-संजय द्विवेदी
राजनीति में सब कुछ निश्चित होता तो क्या यह इतनी मजेदार होती? शायद नहीं। संभावनाओं का खेल होने के नाते ही
राजनीति और क्रिकेट एक सा आनंद देते हैं। दिल्ली का चुनाव भी इसीलिए अब खासा
मजेदार हो गया है। दिल्ली का सरजमीं पर घट रहीं घटनाएं बताती हैं कि राजनीति
वास्तव में कितनी रोचक हो सकती है। कभी आंदोलनों की भूमि रही दिल्ली इन दिनों राजनीतिक
आत्मसमर्पणों की भूमि बन गयी है। यहां नए समीकरण बन रहे हैं, नए संबंध जुड़ रहे
हैं और रोज एक नया धमाका हो रहा है। यह चुनाव अभियान भले कई दिन चले किंतु यह वन
डे क्रिकेट का रोमांच जगा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है आम आदमी पार्टी और
भारतीय जनता पार्टी के बीच सीधी जंग।
दिल्ली का मैदान भाजपा और
कांग्रेस के बीच बंटा हुआ नहीं है, राजनीति के तीसरे कोण आम आदमी पार्टी ने मैदान
को ही तिकोना नहीं बनाया है, उसमें रोचकता भी भरी है। आम आदमी पार्टी के सधे हुए
तीरों, मीडिया के स्मार्ट इस्तेमाल और जुमलेबाजियों का सही उत्तर देने में
कांग्रेस की क्षमता चुक सी गयी लगती है,किंतु भाजपा के तरकश में उनसे जूझने के तीर
दिखते हैं- जिनमें किरण बेदी और शाजिया इल्मी का भाजपा में प्रवेश एक दिलचस्प प्रयोग
रहा है। आप के नेता अरविंद केजरीवाल के कुर्सी छोड़ने के बाद, आप की लीडरशिप में
यह अहसास गहरा हुआ है कि गलती तो हुयी है। इसे अरविंद खुद भी स्वीकार कर चुके हैं
और अब दूसरा मौका मांगने जनता की अदालत में हैं। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में
स्वयं को संगठनात्मक रूप से काफी मजबूत किया है। इसका प्रमाण लोकसभा के चुनाव है
जहां वह सभी सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। यह अकेली सूचना आम आदमी पार्टी को दिल्ली
में ताज का ख्वाब दिखा रही है।
भाजपा जिस तरह लगातार विजयरथ
पर सवार है उसे तो सपने देखने का हक है ही। किंतु कांग्रेस ने भी अजय माकन को आगे
कर यह तो कहने की कोशिश की है कि उसने हथियार नहीं डाले हैं। कांग्रेस के पक्ष में
निश्चित ही कोई वातावरण और आस नहीं है किंतु वह खत्म हो गयी है यह सोचना नासमझी
है। उसके अपने जनाधार वाले कई नेता लोकसभा में अपनी जमानत खो बैठे यह भी सच है
किंतु वह कोशिश करेगी कि उसकी आठ सीटें तो लौट आएं ताकि सत्ता समीकरणों में वह अनुपस्थित न हो जाए। मीडिया को द्वंद चाहिए और
इस द्वंद के लिए भाजपा और आप जबरदस्त हैं, बहुत मुफीद हैं। दोनों के पास कहने को,
बताने और कुछ माहौल बनाने के लिए काफी कुछ है। खासकर टीवी पत्रकारों के लिए यह
स्थितियां बहुत सुखद हैं, जहां दोनों पक्ष बोलने और नित्य ड्रामा क्रियेट करने के
मास्टर हों।
भाजपा को जहां केंद्रीय
सत्ता में होने का मनोवैज्ञानिक लाभ है, वहीं मोदी विरोधी सभी राजनीतिक शक्तियों
के लिए एकमात्र विकल्प आम आदमी पार्टी है। प्रतिपक्ष की वास्तविक जगह घेर लेना भी
साधारण नहीं है किंतु आप ने दिल्ली में वह कर दिखाया है। आम आदमी पार्टी के
असंतुष्ट नेताओं और अन्ना समर्थक नेताओं का भाजपा में आना एक ऐसी सूचना है, जिसकी
घबराहट आम आदमी पार्टी में साफ देखी जा सकती है। बहुत कम समय में पार्टी का ऐसा
बिखराव बताता है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने अपनी रैली में जिस तरह आम आदमी पार्टी और उसके नेता पर हमला बोला,
उसने भी आम आदमी पार्टी को वास्तविक प्रतिपक्ष बनाकर कांग्रेस को हाशिए लगाने का
काम किया है। शायद नरेंद्र मोदी अपने ‘कांग्रेस
मुक्त भारत’ के सपने से इतना जुड़े हुए हैं कि वे दिल्ली में
उसे लड़ाई में भी मानने के लिए तैयार नहीं है और आम आदमी पार्टी को ज्यादा तरजीह
दे रहे हैं। इससे मोदी विरोधी वोटों का एकत्रीकरण आम आदमी पार्टी के साथ हो सकता
है। दिल्ली में बसपा नेता मायावती का सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा और ऑल इंडिया मजिलिस-ए-इत्तिहादुल मुसलिमीन
(एआईएमआईएम) के
अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन औवेसी का दिल्ली से अपनी पार्टी को चुनाव
न लड़ाने का फैसला बहुत कुछ कहता है। जबकि हाल में औवेसी की पार्टी महाराष्ट्र में
विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है।
ये
समीकरण बताते हैं कि दिल्ली का चुनाव वन डे क्रिकेट जैसा ही रोचक होने वाला है।
केजरीवाल, किरण बेदी, साजिया इल्मी, और जयाप्रदा जैसे किरदार तो इसमें रंग भरेंगें
ही साथ ही कांग्रेस भी अपने अस्तित्व के लिए जूझेगी। दिल्ली में भाजपा के पास सात
सांसद, तीन नगर निगम के साथ दिल्ली में उसकी सरकार होने के मनोवैज्ञानिक लाभ भी
हैं। नेतृत्व न होने की बात कहकर आम आदमी पार्टी भाजपा पर सवाल खड़े कर रही थी,
यहां तक कि उसने भाजपा नेता जगदीश मुखी वर्सेज अरविंद केजरीवाल के पोस्टर भी लगा
दिए थे। अब जबकि किरण बेदी सरीखी अन्ना आंदोलन की प्रमुख नेत्री भाजपा के मंच पर
हैं तो यह मुद्दा भी आम आदमी
पार्टी के हाथ से जाता रहा। संभव है कि समाजसेवी अन्ना हजारे भी किरण
बेदी के समर्थन में वोट की अपील करें, इससे एक नया दृश्य बन सकता है।
यह भी मानना होगा अगर आमने सामने
भाजपा-कांग्रेस होते तो इस चुनाव में इतना आनंद न आता। किंतु आम आदमी पार्टी और
भाजपा के बीच यह चुनाव होने के नाते इसका रोमांच बढ़ गया है। क्योंकि दोनों दल
अपने मीडिया इस्तेमाल, रणनीति कौशल और प्रचार रणनीति के लिए ख्यात हैं। दोनों एक-
दूसरे को हर स्तर पर निपटाने की मुद्रा से लैस हैं। नरेंद्र मोदी विरोधी शक्तियां
महाराष्ट्र, झारखंड और काश्मीर में भाजपा की सफलता से बौखलाई हुयी हैं। उन्हें
लगता है कि ‘अश्वमेघ
का रथ’ अब
दिल्ली में बांध ही लिया जाना चाहिए। इससे
बिहार और यूपी में निर्माणाधीन जनता परिवार के रास्ते सुगम होंगें। मायावती का
अचानक दिल्ली में अपने प्रत्याशी सभी सीटों पर लड़ाने का फैसला साधारण नहीं है।
राजनीति की जरा सी समझ रखने वाले इसे समझते हैं।
दिल्ली का जो भी फैसला होगा, वह राष्ट्रीय
राजनीति में गहरे असर डालेगा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह आखिरी वक्त में
दिल्ली का मामला अपने हाथ में लिया है और ताबड़तोड़ अन्ना आंदोलन के नेताओं को
भाजपा में जगह मिली है, वह महत्वपूर्ण बात है। यानि भाजपा आलाकमान किसी भी कीमत पर
दिल्ली पर अपने दांव कम नहीं करना चाहता। उन्हें पता है यह आधा-अधूरा छोटा सा
राज्य भले हो, किंतु इसका प्रभाव बहुत व्यापक है। दिल्ली
वास्तव में देश का दिल है और इसके परिणामों का प्रभाव पूरे देश की राजनीति पर
पड़ता है। नरेंद्र मोदी इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं। अगर मोदी और शाह की टीम
ने एक असंभव सी समझी जाने वाली जीत के लिए जम्मू- काश्मीर में जान लड़ा दी और सबसे ज्यादा वोट हासिल कर लिए तो
यह सोचना नादानी है कि मोदी ने अरविंद के मुकाबले किरण बेदी को उतारकर खुद को
मुक्त कर लिया है। दिल्ली में अभी बहुत कुछ होना है क्योंकि दोनों तरफ के किरदार बहुत
स्मार्ट हैं ,इससे कुछ हो न हो ‘स्मार्ट
दिल्ली’ का
सपना तो बिकेगा ही।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)