दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के साथ जो कुछ हुआ, वही दरअसल हमारी राजसत्ताओं का असली चेहरा है। उन्हें सार्थक सवालों पर प्रतिरोध नहीं भाते। अहिंसा और सत्याग्रह को वे भुला चुके हैं। उनका आर्दश ओबामा का लोकतंत्र है जो हर विरोधी आवाज को सीमापार भी जाकर कुचल सकता है। दिल्ली की ये बेदिली आज की नहीं है। आजादी के बाद हम सबने ऐसे दृश्य अनेक बार देखे हैं। किंतु दिल्ली ऐसी ही है और उसके सुधरने की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती। कल्पना कीजिए जो सरकारें इतने कैमरों के सामने इतनी हिंसक, अमानवीय और बर्बर हो सकती हैं, वे बिना कैमरों वाले समय में कैसी रही होंगी। ऐसा लगता है कि आजादी, हमने अपने बर्बर राजनीतिक, प्रशासनिक तंत्र और प्रभु वर्गों के लिए पायी है। आप देखें कि बाबा रामदेव जब तक योग सिखाते और दवाईयां बेचते और संपत्तियां खड़ी करते रहे,उनसे किसी को परेशानी नहीं हुयी। बल्कि ऐसे बाबा और प्रवचनकार जो हमारे समय के सवालों से मुठभेड़ करने के बजाए योग,तप, दान, प्रवचन में जनता को उलझाए रखते हैं- सत्ताओं को बहुत भाते हैं। देश के ऐसे मायावी संतों, प्रवचनकारों से राजनेताओं और प्रभुवर्गों की गलबहियां हम रोज देखते हैं। आप देखें तो पिछले दस सालों में किसी दिग्विजय सिंह को बाबा रामदेव से कोई परेशानी नहीं हुयी और अब वही उन्हें ठग कह रहे हैं। वे ठग तब भी रहे होंगें जब चार मंत्री दिल्ली में उनकी आगवानी कर रहे थे। किंतु सत्ता आपसे तब तक सहज रहती है, जब तक आप उसके मानकों पर खरें हों और वह आपका इस्तेमाल कर सकती हो।
सत्ताओं को नहीं भाते कठिन सवालः
निश्चित ही बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं वे कठिन सवाल हैं। हमारी सत्ताओं और प्रभु वर्गों को ये सवाल नहीं भाते। दिल्ली के भद्रलोक में यह गंवार, अंग्रेजी न जानने वाला गेरूआ वस्त्र धारी कहां से आ गया? इसलिए दिल्ली पुलिस को बाबा का आगे से दिल्ली आना पसंद नहीं है। उनके समर्थकों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे दिल्ली का रास्ता भूल जाएं। किंतु ध्यान रहे यह लोकतंत्र है। यहां जनता के पास पल-पल का हिसाब है। यह साधारण नहीं है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को नजरंदाज कर पाना उस मीडिया के लिए भी मुश्किल नजर आया, जो लाफ्टर शो और वीआईपीज की हरकतें दिखाकर आनंदित होता रहता है। बाबा रामदेव के सवाल दरअसल देश के जनमानस में अरसे से गूंजते हुए सवाल हैं। ये सवाल असुविधाजनक भी हैं। क्योंकि वे भाषा का भी सवाल उठा रहे हैं। हिंदी और स्थानीय भाषाओं को महत्व देने की बात कर रहे हैं। जबकि हमारी सरकार का ताजा फैसला लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेज की परीक्षा में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य करने का है। यानि भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए आईएएस बनने का रास्ता बंद करने की तैयारी है। ऐसे कठिन समय में बाबा दिल्ली आते हैं। सरकार हिल जाती है क्योंकि सरकार के मन में कहीं न कहीं एक अज्ञात भय है। यह असुरक्षा ही कपिल सिब्बल से वह पत्र लीक करवाती है ताकि बाबा की विश्वसनीयता खंडित हो। उन पर अविश्वास हो। क्योंकि राजनेताओं को विश्वसनीयता के मामले में रामदेव और अन्ना हजारे मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। आप याद करें इसी तरह की विश्वसनीयता खराब करने की कोशिश में सरकार से जुड़े कुछ लोग शांति भूषण के पीछे पड़ गए थे। संतोष हेगड़े पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि उन्हें अन्ना जैसे निर्दोष व्यक्ति में कुछ ढूंढने से भी नहीं मिला। लेकिन निशाने पर तो अन्ना और उनकी विश्वसनीयता ही थी। शायद इसीलिए अन्ना हजारे ने सत्याग्रह शुरू करने से पहले रामदेव को सचेत किया था कि सरकार बहुत धोखेबाज है उससे बचकर रहना। काश रामदेव इस सलाह में छिपी हुयी चेतावनी को ठीक से समझ पाते तो उनके सहयोगी बालकृष्ण होटल में मंत्रियों के कहने पर वह पत्र देकर नहीं आते। जिस पत्र के सहारे बाबा रामदेव की तपस्या भंग करने की कोशिश कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेस में की।
बिगड़ रहा है कांग्रेस का चेहराः
बाबा रामदेव के सत्याग्रह आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने जिस तरह कुचला उसकी कोई भी आर्दश लोकतंत्र इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और घरना देने की सबको आजादी है। दिल्ली में जुटे सत्याग्रहियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि उन पर इस तरह आधी रात में लाठियां बरसाई जाती या आँसू गैस के गोले छोड़ जाते। किंतु सरकारों का अपना चिंतन होता है। वे अपने तरीके से काम करती हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बर्बर कार्रवाई से केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी प्रतिष्ठा गिरी है। एक तरफ सरकार के मंत्री लगातार बाबा रामदेव से चर्चा करते हैं और एक बिंदु पर सहमति भी बन जाती है। संभव था कि सारा कुछ आसानी से निपट जाता किंतु ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि सरकार को यह दमनात्मक रवैया अपनाना पड़ा। इससे बाबा रामदेव का कुछ नुकसान हुआ यह सोचना गलत है। कांग्रेस ने जरूर अपना जनविरोधी और भ्रष्टाचार समर्थक चेहरा बना लिया है। क्योंकि आम जनता बड़ी बातें और अंदरखाने की राजनीति नहीं समझती। उसे सिर्फ इतना पता है कि बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह सरकार को पसंद नहीं है। इसलिए उसने ऐसी दमनात्मक कार्रवाई की। जाहिर तौर पर इस प्रकार का संदेश कहीं से भी कांग्रेस के लिए शुभ नहीं है। बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं, उसको लेकर उन्होंने एक लंबी तैयारी की है। पूरे देश में सतत प्रवास करते हुए और अपने योग शिविरों के माध्यम से उन्होंने लगातार इस विषय को जनता के सामने रखा है। इसके चलते यह विषय जनमन के बीच चर्चित हो चुका है। भ्रष्टाचार का विषय आज एक केंद्रीय विषय बन चुका है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे दो नायकों ने इस सवाल को आज जन-जन का विषय बना दिया है। आम जनता स्वयं बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं से उसे घोर निराशा है। ऐसे कठिन समय में जनता को यह लगने लगा है कि हमारा जनतंत्र बेमानी हो चुका है। यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि यह जनतंत्र, हमारे आजादी के सिपाहियों ने बहुत संर्धष से अर्जित किया है। उसके प्रति अविश्वास पैदा होना या जनता के मन में निराशा की भावनाएं पैदा होना बहुत खतरनाक है।
अन्ना या रामदेव के पास खोने को क्या हैः
बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसी आवाजों को दबाकर हम अपने लोकतंत्र का ही गला घोंट रहे हैं। आज जनतंत्र और उसके मूल्यों को बचाना बहुत जरूरी है। जनता के विश्वास और दरकते भरोसे को बचाना बहुत जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे राजनीतिक दल अगर ईमानदार प्रयास कर रहे होते तो ऐसे आंदोलनों की आवश्यक्ता भी क्या थी? सरकार कुछ भी सोचे किंतु आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जनता के सामने एक आशा की किरण बनकर उभरे हैं। इन नायकों की हार दरअसल देश के आम आदमी की हार होगी। केंद्र की सरकार को ईमानदार प्रयास करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हुए दिखना होगा। क्योंकि जनतंत्र में जनविश्वास से ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। यह बात बहुत साफ है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी रूप में सत्ता में नहीं हैं। जबकि कांग्रेस के पास एक सत्ता है और उसकी परीक्षा जनता की अदालत में होनी तय है, क्या ऐसे प्रसंगों से कांग्रेस जनता का भरोसा नहीं खो रही है, यह एक लाख टके का सवाल है। आज भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली में रामलीला मैदान की सफाई करके खुद को महावीर साबित कर ले किंतु यह आंदोलन और उससे उठे सवाल खत्म नहीं होते। वे अब जनता के बीच हैं। देश में बहस चल पड़ी है और इससे उठने वाली आंच में सरकार को असहजता जरूर महसूस होगी। केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है।
बाबा रामदेव इस मुकाम पर हारे नहीं हैं, उन्होंने इस आंदोलन के बहाने हमारी सत्ताओं के एक जनविरोधी और दमनकारी चेहरे को सामने रख दिया है। सत्ताएं ऐसी ही होती हैं और इसलिए समाज को एकजुट होकर एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करना होगा। यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी होगी। रामदेव के सामने भी रास्ता बहुत सहज नहीं है,क्योंकि वे अन्ना हजारे नहीं हैं। सरकार हर तरह से उनके अभियान और उनके संस्थानों को कुचलने की कोशिश करेगी। क्योंकि बदला लेना सत्ता का चरित्र होता है। इस खतरे के बावजूद अगर वे अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहते हैं तो देश की जनता उनके साथ खड़ी रहेगी, इसमें संदेह नहीं है। बाबा रामदेव ने अपनी संवाद और संचार की शैली से लोगों को प्रभावित किया है। खासकर हिंदुस्तान के मध्यवर्ग में उनको लेकर दीवानगी है और अब इस दीवानगी को, योग से हठयोग की ओर ले जाकर उन्होंने एक नया रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता कठिन भी है और उनकी असली परीक्षा दरअसल इसी मार्ग पर होनी हैं। देखना है कि बाबा इस कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपने साथ कितने लोगों को चला पाते हैं ?
केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है।
जवाब देंहटाएंjai baba banaras.....