शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

छात्र-युवा ही बनाएगें समर्थ भारत


-संजय द्विवेदी
  भारत इस अर्थ में गौरवशाली है कि वह एक युवा देश है। युवाओं की संख्या के हिसाब से भी, अपने सार्मथ्य और चैतन्य के आधार पर भी। भारत एक ऐसा देश है, जिसके सारे नायक युवा हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, जगदगुरू शंकराचार्य और आधुनिक युग के नायक विवेकानंद तक। युवा एक चेतना है, जिसमें उर्जा बसती है, भरोसा बसता है, विश्वास बसता है, सपने पलते हैं और आकाक्षाएं धड़कती हैं। इसलिए युवा होना भारत को रास आता है। भारत के सारे भगवान युवा हैं। वे बुजुर्ग नहीं होते। यही चेतना भारत की जीवंतता का आधार है।
  आज जबकि दुनिया के तमाम देशों में युवा शक्ति का अभाव दिखता है। भारत का चेहरा उनमें अलग है। छात्र होना सीखना है, तो युवा होना कर्म को पूजा मानकर जुट जाना है। एक सीख है, दूसरा कर्म है। सीखी गयी चीज को युवा परिणाम देते हैं। ऐसे में भारत की छात्र शक्ति को सीखने के बेहतर अवसर देना, उनकी प्रतिभा को उन्नयन के लिए नए आकाश देना, हमारे समाज और सरकारों की जिम्मेदारी है। छात्र को ठीक से गढ़ा न जाएगा तो वह एक आर्दश नागरिक कैसे बनेगा। देश के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन वह कैसे करेगा। भारत के शिक्षा परिसर ही नए भारत के निर्माण की आधारशिला हैं अतः उनका जीवंत होना जरूरी है।
अराजनैतिक छात्र शक्ति का निर्माणः
 देश में पूरी तरह से ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें छात्र सिर्फ अपने बारे में सोचे, कैरियर के बारे में सोचे। उसमें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों, राष्ट्र के प्रति सदभाव पैदा हो, इस ओर प्रयास जरूरी हैं। जरूरी है कि वे देश के बारे में जानें, उसकी विविधताओं और बहुलताओं का सम्मान करें ऐसे नागरिक बनें जो विश्वमंच पर भारत की प्रतिष्ठा बना सकें। तमाम सामाजिक संगठनों से जुड़कर छात्र युवा शक्ति तमाम सामाजिक प्रकल्पों को चलाती भी है। किंतु हमारी शिक्षा में ऐसी व्यवस्था नदारद है। आज ऐसा लगता है कि शिक्षा से तो वे जो कुछ प्राप्त करते हैं उससे वे मनुष्य कम मशीन ज्यादा बनते हैं। वे काम के लोग बनते हैं किंतु नागरिक और राष्ट्रीय चेतना से लैस मनुष्य नहीं बन पाते है। छात्रों-युवाओं में राष्ट्रीय चेतना सामान्य व्यक्ति से ज्यादा होती है। इसलिए देश की शिक्षा व्यवस्था में अगर राष्ट्रीय भाव होते तो आज हालात अलग होते। हालात यह हैं कि जो छात्र युवा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से न जुड़े हों तो उनकी राष्ट्रीय विषयों पर कोई सोच नहीं होती है, क्योंकि उन्हें इस दिशा में सोचने और काम करने का अवसर ही नहीं मिलता। इस प्रकार हमने छात्र–युवाओं को पूरी तरह अराजनैतिक और व्यक्तिगत सोच वाला बना दिया है। आज मुख्यधारा का छात्र-युवा, आनंद और उत्सवों में मस्त है। वह पार्टियों और मस्त माहौल को ही अपना सर्वस्व समझ रहा है। ऐसी स्थितियों में यह जरूरी है कि छात्रों का राजनीतिकरण हो, उन्हें वैचारिक आधार से लैस किया जाए, और देश के प्रश्नों पर वे संवाद करें। आज देश के तमाम परिसरों में छात्रसंघ चुनाव भी नहीं कराए जाते। आखिर एक लोकतांत्रिक देश में छात्रों के राजनीतिकरण से किसे डर लगता है। सच तो यह है कि सत्ताएं चाहती हैं कि युवा मस्त-मस्त जीवन जीते रहें, और समाज में खड़े प्रश्नों से न टकराएं। वे पार्टियों में झूमते रहें और मनोरंजन ही उनका आधार बने। मनोरंजन और कैरियर से आगे सोचने वाली युवा शक्ति का अभाव सबसे बड़ी चुनौती है।
शिक्षा परिसरों को जीवंत बनाने की जरूरतः
आवश्यक्ता इस बात की है कि शिक्षा परिसरों को ज्यादा जीवंत और ज्यादा प्रासंगिक बनाया जाए। परिसरों को सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर प्रशिक्षण का केंद्र बनाया जाए। अगर परिसर जीवंत होंगे तो नया समाज भी जीवंत बनेगा। भारतीय परंपरा में संवाद और विवाद की अनंत धाराएं रही हैं। यह समाज संवादित समाज है। जिन दिनों संचार के साधन उतने नहीं थे तो भी समाज उतना ही संवादित था। कुंभ से लेकर अनेक मेलों में समाज संवाद करता था। नए समय ने समाज के संवाद के अनेक मार्ग बंद कर दिए हैं। सामयिक प्रश्नों पर संवाद कम होने के कारण नई पीढ़ी को देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चुनौतियों से रू-ब-रू होने का अवसर ही नहीं मिलता। इसलिए देश के युवा आज अपने समय की चुनौतियों को नहीं पहचान पा रहे हैं। मुख्यधारा के युवाओं को एक ऐसा युवा बनाया जा रहा है जो कैरियर और मनोरंजन से आगे न सोच सके। इस प्रकार सामाजिक सोच का विकास बाधित हो रहा है।
छात्र संगठन निभाएं जिम्मेदारीः
 छात्र संगठनों की यह जिम्मेदारी है कि राजनीतिक दलों के पिछलग्गू बनने के बजाए अपने दायरे से बाहर आएं। शिक्षा और शिक्षक जहां साथ छोड़ रहे हैं, छात्र संगठनों को वहीं छात्रों का साथ पकड़ना होगा। छात्र संघों को छात्रों की सर्वांगीण प्रतिभा के उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करना होगा। छात्र संघ अपनी भूमिका का विस्तार करते हुए सिर्फ छात्र समस्याओं और राजनीतिक कामों के बजाए देश के सवालों पर सोचने का उन पर विमर्श का कार्य भी हो सकता है। छात्र शक्ति की सक्रिय भागीदारी से देश में आमूल चूल परिवर्तन आ सकता है। एक मिशन और ध्येय पैदा होते ही छात्र एक ऐसी युवा शक्ति में परिवर्तित हो जाता है, जिससे देश का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होता है। देश के सब क्षेत्रों में आंदोलन कमजोर हुए हैं। आंदोलनों के कमजोर होने कारण विविध क्षेत्रों की वास्तविक आवाजें सुनाई देनी बंद हो गयी है। इसके चलते सत्ता का अतिरेक और आत्मविश्वास बढ़ रहा है। जनसंगठन और छात्र संगठन एक सामाजिक दंड शक्ति के रूप में काम करें, इसके लिए उन्हें सचेतन प्रयास करने होंगे। इससे सत्ता और प्रशासन को भी सामाजिक शक्ति का विचार करना पड़ता है। एक लोकतंत्र में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी ही उसे सफल और सार्थक बनाती है। अगर नागरिक जागरूक नहीं होते तो उनको उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। एक सोया हुआ समाज कभी भी न्याय प्राप्ति की उम्मीद नहीं कर सकता। एक जागृत समाज ही अपने हितों की रक्षा करता हुआ अपने राष्ट्र की प्रगति में योगदान देता है। अगर छात्रों में छात्र जीवन से ही ये मूल्य स्थापित कर दिए जाएं तो वे आगे चलकर एक सक्रिय नागरिक बनेंगे, इसमें दो राय नहीं है। उन्हें अपनी जड़ों से प्रेम होगा, अपनी संस्कृति से प्रेम होगा, अपने समाज और उसके लोगों से प्यार होगा। वह नफरत नहीं कर पाएगा कभी किसी से। क्योंकि उसके मन में राष्ट्रीय भावना का प्रवेश हो चुका होगा। वह राष्ट्र को सर्वोपरि मानेगा, राष्ट्र के नागरिकों को अपना भाई-बंधु मानेगा। वह जानेगा कि उसके कार्य का क्या परिणाम है। उसे पता होगा कि देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का सामना उसे कैसै करना है। देश के छात्र संगठन अपनी-अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक धाराओं को मजबूत करते हुए भी राष्ट्र प्रथम यह भाव अपने संपर्क में आने वाले युवाओं में भर सकते हैं। सही मायने में यही युवा आगे चलकर समर्थ भारत बनाएंगे।

जब संसद भी बेमानी हो जाए


-संजय द्विवेदी
  प्रदर्शन सड़क पर होने चाहिए और बहस संसद में। लेकिन हो उल्टा रहा है प्रदर्शन संसद में हो रहे हैं, बहस सड़क और टीवी न्यूज चैनलों पर। ऐसे में हमारी संसदीय परम्पराएं और उच्च लोकतांत्रिक आदर्श हाशिए पर हैं। राजनीति के मैदान में जुबानी कड़वाहटें अपने चरम पर हैं और मीडिया इसे हवा दे रहा है। सही मायने में भारतीय संसदीय इतिहास के लिए ये काफी बुरे दिन हैं। संसद और विधानसभाएं अगर महत्व खो रही हैं तो हमारे राजनेता भी अपना प्रभाव खो बैठेंगें। बहस के लिए बनी संस्थाओं में नाहक मुद्दों के आधार पर जिस तरह बाधा डाली जा रही है, उससे लगता है किसंसदीय परम्पराओं और मूल्यों की हमारे राजनीतिक दलों को बहुत परवाह नहीं है।
  बढ़ती कड़वाहटों ने संवाद का स्तर तो गिराया ही है, आपसी संबंधों पर भी तुषारापात किया है। सत्ता परिवर्तन को सहजता से स्वीकार न करके सत्ता में बने रहने के अभ्यासी दल बेतुकी प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं। संसद के अंदर जैसे दृश्य रोज बन रहे हैं और उसके चलते हमारी राजनीति का जो चेहरा बन रहा है, उससे उसके प्रति जनता वितृष्णा और बढ़ेगी। क्या जनता के हित और देशहित अलग-अलग हैंअगर दोनों एक ही हैं तो जनता को राहत देने वाले कानूनों को तुरंत पास करने के लिए हमारे राजनीतिक दल एक क्यों नहीं है? क्या यह श्रेय की लड़ाई है या फिर जनता की परवाह किसी को नहीं है।
महत्व खोती संसदः इस पूरे विमर्श की सबसे बड़ी चिंता यह है कि संसद और विधानसभाएं महत्व खो रही हैं। उनका चलना मुश्किल है, और उन्हें चलाने की कोशिशें भी नदारद दिखती हैं। सत्ता पक्ष की अपनी अकड़ है तो विपक्ष के दुराग्रह भी साफ दिखते हैं। समाधान निकालने की कोशिशें नहीं दिखती और जनता का हितों को हाशिए लगते देख भी किसी को दर्द नहीं हो रहा है। लोकसभा अध्यक्ष के तमाम प्रयासों के बाद भी संवाद सहज होता नहीं दिख रहा है। अगर संसद में कानून नहीं बनेंगे, संसद में विमर्श न होंगें तो क्या होगा?  यह संकट पूरी संसदीय प्रक्रिया और राजनीति के सामने है। राजनीति का क्षेत्र बहुत जिम्मेदारी का है और जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसमें इस जिम्मेदारी के भाव का अभाव दिखता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय प्रक्रिया के इस मर्म को समझा और संसद को उदार लोकतांत्रिक मूल्यों का मंच बनाने के लिए उन्होंने काफी जतन किए। अपने विपक्षी सदस्यों की भावनाओं और उनके तर्कों को उन्होंने अपने खिलाफ होने के बावजूद सराहा। आज उनकी ही पार्टी नाहक सवालों का संसद का समय नष्ट करती हुयी दिखती है। लोकतंत्र की रक्षा और उसके संसदीय परम्पराओं को बचाए, बनाए रखना और निरंतर समृद्ध करना सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है। किंतु राष्ट्रीय दलों को यह जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि  उनके आचरण और व्यवहार की छोटे दल नकल करते हैं। संसद से जो लहर चलती है वह राज्यों तक जाती है। अगर संसद नहीं चलेगी तो उसके परिणाम यह होंगे कि विधानसभाएं भी अखाड़ा बन जाएगीं। संसद दरअसल हमारे एक संपूर्ण भारतीय जनशक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति है। अगर वह बंटी-बंटी दिखेगी तो यह ठीक नहीं। कम से कम जनता के सवालों पर, राष्ट्रीय प्रश्नों पर संसद एक दिखेगी तो इसके दूरगामी शुभ परिणाम दिखेंगे।
सत्ता पक्ष अपनाए लचीला रवैयाः संसद को चलाना दरअसल सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी होती है। सत्ता पक्ष थोड़ा लचीला रवैया अपना कर सबको साथ ले सकता है। लोकतंत्र में हमारे संविधान ने ही सबकी हदें और सरहदें तय कर रखी हैं। मीडिया के उठाए प्रश्नों में उलझने के बजाए हमारे राजनेता संवाद को निरंतर रखने की विधियों पर जोर दें। संसद भारत की संवाद परम्परा का एक अद्भुत मंच है। जहां पूरा देश एक होता हुआ दिखता है। देश के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि यहां आकर देश की भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। इसे ज्यादा जीवंत और सार्थक बनाने की जरूरत है। संसद और संवाद कभी बाधित न हो यह परम्परा ही हमारी संसदीय परम्परा को सम्मानित बनाएगी। संसद को कभी राजनीतिक दलों के निजी हितों का अखाड़ा नहीं बनने देना चाहिए। नारे बाजी और शोरगुल से न तो समस्याओं का समाधान होता, ना ही ध्यान जाता है। हमारी परंपरा में बहसों का अनंत आकाश रहा है, शास्त्रार्थ हमारी परंपरा में है। इससे निकले निकष ही समाज को अमृतपान करवाते रहे हैं। मंथन चाहे अमृत के लिए हो या विचारों के लिए हमें उसे स्वीकारना ही चाहिए। संसद का कोई भी सत्र बेमानी न हो। जो भी लंबित बिल हों पास हों। जनता के सवालों पर संवाद हो। उनके दुख दूर करने के जतन हों। संसद को रोकना दरअसल इस देश के साथ भी घात है। हमें अपने लोकतंत्र को जीवंत बनाना है तो प्रश्नों से भागने के बजाए उससे टकराना होगा, और समाधान निकालना होगा। आने वाले दिनों में ये कड़वाहटें कैसे धुलें इस पर ध्यान होगा। प्रबल बहुमत पाकर सत्ता में आई भाजपा अगर आज मुट्ठी भर कांग्रेस सदस्यों के चलते खुद को विवश पा रही है तो यही तो लोकतंत्र की शक्ति है। 47-48 सांसदों ने लोकसभा को बेजार कर रखा है। इसकी विधि भी सत्ता पक्ष को निकालनी होगी कि किस तरह लोकसभा को काम की सभा बनाया जाए। क्या कुछ लोगों की मर्जी के आधार पर कानून बनेंगे। अदालतों में चल रहे मुद्दों पर लोकसभा को रोकना जायज नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा हो रहा है  और समूचा देश इसे देख रहा है।  ऐसे कठिन समय में सत्ता पक्ष को आगे आकर बातचीत की कई धाराएं और कई स्तर खोलने चाहिए ताकि अड़ियल रवैया अपनाने वाले लोग बेनकाब भी हों तथा जनता के सामने सच आ सके।
सांसद भी समझें अपना कर्तव्यः सांसदों के ऊपर देश की बड़ी जिम्मेदारियां हैं। वे संसद में इस देश की जनता के प्रतिनिधि के रूप में हैं। इसलिए राजनीतिक कारणों से जनहित प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा कानून जिससे जनता को राहत की जरा भी उम्मीद है तुरंत पास करवाने के लिए सांसदों को दबाव बनाना चाहिए। देश यूं ही नहीं बनता उसे बनाने के लिए हमारे नेताओं ने लगातार संघर्ष किया है। राष्ट्रीय मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष की सीमाएं टूट जानी चाहिए। क्योंकि देश हित एक है उस पर हमें एक दिखना भी चाहिए। जिस तरह विदेश नीति के सवालों पर, पाकिस्तान के मुद्दे पर भी हमारे मतभेद प्रकट दिख रहे है, वह हमारी राजनीति के भटकाव को प्रकट करते हैं। हमें इससे बचकर एक राष्ट्र और एक जन की भावना का प्रकटीकरण राजनीति में भी करना होगा। यह देश हम सबका है। इसके संकट और सफलताएं दोनों हमारी है। इसीलिए हमने इसे पुण्यभूमि कहा है। इसके लोगों के आंसू पोंछना, उनके दर्द में साथ खड़े होना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारियां हमें निभानी होगीं। ऐसा हम कर पाए तो यह बात भारतीय लोकतंत्र के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

किसानों के दर्द में ऐसा जुड़िए जैसा जुड़ते हैं शिवराज

-संजय द्विवेदी

  किसानों की बदहाली, बाढ़ व सूखा जैसी आपदाएं भारत जैसे देश में कोई बड़ी सूचना नहीं हैं। राजनीति में किसानों का दर्द सुनने और उनके समाधान की कोई परंपरा भी देखने को नहीं मिलती। किंतु पिछले कुछ दिनों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस शैली में अपनी पूरी सरकारी मशीनरी में किसानों के दर्द के प्रति संवेदना जगाने का प्रयास कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है।
    मध्यप्रदेश जिसने लगातार तीन बार राष्ट्रीय स्तर पर कृषि कर्मण अवार्ड लेकर कृषि के क्षेत्र में अपनी शानदार उपलब्धियां साबित कीं, उसके किसान इस समय सूखे के गहरे संकट का सामना कर रहे हैं। मध्यप्रदेश के 19 जिलों के 23 हजार गांवों में कोई 27.93 लाख किसानों की 26 लाख हेक्टेयर जमीन सूखे की चपेट में है। जाहिर तौर पर संकट गहरा है और शिवराज सरकार एक विकट चुनौती से दो-चार है। ऐसे कठिन समय में दिल्ली में एक अनूकूल सरकार होने के बावजूद मध्यप्रदेश को राहत के लिए केंद्र सरकार से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिले हैं। प्रधानमंत्री,वित्तमंत्री और गृहमंत्री से मिलकर मदद की गुहार लगा  चुके शिवराज सिंह चौहान किसानों को कोई बड़ी राहत नहीं दिला सके हैं। सिवाय इस आश्वासन के कि केंद्र की टीम इन क्षेत्रों की स्थिति का जायजा लेगी। इस निराशा की घड़ी में कोई भी मुख्यमंत्री स्थितियों से टकराने के बजाए दम साध कर बैठ जाता। क्योंकि केंद्र में बैठी अपने ही दल की सरकार का विरोध तो किया नहीं जा सकता। ना ही केंद्र की इस उपेक्षा के राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं। हाल-फिलहाल मप्र के लोकसभा,विधानसभा, स्थानीय निकाय से लेकर सारे चुनाव निपट चुके हैं, सो जनता के दर्द से थोडा दूर रहा जा सकता है। विपक्ष का मध्यप्रदेश में जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। यानि शिवराज सिंह चौहान आराम से घर बैठकर इस पूरी स्थिति में निरपेक्ष रह सकते थे। किंतु वे यथास्थितिवादी और हार मानकर बैठ जाने वालों में नहीं हैं। शायद केंद्र में कांग्रेस या किसी अन्य दल की सरकार होती तो मप्र भाजपा आसमान सिर पर उठा लेती और केंद्र के खिलाफ इन स्थितियों में खासी मुखर और आंदोलनकारी भूमिका में होती। शिवराज ने इस अवसर को भी एक संपर्क अभियान में बदल दिया। अपने मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों-नौकरशाहों को मैदान में उतार दिया। वे इस बहाने बड़ी राहत तुरंत भले न दे पाए हों किंतु उन्होंने यह तो साबित कर दिया कि आपके हर दुख में सरकार आपके साथ खड़ी है। देश में माखौल बनते लोकतंत्र में यह कम सुखद सूचना नहीं है। यह साधारण नहीं है मुख्यमंत्री समेत राज्य की प्रथम श्रेणी की नौकरशाही भी सीधे खेतों में उतरी और संकट का आंकलन किया। यह भी साधारण नहीं कि मुख्यमंत्री ने इन दौरों से लौटे अफसरों से वन-टू-वन चर्चा की। इससे संकट के प्रति सरकार और उसके मुखिया की संवेदनशीलता का पता चलता है। अपने इसी कार्यकर्ताभाव और संपर्कशीलता से मुख्यमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है, वे चाहे उनके अपने दल में हों या कांग्रेस में। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की इस लोकप्रियता को चमकते शहरों में ही नहीं गांवों की पगडंडियों में भी महसूस किया जा सकता है।
  यह उनकी समस्या के प्रति गहरी समझ और किसानों के प्रति संवेदनशीलता का ही परिचायक है कि वे अपनी सरकार की सीमाओं में रहकर सारे प्रयास करते हैं तो उन्हें विविध संचार माध्यमों से जनता को परिचित भी कराते हैं। वे यहीं रूकते। केंद्र की अपेक्षित उदारता न देखते हुए वे किसानों की इस आपदा से निपटने के लिए कर्ज लेने की योजना पर भी विचार करते हैं। किसी भी मुख्यमंत्री द्वारा किसानों के दर्द में इस प्रकार के फैसले लेना एक मिसाल ही है। किसी भी राजनेता के लिए यह बहुत आसान होता है कि वह केंद्र से अपेक्षित मदद न मिलने का रोना रोकर चीजों को टाल दे किंतु शिवराज इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए दिखते हैं। यह बात खासे महत्व की है कि अपने मुख्यमंत्रित्व के दस साल पूरे होने पर भोपाल में एक भव्य समारोह का आयोजन मप्र भाजपा द्वारा किया जाना था। इस आयोजन को ताजा घटनाक्रमों के मद्देनजर रद्द करने की पहल भी स्वयं शिवराज सिंह ने की। उनका मानना है कि राज्य के किसान जब गहरे संकट के सामने हों तो ऐसे विशाल आयोजन की जरूरत नहीं है। ये छोटे-छोटे प्रतीकात्मक कदम भी राज्य के मुखिया की संवेदनशीलता को प्रकट करते हैं। यह बात बताती है किस तरह शिवराज सिंह चौहान ने राजसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम किया है। चुनाव दर चुनाव की जीत ने उनमें दंभ नहीं भरा बल्कि उनमें वह विनम्रता भरी है जिनसे कोई भी राजनेता, लोकनेता बनने की ओर बढ़ता है।
  वैसे भी शिवराज सिंह चौहान किसानों के प्रति सदैव संवेदना से भरे रहे हैं। वे खुद को भी किसान परिवार का बताते हैं। कोई चार साल पहले मप्र में कृषि कैबिनेट का गठन किया। यह सरकार का एक ऐसा फोरम है जहां किसानों से जुड़े मुद्दों पर समग्र रूप से संवाद कर फैसले लिए जाते हैं। इस सबके बावजूद यह तो नहीं कहा जा सकता कि राज्य में किसानों की माली हालत में बहुत सुधार हुआ है। किंतु इतना तो मानना ही पड़ेगा राज्य में खेती का रकबा बढ़ा है, किसानों को पानी की सुविधा मिली है, पहले की अपेक्षा उन्हें अधिक समय तक बिजली मिल रही है। इस क्षेत्र में अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह खुद कहते हैं कि खेती को लाभ का धंधा बनाना है, जाहिर है इस दिशा में उन्हें और राज्य को अभी लंबी यात्रा तय करनी है।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

प्रधानमंत्री की खामोशी के अर्थ-अनर्थ

-संजय द्विवेदी
 तय मानिए यह देश नरेंद्र मोदी को, मनमोहन सिंह की तरह व्यवहार करता हुआ सह नहीं सकता। पूर्व प्रधानमंत्री मजबूरी का मनोनयन थे, जबकि नरेंद्र मोदी देश की जनता का सीधा चुनाव हैं। कई मायनों में वे जनता के सीधे प्रतिनिधि हैं। जाहिर है उन पर देश की जनता अपना हक समझती है और हक इतना कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद वे अपनी व्यस्तताओं के बीच भी हर छोटे-बड़े प्रसंग पर संवाद करें, बातचीत करें।
    यह संवाद और उसकी निरंतरता खुद नरेंद्र मोदी ने पैदा की है। वे अगर सोशल नेटवर्क पर अपनी अखंड और सक्रिय उपस्थिति से लोगों के दिलों तक पहुंचे हैं तो लोग भी उनसे ढेरों उम्मीदों से जुडे हैं। वे सही मायने में भारत में अद्भुत संवाद कौशल के धनी राजनेता हैं, इसलिए देश की छोटी-बड़ी घटनाओं पर उनकी खामोशी के अर्थ अगर पढे जा रहे हैं, तो इसमें नाजायज क्या है। उनके समर्थकों को भले लगता हो प्रधानमंत्री हर बात पर संवाद नहीं कर सकते। उनका हर चीज पर टिप्पणी करना क्यों जरूरी है? लेकिन अगर सरकार की छवि को बट्टा लगाने के सुनियोजित यत्न चल रहे हों। उप्र की घटनाओं को लेकर मोदी को जिम्मेदार माना जा रहा हो, कर्नाटक की हत्याओं का पाप वहां के मुख्यमंत्री के बजाए मोदी के सिर देने की कोशिशों हो रही हों और धारावाहिक रूप से साहित्यकार देश में बढ़ती असहिष्णुता से अचानक पीड़ित हो गए हों तो जी हां, प्रधानमंत्री को सामने आना चाहिए और कहना चाहिए कि वे इन घटनाओं से क्या समझते हैं।
     अपने खिलाफ हो रहे इस षडयंत्र को मोदी नहीं समझते ऐसा नहीं है। वे समझकर चुप हैं सवाल इसी पर है। जिस तरह की बातें चलाई और फैलाई जा रही हैं, उससे उनकी असहमति रही है, है और आगे भी रहेगी। पर ये चीजें एक सरकार और उसके मुखिया के माथे चिपकाई जा रही हैं। ऐसे में उनके बीके सिंह जैसे साथी भी अपने बयानों से नई आग लगाने का काम रहे हैं। जाहिर तौर पर शिवसैनिकों पर प्रधानमंत्री का नियंत्रण नहीं है, किंतु मंत्रिमंडल के सहयोगियों को संयमित बयान देने की सलाह वे दे सकते हैं। सलाह ऐसी हो जो आम जन को सुनाई दे। ऐसे समय में जबकि देश के राष्ट्रपति बहुत कम समय के अंतराल पर दो बार बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी बात कह चुके हैं, हमारे सावधान होने का समय है। ऐसे में साधारण घटनाओं को मीडिया में मिल रही जगह और नकारात्मक चर्चाओं के नाते एक सक्षम सरकार और उसके प्रभावशाली नेतृत्व को भी चुनौती मिल रही है।
   जनता के मन में मोदी की छवि जो भी हो किंतु मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा यह फैलाया जा रहा है कि सरकार अपने लोगों की रक्षा में विफल है। उप्र, कर्नाटक की घटनाओं पर जिस तरह का वातावरण बनाया गया और अंतराष्ट्रीय मीडिया में इसकी चर्चा हुयी, वह हैरत में डालने वाली बात है। भारत जैसे विशाल देश में कुछ घटनाओं के आधार पर इसके चरित्र की व्याख्या नहीं की जा सकती। किंतु इस प्रकार की घटनाएं न हों, इसके लिए सचेतन प्रयास किए जाने चाहिए। मीडिया की अतिसक्रियता के समय में जब हर बात राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का हिस्सा बन रही है, तब केंद्र सरकार और उनके सहयोगियों को विशेष संयम रखने की जरूरत है। प्रधानमंत्री स्वयं भी यह कह चुके हैं कि राष्ट्रपति ने जो कहा है वही उनकी सरकार का रास्ता है। यह आश्वासन भी साधारण नहीं है। लेकिन नरेंद्र मोदी को हर समय सावधान रहना है। उनके विरोधी इतने चपल, वाचाल और मीडिया के सक्रिय उपभोगकर्ता हैं कि उनके खिलाफ हर घटना का इस्तेमाल किया जाएगा। राज्यों में कानून व्यवस्था का सवाल राज्य सरकार के हाथ में होने के बावजूद वहां हो रही घटनाएं नरेंद्र मोदी के माथे मढ़ी जाएंगीं और मढ़ी जा रही हैं। निश्चित ही नरेंद्र मोदी और सरकार के मीडिया प्रबंधकों को ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है। राजनीतिक मैदान में हारी हुयी ताकतें सांप्रदायिकता, लेखकीय स्वतंत्रता का सवाल उठाकर उन्हें घेरने की कोशिशें कर रही हैं।
   आप ध्यान दें, ये वही ताकतें हैं जो अखिलेश यादव से सवाल नहीं पूछतीं किंतु उन्हें नरेंद्र मोदी उनके निशाने पर हैं। ऐसे में चयनित दृष्टिकोण के आधार पर नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर हमले अभी और बढ़ेंगें। उनकी आलोचना का स्वर, षडयंत्र और तेज होगें। दिल्ली की गद्दी पर नरेंद्र मोदी के आने पर देश छोड़ने की धमकी वाली विचारधारा यह कैसे सह सकती है कि मोदी का राज निष्कंटक चले। उन पर हमले अभी और प्रखर होगें। तमाम ताकतें देश की सहिष्णुता, सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने में लगी हैं। तमाम शक्तियां चाहती हैं कि देश में हिंसा, आतंक और रक्तपात का वातावरण बने। ये ताकतें आज सक्रिय भूमिका में हैं। ये दरअसल भारतद्वेषी शक्तियों की एक चाल है, जिसमें राजनीतिक दल भी शामिल हो जाते हैं।
    इस कठिन समय में देश का एजेंडा सद्भाव, एकता और भाईचारा होना चाहिए। हमें समझना होगा कि जब भारत उभरती हुयी विश्वशक्ति के नाते खड़ा हो रहा है। उसकी अर्थव्यवस्था में नए पंख लग रहे हैं, वैश्विक स्तर पर वह अपने खोए गौरव की वापसी के संघर्षरत है, ऐसे समय में देश को एक असुरक्षित जगह बताने से किसके हित सघ रहे हैं। कौन लोग हैं, जो इस देश को जो सदियों से सद्भाव के साथ रहता आया उसे हिंसक संघर्षों की जगह के रूप में चित्रित करना चाहते हैं। हरियाणा में दलितों के साथ अत्याचार हो या किसी व्यक्ति की हत्या वह इस देश का चरित्र नहीं है। हमें साथ रहकर ही आगे बढ़ना है। ऐसी घटनाओं के सबक यही हैं कि सरकार इसके बाद इतने कड़े कदम उठाएं कि सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों की दुबारा ऐसे कामों को करने की हिम्मत न हो। यह देश सबका साझा है। कठिन समय में संयम और सबका साथ ही हमारी विरासत है।
    एक प्रभावशाली वक्ता और जननेता होने के नाते लोग मोदी की ओर उम्मीदों से देखते हैं। वे उनसे उम्मीद करते हैं कि वे सच को कहने का साहस दिखाएंगें। ऐसी शक्तियों को हाशिए लगाएंगें जो चयनित आधार पर लोगों को बांटने का काम रही हैं। यह गजब समय है कि लोग सर्वाधिक उम्मीद अपने राज्य के शासकों, स्थानीय पुलिस से करने के बजाए प्रधानमंत्री से कर रहे हैं। शायद यह प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा अपने संभाषणों, सोशल नेटवर्क की सक्रियता से साधा गया संवाद ही है कि लोग हर छोटी-मोटी समस्या पर उनसे बातचीत की उम्मीद करते हैं। सही मायने में वे उम्मीदों के पहाड़ पर खड़े प्रधानमंत्री हैं, जिनसे हर जन की अपेक्षाएं जुड़ी हैं। यह अपेक्षाएं मोदी ने खुद पैदा की हैं, इसलिए किसी को यह कहने का हक नहीं है कि केंद्र सरकार हर चीज का जबाव नहीं दे सकती। मोदी का यह कनेक्ट ही आज उन पर भारी पड़ रहा है। जनता का अपार भरोसा रखने वाले राजनेता का व्यवहार क्या होना चाहिए, यह ट्रेंड भी खुद मोदी को ही तय करना है। उम्मीद है कि वे इस जिम्मेदारी और इससे जुड़ी भावना को समझकर मन की बात करेंगें।

(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनातिक विश्लेषक हैं) 

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

हिन्दी मीडिया के चर्चित चेहरों से मुलाकात कराती एक किताब

समीक्षकः लोकेंद्र सिंह

      
     हम जिन्हें प्रतिदिन न्यूज चैनल पर बहस करते-कराते देखते हैं। खबरें प्रस्तुत करते हुए देखते हैं। अखबारों और पत्रिकाओं में जिनके नाम से प्रकाशित खबरों और आलेखों को पढ़कर हमारा मानस बनता है। मीडिया गुरु और लेखक संजय द्विवेदी द्वारा संपादित किताब 'हिन्दी मीडिया के हीरो' पत्रकारिता के उन चेहरों और नामों को जानने-समझने का मौका उपलब्ध कराती है।
    किताब में देश के 101 मीडिया दिग्गजों की सफलता की कहानी है। किन परिस्थितियों में उन्होंने अपनी पत्रकारिता शुरू की? कैसे-कैसे सफलता की सीढिय़ां चढ़ते गए? उनका व्यक्तिगत जीवन कैसा है? टेलीविजन पर तेजतर्रार नजर आने वाले पत्रकार असल जिन्दगी में कैसे हैं? उनके बारे में दूसरे दिग्गज क्या सोचते हैं? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब यह किताब देती है। किताब को पढ़ते वक्त आपको महसूस होगा कि आप अपने चहेते मीडिया हीरो को नजदीक से जान पा रहे हैं। यह किताब पत्रकारिता के छात्रों सहित उन तमाम युवाओं के लिए भी महत्वपूर्ण है जो आगे बढऩा चाहते हैं। पुस्तक में जमीन से आसमान तक पहुंचने की कई कहानियां हैं। पत्रकारों का संघर्ष प्रेरित करता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आ रहे युवाओं को यह भी समझने का अवसर किताब उपलब्ध कराती है कि मीडिया में डटे रहने के लिए कितनी तैयारी लगती है। इस तरह के शीर्षक से कोई सामग्री किताब में नहीं है, यह सब तो अनजाने और अनायस ही पत्रकारों के जीवन को पढ़ते हुए आपको जानने को मिलेगा।
       यह पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित होकर आई है जबकि मीडिया की चर्चा सब ओर है, नकारात्मक भी और सकारात्मक भी। मीडिया के संबंध में धारणा है कि वह लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की भूमिका निभाता है। उसने पिछले कुछ समय से अपनी इस भूमिका के साथ काफी हद तक न्याय किया है। तमाम घोटालों को उजागर करने के लिए मीडिया की तारीफ हुई है। समाज से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से लिखा गया है। इस सबके बावजूद भी पत्रकारों पर रुपये लेकर खबर छापने-दिखाने के आरोप लग रहे हैं। खबरों को लेकर पक्षपाती होने के आरोप भी मीडिया के माथे आ रहे हैं। 'पैसा फेंको तमाशा देखो' यानी अर्थ के प्रभाव से मीडिया को मैनेज किया जा सकता है, यह भी आम धारणा बना दी गई है। सोशल मीडिया पर परम्परागत मीडिया का 'पोस्टमार्टम' किया जा रहा है। वातावरण ऐसा बना दिया गया है कि पत्रकारों को संदिग्ध नजर से भी देखा जाने लगा है। एक समय में बेहद आदर से देखे जाने वाले पत्रकारों से आज निष्ठुरता से पूछा जा रहा है कि 'ऊपर की कमाई' कितनी हो जाती है? मिशन के जमाने में पत्रकार संदिग्ध नहीं था। उसकी जेब भले ही खाली रहती थी लेकिन समाज का हौसला उसकी कलम को धार देता रहता था। पत्रकारिता आदर्श थी। यह आदर्श आज भी बाकी है। आज भी कई पत्रकार सिद्धांतों की लकीर से इधर-उधर नहीं होते हैं। पत्रकारों की प्रतिष्ठा कुछ कम हो रही है तब पत्रकारों को हीरो की तरह स्थापित करने का काम यह किताब करती है। पत्रकारों के जीवन पर इससे पहले भी कई किताबें आई हैं। उनमें से अधिकतर किताबें एक-एक पत्रकार पर समग्रता से सामग्री प्रस्तुत करती हैं। लेकिन, 'हिन्दी मीडिया के हीरो' की विशेषता है कि यह एक बार में अनेक लोगों के बारे में जानकारी देती है। हम इसे 'बंच ऑफ जर्नलिस्ट प्रोफाइल' यानी पत्रकारों के जीवन का गुलदस्ता भी कह सकते हैं। आलोचना की दृष्टि से देखें तो इसमें दूरदराज के कई अच्छे पत्रकारों के नाम शामिल किये जा सकते थे, जो चमक-धमक से दूर खांटी पत्रकारिता कर रहे हैं।
   इस बात पर भी बहस की गुंजाइश है कि 101 में शामिल कितने पत्रकार आदर्श हैं? यह सूची 101 पत्रकारों की ही क्यों है? कम या ज्यादा क्यों नहीं? हालांकि, इन सबके जवाब संपादक संजय द्विवेदी ने अपनी भूमिका में दिए हैं। फिर भी असहमतियां तो बनी ही रहती हैं। संपादक का कहना है कि किताब में जितने भी पत्रकारों के प्रोफाइल को शामिल किया गया है, मौजूदा वक्त में वे देश भर में हिन्दी मीडिया के चेहरे हैं। देश उनके बारे में जानना चाहता है। हीरो शब्द पर विवाद की संभावना अधिक है। इसलिए उन्होंने 'हीरो' शब्द के उपयोग को भी स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि आदर्श अलग चीज है और हीरो अलग। वे मानते हैं कि किताब में आए कई नाम हिन्दी पत्रकारिता के आदर्श नहीं हैं। इसलिए उन्होंने पुस्तक को 'हिंदी मीडिया के हीरो' नाम दिया है, 'हिन्दी पत्रकारिता के आदर्श' नहीं। श्री द्विवेदी लिखते हैं कि हीरो वे हैं जो हिन्दी पत्रकारिता के नाम पर जाने-पहचाने जाते हैं। हीरो का मतलब विलेन भी होता है। जैसे डर फिल्म में शाहरुख खान हीरो होते हुए भी विलेन का काम करता है। बहरहाल, इन 101 नामों को चयन करने वाले निर्णायक मंडल में मीडिया के ऐसे दिग्गज शामिल हैं, जिन्होंने बेदाग रहते हुए पत्रकारिता में काफी लम्बा सफर तय किया है।  

पुस्तक      : हिन्दी मीडिया के हीरो
संपादक     : संजय द्विवेदी
मूल्य         : 695 रुपये (साजिल्द)
पृष्ठ संख्या            : 227
प्रकाशक    : यश पब्लिकेशंस
                   1/11848 पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा,

                   दिल्ली-110032

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

लिखिए जोर से लिखिए, किसने रोका है भाई!

-संजय द्विवेदी

   देश में बढ़ती तथाकथित सांप्रदायिकता से संतप्त बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला वास्तव में प्रभावित करने वाला है। यह कितना सुंदर है कि एक लेखक अपने समाज के प्रति कितना संवेदनशील है, कि वह यहां घट रही घटनाओं से उद्वेलित होकर अपने सम्मान लौटा रहा है। कुछ ने तो चेक भी वापस किए हैं। सामान्य घटनाओं पर यह संवेदनशीलता और उद्वेलन सच में भावविह्वल करने वाला है।
    सही मायने में देश के इतिहास में यह पहली घटना है, जब पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला इतना लंबा चला है। बावजूद इसके लेखकों की यह संवेदनशीलता सवालों के दायरे में है। यह संवेदना सराही जाती अगर इसके इरादे राजनीतिक न होते। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जहां भाजपा की सरकार नहीं है के पाप भी नरेंद्र मोदी के सिर थोपने की हड़बड़ी न होती,तो यह संवेदना सच में सराही जाती। सांप्रदायिकता को लेकर चयनित दृष्टिकोण रखने और प्रकट करने का पाप लेखक कर रहे हैं। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं कि जिस नरेंद्र मोदी को कोस-कोसकर, लिख-लिखकर, बोल-बोलकर वे थक गए, उन्हें देश की जनता ने अपना प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह कैसा लोकतांत्रिक स्वभाव है कि जनता भले मोदी को पूर्ण बहुमत से दिल्लीपति बना दे, किंतु आप उन्हें अपना प्रधानमंत्री मानने में संकोच से भरे हुए हैं।
    देश में सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत लंबा है किंतु इस पूरे लेखक समूह को गोधरा और उसके बाद के गुजरात दंगों के अलावा कुछ भी याद नहीं आता। विस्मृति का संसार इतना व्यापक है कि इंदिरा जी हत्या के बाद हुए सिखों के खिलाफ सुनियोजित दंगें भी इन्हें याद नहीं हैं। मलियाना और भागलपुर तो भूल ही जाइए। जहां मोदी है, वहीं इन्हें सारी अराजकता और हिंसा दिखती है। कुछ अखबारों के कार्टून कई दिनों तक मोदी को ही समर्पित दिखते हैं। ये अखबारी कार्टून समस्या केंद्रित न होकर व्यक्तिकेंद्रित ही दिखते हैं। उप्र में दादरी के बेहद दुखद प्रसंग पर समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री को कोसने के बजाए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना कहां से उचित है? क्या नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों के पास मुद्दों का अकाल है? इस नियम से तो गोधरा दंगों के समय इन साहित्यकारों को नरेंद्र मोदी के बजाए प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना चाहिए था, लेकिन उस समय मोदी उनके निशाने पर थे। किंतु अखिलेश यादव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हिंसा को न रोक पाने के बावजूद लेखकों के निशाने पर नहीं हैं। उन्हें इतनी राहत इसलिए कि वे सौभाग्य से भाजपाई मुख्यमंत्री नहीं हैं और सेकुलर सूरमाओं के साथ उनके रक्त संबंध हैं। ऐसे आचरण, बयानों और कृत्यों से लेखकों की स्वयं की प्रतिष्ठा कम हो रही है।
   हमारे संघीय ढांचे को समझे बिना किसी भी ऐरे-गैरे के बयान को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कहां तक उचित है? औवेसी से लेकर साध्वी प्राची के विवादित बोल का जिम्मेदार नरेंद्र मोदी को ठहराया जाता है जबकि इनका मोदी से क्या लेना देना? लेकिन तथाकथित सेकुलर दलों के मंत्री और पार्टी पदाधिकारी भी कोई बकवास करें तो उस पर किसी लेखक को दर्द नहीं होता। क्या ही अच्छा होता कि ये लेखक उस समय भी आगे आए होते जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं हुयीं। उस समय इन महान लेखकों की संवेदना कहां खो गयी थी, जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने ही वतन में विस्थापित होना पड़ा। नक्सलियों पर पुलिस दमन पर टेसुए बहाने वाली यह संवेदना तब सुप्त क्यों पड़ जाती है, जब हमारा कोई जवान माओवादी आतंक का शिकार होता है। जनजातियों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं करने वाले माओवादी इन बुद्धिजीवियों की निगाह में बंदूकधारी गांधीवादी हैं। कम्युनिस्ट देशों में दमन, अत्याचार और मानवाधिकारों को जूते तले रौंदनेवाले समाजवादियों का भारतीय लोकतंत्र में दम घुट रहा है, क्योंकि यहां हर छोटी- बड़ी घटना के लिए आप बिना तथ्य के सीधे प्रधानमंत्री को लांछित कर सकते हैं और उनके खिलाफ अभियान चला सकते हैं।
    दरअसल ये वे लोग हैं जिनसे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है। ये भारतीय जनता के विवेक पर सवाल उठाने वाले अलोकतांत्रिक लोग हैं। ये उसी मानसिकता के लोग हैं, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश छोड़ देने की धमकियां दे रहे थे। सही मायने में ये ऐसे लेखक हैं जिन्हें जनता के मनोविज्ञान, उसके सपनों और आकांक्षाओं की समझ ही नहीं है। वैसे भी ये लेखक भारत में रहना ही कहां चाहते हैं? भारतद्वेष इनकी जीवनशैली, वाणी और व्यवहार में दिखता है। भारत की जमीन और उसकी खूशबू का अहसास उन्हें कहां है? ये तो अपने ही बनाए और रचे स्वर्ग में रहते हैं। जनता के दुख-दर्द से उनका वास्ता क्या है? शायद इसीलिए हमारे दौर में ऐसे लेखकों का घोर अभाव है, जो जनता के बीच पढ़े और सराहे जा रहे हों। क्योंकि जनता से उनका रिश्ता कट चुका है। वे संवाद के तल पर हार चुके हैं। एक खास भाषा और खास वर्ग को समर्पित उनका लेखन दरअसल इस देश की माटी से कट चुका है।
   साहित्य अकादमी दरअसल लेखकों की स्वायत्त संस्था है। एक बेहद लोकतांत्रिक तरीके से उसके पदाधिकारियों का चयन होता है। पुरस्कार भी लेखक मिल कर तय करते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग इस संस्था के अध्यक्ष रहे। आज डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसके अध्यक्ष हैं। वे पहले हिंदी लेखक हैं, जिन्हें अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। ऐसे में इस संस्था के द्वारा दिए गए पुरस्कारों पर सवाल उठाना कहां का न्याय है? लेखकों की,लेखकों के द्वारा, चुनी गयी संस्था का विरोध बेमतलब ही कहा जाएगा। अगर यह न भी हो तो सरकार द्वारा सीधे दिए गए अलंकरणों, सम्मानों, पुरस्कारों और सुविधाओं को लौटाने का क्या औचित्य है? यह सरकार हमारी है और हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से ही चलती है। कोई सरकार किसी लेखक को कोई सुविधा या सम्मान अपनी जेब से नहीं देती। यह सब जनता के द्वारा दिए गए धन से संचालित होता है। ऐसे में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लेकर लौटाना जनता का ही अपमान है। जनता के द्वारा दिए गए जनादेश से चुने गए प्रधानमंत्री की उपस्थिति अगर आपसे बर्दाश्त नहीं हो रही है तो सड़कों पर आईए। अपना विरोध जताइए, किंतु वितंडावाद खड़ा करने से लेखकों की स्थिति हास्यापद ही बनी रहेगी। आज यह भी आवाज उठ रही है कि क्या ये लेखक सरकारों द्वारा दी गयी अन्य सुविधा जैसे मकान या जमीन जैसी सुविधाएं वापस करेंगें। जाहिर है ये सवाल बेमतलब हैं,लंबे समय तक सरकारी सुविधाओं और सुखों को भोगना वाला समाज अचानक क्रांतिकारी नहीं हो सकता।
    सुविधा और अवसर के आधार पर चलने वाले लोग हमेशा हंसी का पात्र ही बनते हैं। अपनी संस्थाओं, अपने प्रधानमंत्री, अपने देश और अपनी जमीन को लांछित कर आप खुद सवालों के घेरे में हैं। जब आप एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई हार चुके हैं, तो लेखकों को आगे कर यह जंग नहीं जीती जा सकती। राजनीतिक दलों की हताशा समझी जा सकती है, किंतु लेखकों का यह व्यवहार समझ से परे है। राजनीतिक निष्ठा एक अलग चीज है किंतु एक लेखक और बुद्धिजीवी होने के नाते आपसे असाधारण व्यवहार की उम्मीद की जाती है। आशा की जाती है कि आप हो रहे परिवर्तनों को समझकर आचरण करेंगें। देश की जनता के दुख-दर्द का चयनित आधार पर विश्लेषण नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के कामों पर सवाल खड़े करिए। संघर्ष के लिए आगे आइए किंतु लोगों को गुमराह मत कीजिए। यह नकली और झूठी बात है कि इस देश में तानाशाही या आपातकाल के हालात हैं। जिन्होंने आपातकाल देखा है उनसे पूछिए कि आपातकाल क्या होता है? जिस समय में हर छोटा-बड़ा मुंह खोलते ही प्रधानमंत्री को बुरा-भला कह रहा है, क्या वहां तानाशाही है? ऐसे झूठ और भ्रम फैलाकर देश में तनाव मत पैदा कीजिए। आपातकाल में आप सब कहां थे, जब देश के तमाम लेखक-पत्रकार कालकोठरी में डाल दिए गए थे? जो देश इंदिरा गांधी की तानाशाही से नहीं डरा, उसे मत डराइए। हिम्मत से लिखिए और लिखने दीजिए। पुरस्कारों, पदों, सम्मानों और लोभ-लाभ के चक्कर में मत पड़िए। अफसरों और नेताओं के तलवे मत चाटिए। लिखिए जोर से लिखिए, बोलिए जोर से बोलिए, किसने रोका है भाई।
(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

आभासी सांप्रदायिकता के खतरे

-संजय द्विवेदी


   जिस तरह का माहौल अचानक बना है, वह बताता है कि भारत अचानक अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमान) के लिए एक खतरनाक देश बन गया है और इसके चलते उनका यहां रहना मुश्किल है। उप्र सरकार के एक मंत्री यूएनओ जाने की बात कर रहे हैं तो कई साहित्यकार अपने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने पर आमादा हैं। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा समय है, जिसमें आई ऐसी प्रतिक्रियाएं हैरत में डालती हैं।
   गाय की जान बचाने के लिए मनुष्य की जान लेने को कौन सी संस्कृति और सभ्यता अनुमति देगी? खासे शोरगुल के बाद राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा वही दरअसल भारत की पहचान है, देश की सामूहिक राय है। भारत को न जानने वाले ही इस छद्म और आभासी सांप्रदायिकता की हवा से विचलित हैं। भारत की शक्ति को महसूस करना है, तो हमें साथ-साथ चलती हुए लोगों की बहुत सारी आकांक्षाओं और सपनों की ओर देखना होगा। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री की इस बात का खास महत्व है कि हमें तय करना होगा कि हिंदुओं को मुसलमानों से लड़ना है या गरीबी से। मुसलिमों को फैसला करना चाहिए कि हिंदुओं से लड़ना है या गरीबी से। यह साधारण नहीं है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति की बात को न सिर्फ सही ठहराया बल्कि यहां तक कहा कि अगर इस सवाल पर वे भी(मोदी) कोई बात कहें तो उसे न माना जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा किमैं देशवासियों को कहना चाहता हूं कि कुछ छुटभैये नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए गैरजिम्मेदाराना बयान देने पर उतारू हैं।  ऐसे बयान बंद होने चाहिए। मैं जनता से अनुरोध करना चाहता हूं कि इस तरह के बयानों पर ध्यान नहीं दें, फिर चाहे नरेंद्र मोदी भी इस तरह की कोई बात क्यों न करे। मोदी का बयान बताता है कि वे इस मामले में क्या राय रखते हैं। इस बयान के बाद किसी को भी कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि आखिर सरकार की राय और मर्यादा क्या है। लेकिन सवाल यह उठता है कि उत्तरप्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री का इकबाल क्या खत्म हो गया है? क्या वे चंद सांप्रदायिक तत्वों के हाथ का खिलौना बनकर रह गए हैं। जब सांप्रदायिकता के खिलाफ कठोर फैसलों और शरारती तत्वों पर कड़ी कार्रवाई का समय है तो उनका एक मंत्री जहर को स्थाई बनाने के प्रयासों में जुट जाता है। अगर सरकार इस तरह जिम्मेदारियों से भागेंगी तो शरारती तत्वों को कौन नियंत्रित करेगा। यहां यह सवाल भी खास है कि ऐसे हालात से क्या राजनीतिक दलों को फायदा होता है या उन्हें इसके नुकसान उठाने होते हैं? क्या हिंदू और मुस्लिम गोलबंदी बनाने का यह कोई सुनियोजित यत्न तो नहीं है? लोगों की लाश पर राजनीति का समय अब जा चुका है। लोग समझदार हैं और अपने फैसले कर रहे हैं, किंतु राजनीति आज भी बने-बनाए मानकों से आगे निकलना नहीं चाहती। लंबे समय बाद देश में सुशासन और विकास के सवाल चुनावी राजनीति के केंद्रीय विषय बन रहे हैं। ऐसे में उन्हें फिर वहीं जाति और पंथ के कठघरों में ले जाना कहां की सोच है? सांप्रदायिकता के खिलाफ राजनीतिक दलों का चयनित सोच इसकी बढत के लिए जिम्मेदार है। ज्यादातर राजनीतिक दल हिंदूओं को लांछित करने के लिए एक लंबे अभियान के हिस्सेदार हैं। लेकिन इससे मुसलमानों का हित क्या है? देश की बहुसंख्यक आबादी की अपनी समझ, मानवीय संवेदना, पारंपरिक जीवन मूल्यों के प्रति समर्पण के नाते ही यह देश पंथनिरपेक्ष है। पाकिस्तान और भारत को बनते हुए इस भूभाग ने देखा और खुद को पंथनिरपेक्ष बनाए रखा। यह इस देश की ताकत है। इसे कमजोर करना और अल्पसंख्यकों में भयग्रंथि का विस्तार करना कहीं से उचित नहीं है। देश के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक एक वृहत्तर परिवार के अभिन्न अंग हैं। उनके अधिकार समान हैं। पाकिस्तान बनाने वाली ताकतें अलग थीं, वे देश छोड़कर जा चुकी हैं। इसलिए हिंदुस्तानी मुसलमानों को सही रास्ता दिखाने की जरूरत है। अपने सांप्रदायिक तेवरों के विख्यात नेताओं को चाहिए कि वे वाणी संयम से काम लें। समाज अपनी तकदीर लिखने के लिए आगे आ रहा है, उसे आगे आने दें। हाल में गौहत्या को लेकर जिस तरह के प्रसंग और बयान सामने आए हैं उस पर ज्यादातर मुस्लिम धर्मगुरूओं ने गौहत्या को उचित नहीं माना है। मौलाना सैय्यद अहमद बुखारी ने स्वयं अपने बयान में यह कहा कि जिस बात से हिंदुओं की धार्मिक भावना को ठेस लगती हो उसे नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इस साधारण सी बात को स्वीकारने के बजाए इसे राजनीतिक गोलबंदी का विषय बनाया जा रहा। ऐसा करने वाले हिंदुस्तानी मुसलमानों के शुभचिंतक नहीं हैं। दादरी की घटना एक शर्म और कलंक की तरह हमारे सामने है। यह बताती है कि सामान्य व्यक्ति तो अनायास मार दिया जाएगा और राजनेता उसकी लाश पर राजनीति करते रहेंगें। देश में सही मायने में सांप्रदायिकता कोई बड़ी समस्या नहीं है। किंतु कुछ राजनीति कार्यकर्ता और विभिन्न पंथों के कुछ अनुयायी अपना वजूद बनाए रखने के लिए इसे जिंदा रखना चाहते हैं। सांप्रदायिकता के विरूद्ध कोई ईमानदार लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे दोनों पक्षों के हित सध रहे हैं। चुनावी राजनीति में जहां मुस्लिम ध्रुवीकरण की उम्मीदें कुछ लोगों को लाभ पहुंचा रहीं है तो हिंदुओं पर आभासी खतरे से दूसरी तरह का ध्रुवीकरण सामने आता है। राजनीति का सब कुछ दांव पर लगा है क्योंकि उसके पास अब मुद्दे बचे नहीं है। वह लोगों को मुद्दों के आधार पर नहीं, देश के सवालों के आधार पर नहीं- जातियों, पंथों, आभासी सांप्रदायिकता के खतरों के नाम पर एकजुट करना चाहती है।
  बदलता हुआ हिंदुस्तान इन सवालों से आगे आ चुका है। लेकिन दादरी में बहा एक निर्दोष आदमी का खून भी हमारे लिए चुनौती है और एक बड़ा सवाल भी। पर भरोसा यूं देखिए कि दादरी में खतरे में पड़ा अखलाक आखिरी फोन एक हिंदू दोस्त को ही लगाता है। यही उम्मीद है जो बनाए और बचाए रखनी है। जो बताती है कि लोग आभासी सांप्रदायिकता के खतरों के बावजूद अपनों को पहचानते हैं। क्योंकि अपना कोई भी हो सकता है, वह दलों के झंडों और पंथों के हिसाब से तय नहीं होता। दादरी जैसी एक घटना कैसे पूरी दुनिया में हमारा नाम खराब करने का काम करती है। इसे भी सोचना होगा। देश की इज्जत को मिट्टी में मिला रहे लोग देशभक्त हैं, आपको लगे तो लगे, देश इन पर भरोसा नहीं करता। हमारी सांझी विरासतों, सांझे सपनों पर नजर लगाने में लगी ताकतें सफल नहीं होगीं, भरोसा कीजिए।



गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

दीनदयालजी पर एक प्रामाणिक किताब

-सईद अंसारी
(समीक्षक आजतक न्यूज चैनल में एडीटर-स्पेशल प्रोजेक्ट्स तथा प्रख्यात एंकर हैं)


पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का शताब्दी वर्ष 25 सितंबर 2015 से शुरू हुआ है। इस मौके पर लेखक संजय द्विवेदी ने दीनदयाल पर बेहद प्रामाणिक, वैचारिक सामग्री इस किताब के रूप में पेश की है। निश्चित रूप से इस प्रयास के लिए संजय बधाई के पात्र हैं।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पूरे व्यक्तित्व का आकलन पांच भागों में पुस्तक को बांटकर किया गया है। लेखक संजय द्विवेदी की लेखनी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन के हर पहलू को बड़ी सहजता और सरलता से पाठकों के मानस पटल पर अंकित किया है। पुस्तक के पहले भाग में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में पंडित दीनदयाल के विचारों को बहुत ही खूबी से स्पष्ट किया है संजय ने। दीनदयालजी के अनुसार परस्पर जोड़ने वाला विचार हमारी संस्कृति है और यही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मर्म है. किस तरह से दीनदयाल अखंड भारत के समर्थक रहे, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उन्होंने कैसे परिभाषित किया, 'वसुधैव कुटुम्बकम' की पंडितजी ने क्या अवधारणा दी, समाज के सर्वांगीण विकास और उत्थान के लिए उनके कार्यों और प्रयासों से पाठकों को अवगत कराने की सराहनीय कोशिश की गई है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संबंध में डॉ. महेशचंद शर्मा का कहना है कि 'गुरुजी' श्री गोलवलकर के अनुसार दो प्रकार के राष्ट्रवाद हैं. पहला भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और दूसरा राजनीतिक क्षेत्रीय राष्ट्रवाद ( politico territorial nationalism ). भू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानवीय है जबकि राजनीतिक क्षेत्रीय राष्ट्रवाद युद्दकामी और साम्राज्यवाद का सर्जक है। संस्कृति तत्व ही राष्ट्रीयत्व का नियामक होता है। दीनदयाल के अनुसार 'अखंडता की भगीरथी की पुण्यधारा में सभी प्रवाहों का संगम आवश्यक है। यमुना भी मिलेगी और अपनी सारी कालिमा खोकर गंगा की धवल धारा में एकरूप हो जाएगी.।
दीनदयाल के एकात्म अर्थ चिंतन पर डॉ. बजरंगलाल गुप्ता ने विचार रखे हैं। दीनदयालजी ने समाज के विकास और प्रगति की आकांक्षा रखी थी इसीलिए न केवल आर्थिक परिदृश्य बल्कि सामाजिक, आर्थिक समस्याएं और उनके समाधान के लिए भी हमेशा अपने विचार व्यक्त किए और यही था अर्थ चिंतन। लेकिन वह एक ऐसी व्यवस्था के पक्षधर थे जिसमें धर्म, अर्थ, सदाचार, और समृद्धि साथ-साथ चल सकें. ऐसी व्यवस्था से अर्थ के अभाव और अर्थ के प्रभाव दोनों से बचाव संभव है। पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी के विराट व्यक्तित्व के पीछे उनकी तपस्या, त्याग और संघर्ष का विशेष आधार था। पंडितजी को जनसंघ का अध्यक्ष बनाए जाने पर उन्होंने कहा, 'आपने मुझे किस झमेले में डाल दिया.' इसपर गुरू गोलवलकर का यही जवाब था कि जो संगठन के काम में अविचल निष्ठा और श्रद्धा रखे वही कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से अछूता रहते हुए भी सुचारू रूप से वहां की सफाई कर सकेगा.।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अनुकरण करना सबके लिए आसान नहीं है। उपाध्यायजी की भतीजी मधु शर्मा पंडितजी की लगन का एक उदाहरण देते हुए बताती हैं कि जनसंघ का संविधान लिखने के लिए पंडितजी लगातार दो दिन तक जागते रहे थे और इसी अवधि में उन्होंने बिना खाए पीये सिर्फ काम किया था। दीनदयाल ने हर व्यक्ति के सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार पर महत्व दिया है।  बीजेपी ने भारतीय जनसंघ के बड़े नेता पंडित दीनदयाल को एकात्म मानवतावाद के साथ पूर्ण रूप में अपनाया है. पंडितजी का चिंतन मौलिक था और पूरी मानवता के लिए था। पंडित हरिदत्त शर्मा के अनुसार 'दीनदयाल के व्यक्तित्व को शब्दों में पिरो पाना बड़ा कठिन है।
संजय द्विवेदी ने दीनदयाल के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को उजागर करते हुए इस पुस्तक का संपादन किया है। दीनदयाल के बारे में जानने उन्हें समझने, उनके आदर्शों की जानकारी हासिल करने वाले पाठक और मीडिया से जुड़े व्यक्तित्वों के लिए निश्चित रूप से यह पुस्तक उनके अध्ययन, विश्लेषण और शोध के लिए विशेष सहायता करेगी। विद्वानों के उपाध्यायजी के बारे में जाहिर किए गए विचार, उनके लेखों और भाषणों को किताब में शामिल कर संजय द्विवेदी ने पंडितजी के बारे में सबकुछ समेट दिया है। संजय की संपादित पुस्तक के जरिए पंडितजी का संचारक व्यक्तित्व तो पाठकों के सामने आएगा ही साथ लेखकीय और पत्रकारिता के रूप में उनके व्याख्यान दिशा-निर्देश का काम करेंगे।
पुस्तक: भारतीयता का संचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय 
संपादन:
 संजय द्विवेदीप्रकाशक: विजडम पब्लिकेशन, सी-14, डी.एस.आई.डी.सी. वर्क सेंटर, झिलमिल कालोनी,  दिल्ली-110095
मूल्य:
 500 रुपये

Sayeed Ansari
Editor, Special Projects- Editorial – AT ,
TV Today Network Ltd.
India Today Mediaplex
FC 8, Sec. 16 A, Film City
Noida 201301