आभासी सांप्रदायिकता को स्थापित करने में लगी शक्तियों के इरादों को समझें
-संजय द्विवेदी
सड़क से लेकर संसद तक असहिष्णुता की चर्चा है। बढ़ती सांप्रदायिकता की चर्चा है। कलाकार, साहित्यकार सबका इस फिजां में दम घुट रहा है और वे दौड़-दौड़कर पुरस्कार लौटा रहे हैं। राष्ट्रपति से लेकर आमिर खान तक सब इस चिंता में शामिल हो चुके हैं। भारत की सूरत और शीरत क्या सच में ऐसी है, जैसी बतायी जा रही है या यह ‘आभासी सांप्रदायिकता’ को स्थापित करने के लिए गढ़ा जा रहा एक विचार है। आज के भारतीय संदर्भ में पाश्चात्य विचारक मिशेस फूको की यह बात मौजूं हो सकती है जो कहते हैं कि “विमर्श एक हिंसा है जिसके द्वारा लोग अपनी बात सही सिद्ध करना चाहते हैं।”
भारत जिसे हमारे ऋषियों, मुनियों, राजाओं, महान सुधारकों, नेताओं और इस देश की महान जनता ने बनाया है, सहिष्णुता और उदात्तता यहां की थाती है। अनेक संकटों में इस देश ने कभी अपने इस नैसर्गिक स्वभाव को नहीं छोड़ा। तमाम विदेशी हमलों, आक्रमणों, 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बावजूद भी नहीं। यही हिंदु स्वभाव है, यही भारतीय होना है। यहां सत्ता में नहीं, समाज में वास्तविक शक्ति बसती है। सत्ता कोई भी हो, कैसी हो भी। समाज का मन निर्मल है। वह सबको साथ लेकर चल सकने की क्षमता से लैस है। यही राम राज्य की कल्पना है। जिसे महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक एक नारे या सपने की तरह इस्तेमाल करते हैं। राम राज्य जुमला नहीं है,एक ऐसी कल्पना है जिसमें लोकतंत्र की औदार्यता के दर्शन होते हैं। रामराज्य दरअसल भारतीय राज्य का सबसे बड़ा प्रतीक है। जहां तुलसीदास कृत रामचरित मानस में उसकी व्याख्या मिलती है-
सब नर चलहिं परस्पर प्रीती
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।
हमारी परंपरा सिर्फ गौरवगान के लिए नहीं है बल्कि वास्तव में इन्हीं भावों से अनुप्राणित है। वह सबमें प्रेम और सद्भावना तो चाहती है और आपको आपके ‘स्वधर्म’ पर चलने के लिए प्रेरित भी करती है। किंतु लगता है कि एक झूठ को सौ बार बोलकर उसे सच बना देने वाली ताकतों का भरोसा अभी भी टूटा नहीं है। वे निरंतर इस महादेश को जिसके समानांतर पूरी कम्युनिस्ट दुनिया और पूरी इस्लामी दुनिया के पास कोई देश नहीं है, को लांछित करना चाहती हैं। राज्य के खिलाफ संघर्ष को वे देश के खिलाफ संघर्ष में बदल रही हैं। एक नेता से उनकी नफरत उन्हें अपने देश के खिलाफ षडयंत्र करने की प्रेरणा बन गयी है। आखिर इस देश में मर्ई,2014 के बाद ऐसा क्या घटा, जिसे लेकर ये इतने संवेदनशील और बैचैन हैं।
इस देश की बन रही वैश्चिवक छवि को मटियामेट करने के ये यत्न संदेह जगाते हैं। पुरस्कार वापसी के सिलसिले स्वाभाविक नहीं लगते, क्योंकि इनकी टाइमिंग पर सवाल पहले दिन से उठ रहे हैं। देश का प्रधानमंत्री इस देश के लोगों से शक्ति पाकर सत्ता तक पहुंचता है। मोदी भारतीय लोकतंत्र का परिणाम हैं। क्या आप जनता के द्वारा दिए गए जनमत को भी नहीं मानते। नरेंद्र मोदी को मिले जनादेश को न स्वीकारना और उन्हें काम करने के अवसर न देना एक तरह का अलोकतांत्रिक प्रयत्न है। एक गरीब परिवार से आकर, अपनी देश की भाषा में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने जो कुछ अर्जित किया है, वही इस देश के लोकतंत्र का सौंदर्य है। नरेंद्र मोदी को लांछित करने वाले यह भूल जाते हैं कि हर तरह के विरोधों और षडयंत्रों ने मोदी को शक्तिमान ही बनाया है। देश की जनता को ये उठाए जा रहे भ्रम प्रभावित करते हैं। लोग पूछने लगे हैं कि आखिर असहिष्णुता कहां है भाई?दुनिया के पैमाने पर हो रही तमाम घटनाएं हमारे सामने हैं। इस रक्तरंजित दुनिया को शांति की राह दिखाने वाले देश भारत को लांछित करने का कोई कारण नहीं है। भारत और उसका मन विश्व को अपना परिवार मानने की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओतप्रोत है। यह भारत ही है जिसने विविधता और बहुलता को आचरण में लाकर विश्व मानस को प्रभावित किया है। हमारे तमाम देवी- देवता और प्रकृति के साथ हमारा संवाद, चार वेद, दो महाकाव्य-रामायण और महाभारत, अठारहों पुराण और एक सौ आठ उपनिषद इसी विविधता के परिचायक हैं। इस विविधता को स्वीकारना और दूसरी आस्थाओं का मान करना हमें हमारी जड़ों से मिला है। इसीलिए हम कहते हैं-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नं।
यानि अठारहों पुराणों में व्यास जी दो ही बातें कहते हैं, परोपकार पुण्य है और पाप है दूसरों को कष्ट देना। यानि भारत का मन पाप और पुण्य को लेकर भ्रम में नहीं है। उसे पता है कि दूसरों को जगह देना, उन्हें और उनकी आस्था को मान देना कितना जरूरी है। वह जानता है कि विविधता और बहुलता को आदर देकर ही वह अपने मानबिंदुओं का आदर कर पाएगा। किंतु यह उदार संस्कृति अगर साथ ही, यह भी चाहती है कि हम तो आपकी आस्था का मान करते हैं आप भी करेगें तो अच्छा रहेगा, तो इसमें गलत क्या है? परस्पर सम्मान की इस मांग से ही आप सांप्रदायिक धोषित कर दिए जाते हैं। यह कहां की जिद है कि आप तो हमारे विचारों का, आस्था का मान करें किंतु हम आपके मानविंदुओं और आस्था का विचार नहीं करेगें। अगर ऐसा होता तो क्या अयोध्या में राममंदिर के लिए मुकदमा अदालत में होता। कभी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता सैय्यद शहाबुद्दीन ने कहा था कि यह प्रमाणित हो जाए कि कि बाबरी ढांचे के नीचे कोई हिंदू मंदिर था तो वे इस पर दावा छोड़ देगें। आज अदालत प्रमाणित कर चुकी है कि यह राम जन्मभूमि है। किंतु विरोधी पक्ष सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। गाय को लेकर भी जैसी गलीज बहसें चलाई गयीं, वह यही बताती हैं। सहिष्णुता का पाठ पढाने वालों को इतना ही देखना लेना चाहिए कि इस हिंदु बहुल देश में भी कश्मीरी हिंदुओं को विस्थापन झेलना पड़ा। इस पाप के लिए माफी कौन मांगेगा?
जाहिर तौर पर एक शांतिप्रिय समाज को, एक समरसतावादी समाज को जब आप बार-बार लांछित करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उसे यह अच्छा ही लगे। हिंदु मन प्रतिक्रियावादी मन नहीं है। उसे दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार रखना ही है, भले ही अन्य उसके साथ कैसा भी आचरण करें। इस मन को खराब मत कीजिए। पेड़, पौधों, नदियों, मंदिरों, मजारों, गुरूद्वारों सब जगह मत्था टेकता यह भारतीय मन है, इसे आहत मत कीजिए। यह तो गायों, कौवों, कुत्तों का भी विचार करता है, खाने के लिए उनके लिए हिस्सा निकालता है। उसे असहिष्णु मत कहिए। उसने गोस्वामी तुलसीदास की वाणी-
परहित सरिस धरम नहीं भाई,
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
को आत्मसात किया है। उसे पता है कि दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। इसलिए उसके हाथ गलत करते हुए कांपते हैं। उसके पैर भी यह विचार करते हैं कि कोई चींटी भी उसके पैरों तले ना आ जाए। इसलिए उसकी इस सदाशयी वृत्ति, परोपकार चेतना, दान शीलता, सद्भावना, दूसरों की आस्थाओं को सम्मान देने की भावना का मजाक मत बनाइए। इस देश को नेताओं और राजनीतिक दलों ने नहीं बनाया है। यह राष्ट्र ऋषियों और मुनियों ने बनाया है। पीर-फकीरों ने बनाया है, उनकी नेकनीयती और दिनायतदारी ने बनाया है। राजसत्ता यहां बंटी रही, राजाओं के राज बंटे रहे किंतु भारत एक सांस्कृतिक प्रवाह से अपनी महान जनता के आत्मविश्वास में कायम रहा है। इसीलिए हम कह पाए-
हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षयते ।।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षयते ।।
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति: ।।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति: ।।
इसलिए उनसे इस तर्क का कोई मतलब नहीं है जो यह मानते,लिखते और कहते हैं कि यह राष्ट्र तो टुकड़ों में बंटा था और 1947 में अंग्रेज हमें इसे एक करके दे गए। ये वे लोग हैं जो न देश को समझते हैं, न इसके इतिहास को। जिन्हें इस राष्ट्र की अस्मिता को लांछित करने, इसके इतिहास की विकृत व्याख्याओं में ही आनंद आता है। उन्हें सारे गुण और गुणवान इस देश की घरती के बाहर ही नजर आते हैं। ऐसे जानबूझकर अज्ञानी बनी जमातों को हम हिंदुस्तान समझा रहे हैं। उसकी रवायतों और विरासतों को समझा रहे हैं, तो यह होने वाला नहीं हैं। आज राजनीतिक रूप से ठुकराई जा चुकी ताकतों द्वारा सम्मानित‘रायबहादुरों’ की इस पुरस्कार वापसी पर बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं के लिए ईसा ने कहा था- “हे प्रभु इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।“
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें