शुक्रवार, 11 मार्च 2011

छत्तीसगढ़ में प्रतिरोध की आखिरी आवाज थे बलिराम कश्यप


माओवादी आतंक से मुक्ति और सार्थक विकास से उन्हें मिलेगी सच्ची श्रद्धांजलि

-संजय द्विवेदी

जिन्होंने बलिराम कश्यप को देखा था, उनकी आवाज की खनक सुनी है और उनकी बेबाकी से दो-चार हुए हैं-वे उन्हें भूल नहीं सकते। भारतीय जनता पार्टी की वह पीढ़ी जिसने जनसंघ से अपनी शुरूआत की और विचार जिनके जीवन में आज भी सबसे बड़ी जगह रखता है, बलिराम जी उन्हीं लोगों में थे। बस्तर के इस सांसद और दिग्गज आदिवासी नेता का जाना, सही मायने में इस क्षेत्र की सबसे प्रखर आवाज का खामोश हो जाना है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने हमेशा बस्तर के लोगों के हित व विकास की चिंता की। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उनका एक खास स्थान था। सही मायने में वे बस्तर के नेता थे किंतु छत्तीसगढ़ में वे प्रतिरोध की आखिरी आवाज थे। बस्तर में वहां के राजा प्रवीर भंजदेव की हत्या के बाद इस इलाके में नेतृत्व के नाम वे अकेले ऐसे इंसान थे जिसे पूरे बस्तर में खास पहचान हासिल थी। आज जहां बस्तर में जनप्रतिनिधि हेलीकाप्टर से उतरते हैं और मुख्यमंत्री से लेकर राज्य के डीजीपी यहां के जनप्रतिनिधियों को सलाह देते हैं कि वे जनता के बीच कम जाएं, बलिराम कश्यप ही ऐसे थे जो बस्तर में कहीं भी निर्भय होकर घूम सकते थे। दरअसल यह ताकत उन्हें लोगों ने दी थी, उन आम आदिवासियों ने, जिनके वे नेता थे।

उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे सच को कहने से चूकते नहीं थे। उनके लिए अपनी बात कहना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, भले ही इसका उन्हें कोई भी परिणाम क्यों न झेलना पड़े। वे सही मायने में बस्तर की राजनीति के एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पांच बार विधायक और चार बार सांसद रहे श्री कश्यप ने बस्तर इलाके में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को आधार प्रदान किया। 1990 में वे अविभाजित मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्री भी रहे। छत्तीसगढ़ राज्य में भाजपा की सरकार बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वीरेंद्र पाण्डेय के साथ मिलकर उन्होंने विधायक खरीद-फरोख्त कांड का खुलासा किया। यह एक ऐसा अध्याय है जो उनकी ईमानदारी और पार्टी के प्रति निष्ठा का ही प्रतीक था। इस अकेले काम ने तो उनको उंचाई दी ही और यह भी साबित किया कि पद का लोभ उनमें न था। वरना जिस तरह की दुरभिसंधि बनाई गयी थी उसमें राज्य के मुख्यमंत्री तो बन ही जाते, भले ही वह सरकार अल्पजीवी होती। पर कुर्सी को सामने पाकर संयम बनाए रखना और षडयंत्र को उजागर करना उनके ही जीवट की बात थी। बस्तर इलाके में आज भाजपा का एक खास जनाधार है तो इसके पीछे श्री कश्यप की मेहनत और उनकी छवि भी एक बड़ा कारण है।

बेबाकी और साफगोई उनकी राजनीति का आधार है। वे सच कहने से नहीं चूकते थे चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। यह उनका एक ऐसा पक्ष है जिसे लोग भूल नहीं पाएंगें। बस्तर में माओवादी आतंकवाद की काली छाया के बावजूद वे शायद ऐसे अकेले जनप्रतिनिधि थे, जो दूरदराज अंचलों में जाते और लोगों से संपर्क रखते थे। आदिवासी समाज में आज उन-सा प्रभाव रखने वाला दूसरा नायक बस्तर क्षेत्र में नहीं है। वे अकेले आदिवासी समाज ही नहीं, वरन पूरे प्रदेश में बहुत सम्मान की नजर से देखे जाते थे। उनकी राजनीति में आम आदमी के लिए एक खास जगह है और वे जो कहते हैं उसे करने वाले व्यक्ति थे। माओवादियों से निरंतर विरोध के चलते उनके पुत्र की भी पिछले दिनों हत्या हो गयी थी। ऐसे दुखों को सहते हुए भी वे निरंतर बस्तर में शांति और सदभाव की अलख जगाते रहे। श्री कश्यप के लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि बस्तर का त्वरित विकास हो, वहां का आदिवासी समाज अपने सपनों में रंग भर सके और समाज जीवन में शांति स्थापित हो सके। बस्तर को माओवादी आतंक से मुक्ति दिलाकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

आदिवासियों के शोषण के खिलाफ हमेशा लड़ने वाले कश्यप की याद इसलिए भी बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है क्योंकि आदिवासियों के पास अब उन सरीखी कोई प्रखर आवाज शेष नहीं है। अपनी जिद और सपनों के लिए जीने वाले कश्यप ने एक विकसित और खुशहाल बस्तर का सपना देखा था। उनके दल भारतीय जनता पार्टी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों को इस सपने को पूरा करना होगा। बस्तर में विकास और शांति दोनों का इंतजार है, उम्मीद है राज्य की सरकार इन दोनों के लिए प्रयासों में तेजी लाएगी। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने अपनी श्रद्धांजलि में श्री कश्यप को लौहपुरूष कहा है, जो वास्तव में उनके लिए एक सही संज्ञा है। भाजपा के अध्यक्ष रहे स्व. कुशाभाऊ ठाकरे उन्हें काला हीरा कहा करते थे। ये बातें बताती हैं कि वे किस तरह से आर्दशवादी और विचारों की राजनीति करने वाले नायक थे। बस्तर ही नहीं समूचे देश में आदिवासी समाज को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो अपने समाज ही नहीं, संपूर्ण समाज को न्याय दिलाने की लड़ाई को प्रखरता से चला सके। आज राजनीति में सारे मूल्य बदल चुके हैं। मूल्यों की जगह गणेशपरिक्रमा, समर्पण की जगह पैसे ने ली है और परिश्रम को बाहुबल से भरा जा रहा है। बलिराम कश्यप जैसे लोग इसलिए भी बेतरह याद आते हैं। यह सोचना होगा कि क्या अब इस दौर में बलिराम कश्यप जैसा हो पाना संभव है। इस माटी के लोग अब कैसे बनेगें ? क्या अच्छे आदमकद लोग बनना बंद हो गए हैं या बौनों की बन आई है ? अब जबकि राज्य में न श्यामाचरण शुक्ल हैं, न बलिराम कश्यप हैं, न पंडरीराव कृदत्त, न लखीराम अग्रवाल हैं - हमें उन मूल्यों और विचारों की याद कौन दिलाएगा जिनके चलते हम संभलकर चलते थे। हमें पता था कोई कहे न कहे, ये लोग हमारे कान जोर से पकड़ेंगें और याद दिलाएंगें कि तुम्हारा रास्ता क्या है। नई राजनीति ने, नए नायक दिए हैं, पर इन सरीखे लोग कहां जो हमें अपने जीवन और कर्म से रोज सिखाते थे। डांटते थे, फटकारते थे। उनके लिए राजनीति व्यवसाय नहीं था, उसके केंद्र में विचार ही था। विचार ही उनकी प्रेरणाभूमि था। वे राजनीति में यूं ही नहीं थे, सोच समझकर राजनीति में आए थे। अपनी नौजवानी में जिस विचार का साथ पकड़ा ताजिंदगी उसके साथ रहे और उसके लिए जिए। यह पीढ़ी जा चुकी है, छ्त्तीसगढ़ के राजनीतिक क्षेत्र को एक कठिन उत्तराधिकार देकर। क्या हम इसके योग्य हैं कि इस कठिन उत्तराधिकार को ग्रहण कर सकें, यह सवाल आज हम सबसे है कि हम इसके उत्तर तलाशें और छत्तीसगढ़ की महान राजनीति के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बनने का प्रयास करें। बलिराम जी के न रहने के बाद जो शून्य है वह बहुत बड़ा है। इस अकेली आवाज की खामोशी को, बहुत सी आवाजें समवेत होकर भी भर पाएंगीं, इसमें संदेह है। आज जबकि बस्तर अपने समूचे इतिहास का सबसे कठिन युद्ध लड़ रहा है, जहां आदिवासियों के न्याय दिलाने के नाम पर आया एक विदेशी विचार(माओवाद) ही आदिवासियों का शत्रु बन गया है, हमें बलिराम कश्यप का नाम लेते हुए इस जंग को धारदार बनाना होगा। क्योंकि बस्तर की शांति और विकास ही बलिराम जी का सपना था और इस सपने में हर छत्तीसगढ़िया और भारतवासी को साथ होना ही चाहिए। शायद तभी हम उन सपनों से न्याय कर पाएंगें जो बलिराम कश्यप ने अपनी नौजवानी में और हम सबने छ्त्तीसगढ़ राज्य का निर्माण करते हुए देखा था।

2 टिप्‍पणियां:

  1. राजनीति के ब्लैक डायमण्ड कहे जाने वाले बली दादा पर सटीक लेख है और सही चित्रण भी ! एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अर्थ और पदलोलुपता की राजनीति में एक अलग मुकाम बनाया !

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  2. निर्भीक होकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में घूमने का साहस उसी व्यक्ति का हो सकता है जो उस क्षेत्र की जनभावनाओ के अनुरूप उनका नेतृत्व करता हो। बस्तर में शांति और विकास की प्रबल इच्छा रखने और उसकी पूर्ति के लिए आजीवन कार्य करने वाले बलिराम जी को इससे बेहतर और किसी तरीक़े से स्मरण करना सम्भव ही नहि। आपकी लेखनी को प्रणाम ��

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