सोमवार, 18 जनवरी 2016

सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है?

        क्योंकि उनके पास तिरंगे से ज्यादा बड़े और ज्यादा गहरे रंगों वाले झंडे हैं
-संजय द्विवेदी


     देश भर के तमाम हिस्सों से सांप्रदायिक उफान, गुस्सा और हिंसक घटनाएं सुनने में आ रही हैं। वह भी उस समय जब हम अपनी सुरक्षा चुनौतियों से गंभीर रूप से जूझ रहे हैं। एक ओर पठानकोट के एयरबेस पर हुए हमले के चलते अभी देश विश्वमंच पर पाकिस्तान को घेरने की कोशिशों में हैं, और उसे अवसर देने की रणनीति पर काम कर रहा है। दूसरी ओर आईएस की वैश्विक चुनौती और उसकी इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न देशों की युवा शक्ति को फांसने और अपने साथ लेने की कवायद,  जिसकी चिंता हमें भी है। मालदा से लेकर पूर्णिया तक यह गुस्सा दिखता है, और चिंता में डालता है। पश्चिम बंगाल और असम के चुनावों के चलते इस गुस्से के गहराने की उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं।
कौन किसे दे रहा है ताकतः 
हम देखें तो सांप्रदायिकता और राजनीति के रिश्ते आपस में इस तरह जुड़े हैं, जिसमें यह कहना कठिन है कि कौन किससे ताकत पा रहा है? मालदा की घटना में तस्कर हों या नकली नोटों के माफिया। सच तो यह है कि राजनीति उन्हें इस्तेमाल करने के कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती। सवाल सिर्फ हिंदू-मुसलमान का है या राजनीति का भी है। दंगे जब होते हैं या कराए जाते हैं तब इसका भी विश्लेषण होना चाहिए कि इसके पीछे कारण क्या हैं। पता चलेगा कि पंथ के बजाए कोई और मामला है, तथा हिंदू-मुसलमान का इस्तेमाल कर लिया जाता है। यह मानना बहुत कठिन है कि कोई भी समाज, जाति, परिवार या वर्ग अपने परिवार के साथ सुख-शांति से नहीं रहना चाहता। हिंसा किसे प्यारी है? आतंकवाद को कौन पालना चाहता है? लेकिन हिंसा होती है, और आतंकवाद बढ़ता है। यानि यह सामान्य मनुष्यों का काम नहीं है। कोई भी स्वस्थ मनुष्य न तो हिंसा करेगा, न ही वह किसी आतंकी कार्रवाई का समर्थन करेगा। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं। वे दिमागी तौर पर अस्वस्थ, मनोविकारी, कुंठित और अपराधी मानसिकता के लोग हैं । लेकिन आश्चर्य यह कि शेष समाज का समर्थन पाने में वे सफल हो जाते हैं। कोई समय से, कोई पैसे से, कोई हथियारों से उन्हें समर्थन देता है। आखिर ये समर्थन देने वाले लोग कौन हैं? आप वैश्विक स्तर से स्थानीय हिंसक समूहों को देखें तो उन्हें मदद करने वाले हाथ साधारण नहीं है। आईएस के मनुष्यता-विरोधी अभियान को तमाम देशों से मदद के प्रमाण हैं। भारत में माओवादी आतंक को भी तमाम ताकतों का समर्थन मिलता है। इसी तरह सांप्रदायिकता के विषधरों को भी समाज के तमाम तबकों से अलग-अलग रूपों में समर्थन मिलता है।
देश के कानून पर कीजिए भरोसाः
 क्या कारण है हिंसक घटनाओं के पीछे हमारी राजनीतिक पार्टियों के तार जुड़े नजर आते हैं? मालदा की घटना की जैसी व्याख्या मीडिया में हो रही है, उसे समझने की जरूरत है। क्या पंथ पर हमला ही उन्हें उत्तेजित कर सका या उसके पीछे कहानी कुछ और थी। यह भी गजब है कि जिस मुस्लिम के नेता अपने समाज की गरीबी, अशिक्षा, बदहाली और पिछड़ेपन पर खामोश रहते हैं वे एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सड़क पर एक माह बाद उतरते हैं, जब उसे जेल में डालकर उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की जा चुकी है। यह बात बताती है कि हम इस देश के कानून पर भी भरोसा करने को तैयार नहीं है। भारत के लोकतांत्रिक- जनतांत्रिक चरित्र पर विश्वास को तैयार नहीं।  किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई इस देश के कानून के हिसाब से होगी। फांसी मांगने से फांसी नहीं मिल सकती। यह भी गजब है कि आतंकवादियों को फांसी देने का विरोध करने वाली शक्तियां, किसी को एक बयान के आधार पर फांसी पर लटकाने की मांग करती हैं।
वोट बैंक की राजनीति से समस्याः
     भारत का संविधान और कानून सबके लिए बराबर है। संविधान के दायरे में आकर अपने अधिकारों की मांग करना तो ठीक है। किंतु थाना जलाना, गोलियां चलाना और दहशत पैदा करना कहां का तरीका है। समूची दुनिया में मुस्लिम समाज के सामने ये सवाल खड़े हैं। अपनी प्रतिक्रिया में संयम न रखना आज मुस्लिम समाज के समाज के सामने एक चुनौती है। अपने पंथ की ऐसी आक्रामक छवि बनता देखकर भी उसके नेताओं में चिंता नहीं दिखती। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए उनका इस्तेमाल करते आए हैं करते रहेंगें। किंतु यह भी सोचना होगा कि आप कब तक इस्तेमाल होते रहेंगे। नकली नोटों के कारोबारी, हथियारों के सप्लायर, अवैध कारोबारों में लिप्त लोग अगर समाज का इस्तेमाल कर अपनी ताकत को बचाना चाहते हैं तो समाज को भी होशियार होना चाहिए। राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों, समाज के अगुआ लोगों को इस तरह की प्रवृत्ति के खिलाफ समाज को जागृत करना होगा। लोगों की भावनाओं से खेलने का काम बहुत हो चुका। अब लोगों में वैज्ञानिक सोच जगाने और मानवता को सबसे बड़ा दर्जा देने का विचार आगे बढ़ाना होगा। गलत करने वाले को सजा देने वाले हम कौन हैं? कानून को हाथ में लेकर, तोड़फोड़ और आगजनी कर क्या हम अपने पंथ, उसकी पवित्र शिक्षाओं का आदर कर रहे हैं?
युवाओं को बचाइएः
     हमारे युवा गुमराह होकर आतंकवाद की राह पकड़कर युवा अवस्था में ही मौत की भेंट चढ़ रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि हमारे समाज के अगुआ, धर्मगुरू, शिक्षक, बुद्धिजीवी सब हार रहे हैं। भारत हार रहा है। एक लोकतंत्र में होते हुए भी अगर हमारी सांसें घुट रही हैं, हम विचारों को व्यक्त करने के बजाए दहशत पैदा कर, थाने जलाकर, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाकर अपनी कुठाएं निकाल रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमने कैसा भारत बनाया है। भारत जैसे देश में जहां सब पंथों, समाजों और वर्गों को सम्मान और आदर के साथ रहने के समान अवसर हैं, वहां हिंसा की राह पकड़ रहा कोई भी समूह भारत-प्रेमी नहीं कहा जा सकता। अपने रोष और गुस्से को निकालने के लिए तमाम संवैधानिक और सत्याग्रही तरीके हमारी परंपरा में हैं, हम उनका अनुसरण करें और न्याय प्राप्त करें। एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए जनता का जाग्रत होना भी जरूरी है।

    समाज को बांटकर शक्ति नहीं पायी जा सकती। सब साथ मिलकर विकास करें। सपनों में रंग भरें तभी भारत बचेगा और तभी हमारी शान दुनिया में बनेगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि राजनीति में अगर पंथिक राजनीति हस्तक्षेप करेगी, सांप्रदायिक भावनाएं वोट-बैंक के निर्माण में मददगार होंगी। हिंसा और आतंकवाद के खिलाफ हमारा दृष्टिकोण चयनित होगा, एक हिंसा पर खामोशी, दूसरी हिंसा पर बवेला होगा, तब सांप्रदायिकता से कैसे लड़ेगें। यह सवाल आज हम सबके सामने है, उनके सामने भी- जो दादरी पर चीखते हैं, पर मालदा पर खामोश हैं। उनके सामने भी जो प्रवीण तोगड़िया से दुखी हैं पर आजम खान से उन्हें परहेज नहीं है। काश राजनीति वाणी संयम और भारत-प्रेम की भावनाओं से लबरेज होती तो हम ऐसे सामाजिक संकटों का आसानी से मुकाबला कर पाते। लेकिन अफसोस राजनीतिक दलों के पास तिरंगे से ज्यादा बड़े और ज्यादा गहरे रंगों वाले झंडे हैं।

शनिवार, 9 जनवरी 2016

सामना, शहादत और मातम!

सामना, शहादत और मातम!
जग नहीं सुनता कभी दुर्बल जनों का शांति प्रवचन
-संजय द्विवेदी

      पाकिस्तान के जन्म की कथा, उसकी राजनीति की व्यथा और वहां की सेना की मनोदशा को जानकर भी जो लोग उसके साथ अच्छे रिश्तों की प्रतीक्षा में हैं, उन्हें दुआ कि उनके स्वप्न पूरे हों। हमें पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाते समय सिर्फ इस्लामी आतंकवाद की वैश्विक धारा का ही विचार नहीं करना चाहिए बल्कि यह भी सोचना चाहिए कि आखिर यह देश किस अवधारणा पर बना और अब तक कायम है? पाकिस्तान सेना का कलेजा अपने मासूम बच्चों के जनाजों को कंधा देते हुए नहीं कांपा (पेशावर काण्ड) तो पड़ोसी मुल्क के नागरिकों और सैनिकों की मौत उनके लिए क्या मायने रखती है।
    द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा की मोटी समझ रखने वालों को यह पता है कि पाकिस्तान की एकता आज सिर्फ भारत घृणा पर ही टिकी हुयी है। भारत विरोध वहां की राजनीति का एक एजेंडा और कश्मीर उसका लक्ष्य है। शायद पाकिस्तान के बगल में भारत न होता तो पाकिस्तान कबके कई टुकड़ों में विभक्त हो गया होता। दो टुकड़े तो उसके काफी पहले हो चुके हैं। वह अपनी ही प्रेतछाया से लड़ता हुआ देश है। इस जमीन पर शायद इकलौता देश जो अपने पुराने देश से लड़ रहा है, जिससे वह जिद करके अलग हुआ था।
निरंतर है प्राक्सी वारः सीधे युद्ध में तीन बार मात खाकर पाकिस्तान ने यह समझ विकसित की अब प्राक्सी वार ही भारत को सताए-पकाए और छकाए रखने का तरीका है। 1947 में देश के बंटवारे के पीछे मंशा तो यही थी कि अब सबको जमीन मिल गयी है, घर के बंटवारे के बाद हम शांति से जी सकेंगे। पर ऐसा कहां हुआ। देश को नरेन्द्र मोदी के रूप में पहली बार एक सशक्त नेतृत्व मिला है, यह कहना और मानना ऐतिहासिक रूप से गलत है।
     श्री लालबहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब हमारा नेतृत्व देता रहा है। किंतु क्या पाकिस्तान इन पराजयों से रत्ती भर सीख सका? आज की तारीख में हमें पाकिस्तान को आइसोलेट करना पड़ेगा। पाकिस्तान से निरंतर संवाद की जिदें भी उसे शक्ति देती हैं, और वह एक नए हमले की तैयारी कर लेता है। ऐसे खतरनाक और आतंकवादियों के पनाहगाह देश को अलग-थलग करके ही हम सुख- चैन से रह सकते हैं। अमन की आशा एक सपना है जो पाकिस्तान जैसे कुंठित राष्ट्र के साथ संभव नहीं है। आप देखें तो संवाद की ये कोशिशें नई नहीं है। शायद हमारे हर प्रधानमंत्री ने ऐसी कोशिशें की हैं, लेकिन सफलता उन्हें नहीं मिली।
बंद कीजिए ड्रामाः   बाघा सीमा पर हम कितने सालों से मोमबत्तियां जलाने से लेकर मिठाईयों का आदान-प्रदान और पैर पटकने की कवायद कर रहे हैं। यह सब देखने-सुनने और एक इवेंट के लिहाज से बहुत अच्छा है किंतु इससे हमें हासिल क्या हुआ? इस्लामिक देशों का एक पूरा संगठन बना हुआ है, जिसमें मिडिल ईस्ट के देशों के साथ मिलकर पाकिस्तान भारत के हितों को नुकसान पहुंचाता है। हिंदुस्तान के कुछ लीडरों ने हालात ऐसे कर दिए हैं कि आप बहस भी नहीं कर सकते।जो देश अपने सुरक्षा सवालों पर भी संवाद से डरता हो कि मुसलमान नाराज हो जाएंगे, उसे कोई नहीं बचा सकता। आखिर हिंदुस्तान का मुसलमान पहले हिंदुस्तानी है या मुसलमान? अगर हमें सुरक्षित रहना है, एक रहना है तो हम सबको मानना होगा कि हम पहले हिंदुस्तानी हैं, बाद में कुछ और। कोई भी पंथ अगर राष्ट्र से बड़ा होगा तो राष्ट्र एक नहीं रह सकता। इतने हमलों और इतना खून बहाने के बाद भी यह एक वाक्य का सबक हम नहीं सीख पा रहे हैं। जिस तरह की घुसपैठ व घटनाएं हो रही हैं, वे बताती हैं कि हम एक लापरवाह देश हैं। पाकिस्तानी रेंजर्स और पाक सेना तो घुसपैठियों के पीछे हैं हीं, हमारे अपने देश में भी सीमा सुरक्षा के काम में लगे लोग और देश के भीतर पाकिस्तानी इरादों के मददगार भी इसमें एक बड़ा कारण है। एक बिकाऊ हिंदुस्तानी कैसे अपनी मातृभूमि की रक्षा कर सकता है?
कितने धोखों के बादः  आज ईरान ने सऊदी अरब से राजनायिक संबंध तोड़ लिए। हमारी ऐसी क्या मजबूरी है कि हम पाकिस्तान को चिपकाए पड़े हैं। हमलों के बाद पाकिस्तान से जैसी प्रतिक्रियाएं आती हैं, वह कोई तारीफ के काबिल नहीं हैं। हम धोखे खाने के लिए उन्हें अवसर देते हैं। इंटलीजेंस इनपुट के बाद भी हमारे देश में घुसकर वे हमारी जमीन पर अपने नापाक इरादों को अंजाम दे जाते हैं, और हम अपने वसुधैव- कुटुम्बकम् के अंदाज पर मुग्ध हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों के नकलीपन और दोहरेपन पर तो मत जाईए। वे हमें पाकिस्तान से संवाद बनाए रखने की सलाहें देते हैं किंतु पठानकोट हमला उनकी जमीन पर हुआ होता तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती? 6 फरवरी,1913 को हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने एक विपक्षी दल के नेता के नाते कहा था पाकिस्तान को लव लेटर लिखना बंद कीजिए। आज वे रायसीना हिल्स में बैठकर अगर नोबेल पुरस्कार लेने के सपने देख रहे हैं, तो उन्हें अग्रिम बधाई। एक के बदले 10 सिर लेने की बात करने वाली शक्तियां आज सत्ता में हैं, पर क्या देश सुरक्षित है? नवाज शरीफ की पोती को आशीष दीजिए, पर सैनिकों की बेवाएं भी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। इतना तो तय कीजिए की युद्ध के लिए सिर्फ हमारी ही जमीन का इस्तेमाल न हो। हम युद्धकामी लोग नहीं हैं, बिल्कुल युद्ध नहीं चाहते। भारत का मन बड़ा है और शांति का पक्षधर है। किंतु छद्म युद्ध भी हमारी जमीन पर ही क्यों लड़े जाएं। प्राक्सीवार के लिए पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर की जमीनों का इस्तेमाल क्यों नहीं होता? हमारे पास हजारों विकल्प हैं, पर हम धोखा खाने को अपनी शान समझ बैठे हैं। जिन देशों ने अपने एक नागरिक की मौत पर शहर के शहर खत्म कर दिए हम उनकी नजरों में अच्छा बनना चाहते हैं। हमारे देश के सबसे बड़े और सुरक्षित एयरफोर्स बेस पर हमला साधारण बात नहीं हैं, किंतु हमारी हरकतों ने इसे साधारण बना दिया है। सुरक्षा क्यों फेल हुयी, आगे हमले न होगें इसकी गारंटी क्या है? सुरक्षा समस्याओं पर हम संभलकर बात क्यों कर रहे हैं? एक जमाने में पाकिस्तान के प्रमुख जनरल जिया उल हक कहा करते थे भारत  को एक हजार जगह घाव दो। ये संख्या भी गिनें तो पूरी हो चुकी है। हमारी सरकार को और कितने घावों का इंतजार है? फिलहाल तो हमारे सैनिकों के सामने तीन ही विकल्प हैं- सामना, शहादत और मातम। इसी मंजर पर एक कवि की वाणी भी सुनिए-

हम चले थे विश्व भर को शांति का सन्देश देने,
किन्तु जिसको बंधु समझा, आ गया वह प्राण लेने
शक्ति की हमने उपेक्षा की, उसी का दंड पाया,
यह प्रकृति का ही नियम है, अब हमें यह जानना है।
जग नहीं सुनता कभी, दुर्बल जनों का शांति प्रवचन,
सर झुकाता है उसे, जो कर सके रिपु मान मर्दन।

सोमवार, 4 जनवरी 2016

आतंकवाद से कैसे लड़ें



-संजय द्विवेदी
     आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई कड़े संकल्पों के कारण धीमी पड़ रही है। पंजाब के हाल के वाकये बता रहे हैं कि हम कितनी गफलत में जी रहे हैं। राजनीतिक संकल्पों और मैदानी लड़ाई में बहुत अंतर है, यह साफ दिख भी रहा है। पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों के रहते हम वैसे भी शांति की उम्मीदें नहीं पाल सकते किंतु जब हमारे अपने ही संकल्प ढीले हों तो खतरा और बढ़ जाता है। आतंकवाद के खिलाफ लंबी यातना भोगने के बाद भी हमने सीखा बहुत कम है। किसी आतंकी को फांसी देते वक्त भी हमारे देश में उसे फांसी देने और न देने पर जैसा विमर्श चलता है उसकी मिसाल खोजने पर भी नहीं मिलेगी। आखिर हम आतंकवाद के खिलाफ जीरो टालरेंस का रवैया अपनाए बिना कैसे सुरक्षित रह सकते हैं।
    भारतीय राजनीति में किसी का सीना कितने भी इंच का हो फर्क नहीं पड़ता क्योंकि लोकतंत्र में लोगों की लाशें बिछ रही हैं और हम राज्य की हिंसा पर विमर्श में व्यस्त हैं। एक मोमबत्ती गिरोह भी है जो हर आतंकी के लिए टेसुए बहाता है किंतु बहादुर सैनिकों की मौत उनके लिए सिर्फ एक कर्तव्य है। आतंकवाद के खिलाफ हमें निर्णायक लड़ाई लड़ने का संकल्प लेना होगा वरना सीमा से लेकर नक्सल इलाकों में खून बहता रहेगा और देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगें। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री जो कि भारत के सर्वप्रमुख नेता हैं वे भारत के मूल स्वभाव जैसा ही व्यवहार कर पाएंगें। भारत का मूल मंत्र है- वसुधैव कुटुम्बकम्। पड़ोसियों के साथ बेहतर रिश्ते हमारी जरूरत है और आकांक्षा भी। लेकिन इस स्वभाव के बाद भी हमें मिल क्या रहा है, क्या पड़ोसियों की सदाशयता पाने में हम सफल हैं। हमारा कौन सा पड़ोसी देश है जो हमें सम्मान से देखता है। अब तो नेपाल भी आंखें दिखा रहा है और चीन से बेहतर रिश्ते बनाने में लगा है। बाकी देशों के बारे में हम बेहतर जानते हैं। इसके मायने यह हैं कि हमारी जो आपसी लड़ाईयां हैं, इनके चलते आकार में बड़े होने के बाद भी हम एक कमजोर देश हैं। हमारी ये कमजोरियों देश के अंदर बैठे आतंकी भी समझते हैं और देश के बाहर बैठे लोग तो चतुर सुजान हैं ही।

एक मजबूत भारत किसके लिए चुनौतीः

 खतरा हमें हर उस ताकत से है जिसकी आंखों में एक मजबूत भारत चुभता है। एक मजबूत भारत उन्हें नहीं चाहिए। वे इसे रोक नहीं सकते पर इस प्रक्रिया में व्यवधान डाल सकते हैं। भारत की समस्या मुख्यतः पाकिस्तान और चीन केंद्रित है। इन दो पड़ोसियों ने जेहादी आतंक और माओवादी आतंक के बीज को हमारे देश में पोषित किया है और राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर चुनौती दी है। एक समय में पंजाब में फैले आतंकवाद से हमने निजात पाई तो पाक ने कश्मीर को अपना केंद्र बनाकर एक नई चुनौती पेश कर दी। यह हालात आज भी संभले नहीं हैं। जेहाद का सपना लिए नौजवान आज भी गुमराह किए जा रहे हैं, तो खालिस्तान की आग भी धधकाने की कोशिशें होती हैं। भारत की राष्ट्रीय चेतना को कुंठित करना, भारतीय समाज में भेदभाव भर कर देशतोड़क गतिविधियों में, समाज का इस्तेमाल करना हमारे विरोधियों की शक्ति रही है। इसके चलते देश में तमाम देशतोड़क अभियान गति पा रहे हैं। अलग-अलग नामों से चल रहे इन हिंसक आंदोलनों की एक ही नीयत है भारत को कमजोर करना। वनांचलों से लेकर कश्मीर, पंजाब और पूर्वांचल के राज्यों में हिंसक गतिविधियों का ठीक से अध्ययन किया जाए तो यह सच सामने आएगा। भारत की एकता और उसकी अखंडता को चुनौती देती ये शक्तियां किस तरह देश के समाज को तोड़ना चाहती हैं यह सच भी सामने आएगा।
इजराइल सा माद्दा और पुतिन सा नेतृत्व जरूरीः

हमारे देश को अगर आतंकवाद की गहरी आग में नहीं जलना है तो नागरिकों में राष्ट्रभाव प्रबल करना होगा। इजराइल छोटा देश है किंतु हमारे लिए एक आदर्श बन सकता है। आतंकवाद के खिलाफ उसकी जंग हमें सिखाती है कि किस तरह अपनी अस्मिता के लिए पूरा देश एक होकर खड़ा होता है। रूस के कमजोर होते और बिखरे स्वरूप के बाद भी पुतिन जैसे नायक हमारे सामने उम्मीद की तरह हैं। हमारे अपने लोगों का खून बहता रहे और हम देखते रहें तो इसके मायने क्या हैं। यह सही बात है कि आतंक कहीं भी फैलाया जा सकता है। आतंकवादियों से जूझना साधारण बात नहीं है। किंतु क्या हमारा समाज और हमारी सरकारें इसके लिए तैयार हैं। सीमा सुरक्षा बल की चौकसी के बाद भी बस्तर के जंगलों तक विदेशी हथियार पहुंच रहे हैं, तो क्या हमारे अपने लोगों की मदद के बिना ऐसा हो रहा है। आजादी के इन सात दशकों में जैसा भारत हमने बनाया है वहां लोगों का थोड़ी लालच में बिक जाना बहुत आसान है। विदेशी ताकतें इतनी सशक्त और चाक चौबंद हैं कि उनके तंत्र को हमारी हर गतिविधि का पता है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में अजीत ढोभाल जैसे योग्य अधिकारी की उपस्थिति के बाद भी हालात संभलने को कहां हैं। भारत- पाक के रिश्तों को बनाने के सचेतन प्रयासों के बीच आतंकी ताकतों की कोशिश रिश्तों पर पानी फेरने की है। भारत की नागरिक चेतना को जागृत किए बिना इस दानवी आतंकवाद के तमाम सिरों से निपट पाना संभव नहीं दिखता।


निर्णायक संघर्ष की जरूरतः

 भारतीय समाज और उसके नायकों के लिए जरूरी है कि वे एक निर्णायक संकल्प की ओर बढ़ें। आतंकवाद के सभी रूपों के खिलाफ एक लड़ाई छेड़ी जाए चाहे वह जेहादी आतंक हो या माओवादी आंतक। भारतीय नागरिकों, मीडिया, सामाजिक रूप से प्रभावी वर्गों को यह चेतना नागरिकों के भीतर भरनी होगी कि अपने लोगों का खून बहाकर हम वसुधैव कुटुम्बकम् का मंत्रजाप नहीं कर सकते। दुनिया के हर ताकतवर देश ने जिस तरह आतंकवाद का सामना किया है, वही रास्ता हमारे लिए भी है। अमरिका अपने नागरिकों के रक्षा के लिए अलग तरीके से पेश आता है और ब्रिटेन अपने नागरिकों की रक्षा के लिए अलग तरीके से पेश आ रहा है तो भारत के लोगों की जान-माल क्या इतनी सस्ती है कि उन्हें अकारण नरभक्षियों के सामने निहत्था छोड़ दिया जाए? भारत का सरकार सहित राज्यों की सरकारों को यह विचार किए बिना कि इसके क्या परिणाम होंगें, राजनीतिक रूप से इसके क्या गणित बनेंगें, एक दृढ़ संकल्प के साथ आगे आना होगा। भारत की शक्ति और उसकी गरिमा को स्थापित करना होगा। एक साफ्ट स्टेट का लांछन लेकर हम कितना खून धरती पर बहने देंगें। अपने नागरिकों में राष्ट्रीय भावना भरना और देशद्रोही ताकतों के खिलाफ शत्रुओं सा व्यवहार ही हमें इस संकट से मुक्ति दिलाएगा। अपनी खुफिया सेवाओं को चुस्त-दुरूस्त बनाते हुए, सेना और अन्य सुरक्षा बलों का मनोबल बनाए रखते हुए हमे आगे बढ़ना होगा। सत्ता और व्यवस्था में नागरिकों के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता भरनी होगी। क्योंकि लोकतंत्र की विफलता  भी कहीं न कहीं असंतोष का कारण बनती है। सामान्य जनों में रोष और विद्रोह की भावना पैदा करती है। इससे पहले हिंसा और बाद में आतंकवाद की समस्या पैदा होती है। एक आगे बढते देश के सामने बहुत से संकट हैं, उनमें आतंकवाद सबसे बड़ा है क्योंकि लोगों के जानमाल की रक्षा किसी भी सरकार की पहली जिम्मेदारी है। हमारी सरकार की पहली और अंतिम प्रतिबद्धता लोगों की सुरक्षा है, पर क्या हम इस जिम्मेदारी पर खरे उतर रहे हैं  ?

शनिवार, 2 जनवरी 2016

कौन चाहता है बन जाए राममंदिर?

-संजय द्विवेदी

  राममंदिर के लिए फिर से अयोध्या में पत्थरों की ढलाई का काम शुरू हो गया है। नेताओं की बयानबाजियां शुरू हो गयी हैं। उप्र पुलिस भी अर्लट हो गयी है। कहा जा रहा है कि पत्थरों की यह ढलाई राममंदिर की दूसरी मंजिल के लिए हो रही है।
   राममंदिर के लिए चले लंबे संघर्ष की कथाएं आज भी आखों के सामने तैर जाती हैं। खासकर नवें दशक में एक प्रखर आंदोलन खड़ा करने वाले राममंदिर आंदोलन की त्रिमूर्ति रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ और अशोक सिंहल तीनों इस दुनिया से विदा हो चुके हैं। ऐतिहासिक अयोध्या आंदोलन के तमाम नायकों ने समय से समझौता कर अपनी-अपनी राह पकड़ ली है। तब के बजरंगी विनय कटियार वाया भाजपा कई चुनाव हारकर अब राज्यसभा में हैं, तो उमाश्री भारती अपने पड़ोसी राज्य उप्र से दो चुनाव जीतकर (एक विधानसभा एक लोकसभा) अब केंद्र में मंत्री हैं। साध्वी ऋतंभरा ने वात्सल्य आश्रम के माध्यम से सेवा की नई राह चुन ली है। इसके अलावा राजनीति में इस आंदोलन के शिखर पुरूष रहे श्री लालकृष्ण आडवानी भी अब राजनीतिक बियाबान में ही हैं। कुल मिलाकर मंदिर आंदोलन के सारे योद्धा या निस्तेज हो गए हैं तो कई दुनिया छोड़ गए हैं। राममंदिर आंदोलन ने जिस तरह का जनज्वार खड़ा किया था उससे अशोक सिंहल, विनय कटियार, श्रीषचंद्र दीक्षित, दाउदयाल खन्ना, जयभान सिंह पवैया जैसे तमाम चेहरे अचानक खास बन गए थे। लगता था कि सारा जमाना उनके पीछे चल रहा है। अपने अनोखे प्रयोगों जैसे रामशिला पूजन, रामज्योति आदि से यह आंदोलन लोगों तक ही नहीं उत्तर भारत के गांव-गांव तक फैला। यह साधारण नहीं है, अयोध्या में गोली से मरे दो भाई कोठारी बंधु भी पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे।
    आंदोलन को खड़ा करने की सांगठनिक शक्ति से वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके संगठनों का कोई मुकाबला नहीं है। हिंदी पट्टी में जहां जाति ही सबसे बड़ी विचारधारा और संगठन है वहां हिंदू शक्ति को एकजुट कर खड़ा करना कठिन था, किंतु एक संगठन ने इसे कर दिखाया। इस समय ने अपने नायक चुने और समूचा हिंदू समाज राममंदिर के निर्माण की भावना के साथ खड़ा दिखाई दिया। इस आंदोलन से शक्ति लेकर ही भाजपा एक बड़ी पार्टी बनी और उसका भौगोलिक और सामाजिक विस्तार हुआ। अनेक जातियों में उसके नेता खड़े हुए। यह साधारण नहीं था कि राममंदिर आंदोलन के तमाम पोस्टर ब्वाय पिछड़े वर्ग से आते थे। जिसमें कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार सबसे बड़े चेहरे थे। राजनीति की पाठशाला में तमाम नए नवेले चेहरे आए और राममंदिर आंदोलन के नाते बड़े नेता बन गए। उप्र में भाजपा को ऐतिहासिक विजय मिली, उसने अपने दम पर पहली बार पूर्ण बहुमत पाकर सरकार बनायी। यह घटना दिल्ली में भी दोहराई गयी और केंद्र में भी सरकार बनी। किंतु राममंदिर का क्या हुआ? तीन बार अटलजी की गठबंधन सरकार और एक बार नरेंद्र मोदी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार भी भाजपा बना चुकी है, लेकिन सरकार और संगठन का दृष्टिकोण हमेशा अलग-अलग रहा है। सत्ता में जाते ही नेताओं की जुबान बदल जाती है। वे सरकारी बोलने के अभ्यस्त हो जाते हैं। जबकि मंदिर विवाद अदालती से ज्यादा राजनीतिक समस्या है। किंतु यह अफसोसजनक है कि चंद्रशेखर के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री ने इस विवाद को संवाद से हल कराने की गंभीर कोशिश नहीं की। चंद्रशेखर जी सिर्फ बहुत कम समय सत्ता में रहे, इसलिए विवाद के हल होने की संभावना भी खत्म हो गयी। आज भी सत्ता के शिखरों पर बैठे लोग इस मंदिर आंदोलन से शक्ति पाकर ही आगे बढ़े हैं किंतु समस्या के समाधान के लिए उनकी कोशिशें नहीं दिखतीं।
    राममंदिर को एक नारे की तरह इस्तेमाल करना और फिर चुप बैठ जाना बार-बार आजमाया गया फार्मूला है। होना तो यह चाहिए या तो अदालत या फिर संवाद दो में से किसी एक रास्ते का अनुसरण हो। हमारे राजनीतिक दलों और राजनेताओं में वह इकबाल नहीं कि वे समस्या के समाधान के लिए संवाद का धरातल बन सकें, वे हर चीज के लिए अदालतों पर निर्भर हैं। सो इस मामले में भी अदालत ही आखिरी फैसला करेगी। सरकारों के बस का तो यह है ही नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि संघ परिवार और भाजपा अपने काडर को साफ तौर पर यह संदेश दे कि राममंदिर को लेकर बेवजह की बयानबाजियां रोकी जाएं। बार-बार हिंदू जनमानस से छल करने के ये प्रयास, उनकी हवा खराब कर रहे हैं। जितना बड़ा जनांदोलन 90 के दशक में खड़ा हुआ, अब हो नहीं सकता। इसलिए जनांदोलन की भाषा बोलने के बजाए, समाधान पर जोर दिया जाना चाहिए। अब जबकि यह साफ है कि राममंदिर के मुद्दे पर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं तब इस मामले पर माहौल बिगाड़ने की कोशिशें रोकी जानी चाहिए। आज की तारीख में हमारे सामने अदालत से फैसला लाना ही एकमात्र विकल्प है। हाईकोर्ट इस विषय में फैसला दे चुकी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना शेष है। इसके बावजूद तमाम लोग जिनकी राजनीति राममंदिर के बिना पूरी नहीं होती, इस मुद्दे पर बयान देने से बाज नहीं आते। दोनों तरफ ऐसी राजनीतिक शक्तियां हैं जो इस मामले को जिंदा रखना चाहती हैं। छह दिसंबर को जिस तरह का वातावरण बनाने की कोशिशें होती हैं वह बताती हैं कि राममंदिर की फिक्र दरअसल किसी को नहीं हैं। यह गजब है कि अयोध्या में अपनी जन्मभूमि पर भी इस देश के राष्ट्रपुरूष भगवान श्रीराम का मंदिर बनाने पर विवाद है। जो आजादी के वक्त सोमनाथ में हो सकता है, वह अयोध्या में क्यों नहीं? क्या हम पहले से कम राष्ट्रीय हो गए हैं? अयोध्या में राममंदिर का विवाद दरअसल इस देश की हिंदू-मुस्लिम समस्या का एक जीवंत प्रमाण है। किस प्रकार एक आक्रांता ने एक हिंदू मंदिर को तोड़कर वहां एक ढांचा खड़ा कर दिया था। आज इतने समय बाद भी हम उन यादों को भुला कहां पाए हैं। इतिहास को विकृत करने वाली विरासतों से रिश्ता जोड़ना कहां से भाईचारे की बुनियाद को मजबूत कर सकता है? खुद इकबाल लिखते हैं-
है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उनको इमामे-हिंद।
  ऐसी सांझी विरासतों को जब मजबूत करने की जरूरत है तो भी राममंदिर न बनने देने के पक्ष में खड़ी ताकतों को भी यह लोकतंत्र अवसर देता है। आप इसे लोकतंत्र का सौंदर्य कह सकते हैं, किंतु यह एक राष्ट्रपुरूष, राष्ट्र की प्रज्ञा और राष्ट्र की अस्मिता का अपमान है। भगवान श्रीराम इस देश के 80 प्रतिशत नागरिकों के लिए राष्ट्रपुरूष और धीरोदात्त नायक हैं। वे जन-मन की आस्था के केंद्र हैं। भारत में बसने वाला शेष समाज प्रभु राम के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए इस स्थान को हिंदू समाज की भावनाओं के मद्देनजर सौंप देता तो कितनी सुंदर राष्ट्रीय भावना का संचार होता। राजनीति के खिलाड़ियों ने इस सद्भावना के बीज को पनपने ही नहीं दिया और अपने-अपने राजनीतिक खेल के लिए लोगों का इस्तेमाल किया। सही मायने में जब कांग्रेस नेता और उप्र सरकार में मंत्री रहे दाऊदयाल खन्ना ने आठवें दशक के अंत में राममंदिर का मामला उठाया था तब यह विषय एक स्थानीय सवाल था, आज यह मुद्दा अपने विशाल स्वरूप से फिर बहुत छोटे रूप में जिंदा है। इस आंदोलन के ज्यादातर नायक कालबाह्य हो चुके हैं। बावजूद इसके 1990 से आज 2015 के अंतिम समय में भी इसके समाधान के लिए शांतिप्रिय आवाजें आगे नहीं आईं। सबको पता है कि वहां अब कभी बाबरी ढांचा या कोई अन्य स्मारक नहीं बन सकता,लेकिन रामलला तिरपाल और टीनशेड में उत्तर प्रदेश की शीत लहर झेल रहे हैं। राममंदिर आंदोलन के समर्थक और विरोधी दोनों प्रकार के राजनीतिक दल जनता का इस्तेमाल कर सत्ता पा चुके हैं। राजभोग जारी है, इसलिए आ रहे साल 2016 की देहरी पर खड़े होकर यह पूछने का मन हो रहा है कि आखिर राममंदिर की चिंता किसे है?

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

बिहार चुनाव बाद बढ़ीं भाजपा की चुनौतियां


मोदी-शाह की रणनीतिक विफलता ने विपक्ष को किया एकजुट
-संजय द्विवेदी
   बिहार चुनाव के परिणामों से सारे देश की राजनीति में एक उबाल आ गया है। इस परिणाम ने जहां पस्तहाल विपक्ष को संजीवनी दी है वहीं भाजपा को आत्मचिंतन और आत्मावलोकन का एक अवसर बहुत जल्दी उपलब्ध करा दिया है। दिल्ली में भाजपा के अश्वमेघ को जहां अरविंद केजरीवाल ने रोक लिया था तब उस चुनाव के परिणाम को एक स्थानीय कारण मानकर छोड़ दिया गया था। किंतु कुछ तो है कि बिहार के परिणाम को देश का फैसला माना जा रहा है। इसका एक कारण तो यह है कि दिल्ली में किरण बेदी को चेहरा बनाकर भाजपा के आत्मघात को एक बड़ा कारण माना गया था। जबकि बिहार चुनाव में चेहरा ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह थे। किसी भी राज्य के चुनाव में शायद यह अजूबा ही था कि पोस्टरों पर प्रमुख रूप से मोदी और शाह छाए रहे हों।
   बिहार का चुनाव परिणाम एक साथ ढेर सारी सूचनाएं और चेतावनियां देने वाला भी है। एक तो यह कि सुशासन बाबू के निर्विध्न राज पर अब लालू प्रसाद यादव और उनके बेटों की सहभागिता रहेगी। दूसरा सबसे बड़ा दल होने के नाते राजद का इकबाल भी बुलंद है। विकास और सुशासन की नारेबाजियां करने वाले जनता दल (यू) और भाजपा दोनों को लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से कम सीटें मिली हैं। जाहिर तौर पर यह परिणाम एक साथ कई बातें बताते हैं।
ये जाति है बड़ीः बिहार में वैसे भी जातीय राजनीति की एक गहरी परंपरा और सैद्धांतिक आधार भी है। यहां सबसे बड़ा संगठन और विचार जाति ही है। जातीय गोलबंदी करके चुनाव जीतना कोई नई बात नहीं है और लालू यादव इसमें सफल रहे हैं। शायद इसीलिए चुनाव में जंगलराज पार्ट टू कहे जाने पर अपनी आलोचना पर उन्होंने यह कहा था कि जंगलराज पार्ट टू नहीं यह मंडलराज पार्ट टू है। यह बताता है कि किस तरह उन्होंने अपने वोटबैंक को साधने की कोशिश की थी। ऐसे में यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि इस जीत को विकास की जीत माना जाए या जातीय गोलबंदी की। नीतीश कुमार के विकासवादी चेहरे के बावजूद लालू प्रसाद यादव के दल को मिली सफलता, वंशवाद और जातीय राजनीति ज्यादा महत्व पाती हुई दिखती है। सामाजिक समीकरणों को साधकर बिहार का मैदान जिस तरह जीता गया वह बताता है कि अभी भी भारतीय राजनीति में जाति एक बड़ी ताकत है।
भाजपा के लिए आत्मचिंतन का समयः बिहार में भाजपा की पराजय बिखरे परिवार को एक न कर पाने का उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ती हुई भाजपा यहां पहले दिन से बिखरी-बिखरी दिखी। भाजपा स्थानीय नेतृत्व कहीं दिखा नहीं, तो शत्रुध्न सिन्हा, आर के सिंह जैसे सांसद अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करते नजर आए। गठबंधन दलों को हैसियत से ज्यादा सीटें देना भी भारी पड़ा। रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा आदि के दलों को गहरा झटका लगा। इस सदमे से उबरने और संभलने में भाजपा को वक्त लगेगा। सही मायने में इस चुनाव ने भाजपा को यह अवसर दिया है कि वह अपने अतिआत्मविश्वास और शक्ति का विश्लेषण करे। बार-बार हर मैदान में एक ही हथियार कारगर नहीं होता यह भी साबित हो चुका है। ऐसे में यह देखना रोचक है कि भाजपा इस हार से क्या सबक लेती है और भविष्य के लिए क्या कदम उठाती है। किंतु इतना तो तय है कि भाजपा ने बिहार की पराजय से उत्तर प्रदेश का मार्ग अपने लिए कठिन बना लिया है। राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की कुशल रणनीतिकार की छवि भी दिल्ली और बिहार की पराजय से सवालों के घेरे में है। भाजपा के तूफानी अभियान ने इन दोनों राज्यों में कोई असर नहीं छोड़ा और सीटें उम्मीद से कम आयीं। यह बात बताती है कि किस तरह भाजपा को अपनी कार्यशैली पर काम करने की जरूरत है। बिहार के सांसदों शत्रुध्न सिन्हा, आरके सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव, अश्विनी चौबे आदि के बयानों का विश्लेषण करें तो असंतोष की गहराई का पता चलता है। सांसदों में गुस्से का यह स्तर है तो सामान्य जनों की बात समझी जा सकती है। सांसदों का यह असंतोष केवल बिहार के स्तर पर नहीं है। ज्यादातर को समस्या संवादहीनता की है और संवाद के तल पर भाजपा की विफलता हर जगह रेखांकित की जा रही है। यह संकट अचानक पैदा हुआ है या यह बात फैलाई जा रही कहना कठिन है किंतु भाजपा को इस संकट का समाधान खोजना होगा इसमें दो राय नहीं है। भाजपा अगर ऐसा नहीं कर पायी तो आने वाला समय उसके लिए संकट का कारण होगा।
लालू की वापसी के मायनेः बिहार में लालू प्रसाद यादव की वापसी एक चमत्कार जैसी ही है। इस चुनाव के वास्तविक हीरो और विजेता दरअसल लालू प्रसाद यादव ही हैं जिन्होंने न सिर्फ खुद को फिर से मैदान में खड़ा कर लिया बल्कि देश की राजनीति में हस्तक्षेप की क्षमता से लैस हैं। अपने दोनों पुत्रों को राजनीति में स्थापित कर और सर्वाधिक विधानसभा सीटें जीतकर जो चमत्कार उन्होंने किया है उससे नीतिश कुमार की आभा भी मंद पड़ गयी है। यह देखना भी रोचक होगा कि आने वाले समय में सरकार की दशा और दिशा क्या होती है। लालू यादव के बेटे-बेटियों का आश्वासन तो यही है कि वे विकास और सुशासन की परंपरा को आगे बढ़ाकर नीतिश कुमार के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगें। राजग के कैडर और संगठन के आधार का परिणाम ही है कि वे हर चुनाव में अपना वोट बैंक बनाए और बचाए रख पाने में सफल रहे हैं। अब लालू का दावा है कि वे देश में घूमकर भाजपा की राजनीति के खिलाफ अलख जगाएंगें। किंतु बिहार की सरकार को उनके हस्तक्षेप से मुक्त कर पाना कठिन होगा।
देश की राजनीति पर असर डालेंगें ये चुनावः बिहार चुनाव ने जहां विपक्ष को ताकत दी है, वहीं नरेंद्र मोदी का आभामंडल भी दरका है। विपक्ष की एकजुटता को भाजपा की हरकतों ने ही हवा दी है। इसके चलते संसद के अंदर-बाहर विपक्ष अब भाजपा की सरकार पर हावी दिखते हैं। आने वाले समय में भी भाजपा के लिए बहुत अच्छी खबरों की संभावना नहीं है। प.बंगाल वैसे भी भाजपा के लिए बहुत अनूकूल राज्य नहीं है। ममता बनर्जी और वाममोर्चा के बीच वहां का मैदान बंटा हुआ है। ऐसे में भाजपा वहां कुछ कर पाएगी इसकी संभावना नहीं दिखती। राज्य में अपनी उपस्थिति बनाने के लिए उसे लंबा इंतजार करना होगा। असम में भाजपा जरूर काफी आशान्वित है। कांग्रेस के तमाम नेता दलबदल कर भाजपा में आ रहे हैं। असम एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा आजतक सत्ता में नहीं आ सकी है। इस बार चमत्कार की उम्मीद भाजपा कर रही है। इसके साथ ही तमिलनाडु और केरल तो भाजपा के मिजाज से मेल नहीं खाते। यहां भाजपा को अभी प्रमुख विपक्ष बनने के लिए भी एक लंबी यात्रा करनी है, सत्ता तो दूर की कौड़ी है। इसी तरह आने वाले समय में उप्र की एक बड़ी लड़ाई भी भाजपा को लड़नी है। लोकसभा चुनाव में राजग ने 73 सीटें जीतकर जो कमाल किया था, उसे दोहराना एक कठिन चुनौती है। उप्र का राजनीतिक मैदान अभी भी सपा और बसपा के बीच में बंटा हुआ है। कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी दलों में गठबंधन होने पर भाजपा की राह और कठिन हो सकती है। बिहार ने जो झटका दिया है उसके साइड इफेक्ट उप्र में दिखने तय हैं। पंजाब में अकाली दल और भाजपा के रिश्ते सहज नहीं हैं। सत्ता के खिलाफ असंतोष है तो कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद कांग्रेस जोश में है। भाजपा के दिग्गज अरूण जेटली को हराकर अमरिंदर सिंह वैसे भी लाइम लाइट में हैं। भाजपा और अकाली दल के लिए कांग्रेस के साथ-साथ आम आदमी पार्टी भी एक बड़ी चुनौती की तरह उभर रही है। इस त्रिकोणीय संघर्ष का फायदा किसे मिलेगा कहा नहीं जा सकता। उत्तरांचल और हिमाचल में जरूर भाजपा सीधी लड़ाई में है और उसे वहां कुछ लाभ मिल सकता है। किंतु तबतक क्या हवा बनेगी कहा नहीं जा सकता। इतना तो तय है कि केंद्र में सत्ता में होने का असर भाजपा को हर राज्य के चुनाव में उठाना पड़ेगा। आर्थिक नीतियों से प्रभावित होते लोगों और बढ़ती महंगाई के आरोपों से भाजपा बच नहीं सकती। जिन हथियारों से उसने कांग्रेस को चोटिल किया था वे सारे हथियार अब कांग्रेस और विपक्ष के पास हैं। अकेले प्रधानमंत्री की सक्रियता के बजाए वित्त मंत्री की उदारता का भी देश की जनता को इंतजार है। इसके साथ ही एक सामूहिक नेतृत्व, संवाद और अहंकारहीनता तो चाहिए ही। बिहार ने भाजपा को क्या सिखाया है इसके लिए थोड़ा इंतजार करना चाहिए।

इस असहिष्णु समय में!


आभासी सांप्रदायिकता को स्थापित करने में लगी शक्तियों के इरादों को समझें
-संजय द्विवेदी
     सड़क से लेकर संसद तक असहिष्णुता की चर्चा है। बढ़ती सांप्रदायिकता की चर्चा है। कलाकार, साहित्यकार सबका इस फिजां में दम घुट रहा है और वे दौड़-दौड़कर पुरस्कार लौटा रहे हैं। राष्ट्रपति से लेकर आमिर खान तक सब इस चिंता में शामिल हो चुके हैं। भारत की सूरत और शीरत क्या सच में ऐसी है, जैसी बतायी जा रही है या यह आभासी सांप्रदायिकता को स्थापित करने के लिए गढ़ा जा रहा एक विचार है। आज के भारतीय संदर्भ में पाश्चात्य विचारक मिशेस फूको की यह बात मौजूं हो सकती है जो कहते हैं कि विमर्श एक हिंसा है जिसके द्वारा लोग अपनी बात सही सिद्ध करना चाहते हैं।
  भारत जिसे हमारे ऋषियों, मुनियों, राजाओं, महान सुधारकों, नेताओं और इस देश की महान जनता ने बनाया हैसहिष्णुता और उदात्तता यहां की थाती है। अनेक संकटों में इस देश ने कभी अपने इस नैसर्गिक स्वभाव को नहीं छोड़ा। तमाम विदेशी हमलों, आक्रमणों, 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बावजूद भी नहीं। यही हिंदु स्वभाव है, यही भारतीय होना है। यहां सत्ता में नहींसमाज में वास्तविक शक्ति बसती है। सत्ता कोई भी हो, कैसी हो भी। समाज का मन निर्मल है। वह सबको साथ लेकर चल सकने की क्षमता से लैस है। यही राम राज्य की कल्पना है। जिसे महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक एक नारे या सपने की तरह इस्तेमाल करते हैं। राम राज्य जुमला नहीं है,एक ऐसी कल्पना है जिसमें लोकतंत्र की औदार्यता के दर्शन होते हैं। रामराज्य दरअसल भारतीय राज्य का सबसे बड़ा प्रतीक है। जहां तुलसीदास कृत रामचरित मानस में उसकी व्याख्या मिलती है-
सब नर चलहिं परस्पर प्रीती
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।
   हमारी परंपरा सिर्फ गौरवगान के लिए नहीं है बल्कि वास्तव में इन्हीं भावों से अनुप्राणित है। वह सबमें प्रेम और सद्भावना तो चाहती है और आपको आपके स्वधर्म पर चलने के लिए प्रेरित भी करती है। किंतु लगता है कि एक झूठ को सौ बार बोलकर उसे सच बना देने वाली ताकतों का भरोसा अभी भी टूटा नहीं है। वे निरंतर इस महादेश को जिसके समानांतर पूरी कम्युनिस्ट दुनिया और पूरी इस्लामी दुनिया के पास कोई देश नहीं है, को लांछित करना चाहती हैं। राज्य के खिलाफ संघर्ष को वे देश के खिलाफ संघर्ष में बदल रही हैं। एक नेता से उनकी नफरत उन्हें अपने देश के खिलाफ षडयंत्र करने की प्रेरणा बन गयी है। आखिर इस देश में मर्ई,2014 के बाद ऐसा क्या घटा, जिसे लेकर ये इतने संवेदनशील और बैचैन हैं।
   इस देश की बन रही वैश्चिवक छवि को मटियामेट करने के ये यत्न संदेह जगाते हैं। पुरस्कार वापसी के सिलसिले स्वाभाविक नहीं लगते, क्योंकि इनकी टाइमिंग पर सवाल पहले दिन से उठ रहे हैं। देश का प्रधानमंत्री इस देश के लोगों से शक्ति पाकर सत्ता तक पहुंचता है। मोदी भारतीय लोकतंत्र का परिणाम हैं। क्या आप जनता के द्वारा दिए गए जनमत को भी नहीं मानते। नरेंद्र मोदी को मिले जनादेश को न स्वीकारना और उन्हें काम करने के अवसर न देना एक तरह का अलोकतांत्रिक प्रयत्न है। एक गरीब परिवार से आकर, अपनी देश की भाषा में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने जो कुछ अर्जित किया है, वही इस देश के लोकतंत्र का सौंदर्य है। नरेंद्र मोदी को लांछित करने वाले यह भूल जाते हैं कि हर तरह के विरोधों और षडयंत्रों ने मोदी को शक्तिमान ही बनाया है। देश की जनता को ये उठाए जा रहे भ्रम प्रभावित करते हैं। लोग पूछने लगे हैं कि आखिर असहिष्णुता कहां है भाई?दुनिया के पैमाने पर हो रही तमाम घटनाएं हमारे सामने हैं। इस रक्तरंजित दुनिया को शांति की राह दिखाने वाले देश भारत को लांछित करने का कोई कारण नहीं है। भारत और उसका मन विश्व को अपना परिवार मानने की वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत है। यह भारत ही है जिसने विविधता और बहुलता को आचरण में लाकर विश्व मानस को प्रभावित किया है। हमारे तमाम देवी- देवता और प्रकृति के साथ हमारा संवाद, चार वेद, दो महाकाव्य-रामायण और महाभारत, अठारहों पुराण और एक सौ आठ उपनिषद इसी विविधता के परिचायक हैं। इस विविधता को स्वीकारना और दूसरी आस्थाओं का मान करना हमें हमारी जड़ों से मिला है। इसीलिए हम कहते हैं-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नं।
 यानि अठारहों पुराणों में व्यास जी दो ही बातें कहते हैं, परोपकार पुण्य है और पाप है दूसरों को कष्ट देना। यानि भारत का मन पाप और पुण्य को लेकर भ्रम में नहीं है। उसे पता है कि दूसरों को जगह देना, उन्हें और उनकी आस्था को मान देना कितना जरूरी है। वह जानता है कि विविधता और बहुलता को आदर देकर ही वह अपने मानबिंदुओं का आदर कर पाएगा। किंतु यह उदार संस्कृति अगर साथ ही, यह भी चाहती है कि हम तो आपकी आस्था का मान करते हैं आप भी करेगें तो अच्छा रहेगा, तो इसमें गलत क्या है? परस्पर सम्मान की इस मांग से ही आप सांप्रदायिक धोषित कर दिए जाते हैं। यह कहां की जिद है कि आप तो हमारे विचारों का, आस्था का मान करें किंतु हम आपके मानविंदुओं और आस्था का विचार नहीं करेगें। अगर ऐसा होता तो क्या अयोध्या में राममंदिर के लिए मुकदमा अदालत में होता। कभी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता सैय्यद शहाबुद्दीन ने कहा था कि यह प्रमाणित हो जाए कि कि बाबरी ढांचे के नीचे कोई हिंदू मंदिर था तो वे इस पर दावा छोड़ देगें। आज अदालत प्रमाणित कर चुकी है कि यह राम जन्मभूमि है। किंतु विरोधी पक्ष सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। गाय को लेकर भी जैसी गलीज बहसें चलाई गयीं, वह यही बताती हैं। सहिष्णुता का पाठ पढाने वालों को इतना ही देखना लेना चाहिए कि इस हिंदु बहुल देश में भी कश्मीरी हिंदुओं को विस्थापन झेलना पड़ा। इस पाप के लिए माफी कौन मांगेगा?
      जाहिर तौर पर एक शांतिप्रिय समाज को, एक समरसतावादी समाज को जब आप बार-बार लांछित करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उसे यह अच्छा ही लगे। हिंदु मन प्रतिक्रियावादी मन नहीं है। उसे दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार रखना ही है, भले ही अन्य उसके साथ कैसा भी आचरण करें। इस मन को खराब मत कीजिए। पेड़, पौधों, नदियों, मंदिरों, मजारों, गुरूद्वारों सब जगह मत्था टेकता यह भारतीय मन है, इसे आहत मत कीजिए। यह तो गायों, कौवों, कुत्तों का भी विचार करता है, खाने के लिए उनके लिए हिस्सा निकालता है। उसे असहिष्णु मत कहिए। उसने गोस्वामी तुलसीदास की वाणी-
परहित सरिस धरम नहीं भाई,
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
को आत्मसात किया है। उसे पता है कि दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। इसलिए उसके हाथ गलत करते हुए कांपते हैं। उसके पैर भी यह विचार करते हैं कि कोई चींटी भी उसके पैरों तले ना आ जाए। इसलिए उसकी इस सदाशयी वृत्ति, परोपकार चेतना, दान शीलता, सद्भावना, दूसरों की आस्थाओं को सम्मान देने की भावना का मजाक मत बनाइए। इस देश को नेताओं और राजनीतिक दलों ने नहीं बनाया है। यह राष्ट्र ऋषियों और मुनियों ने बनाया है। पीर-फकीरों ने बनाया है, उनकी नेकनीयती और दिनायतदारी ने बनाया है। राजसत्ता यहां बंटी रही, राजाओं के राज बंटे रहे किंतु भारत एक सांस्कृतिक प्रवाह से अपनी महान जनता के आत्मविश्वास में कायम रहा है। इसीलिए हम कह पाए-
हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षयते ।।
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति: ।।
   इसलिए उनसे इस तर्क का कोई मतलब नहीं है जो यह मानते,लिखते और कहते हैं कि यह राष्ट्र तो टुकड़ों में बंटा था और 1947 में अंग्रेज हमें इसे एक करके दे गए। ये वे लोग हैं जो न देश को समझते हैं, न इसके इतिहास को। जिन्हें इस राष्ट्र की अस्मिता को लांछित करने, इसके इतिहास की विकृत व्याख्याओं में ही आनंद आता है। उन्हें सारे गुण और गुणवान इस देश की घरती के बाहर ही नजर आते हैं। ऐसे जानबूझकर अज्ञानी बनी जमातों को हम हिंदुस्तान समझा रहे हैं। उसकी रवायतों और विरासतों को समझा रहे हैं, तो यह होने वाला नहीं हैं। आज राजनीतिक रूप से ठुकराई जा चुकी ताकतों द्वारा सम्मानितरायबहादुरों की इस पुरस्कार वापसी पर बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं के लिए ईसा ने कहा था- हे प्रभु इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

छात्र-युवा ही बनाएगें समर्थ भारत


-संजय द्विवेदी
  भारत इस अर्थ में गौरवशाली है कि वह एक युवा देश है। युवाओं की संख्या के हिसाब से भी, अपने सार्मथ्य और चैतन्य के आधार पर भी। भारत एक ऐसा देश है, जिसके सारे नायक युवा हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, जगदगुरू शंकराचार्य और आधुनिक युग के नायक विवेकानंद तक। युवा एक चेतना है, जिसमें उर्जा बसती है, भरोसा बसता है, विश्वास बसता है, सपने पलते हैं और आकाक्षाएं धड़कती हैं। इसलिए युवा होना भारत को रास आता है। भारत के सारे भगवान युवा हैं। वे बुजुर्ग नहीं होते। यही चेतना भारत की जीवंतता का आधार है।
  आज जबकि दुनिया के तमाम देशों में युवा शक्ति का अभाव दिखता है। भारत का चेहरा उनमें अलग है। छात्र होना सीखना है, तो युवा होना कर्म को पूजा मानकर जुट जाना है। एक सीख है, दूसरा कर्म है। सीखी गयी चीज को युवा परिणाम देते हैं। ऐसे में भारत की छात्र शक्ति को सीखने के बेहतर अवसर देना, उनकी प्रतिभा को उन्नयन के लिए नए आकाश देना, हमारे समाज और सरकारों की जिम्मेदारी है। छात्र को ठीक से गढ़ा न जाएगा तो वह एक आर्दश नागरिक कैसे बनेगा। देश के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन वह कैसे करेगा। भारत के शिक्षा परिसर ही नए भारत के निर्माण की आधारशिला हैं अतः उनका जीवंत होना जरूरी है।
अराजनैतिक छात्र शक्ति का निर्माणः
 देश में पूरी तरह से ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें छात्र सिर्फ अपने बारे में सोचे, कैरियर के बारे में सोचे। उसमें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों, राष्ट्र के प्रति सदभाव पैदा हो, इस ओर प्रयास जरूरी हैं। जरूरी है कि वे देश के बारे में जानें, उसकी विविधताओं और बहुलताओं का सम्मान करें ऐसे नागरिक बनें जो विश्वमंच पर भारत की प्रतिष्ठा बना सकें। तमाम सामाजिक संगठनों से जुड़कर छात्र युवा शक्ति तमाम सामाजिक प्रकल्पों को चलाती भी है। किंतु हमारी शिक्षा में ऐसी व्यवस्था नदारद है। आज ऐसा लगता है कि शिक्षा से तो वे जो कुछ प्राप्त करते हैं उससे वे मनुष्य कम मशीन ज्यादा बनते हैं। वे काम के लोग बनते हैं किंतु नागरिक और राष्ट्रीय चेतना से लैस मनुष्य नहीं बन पाते है। छात्रों-युवाओं में राष्ट्रीय चेतना सामान्य व्यक्ति से ज्यादा होती है। इसलिए देश की शिक्षा व्यवस्था में अगर राष्ट्रीय भाव होते तो आज हालात अलग होते। हालात यह हैं कि जो छात्र युवा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से न जुड़े हों तो उनकी राष्ट्रीय विषयों पर कोई सोच नहीं होती है, क्योंकि उन्हें इस दिशा में सोचने और काम करने का अवसर ही नहीं मिलता। इस प्रकार हमने छात्र–युवाओं को पूरी तरह अराजनैतिक और व्यक्तिगत सोच वाला बना दिया है। आज मुख्यधारा का छात्र-युवा, आनंद और उत्सवों में मस्त है। वह पार्टियों और मस्त माहौल को ही अपना सर्वस्व समझ रहा है। ऐसी स्थितियों में यह जरूरी है कि छात्रों का राजनीतिकरण हो, उन्हें वैचारिक आधार से लैस किया जाए, और देश के प्रश्नों पर वे संवाद करें। आज देश के तमाम परिसरों में छात्रसंघ चुनाव भी नहीं कराए जाते। आखिर एक लोकतांत्रिक देश में छात्रों के राजनीतिकरण से किसे डर लगता है। सच तो यह है कि सत्ताएं चाहती हैं कि युवा मस्त-मस्त जीवन जीते रहें, और समाज में खड़े प्रश्नों से न टकराएं। वे पार्टियों में झूमते रहें और मनोरंजन ही उनका आधार बने। मनोरंजन और कैरियर से आगे सोचने वाली युवा शक्ति का अभाव सबसे बड़ी चुनौती है।
शिक्षा परिसरों को जीवंत बनाने की जरूरतः
आवश्यक्ता इस बात की है कि शिक्षा परिसरों को ज्यादा जीवंत और ज्यादा प्रासंगिक बनाया जाए। परिसरों को सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर प्रशिक्षण का केंद्र बनाया जाए। अगर परिसर जीवंत होंगे तो नया समाज भी जीवंत बनेगा। भारतीय परंपरा में संवाद और विवाद की अनंत धाराएं रही हैं। यह समाज संवादित समाज है। जिन दिनों संचार के साधन उतने नहीं थे तो भी समाज उतना ही संवादित था। कुंभ से लेकर अनेक मेलों में समाज संवाद करता था। नए समय ने समाज के संवाद के अनेक मार्ग बंद कर दिए हैं। सामयिक प्रश्नों पर संवाद कम होने के कारण नई पीढ़ी को देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चुनौतियों से रू-ब-रू होने का अवसर ही नहीं मिलता। इसलिए देश के युवा आज अपने समय की चुनौतियों को नहीं पहचान पा रहे हैं। मुख्यधारा के युवाओं को एक ऐसा युवा बनाया जा रहा है जो कैरियर और मनोरंजन से आगे न सोच सके। इस प्रकार सामाजिक सोच का विकास बाधित हो रहा है।
छात्र संगठन निभाएं जिम्मेदारीः
 छात्र संगठनों की यह जिम्मेदारी है कि राजनीतिक दलों के पिछलग्गू बनने के बजाए अपने दायरे से बाहर आएं। शिक्षा और शिक्षक जहां साथ छोड़ रहे हैं, छात्र संगठनों को वहीं छात्रों का साथ पकड़ना होगा। छात्र संघों को छात्रों की सर्वांगीण प्रतिभा के उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करना होगा। छात्र संघ अपनी भूमिका का विस्तार करते हुए सिर्फ छात्र समस्याओं और राजनीतिक कामों के बजाए देश के सवालों पर सोचने का उन पर विमर्श का कार्य भी हो सकता है। छात्र शक्ति की सक्रिय भागीदारी से देश में आमूल चूल परिवर्तन आ सकता है। एक मिशन और ध्येय पैदा होते ही छात्र एक ऐसी युवा शक्ति में परिवर्तित हो जाता है, जिससे देश का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होता है। देश के सब क्षेत्रों में आंदोलन कमजोर हुए हैं। आंदोलनों के कमजोर होने कारण विविध क्षेत्रों की वास्तविक आवाजें सुनाई देनी बंद हो गयी है। इसके चलते सत्ता का अतिरेक और आत्मविश्वास बढ़ रहा है। जनसंगठन और छात्र संगठन एक सामाजिक दंड शक्ति के रूप में काम करें, इसके लिए उन्हें सचेतन प्रयास करने होंगे। इससे सत्ता और प्रशासन को भी सामाजिक शक्ति का विचार करना पड़ता है। एक लोकतंत्र में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी ही उसे सफल और सार्थक बनाती है। अगर नागरिक जागरूक नहीं होते तो उनको उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। एक सोया हुआ समाज कभी भी न्याय प्राप्ति की उम्मीद नहीं कर सकता। एक जागृत समाज ही अपने हितों की रक्षा करता हुआ अपने राष्ट्र की प्रगति में योगदान देता है। अगर छात्रों में छात्र जीवन से ही ये मूल्य स्थापित कर दिए जाएं तो वे आगे चलकर एक सक्रिय नागरिक बनेंगे, इसमें दो राय नहीं है। उन्हें अपनी जड़ों से प्रेम होगा, अपनी संस्कृति से प्रेम होगा, अपने समाज और उसके लोगों से प्यार होगा। वह नफरत नहीं कर पाएगा कभी किसी से। क्योंकि उसके मन में राष्ट्रीय भावना का प्रवेश हो चुका होगा। वह राष्ट्र को सर्वोपरि मानेगा, राष्ट्र के नागरिकों को अपना भाई-बंधु मानेगा। वह जानेगा कि उसके कार्य का क्या परिणाम है। उसे पता होगा कि देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का सामना उसे कैसै करना है। देश के छात्र संगठन अपनी-अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक धाराओं को मजबूत करते हुए भी राष्ट्र प्रथम यह भाव अपने संपर्क में आने वाले युवाओं में भर सकते हैं। सही मायने में यही युवा आगे चलकर समर्थ भारत बनाएंगे।

जब संसद भी बेमानी हो जाए


-संजय द्विवेदी
  प्रदर्शन सड़क पर होने चाहिए और बहस संसद में। लेकिन हो उल्टा रहा है प्रदर्शन संसद में हो रहे हैं, बहस सड़क और टीवी न्यूज चैनलों पर। ऐसे में हमारी संसदीय परम्पराएं और उच्च लोकतांत्रिक आदर्श हाशिए पर हैं। राजनीति के मैदान में जुबानी कड़वाहटें अपने चरम पर हैं और मीडिया इसे हवा दे रहा है। सही मायने में भारतीय संसदीय इतिहास के लिए ये काफी बुरे दिन हैं। संसद और विधानसभाएं अगर महत्व खो रही हैं तो हमारे राजनेता भी अपना प्रभाव खो बैठेंगें। बहस के लिए बनी संस्थाओं में नाहक मुद्दों के आधार पर जिस तरह बाधा डाली जा रही है, उससे लगता है किसंसदीय परम्पराओं और मूल्यों की हमारे राजनीतिक दलों को बहुत परवाह नहीं है।
  बढ़ती कड़वाहटों ने संवाद का स्तर तो गिराया ही है, आपसी संबंधों पर भी तुषारापात किया है। सत्ता परिवर्तन को सहजता से स्वीकार न करके सत्ता में बने रहने के अभ्यासी दल बेतुकी प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं। संसद के अंदर जैसे दृश्य रोज बन रहे हैं और उसके चलते हमारी राजनीति का जो चेहरा बन रहा है, उससे उसके प्रति जनता वितृष्णा और बढ़ेगी। क्या जनता के हित और देशहित अलग-अलग हैंअगर दोनों एक ही हैं तो जनता को राहत देने वाले कानूनों को तुरंत पास करने के लिए हमारे राजनीतिक दल एक क्यों नहीं है? क्या यह श्रेय की लड़ाई है या फिर जनता की परवाह किसी को नहीं है।
महत्व खोती संसदः इस पूरे विमर्श की सबसे बड़ी चिंता यह है कि संसद और विधानसभाएं महत्व खो रही हैं। उनका चलना मुश्किल है, और उन्हें चलाने की कोशिशें भी नदारद दिखती हैं। सत्ता पक्ष की अपनी अकड़ है तो विपक्ष के दुराग्रह भी साफ दिखते हैं। समाधान निकालने की कोशिशें नहीं दिखती और जनता का हितों को हाशिए लगते देख भी किसी को दर्द नहीं हो रहा है। लोकसभा अध्यक्ष के तमाम प्रयासों के बाद भी संवाद सहज होता नहीं दिख रहा है। अगर संसद में कानून नहीं बनेंगे, संसद में विमर्श न होंगें तो क्या होगा?  यह संकट पूरी संसदीय प्रक्रिया और राजनीति के सामने है। राजनीति का क्षेत्र बहुत जिम्मेदारी का है और जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसमें इस जिम्मेदारी के भाव का अभाव दिखता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय प्रक्रिया के इस मर्म को समझा और संसद को उदार लोकतांत्रिक मूल्यों का मंच बनाने के लिए उन्होंने काफी जतन किए। अपने विपक्षी सदस्यों की भावनाओं और उनके तर्कों को उन्होंने अपने खिलाफ होने के बावजूद सराहा। आज उनकी ही पार्टी नाहक सवालों का संसद का समय नष्ट करती हुयी दिखती है। लोकतंत्र की रक्षा और उसके संसदीय परम्पराओं को बचाए, बनाए रखना और निरंतर समृद्ध करना सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है। किंतु राष्ट्रीय दलों को यह जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि  उनके आचरण और व्यवहार की छोटे दल नकल करते हैं। संसद से जो लहर चलती है वह राज्यों तक जाती है। अगर संसद नहीं चलेगी तो उसके परिणाम यह होंगे कि विधानसभाएं भी अखाड़ा बन जाएगीं। संसद दरअसल हमारे एक संपूर्ण भारतीय जनशक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति है। अगर वह बंटी-बंटी दिखेगी तो यह ठीक नहीं। कम से कम जनता के सवालों पर, राष्ट्रीय प्रश्नों पर संसद एक दिखेगी तो इसके दूरगामी शुभ परिणाम दिखेंगे।
सत्ता पक्ष अपनाए लचीला रवैयाः संसद को चलाना दरअसल सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी होती है। सत्ता पक्ष थोड़ा लचीला रवैया अपना कर सबको साथ ले सकता है। लोकतंत्र में हमारे संविधान ने ही सबकी हदें और सरहदें तय कर रखी हैं। मीडिया के उठाए प्रश्नों में उलझने के बजाए हमारे राजनेता संवाद को निरंतर रखने की विधियों पर जोर दें। संसद भारत की संवाद परम्परा का एक अद्भुत मंच है। जहां पूरा देश एक होता हुआ दिखता है। देश के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि यहां आकर देश की भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। इसे ज्यादा जीवंत और सार्थक बनाने की जरूरत है। संसद और संवाद कभी बाधित न हो यह परम्परा ही हमारी संसदीय परम्परा को सम्मानित बनाएगी। संसद को कभी राजनीतिक दलों के निजी हितों का अखाड़ा नहीं बनने देना चाहिए। नारे बाजी और शोरगुल से न तो समस्याओं का समाधान होता, ना ही ध्यान जाता है। हमारी परंपरा में बहसों का अनंत आकाश रहा है, शास्त्रार्थ हमारी परंपरा में है। इससे निकले निकष ही समाज को अमृतपान करवाते रहे हैं। मंथन चाहे अमृत के लिए हो या विचारों के लिए हमें उसे स्वीकारना ही चाहिए। संसद का कोई भी सत्र बेमानी न हो। जो भी लंबित बिल हों पास हों। जनता के सवालों पर संवाद हो। उनके दुख दूर करने के जतन हों। संसद को रोकना दरअसल इस देश के साथ भी घात है। हमें अपने लोकतंत्र को जीवंत बनाना है तो प्रश्नों से भागने के बजाए उससे टकराना होगा, और समाधान निकालना होगा। आने वाले दिनों में ये कड़वाहटें कैसे धुलें इस पर ध्यान होगा। प्रबल बहुमत पाकर सत्ता में आई भाजपा अगर आज मुट्ठी भर कांग्रेस सदस्यों के चलते खुद को विवश पा रही है तो यही तो लोकतंत्र की शक्ति है। 47-48 सांसदों ने लोकसभा को बेजार कर रखा है। इसकी विधि भी सत्ता पक्ष को निकालनी होगी कि किस तरह लोकसभा को काम की सभा बनाया जाए। क्या कुछ लोगों की मर्जी के आधार पर कानून बनेंगे। अदालतों में चल रहे मुद्दों पर लोकसभा को रोकना जायज नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा हो रहा है  और समूचा देश इसे देख रहा है।  ऐसे कठिन समय में सत्ता पक्ष को आगे आकर बातचीत की कई धाराएं और कई स्तर खोलने चाहिए ताकि अड़ियल रवैया अपनाने वाले लोग बेनकाब भी हों तथा जनता के सामने सच आ सके।
सांसद भी समझें अपना कर्तव्यः सांसदों के ऊपर देश की बड़ी जिम्मेदारियां हैं। वे संसद में इस देश की जनता के प्रतिनिधि के रूप में हैं। इसलिए राजनीतिक कारणों से जनहित प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा कानून जिससे जनता को राहत की जरा भी उम्मीद है तुरंत पास करवाने के लिए सांसदों को दबाव बनाना चाहिए। देश यूं ही नहीं बनता उसे बनाने के लिए हमारे नेताओं ने लगातार संघर्ष किया है। राष्ट्रीय मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष की सीमाएं टूट जानी चाहिए। क्योंकि देश हित एक है उस पर हमें एक दिखना भी चाहिए। जिस तरह विदेश नीति के सवालों पर, पाकिस्तान के मुद्दे पर भी हमारे मतभेद प्रकट दिख रहे है, वह हमारी राजनीति के भटकाव को प्रकट करते हैं। हमें इससे बचकर एक राष्ट्र और एक जन की भावना का प्रकटीकरण राजनीति में भी करना होगा। यह देश हम सबका है। इसके संकट और सफलताएं दोनों हमारी है। इसीलिए हमने इसे पुण्यभूमि कहा है। इसके लोगों के आंसू पोंछना, उनके दर्द में साथ खड़े होना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारियां हमें निभानी होगीं। ऐसा हम कर पाए तो यह बात भारतीय लोकतंत्र के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

किसानों के दर्द में ऐसा जुड़िए जैसा जुड़ते हैं शिवराज

-संजय द्विवेदी

  किसानों की बदहाली, बाढ़ व सूखा जैसी आपदाएं भारत जैसे देश में कोई बड़ी सूचना नहीं हैं। राजनीति में किसानों का दर्द सुनने और उनके समाधान की कोई परंपरा भी देखने को नहीं मिलती। किंतु पिछले कुछ दिनों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस शैली में अपनी पूरी सरकारी मशीनरी में किसानों के दर्द के प्रति संवेदना जगाने का प्रयास कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है।
    मध्यप्रदेश जिसने लगातार तीन बार राष्ट्रीय स्तर पर कृषि कर्मण अवार्ड लेकर कृषि के क्षेत्र में अपनी शानदार उपलब्धियां साबित कीं, उसके किसान इस समय सूखे के गहरे संकट का सामना कर रहे हैं। मध्यप्रदेश के 19 जिलों के 23 हजार गांवों में कोई 27.93 लाख किसानों की 26 लाख हेक्टेयर जमीन सूखे की चपेट में है। जाहिर तौर पर संकट गहरा है और शिवराज सरकार एक विकट चुनौती से दो-चार है। ऐसे कठिन समय में दिल्ली में एक अनूकूल सरकार होने के बावजूद मध्यप्रदेश को राहत के लिए केंद्र सरकार से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिले हैं। प्रधानमंत्री,वित्तमंत्री और गृहमंत्री से मिलकर मदद की गुहार लगा  चुके शिवराज सिंह चौहान किसानों को कोई बड़ी राहत नहीं दिला सके हैं। सिवाय इस आश्वासन के कि केंद्र की टीम इन क्षेत्रों की स्थिति का जायजा लेगी। इस निराशा की घड़ी में कोई भी मुख्यमंत्री स्थितियों से टकराने के बजाए दम साध कर बैठ जाता। क्योंकि केंद्र में बैठी अपने ही दल की सरकार का विरोध तो किया नहीं जा सकता। ना ही केंद्र की इस उपेक्षा के राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं। हाल-फिलहाल मप्र के लोकसभा,विधानसभा, स्थानीय निकाय से लेकर सारे चुनाव निपट चुके हैं, सो जनता के दर्द से थोडा दूर रहा जा सकता है। विपक्ष का मध्यप्रदेश में जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। यानि शिवराज सिंह चौहान आराम से घर बैठकर इस पूरी स्थिति में निरपेक्ष रह सकते थे। किंतु वे यथास्थितिवादी और हार मानकर बैठ जाने वालों में नहीं हैं। शायद केंद्र में कांग्रेस या किसी अन्य दल की सरकार होती तो मप्र भाजपा आसमान सिर पर उठा लेती और केंद्र के खिलाफ इन स्थितियों में खासी मुखर और आंदोलनकारी भूमिका में होती। शिवराज ने इस अवसर को भी एक संपर्क अभियान में बदल दिया। अपने मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों-नौकरशाहों को मैदान में उतार दिया। वे इस बहाने बड़ी राहत तुरंत भले न दे पाए हों किंतु उन्होंने यह तो साबित कर दिया कि आपके हर दुख में सरकार आपके साथ खड़ी है। देश में माखौल बनते लोकतंत्र में यह कम सुखद सूचना नहीं है। यह साधारण नहीं है मुख्यमंत्री समेत राज्य की प्रथम श्रेणी की नौकरशाही भी सीधे खेतों में उतरी और संकट का आंकलन किया। यह भी साधारण नहीं कि मुख्यमंत्री ने इन दौरों से लौटे अफसरों से वन-टू-वन चर्चा की। इससे संकट के प्रति सरकार और उसके मुखिया की संवेदनशीलता का पता चलता है। अपने इसी कार्यकर्ताभाव और संपर्कशीलता से मुख्यमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है, वे चाहे उनके अपने दल में हों या कांग्रेस में। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की इस लोकप्रियता को चमकते शहरों में ही नहीं गांवों की पगडंडियों में भी महसूस किया जा सकता है।
  यह उनकी समस्या के प्रति गहरी समझ और किसानों के प्रति संवेदनशीलता का ही परिचायक है कि वे अपनी सरकार की सीमाओं में रहकर सारे प्रयास करते हैं तो उन्हें विविध संचार माध्यमों से जनता को परिचित भी कराते हैं। वे यहीं रूकते। केंद्र की अपेक्षित उदारता न देखते हुए वे किसानों की इस आपदा से निपटने के लिए कर्ज लेने की योजना पर भी विचार करते हैं। किसी भी मुख्यमंत्री द्वारा किसानों के दर्द में इस प्रकार के फैसले लेना एक मिसाल ही है। किसी भी राजनेता के लिए यह बहुत आसान होता है कि वह केंद्र से अपेक्षित मदद न मिलने का रोना रोकर चीजों को टाल दे किंतु शिवराज इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए दिखते हैं। यह बात खासे महत्व की है कि अपने मुख्यमंत्रित्व के दस साल पूरे होने पर भोपाल में एक भव्य समारोह का आयोजन मप्र भाजपा द्वारा किया जाना था। इस आयोजन को ताजा घटनाक्रमों के मद्देनजर रद्द करने की पहल भी स्वयं शिवराज सिंह ने की। उनका मानना है कि राज्य के किसान जब गहरे संकट के सामने हों तो ऐसे विशाल आयोजन की जरूरत नहीं है। ये छोटे-छोटे प्रतीकात्मक कदम भी राज्य के मुखिया की संवेदनशीलता को प्रकट करते हैं। यह बात बताती है किस तरह शिवराज सिंह चौहान ने राजसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम किया है। चुनाव दर चुनाव की जीत ने उनमें दंभ नहीं भरा बल्कि उनमें वह विनम्रता भरी है जिनसे कोई भी राजनेता, लोकनेता बनने की ओर बढ़ता है।
  वैसे भी शिवराज सिंह चौहान किसानों के प्रति सदैव संवेदना से भरे रहे हैं। वे खुद को भी किसान परिवार का बताते हैं। कोई चार साल पहले मप्र में कृषि कैबिनेट का गठन किया। यह सरकार का एक ऐसा फोरम है जहां किसानों से जुड़े मुद्दों पर समग्र रूप से संवाद कर फैसले लिए जाते हैं। इस सबके बावजूद यह तो नहीं कहा जा सकता कि राज्य में किसानों की माली हालत में बहुत सुधार हुआ है। किंतु इतना तो मानना ही पड़ेगा राज्य में खेती का रकबा बढ़ा है, किसानों को पानी की सुविधा मिली है, पहले की अपेक्षा उन्हें अधिक समय तक बिजली मिल रही है। इस क्षेत्र में अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह खुद कहते हैं कि खेती को लाभ का धंधा बनाना है, जाहिर है इस दिशा में उन्हें और राज्य को अभी लंबी यात्रा तय करनी है।