क्योंकि उनके पास तिरंगे से ज्यादा
बड़े और ज्यादा गहरे रंगों वाले झंडे हैं
-संजय द्विवेदी
देश भर
के तमाम हिस्सों से सांप्रदायिक उफान, गुस्सा और हिंसक घटनाएं सुनने में आ रही
हैं। वह भी उस समय जब हम अपनी सुरक्षा चुनौतियों से गंभीर रूप से जूझ रहे हैं। एक
ओर पठानकोट के एयरबेस पर हुए हमले के चलते अभी देश विश्वमंच पर पाकिस्तान को घेरने
की कोशिशों में हैं, और उसे अवसर देने की रणनीति पर काम कर रहा है। दूसरी ओर आईएस
की वैश्विक चुनौती और उसकी इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न देशों की युवा शक्ति को
फांसने और अपने साथ लेने की कवायद, जिसकी
चिंता हमें भी है। मालदा से लेकर पूर्णिया तक यह गुस्सा दिखता है, और चिंता में
डालता है। पश्चिम बंगाल और असम के चुनावों के चलते इस गुस्से के गहराने की
उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं।
कौन किसे दे रहा है
ताकतः
हम देखें तो
सांप्रदायिकता और राजनीति के रिश्ते आपस में इस तरह जुड़े हैं, जिसमें यह कहना
कठिन है कि कौन किससे ताकत पा रहा है? मालदा
की घटना में तस्कर हों या नकली नोटों के माफिया। सच तो यह है कि राजनीति उन्हें इस्तेमाल
करने के कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती। सवाल सिर्फ हिंदू-मुसलमान का है या राजनीति
का भी है। दंगे जब होते हैं या कराए जाते हैं तब इसका भी विश्लेषण होना चाहिए कि
इसके पीछे कारण क्या हैं। पता चलेगा कि पंथ के बजाए कोई और मामला है, तथा
हिंदू-मुसलमान का इस्तेमाल कर लिया जाता है। यह मानना बहुत कठिन है कि कोई भी
समाज, जाति, परिवार या वर्ग अपने परिवार के साथ सुख-शांति से नहीं रहना चाहता।
हिंसा किसे प्यारी है? आतंकवाद को कौन पालना चाहता है? लेकिन हिंसा होती है, और आतंकवाद बढ़ता है। यानि
यह सामान्य मनुष्यों का काम नहीं है। कोई भी स्वस्थ मनुष्य न तो हिंसा करेगा, न ही
वह किसी आतंकी कार्रवाई का समर्थन करेगा। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे साधारण लोग
नहीं हैं। वे दिमागी तौर पर अस्वस्थ, मनोविकारी, कुंठित और अपराधी मानसिकता के लोग
हैं । लेकिन आश्चर्य यह कि शेष समाज का समर्थन पाने में वे सफल हो जाते हैं। कोई
समय से, कोई पैसे से, कोई हथियारों से उन्हें समर्थन देता है। आखिर ये समर्थन देने
वाले लोग कौन हैं? आप वैश्विक स्तर से स्थानीय हिंसक समूहों को
देखें तो उन्हें मदद करने वाले हाथ साधारण नहीं है। आईएस के मनुष्यता-विरोधी
अभियान को तमाम देशों से मदद के प्रमाण हैं। भारत में माओवादी आतंक को भी तमाम
ताकतों का समर्थन मिलता है। इसी तरह सांप्रदायिकता के विषधरों को भी समाज के तमाम
तबकों से अलग-अलग रूपों में समर्थन मिलता है।
देश के कानून पर
कीजिए भरोसाः
क्या कारण है हिंसक घटनाओं के पीछे हमारी
राजनीतिक पार्टियों के तार जुड़े नजर आते हैं? मालदा
की घटना की जैसी व्याख्या मीडिया में हो रही है, उसे समझने की जरूरत है। क्या पंथ
पर हमला ही उन्हें उत्तेजित कर सका या उसके पीछे कहानी कुछ और थी। यह भी गजब है कि
जिस मुस्लिम के नेता अपने समाज की गरीबी, अशिक्षा, बदहाली और पिछड़ेपन पर खामोश
रहते हैं वे एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सड़क पर एक माह बाद उतरते हैं, जब उसे जेल
में डालकर उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की जा चुकी है। यह बात
बताती है कि हम इस देश के कानून पर भी भरोसा करने को तैयार नहीं है। भारत के
लोकतांत्रिक- जनतांत्रिक चरित्र पर विश्वास को तैयार नहीं। किसी भी
व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई इस देश के कानून के हिसाब से होगी। फांसी मांगने से
फांसी नहीं मिल सकती। यह भी गजब है कि आतंकवादियों को फांसी देने का विरोध करने वाली
शक्तियां, किसी को एक बयान के आधार पर फांसी पर लटकाने की मांग करती हैं।
वोट बैंक की राजनीति
से समस्याः
भारत का संविधान और कानून सबके लिए बराबर
है। संविधान के दायरे में आकर अपने अधिकारों की मांग करना तो ठीक है। किंतु थाना
जलाना, गोलियां चलाना और दहशत पैदा करना कहां का तरीका है। समूची दुनिया में
मुस्लिम समाज के सामने ये सवाल खड़े हैं। अपनी प्रतिक्रिया में संयम न रखना आज
मुस्लिम समाज के समाज के सामने एक चुनौती है। अपने पंथ की ऐसी आक्रामक छवि बनता
देखकर भी उसके नेताओं में चिंता नहीं दिखती। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए
उनका इस्तेमाल करते आए हैं करते रहेंगें। किंतु यह भी सोचना होगा कि आप कब तक इस्तेमाल
होते रहेंगे। नकली नोटों के कारोबारी, हथियारों के सप्लायर, अवैध कारोबारों में
लिप्त लोग अगर समाज का इस्तेमाल कर अपनी ताकत को बचाना चाहते हैं तो समाज को भी
होशियार होना चाहिए। राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों, समाज के अगुआ लोगों को इस तरह
की प्रवृत्ति के खिलाफ समाज को जागृत करना होगा। लोगों की भावनाओं से खेलने का काम
बहुत हो चुका। अब लोगों में वैज्ञानिक सोच जगाने और मानवता को सबसे बड़ा दर्जा
देने का विचार आगे बढ़ाना होगा। गलत करने वाले को सजा देने वाले हम कौन हैं? कानून को हाथ में लेकर, तोड़फोड़ और आगजनी कर
क्या हम अपने पंथ, उसकी पवित्र शिक्षाओं का आदर कर रहे हैं?
युवाओं को बचाइएः
हमारे युवा गुमराह होकर आतंकवाद की राह
पकड़कर युवा अवस्था में ही मौत की भेंट चढ़ रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि हमारे समाज
के अगुआ, धर्मगुरू, शिक्षक, बुद्धिजीवी सब हार रहे हैं। भारत हार रहा है। एक
लोकतंत्र में होते हुए भी अगर हमारी सांसें घुट रही हैं, हम विचारों को व्यक्त
करने के बजाए दहशत पैदा कर, थाने जलाकर, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाकर अपनी
कुठाएं निकाल रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमने कैसा भारत बनाया है। भारत
जैसे देश में जहां सब पंथों, समाजों और वर्गों को सम्मान और आदर के साथ रहने के
समान अवसर हैं, वहां हिंसा की राह पकड़ रहा कोई भी समूह भारत-प्रेमी नहीं कहा जा
सकता। अपने रोष और गुस्से को निकालने के लिए तमाम संवैधानिक और सत्याग्रही तरीके
हमारी परंपरा में हैं, हम उनका अनुसरण करें और न्याय प्राप्त करें। एक न्यायपूर्ण
समाज बनाने के लिए जनता का जाग्रत होना भी जरूरी है।
समाज को बांटकर शक्ति नहीं पायी जा सकती। सब
साथ मिलकर विकास करें। सपनों में रंग भरें तभी भारत बचेगा और तभी हमारी शान दुनिया
में बनेगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि राजनीति में अगर पंथिक राजनीति हस्तक्षेप
करेगी, सांप्रदायिक भावनाएं वोट-बैंक के निर्माण में मददगार होंगी। हिंसा और
आतंकवाद के खिलाफ हमारा दृष्टिकोण चयनित होगा, एक हिंसा पर खामोशी, दूसरी हिंसा पर
बवेला होगा, तब सांप्रदायिकता से कैसे लड़ेगें। यह सवाल आज हम सबके सामने है, उनके
सामने भी- जो दादरी पर चीखते हैं, पर मालदा पर खामोश हैं। उनके सामने भी जो प्रवीण
तोगड़िया से दुखी हैं पर आजम खान से उन्हें परहेज नहीं है। काश राजनीति वाणी संयम
और भारत-प्रेम की भावनाओं से लबरेज होती तो हम ऐसे सामाजिक संकटों का आसानी से
मुकाबला कर पाते। लेकिन अफसोस राजनीतिक दलों के पास तिरंगे से ज्यादा बड़े और ज्यादा
गहरे रंगों वाले झंडे हैं।
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