शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

एक लोकसंग्रही व्यक्तित्व

बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता से भोपाल के गांधी भवन में अलंकृत होगें कैलाश चंद्र पंत
-प्रो. रमेश चंद्र शाह

       ‘बायो डाटा को हमारे यहाँ जीवन वृत्त कहा जाता है और यह अकारण नहीं है । मनुष्य का जीवन या कह लीजिए, मनुष्य की आयु – रेखा कभी एक सीधी लकीर का अनुसरण नहीं होती है,वह वृत्ताकार ही हो सकती है,बल्कि वर्तुल जिसे कहते हैं वैसी । हम वहीं पहुँच जाते हैं, जहाँ से प्रारम्भ किया था,इन माइ बिगनिंग इज माई एण्ड – जैसा कि आधुनिक कवियों में अग्रणी टी.एस.इलियट की एक कविता कहती है (मेरे प्रारम्भ ही में मेरा अन्त है) । अन्य संस्कृतियों की तुलना में भारतीय संस्कृति में इस तथ्य तो कहीं अधिक निर्भ्रान्त ढंग से स्वीकार किया गया है । क्या यह तथ्य नहीं,कि बच्चे अपने माता-पिता की तुलना में अपने दादा-दादी अथवा नाना-नानी को अधिक अपने निकट पाते हैं ? क्या यह भी तथ्य ही नहीं कि उम्र के इस आखिरी पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते हमारी स्मृति का आचरण भी बदल जाता है,कल-परसों क्या हुआ था। इसकी अपेक्षा पचास-साठ-सत्तर वर्ष पहले क्या हुआ था – इसकी स्मृति अधिक तात्कालिक और सजीव हो सकती है।क्यों ? इसीलिए न,कि यह हमारा दूसरा बचपन है : यानी लगभग वैसी ही स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं: जीवन–चक्र हमें फिर से वहीं ले आता है – जहां से फिर एक दूसरे धरातल पर नई धरती पर नई जीवनयात्रा आरम्भ होगी ।
   यह सन् 1962 की बात होगी,जब इसी भोपाल नगरी में कैलाशचन्द्र पंत नाम की शख्सियत की नजदीकी हासिल हुई थी। संयोग भी अकारण घटित नहीं होते। मेरे एक पहाड़ी बंधु हुआ करते थे डॉ हरीशलाल शाह, महू के वेटनरी कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनके निमंत्रण पर मेरा महू जाना हुआ था, पंत जी के बड़े भाई साहब उन्हीं मेरे बंधु के अत्यन्त प्रिय आत्मीय मित्र हुआ करते थे और उन्हीं के घर उनसे – अर्थात पंत जी के भाई से परिचय हुआ था । उसी नाते उनके अनुज से भी । हमारी मैत्री इसी निमित्त से आरम्भ हुई और चूँकि कैलाशचन्द्र जी भोपाल ही रहते थे, अत: हमारा मिलना-जुलना शीघ्र ही नैमित्तिक से नैत्यिक की श्रेणी में पहुंच गया । वह मैत्री ही क्या,जिसकी जड़ में एकाध व्यसन या दुर्व्यसन भी न हो । पक्का निश्चय तो नहीं है,किन्तु एकदम कच्चा अनुमान भी इसे नही कहूंगा,कि पंत जी भी मेरे ही पान के – यानी बाकायदा खुशबूदार ज़र्दे वाले पान के शौकीन थे। परन्तु असली रागबन्ध तो हमारे उनके बाच साहित्य का था ।दरअसल पान-ज़र्दा तो बाद में आया या साथ ही साथ आया। पंत जी मेरे ही तरह साहित्यानुरागी थे, साहित्य का चस्का उन्हें तभी पड़ गया था और वह गहरा चस्का था, जो कि बदस्तूर कायम है और नित नए रंग दिखाता रहा है ।
इसी से लगा-लिपटा एक और व्यसन भी है उनका। वह तभी जड़ पकड़ चूका था- सम्पादन का,पत्रकारिता का। यहाँ मैं उनसे होड़ करने में अक्षम था। ईर्ष्या ही कर सकता था। मुझे लगता था है,क्या पता वह मेरी पहली ही कहानी रही हो, जिसे अपने द्वारा सम्पादित पत्रिका शिक्षा प्रदीप में पंत जी ने बाकायदा प्रकाशित किया था,पहली- यानी,वयस्क जीवन की पहली कहानी । एकदम कच्ची अनगढ़ और प्रारंभिक रचना इस विधा की रही होगी वह ।
  उन दिनों भोपाल मेरे लिए नया-नया नगर था। विचित्र संयोग, कि मेरे लिए इस नगर की अजनबीपन को कम करने और उससे अपना तालमेल बिठाने में सर्वाधिक मदद जिन्होंने की,वे दोनों ही महानुभाव मालवा की संस्कृति में पगे हुए और भाषा–संवेदना के धनी थे और दोनों ही इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज के स्नातक और हीरो भी रह चुके थे।पहले मुझे रमेश बक्षी का साथ मिला और तदनन्तर कैलाशचंद्र पंत जी का । मैं अत्यधिक समाज–भीरु,ऐकान्तिक स्वभाव का व्यक्ति था। पंत जी इसके ठीक उलटे अत्यंत सामाजिक और लोकसंग्रही। यदि मैं भूल नहीं करता तो भोपाल के इसके प्रवासी कुमाउंनी समाज से मुझे परिचित कराने की उत्साहपूर्ण पहल भी पंत जी ने ही की थी । उनमें भी सबसे जिन्दादिल और रोचक लोगों से पंत जी आदमी को परखने में,कौन कहाँ है, क्या कदोकामत है उसकी – भाविक या बौद्धिक इसे भांपने या पकड़ने में कभी चूकते नहीं। ज्यादातर लोग इस मामले में चूकते नहीं । सुनने में आसान लगता है , पर यह बड़ा विरल और दुर्लभ गुण है । ज्यादातर लोग इस मामले में चूकते ही नज़र आते हैं, उनका जजमेंट विश्वसनीय नहीं होता, क्योंकि वह उनके ईगो की पल-पल बदलती रंगतों के अनुसार रंग पकड़ता है : न कि जो वास्तविक मानुषी सत्ता सामने है, उसके यथावत् साक्षात्कार से। यह ईगो प्राब्लेम हमारे पढ़े-लिखे और सत्ताधारी समाज की बहुत बड़ी कमजोरी है, लगभग लाईलाज व्याधि जिसके दुष्परिणाम क्या शिक्षाजगत , क्या विद्वतजगत और क्या साहित्यिक परिवेश सब जगह उजागर है। ईगो भला किसमें नहीं होता? बिना ईगो के तो हम खड़े ही नहीं हो सकते। समस्या एक परिपक्व अहम विकसित करने की होती है। जो यथास्थान स्वयं को स्थगित और विसर्जित भी करने में सहज सक्षम हो। जिसमें दूसरे के दूसरेपन का भी यथावत अनुभव और आंकलन शामिल हो। पंत जी का लोकसंग्रही व्यक्तित्व इस माने में बड़ा सजग संवेदनशील रहा है, उनके क्रियाकलप , उनकी उपलब्धियां उसी से प्रेरित और संभव हुई हैं, यह देख पाना उन्हें करीब से जानने वालों के लिए तो सजग है ही, सामान्य जानकारों के लिए भी कठिन होना चाहिए । कहना न होगा कि उनकी भावी गतिविधियों के, भावी प्रवृतियों के और भावी सफलताओं के भी पर्याप्त लक्षण उनके उन आरंभिक दिनों में प्रगट हो चुके थे, ऐसा मुझे प्रथम दृष्टि से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है।
  पंत जी सजग और दायित्वप्रवण पत्रकार के रूप में बहुत जल्द ही अपनी पहचान बना चुके थे। क्या जनधर्म नामक साप्ताहिक की सुदीर्घ कार्यशीलता से,और क्या अक्षरा के प्रधान संपादक की हैसियत से। पत्रकारिता हमारा क्षेत्र नहीं है, किन्तु समझदार और संवेदनशील पत्रकारिता क्या होती है, क्या होनी चाहिए इसका प्रयाप्त पुष्ट प्रमाण उनका विशाल पाठक वर्ग उनके संपादकीयों से, लेखों से निरंतर पाता रहा होगा। मिशाल के तौर पर मात्र अक्षरा के एक अंक का सम्पादकीय ही देख लें ; जिसकी शुरुआत ही यों होती है:
" देश में जिस प्रकार के नित्य नये रहस्योदघाटन हो रहे हैं, भ्रष्टाचार तथा अपराधों के समाचार बढ़ रहे हैं, और उसके बाद भी बुनियादी चिंताओं के प्रति नागरिकों में व्याप्त उदासीनता क्या हमें एक जनतांत्रिक देश का नागरिक कहलाने का नैतिक अधिकार देती है?"
यह प्रश्न अपना उत्तर आप है।
पंत जी के आयोजन - सामर्थ्य का सभी लोहा मानते हैं जितनी गतिविधियां आज उनके द्वारा पोषित - संचालित हिंदी भवन में चल रही है, किसी को भी चकरा देने वाली है। उनका साहित्यानुराग इन गतिविधियों से प्रमाणित होता है। कोई कल्पना भी नही कर सकता था। देश की महत्वपूर्ण मीडिया पत्रिका मीडिया विमर्श अक्षरा के यशस्वी संपादन के लिए 11 फरवरी,2017 को पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत कर रही है। इस अवसर उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

(लेखक पद्मश्री से अलंकृत हिंदी के प्रख्यात लेखक एवं बुद्धिजीवी हैं। )

बृजलाल द्विवेदी सम्मान से अलंकृत किए जाएंगें कैलाश चंद्र पंत

हरेंद्र प्रताप देगें एकात्म मानववाद पर व्याख्यान

       भोपाल,10 फरवरी,2017। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष अक्षरा’ (भोपाल) के संपादक श्री कैलाश चंद्र पंत  को दिया जाएगा।
     श्री कैलाश चंद्र पंत  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। पिछले तीन दशक से वे साहित्य पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका अक्षरा’ का संपादन कर रहे हैं।
     सम्मान कार्यक्रम पं. दीनदयाल उपाध्याय के पुण्यतिथि प्रसंग पर 11, फरवरी, 2017 को गांधी भवन, भोपाल में सायं 6.00 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। सम्मान समारोह के मुख्यअतिथि ख्यातिनाम संपादक श्री राजेंद्र शर्मा होंगे तथा अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार डा. हिमांशु द्विवेदी करेंगे। आयोजन में पद्श्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव श्री कृपाशंकर शर्मा और फिल्म अभिनेता श्री राजीव वर्मा विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल होंगें। कार्यक्रम का संचालन संस्कृतिकर्मी श्री विनय उपाध्याय करेगें।
     कार्यक्रम के पहले सत्र में सायं चार बजे एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता विषय पर सामाजिक कार्यकर्ता एवं विचारक श्री हरेंद्र प्रताप का व्याख्यान होगा, जिसकी अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला करेंगें।

       पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयर, डा. सच्चिदानंद जोशी शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज, व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय, कला समय के संपादक विनय उपाध्याय (भोपाल) एवं संवेद के संपादक किशन कालजयी(दिल्ली) को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।                                                                           

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

सेवा से दिल जीतने की कोशिश

-संजय द्विवेदी


     समाज में व्याप्त भेदभाव, छूआछूत, को मिटाने के लिए संत रविदास ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनके आदर्शों और कर्मों से सामाजिक एकता की मिसाल हमें देखने को मिलती है लेकिन वर्तमान दौर में इस सामाजिक विषमता को मिटाने के सरकारी प्रयास असफल ही कहे जा सकते हैं। कहीं-कहीं आशा की किरण समाज क्षेत्र में कार्यरत सेवा भारती जैसे संस्थानों के प्रकल्पों में दृष्टिगोचर होती है।
   भारत गावों में बसता है, गांवों में आज भी सामाजिक कुरीतियां कम नहीं हुयी हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने छुआछूत को मिटाने का नारा दिया, उनका जीवन भी सामाजिक समरसता की मिसाल है। गांधी जी ने स्वाधीनता आंदोलन में जितने भी प्रकल्प तय किए, उनका ध्येय भारत की सामाजिक विषमता को पाटना था। वे चाहते थे कि समाज में ऊंच-नीच, भेदभाव, लिंग अनुपात और आर्थिक सम्पन्नता,विपन्नता की खांई खत्म हो और भारत एक लय, एक स्वर, एक समानता और एक अखंडता के साथ मंडलाकार प्रवृत्ति में विश्व का नेतृत्व करे। कुछ ऐसी ही परिकल्पना पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी की। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामाजिक एकता के इसी प्रकल्प को आगे बढ़ा रहे हैं।
  आजादी के लगभग सत्तर वर्षों के बाद भी भारत से गरीबी हटी नहीं है और सामाजिक विषमता दूर नहीं हो सकी है। इस विषमता से समाज में लड़ाई-झगड़े, वैमनस्यता और ऊंच-नीच की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस समस्या को भारत में मिटाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ आगे आया और सेवा के अनेक प्रकल्प शुरू किए। उनके इन सेवा प्रकल्पों का उद्देश्य भेदभाव से मुक्त, स्वाभिमानी-समरस और आत्मनिर्भर समाज बनाना था। सेवा भारती, संघ का एक ऐसा ही संगठन है जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक जागरण एवं कौशल विकास के लगभग हजारों केंद्रों के द्वारा प्रकल्प चला रहा है। सेवा भारती इस मुहिम में 25 वर्षों से जुटा हुआ है। वर्ष 2017 सेवा भारती का रजत जयंती वर्ष है। इस वर्ष में सेवा भारती अपने प्रकल्पों का आत्मावलोकन कर रहा है और नए प्रकल्पों पर विचार कर रहा है। रजत जयंती वर्ष पर सेवा भारती भोपाल के लाल परेड मैदान पर ऐसे हजारों श्रम साधकों का संगम करने जा रहा है। इस संगम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत स्वयं उपस्थित होगें। इस आयोजन में श्रमिकों और गरीब व पिछड़े वर्गों के लिए जीवन समर्पित करने वाले साधकों का सम्मान भी होगा।
  आरएसएस निरंतर समाज के पिछड़े वर्गों की ओर देखता रहा है और विविध प्रकल्पों के जरिए उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रहा है। यह सच है कि संत रविदास एक ऐसे संत थे जिन्होंने जीवन भर श्रम की साधना की। श्रम को प्रतिष्ठा करने वाले इस महान संत के शिष्यों में काशी नरेश व भक्त मीराबाई भी रहीं। अपने धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास के कारण संत रविदास जी ने दिल्ली के शासक सिकंदर लोधी को भी कह दिया था कि मैं प्राण त्याग दूंगा पर अपना धर्म नहीं छोडूंगा। हमारे अनेक संतों की तरह संत रविदास जी ने भी जन्म के आधार पर ऊंच-नीच को नकार दिया था। श्रम साधक समागम उन्हीं संत रविदास जी की जयंती पर आयोजित किया जा रहा है। माना जा सकता है कि भोपाल के लाल परेड मैदान से  संत रविदास की दृष्टि समाज के अंतिम छोर तक पहुंचेगी और जाति, पंथ के आधार पर भेदभाव को मिटाने में कारगर हो सकेगी। यह साधारण नहीं है कि मध्यप्रदेश आरंभ से ही संघ की एक प्रयोगशाला रहा है, जहां उसने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रों में विविध प्रयोग किए हैं। बैतूल एक ऐसा जिला है, जहां पर 200 गांवों को केंद्र बनाकर ग्रामीण विकास का एक नया अध्याय लिखने की पहल हुयी है। संघ के सरसंचालक मोहन भागवत ने ग्रामीण विकास के इन प्रकल्पों को सराहा है। यह साधारण नहीं है कि संघचालक मोहन राव भागवत 7 से 13 फरवरी तक मध्यप्रदेश के इन क्षेत्रों में रहते हुए, खुद सामाजिक बदलाव के इन दृश्यों का जायजा लेगें। इसके तहत बैतूल जिले में नशामुक्ति, आर्थिक-सामाजिक विकास, पर्यावरण जैसे विषयों पर हो रहे ये काम निश्चय ही बदलते भारत की बानगी पेश करते हैं।

   मध्यप्रदेश एवं देश के तमाम राज्यों में सरकारी स्तर पर भी कई योजनाएं श्रमिक और निचले तबके के  उत्थान के लिए बनती रही हैं। उन योजनाओं से इन वर्गों में कोई आमूलचूल बदलाव हुआ हो ऐसा कम ही दिखाई देता है। आजादी के सत्तर वर्षों में यदि सरकारी योजनाएं आम आदमी तक पहुंच पाती तो संत रविदास,राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बाबा साहेब आंबेडकर और पं. दीनदयाल उपाध्याय के सपने सच हो जाते। किंतु अफसोस है कि बदलाव की यह गति उतनी तेज नहीं रही जितनी होनी चाहिए। सरकारें आज भी उन्हीं के लिए योजना बना रही हैं और हर बजट में अधिक वित्त का प्रावधान करती हैं किंतु धरातल पर सूरतेहाल नहीं बदलते। यही कारण है कि सामाजिक विषमता अमरबेल की तरह पनप रही है। इस वर्ग के जो व्यक्ति समाज का नेतृत्व करते हैं, वह भी आगे आ जाने पर पीछे मुड़कर नहीं देखते हैं। बाद में अपने लोग ही उन्हें बेगाने लगने लगते हैं। सरकारी स्तर पर इस सामाजिक विषमता को पाटना नामुमकिन लगता है। इसमें समाज और सामाजिक संगठनों की सहभागिता जरूरी है। इसी ध्येय को आत्मसात कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सामाजिक विषमता को दूर करने का बीड़ा उठाया है और सेवा प्रकल्पों में श्रम साधकों के माध्यम से सामाजिक साधना का काम निरंतर किया जा रहा है। भोपाल के इस महती आयोजन में शामिल होने वाले लोग दरअसल वे हैं जो दैनिक रोजी-रोजी कमाने के लिए रोज अपना पसीना बहाते हैं। इन वर्गों से संवाद और उनकी एकजुटता के बहाने संघ एक बड़ी सामाजिक पहल कर रहा है, इसमें दो राय नहीं है।

शनिवार, 31 दिसंबर 2016

भारतीय मन और प्रकृति के खिलाफ है कैशलेस

-संजय द्विवेदी
     हिंदुस्तान के दो बड़े नोटों को बंद कर केंद्र सरकार और उसके मुखिया ने यह तो साबित किया ही है कि सरकार क्या कर सकती है। इस फैसले के लाभ या हानि का आकलन तो विद्वान अर्थशास्त्री करेगें, किंतु नरेंद्र मोदी कड़े फैसले ले सकते हैं, यह छवि पुख्ता ही हुयी है। एक स्मार्ट सरकार और स्मार्ट प्रधानमंत्री ही नोटबंदी की विफलता को देखकर उसका रूख कैशलेस की ओर मोड़ सकता है और ताबड़तोड़ छापों से अपनी छवि की रक्षा भी कर सकता है।
    इस मामले में सरकार के प्रबंधकों की तारीफ करनी पड़ेगी कि वे हार को भी जीत में बदलने की क्षमता रखते हैं और विफलताओं का रूख मोड़कर तुरंत नया मुद्दा सामने ला सकते हैं। हमारा मीडिया तो सरकार पर बलिहारी है ही। दूसरा तथ्य यह कि हमारी जनता और हम जैसे तमाम आम लोग अर्थशास्त्री नहीं हैं। मीडिया और विज्ञापनों द्वारा लगातार हमें यह बताया जा रहा है कि नोटबंदी से कालेधन और आतंकवाद से लड़ाई में जीत मिलेगी, तो हम सब यही मानने के लिए विवश हैं। क्योंकि यह आकलन करने की क्षमता और अधिकार दोनों हमारे पास नहीं है कि नोटबंदी का हासिल क्या है।
भूल जाएंगें मन का गणितः
   जहां तक कैशलेस का प्रश्न है, वह नोटबंदी की विफलता से उपजा एक शिगूफा है और कई मामलों में हम कैशलेस की ओर वैसे भी बढ़ ही रहे थे। इसे गति देना, ध्यान भटकाने के सिवा कुछ नहीं है। सत्ता में बैठे लोग जो भी फैसले लेते हैं, वह यह मानकर ही लेते हैं कि सबसे बुद्धिमान वही हैं और पांच साल के लिए देश उन्हें ठेके पर दिया गया है। मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों में कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसों की देहभाषा और भाषा का स्मरण कीजिए और भाजपा के दिग्गज मंत्रियों की भाषा और देहभाषा का परीक्षण करें तो लगेगा कि सत्ता की भाषा एक ही होती है।
   नई राजनीति ने मान लिया है कि सत्ता का विनीत होना जरूरी नहीं है। अहंकार उसका एक अनिवार्य गुण है। भारत की प्रकृति और उसके परिवेश को समझे बिना लिए जा रहे फैसले इसकी बानगी देते हैं। कैशलेस का हौवा ऐसा ही एक कदम है। यह हमारी परंपरा से बनी प्रकृति और अभ्यास को नष्ट कर टेक्नालाजी के आगे आत्मसमर्पण कर देने वाली कार्रवाई है। इससे कुछ हो न हो हम मन का गणित भूल जाएंगें। पहाड़े और वैदिक गणित के अभ्यास से उपजी कठिन गणनाएं करने का अभ्यास हम वैसे ही खो चुके हैं। अब नई कार्ड व्यवस्था हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। एक जागृत और जीवंत समाज बनने के बजाए हमें उपभोक्ता समाज बनने से अब कोई रोक नहीं सकता।
सारे लोग नहीं है बेईमानः
   इस फैसले की जो ध्वनि और संदेश है वह खतरनाक है। यह फैसला ही इस बुनियाद पर लिया गया है कि औसत हिंदुस्तानी चोर और बेईमान है। अपने देशवासियों विशेषकर व्यवसायियों और आम लोगों को बेईमान समझने की हिकारत भरी नजर हमें अंग्रेजों के राज से मिली है। आजादी के बाद भी अंग्रेजी मन के अफसर, राजनेता और पढ़े-लिखे लोग देश के मेहनतकश लोगों को बेईमान ही मानते रहे। निकम्मा मानते रहे। गुलामी के दिनों में अंग्रेजों से मिले यह मूल्य सत्ता में आज भी एक विचार की तरह बने हुए हैं। अफसोस कि यह औपनिवेशिक मानसिकता आज भी कायम है। जिसमें एक भारतीय को इन्हीं छवियों में देखा जाता है। इतिहास से सबक न लेकर हमने फिर से देशवासियों को बेईमान की तरह देखना शुरू किया है और बलात् उन्हें ईमानदारी सिखाने पर आमादा हैं। जबकि यह तय मानिए कि मनों को बदले बिना कोई भी टेक्नालाजी, बेईमानी की प्रवृत्ति को खत्म नहीं कर सकती है।
   सच तो यह है कि आपके तमाम टैक्सों के जाल, इंस्पेक्टर राज, बेईमान और भ्रष्ट तंत्र की सेवा में लगे आम भारतीय ईमानदारी से जीवन जी नहीं सकते, न व्यापार कर सकते हैं, न नौकरी। कैशलेस एक बेहतर व्यवस्था हो सकती है, किंतु एक लोकतंत्र में रहते हुए यह हमारा चयन है कि हम कैशलेस को स्वीकारें या नकद में व्यवहार करें। कोई सरकार इसके लिए हमें बाध्य नहीं कर सकती है। यह भी मानना अधूरा सच है कि कैशलेस व्यवहार करके ईमानदारी लाई जा सकती है। ईमानदारी की तरह बेईमानी भी एक स्वभाव है। आप बलात् न तो किसी को ईमानदार बना सकते हैं, न ही लोग शौक के लिए बेईमान बनते हैं। सच तो यह है कि मनुष्य के बीच ईमानदारी एक मूल्य की तरह स्थापित होगी, उसके मन में भीतरी परिवर्तन होगें, वह आत्मप्रेरित होगा, तभी समाज में शुचिता स्थापित होगी। भारतीय संस्कृति तो देवत्व के साथ जुड़ती है। जिसमें जो देता है, वही देवता होता है। इसलिए लोगों की आंतरिक शक्ति और आत्मशक्ति को जगाने की जरूरत है। किंतु जिस तंत्र के भरोसे यह परिर्वतन लाने की तैयारी हमारी सरकार ने की है, वह तंत्र स्वयं कितना भ्रष्ट है, कहने की आवश्यकता नहीं है। इसकी नजीर हमारे बैंक तंत्र ने इसी नोटबंदी अभियान में पेश कर दी है। प्रशासनिक तंत्र, राजनीतिक तंत्र और न्यायिक तंत्र के तो तमाम किस्से लोकविमर्श में हैं।
आम हिंदुस्तानी पर कीजिए भरोसाः
  हमारी सरकार को अपने लोगों पर भरोसा करना होगा। इंस्पेक्टर राज और राजनीतिक वसूली का तंत्र खत्म करना होगा। हमें बेईमान मानकर आप इस देश में ईमानदारी को स्थापित नहीं कर सकते। भीतर से मजबूत हिंदुस्तानी ही एक अच्छा देश बनाएंगें। नहीं तो आप हजारों चेक लगा लें, इंस्पेक्टर छोड़ दें, बेईमानी जारी रहेगी। आप लोगों को शिक्षित करने के बजाए, उन्हें पकड़ने, लांछित करने और बेईमान साबित की कोशिशों से खुश हैं तो खुश रहिए। आपको हमारे खाने पीने की चीजों से लेकर डायपर से लेकर च्ववनप्राश खरीदने की आदतों का, हमारे व्यक्तिगत विवरणों का विवरण कैशलेस के माध्यम से चाहिए तो बटोरिए और प्रसन्न रहिए।
   भारतीय संस्कृति के प्रखर प्रवक्ताओं को यह जानना चाहिए कि हमारी संस्कृति में व्यक्ति की स्वायत्तता ही प्रधान है। शरीर झुकाए और टूटी रीढ़ वाले हिंदुस्तानी हमारी पहचान नहीं हैं। ऐसे में राजपुरूषों को चाहिए कि वे लोगों को ईमानदार बनाएं, लेकिन बलात् नहीं। जबरिया परिर्वतन की प्रक्रिया अंततः विफल ही होती है, यह भी होगी। व्यक्ति को मशीनें बदल नहीं सकतीं, न बदल पाएंगी। व्यक्ति तो तभी बदलेगा जब उसका मन बदलेगा, उसका जीवन बदलेगा। वरन् एकात्म मानवदर्शन की जरूरत क्या है? उसकी प्रासंगिकता क्या है? शायद इसीलिए, क्योंकि व्यक्ति सिर्फ पुरजा नहीं है, वह मन भी है। आप तय मानते हैं कि यह सफल होगी पर ज्यादातर लोग मानते हैं आपकी यह कोशिश विफल होगी, क्योंकि इसमें व्यक्ति के बजाए कानून और टेक्नालाजी पर भरोसा है। मन के बजाए इंस्पेक्टर राज पर जोर है। आधार कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी आपका इतना आग्रह क्यों है? क्या यह सिर्फ सुरक्षा कारणों से है या बाजार इसके पीछे है? आप क्यों चाहते हैं कि सबका लेन-देन,खान पान, व्यवहार और लोकाचार रिकार्डेड हो? आपका अपने देशवासियों पर नहीं, तंत्र पर इतना भरोसा है तो कम्युनिस्टों में बुराई क्या थी? क्षमा करें आप चाहते नहीं थे, किंतु अब चाहने लगे हैं कि व्यक्ति नहीं, तंत्र मुख्य हो। तंत्र का सब पर कब्जा हो। इन्हीं हरकतों की अति से रूस का क्या हुआ आपके सामने है। इसलिए कृपया ईमानदारी के इस अभियान को व्यक्तिगत स्वतंत्रता को क्षति पहुंचाने के लिए इस्तेमाल न करें।
यह तंत्रवादी मार्ग है, राष्ट्रवादी नहीः

    आप जिस तरफ जा रहे हैं, वह भारत का रास्ता नहीं है। वह राष्ट्रवादी नहीं, तंत्रवादी मार्ग है। आप एकात्म मानवदर्शन के नारे लगाते हुए, कम्युनिस्टों सरीखा आचरण नहीं कर सकते। हमारे पांच हजार साल के बाजार में जो मूल्य चले और विकसित हुए उन्हें अचानक शीर्षासन नहीं कराया जा सकता है। वस्तु विनिमय से लेकर दान पूजन में दक्षिणा के संस्कार तक भारत का मन मशीनों के सहारे नहीं बना है। इसलिए पश्चिमी स्वभाव को भारत पर आरोपित मत कीजिए। वे मशीनों पर इसलिए गए कि उनके पास लोग नहीं थे। इतना बड़ा देश अगर मशीनों और तंत्र पर चला गया तो हम उन करोड़ों हाथों का क्या करेगें जो किसी रोजगार की प्रतीक्षा में आज भी खड़े हैं। कार्ड को स्वाइप करने वाली मशीनों का निर्माण करने के बजाए लोगों के लिए रोजगार उत्पादन करने की सोचिए। तंत्र के बजाए बुद्धि को विकसित करने के जतन कीजिए। कैशलेस की नारेबाजी इस देश की प्रकृति व उसके स्वभाव के विरूद्ध है, इसे तुरंत बंद कीजिए। दुनिया के देशों की नकल करने के बजाए एक बार महात्मा गांधी की बहुत छोटी कृति हिंद स्वराज को फिर से पढ़िए। हिंद स्वराज का एक सावधान पाठ आपको बहुत से सवालों के जवाब देगा। सही रास्ता मिलेगा, भरोसा कीजिए।

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

मैं ही, मैं हूं दूसरा कोई नहीं!

-संजय द्विवेदी

  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखकर अनेक राजनीतिक टिप्पणीकारों को इंदिरा गांधी की याद आने लगी है। कारण यह है कि भाजपा जैसे दल में भी उन्होंने जो करिश्मा किया है, वह असाधारण है। कांग्रेस में रहते हुए इंदिरा गांधी या सोनिया गांधी हो जाना सरल है। किंतु भाजपा में यह होना कठिन है, कठिन रहा है, मोदी ने इसे संभव किया है। संगठन और सत्ता की जो बारीक लकीरें दल में कभी थीं, उसे भी उन्होंने पाट दिया है। अटल जी के समय में भी लालकृष्ण आडवानी नंबर दो थे और कई मामलों में प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर पर आज एक से दस तक शायद प्रधानमंत्री ही हैं। खुद को एक ताकतवर नेता साबित करने का कोई मौका नरेंद्र मोदी नहीं चूकते। अरसे से कारपोरेट और अपने धन्नासेठ मित्रों के प्रति उदार होने का तमगा भी उन्होंने नोटबंदी कर एक झटके में साफ कर दिया है। वे अचानक गरीब समर्थक होकर उभरे हैं। यह अलग बात है कि उनके भ्रष्ट बैंकिग तंत्र ने उनके इस महत्वाकांक्षी कदम की हवा निकाल दी। बाकी रही-सही कसर आयकर विभाग के बाबू निकाल ही देगें।
    मैं देश नहीं झुकने दूंगा और अच्छे दिन के वायदे के साथ आई सरकार ने अपना आधे से ज्यादा समय गुजार लिया है। इसमें दो राय नहीं कि इन दिनों में प्रधानमंत्री प्रायः अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खियों में रहे और लोगों में राजनीतिक चेतना जगाने में उनका खास योगदान है। या यह कहें कि प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द भी खबरें बनती हैं, यह अरसे बाद उन्होंने साबित किया है। छुट्टियों के दिन रविवार को भी मन की बात जैसे आयोजनों या किसी रैली के बहाने टीवी पर राजनीतिक दृष्टि के खाली दिनों में भी काफी जगह घेर ही लेते हैं। उनका चतुर और चालाक मीडिया प्रबंधन या चर्चा में रहने का हुनर काबिले तारीफ है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर इंदिरा जी ने राष्ट्रीय राजनीति में खुद के होने को साबित किया था और एक बड़ी छलांग लगाई थी, नोटबंदी के बहाने भी नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह बदल दिया। हालात यह हैं कि संसद नोटबंदी के चलते नहीं चल सकती। सरकार के ढाई साल के कामकाज किनारे हैं। पूरा विपक्ष नोटबंदी पर सिमट आया है। नोटबंदी के अकेले फैसले से नरेंद्र मोदी ने यह बता दिया है कि सरकार क्या कर सकती है। इससे उनके मजबूत नेता होने की पहचान होती है, जिसे फैसले लेने का साहस है। आप देखें तो इस अकेले फैसले ने उनकी बन रही पहचान को एक झटके में बदल दिया है। सूट-बूट का तमगा लेकर और भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने कारपोरेट समर्थक छवि में लिपटा दिए प्रधानमंत्री ने अपनी विदेश यात्राओं से जितना यश कमाया उससे अधिक उन पर तंज कसे गए। यह भी कहा गया कुछ दिन तो गुजारो देश में।लेकिन विमुद्रीकरण का फैसला एक ऐसा फैसला था जिसे गरीबों का समर्थन मिला। विपक्ष भी इस बात से भौंचक है कि परेशानियां उठाकर भी आम लोग नरेंद्र मोदी के इस कदम की सराहना कर रहे हैं। अपेक्षा से अधिक तकलीफों पर भी लोग सरकार की बहुत मुखर आलोचना नहीं कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार की चुनावी हार से सबक लेकर प्रधानमंत्री ने शायद समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े लोगों को साधने की सोची है। उनकी उज्जवला योजना को बहुत सुंदर प्रतिसाद मिला है। इसके चलते उनके अपने दल के सांसद अपनी न पूरी होती महत्वाकांक्षाओं के बावजूद भी खामोश हैं। अभी दल के भीतर-बाहर कोई बड़ी चुनौती खड़ी होती नहीं दिख रही है। मोदी ने स्मार्ट सिटी, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया जैसे नारों से भारत के नव-मध्य वर्ग को आकर्षित किया था किंतु बिहार और दिल्ली की पराजय ने साबित किया, कि यह नाकाफी है। असम की जीत ने उन्हें हौसला दिया और नोटबंदी का कदम एक बड़े दांव के रूप में खेला गया है। जाहिर तौर पर एक गरीब राज्य उत्तर प्रदेश में इस कदम की पहली समीक्षा होगी। उत्तर प्रदेश का मैदान अगर भाजपा जीत लेती है तो मोदी के कदमों को रोकना मुश्किल होगा। विपक्षी दलों की यह हड़बड़ाहट साफ देखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि सपा और कांग्रेस के बीच साथ चुनाव लड़ने को लेकर बात अंतिम दौर में हैं। काले धन के खिलाफ इस सर्जिकल स्ट्राइक ने नरेंद्र मोदी के साहस को ही व्यक्त किया है। नोटबंदी के समय और उससे मिली परेशानियों ने निश्चय ही देश को दुखी किया है। देवउठनी एकादशी के बाद जब हिंदू समाज में विवाहों के समारोह प्रारंभ होते हैं ठीक उसी समय उठाया गया यह कदम अनेक परिवारों को दुखी कर गया। इतना ही नहीं अब तक 125 से अधिक लोग अपनी जान दे चुके हैं।

       कालेधन के खिलाफ यह जंग दरअसल एक आभासी जंग है। हमें लग रहा है कि यह लड़ाई कालेधन के विरूध्द है पर हमने देखा कि बैंक कर्मियों ने प्रभुवर्गों की मिलीभगत से कैसी लीलाएं रचीं और इस पूरे अभियान पर पानी फेर दिया। यह आभासी सुख, आम जनता को भी मिल रहा है। उन्हें लग रहा है कि मोदी के इस कदम से अमीर-गरीब की खाईं कम होगी, अमीर लोग परेशान होगें पर इस आभासी दुख के हमारे पास कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। परपीड़न से होने वाला सुख हमें आनंदित करता है। नोटबंदी भी कुछ लोगों को ऐसा ही सुख दे रही है। इस तरह के भावनात्मक प्रयास निश्चित ही भावुक जनता की अपने नेता के प्रति आशक्ति बढ़ाते हैं। उत्तर प्रदेश का मैदान इस भावुक सच की असली परीक्षा करेगा, तब तक तो मोदी और उनके भक्त कह ही सकते हैं- मैं ही, मैं हूं दूसरा कोई नहीं।

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

आपके लिए कौन रोएगा?

-संजय द्विवेदी
    
  धनबल, बाहुबल, जनबल के इस युग में जहां सामाजिक परिर्वतन को सिरमौर बनने की दृष्टि से देखा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक गिरावट के दौर में एक ऐसा व्यक्तित्व भी देखने को मिलता है, जो लोगों की आस्था का केंद्र बनता है। लोग उनके लिए न सिर्फ आंसू बहाते हैं बल्कि प्राण तक न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं। आखिर इस शख्स में ऐसा क्या था, जो उसके जाने के बाद लोगों को रूला गया।
  हम बात कर रहे हैं समाज में आई नैतिक मूल्यों की गिरावट के उस दौर की जहां कुर्सी पाने के लिए राजनेता, भाई-भाई का कत्ल करने पर आमादा है। चुनाव जीतने में धन का बोलबाला है। राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए किसी भी हद तक जाने को लोग आतुर हैं। ऐसे कठिन और विपरीत समय में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का जाना और उनके लिए समूचे तमिलनाडु की जनता का ह्दय से विलाप, कोई छोटी बात नहीं है। यह वह जनता है जिसने अम्मा का बुरा वक्त भी देखा था और तब भी उनसे नजदीकियां कम नहीं हुयी थीं। आखिर अम्मा में ऐसा क्या था जो लोग उनके दीवाने हो गए। लोग न उनके लिए आंसू बहा रहे थे बल्कि अपना प्राणोत्सर्ग करने में भी उन्हें संकोच नहीं था। जनता का दीवानापन कोई छोटी बात नहीं है। खासतौर से जब व्यक्ति राजनीति में हो। हम जानते हैं कि राजनीति की राहें बहुत रपटीली और कंटकाकीर्ण हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि हमारा लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए बना है। इसमें व्यक्ति मतदाता होता है और उसे अपना प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता होती है। बाद में वही प्रतिनिधि उस पर हूकूमत करता है। वही सत्ताधीश होता है। ग्राम पंचायत से लोकसभा तक मतदाता अपने भाग्यविधाता का निर्वाचन करता है। देखने में आता है कि चुनाव के वक्त राजनेता गिरगिट की तरह पैंतरे बदलते हैं और मतदाता रूपी भगवान को खुश करने के अनेक यत्न करते हैं। सीट या कुर्सी प्राप्त होने पर वह अभिमानी हो जाते हैं और उसी मतदाता से उन्हें बू आने लगती है। नौकरशाह उनके शार्गिद हो जाते हैं। तब जनता उन्हें उनकी राह अगले चुनाव में दिखाती है।
  वर्तमान में सामाजिक और नैतिक मूल्यों की गिरावट चहुंओर है। राजनीति भी उससे अछूती कैसे रह सकती है। अनेक राजनेताओं पर समय-समय पर दाग लगते रहे हैं और उन दागों को धोने में कई की पूरी आयु निकल जाती है। ऐसे कुछ दाग अम्मा यानि जयललिता के जीवन पर भी लगे थे। उन्होंने न्यायपालिका में भरोसा रखा, जहां से वे निर्दोष साबित हुयीं। जयललिता के खिलाफ राजनीतिक षडयंत्र भी हुए, जेल भी जाना पडा। मारने की धमकियां भी मिलीं, लेकिन जनता में उनका जलवा कायम रहा। उनके जीवन में लाख बुराइयों के बीच अनेक अच्छाइयां भी मौजूद थीं। वह मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मिलने वाले वेतन से गरीबों के लिए दो जून की रोटी मुहैया कराने का काम करती थीं। सरकारी अस्पतालों में गरीबों का इलाज उनकी प्राथमिकता में था। गरीबों के बच्चे स्कूलों तक जाएं, यह उनकी प्रतिबद्धता थी। उनके दरवाजे पर आने वाला कोई खाली हाथ न जाए, उसे न्याय मिले, उसकी बात सुनी जाए, प्रशासन उसके घर दस्तक दे, यह जवाबदेही उनके शासन में थी। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए जनता जो चाहती थी वह करने का प्रयास किया। इसी कारण वह लोगों के दिलों को जीतने में सफल रहीं। अम्मा की अनुपस्थिति लोगों को आज महसूस हो रही है। परंतु वह यह मानने को तैयार नहीं है कि उनकी प्यारी अम्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं। जयललिता को सत्ता में रहते हुए जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में निश्चित रूप से कई कठिनाईयां आई होगीं। एक तो वह क्षेत्रीय दल की नेता थीं और केंद्र में उनके दल का ज्यादा  बहुमत नहीं था। परंतु जयललिता ने लोकतंत्र के उस जनमत हथियार का इस तरह इस्तेमाल किया कि वह केंद्र में भी ताकतवर नेता के रूप में जानी जाती रहीं। केंद्र भी उनकी बात को गंभीरता से सुनने के लिए मजबूर होता था। वह तमिलनाडु की जनता के हकों के लिए ताजिंदगी लड़ती रहीं। क्या भारत में अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री या अन्य जननेता उनके अच्छे कामों से सीख लेगें और जनता का दिल जीतने का प्रयास करेगें। अगर ऐसा नहीं होता है तो उनके लिए रोने वाला कौन होगा।

     ऐसा नहीं है कि जयललिता ने तमिलनाडु की सारी समस्याएं हल कर दी हों और वहां की जनता अमन चैन की सांस ले रही हो। राज्य में अभी भी समस्याएं हैं जिनका हल निकाला जाना है। तमिलनाडु की तरह भारत के विभिन्न राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में भी समस्याएं हैं। आजादी के 70 वर्षों में कुछ प्रयास हुए हैं परंतु जनता की बुनियादी समस्याएं अभी भी कायम हैं।  सरकारें जनादेश प्राप्त करने से पूर्व घोषणा पत्र जारी करती हैं और उसके क्रियान्वयन में अपना कार्यकाल पूरा करती हैं। देखने में आया है कि ज्यादातर सरकारें घोषणा पत्र के बिंदुओं को अक्षरशः क्रियान्वित करने में असफल रहती हैं जिसके कारण जनाक्रोश बनना प्रारंभ हो जाता है। इसके साथ ही अगले चुनाव में कई बार जनमत वर्तमान सत्ता के विरूद्ध जाता है। तमिलनाडु में जयललिता के साथ ऐसा कुछ हो चुका है, लेकिन वह गिरकर फिर खड़ी हुयीं और सरकारी योजनाओं के जरिए एवं अपने जनहितैषी फैसलों से जनता का दिल जीतने में कामयाब रहीं। यही वजह है कि आज समूचा तमिलनाडु उनके लिए रो रहा है और यह अप्रत्याशित घटना समूचे देश के लिए एक उदाहरण भी है। जनता का राजनेता के प्रति दीवानापन उनकी लोकप्रियता को दर्शाता है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के विभिन्न प्रांतों के राजनेता इस घटना से कुछ सीख लेगें और जनता की समस्याओं को हल करते हुए जनता का दिल जीतने में कामयाब हो सकेगें।

सपनों को सच करता एक परिसर

-संजय द्विवेदी

    माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का नाम लेते ही मन सुखद अहसासों से भर जाता है। उन मीठे दिनों की याद आती है, जब हम सबने यहां अपना व्यक्तित्व गढ़ा और काम के आदमी बने। वे दिन और आज के दिनों में लंबा फासला है। पर भावनाएं वही हैं बहुत गहरी, बहुत प्यारी और बहुत संजीदा कर देने वाली, बहुत ताकत देने वाली।
    1995 में इस परिसर से पढ़कर निकला, दुनिया देखी। अनेक मीडिया संस्थानों में काम करते हुए एमसीयू का विकास देखा। आज 25 साल पूरे कर चुका यह संस्थान अपने आप में एक मिसाल बन चुका है। बहुत से झंझावातों, विवादों और सरकारों की अनदेखी को स्वीकारता हुआ, अपने दम पर इसने अपनी जगह बनाई है। यहां के प्राध्यापक, कर्मचारी, अधिकारी और उन सबसे ज्यादा यहां के विद्यार्थी जो देशभर में अपनी कीर्ति से इसे गौरव दे रहे हैं। एमसीयू ने भारतीय मीडिया को ऐसे गौरवशाली चेहरे दिए हैं, जिन पर भारतीय समाज बहुत लंबे समय तक गर्व करेगा। मीडिया में हो रहे परिर्वतनों की गति को पहचान कर इसने अपना निरंतर परिष्कार किया है। यह एक ऐसा परिसर है जिसने भारतीय मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया को बहुत समृद्ध किया है। इस विश्वविद्यालय का पूर्व विद्यार्थी होने के नाते मेरी भावनाएं इस परिसर से कुछ अलग तरह से जुड़ी हुई हैं, किंतु सच तो सच होता है। वह किसी भी कारण से बदलता नहीं।
भोपाल से बाहर जाकर देखिए इस परिसर कोः
भोपाल या मध्यप्रदेश में रहते हुए आपको इसका भान नहीं होगा, आप मप्र से बाहर जाकर देखिए। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नाम का डंका देश भर में बज रहा है। मीडिया की दुनिया में एमसीयू वालों ने जो किया है, वह दिल्ली में मीडिया के लोग बताएंगें। बड़े संपादक बताएंगें। टीवी मीडिया की पहली पीढ़ी में अनेक ऐसे नाम हैं जिन्होंने एमसीयू के भोपाल कैम्पस से पढ़ाई की और एक खास जगह बनाई। भरोसा न हो तो संजय सलिल, दिलीप तिवारी(जी न्यूज), अभिषेक शर्मा अनुराग द्वारी(एनडीटीवी इंडिया), रजनीकांत सिंह (सहारा), रघुवीर रिछारिया (एबीपी न्यूज) वैभववर्धन, पशुपति शर्मा,  (इंडिया न्यूज), प्रकाश पंत (डीडी न्यूज), कृष्णमोहन मिश्रा,प्रवीण दुबे, शैलेंद्र तिवारी (जी न्यूज), रवि मिश्रा (ईटीवी), नितिशा कश्यप (सीएनएन आईबीएन न्यूज), संयुक्ता बनर्जी, अमित कुमार सिंह, संदीप सोनवलकर, राकेश पाठक(इंडिया टीवी) विश्वेष ठाकरे ऐसे न जाने कितने नामों के बारे में टीवी मीडिया के धुरंधरों से पूछिए। इसी तरह प्रिंट मीडिया की दुनिया में स्व. वेदव्रत गिरी, आनंद पाण्डेय, सुनील शुक्ला, श्यामलाल यादव, विजयमनोहर तिवारी, शिवकेश मिश्र, संजीव कुमार शर्मा, अमिताभ श्रीवास्तव, जितेंद्र मोहन रिछारिया,सतीश एलिया, दीपक तिवारी, धर्मेंद्र मोहन पंत, स्मृति जोशी, अजीत सिंह, अमन नम्र, पुरूषोत्तम कुमार, आनंद सिंह, वरूण सखाजी, अरूण तिवारी, चैतन्य चंदन, दीपक साहू, आलोक मिश्रा, मनोज प्रियदर्शी, धनंजय प्रताप सिंह, मनोज दुबे जैसे सैकड़ों नाम हैं, जिन्होंने एक बड़ी जगह बनाई है। डिजिटल के सर्वथा नए प्लेटफार्म पर अनुज खरे, आशीष महर्षि, अंकुर विजयवर्गीय, शेफाली चतुर्वेदी, पंकज कुमार साव, स्नेहा शिव, कौशलेंद्र विक्रम सिंह, कौशल वर्मा, तृषा गौर जैसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनका स्थान बना है। सामाजिक क्षेत्र में सचिन जैन, राजू कुमार, देवाशीष मिश्रा, अमरेश चंद्रा, नीलिमा भार्गव, सत्यप्रकाश आर्य, कविता शाह, आकृति श्रीवास्तव का नाम भी उल्लेखनीय है। इस विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थी आज मीडिया और आईटी शिक्षा में एक शिक्षक के रूप में भी पहचान बना चुके हैं, जिनमें डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. राखी तिवारी, डा. अरूण कुमार भगत, डा. अनुराग सीठा, डा. आरती सारंग, डा.संजीव गुप्ता, मीता उज्जैन, प्रदीप डहेरिया, सत्येंद्र डहरिया, (एमसीयू), नृपेंद्र शर्मा, आशुतोष मंडावी,(कुशाभाऊ ठाकरे विवि) अमिता (बीएचयू) के नाम गिनाए जा सकते हैं।
 इसी तरह एमसीयू के कंप्यूटर विभाग के विद्यार्थी आज कंपनियों में सीईओ जैसे पदों को भी सुशोभित कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के विद्यार्थी आज मीडिया, जनसंचार, विकास संचार, सरकारी जनसंपर्क, मीडिया शिक्षा से लेकर एनजीओ और आईटी सेक्टर में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
परिवार भावना से जुड़े हैं पूर्व विद्यार्थीः
   पिछले पांच सालों में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने तीन ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन किया है जिनमें पूर्व विद्यार्थियों ने अपने अनुभव लिखे हैं। इन तीन पुस्तकों में 100 से अधिक विद्यार्थियों ने अपने अनुभव नई पीढ़ी को मार्गदर्शन के लिए शेयर किए हैं। इन किताबों से गुजरते हुए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का इतिहास विकास साफ नजर आता है। विश्वविद्यालय की इस गौरवशाली यात्रा के पचीस साल पूरे होने पर देश भर में विमर्श और गोष्ठियों का आयोजन चल रहे हैं। इन आयोजनों में प्रबुद्ध नागरिकों के साथ-साथ हमारे पूर्व विद्यार्थी भी सहभागी होते हैं तो खुशी दोगुनी हो जाती है। हाल में ही इंदौर, मुंबई, पटना, बेंगलुरू, दिल्ली, भोपाल में हुए आयोजनों में पूर्व विद्यार्थियों की सहभागिता सराहनीय रही। अपने परिसर से उनका जुड़ाव हमें बताता है कि हम किस तरह एक परिवार की तरह आज भी जुड़े हैं। यह जुड़ाव हमें पूर्व विद्यार्थी सम्मेलनों में दिखता है जब अपनी व्यस्तता के बाद भी पूर्व विद्यार्थी बड़ी संख्या में आते हैं। हाल में ही भोपाल में आयोजित पूर्व विद्यार्थी सम्मेलन में लगभग 400 विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया। यह बात बताती है परिसर किस तरह उनकी भावनाओं से जुड़ा हुआ है।
सतत गतिविधियों से बनी राष्ट्रव्यापी पहचानः

विश्वविद्यालय ने अपने स्थापना काल से ही पाठ्यक्रम के साथ-साथ विद्यार्थियों और शोधार्थियों के मानसिक और बौद्धिक विकास पर ध्यान दिया। इसके निमित्त निरंतर आयोजनों का सिलसिला विश्वविद्यालय की एक खास पहचान है। सेमीनार, कार्यशालाओं के आयोजन के अलावा विशेष व्याख्यान निरंतर आयोजित किए जाते हैं। शनिवार को प्रत्येक विभाग में ऐसे आयोजन होते हैं, जिनमें विविध क्षेत्रों के शीर्ष पुरूष आते हैं और विद्यार्थियों से संवाद करते हैं। इसके साथ ही विविध विषयों पर पुस्तकों का प्रकाशन एक बड़ा काम है। स्वतंत्र भारत की शोध परियोजना के तहत लगभग 75 पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। इसके अलावा अनेक पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन करने के साथ-साथ विश्वविद्यालय वर्तमान में चार पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कर रहा है, जिनमें मीडिया मीमांसा (शोध पत्रिका), मीडिया नवचिंतन(विचार पत्रिका), अतुल्य भारतम् (संस्कृत पत्रिका), एमसीयू समाचार( हाउस जनरल) शामिल हैं। भारत की संचार परंपरा के तहत शोध परक पुस्तकों का प्रकाशन कर विश्वविद्यालय ने माटी के ऋण को चुकाने का भी प्रयास किया है। अपनी जड़ों से जुड़े रहकर भावी चुनौतियों को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय अनेक मुद्दों पर काम कर रहा है। एक यशस्वी पत्रकार, कवि, लेखक और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम से जुड़ा यह परिसर आज अपने होने को सार्थक करता हुआ दिखता है। शिक्षा के क्षेत्र में स्वालंबन की मिसाल बन चुका यह परिसर आज देश भर के बीच चर्चा का विषय है। विश्वविद्यालय की संपूर्ण यात्रा रचना और सृजन की संघर्ष यात्रा है। इस यात्रा में उसने तमाम अनाम चेहरों को नाम और पहचान दी है। यहां आकर नई पीढ़ी आज भी अपने सपनों में रंग भर रही है और खुद की सार्थकता के लिए निरंतर सक्रिय है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में यह परिसर अपनी इसी भूमिका का और विस्तार करते हुए अपनी सार्थकता को साबित करेगा। यह जिम्मेदारी निभाना विश्वविद्यालय परिवार की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी दोनों है।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

शिवराजः कमाल के ग्यारह साल!

-संजय द्विवेदी

  देश में मध्यप्रदेश इकलौता ऐसा राज्य है, जहां पर आम नागरिकों के हितों की आवाज को बुलंद करने वाले पत्रकारों के हित में पिछले 11 वर्षों में कई क्रांतिकारी निर्णय हुए हैं। इन निर्णयों से मध्यप्रदेश के 52 जिलों में 24 घंटे समाज को समर्पित रहते हुए मीडिया का काम कर रहे पत्रकारों में एक आत्मीय माहौल है और वह अपने काम को बखूबी अंजाम दे पा रहे हैं। यह हम सभी जानते हैं कि पत्रकार समाज का दर्पण होता है और वह समाज मे घटित घटनाओं, जानकारियों और सूचनाओं को समाज तक पहुंचाने का काम करता है।
शब्दसाधकों का रखा ख्यालः
    पत्रकार की कलम सरकार की बड़ी योजनाओं पर भी चलती है। उनकी कमियों और क्रियान्वयन में हो रही गड़बड़ियों को वह रेखांकित करते हैं। पिछले 11 वर्षों में पत्रकारों ने अपनी इस भूमिका को जिम्मेदारी के साथ निभाया है। जिसके परिणाम स्वरूप मप्र शिक्षा, सड़क, बिजली, स्वास्थ्य जैसी कई नई-नई योजनाओं के क्षेत्र में आगे बढ़ सका है। सिर्फ एक दशक पहले  मध्यप्रदेश की गिनती बीमारू राज्यों में होती थी और बिजली का आलम यह था कि वह आ गयी और चली गयी यही शीर्षक समाचार पत्रों में दिखते थे। सड़कें अपनी दुर्दशा पर आंसूं बहा रही थीं। स्वास्थ्य का स्वास्थ्य ही बिगड़ा हुआ था। ऐसे अनेक विषय देश के ह्दयप्रदेश की छवि को बिगाड़ रहे थे। एक नेतृत्व ने मध्यप्रदेश को फिर से खड़े होने और संभलने का अवसर तथा संबल प्रदान किया। नेतृत्व के कदमताल में मध्यप्रदेश का मीडिया भी सहभागी बना। पांव-पांव वाले भैया को जगत मामा बनाने और विकास का एक स्वच्छ आईना प्रस्तुत करने वाले राजनेता की छवि बनाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई है। इसी का प्रतिफल है कि मध्यप्रदेश में आओ बनाएं अपना मध्यप्रदेश, मध्यप्रदेश गान, मध्यप्रदेश का स्थापना दिवस जैसे आयोजन आज जन-जन की जुबान पर सुने जा सकते हैं।
माटी का गौरव जगाने की कोशिशः
   आंचलिकता और क्षेत्रीयता में बंटे मध्यप्रदेश को शिवराज सिंह चौहान ने एकता के सूत्र में पिरोने का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने यहां के नागरिकों में एक ऐसा भाव पैदा किया जिसके चलते न उनमें अपनी माटी के प्रति प्रेम पैदा हुआ बल्कि उनमें इस जमीन पर विकास की ललक भी जगाई। इस मामले वे एक आशावादी और विकासवादी राजनेता के रूप में सामने आते हैं। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा पिछले पंद्रह वर्षों में जहां एक ओर विकास की अनेक योजनाओं को अमली जामा पहनाया गया,वहीं दूसरी ओर समाज सेवा में रत पत्रकारों के हित में भी कई जनोपयोगी और क्रांतिकारी फैसले लिए हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मध्यप्रदेश के पत्रकारों को उनके दायित्वबोध को निभाने के लिए संबल देने का काम इस सरकार ने किया है। इसी कड़ी में सरकार द्वारा मध्यप्रदेश में लागू की गयी पत्रकार सामूहिक बीमा योजना, उपचार योजना तथा अधिमान्यता के लिए तहसील एवं ब्लाक स्तर पर प्रावधान किया जाना उल्लेखनीय है। साठ वर्ष से ऊपर के पत्रकारों को श्रद्धानिधि के माध्यम से उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सम्मानित करने का काम किया है। मध्यप्रदेश के कई स्थानों पर न्यूनतम दरों पर पत्रकार कालोनियों का निर्माण हुआ है। कई पत्रकार भवन बने हैं। पत्रकार हित के इन फैसलों से मीडिया जगत अपनी सेवाओं को ज्यादा जनोन्मुखी बना पा रहा है। सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाने में मीडिया की भूमिका ज्यादा प्रखर हो इसके लिए उनका सम्मान और व्यस्थापन ठीक हो, इसके लिए सरकार की नजर रही है। बेहतर काम कर रहे पत्रकारों एवं छायाकारों के लिए अनेक सम्मान और पुरस्कार तो सरकार दे ही रही है।
अन्नदाता का बढ़ाया मानः
   मध्यप्रदेश के अन्नदाता का मान इस सरकार ने बढ़ाया है। जिसके फलस्वरूप किसानों द्वारा की गयी मेहनत का नतीजा है कि मध्यप्रदेश अनाज के उत्पादन में सर्वश्रेष्ठ राज्य बन सका है। इस अद्भुत और उल्लेखनीय उपलब्धि के चलते मध्यप्रदेश को लगातार कृषि कर्मण अवार्ड मिल रहा है। यह सच है कि विकास के लिए शांति होना बेहद आवश्यक है। मध्यप्रदेश को शांति का टापू बनाने का श्रेय भी शिवराज सिंह को जाता है। चंबल के बीहड़ कभी डकैतों का अभ्यारण्य हुआ करते थे, सरकार ने मुहिम चलाकर डकैतों का जहां एक ओर सफाया कर दिया वहीं दूसरी ओर डकैतों एवं बदमाशों के नाम पर हो रही अवैध वसूली को भी रोकने का काम किया है। अभी हाल में ही भोपाल जेल से भागे सिमी आतंकवादियों का एनकाउंटर सरकार की बड़ी उपलब्धि है। अपराधी और बदमाशों के साथ हमें सख्त होना ही पडेगा अन्यथा सरकार और प्रशासन से लोगों का भरोसा उठ जाएगा और वह खुद को असुरक्षित महसूस करने लगेगें। इस भय को मध्यप्रदेश में समूल नष्ट करने का प्रयास सफल रहा है। निःसंदेह आज मध्यप्रदेश के सभी कोनों पर सुरक्षा, कानून-व्यवस्था और सदभाव का वातावरण हमें दिखाई देता है। मप्र का दृश्य पूरी तरह बदल चुका है, यहां इनवेस्टर्स समिट के जरिए उद्योगपति आते हैं, चर्चा करते हैं और करोड़ों रूपए के प्रोजेक्ट लगाने पर मोहर लगाते हैं।

स्त्री सम्मान के लिए बड़ी पहलः
   एक समय था जब लड़की को समाज में बोझ समझा जाता था। इस सामाजिक मानसिकता को योजनाओं के जरिए बदलने का काम शिवराज जी ने किया। इस काम को उन्होंने दिल से किया और स्त्री सम्मान को भारतीय राजनीति का केंद्रीय विषय बना दिया। यह साधारण नहीं है कि उनकी बनाई योजनाएं कई अन्य राज्यों ने भी स्वीकार की और उन पर अमल प्रारंभ कर दिया है। बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा कराने वाला मध्यप्रदेश संभवतः पहला राज्य बना। यहां लागू की गयी तीर्थ दर्शन योजना वास्तव में अपनी जड़ों से जोड़ती है और एक सपने को सच भी करती है। मध्यप्रदेश सरकार ने योजनाओं के साथ-साथ समाज में घटित घटनाओं एवं ज्वलंत विषयों पर मंथन करने के लिए बौद्धिक विमर्श भी आयोजित किए। उज्जैन महाकुंभ को वैचारिक महाकुंभ बनाने वाली शिवराज सरकार ने विश्व हिंदी सम्मेलन का आतिथ्य लेकर विश्व को हिंदी जगत के वैश्विक स्वरूप से परिचित कराया। इसके साथ ही मूल्य आधारित जीवन और लोकमंथन जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों से सरकार ने अपनी दिशा और दृष्टि दोनों प्रकट कर दी। इन आयोजनों में राज्य के मुखिया की संलग्नता और आतिथ्यभाव देखते ही बनता था। इससे उनकी सदाशयता और मनुष्यता का बार-बार प्रकटीकरण हुआ।

खोले सीएम हाउस के द्वारः
   मुख्यमंत्री निवास में जाना और वहां भोजन करना एक सुखद अनुभव होता है, किंतु वह कुछ गिने-चुने लोगों और राजपुरूषों को ही नसीब होता था। शिवराज जी ने मुख्यमंत्री निवास के द्वार आम लोगों के लिए खोल दिए और एक के बाद एक वर्गों और समुदायों की पंचायतें मुख्यमंत्री निवास में आयोजित कीं। इन पंचायतों में समाज की परेशानियों को सरकार ने समझा और उनके ठोस और वाजिब समाधानों के लिए वहीं पर बैठकर नीति विषयक घोषणाएं की गयीं और उन पर अमल भी हुआ। इन पंचायतों में शामिल आम आदमी को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी ने अपने हाथ से परोसकर भोजन कराया। ऐसे दृश्य भारतीय राजनीति में दुर्लभ हैं।
    शिवराज सिंह जानते हैं वे एक ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री हैं, जो विकास के सवाल पर काफी पीछे था, इसलिए वे राज्य के सामाजिक प्रश्नों को संबोधित करते हैं। लाड़ली लक्ष्मी, जननी सुरक्षा योजना, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण ऐसे प्रतीकात्मक कदम हैं जिसका असर जरूर दिखने लगा है। इसी तरह राज्य में कार्यसंस्कृति विकसित करने के लिए लागू किए गए लोकसेवा गारंटी अधिनियम को एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। शायद विश्ल के प्रशासनिक इतिहास में ऐसा प्रयोग देखा नहीं गया है। किंतु मध्यप्रदेश की जनता जागरूक होकर इस कानून का लाभ ले सके तो, सरकारी काम की संस्कृति बदल जाएगी और लोगों को सीधे राहत मिलेगी। शिवराज विकास की हर घुरी पर फोकस करना चाहते हैं। क्योंकि मप्र को हर मोर्चे पर अपने पिछड़ेपन का अहसास है। उन्हें अपनी कमियां और सीमाएं भी पता हैं। वे जानते हैं कि एक जागृत और सुप्त पड़े समाज का अंतर क्या है। इसलिए वे समाज की शक्ति को जगाना चाहते हैं। वे इसलिए मप्र के अपने नायकों की तलाश कर रहे हैं। वनवासी यात्रा के बहाने वे इस काम को कर पाए। टंटिया भील, चंद्रशेखर आजाद, भीमा नायक का स्मारक और उनकी याद इसी कड़ी के काम हैं।

सदैव आमजनों की चिंताः

   एक साझा संस्कृति को विकसित कर मध्यप्रदेश के अभिभावक के नाते उसकी चिंता करते हुए शिवराज जी हमेशा दिखते हैं। मुख्यमंत्री की यही जिजीविषा उन्हें एक सामान्य कार्यकर्ता से नायक में बदल देती है। शायद इसीलिए वे विकास के काम में सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं। राज्य के स्थापना दिवस एक नवंबर को उन्होंने उत्सव में बदल दिया है। वे चाहते हैं कि विकासधारा में सब साथ हों, भले ही विचारधाराओं का अंतर क्यों न हो। यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि जब मप्र की विकास और गर्वनेंस की तरफ देश एक नई नजर से देख रहा है तो पूरे देश में भी तमाम राज्यों में विकासवादी नेतृत्व ही स्वीकारा जा रहा है। बड़बोलों और जबानी जमाखर्च से अपनी राजनीति को धार देने वाले नेता हाशिए लगाए जा रहे हैं। ऐसे में शिवराज सिंह का अपनी पहचान को निरंतर प्रखर बनाना साधारण नहीं है। मध्यप्रदेश की जंग लगी नौकरशाही और पस्त पड़े तंत्र को सक्रिय कर काम में लगाना भी साधारण नहीं है। जिस राज्य के 45.5 प्रतिशत लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, उस राज्य की चुनौतियां साधारण नहीं है, शुभ संकेत यह है कि ये सवाल राज्य के मुखिया के जेहन में भी हैं।