक पत्रकारिता को अनेक विद्वानों और श्रेष्ठजनों ने नकारा। जबकि पश्चिम दर्शन पर आधारित आज की पत्रकारिता केवल नकारात्मकता को ही अपना आधार मानती है और कुत्ते को काटनेको समाचार मानती है। पत्रकार की भूमिका को भी प्रहरी कुत्ते (वाच डाग) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु नारद ने इस श्लोक में कहा कि हर हाल में बुराई त्याग करने योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं होना चाहिए। नकारात्मक पत्रकारिता की भूमिका समाज में विष की तरह है। सूत्र 46 में: कस्तरति कस्तरति मायाम् ? यः सड्ढांस्त्यजाति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ।।

नारद ने कहा कि बुराई लहर के रूप में आती है परन्तु शीघ्र ही वह समुद्र का रूप ले लेती है। आज समाचार वाहिनियों में अपराध समाचार की यही कहानी बनती दिखती है। सूत्र 51 में नारद अभिव्यक्ति की अपूर्णता का वर्णन करते हैं: अनिर्ववनीयं प्रेमस्वरूपम् ।।

अर्थात वास्तविकता या संपूर्ण सत्य अवर्णनीय है इसलिए पत्रकारिता में अधूरापन तो रहेगा ही। पाठक, दर्शक व श्रोता को पत्रकारिता की इस कमी की यदि अनुभूति हो जाती है तो समाज में मीडिया की भूमिका यथार्थ को छूयेगी। इसी बात को सूत्र 52 में नारद ने अलग तरह से प्रस्तुत किया है:

मूकास्वादनवत् ।।

नारद का कहना है कि इस सृष्टि में अनेक अनुभव ऐसे हैं जिनकी अनुभूति तो है परन्तु अभिव्यक्ति नहीं है। व्याख्या करने वाले विद्वानों ने इसे गूंगे का स्वादलेने की स्थिति की तरह वर्णन किया है। नारद भक्ति के सूत्र 63 से मीडिया की विषय-वस्तु के बारे में मार्गदर्शन प्राप्त होता है: स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ।।

नारद ने संवाद में कुछ विषयों को निषेध किया है। वह हैं (1) स्त्रियों व पुरुषों के शरीर व मोह का वर्णन (2) धन, धनियों व धनोपार्जन का वर्णन (3) नास्तिकता का वर्णन (4) शत्रु की चर्चा । आज तो ऐसा लगता है कि मीडिया के लिए विषय-वस्तु इन चारों के अतिरिक्त है ही नहीं। सूत्र 72 एकात्मकता को पोषित करने वाला अत्यंत सुंदर वाक्य है जिसमें नारद समाज में भेद उत्पन्न करने वाले कारकों को बताकर उनको निषेध करते हैं।

नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ।।

अर्थात जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, कार्य आदि के कारण भेद नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता किसके लिए हो व किन के विषय में हो यह आज एक महत्वपूर्ण विषय है। जिसका समाधान इस सूत्र में मिलता है। राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों व अपराधियों का महिमा मंडन करती हुई पत्रकारिता समाज के वास्तविक विषयों से भटकती है। यही कारण है कि जेसिकालाल की हत्या तो न केवल पत्रकारिता की लगातार ब्रेकिंग न्यूज बनती है, उसके संपादकीय लेख और यहां तक की फिल्म भी बनती है, परन्तु एक आम किसान की आत्महत्या केवल एक-दो कालम की खबर में ही सिमट जाती है। जब आत्महत्या का राजनीतिकरण होता है तो वह फिर से मुख्य पृष्ठ पर लौट आती है। आज की पत्रकारिता व मीडिया में बहसों का भी एक बड़ा दौर है। लगातार अर्थहीन व अंतहीन चर्चाएं मीडिया पर दिखती हैं। विवाद को अर्थहीन बताते हुए नारद ने सूत्र 75, 7677 में परामर्श दिया है कि वाद-विवाद में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि वाद-विवाद से मत परिवर्तन नहीं होता है। उन्होंने कहा: बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ।।

भक्तिशास्त्राणि मननीयानि, तदुदृबोधककर्माण्यपि च करणीयानि ।।

सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपि व्यर्थ न नेयम्

सूत्र 78 में नारद ने कुछ गुणों का वर्णन किया है जो व्यक्तित्व में होने ही चाहिए। पत्रकारों में भी इन गुणों का समावेश अवश्य लगता है।

अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारिन्न्याणि परिपालनीयानि ।।

यह गुण है अहिंसा, सत्य, शुद्धता, संवेदनशीलता व विश्वास।सूत्र 71 अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है इसमें नारद बताते हैं कि यह सब कुछ हो जाये (अर्थात नारद के परामर्श को पूर्ण रूप से मान लिया जाए) तो क्या होगा? नारद के अनुसार इस स्थिति में आनन्द ही आनन्द होगा। पितर आनन्दित होते हैं, देवता उल्लास में नृत्य करते हैं और पृथ्वी मानो स्वर्ग बन जाती है। आज के मीडिया की यह दृष्टि नहीं है, यह हम सब जानते हैं। पत्रकारिता से ही सारे मीडिया में सृजन की प्रक्रिया होती है परन्तु सृजन के लिए किस प्रकार की प्रवृत्तियां होनी चाहिए? आज तो सारा सृजन साहित्य, कला, चलचित्र निर्माण, विज्ञापन या पत्रकारिता सभी अर्थ उपार्जन की प्रवृत्ति से होता है। जिसमें असत्य, छल, कपट, दिखावा व बनावटीपन मुख्य हैं। नारद के भक्ति सूत्र 60 में सृजनात्मक प्रवृत्तियों की चर्चा है, सृजनात्मकता की प्रक्रिया का उल्लेख इस तरह है:

शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ।।सत्अर्थात अनुभव चित्अर्थात चेतना और आनन्दअर्थात अनुभूति। अर्थात पत्रकारिता की प्रक्रिया भी ऐसी ही है। वह तथ्यों को समेटती है। उनका विश्लेषण करती है व उसके बाद उसकी अनुभूति करके दूसरों के लिए अभिव्यक्त होती है परन्तु इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या, प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है या फिर सुख, शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज को तय करना हैं। नारद के भक्ति सूत्रों का संक्षिप्त विश्लेषण पत्रकारिता की दृष्टि से यहां किया गया है। आवश्यकता है कि इन विषयों का गहन अध्ययन हो और एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। क्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यह कल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

रविवार, 8 मई 2011

प्रभात झाः कठिन उत्तराधिकार की चुनौती


-संजय द्विवेदी

उन्हें पता है कि उनको मिली जिम्मेदारी साधारण नहीं है। वे एक ऐसे परिवार के मुखिया बनाए गए हैं जिसकी परंपरा में कुशाभाऊ ठाकरे जैसा असाधारण नायक है। मध्यप्रदेश भाजपा का संगठन साधारण नहीं है। उसकी संगठनात्मक परंपरा में ठाकरे और उनके बाद एक लंबी परंपरा है। प्यारेलाल खंडेलवाल, गोविंद सारंग, नारायण प्रसाद गुप्ता, कैलाश जोशी, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, सुंदरलाल पटवा, लखीराम अग्रवाल, कैलाश नारायण सारंग सरीखे अनेक नाम हैं। बात मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा की हो रही है, जिन्हें इस महत्वपूर्ण प्रदेश के संगठन की कमान संभाले 8 मई,2011 को एक साल पूरे हो गए हैं। उनके बंगले और प्रदेश कार्यालय में दिन भर कार्यकर्ताओं का तांता लगा है। फूल, बुके, मालाएं और मिठाईयां, नारे और जयकारों के बीच भी उनकी नजर मछली की आंख पर है। वे कार्यकर्ताओं से घिरे हैं, उनकी शुभकामनाएं ले रहे हैं, उन्हें मिठाईयां खिला रहे हैं पर मंडीदीप नगरपालिका (भोपाल के पास का एक कस्बा) के चुनाव के लिए लगातार वहां के स्थानीय कार्यकर्ताओं से फोन पर बात कर रहे हैं। एक कार्यकर्ता हार पहनाने के लिए बढ़ते हैं तो प्रभात जी जुमला फेंकते हैं- हार में नहीं जीत में भरोसा है मेरा।

सोनकच्छ और कुक्षी के दो विधानसभा उपचुनावों की जीत ने ही उनमें यह आत्मविश्वास भरा है। सो अब, प्रभात झा यही भाव अपने संगठन के सामान्य कार्यकर्ताओं में भी भरना चाहते हैं। उनकी कोशिशें कितनी रंग लाएंगी यह तो समय बताएगा, किंतु उनकी मेहनत देखिए वे अपने एक साल के कार्यकाल में पार्टी संगठन के लगभग तीन सौ मंडलों का दौरा कर चुके हैं। शायद इसीलिए इस परिश्रमी अध्यक्ष का सम्मान करने के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने आवास पर उनके सम्मान समारोह का आयोजन किया। इस आयोजन के लिए मुख्यमंत्री की ओर से वितरित किए गए कार्ड की भाषा देखिए-... इस एक वर्ष में उन्होंने अनथक परिश्रम किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के मूल मंत्र चैरेवेति-चैरेवेति को वे साकार कर रहे हैं। जाहिर तौर पर प्रभात झा ने संगठन मंत्र पढ़ लिया है। करीब साल भर पहले जब वे राज्य भाजपा के अध्यक्ष बनाकर भेजे गए थे, तो उनके विरोध में काफी सुर थे। कुछ यह भी आशंकाएं कि झा अपने ऊंचे संपर्कों के सहारे मुख्यमंत्री बनने का सपना भी पाल सकते हैं। साथ ही बिहार में जन्मे होने के कारण भी उनकी स्वीकार्यता सहज नहीं लग रही थी। जबकि ग्वालियर से प्रारंभ अपने पत्रकारीय कैरियर से उन्होंने जिस तरह खुद को मध्यप्रदेश की माटी को समर्पित किया वह अपने आप में एक उदाहरण है। स्व.कुशाभाऊ ठाकरे की प्रेरणा से जब से वे संगठन के लिए जुटे तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। भोपाल और दिल्ली के साधारण कमरों और साधारण स्थितियों में उनकी साधना जिन्होंने देखी है वे मानेंगें कि इस 53 वर्षीय कार्यकर्ता को सब कुछ यूं हीं नहीं मिला है। इन पंक्तियों के लेखक का उनका करीब दो दशक का साथ है। एक पत्रकार के नाते मैं चाहे छिंदवाड़ा के उपचुनाव में कवरेज करने गया या छत्तीसगढ़-मप्र के तमाम चुनावी मैदानों में, झा हमेशा नजर आए। अपनी वही भुवनमोहिनी मुस्कान और संगठन के लिए सारी ताकत और सारे संपर्कों को झोंक देना का हौसला लिए हुए। आप उनके दल के साधारण कार्यकर्ता हों, पत्रकार या बुद्धिजीवी सबका इस्तेमाल अपने विचार परिवार के लिए करना उन्हें आता है। इसलिए देश भर में युवाओं का एक समूचा तंत्र उनके पास है, जिसकी आस्था लिखने-पढ़ने में है। वे संगठन और विचार की राजनीति को समझते हैं। इसलिए कुछ थोपने की कोशिश नहीं करते। एक सजग पत्रकार हमेशा उनके मन में सांस लेता है। इसलिए वे मीडिया मैनेजमेंट नहीं मीडिया से रिश्तों की बात करते हैं। जमीन से आने के नाते, जमीनी कार्यकर्ता की भावनाओं को पढ़ना उन्हें आता है। वे खुद कहते हैं- नींद खोई, दोस्त खोए, पर पाया है कार्यकर्ताओं का प्यार। क्योंकि अपनी सामाजिक ग्राह्यता के लिए कड़े परिश्रम के अलावा मेरे पास न कोई रास्ता था न ही साधन।

निश्चय ही प्रभात झा ने यह साबित कर दिया है उनको राज्य में भेजने का फैसला कितना जायज था। अपने स्वागत और होर्डिंग लगाने की मनाही करके उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से ही सही राजनीति को एक नया पाठ पढ़ाने की कोशिश की। यह सही है कि वे अपने इस फरमान को पूरा लागू नहीं करा पाए पर उनकी कोशिशें रंग ला रही हैं। उन्हें मुख्यमंत्री से लड़ाने की सारी कोशिशें तब विफल होती दिखीं, जब उन्होंने कार्यकर्ता गौरव दिवस कार्यक्रम का भोपाल में आयोजन किया। इस बहाने केंद्र के नेताओं और राष्ट्रीय मीडिया को उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे किसी भी तरह से शिवराज सिंह का विकल्प नहीं हैं, वरन वे तीसरी बार भी शिवराज जी के नेतृत्व में सरकार बनाने के अभियान में जुटे हैं। प्रभात झा कहते हैं- मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अच्छा काम कर रहे हैं। मैं उन्हें और मजबूत करने का काम कर रहा हूं। लोग उभरते हुए नायक को खलनायक बनाने की कोशिश करते हैं, मैं नायक को जननायक बनाने की दौड़ में लगा हूं।

मूलतः एक पत्रकार होने के नाते प्रभात झा सच कहने और कई बार कड़वा सच बोलने से नहीं चूकते। इसके चलते उन्हें बड़बोला साबित करने के भी प्रयास हुए। उनके भाषणों की अलग-अलग व्याख्याएं कर यह साबित करने का प्रयास किया गया कि उनसे नाराजगी बढ़ रही है। झा इस बात को समझने लगे हैं। अब वे वाणी संयम का सहारा ले रहे हैं। खुद झा कहते हैं कि-मैं पत्रकार रहा हूं तो लगता था कि हर सवाल का जवाब देना जरूरी है। समय के साथ यह समझ विकसित हुयी है हर बात का जवाब देना जरूरी नहीं है। मेरे दोस्तों और साथियों की सलाह के बाद मैने कुछ मामलों पर चुप रहना सीख लिया है।

जाहिर तौर पर राजनीति के सफर में एक साल का सफर बहुत बड़ा नहीं होता। किंतु झा को जानने के लिए सिर्फ उन्हें इस एक साल से मत पढिए। वे दल के लिए अपनी जिंदगी के तीन दशक दे चुके हैं। अपने दल को एक वैचारिक आधार दिलाने के लिए उनकी कोशिशों को याद कीजिए। पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश से लेकर अनेक राज्यों से प्रारंभ हुए प्रकाशनों में उनकी भूमिका को भी याद कीजिए। संगठन का विचार से एक रिश्ता बने, बुद्धिजीवियों से उनके दल का एक संवाद बने,यह उनकी एक बड़ी कोशिश रही है। अपने लेखन से समाज को झकझोरने वाले प्रभात आज मध्यप्रदेश भाजपा के शिखर पर हैं, तो इसके भी खास मायने हैं, एक तो यह कि भाजपा में साधारण काम करते हुए आप असाधारण बन सकते हैं, दूसरा यह कि सामान्य कार्यकर्ता कितनी ऊंचाई हासिल कर सकता है वे इसके भी उदाहरण है। मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष का पद बहुत कठिन उत्तराधिकार है, इसे वे समझते हैं। प्रभात झा ने अभी तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है किंतु 2013 में वे अपनी पार्टी को फिर से सत्ता में लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस सवाल पर उनका जवाब बहुत मौजूं है, वे कहते हैं- जिसने शादी नहीं की है, क्या उसे बारात में भी जाने का हक नहीं है। निश्चय ही 2013 की बारात में लोग शामिल होंगें या नहीं होंगें यह कहना कठिन है पर आज तो शिवराज सिंह-प्रभात झा की बारात में हर कोई शामिल दिख रहा है।