मंगलवार, 29 मार्च 2011

कालेजों को स्वायत्तता पर जरा संभलकर

उदार नीतियां हमारे शिक्षा परिसरों को बदहाल कर रही हैं

-संजय द्विवेदी

केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्रालय एक ऐसी लीलाभूमि है जो नित नए प्रयोगों के लिए जानी जाती है। वहां बैठने वाला हर मंत्री अपने एजेंडे पर इस तरह आमादा हो जाता है कि देश और जनता के व्यापक हित किनारे रह जाते हैं। अब कपिल सिब्बल के पास इस मंत्रालय की कमान है। उन्हें निजीकरण का कुछ ज्यादा ही शौक है। वे अब लगे हैं कि किस तरह नए प्रयोगों से शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिर्वतन कर दिए जाएं। किंतु इस तेज बदलाव के पीछे एक सुचिंतित अवधारणा नहीं है।

बाजार को अच्छे लगने वाले परिवर्तन करके हम अपने उच्चशिक्षा क्षेत्र का कबाड़ा ही करेंगें। किंतु लगता है मानव संसाधन विकास मंत्रालय इन दिनों काफी उदार हो गया है। खासकर निजी क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए उसके प्रयासों को इस नजर से देखा जा सकता है। चिंता यही है कि उसके हर कदम से कहीं बाजार की शक्तियां मजबूत न हों और उच्चशिक्षा का वैसा ही बाजारीकरण न हो जाए जैसा हमने प्राथमिक शिक्षा का कर डाला है। किंतु लगता है कि सरकार ने वही राह पकड़ ली है। ताजा सूचना यह है कि प्रतिष्ठित संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने के कदमों के तहत प्रेसिडेंसी, सेंट जेवियर और सेंट स्टीफेंस जैसे कालेजों को यह छूट दी जाएगी वे अपनी डिग्री खुद दे सकें। मानवसंसाधन विकास मंत्रालय को लगता है कि इस कदम से विश्वविद्यालयों के भार में कमी आएगी। अब इसे कानून के जरिए लागू करने की तैयारी है। कालेज अभी डिग्रियों के लिए विश्वविद्यालयों पर निर्भर रहते हैं। एनआर माधव मेनन समिति की सिफारिशों में विशेष शिक्षण स्वायत्तता पर जोर दिया गया है। जाहिर तौर पर यह कदम एक क्रांतिकारी कदम तो है लेकिन इसके हानि लाभों का आकलन कर लिया जाना चाहिए।

कुछ बेहतर कालेजों को लाभ देने के लिए शुरू की जाने वाली यह योजना खराब कालेजों या सामान्य संस्थानों तक नहीं पहुंचेगी इसकी गारंटी क्या है? इसके खतरे बहुत बड़े हैं। कालेजों की क्षमता का आकलन कौन करेगा यह भी एक बड़ा सवाल है। किस आधार पर सेंट स्टीफेंस बेहतर है और दूसरा बदतर कैसे है इसका आकलन कैसे होगा ?ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि हमारे शासकीय विश्वविद्यालयों का इससे मान खत्म होगा। वे धीरे-धीरे एक स्लम में बदल जाएंगें। सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालय बदहाली के शिकार हैं, किंतु हमारे मानवसंसाधन मंत्री को विदेशी और निजी विश्वविद्यालयों को ज्यादा से ज्यादा खुलवाने की जल्दी है। आखिर यह तेजी क्यों? इतनी हड़बड़ी क्यों ? क्यों हम अपने पारंपरिक विश्वविद्यालयों की अकादमिक दशा को सुधारने के लिए प्रयास नहीं करते। आखिर इन्हीं संस्थाओं ने हमें प्रतिभाएं दी हैं। जो आज देश और दुनिया में अपना नाम कर रहे हैं। बारेन बफेट के अजीत जैन जैसे लोग सरकार के आईटीआई से ही पढ़कर निकले हैं, तो क्या इन संस्थाओं की प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी है जो हम इन्हें स्लम बनाने पर आमादा हैं। शिक्षा का काम सरकार और समाज करे तो समझ में आता है किंतु पैसे के लालची व्यापारी और कंपनियां अगर सिर्फ पैसे कमाने के मकसद से आ रही हैं तो क्या हमें सर्तक नहीं हो जाना चाहिए। रोज खुल रहे नए विश्वविद्यालय अपनी चमक- दमक से सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को निरंतर चुनौती दे रहे हैं।

यह एक ऐसा समय है जिसमें निजी क्षेत्र को अपनी ताकत दिखाने का निरंतर अवसर है। कालेजों की स्वायत्तता एक ऐसा कदम होगा जिससे हमारे विश्वविद्यालय कमजोर ही होंगें और कालेजों पर नियंत्रण रखने का उपाय हमारे पास आज भी नहीं है। कम से कम विश्वविद्यालय से संबद्धता के नाम पर कुछ नियंत्रण बना और बचा रहता है वह खत्म होने के कगार पर है। इसे बचाने की जरूरत है, या इसके समानांतर कोई व्यवस्था बनाई जाए तो इन कालेजो का नियमन कर सके। किंतु वह व्यवस्था भी भ्रष्टाचार से मुक्त होगी, इसमें संदेह है। आप कुछ भी कहें हमारी ज्यादातर नियामक संस्थाएं आज भ्रष्टाचार का एक केंद्र बन गयी हैं। निजीकरण की तेज हवा ने इस भ्रष्टाचार को एक आँधी में बदल दिया है। विभिन्न कोर्स की मान्यता के लिए ये नियामक संस्थाएं कैसे और कितने तरह का भ्रष्टाचार करती हैं इसे निजी क्षेत्र के शिक्षा कारोबारियों से पूछिए। लेकिन इसका अंततः फल भुगतता बेचारा अभिभावक और छात्र ही है। क्योंकि यह सारा धन तो अंततः तो उससे ही वसूला जाना है। अपनी जिम्मेदारियों से भागती लोककल्याणकारी सरकारें भले ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेश और विदेश निवेश के लिए लाल कालीन बिछाने पर आमादा हों, इससे उच्चशिक्षा एक खास तबके की चीज बनकर रह जाएगी। यह गंभीर चिंता का विषय है कि केंद्र से लेकर राज्य सरकारें निरंतर निजी विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहन देने वाली नीतियां बनाने में लगी हैं और अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों की चिंता उन्हें नहीं है। सरकारी विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं, उसकी चिंता राज्यों की सरकारों को नहीं है। हर काम से अपना हाथ खींचकर सरकारें सारा कुछ बाजार को सौंपने पर क्यों आमादा हैं समझना मुश्किल है। आज शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र पूरी तरह बाजार के हवाले हो चुके हैं। क्या यह एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा का मजाक नहीं है। यह समझ में न आने वाली चीज है कि व्यापारी अपनी चीज का विस्तार करता है और उसका संरक्षण करता है किंतु हमारी सरकारें अपने स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और अस्पतालों में उजाड़ने में लगी हैं। ऐसे में आम आदमी के सामने विकल्प क्या हैं। महंगी शिक्षा और महंगा इलाज क्या एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मेल खाते हैं ? शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को मजबूत करते हुए हम क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या वास्तव में हमने अपने जनतंत्र को एक मजाक बनाने की ठान रखी है ?

कुल मिलाकर यह कवायद कुछ निजी कालेजों को ताकत देने का ही विचार लगती है। इसमें व्यापक हित की अनदेखी संभव है। सरकार जिस तरह निजी क्षेत्र पर मेहरबान है उसमें कुछ भी संभव है किंतु इतना तय है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा का क्षेत्र एक सपना हो जाएगा। जिससे समाज में तनाव और विवाद की स्थितियां ही बनेंगीं। केंद्र सरकार कालेजों को स्वायत्तता के सवाल पर थोड़ी संजीदगी दिखाए क्योंकि इसके खतरे कई हैं। पूरे मसले पर व्यापक विमर्श के बाद ही कोई कदम उठाना उचित होगा क्योंकि यह सवाल लोगों के भविष्य से भी जुड़ा है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

शनिवार, 26 मार्च 2011

क्या बेमानी हैं राजनीति में नैतिकता के प्रश्न ?

-संजय द्विवेदी

यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।

आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।

हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।

भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित होगा मीडिया विमर्श का अगला अंक

भोपाल, 22 मार्च। देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों एवं उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। आज जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है किंतु उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है।

नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं, वह किस तरह स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है- इन प्रश्नों पर बातचीत बहुत प्रासंगिक है।

पिछले पांच सालों से सतत प्रकाशित देश की चर्चित मीडिया पत्रिका मीडिया विमर्श अपना अगला अंक उर्दू पत्रकारिता का भविष्य पर केंद्रित कर रही है। इस अंक के अतिथि संपादक प्रख्यात उर्दू पत्रकार एवं लेखक श्री तहसीन मुनव्वर होगें। उम्मीद है इस बहाने हम उर्दू पत्रकारिता के भविष्य और वर्तमान को सही तरीके से रेखांकित किया जा सकेगा। इस अंक के लिए लेखक अपनी रचनाएं 15 अप्रैल,2011 तक भेज सकते हैं। अंक से संबंधित किसी जानकारी के लिए पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी के फोन नंबर-09893598888 अथवा उनके ई-मेल 123dwivedi@gmail.com पर बातचीत की जा सकती है। संजय द्विवेदी का पता है- संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011

शनिवार, 19 मार्च 2011

होली के रंगारंग त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाएं- संजय द्विवेदी

गुरुवार, 17 मार्च 2011

सोशल नेटवर्किंग को संस्कारों का माध्यम बनाएं

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में नए मीडिया की उपयोगिता पर हुआ विमर्श

भोपाल,17 मार्च। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सोशल नेटवर्किगं पर आयोजित संवाद में सहभागियों ने फैसला किया है कि वे विश्वविद्यालय के मंच से नए मीडिया के लिए शब्दावली का विकास तो करेंगे ही साथ ही अंग्रेजी शब्दावली में भी सही अर्थ देने वाली शब्दावली का प्रस्ताव करेंगें। संवाद का यह भी फैसला है कि सोशल नेटवर्किंग को सूचनाओं के साथ संवाद, संस्कार और संबंध का माध्यम बनाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही इस माध्यम को अनुभवी लोगों के द्वारा एक अनौपचारिक कक्षा के रूप में भी स्थापित किया जाना चाहिए। कुछ प्रतिभागियों का कहना था कि विश्वविद्यालय को मीडिया के आनलाइन पाठ्यक्रमों की भी शुरूआत करनी चाहिए।

विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित इस एक दिवसीय सेमीनार में देश के अनेक हिस्सों से आए लोगों ने दिन भर इस ज्वलंत विषय पर चर्चा करते हुए सोशल नेटवर्किंग के प्रभावों का जिक्र किया। कार्यक्रम का उदधाटन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि आज टेक्नालाजी के माध्यम से जितने परिवर्तन पिछले एक दशक में हुए उतने शायद ही मानव जीवन में हुए हों। एक दशक के परिवर्तन पूरे मानव जीवन पर भारी है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इंटरनेट की टेक्नालाजी ने मनुष्य के जीवन में बल्कि सृष्टि के अंतरसंबध में परिवर्तन कर दिया है जिसके नकारात्मक प्रभाव सामने आ रहे हैं। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए आगे कहा कि इस नई टेक्नालाजी का प्रयोग मानवता के हित में होना चाहिए। भविष्य में इसका उपयोग क्या होगा, इसकी दशा व दिशा को तय करना होगा। आज दुनिया के एक छोटे से वर्ग ने प्रकृति द्वारा दिए गए संवाद पर एकाधिकार को कर लिया है जो उसकी व्यापकता को संकुचित कर लिया है।

सामाजिक कार्यकर्ता मनमोहन वैद्य ने कहा कि मनुष्य अपनों से दूर होता जा रहा है और उसे जोड़ने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग का रचनात्मक इस्तेमाल किया जाए तो इसके लाभ पाए जा सकते हैं। प्रो. देवेश किशोर (दिल्ली) ने अपने संवाद व्यक्त करते हुए कहा कि आज हमें टेक्नालाजी का इतना अभ्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि समाज में संकुचित होकर जीवन यापन करें। जयपुर से आए संजय कुमार ने कहा कि नेटवर्किंग ने जहां लोगों को पास लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वहीं इसने व्यक्ति के सामाजिक पहलू को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है। वहीं रायपुर से आए डा. शाहिद अली ने कहा कि आज सूचना प्रौद्योगिकी में जो परिवर्तन हो रहे है उसमें व्यावासायिक लाभ निहित है। जो नए दौर की जो लहर चल रही है, वह हमारे सामाजिक दायित्वों को पीछे धकेल रही है।

वहीं संवाद में हिस्सा ले रहे पत्रकारिता विभाग के व्याख्याता लाल बहादुर ओझा ने कहा कि वर्तमान समय में लोग सोशल नेटवर्किंग साइट का प्रयोग टाइमपास करते हुए रोजमर्रा की बातें आपस में बॉट रहे है। वहीं उन्होंन सोशल नेटवर्क की सार्थकता पर बल देते हुए कहा कि इस नई टेक्नालाजी ने परम्परागत माध्यम के लिए नई जगह खोजी है जिसका बहुलता से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वहीं पत्रकार ओम प्रकाश गौड़ ने रोजमर्रा हो रहे इसके नकारात्मक प्रयोग का जिक्र करते हुए कहा कि सोशल नेटवर्किंग को नैतिकता से नहीं जोड़ा गया तो यह विनाशकारी भी हो सकती है। उन्होंने कहा कि आज वर्तमान समय में संवाद भी बाजार से अछूता ना रह सका यह बेहद दुख का विषय है।

इस अवसर पर डा. मानसिंह परमार (इंदौर), प्रशांत पोल (जबलपुर) रेक्टर प्रो. सीपी अग्रवाल, प्रो. आशीष जोशी, सुरेंद्र पाल, रविमोहन शर्मा, डा.मोनिका वर्मा, उर्वशी परमार, नरेंद्र जैन, डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, सुनीता द्विवेदी, डा. पवित्र श्रीवास्तव ने भी अपने विचार रखे। मंच का संचालन कार्यक्रम की संयोजक डा. पी. शशिकला ने किया।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को मीडिया विमर्श की प्रति भेंट करते हुए संजय द्विवेदी

रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को मीडिया विमर्श की प्रति भेंट करते हुए पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी। इस अंक की आवरण कथा है घोटालों का गणतंत्र। इस अंक में सर्वश्री विजयबहादुर सिंह, वर्तिका नंदा, श्रीकांत सिंह, गिरीश पंकज, प्रफुल्ल विदवई, संजय कुमार, कीर्ति सिंह, अरूंधती राय, सुशील त्रिवेदी, वीरेंद्र कुमार व्यास, आशुतोष मंडावी, प्रभु जोशी, कैलाश नाथ पाण्डेय, शाहिद अली, केसी मौली, रघुराज सिंह आदि के लेख प्रकाशित किए गए हैं।

छत्तीसगढ़ में प्रतिरोध की आखिरी आवाज थे बलिराम कश्यप


माओवादी आतंक से मुक्ति और सार्थक विकास से उन्हें मिलेगी सच्ची श्रद्धांजलि

-संजय द्विवेदी

जिन्होंने बलिराम कश्यप को देखा था, उनकी आवाज की खनक सुनी है और उनकी बेबाकी से दो-चार हुए हैं-वे उन्हें भूल नहीं सकते। भारतीय जनता पार्टी की वह पीढ़ी जिसने जनसंघ से अपनी शुरूआत की और विचार जिनके जीवन में आज भी सबसे बड़ी जगह रखता है, बलिराम जी उन्हीं लोगों में थे। बस्तर के इस सांसद और दिग्गज आदिवासी नेता का जाना, सही मायने में इस क्षेत्र की सबसे प्रखर आवाज का खामोश हो जाना है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने हमेशा बस्तर के लोगों के हित व विकास की चिंता की। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उनका एक खास स्थान था। सही मायने में वे बस्तर के नेता थे किंतु छत्तीसगढ़ में वे प्रतिरोध की आखिरी आवाज थे। बस्तर में वहां के राजा प्रवीर भंजदेव की हत्या के बाद इस इलाके में नेतृत्व के नाम वे अकेले ऐसे इंसान थे जिसे पूरे बस्तर में खास पहचान हासिल थी। आज जहां बस्तर में जनप्रतिनिधि हेलीकाप्टर से उतरते हैं और मुख्यमंत्री से लेकर राज्य के डीजीपी यहां के जनप्रतिनिधियों को सलाह देते हैं कि वे जनता के बीच कम जाएं, बलिराम कश्यप ही ऐसे थे जो बस्तर में कहीं भी निर्भय होकर घूम सकते थे। दरअसल यह ताकत उन्हें लोगों ने दी थी, उन आम आदिवासियों ने, जिनके वे नेता थे।

उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे सच को कहने से चूकते नहीं थे। उनके लिए अपनी बात कहना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, भले ही इसका उन्हें कोई भी परिणाम क्यों न झेलना पड़े। वे सही मायने में बस्तर की राजनीति के एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पांच बार विधायक और चार बार सांसद रहे श्री कश्यप ने बस्तर इलाके में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को आधार प्रदान किया। 1990 में वे अविभाजित मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्री भी रहे। छत्तीसगढ़ राज्य में भाजपा की सरकार बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वीरेंद्र पाण्डेय के साथ मिलकर उन्होंने विधायक खरीद-फरोख्त कांड का खुलासा किया। यह एक ऐसा अध्याय है जो उनकी ईमानदारी और पार्टी के प्रति निष्ठा का ही प्रतीक था। इस अकेले काम ने तो उनको उंचाई दी ही और यह भी साबित किया कि पद का लोभ उनमें न था। वरना जिस तरह की दुरभिसंधि बनाई गयी थी उसमें राज्य के मुख्यमंत्री तो बन ही जाते, भले ही वह सरकार अल्पजीवी होती। पर कुर्सी को सामने पाकर संयम बनाए रखना और षडयंत्र को उजागर करना उनके ही जीवट की बात थी। बस्तर इलाके में आज भाजपा का एक खास जनाधार है तो इसके पीछे श्री कश्यप की मेहनत और उनकी छवि भी एक बड़ा कारण है।

बेबाकी और साफगोई उनकी राजनीति का आधार है। वे सच कहने से नहीं चूकते थे चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। यह उनका एक ऐसा पक्ष है जिसे लोग भूल नहीं पाएंगें। बस्तर में माओवादी आतंकवाद की काली छाया के बावजूद वे शायद ऐसे अकेले जनप्रतिनिधि थे, जो दूरदराज अंचलों में जाते और लोगों से संपर्क रखते थे। आदिवासी समाज में आज उन-सा प्रभाव रखने वाला दूसरा नायक बस्तर क्षेत्र में नहीं है। वे अकेले आदिवासी समाज ही नहीं, वरन पूरे प्रदेश में बहुत सम्मान की नजर से देखे जाते थे। उनकी राजनीति में आम आदमी के लिए एक खास जगह है और वे जो कहते हैं उसे करने वाले व्यक्ति थे। माओवादियों से निरंतर विरोध के चलते उनके पुत्र की भी पिछले दिनों हत्या हो गयी थी। ऐसे दुखों को सहते हुए भी वे निरंतर बस्तर में शांति और सदभाव की अलख जगाते रहे। श्री कश्यप के लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि बस्तर का त्वरित विकास हो, वहां का आदिवासी समाज अपने सपनों में रंग भर सके और समाज जीवन में शांति स्थापित हो सके। बस्तर को माओवादी आतंक से मुक्ति दिलाकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

आदिवासियों के शोषण के खिलाफ हमेशा लड़ने वाले कश्यप की याद इसलिए भी बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है क्योंकि आदिवासियों के पास अब उन सरीखी कोई प्रखर आवाज शेष नहीं है। अपनी जिद और सपनों के लिए जीने वाले कश्यप ने एक विकसित और खुशहाल बस्तर का सपना देखा था। उनके दल भारतीय जनता पार्टी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों को इस सपने को पूरा करना होगा। बस्तर में विकास और शांति दोनों का इंतजार है, उम्मीद है राज्य की सरकार इन दोनों के लिए प्रयासों में तेजी लाएगी। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने अपनी श्रद्धांजलि में श्री कश्यप को लौहपुरूष कहा है, जो वास्तव में उनके लिए एक सही संज्ञा है। भाजपा के अध्यक्ष रहे स्व. कुशाभाऊ ठाकरे उन्हें काला हीरा कहा करते थे। ये बातें बताती हैं कि वे किस तरह से आर्दशवादी और विचारों की राजनीति करने वाले नायक थे। बस्तर ही नहीं समूचे देश में आदिवासी समाज को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो अपने समाज ही नहीं, संपूर्ण समाज को न्याय दिलाने की लड़ाई को प्रखरता से चला सके। आज राजनीति में सारे मूल्य बदल चुके हैं। मूल्यों की जगह गणेशपरिक्रमा, समर्पण की जगह पैसे ने ली है और परिश्रम को बाहुबल से भरा जा रहा है। बलिराम कश्यप जैसे लोग इसलिए भी बेतरह याद आते हैं। यह सोचना होगा कि क्या अब इस दौर में बलिराम कश्यप जैसा हो पाना संभव है। इस माटी के लोग अब कैसे बनेगें ? क्या अच्छे आदमकद लोग बनना बंद हो गए हैं या बौनों की बन आई है ? अब जबकि राज्य में न श्यामाचरण शुक्ल हैं, न बलिराम कश्यप हैं, न पंडरीराव कृदत्त, न लखीराम अग्रवाल हैं - हमें उन मूल्यों और विचारों की याद कौन दिलाएगा जिनके चलते हम संभलकर चलते थे। हमें पता था कोई कहे न कहे, ये लोग हमारे कान जोर से पकड़ेंगें और याद दिलाएंगें कि तुम्हारा रास्ता क्या है। नई राजनीति ने, नए नायक दिए हैं, पर इन सरीखे लोग कहां जो हमें अपने जीवन और कर्म से रोज सिखाते थे। डांटते थे, फटकारते थे। उनके लिए राजनीति व्यवसाय नहीं था, उसके केंद्र में विचार ही था। विचार ही उनकी प्रेरणाभूमि था। वे राजनीति में यूं ही नहीं थे, सोच समझकर राजनीति में आए थे। अपनी नौजवानी में जिस विचार का साथ पकड़ा ताजिंदगी उसके साथ रहे और उसके लिए जिए। यह पीढ़ी जा चुकी है, छ्त्तीसगढ़ के राजनीतिक क्षेत्र को एक कठिन उत्तराधिकार देकर। क्या हम इसके योग्य हैं कि इस कठिन उत्तराधिकार को ग्रहण कर सकें, यह सवाल आज हम सबसे है कि हम इसके उत्तर तलाशें और छत्तीसगढ़ की महान राजनीति के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बनने का प्रयास करें। बलिराम जी के न रहने के बाद जो शून्य है वह बहुत बड़ा है। इस अकेली आवाज की खामोशी को, बहुत सी आवाजें समवेत होकर भी भर पाएंगीं, इसमें संदेह है। आज जबकि बस्तर अपने समूचे इतिहास का सबसे कठिन युद्ध लड़ रहा है, जहां आदिवासियों के न्याय दिलाने के नाम पर आया एक विदेशी विचार(माओवाद) ही आदिवासियों का शत्रु बन गया है, हमें बलिराम कश्यप का नाम लेते हुए इस जंग को धारदार बनाना होगा। क्योंकि बस्तर की शांति और विकास ही बलिराम जी का सपना था और इस सपने में हर छत्तीसगढ़िया और भारतवासी को साथ होना ही चाहिए। शायद तभी हम उन सपनों से न्याय कर पाएंगें जो बलिराम कश्यप ने अपनी नौजवानी में और हम सबने छ्त्तीसगढ़ राज्य का निर्माण करते हुए देखा था।

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विवि, रायपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में संजय द्विवेदी


रायपुर 6मार्च,2011। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर एवं बख्शी सृजनपीठ द्वारा भारतीय पत्रकारिता मुद्दे और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए संजय द्विवेदी।

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विवि, रायपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में संजय द्विवेदी


रायपुर 6मार्च,2011। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर एवं बख्शी सृजनपीठ द्वारा भारतीय पत्रकारिता मुद्दे और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए संजय द्विवेदी। इस आयोजन में पत्रकार राधेश्याम शर्मा, ललित सुरजन, तेजिंदर, बबनप्रसाद मिश्र, तुषारकांति बोस, रवींद्र शाह, वर्तिका नंदा, उमेश उपाध्याय ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

बुधवार, 9 मार्च 2011

‘छत्तीसगढ़ के विकास में मीडिया की भूमिका’ विषय पर संगोष्ठी


मीडिया विमर्श के आयोजन में बोले दिग्गज पत्रकार और राजनेता

राज्य गठन के बाद अपनी भूमिका से चूकी पत्रकारिताः तिवारी

रायपुर। वरिष्ठ पत्रकार बसंतकुमार तिवारी का कहना है कि छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके में जागरूकता और विकास के काम दरअसल पत्रकारिता के सक्रिय हस्तक्षेप से ही संभव हो पाए। यहां तक कि राज्य निर्माण के लिए कोई प्रभावी आंदोलन न होने के बावजूद भी यह राज्य बना तो इसका श्रेय भी यहां के स्थानीय पत्रकारों और अखबारों को है। वे मीडिया विमर्श (जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका) द्वारा आयोजित संगोष्ठी छत्तीसगढ़ के विकास में मीडिया की भूमिका विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। कार्यक्रम का आयोजन रायपुर प्रेस क्लब के सभागार में किया गया था।

श्री तिवारी ने कहा कि मैने अपने जीवन में पत्रकारिता के साठ साल पूरे कर लिए हैं और उस अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि जब मैने पत्रकारिता शुरू की तब रायपुर में अकेला दैनिक महाकौशल निकलता था। वे काफी संघर्ष के दिन थे, किंतु इससे होकर ही छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता ने एक मुकाम हासिल किया है। पत्रकारिता और छत्तीसगढ़ क्षेत्र दोनों का विकास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।

उन्होंने कहा छत्तीसगढ़ की आरंभिक पत्रकारिता ने मुद्दों को पहचानने, जानने और जनाकांक्षाओं को स्वर देने का काम किया था। उन्होंने साफ कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य किसी आंदोलन से नहीं बना, जैसा कि झारखंड या उत्तराखंड में हुआ। इस राज्य के गठन का श्रेय सबसे ज्यादा किसी को है तो यहां की पत्रकारिता को, जिसने इस भूगोल के सवालों को यहां की अस्मिता और विकास से जोड़ दिया। किंतु राज्य के गठन के बाद पत्रकारिता को जैसी भूमिका इस राज्य के निर्माण में अदा करनी चाहिए, उसे वह नहीं निभा पा रही है।

कृषि और उद्योग का संतुलन जरूरीः

देशबंधु के संपादक रहे वयोवृद्ध पत्रकार श्री तिवारी ने कहा कि छत्तीसगढ़ आदर्श राज्य तभी बनेगा जब कृषि और उद्योग का संतुलन बनेगा। खनिजों और वनसंपदा का नियंत्रित दोहन होगा और भूमि विकास के लिए तेज काम होगा। उनका सुझाव था कि अब राज्य में निजी उद्योगों को आने से रोका जाना चाहिए और केवल सार्वजनिक उद्योगों को ही राज्य में आने की अनुमति दी जानी चाहिए। मीडिया को संतुलित विकास के लिए शासन और उद्योगों पर दबाव बनाना होगा। वरना आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगीं।

संसाधनों का हो सही इस्तेमालः

कार्यक्रम के मुख्यवक्ता बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र ने कहा कि भ्रष्टाचार से ही हर योजना असफल होती है। विकास, नेतृत्व की मानसिकता और कर्तव्यनिष्ठा से जुड़ा सवाल है। संसाधनों का सही इस्तेमाल और नियोजन समय की आवश्यक्ता है। इन दस सालों में बहुत कुछ होना था जो नहीं हो पाया। आज भी छत्तीसगढ़ में दो-तीन फसलें लेने की परंपरा नहीं बन पा रही है। लोग बीमारियों से मर रहे हैं। उनका सुझाव था देश का 42 प्रतिशत वन क्षेत्र हमारे पास है, इसे देखते हुए वनोपजों पर आधारित लघु उद्योगों का विकास होना चाहिए। जिससे स्थानीय जनों को काम मिल सके। कोसा से लेकर आदिवासी शिल्प, बस्तर आर्ट और कलाओं का एक वैश्विक बाजार है जिसे इस तरह से विकसित किया जाए कि सीधा लाभ आम आदमी को मिले। नवभारत के प्रबंध संपादक रहे श्री मिश्र ने साफ कहा कि पत्रकारिता पुलिस का रोजनामचा नहीं है। जनता के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति बनने में ही उसकी मुक्ति है। कलम की शक्ति का रचनात्मक उपयोग जरूरी है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ पावर हब तो बन गया है, परंतु जलसंरक्षण के लिए हमारा कर्तव्य शेष है। श्री मिश्र ने कहा कि तेजी से खुलती शराब दुकानें नौजवानों को नष्ट कर रही हैं। जो क्षेत्र वनौषधियों का क्षेत्र होने के कारण आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण का केंद्र बन सकता है वह नकली दवाओं के लिए मशहूर हो रहा है।

आज भी मीडिया पर भरोसा कायमः

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि छत्तीसगढ़ बालअधिकार आयोग के अध्यक्ष यशवंत जैन का कहना था कि राज्य को बनाने और इस क्षेत्र को विकसित बनाने की आकाक्षाएं निश्चित ही मीडिया ने जगाई हैं। अब जरूरत इस बात की है मीडिया राज्य के विकास और नवनिर्माण में एक सजग प्रहरी की तरह काम करे। समय का सच लोगों के सामने आना चाहिए। युवा इस राज्य की ताकत हैं पर वे नशाखोरी से खराब हो रहे हैं। मीडिया के सामाजिक सरोकार ही इस राज्य को एक आदर्श राज्य बना सकते हैं। क्योंकि राज्य में आज भी लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं।

विकास में मीडिया की भूमिका स्वयंसिद्धः

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ बीज एवं कृषि विकास निगम के अध्यक्ष श्याम बैस ने कहा कि किसी भी क्षेत्र के विकास में मीडिया की भूमिका स्वयंसिद्ध है। वह जनता और शासन दोनों के बीच सेतु ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक की भूमिका में है। सकारात्मक और प्रेरणा देने वाले तमाम काम भी समाज जीवन में हो रहे हैं, मीडिया के द्वारा उन्हें सामने लाया जा सकता है। इससे समाज में एक सही वातावरण बनेगा। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है यह भाव भी लोगों में पैदा होगा। समाज की शक्ति के जागरण से ही छत्तीसगढ़ की तकदीर और तस्वीर बदली जा सकती है।

शासन की कमियां बताए मीडियाः

मुख्यअतिथि छत्तीसगढ़ शासन में वनमंत्री और आदिवासी नेता विक्रम उसेंडी ने कहा कि यह जरूरी है मीडिया शासन की कमियों की तरफ इशारा करे। इससे सुधार और विकास की संभावनाएं बढ़ती हैं। नए बने तीनों राज्यों (झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) में छत्तीसगढ़ सबसे आगे है। यह आशाएं जगाता है। बावजूद इसके बहुत कुछ करने की जरूरत है। राज्य के तमाम दूरस्थ इलाकों की खबरें मीडिया के माध्यम से ही सामने आती हैं। तमाम इलाकों से जब ये खबरें आती हैं तो शासन भी सक्रिय होता है और समस्या का समाधान भी होता है। उन्होंने कहा कि वामपंथी उग्रवाद एक बड़ी समस्या है उसके समाधान के बाद छत्तीसगढ निश्चय ही सबसे शांत, सुंदर और समृध्द राज्य बन जाएगा।

पत्रकारों का सम्मानः

इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के तीन वरिष्ठ पत्रकारों सर्वश्री बसंतकुमार तिवारी, बबनप्रसाद मिश्र और उदंती पत्रिका की संपादक डा. रत्ना वर्मा का शाल, श्रीफल और प्रतीक चिन्ह देकर वनमंत्री विक्रम उसेंडी ने सम्मान किया। साथ ही मीडिया विमर्श के ताजा अंक (घोटालों का गणतंत्र) का विमोचन भी किया गया।

अर्जुन सिंह को श्रद्धांजलिः

संगोष्ठी प्रारंभ करने से पूर्व मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं दिग्गज कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह, शिवकुमार शास्त्री, बिलासपुर के पत्रकार सुशील पाठक और महासमुंद के पत्रकार उमेश राजपूत को दो मिनट मौन रहकर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गयी।

आरंभ में स्वागत भाषण पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रभात मिश्र ने किया एवं आभार प्रदर्शन हेमंत पाणिग्राही ने किया। संचालन छत्तीसगगढ़ कालेज में हिंदी की प्रोफेसर डा. सुभद्रा राठौर ने किया। कार्यक्रम के अंत में अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रख्यात लेखिका जया जादवानी ने भेंट किए।

कार्यक्रम में रायपुर के अनेक प्रबुद्ध नागरिक, साहित्यकार एवं पत्रकार उपस्थित थे जिनमें प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक-कवि विश्वरंजन, मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी, छत्तीसगढ़ हज कमेटी के अध्यक्ष डा. सलीम राज, छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, दीपकमल के संपादक पंकज झा, सृजनगाथा डाटकाम के संपादक जयप्रकाश मानस, फिल्मकार तपेश जैन, महानदी वार्ता के संपादक अनुराग जैन, कार्टून वाच के संपादक त्र्यंबक शर्मा, भाजपा नेता और पार्षद सुभाष तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार जागेश्वर साहू, डा. राजेश दुबे, नागेंद्र दुबे, शास्वत शुक्ला, अनिल तिवारी, सुनील पाल, बबलू तिवारी, प्रदीप साहू, किशन लोखंडे के नाम उल्लेखनीय हैं।

गुरुवार, 3 मार्च 2011

अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए

गोधरा दंगों के फैसलों की नुक्ताचीनी करने के बजाए नए गुजरात को सलाम करें
- संजय द्विवेदी
गुजरात एक नया इतिहास रच रहा है। लेकिन कुछ कड़वी यादें उसे उन्हीं अंधेरी गलियों में ले जाती हैं, जहां से वह बहुत आगे निकल आया है। गुजरात दरअसल आज विकास और प्रगति के नए मानकों की एक ऐसी प्रयोगशाला है जहां सांप्रदायिकता के सवाल काफी छूट गए हैं। उसे विकास और गर्वनेंस के नए माडल के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में गोधरा काण्ड पर आया फैसला एक बार फिर छद्मधर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक अवसर की तरह है कि वे हमेशा की तरह इस फैसले की नुक्ताचीनी करें और उसके अर्नथों को विज्ञापित करें। यह कोशिश शुरू हो गयी हैं। किंतु हमें यह सोचने की जरूरत है कि ऐसी व्याख्याओं से हमें क्या हासिल होगा ? क्या गुजरात को देने के लिए हमारे पास कोई नए विचार हैं? अगर नहीं हैं तो जो गुजरात दे रहा है उसे लेने में हममें संकोच क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि नरेंद्र मोदी नाम का एक आदमी वहां मुख्यमंत्री है जिसने इस देश को एक राज्य के विकास का माडल दिया। जिसने गुजराती समाज को उसकी अस्मिता की याद दिलाई और गुजरात को विकास के एक ब्रांड में बदल दिया है।
ऐसे समय में जब दुनिया के सारे कारपोरेट, देश के बड़े धराने ही नहीं, विकास के काम में लगी एजेंसियां गुजरात को एक आर्दश की तरह देख रही हैं क्या जरूरी है कि हम गोधरा और उसके बाद घटे गुजरात के दंगों की उन खूरेंजी यादों के बहाने जख्मों को कुरेदने का काम करें। आखिरकार साबरमती जेल में गठित विशेष कोर्ट ने 27 फरवरी,2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर एस-6 डिब्बे में आग लगने की घटना को हादसा नहीं वरन एक साजिश करार देते हुए 31 लोगों को दोषी ठहराया है। इसके साथ ही सबूतों के अभाव में 63 लोगों को बरी कर दिया गया। प्रत्यक्ष सबूत न होने के आधार पर बरी होने का अर्थ किसी का बिल्कुल निर्दोष होना नहीं है। वैसे भी, अभियुक्तों की तरह ही गुजरात पुलिस के सामने भी उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प खुला है। अफसोस की बात है कि फैसला आने के बाद भी बहुत से राजनेताओं और संगठनों की प्रतिक्रिया रेल कोच में मारे गए कारसेवकों के प्रति उतनी ही संवेदनहीन है। इसी के चलते हमारे कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों पर संदेह होता है और उनके प्रति एक प्रतिक्रिया जन्म लेती है। मारे गए कारसेवकों को प्रति निर्ममता का वक्तव्य देकर आप किसकी मदद कर रहे हैं। मृतकों के प्रति तो शत्रु भी सदाशयता का भाव रखता है। किंतु हमारे राजनेता लाशों की राजनीति से भी बाज नहीं आते।विशेष जांच दल (एसआइटी) के आरोप-पत्र में वर्णित घटनाक्रम को न्यायालय ने लगभग स्वीकार कर लिया है। इसमें अमन गेस्ट हाउस में साजिश रचने की बैठक से लेकर वहीं पेट्रोल रखने तथा उसे पीपे द्वारा डिब्बे के बाहर से अंदर डालने और कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात शामिल थी। जांच दल ने अमन गेस्ट हाउस के मालिक रज्जाक कुरकुर को मुख्य अभियुक्त कहा था। न्यायालय ने भी इस पर मुहर लगा दी है और उसे पांच मुख्य साजिशकर्ताओं में माना है। तीन अभियुक्तों द्वारा पीपे से पेट्रोल का छिड़काव तथा कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात भी न्यायालय ने स्वीकार की। राज्य फोरेंसिक विज्ञान निदेशालय ने कोच को जलाने के लिए पेट्रोल के प्रयोग की बात स्वीकार की थी। न्यायालय ने 253 गवाहों के बयान, 1500 दस्तावेजी सबूतों के अध्ययन, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के गहरे विश्लेषण तथा आठ अभियुक्तों द्वारा अपराध की स्वीकारोक्ति के आधार पर फैसला दिया है। निश्चय ही यह ऐसा फैसला है जो गोधरा काण्ड के बाद फैलाए गए भ्रम को साफ करता है। खासकर नानावटी आयोग और यूसी बनर्जी आयोग ने जिस तरह से अपनी रिपोर्ट दी, उसने पूरे मामले को उलझाकर रख दिया था। नानावटी आयोग ने कहा था कि कि आग जानबूझकर लगाई गयी और बाहरी लोगों ने आग लगाई। आग लगने से जलकर मौत हुयी और स्टेशन पर भारी भीड़ थी। जबकि यूसी बनर्जी आयोग ने तो विचित्र बातें कीं। उसका कहना था कि दुर्धटनावश आग लगी और दम घुटने से मौत हुयी है। इस साजिश में कोई बाहरी नहीं था। स्टेशन पर भीड़ नहीं थी और डिब्बे बाहर से बंद नहीं थे। इसी बनर्जी आयोग की रिपोर्ट के तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने खूब प्रचारित किया। जाहिर तौर पर 58 लोगों की मौत पर इस तरह की राजनीति भारत में ही संभव है।
गोधरा की प्रतिक्रिया स्वरूप जो कुछ गुजरात में हुआ, उसे पूरे देश ने देखा और भोगा है। आज भी गुजरात को उन दृश्यों के चलते शर्मिंदा होना पड़ता है। किंतु हमें देखना होगा कि आक्रामकता का फल कभी मीठा नहीं होता। गोधरा ने जो आग लगाई उसमें पूरा गुजरात झुलझ गया। यह सोचना संभव नहीं है कि किसी भी दंगे की प्रतिक्रिया न हो। आज जबकि गुजरात 2002 की घटनाओं से बहुत आगे निकलकर विकास और प्रगति के नए मानक गढ़ रहा है तब राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे गुजरात को लेकर राजनीति बंद करें। वे इसे देखने के प्रयास करें कि इतने बिगड़े हालात और कई प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री ने किस तरह एक राज्य के भाग्य को अपने संकल्प से बदल दिया है। आज का गुजरात, गोधरा और उसके बाद हुए दंगों को भूलकर आगे बढ़ चुका है। उसे पता है कि उसकी बेहतरी शांति और सद्भाव में ही है। इसलिए देश के अन्य राजनीतिक दलों को भी इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए। आज गुजरात की प्रगति की तारीफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से लेकर विश्व बैंक तक कर रहे हैं तो यह अकारण नहीं है। भारतीय न्याय प्रक्रिया पर भी विश्वास ऐसे फैसलों से बढ़ता है और उसके नीर-क्षीर विवेक का भी पता चलता है। इस फैसले के बाद देश के छद्मधर्मनिरपेक्ष लोगों को यह मान लेना चाहिए कि गोधरा का काण्ड एक गहरी साजिश का परिणाम था जिसका भुगतान गुजरात के तमाम निर्दोष और बेगुनाह लोगों ने किया। गुजरात के दंगे आज भी हमें दुखी करते हैं। किसी भी सभ्य समाज के दंगें और आपराधिक धटनाएं शुभ नहीं कही जा सकतीं। किंतु इन दुखद घटनाओं के बाद गुजरात ने जो रास्ता पकड़ा है, वही सही मार्ग है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राज्य को जिस तरह की मिशाल बना दिया है वह काबिले तारीफ है। बस हमें यह ध्यान देना होगा कि जख्मों को बार-बार कुरेदने से वे हरे होते हैं, सूखते नहीं। क्या गुजरात के मामले पर देश के राजनीतिक दल बार-बार जख्मों को कुरेदने से बाज आएंगें और नए गुजरात को अपनी शुभकामनाएं देने का साहस जुटा पाएंगें? लेकिन हमें पता है कि राजनीति बहुत निर्मम होती है। वह कोई मौका नहीं छोड़ती। हमें पता है दंगे हमेशा आम आदमी पर कहर बनकर बरसते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष में लगे लोगों पर वे जुल्म की इंतहा करते हैं। इसलिए इन घटनाओं में आम आदमी ही सबसे ज्यादा तबाह होता है। उनकी रोजी-रोटी पर बन आती है, घरों में फांके पड़ जाते हैं। लेकिन सियासत में सबसे ज्यादा इस्तेमाल उसके उसकी भावनाओं का होता है। देश को बांटने और तोड़ने में लगी ताकतों को अब हिंदुस्तान पर रहम करना चाहिए।

साहित्य और पत्रकारिता में निकट का नाता : प्रो. सारस्वत

भोपाल, 3 मार्च। साहित्य और पत्रकारिता में गहरा संबंध है। देश में पत्रकारिता का आरंभ भी साहित्य के उद्देश्यों को ही नए माध्यम और नए रूप में प्रस्तुत करने के लिए हुआ था। पत्रकारिता का धर्म वास्तव में संस्कृति की रक्षा करना है। उक्त बातें सुविख्यात साहित्यकार प्रो. ओमप्रकाश सारस्वत ( शिमला) ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आयोजित व्याख्यान में कहीं।
उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से आज की पत्रकारिता साहित्य के पवित्र उद्देश्यों को छोड़कर गलत रास्तों पर चल पड़ी है। अर्थ प्रमुख हो गया है और बाकी सारे आदर्श व्यर्थ हो गए हैं। भारतीय संस्कृति की वैश्विक दृष्टि पर बाजार हावी हो गया है। खबर वस्तु बन गई है। इसे बेचा व खरीदा जा रहा है। प्रो. सारस्वत ने कहा कि पत्रकारिता में विदुर नीति चलनी चाहिए थी जबकि शकुनि की नीति चल रही थी। ऐसी पत्रकारिता सनसनीखेज तो हो सकती है पर वह हमारे देश और समाज के लिए घातक है। आज संस्कारवान पत्रकारिता की आवश्यता है जो देश की वास्तविक समस्याओं को उजागर करे उसके आदर्श समाधान बताए। आज बाढ़ के समय सेक्स स्टोरी छापने वाले पत्र- पत्रिकाओं पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इसे बाजारवाद की अंधी दौड़ से बाहर निकालने की जरुरत है। उन्होंने यह भी कहा कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में सांस्कृतिक मूल्यों को सम्मिलित करने की जरूरत है। सब कुछ बुरा नहीं हो रहा बल्कि कुछ अच्छा हो रहा है उसे प्रेरित करना आवश्यक है। कार्यक्रम का संचालन विभाग के व्याख्याता सुरेंद्र पॉल ने किया। इस अवसर पर दूरदर्शन के समाचार संपादक मनीष गौतम, पीएन द्विवेदी, डा. मोनिका वर्मा, अभिजीत वाजपेयी सहित विभाग के शिक्षक व छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

भाजपा क्यों जीती, कांग्रेस क्यों हारी ?


- बिखराव के चलते उपचुनावों में कांग्रेस की परंपरागत सीटें भी भाजपा को मिलीं

- संजय द्विवेदी

देश के पांच राज्यों की छः विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के संदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छी खबर लेकर आए हैं। मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात की पांच विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस ने कई राज्यों में मैदान उसके लिए छोड़ दिया है। यह एक संयोग ही है कि इन सभी राज्यों में भाजपा ही सत्तारूढ़ दल है। झारखंड की खरसांवा सीट की बात न करें, जहां राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा खुद उम्मीदवार थे तो बाकी सीटों पर बड़े अंतर से भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस इन चुनावों में गहरे विभ्रम का शिकार थी जिसके चलते मध्यप्रदेश की दोनों सीटें कुक्षी और सोनकच्छ दोनों उसके हाथ से निकल गयीं। ये दोनों कांग्रेस की परंपरागत सीटें थीं,जहां कांग्रेस का लंबे अंतर से हारना एक बड़ा झटका है। मध्यप्रदेश की ये दोनों सीटें हारना दरअसल कांग्रेस के लिए एक ऐसे झटके की तरह है जिस पर उसे गंभीरता से विचार जरूर करना चाहिए।

भाजपा के लिए मुस्कराने का मौकाः

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल तीन विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की जीत के मायने तो यही हैं कि राज्यों में उसकी सरकारों पर जनता का भरोसा कायम है। यह चुनाव भाजपा के लिए जहां शुभ संकेत हैं वही कांग्रेस के लिए एक सबक भी हैं कि उसकी परंपरागत सीटों पर भी भाजपा अब काबिज हो रही है। जाहिर तौर पर कांग्रेस को अपने संगठन कौशल को प्रभावी बनाते हुए मतभेदों पर काबू पाने की कला सीखनी होगी। भाजपा के लिए सही मायने में यह मुस्कराने का क्षण है। इस संदेश को पढ़ते हुए भाजपा शासित जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। उन्हें समझना होगा कि इस समय कांग्रेस की दिल्ली की सरकार से लोग खासे निराश हैं और उम्मीदों से खाली हैं। भाजपा देश का दूसरा बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस के पहले स्थान की स्वाभाविक उत्तराधिकारी है। ऐसे में अपने कामकाज से जनता के दिल के जीतने की कोशिशें भाजपा की सरकारों को करनी होगीं। उपचुनाव यह प्रकट करते हैं भाजपा की राज्य सरकारों के प्रति लोगों में गुस्सा नहीं है। किंतु सरकार में होने के नाते उनकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर भाजपा ने यह साबित किया है उसे जनभावनाओं का साथ प्राप्त है। अब उसे तीसरी पारी के लिए तैयार होना है। अतिआत्मविश्वास न दिखाते हुए अपने काम से वापसी की राह तभी आसान होगी, जब जनभावना इसी प्रकार बनी रहे। क्योंकि राजनीति में सारा कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर होता है। भाजपा के पीछे संघ परिवार की एक शक्ति भी होती है। मध्यप्रदेश का जीवंत संगठन भी एक बड़ी ताकत है, इसका विस्तार करने की जरूरत है। सत्ता के लिए नहीं विचार और जनसेवा के लिए संगठन सक्रिय रहे तो उसे चुनावी सफलताएं तो मिलती ही हैं। अरसे बाद देश की राजनीति में गर्वनेंस और विकास के सवाल सबसे प्रभावी मुद्दे बन चुके हैं। भाजपा की सरकारों को इन्हीं सवालों पर खरा उतरना होगा।

खुद को संभाले कांग्रेसः

कांग्रेस की संगठनात्मक स्थिति बेहतर न होने के कारण वह मुकाबले से बाहर होती जा रही है। एक जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस को भी अपने पस्तहाल पड़े संगठन को सक्रिय करते हुए जनता के सवालों पर ध्यान दिलाते हुए काम करना होगा। क्योंकि जनविश्वास ही राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। हमें देखना होगा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में की तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रबंधन पहले दिन से बदहाल था। भाजपा संगठन और सरकार जहां दोनों चुनावों में पूरी ताकत से मैदान में थे वहीं कांग्रेस के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की छग और मप्र के इन चुनावों में बहुत रूचि नहीं थी। इससे परिवार की फूट साफ दिखती है। कांग्रेस का यह बिखराव ही भाजपा के लिए विजयद्वार खोलता है। कुक्षी और सोनकच्छ की जीत मप्र में कांग्रेस की बदहवासी का ही सबब है। जहां जमुना देवी जैसी नेता की पारंपरिक सीट भी कांग्रेस को खोनी पड़ती है। अब सांसद बन गए सज्जन सिंह वर्मा की सीट भी भाजपा छीन लेती है। कांग्रेस को कहीं न कहीं भाजपा के चुनाव प्रबंधन से सीख लेनी होगी। खासकर उपचुनावों में भाजपा संगठन जिस तरह से व्यूह रचना करता है। उससे सबक लेनी लेने की जरूरत है। वह एक उपचुनाव ही था जिसमें छिंदवाड़ा जैसी सीट भी भाजपा ने अपनी व्यूहरचना से दिग्गज नेता कमलनाथ से छीन ली थी।

राज्यों में समर्थ नेतृत्वः

मप्र भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए इन चुनावों की जीत वास्तव में एक बड़ा तोहफा है। संगठन की शक्ति और सतत सक्रियता के इस मंत्र को भाजपा ने पहचान लिया है। मप्र में जिस तरह के सवाल थे, किसानों की आत्महत्याओं के मामले सामने थे, पाले से किसानों की बर्बादी के किस्सों के बीच भी शिवराज और प्रभात झा की जोड़ी ने करिश्मा दिखाया तो इसका कारण यही था कि प्रतिपक्ष के नाते कांग्रेस पूरी तरह पस्तहाल है। राज्यों में प्रभावी नेतृत्व आज भाजपा की एक उपलब्धि है। इसके साथ ही सर्वसमाज से उसके नेता आ रहे हैं और नेतृत्व संभाल रहे हैं। भाजपा के लिए साधारण नहीं है कि उसके पास आज हर वर्ग में सक्षम नेतृत्व है। उसके सामाजिक विस्तार ने अन्य दलों के जनाधार को भी प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश कभी एक भूगोल के हिस्से थे, दोनों क्षेत्रों से एक सरीखी प्रतिक्रिया का आना यह संकेत भी है कि ये इलाके आज भी एक सा सोचते हैं और अपने पिछड़ेपन से मुक्त होने तथा तेजी से प्रगति करने की बेचैनी यहां के गांवों और शहरों में एक जैसी है। ऐसे समय में नेतृत्वकर्ता होने के नाते शिवराज सिंह चौहान और डा. रमन सिंह की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं। क्योंकि इस क्षेत्रों में बसने वाले करोड़ों लोगों के जीवन और इन राज्यों के भाग्य को बदलने का अवसर समय ने उन्हें दिया है। उम्मीद है कि वे इन चुनौतियों को स्वीकार कर ज्यादा बेहतर करने की कोशिश करेंगें।

कुल मिलाकर ये उपचुनाव देश के मानस का एक संकेत तो देते ही हैं। एक अकेली सीट सूदूर मणिपुर की भी कांग्रेस को नहीं मिली है, वहां भी इस उपचुनाव से तृणमूल कांग्रेस का खाता खुल गया है। वहां तृणमूल प्रत्याशी ने कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर यह सीट जीती है। ऐसे में कांग्रेस को निश्चय ही अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए। अपने विभ्रमों और बेचैनियों से आगे आकर उसे जनता के सवालों पर सक्रियता दिखानी होगी। क्योंकि हालात यह हैं कि आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का काम विरोधी दल और उससे जुड़े संगठन ही करते दिख रहे हैं। जैसे मध्यप्रदेश में किसानों के सवाल पर भारतीय किसान संध ने ही सरकार की नाक में दम किया और एक बड़े सवाल को कांग्रेस के खाते में जाने से बचा लिया। ये जमीनी हकीकतें बताती हैं कि कांग्रेस के लिए अभी इन राज्यों में मेहनत की दरकार है तभी वह अपनी खोयी हुयी जमीन बचा पाएगी।

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के ध्वजवाहकः पं. मदनमोहन मालवीय


जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेषः

- संजय द्विवेदी

यह हिंदी पत्रकारिता का सौभाग्य ही है कि देश के युगपुरूषों ने अपना महत्वपूर्ण समय और योगदान इसे दिया है। आजादी के आंदोलन के लगभग सभी महत्वपूर्ण नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से अपना संदेश लोगों तक पहुंचाया और अंग्रेजी दासता के विरूद्ध एक कारगर हथियार के रूप में पत्रकारिता का इस्तेमाल किया। इसीलिए इस दौर की पत्रकारिता सत्ता और व्यवस्था की चारण न बनकर उसपर हल्ला बोलने वाली और सामाजिक जागृति का वाहक बनी। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय से लेकर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, गणेशशंकर विद्यार्थी, अजीमुल्ला खान, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे सबने पत्रकारिता के माध्यम से अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने का काम किया। ऐसे ही नायकों में एक बड़ा नाम है पं. मदनमोहन मालवीय का, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जो मूल्य स्थापित किए वे आज भी हमें राह दिखाते हैं। उस दौर की पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्रवाद ही था। जिसमें भारतीय समाज को जगाने और झकझोरने की शक्ति निहित थी। इस दौर के संपादकों ने अपनी लेखनी से जो इतिहास रचा वह एक ऐसी प्रेरणा के रूप में सामने है कि आज की पत्रकारिता बहुत बौनी नजर आती है। उस दौर के संपादक सिर्फ कलम धिसने वाले कलमकार नहीं, अपने समय के नायक और प्रवक्ता भी थे। समाज जीवन में उनकी उपस्थिति एक सार्थक हस्तक्षेप करती थी। मालवीय जी इसी दौर के नायक हैं। वे शिक्षाविद् हैं,सामाजिक कार्यकर्ता हैं, स्वतंत्रता सेनानी हैं, श्रेष्ठ वक्ता हैं, लेखक हैं, कुशल पत्रकार और संपादक भी हैं। ऐसे बहुविध प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यूं ही महामना की संज्ञा नहीं दी। मालवीय जी की पत्रकारिता उनके जीवन का एक ऐसा उजला पक्ष है जिसकी चर्चा प्रायः नहीं हो पाती क्योंकि उनके जीवन के अन्य स्वरूप इतने विराट हैं कि इस ओर आलोचकों का ध्यान ही नहीं जाता। किंतु उनकी यह संपादकीय प्रतिभा भी साधारण नहीं थी।

देश के अत्यंत महत्वपूर्ण अखबार हिंदोस्थान का संपादक होने के नाते उन्होंने जो काम किए वे आज भी प्रेरणा का कारण हैं। हिंदोस्थान एक ऐसा पत्र था जिसकी शुरूआत लंदन से राजा रामपाल सिंह ने की थी। वे बेहद स्वतंत्रचेता और अपनी ही तरह के इंसान थे। लंदन में रहते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं की ओर अंग्रेजी सरकार का ध्यानाकर्षण करने लिए इस पत्र की शुरूआत की। साथ ही यह पत्र प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम भी कर रहा था। कुछ समय बाद राजा रामपाल सिंह स्वयं कालाकांकर आकर रहने लगे और हिंदोस्थान का प्रकाशन भी कालाकांकर से होने लगा। कालाकांकर, उप्र के प्रतापगढ़ जिले में स्थित एक रियासत है। यहां हनुमत प्रेस की स्थापना करके राजा साहब ने इस पत्र का प्रकाशन जारी रखा। कालाकांकर एक गांव सरीखा ही था और यहां सुविधाएं बहुत कम थीं। ऐसे स्थान से अखबार का प्रकाशन एक मुश्किल काम था। बावजूद इसके अनेक महत्वपूर्ण संपादक इस अखबार से जुड़े। जिनमें मालवीय जी का नाम बहुत खास है। राजा साहब की संपादकों को तलाश करने की शैली अद्भुत थी। पं. मदनमोहन मालवीय का सन 1886 की कोलकाता कांग्रेस में एक बहुत ही ओजस्वी व्याख्यान हुआ। इसमें उन्होंने अपने अंग्रेजी भाषा में दिए व्याख्यान में कहा- एक राष्ट्र की आत्मा का हनन और उसके जीवन को नष्ट करने से अधिक और कोई अपराध नहीं हो सकता। हमारा देश इसके लिए ब्रिटिश सरकार को कभी क्षमा नहीं कर सकता कि उसने एक वीर जाति को भेड़-बकरियों की तरह डरपोक बना दिया है। इस व्याख्यान से राजा रामपाल सिंह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मालवीय जी से आग्रह किया कि वे उनके अखबार का संपादन स्वीकार करें। मालवीय जी ने उनकी बात तो मान ली किंतु उनसे दो शर्तें भी रखीं। पहला यह कि राजा साहब कभी भी नशे की हालत में उनको नहीं बुलाएंगें और दूसरा संपादन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगें। यह दरअसल एक स्वाभिमानी संपादक ही कर सकता है। पत्रकारिता की आजादी पर आज जिस तरह के हस्तक्षेप हो रहे है और संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों खतरे में हैं, मालवीय जी की ये शर्तें हमें संपादक का असली कद बताती हैं। राजा साहब ने दोनों शर्तें स्वीकार कर लीं। मालवीय जी के कुशल संपादन में हिंदोस्थान राष्ट्र की वाणी बन गया। उसे उनकी प्रखर लेखनी ने एक राष्ट्रवादी पत्र के रूप में देश में स्थापित कर दिया।

हिंदी पत्रकारिता का यह समय एक उज्जवल अतीत है। मालवीय जी ने ही पहली बार इस पत्र के माध्यम से लेखकों के पारिश्रमिक के सवाल को उठाया। उनके नेतृत्व में ही पहली बार विकास और गांवों की खबरों को देने का सिलसिला प्रारंभ हुआ। गांवों की खबरों और विकास के सवालों पर मालवीय जी स्वयं सप्ताह में एक लेख जरूर लिखते थे। जिसमें ग्राम्य जीवन की समस्याओं का उल्लेख होता था। गांवों के माध्यम से ही राष्ट्र को खड़ा किया जा सकता है इस सिद्धांत में उनकी आस्था थी। वे पत्रकारिता के सब प्रकार के कामों में दक्ष थे। मालवीय जी की संपादकीय नीति का मूल लक्ष्य उस दौर के तमाम राष्ट्रवादी नेताओं की तरह भारत मां को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना ही था। उनकी नजर में स्वराज्य और राष्ट्रभाषा के सवाल सबसे ऊपर थे। भाषा के सवाल पर वे हमेशा हिंदी के साथ खड़े दिखते हैं और स्वभाषा के माध्यम से ही देश की उन्नति देखते थे। भाषा के सवाल पर वे दुरूह भाषा के पक्ष में न थे। अंग्रेजी और संस्कृत पर अधिकार होने के बावजूद वे हिंदी को संस्कृतनिष्ट बनाए जाने को गलत मानते थे।मालवीय जी स्वयं लिखते हैं- भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि हम स्वच्छ भाषा लिखें।पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएं। ऐसा यत्न हो कि जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह हिंदी भाषा में लिखा जाए। जब भाषा में शब्द न मिलें तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए। अपनी सहज भाषा और उसके प्रयोगों के कारण हिंदोस्थान जनप्रिय पत्र बन गया जिसका श्रेय उसके संपादक मालवीय जी को जाता है।

अपनी संपादकीय नीति के मामले में उन्हें समझौते स्वीकार नहीं थे। वे इस हद तक आग्रही थे कि अपनी नौकरी भी उन्होंने राजा रामपाल सिंह द्वारा उन्हें नशे की हालत में बुलाने के कारण छोड़ दी । संपादक के स्वाभिमान का यह उदाहरण आज के दौर में दुर्लभ है। वे सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जो अपनी इन्हीं स्वाभिमानी प्रवृत्तियों के चलते प्रेरित करता है। एक बार किसी संपादकीय सहयोगी ने संपादकीय नीति के विरूद्ध अखबार में कुछ लिख दिया। मालवीय जी उस समय मिर्जापुर में थे। जब वह टिप्पणी मालवीय जी ने पढ़ी तो संबंधित सहयोगी को लिखा- हमें खेद है कि हमारी अनुपस्थिति में ऐसी टिप्पणी छापी गयी। कोई चिंता नहीं, हम अपनी टिप्पणी कर दोष मिटा देंगें। अपने तीन सालों के संपादन काल में उन्होंने जिस तरह की मिसाल कायम की वह एक इतिहास है। जिस पर हिंदी पत्रकारिता गर्व कर सकती है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर संपादक नाम की संस्था के प्रभावहीन हो जाने का खतरा मंडरा रहा है, स्वभाषा के स्थान पर हिंग्लिश को स्थापित करने की कोशिशों पर जोर है, संपादक स्वयं का स्वाभिमान भूलकर बाजार और कारपोरेट के पुरजे की तरह संचालित हो रहे हैं- ऐसे कठिन समय में मालवीय जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता के खतरे

स्त्री को बाजार में उतारने की नहीं उसकी गरिमा बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, जाहिर तौर पर उनका विचार बहुत ही संवेदना से उपजा हुआ है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि "मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।" प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं। सांसद दत्त ने भी अपने बयान में कहा है कि - "वे समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैंने उन पर एक शोध किया है और पाया है कि वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।"

सही मायने में स्त्री को आज भी भारतीय समाज में उचित सम्मान प्राप्त नहीं हैं। अनेक मजबूरियों से उपजी पीड़ा भरी कथाएं वेश्याओं के इलाकों में मिलती हैं। हमारे समाज के इसी पाखंड ने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। हम इन इलाकों में हो रही घटनाओं से परेशान हैं। एक पूरा का पूरा शोषण का चक्र और तंत्र यहां सक्रिय दिखता है। वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जहां कई तरीके से स्त्रियों को इस अँधकार में धकेला जाता है। आदिवासी इलाकों से लड़कियों को लाकर मंडी में उतारने की घटनाएं हों, या बंगाल और पूर्वोत्तर की स्त्रियों की दारूण कथाएं ,सब कंपा देने वाली हैं। किंतु सारा कुछ हो रहा है और हमारी सरकारें और समाज सब कुछ देख रहा है। समाज जीवन में जिस तरह की स्थितियां है उसमें औरतों का व्यापार बहुत जधन्य और निकृष्ट कर्म होने के बावजूद रोका नहीं जा सकता। गरीबी इसका एक कारण है, दूसरा कारण है पुरूष मानसिकता। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। किंतु हुआ इसका उलटा। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया माध्यम इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए काम करें या इसे एक कानूनी संस्था में बदल दें। हमें समाज में बदलाव की शक्तियों का साथ देना चाहिए ताकि एक औरत के मनुष्य के रूप में जिंदा रहने की स्थितियां बहाल हो सकें। हमें स्त्री के देह की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, उसकी किसी भी तरह की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहित करने के बजाए, उसे रोकने का काम करना चाहिए। प्रिया दत्त ने भले ही बहुत संवेदना से यह बात कही हो, पर यह मामले का अतिसरलीकृत समाधान है। वे इसके पीछे छिपी भयावहता को पहचान नहीं पा रही हैं। हमें स्त्री की गरिमा की बात करनी चाहिए- उसे बाजार में उतारने की नहीं। एक सांसद होने के नाते उन्हें ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार होना चाहिए।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

जब मोबाइल जिंदगी बन जाए


रेडिएशन के खतरों के बावजूद मोबाइल पर बरस रहा है लोगों का प्यार

-संजय द्विवेदी

यह दौर दरअसल मोबाइल क्रांति का समय है। इसने सूचनाओं और संवेदनाओं दोनों को कानों-कान कर दिया है। अब इसके चलते हमारे कान, मुंह, उंगलियां और दिल सब निशाने पर हैं। मुश्किलें इतनी बतायी जा रही हैं कि मोबाइल डराने लगे हैं। कई का अनुभव है कि मोबाइल बंद होते हैं तो सूकून देते हैं पर क्या हम उन्हें छोड़ पाएगें? मोबाइल फोनों ने किस तरह जिंदगी में जगह बनाई है, वह देखना एक अद्भुत अनुभव है। कैसे कोई चीज जिंदगी की जरूरत बन जाती है- वह मोबाइल के बढ़ते प्रयोगों को देखकर लगता है। वह हमारे होने-जीने में सहायक बन गया है। पुराने लोग बता सकते हैं कि मोबाइल के बिना जिंदगी कैसी रही होगी। आज यही मोबाइल खतरेजान हो गया है। पर क्या मोबाइल के बिना जिंदगी संभव है ? जाहिर है जो इसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं, उनके लिए यह एक बड़ा फैसला होगा। मोबाइल ने एक पूरी पीढ़ी की आदतों उसके जिंदगी के तरीके को प्रभावित किया है।

विकिरण के खतरों के बाद भीः

सरकार की उच्चस्तरीय कमेटी ने जो रिपोर्ट सौंपी है वह बताती है कि मोबाइल कितने बड़े खतरे में बदल गया है। वह किस तरह अपने विकिरण से लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल रहा है। रेडियेशन के प्रभावों के चलते आदमी की जिंदगी में कई तरह की बीमारियां घर बना रही हैं, वह इससे जूझने के लिए विवश है। इस समिति ने यह भी सुझाव दिया है कि रेडियेशन संबंधी नियमों भारतीय जरूरतों के मुताबिक नियमों में बदलाव की जरूरत है। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा विषय पर जिस पर व्यापक विमर्श जरूरी है। मोबाइल के प्रयोगों को रोका तो नहीं जा सकता हां ,कम जरूर किया जा किया जा सकता है। इसके लिए ऐसी तकनीकों का उपयोग हो जो कारगर हों और रेडियेशन के खतरों को कम करती हों। आज शहरों ही नहीं गांव-गांव तक मोबाइल के फोन हैं और खतरे की घंटी बजा रहे हैं। लोगों की जिंदगी में इसकी एक अनिर्वाय जगह बन चुकी है। इसके चलते लैंडलाइन फोन का उपयोग कम होता जा रहा है और उनकी जगह मोबाइल फोन ले रहे हैं।

फैशन और जरूरतः

ये फोन आज जरूरत हैं और फैशन भी। नयी पीढ़ी तो अपना सारा संवाद इसी पर कर रही है, उसके होने- जीने और अपनी कहने-सुनने का यही माध्यम है। इसके अलावा नए मोबाइल फोन अनेक सुविधाओं से लैस हैं। वे एक अलग तरह से काम कर रहे हैं और नई पीढी को आकर्षित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में सूचना और संवाद की यह नयी दुनिया मोबाइल फोन ही रच रहे हैं। आज वे संवाद के सबसे सुलभ, सस्ते और उपयोगी साधन साबित हो चुके हैं। मोबाइल फोन जहां खुद में रेडियो, टीवी और सोशल साइट्स के साथ हैं वहीं वे तमाम गेम्स भी साथ रखते हैं। वे दरअसल आपके एकांत के साथी बन चुके हैं। वे एक ऐसा हमसफर बन रहे हैं जो आपके एकांत को भर रहे हैं चुपचाप। मोबाइल एक सामाजिकता भी है और मनोविज्ञान भी। वह बताता है कि आप इस भीड़ में अकेले नहीं हैं। वह बेसिक फोन से बहुत आगे निकल चुका है। वह परंपरा के साथ नहीं है, वह एक उत्तरआधुनिक संवाद का यंत्र है। उसके अपने बुरे और अच्छेपन के बावजूद वह हमें बांधता है और बताता है कि इसके बिना जिंदगी कितनी बेमानी हो जाएगी।

नित नए अवतारः

मोबाइल नित नए अवतार ले रहा है। वह खुद को निरंतर अपडेट कर रहा है। वह आज एक डिजीटल डायरी, कंप्यूटर है, लैपटाप है, कलकुलेटर है, वह घड़ी भी है और अलार्म भी और भी न जाने क्या- क्या। उसने आपको, एक यंत्र में अनेक यंत्रों से लैस कर दिया है। वह एक अपने आप में एक पूरी दुनिया है जिसके होने के बाद आप शायद कुछ और न चाहें। इस मोबाइल ने एक पूरी की पूरी जीवन शैली और भाषा भी विकसित की है। उसने मैसजिंग के टेक्ट्स्ट को एक नए पाठ में बदल दिया है। यह आपको फेसबुक से जोड़ता और ट्विटर से भी। संवाद ऐसा कि एक पंक्ति का विचार यहां हाहाकार में बदल सकता है। उसने विचारों को कुछ शब्दों और पंक्तियों में बाँधने का अभ्यास दिया है। नए दोस्त दिए हैं और विचारों को नए तरीके से देखने का अभ्यास दिया है। उसने मोबाइल मैसेज को एक नए पाठ में बदल दिया है। वे संदेश अब सुबह, दोपहर शाम कभी आकर खड़े हो जाते हैं और आपसे कुछ कहकर जाते हैं। इस पर प्यार से लेकर व्यापार सब पल रहा है। ऐसे में इस मोबाइल के प्रयोगों से छुटकारा तो नामुमकिन है और इसका विकल्प यही है कि हम ऐसी तकनीको से बने फोन अपनाएं जिनमें रेडियेशन का खतरा कम हो। हालांकि इससे मोबाइल कंपनियों को एक नया बाजार मिलेगा और अंततः लोग अपना फोन बदलने के लिए मजबूर होंगें। किंतु खतरा बड़ा है इसके लिए हमें समाधान और बचत के रास्ते तो तलाशने ही होंगें। क्योंकि मोबाइल के बिना अब जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी। इसलिए मोबाइल से जुड़े खतरों को कम करने के लिए हमें राहें तलाशनी होगीं। क्योंकि चेतावनियों को न सुनना खतरे को और बढ़ाएगा।

प्यार का एक दिन

वेलैंटाइन डे ( १४ फरवरी) पर विशेषः

-संजय द्विवेदी

क्या प्रेम का कोई दिन हो सकता है। अगर एक दिन है, तो बाकी दिन क्या नफरत के हैं ? वेलेंटाइन डे जैसे पर्व हमें बताते हैं कि प्रेम जैसी भावना को भी कैसे हमने बांध लिया है, एक दिन में या चौबीस घंटे में। पर क्या ये संभव है कि आदमी सिर्फ एक दिन प्यार करे, एक ही दिन इजहार-ए मोहब्बत करे और बाकी दिन काम का आदमी बना रहे। जाहिर तौर पर यह संभव नहीं है। प्यार एक बेताबी का नाम है, उत्सव का नाम है और जीवन में आई उस लहर का नाम है जो सारे तटबंध तोड़ते हुए चली जाती है। शायद इसीलिए प्यार के साथ दर्द भी जुड़ता है और शायर कहते हैं दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।

प्रेम के इस पर्व पर आंखों का चार होना और प्रेम प्रस्ताव आज एक लहर में बदल रहे हैं। स्कूल-कालेजों में इसे खासी लोकप्रियता प्राप्त है। इसने सही मायने में एक नई दुनिया रच ली है और इस दुनिया में नौजवान बिंदास घूम रहे हैं और धूम मचा रहे है। भारतीय समाज में प्रेम एक ऐसी भावना है जिसको बहुत आदर प्राप्त नहीं है। दो युवाओं के मेलजोल को अजीब निगाह से देखना आज भी जारी है। हमारी हिप्पोक्रेसी या पाखंड के चलते वेलेंटाइन डे की लोकप्रियता हमारे समाज में इस कदर फैली है। शायद भारतीय समाज में इतने विधिनिषेध और पाखंड न होते तो वेलेंटाइन डे जैसे त्यौहारों को ऐसी सफलता न मिलती। किंतु पाखंड ने इस पर्व की लोकप्रियता को चार चांद लगा दिए हैं। भारत की नौजवानी अपने सपनों के साथ जी रही है किंतु उसका उत्सवधर्मी स्वभाव हर मौके को एक खास इवेंट में बदल देता है। प्रेम किसी भी रास्ते आए उसका स्वागत होना चाहिए। वेलेंटाइन एक ऐसा ही मौका है , आपकी आकांक्षाओं और सपनों में रंग भरने का दिन भी। सेंट वेलेंटाइन ने शायद कभी सोचा भी न हो कि भारत जैसे देश में उन्हें ऐसी लोकस्वीकृति मिलेगी।

बाजार में त्यौहारः

वेलेंटाइन के पर्व को दरअसल बाजार ने ताकत दी है। कार्ड और गिफ्ट कंपनियों ने इसे रंगीन बना दिया है। भारत आज नौजवानों का देश है। इसके चलते यह पर्व एक अद्भुत लोकप्रियता के शिखर पर है। नौजवानों ने इसे दरअसल प्रेम पर्व बना लिया है। इसने बाजार की ताकतों को एक मंच दिया है। बाजार में उपलब्ध तरह-तरह के गिफ्ट इस पर्व को साधारण नहीं रहने देते, वे हमें बताते हैं कि इस बाजार में अब प्यार एक कोमल भावना नहीं है। वह एक आतंरिक अनूभूति नहीं है वह बदल रहा है भौतिक पदार्थों में। वह आंखों में आंखें डालने से महसूस नहीं होता, सांसों और धड़कनों से ही उसका रिश्ता नहीं रहा, वह अब आ रहा है मंहगे गिफ्ट पर बैठकर। वह महसूस होता है महंगे सितारा होटलों की बिंदास पार्टियों में, छलकते जामों में, फिसलते जिस्मों पर। ये प्यार बाजार की मार का शिकार है। उसे और कुछ चाहिए, कुछ रोचक और रोमांचक। उसकी रूमानियत अब पैसे से खिलती है, उससे ही दिखती है। यह हमें बताती है कि प्यार अब सस्ता नहीं रहा। वह यूं ही नहीं मिलता। लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की बातें न कीजिए, यह प्यार बाजार के उपादानों के सहारे आता है, फलता और फूलता है। इस प्यार में रूह की बातें और आत्मा की रौशनी नहीं हैं, चौधिंयाती हुयी सरगर्मियां हैं, जलती हुयी मोमबत्तियां हैं, तेज शोर है, कानफाड़ू म्यूजिक है। इस आवाज को दिल नहीं, कान सुनते हैं। कानों के रास्ते ये आवाज, कभी दिल में उतर जाए तो उतर जाए।

इस दौर में प्यारः

इस दौर में प्यार करना मुश्किल है और निभाना तो और मुश्किल। इस दौर में प्यार के दुश्मन भी बढ़ गए हैं। कुछ लोगों को वेलेंटाइन डे जैसे पर्व रास नहीं आते। इस अवसर पर वे प्रेमियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। देश में अनेक संगठन चाहते हैं कि नौजवान वेलेंटाइन का पर्व न मनाएं। जाहिर तौर पर उनकी परेशानियों हमारे इसी पाखंड पर्व से उपजी हैं। हमें परेशानी है कि आखिर कोई ऐसा त्यौहार कैसे मना सकता है जो प्यार का प्रचारक है। प्यार के साथ आता बाजार इसे प्रमोट करता है, किंतु समाज उसे रोकता है। वह चाहता है संस्कृति अक्षुण्ण रहे। संस्कृति और प्यार क्या एक-दूसरे के विरोधी हैं ? प्यार, अश्ललीलता और बाजार मिलकर एक नई संस्कृति बनाते हैं। शायद इसीलिए संस्कृति के रखवाले इसे अपसंस्कृति कहते हैं। सवाल यह है कि बंधन और मिथ्याचार क्या किसी संस्कृति को समर्थ बनाते हैं ? शायद नहीं। इसीलिए नौजवान इस विधि निषेधों के खिलाफ हैं। वे इसे नहीं मानते, वे तोड़ रहे हैं बंधनों को। बना रहे हैं अपनी नई दुनिया। वे इस दुनिया में किसी के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं प्यार जिए और सलामत रहे। प्यार की जिंदाबाद लगे। बाजार उनके साथ है। वह रंग भर रहा है, उन्हें प्यार के नए फलसफे समझा रहा है। प्यार के नए रास्ते बता रहा है। इस नए दौर का प्यार भी क्षणिक है ,वह एक दिन का प्यार है। इसलिए वन नाइट स्टे एक हकीकत बनकर हमें मुंह चिढ़ा रहा है। ऐसे में रास्ता क्या है ? सहजीवन जब सच्चाई में बदल रहा हो। महानगर अकेले होते इंसान को इन रास्तों से जीना सिखा रहे हों। एक वर्चुअल दुनिया रचते हुए हम अपने अकेले होने के खिलाफ खड़े हो रहे हों तो हमारा रास्ता मत रोकिए। यह हमारी रची दुनिया भले ही क्षणिक और आभासी है, हम इसी में मस्त-मस्त जीना चाहते हैं। नौजवान कुछ इसी तरह से सोचते हैं। प्यार उनके लिए भार नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है, दायित्व नहीं है, एक विनिमय है। क्योंकि यह बाजार का पैदा किया हुआ, बाजार का प्यार है और बाजार में कुछ स्थाई नहीं होता। इसलिए उन्हें झूमने दीजिए, क्योंकि इस कोलाहल में वे आपकी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्हें पता है कि आज वेलेंटाइन डे है, कल नई सुबह होगी जो उनकी जिंदगी में ज्यादा मुश्किलें,ज्यादा चुनौतियां लेकर आने वाली है- इसलिए वे कल के इंतजार में आज की शाम खराब नहीं करना चाहते। इसलिए हैप्पी वेलेंटाइन डे।