-संजय द्विवेदी
हिंदुस्तान के दो बड़े नोटों को बंद कर केंद्र
सरकार और उसके मुखिया ने यह तो साबित किया ही है कि ‘सरकार क्या कर सकती है।’ इस फैसले के लाभ या हानि का आकलन तो विद्वान
अर्थशास्त्री करेगें, किंतु नरेंद्र मोदी कड़े फैसले ले सकते हैं, यह छवि पुख्ता
ही हुयी है। एक स्मार्ट सरकार और स्मार्ट प्रधानमंत्री ही नोटबंदी की विफलता को
देखकर उसका रूख कैशलेस की ओर मोड़ सकता है और ताबड़तोड़ छापों से अपनी छवि की
रक्षा भी कर सकता है।
इस मामले में सरकार के
प्रबंधकों की तारीफ करनी पड़ेगी कि वे हार को भी जीत में बदलने की क्षमता रखते हैं
और विफलताओं का रूख मोड़कर तुरंत नया मुद्दा सामने ला सकते हैं। हमारा मीडिया तो
सरकार पर बलिहारी है ही। दूसरा तथ्य यह कि हमारी जनता और हम जैसे तमाम आम लोग
अर्थशास्त्री नहीं हैं। मीडिया और विज्ञापनों द्वारा लगातार हमें यह बताया जा रहा
है कि नोटबंदी से कालेधन और आतंकवाद से लड़ाई में जीत मिलेगी, तो हम सब यही मानने
के लिए विवश हैं। क्योंकि यह आकलन करने की क्षमता और अधिकार दोनों हमारे पास नहीं है
कि नोटबंदी का हासिल क्या है।
भूल जाएंगें मन का गणितः
जहां तक कैशलेस का प्रश्न है, वह नोटबंदी की
विफलता से उपजा एक शिगूफा है और कई मामलों में हम कैशलेस की ओर वैसे भी बढ़ ही रहे
थे। इसे गति देना, ध्यान भटकाने के सिवा कुछ नहीं है। सत्ता में बैठे लोग जो भी
फैसले लेते हैं, वह यह मानकर ही लेते हैं कि सबसे बुद्धिमान वही हैं और पांच साल
के लिए देश उन्हें ठेके पर दिया गया है। मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों में कपिल
सिब्बल और मनीष तिवारी जैसों की देहभाषा और भाषा का स्मरण कीजिए और भाजपा के
दिग्गज मंत्रियों की भाषा और देहभाषा का परीक्षण करें तो लगेगा कि सत्ता की भाषा
एक ही होती है।
नई राजनीति ने मान लिया है
कि सत्ता का विनीत होना जरूरी नहीं है। अहंकार उसका एक अनिवार्य गुण है। भारत की
प्रकृति और उसके परिवेश को समझे बिना लिए जा रहे फैसले इसकी बानगी देते हैं।
कैशलेस का हौवा ऐसा ही एक कदम है। यह हमारी परंपरा से बनी प्रकृति और अभ्यास को
नष्ट कर टेक्नालाजी के आगे आत्मसमर्पण कर देने वाली कार्रवाई है। इससे कुछ हो न हो
हम मन का गणित भूल जाएंगें। पहाड़े और वैदिक गणित के अभ्यास से उपजी कठिन गणनाएं
करने का अभ्यास हम वैसे ही खो चुके हैं। अब नई कार्ड व्यवस्था हमें कहीं का नहीं
छोड़ेगी। एक जागृत और जीवंत समाज बनने के बजाए हमें उपभोक्ता समाज बनने से अब कोई
रोक नहीं सकता।
सारे लोग नहीं है बेईमानः
इस फैसले की जो ध्वनि और
संदेश है वह खतरनाक है। यह फैसला ही इस बुनियाद पर लिया गया है कि औसत हिंदुस्तानी
चोर और बेईमान है। अपने देशवासियों विशेषकर व्यवसायियों और आम लोगों को बेईमान
समझने की हिकारत भरी नजर हमें अंग्रेजों के राज से मिली है। आजादी के बाद भी
अंग्रेजी मन के अफसर, राजनेता और पढ़े-लिखे लोग देश के मेहनतकश लोगों को बेईमान ही
मानते रहे। निकम्मा मानते रहे। गुलामी के दिनों में अंग्रेजों से मिले यह ‘मूल्य’ सत्ता
में आज भी एक विचार की तरह बने हुए हैं। अफसोस कि यह औपनिवेशिक मानसिकता आज भी
कायम है। जिसमें एक भारतीय को इन्हीं छवियों में देखा जाता है। इतिहास से सबक न
लेकर हमने फिर से देशवासियों को बेईमान की तरह देखना शुरू किया है और बलात् उन्हें
ईमानदारी सिखाने पर आमादा हैं। जबकि यह तय मानिए कि मनों को बदले बिना कोई भी
टेक्नालाजी, बेईमानी की प्रवृत्ति को खत्म नहीं कर सकती है।
सच तो यह है कि आपके तमाम
टैक्सों के जाल, इंस्पेक्टर राज, बेईमान और भ्रष्ट तंत्र की सेवा में लगे आम
भारतीय ईमानदारी से जीवन जी नहीं सकते, न व्यापार कर सकते हैं, न नौकरी। कैशलेस एक
बेहतर व्यवस्था हो सकती है, किंतु एक लोकतंत्र में रहते हुए यह हमारा चयन है कि हम
कैशलेस को स्वीकारें या नकद में व्यवहार करें। कोई सरकार इसके लिए हमें बाध्य नहीं
कर सकती है। यह भी मानना अधूरा सच है कि कैशलेस व्यवहार करके ईमानदारी लाई जा सकती
है। ईमानदारी की तरह बेईमानी भी एक स्वभाव है। आप बलात् न तो किसी को ईमानदार बना
सकते हैं, न ही लोग शौक के लिए बेईमान बनते हैं। सच तो यह है कि मनुष्य के बीच
ईमानदारी एक मूल्य की तरह स्थापित होगी, उसके मन में भीतरी परिवर्तन होगें, वह
आत्मप्रेरित होगा, तभी समाज में शुचिता स्थापित होगी। भारतीय संस्कृति तो देवत्व
के साथ जुड़ती है। जिसमें जो देता है, वही देवता होता है। इसलिए लोगों की आंतरिक
शक्ति और आत्मशक्ति को जगाने की जरूरत है। किंतु जिस तंत्र के भरोसे यह परिर्वतन
लाने की तैयारी हमारी सरकार ने की है, वह तंत्र स्वयं कितना भ्रष्ट है, कहने की
आवश्यकता नहीं है। इसकी नजीर हमारे बैंक तंत्र ने इसी नोटबंदी अभियान में पेश कर
दी है। प्रशासनिक तंत्र, राजनीतिक तंत्र और न्यायिक तंत्र के तो तमाम किस्से
लोकविमर्श में हैं।
आम हिंदुस्तानी पर कीजिए भरोसाः
हमारी सरकार को अपने लोगों
पर भरोसा करना होगा। इंस्पेक्टर राज और राजनीतिक वसूली का तंत्र खत्म करना होगा।
हमें बेईमान मानकर आप इस देश में ईमानदारी को स्थापित नहीं कर सकते। भीतर से मजबूत
हिंदुस्तानी ही एक अच्छा देश बनाएंगें। नहीं तो आप हजारों चेक लगा लें, इंस्पेक्टर
छोड़ दें, बेईमानी जारी रहेगी। आप लोगों को शिक्षित करने के बजाए, उन्हें पकड़ने,
लांछित करने और बेईमान साबित की कोशिशों से खुश हैं तो खुश रहिए। आपको हमारे खाने
पीने की चीजों से लेकर डायपर से लेकर च्ववनप्राश खरीदने की आदतों का, हमारे
व्यक्तिगत विवरणों का विवरण कैशलेस के माध्यम से चाहिए तो बटोरिए और प्रसन्न रहिए।
भारतीय संस्कृति के प्रखर प्रवक्ताओं को यह
जानना चाहिए कि हमारी संस्कृति में व्यक्ति की स्वायत्तता ही प्रधान है। शरीर झुकाए
और टूटी रीढ़ वाले हिंदुस्तानी हमारी पहचान नहीं हैं। ऐसे में राजपुरूषों को चाहिए
कि वे लोगों को ईमानदार बनाएं, लेकिन बलात् नहीं। जबरिया परिर्वतन की प्रक्रिया अंततः
विफल ही होती है, यह भी होगी। व्यक्ति को मशीनें बदल नहीं सकतीं, न बदल पाएंगी।
व्यक्ति तो तभी बदलेगा जब उसका मन बदलेगा, उसका जीवन बदलेगा। वरन् एकात्म
मानवदर्शन की जरूरत क्या है? उसकी प्रासंगिकता
क्या है? शायद इसीलिए,
क्योंकि व्यक्ति सिर्फ पुरजा नहीं है, वह मन भी है। आप तय मानते हैं कि यह सफल
होगी पर ज्यादातर लोग मानते हैं आपकी यह कोशिश विफल होगी, क्योंकि इसमें व्यक्ति
के बजाए कानून और टेक्नालाजी पर भरोसा है। मन के बजाए इंस्पेक्टर राज पर जोर है। आधार
कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी आपका इतना आग्रह क्यों है? क्या यह सिर्फ सुरक्षा कारणों से है या बाजार
इसके पीछे है? आप क्यों
चाहते हैं कि सबका लेन-देन,खान पान, व्यवहार और लोकाचार रिकार्डेड हो? आपका अपने
देशवासियों पर नहीं, तंत्र पर इतना भरोसा है तो कम्युनिस्टों में बुराई क्या थी?
क्षमा करें आप चाहते नहीं थे, किंतु अब चाहने लगे हैं कि व्यक्ति नहीं, तंत्र
मुख्य हो। तंत्र का सब पर कब्जा हो। इन्हीं हरकतों की अति से रूस का क्या हुआ आपके
सामने है। इसलिए कृपया ईमानदारी के इस अभियान को व्यक्तिगत स्वतंत्रता को क्षति
पहुंचाने के लिए इस्तेमाल न करें।
यह तंत्रवादी मार्ग है, राष्ट्रवादी नहीः
आप जिस तरफ जा रहे हैं, वह
भारत का रास्ता नहीं है। वह राष्ट्रवादी नहीं, तंत्रवादी मार्ग है। आप एकात्म
मानवदर्शन के नारे लगाते हुए, कम्युनिस्टों सरीखा आचरण नहीं कर सकते। हमारे पांच
हजार साल के बाजार में जो मूल्य चले और विकसित हुए उन्हें अचानक शीर्षासन नहीं
कराया जा सकता है। वस्तु विनिमय से लेकर दान पूजन में दक्षिणा के संस्कार तक भारत
का मन मशीनों के सहारे नहीं बना है। इसलिए पश्चिमी स्वभाव को भारत पर आरोपित मत
कीजिए। वे मशीनों पर इसलिए गए कि उनके पास लोग नहीं थे। इतना बड़ा देश अगर मशीनों
और तंत्र पर चला गया तो हम उन करोड़ों हाथों का क्या करेगें जो किसी रोजगार की
प्रतीक्षा में आज भी खड़े हैं। कार्ड को स्वाइप करने वाली मशीनों का निर्माण करने
के बजाए लोगों के लिए रोजगार उत्पादन करने की सोचिए। तंत्र के बजाए बुद्धि को
विकसित करने के जतन कीजिए। कैशलेस की नारेबाजी इस देश की प्रकृति व उसके स्वभाव के
विरूद्ध है, इसे तुरंत बंद कीजिए। दुनिया के देशों की नकल करने के बजाए एक बार महात्मा गांधी की बहुत छोटी कृति ‘हिंद स्वराज’ को फिर
से पढ़िए। ‘हिंद स्वराज’ का एक ‘सावधान पाठ’ आपको
बहुत से सवालों के जवाब देगा। सही रास्ता मिलेगा, भरोसा कीजिए।
abhi vishleshan karna jaldbaji hoga, thoda dhairya rakhen
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