-संजय द्विवेदी
जिस तरह का माहौल अचानक बना है, वह बताता है कि
भारत अचानक अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमान) के लिए एक खतरनाक देश बन गया है और इसके
चलते उनका यहां रहना मुश्किल है। उप्र सरकार के एक मंत्री यूएनओ जाने की बात कर
रहे हैं तो कई साहित्यकार अपने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने पर आमादा हैं। जाहिर
तौर पर यह एक ऐसा समय है, जिसमें आई ऐसी प्रतिक्रियाएं हैरत में डालती हैं।
गाय की
जान बचाने के लिए मनुष्य की जान लेने को कौन सी संस्कृति और सभ्यता अनुमति देगी? खासे शोरगुल के बाद राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री
ने जो कुछ कहा वही दरअसल भारत की पहचान है, देश की सामूहिक राय है। भारत को न
जानने वाले ही इस छद्म और आभासी सांप्रदायिकता की हवा से विचलित हैं। भारत की
शक्ति को महसूस करना है, तो हमें साथ-साथ चलती हुए लोगों की बहुत सारी आकांक्षाओं
और सपनों की ओर देखना होगा। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री की इस बात का खास महत्व है
कि “हमें तय करना होगा कि हिंदुओं को मुसलमानों से
लड़ना है या गरीबी से। मुसलिमों को फैसला करना चाहिए कि हिंदुओं से लड़ना है या
गरीबी से।” यह साधारण नहीं है कि प्रधानमंत्री ने
राष्ट्रपति की बात को न सिर्फ सही ठहराया बल्कि यहां तक कहा कि अगर इस सवाल पर वे
भी(मोदी) कोई बात कहें तो उसे न माना जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि–“मैं देशवासियों को कहना चाहता हूं कि कुछ छुटभैये
नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए गैरजिम्मेदाराना बयान देने पर उतारू हैं। ऐसे बयान बंद होने चाहिए। मैं जनता से अनुरोध
करना चाहता हूं कि इस तरह के बयानों पर ध्यान नहीं दें, फिर चाहे नरेंद्र मोदी भी
इस तरह की कोई बात क्यों न करे।” मोदी
का बयान बताता है कि वे इस मामले में क्या राय रखते हैं। इस बयान के बाद किसी को भी
कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि आखिर सरकार की राय और मर्यादा क्या है। लेकिन सवाल
यह उठता है कि उत्तरप्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री
का इकबाल क्या खत्म हो गया है? क्या
वे चंद सांप्रदायिक तत्वों के हाथ का खिलौना बनकर रह गए हैं। जब सांप्रदायिकता के
खिलाफ कठोर फैसलों और शरारती तत्वों पर कड़ी कार्रवाई का समय है तो उनका एक मंत्री
जहर को स्थाई बनाने के प्रयासों में जुट जाता है। अगर सरकार इस तरह जिम्मेदारियों
से भागेंगी तो शरारती तत्वों को कौन नियंत्रित करेगा। यहां यह सवाल भी खास है कि
ऐसे हालात से क्या राजनीतिक दलों को फायदा होता है या उन्हें इसके नुकसान उठाने
होते हैं? क्या हिंदू और मुस्लिम गोलबंदी बनाने का यह कोई
सुनियोजित यत्न तो नहीं है? लोगों
की लाश पर राजनीति का समय अब जा चुका है। लोग समझदार हैं और अपने फैसले कर रहे
हैं, किंतु राजनीति आज भी बने-बनाए मानकों से आगे निकलना नहीं चाहती। लंबे समय बाद
देश में सुशासन और विकास के सवाल चुनावी राजनीति के केंद्रीय विषय बन रहे हैं। ऐसे
में उन्हें फिर वहीं जाति और पंथ के कठघरों में ले जाना कहां की सोच है? सांप्रदायिकता के खिलाफ राजनीतिक दलों का चयनित
सोच इसकी बढत के लिए जिम्मेदार है। ज्यादातर राजनीतिक दल हिंदूओं को लांछित करने के
लिए एक लंबे अभियान के हिस्सेदार हैं। लेकिन इससे मुसलमानों का हित क्या है? देश की बहुसंख्यक आबादी की अपनी समझ, मानवीय
संवेदना, पारंपरिक जीवन मूल्यों के प्रति समर्पण के नाते ही यह देश पंथनिरपेक्ष
है। पाकिस्तान और भारत को बनते हुए इस भूभाग ने देखा और खुद को पंथनिरपेक्ष बनाए
रखा। यह इस देश की ताकत है। इसे कमजोर करना और अल्पसंख्यकों में भयग्रंथि का
विस्तार करना कहीं से उचित नहीं है। देश के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक एक वृहत्तर
परिवार के अभिन्न अंग हैं। उनके अधिकार समान हैं। पाकिस्तान बनाने वाली ताकतें अलग
थीं, वे देश छोड़कर जा चुकी हैं। इसलिए हिंदुस्तानी मुसलमानों को सही रास्ता
दिखाने की जरूरत है। अपने सांप्रदायिक तेवरों के विख्यात नेताओं को चाहिए कि वे
वाणी संयम से काम लें। समाज अपनी तकदीर लिखने के लिए आगे आ रहा है, उसे आगे आने
दें। हाल में गौहत्या को लेकर जिस तरह के प्रसंग और बयान सामने आए हैं उस पर
ज्यादातर मुस्लिम धर्मगुरूओं ने गौहत्या को उचित नहीं माना है। मौलाना सैय्यद अहमद
बुखारी ने स्वयं अपने बयान में यह कहा कि जिस बात से हिंदुओं की धार्मिक भावना को
ठेस लगती हो उसे नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इस साधारण सी बात को स्वीकारने के
बजाए इसे राजनीतिक गोलबंदी का विषय बनाया जा रहा। ऐसा करने वाले हिंदुस्तानी
मुसलमानों के शुभचिंतक नहीं हैं। दादरी की घटना एक शर्म और कलंक की तरह हमारे
सामने है। यह बताती है कि सामान्य व्यक्ति तो अनायास मार दिया जाएगा और राजनेता
उसकी लाश पर राजनीति करते रहेंगें। देश में सही मायने में सांप्रदायिकता कोई बड़ी
समस्या नहीं है। किंतु कुछ राजनीति कार्यकर्ता और विभिन्न पंथों के कुछ अनुयायी
अपना वजूद बनाए रखने के लिए इसे जिंदा रखना चाहते हैं। सांप्रदायिकता के विरूद्ध
कोई ईमानदार लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे दोनों पक्षों के हित सध रहे हैं।
चुनावी राजनीति में जहां मुस्लिम ध्रुवीकरण की उम्मीदें कुछ लोगों को लाभ पहुंचा
रहीं है तो हिंदुओं पर आभासी खतरे से दूसरी तरह का ध्रुवीकरण सामने आता है।
राजनीति का सब कुछ दांव पर लगा है क्योंकि उसके पास अब मुद्दे बचे नहीं है। वह
लोगों को मुद्दों के आधार पर नहीं, देश के सवालों के आधार पर नहीं- जातियों,
पंथों, आभासी सांप्रदायिकता के खतरों के नाम पर एकजुट करना चाहती है।
बदलता
हुआ हिंदुस्तान इन सवालों से आगे आ चुका है। लेकिन दादरी में बहा एक निर्दोष आदमी
का खून भी हमारे लिए चुनौती है और एक बड़ा सवाल भी। पर भरोसा यूं देखिए कि दादरी
में खतरे में पड़ा अखलाक आखिरी फोन एक हिंदू दोस्त को ही लगाता है। यही उम्मीद है
जो बनाए और बचाए रखनी है। जो बताती है कि लोग आभासी सांप्रदायिकता के खतरों के
बावजूद अपनों को पहचानते हैं। क्योंकि अपना कोई भी हो सकता है, वह दलों के झंडों
और पंथों के हिसाब से तय नहीं होता। दादरी जैसी एक घटना कैसे पूरी दुनिया में
हमारा नाम खराब करने का काम करती है। इसे भी सोचना होगा। देश की इज्जत को मिट्टी
में मिला रहे लोग देशभक्त हैं, आपको लगे तो लगे, देश इन पर भरोसा नहीं करता। हमारी
सांझी विरासतों, सांझे सपनों पर नजर लगाने में लगी ताकतें सफल नहीं होगीं, भरोसा
कीजिए।
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