शनिवार, 17 जनवरी 2015

वन डे क्रिकेट सरीखा रोमांचक हुआ दिल्ली चुनाव

                            -संजय द्विवेदी

                 
                     

   राजनीति में सब कुछ निश्चित होता तो क्या यह इतनी मजेदार होती? शायद नहीं। संभावनाओं का खेल होने के नाते ही राजनीति और क्रिकेट एक सा आनंद देते हैं। दिल्ली का चुनाव भी इसीलिए अब खासा मजेदार हो गया है। दिल्ली का सरजमीं पर घट रहीं घटनाएं बताती हैं कि राजनीति वास्तव में कितनी रोचक हो सकती है। कभी आंदोलनों की भूमि रही दिल्ली इन दिनों राजनीतिक आत्मसमर्पणों की भूमि बन गयी है। यहां नए समीकरण बन रहे हैं, नए संबंध जुड़ रहे हैं और रोज एक नया धमाका हो रहा है। यह चुनाव अभियान भले कई दिन चले किंतु यह वन डे क्रिकेट का रोमांच जगा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच सीधी जंग।
    दिल्ली का मैदान भाजपा और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ नहीं है, राजनीति के तीसरे कोण आम आदमी पार्टी ने मैदान को ही तिकोना नहीं बनाया है, उसमें रोचकता भी भरी है। आम आदमी पार्टी के सधे हुए तीरों, मीडिया के स्मार्ट इस्तेमाल और जुमलेबाजियों का सही उत्तर देने में कांग्रेस की क्षमता चुक सी गयी लगती है,किंतु भाजपा के तरकश में उनसे जूझने के तीर दिखते हैं- जिनमें किरण बेदी और शाजिया इल्मी का भाजपा में प्रवेश एक दिलचस्प प्रयोग रहा है। आप के नेता अरविंद केजरीवाल के कुर्सी छोड़ने के बाद, आप की लीडरशिप में यह अहसास गहरा हुआ है कि गलती तो हुयी है। इसे अरविंद खुद भी स्वीकार कर चुके हैं और अब दूसरा मौका मांगने जनता की अदालत में हैं। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में स्वयं को संगठनात्मक रूप से काफी मजबूत किया है। इसका प्रमाण लोकसभा के चुनाव है जहां वह सभी सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। यह अकेली सूचना आम आदमी पार्टी को दिल्ली में ताज का ख्वाब दिखा रही है।
  भाजपा जिस तरह लगातार विजयरथ पर सवार है उसे तो सपने देखने का हक है ही। किंतु कांग्रेस ने भी अजय माकन को आगे कर यह तो कहने की कोशिश की है कि उसने हथियार नहीं डाले हैं। कांग्रेस के पक्ष में निश्चित ही कोई वातावरण और आस नहीं है किंतु वह खत्म हो गयी है यह सोचना नासमझी है। उसके अपने जनाधार वाले कई नेता लोकसभा में अपनी जमानत खो बैठे यह भी सच है किंतु वह कोशिश करेगी कि उसकी आठ सीटें तो लौट आएं ताकि सत्ता समीकरणों में वह  अनुपस्थित न हो जाए। मीडिया को द्वंद चाहिए और इस द्वंद के लिए भाजपा और आप जबरदस्त हैं, बहुत मुफीद हैं। दोनों के पास कहने को, बताने और कुछ माहौल बनाने के लिए काफी कुछ है। खासकर टीवी पत्रकारों के लिए यह स्थितियां बहुत सुखद हैं, जहां दोनों पक्ष बोलने और नित्य ड्रामा क्रियेट करने के मास्टर हों।
    भाजपा को जहां केंद्रीय सत्ता में होने का मनोवैज्ञानिक लाभ है, वहीं मोदी विरोधी सभी राजनीतिक शक्तियों के लिए एकमात्र विकल्प आम आदमी पार्टी है। प्रतिपक्ष की वास्तविक जगह घेर लेना भी साधारण नहीं है किंतु आप ने दिल्ली में वह कर दिखाया है। आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं और अन्ना समर्थक नेताओं का भाजपा में आना एक ऐसी सूचना है, जिसकी घबराहट आम आदमी पार्टी में साफ देखी जा सकती है। बहुत कम समय में पार्टी का ऐसा बिखराव बताता है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी रैली में जिस तरह आम आदमी पार्टी और उसके नेता पर हमला बोला, उसने भी आम आदमी पार्टी को वास्तविक प्रतिपक्ष बनाकर कांग्रेस को हाशिए लगाने का काम किया है। शायद नरेंद्र मोदी अपने कांग्रेस मुक्त भारत के सपने से इतना जुड़े हुए हैं कि वे दिल्ली में उसे लड़ाई में भी मानने के लिए तैयार नहीं है और आम आदमी पार्टी को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। इससे मोदी विरोधी वोटों का एकत्रीकरण आम आदमी पार्टी के साथ हो सकता है। दिल्ली में बसपा नेता मायावती का सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा और  ऑल इंडिया मजिलिस-ए-इत्तिहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन औवेसी का दिल्ली से अपनी पार्टी को चुनाव न लड़ाने का फैसला बहुत कुछ कहता है। जबकि हाल में औवेसी की पार्टी महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है।
      ये समीकरण बताते हैं कि दिल्ली का चुनाव वन डे क्रिकेट जैसा ही रोचक होने वाला है। केजरीवाल, किरण बेदी, साजिया इल्मी, और जयाप्रदा जैसे किरदार तो इसमें रंग भरेंगें ही साथ ही कांग्रेस भी अपने अस्तित्व के लिए जूझेगी। दिल्ली में भाजपा के पास सात सांसद, तीन नगर निगम के साथ दिल्ली में उसकी सरकार होने के मनोवैज्ञानिक लाभ भी हैं। नेतृत्व न होने की बात कहकर आम आदमी पार्टी भाजपा पर सवाल खड़े कर रही थी, यहां तक कि उसने भाजपा नेता जगदीश मुखी वर्सेज अरविंद केजरीवाल के पोस्टर भी लगा दिए थे। अब जबकि किरण बेदी सरीखी अन्ना आंदोलन की प्रमुख नेत्री भाजपा के मंच पर हैं तो यह मुद्दा भी आम आदमी पार्टी के हाथ से जाता रहा। संभव है कि समाजसेवी अन्ना हजारे भी किरण बेदी के समर्थन में वोट की अपील करें, इससे एक नया दृश्य बन सकता है।
   यह भी मानना होगा अगर आमने सामने भाजपा-कांग्रेस होते तो इस चुनाव में इतना आनंद न आता। किंतु आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच यह चुनाव होने के नाते इसका रोमांच बढ़ गया है। क्योंकि दोनों दल अपने मीडिया इस्तेमाल, रणनीति कौशल और प्रचार रणनीति के लिए ख्यात हैं। दोनों एक- दूसरे को हर स्तर पर निपटाने की मुद्रा से लैस हैं। नरेंद्र मोदी विरोधी शक्तियां महाराष्ट्र, झारखंड और काश्मीर में भाजपा की सफलता से बौखलाई हुयी हैं। उन्हें लगता है कि अश्वमेघ का रथ अब दिल्ली में बांध ही लिया जाना चाहिए। इससे बिहार और यूपी में निर्माणाधीन जनता परिवार के रास्ते सुगम होंगें। मायावती का अचानक दिल्ली में अपने प्रत्याशी सभी सीटों पर लड़ाने का फैसला साधारण नहीं है। राजनीति की जरा सी समझ रखने वाले इसे समझते हैं।
    दिल्ली का जो भी फैसला होगा, वह राष्ट्रीय राजनीति में गहरे असर डालेगा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह आखिरी वक्त में दिल्ली का मामला अपने हाथ में लिया है और ताबड़तोड़ अन्ना आंदोलन के नेताओं को भाजपा में जगह मिली है, वह महत्वपूर्ण बात है। यानि भाजपा आलाकमान किसी भी कीमत पर दिल्ली पर अपने दांव कम नहीं करना चाहता। उन्हें पता है यह आधा-अधूरा छोटा सा राज्य भले हो, किंतु इसका प्रभाव बहुत व्यापक है। दिल्ली वास्तव में देश का दिल है और इसके परिणामों का प्रभाव पूरे देश की राजनीति पर पड़ता है। नरेंद्र मोदी इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं। अगर मोदी और शाह की टीम ने एक असंभव सी समझी जाने वाली जीत के लिए जम्मू- काश्मीर में जान लड़ा दी और सबसे ज्यादा वोट हासिल कर लिए तो यह सोचना नादानी है कि मोदी ने अरविंद के मुकाबले किरण बेदी को उतारकर खुद को मुक्त कर लिया है। दिल्ली में अभी बहुत कुछ होना है क्योंकि दोनों तरफ के किरदार बहुत स्मार्ट हैं ,इससे कुछ हो न हो स्मार्ट दिल्ली का सपना तो बिकेगा ही।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

रविवार, 11 जनवरी 2015

स्टार समाचार, सतना में प्रकाशित लेख


शनिवार, 10 जनवरी 2015

असभ्यताओं के संघर्ष का समय !


दूसरे विश्वासों को सम्मान और राष्ट्रवाद से ही रूकेगी खून की होली
-संजय द्विवेदी
     फ्रांस से लेकर सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम देशों में बहता खून आखिर क्या कह रहा है? मानवता के शत्रु, पंथ की नकाब पहनकर मनुष्यों के खून की होली खेल रहे हैं। वे यह सारा कुछ पंथ राज्य की स्थापना के लिए हो रहा है। सैम्युल पी. हटिंग्टन ने अपनी किताब क्लैस आफ सिविलाइजेशन में इन खतरों पर बात करते हुए इसे सभ्यताओं के संघर्ष की संज्ञा दी थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सभ्यताएं भी संघर्ष करती हैं? वास्तव में इसे तो असभ्यताओं के संघर्ष की संज्ञा दी जानी चाहिए। लगता है यह पूरा समय असभ्यताओं के विस्तार का समय है और लगता है कि असभ्यताओं का नया उपनिवेश भी स्थापित हो रहा है। अगर दुनिया के महादेशों में मानवता के अंश और बीज होते तो वे इन घटनाओं पर शर्मसार होते और उनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कदम उठाते। आखिर यह सिलसिला कब रूकेगा, इस प्रश्न के उत्तर भी नदारद हैं।
    हम देख रहे हैं कि 21 वीं सदी में यह खतरा और गहरा हो रहा है। अपने ही संप्रदाय बंधुओं का खून बहाने की वृत्ति भी देखी जा रही है। आतंकवादी संगठन नई तकनीकों और हथियारों से लैस हैं। वे राजसत्ता और समाज दोनों को चुनौती दे रहे हैं। मानवता सामने खड़ी सिसक रही है। ये चित्र हैरान करने वाले हैं किंतु इससे निजात पाना कठिन दिखता है।
   देखने में आ रहा है कि पंथ ने राष्ट्र-राज्य की सीमाएं तोड़कर एक नया संसार बना लिया है। जहां लोग अपने राष्ट्र की सीमाएं छोड़कर दूर देश में अपने पंथ की खातिर खून बहाने के लिए एकत्र हो रहे हैं। आंतकी संगठनों के आह्वान पर अपना देश छोड़कर खून बहाने के लिए निकलना साधारण नहीं है। भारत, फ्रांस और ब्रिटेन के नागरिक भी खून बहाने वाली जमातों में शामिल हैं। यह बात बताती है कि अब राष्ट्रीयता पर पंथ का विचार भारी पड़ रहा है। पंथ की उग्रता ने राष्ट्रों को शर्मशार किया है। क्या हमें उन पंथों की पहचान नहीं करनी चाहिए जो देश से बड़ा अपने पंथ को बता रहे हैं। क्या कारण है कि सांप्रदायिकता की भावना में हम अपने ही भाई का खून बहाने से नहीं चूकते। माटी का प्यार कमजोर हो रहा है और पांथिक भावनाएं मजबूत बन रही हैं। आज भारत जैसे देश के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह नए विचारों के साथ खड़ा हो। क्योंकि वैश्विक आतंकवाद के सामने वह सबसे कमजोर शिकार है। देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की भावना को गहरा करना जरूरी है। अपनी शिक्षा में, अपने नागरिकबोध में हमें देशभक्ति की भावना को तीव्रतम करना होगा। हम भारतीय हैं और यही भारतबोध हमें जागृत करना है। यही भारतबोध हमारा धर्म है और हमारा पंथ उसके बाद है। आज यह सवाल हर नागरिक से पूछने की जरूरत है कि पहले राष्ट्र है या उसका पंथ। हमें हर मन में यह स्थापित करना होगा कि पंथ या पूजा पद्धति हमेशा द्वितीयक है और हमारा राष्ट्र सर्वोच्च है। तभी हम इस आंधी को रोक पाएंगें। मैं ही श्रेष्ठ हूं, मेरा पंथ ही सर्वश्रेष्ठ है की भावना चलते यह स्थितियां पैदा हुयी हैं। अगर तमाम देशों के लोग यह भाव अपने नागरिकों में भर पाते हैं कि मेरी माटी,मेरा देश सबसे बड़ा है- कोई भी पंथ या विचारधारा उसके बाद है तो खून बहने से रोका जा सकता था। भारत इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि हमारी सांस्कृतिक परंपरा के सूत्र वसुधैव कुटुम्बकम् की बात कहते हैं। यह विचार आशा का विचार है क्योंकि यह सर्वे भवंतु सुखिनः की अवधारणा पर काम करने वाला समाज है। संकट यह है कि हम अपने विचार को भूल रहे हैं। इसलिए आतंकी ताकतें कामयाब होती हुई दिखती हैं और उन्होंने हमारे युवाओं के हाथ में कहीं बंदूक, कही एके-47 तो कहीं पत्थर पकड़ा रखे हैं। पंथ के नाम पर हो रहे कत्लेआम के अलावा विचारधारा के नाम पर भी खून बहा रहे कम्युनिस्ट या उग्र माओवादी इसी विचार का हिस्सा हैं। क्या किसी विचार और पंथ या समूह को लोगों की हत्याओं की आजादी दी जा सकती है? एक सभ्य समाज में रह रहे हम लोगों का मुकाबला कैसे असभ्यों से है, जो असहमति या विविध विचारों को फलने-फूलने तो दूर, उसे सांस लेने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं। ऐसे में हमें तय करना होगा कि हम पंथों की उस जड़ पर चोट करें जो खुद को ही श्रेष्ठ मानती है और इतना तक तो ठीक है पर उन्हें न मानने वालों को खत्म कर देने के स्वप्न देखती है। विविधता और बहुलता एक प्राकृतिक तत्व है। यह ऊपरवाले के द्वारा ही बनाई गयी है। इसे जो नहीं समझते वे जाहिल हैं। उन्हें न तो धर्म का पता है, न पंथ, न ही प्रकृति को वे समझते हैं। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर बढ़ना होगा जो विविध विश्वासों, विविध विचारों और पंथों के बीच सहजता से जी सके। एक- दूसरे के विश्वासों का आदर और उसकी अस्मिता की रक्षा कर सके। यह होगा, सिर्फ माटी के प्रति अटूट प्यार से। सबसे बड़ा है मेरा देश, मेरा राष्ट्र सर्वोपरि है। उसके एक-एक व्यक्ति से मेरा रिश्ता है। इस माटी का ऋण मुझे चुकाना है। यह भाव आते ही आप दूसरे देश में अपने पंथ की लड़ाई लड़ने नहीं जाएंगें। अपनी सेना और अपनी फौज पर पत्थर नहीं फेंकेंगें, अपने लोगों का खून बहाते हुए आपके हाथ कांपेंगें, मुंबई की अमर जवान ज्योति पर हमला करने की आप सोच भी नहीं पाएंगें।

   हम सब एक माटी के पुत्र और एक सांस्कृतिक प्रवाह के उत्तराधिकारी हैं। मेरा राष्ट्र ही मेरा देवता है, मैं इस मादरेवतन के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दूंगा। आज इसी भावना की जरूरत है। ऐसा हो पाया तो हम दुनिया में शांति और सद् भावना को स्थापित होते हुए देख पाएंगें। खून बहाते लोगों को भी इससे सबक मिलेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम यह भावना स्थापित करें कि देश प्रथम। देश सबसे ऊपर होगा तो हम कई संकटों से निजात पा सकेंगें। अपने-अपने देश को सर्वोच्च बनाएं और विश्वबंधुत्व का प्रसार करें। भारत के वैश्विक परिवार दर्शन को दुनिया में स्थापित करें। यही दर्शन विश्वमानवता को सुख-शांति का मार्ग दिखा सकता है। कटुता को समाप्त कर सकता है। विभिन्न पंथों के आपसी संघर्ष ने पूरी दुनिया में सिर्फ खून की नदियां बहाई हैं। क्योंकि ये पंथ विस्तारवाद की भावना से पीड़ित हैं। ये चाहते हैं कि पूरी दुनिया एक ही रंग में रंग जाए। जबकि हमें पता है कि यह असंभव है। दुनिया में विविध विचार, विश्वास और आस्थाएं साथ-साथ सांस लेती हैं, ऐसा होना भी चाहिए। बावजूद इसके इस सत्य को स्वीकार कर लेने में कुछ पंथों को मुश्किल क्यों है, यह समझना कठिन है। दुनिया में खून बहने से रोकने का अब एक ही तरीका है कि हम अपने ही विश्वास को श्रेष्ठतम मानना बंद करें और दूसरों को भी जगह और सम्मान दें। इससे दुनिया ज्यादा सुंदर, ज्यादा मानवीय और ज्यादा रहने लायक बनेगी।

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

आइए बनाएं एकात्म मानवदर्शन पर आधारित मीडिया

-संजय द्विवेदी
      पं. दीनदयाल उपाध्याय स्वयं बहुत बड़े पत्रकार और संचारक थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभलेखन, पुस्तक लेखन उनकी रूचि का विषय था। उन्होंने लिखने के साथ-साथ बोलकर भी एक प्रभावी संचारक की भूमिका का निर्वहन किया है। उनकी स्मृति को रेखांकित करते हुए क्या हम विचार कर सकते हैं कि समाज जीवन के हर पक्ष में एकात्म मानवदर्शन किस तरह प्रभावी हो सकता है। भरोसा करना कठिन है कि श्री दीनदयाल उपाध्याय जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने भारतीय राजनीति और समाज को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया कि जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी मालिका तैयार हुयी, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली। क्या विचार सच में इतने ताकतवर होते हैं या यह सिर्फ समय का खेल है? किसी भी देश की राजनीतिक निष्ठाएं एकाएक नहीं बदलतीं। उसे बदलने में सालों लगते हैं। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर श्री नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इसमें इस विचार को समर्पित लाखों-लाखों अनाम सहयोगियों को भुलाया तो जा सकता है किंतु उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
राजनीति के लिए नहीं, विचार के साधकः
  पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के लिए नहीं बने थे, उन्हें तो एक नए बने राजनीतिक दल जनसंघ में उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मांग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर (गुरूजी) ने राजनीति में भेजा था। यह एक संयोग ही था कि डा. मुखर्जी और दीनदयाल जी दोनों की मृत्यु सहज नहीं रही और दोनों की मौत और हत्या के कारण आज भी रहस्य में हैं।  दीनदयालजी तो संघ के प्रचारक थे। आरएसएस की परिपाटी में प्रचारक एक गृहत्यागी सन्यासी सरीखा व्यक्ति होता है, जो समाज के संगठन के लिए अलग-अलग संगठनों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में काम करता है। देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन बन चुके आरएसएस के लिए वे बेहद कठिन दिन थे। राजसत्ता उन्हें गांधी का हत्यारा कहकर लांछित करती थी, तो समाज में उनके लिए जगह धीरे-धीरे बन रही थी। शुद्ध सात्विक प्रेम और संपर्कों के आधार पर जैसा स्वाभाविक विस्तार संघ का होना था, वह हो रहा था, किंतु निरंतर राजनीतिक हमलों ने उसे मजबूर किया कि वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आए। खासकर संघ पर प्रतिबंध के दौर में तो उसके पक्ष में दो बातें कहने वाले लोग भी संसद और विधानसभाओं में नहीं थे। यही पीड़ा भारतीय जनसंघ के गठन का आधार बनी। डा. मुखर्जी उसके वाहक बने और दीनदयाल जी के नाते उन्हें एक ऐसा महामंत्री मिला जिसने दल को न सिर्फ सांगठनिक आधार दिया बल्कि उसके वैचारिक अधिष्ठान को भी स्पष्ट करने का काम किया।
चुनावी सफलताओं के बिना बने राजनीति के दिशावाहकः
     पं. दीनदयाल जी को गुरूजी ने जिस भी अपेक्षा से वहां भेजा वे उससे ज्यादा सफल रहे। अपने जीवन की प्रामणिकता, कार्यकुशलता, सतत प्रवास, लेखन, संगठन कौशल और विचार के प्रति निरंतरता ने उन्हें जल्दी ही संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं का श्रद्धाभाजन बना दिया। बेहद साधारण परिवार और परिवेश से आए दीनदयालजी भारतीय राजनीति के मंच पर बिना बड़ी चमत्कारी सफलताओं के भी एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित होते दिखे, जिसे आप आदर्श मान सकते हैं। उनके हिस्से चुनावी सफलताएं नहीं रहीं, एक चुनाव जो वे जौनपुर से लड़े वह भी हार गए, किंतु उनका सामाजिक कद बहुत बड़ा हो चुका था। उनकी बातें गौर से सुनी जाने लगी थीं। वे दिग्गज राजनेताओं की भीड़ में एक राष्ट्रऋषि सरीखे नजर आते थे। उदारता और सौजन्यता से लोगों के मनों में, संगठन कौशल से कार्यकर्ताओं के दिलों में जगह बना रहे थे तो वैचारिक विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए देश के बौद्धिक जगत को वे आंदोलित-प्रभावित कर रहे थे। वामपंथी आंदोलन के मुखर बौद्धिक नेताओं की एक लंबी श्रृखंला, कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से तपकर निकले तमाम नेताओं और समाजवादी आंदोलन के डा. राममनोहर लोहिया जैसे प्रखर राजनीतिक चिंतकों के बीच अगर दीनदयाल उपाध्याय स्वीकृति पा रहे थे, तो यह साधारण घटना नहीं थी। यह बात बताती है गुरूजी का चयन कितना सही था। उनके साथ खड़ी हो रही सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख. जेपी माथुर,सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे सैकड़ों कार्यकर्ताओं की पीढ़ी को याद करना होगा, जिनके आधार पर जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा परवान चढ़ी है। दीनदयाल जी इन सबके रोलमाडल थे। अपनी सादगी, सज्जनता, व्यक्तियों का निर्माण करने की उनकी शैली और उसके साथ वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें बनाया और गढ़ा था।
भारतीय राजनीतिक विमर्श में सार्थक हस्तक्षेपः
    एकात्म मानववाद के माध्यम से सर्वथा एक भारतीय विचार को प्रवर्तित कर उन्होंने हमारे राजनीतिक विमर्श को एक नया आकाश दिया। यह बहुत से प्रचलित राजनीतिक विचारों के समकक्ष एक भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसे वे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना रहे थे। अपने इस विचार को वे व्यापक आधार दे पाते इसके पूर्व उनकी हत्या ने तमाम सपनों पर पानी फेर दिया। जब वे अपना श्रेष्ठतम देने की ओर बढ़ रहे थे, तब हुयी उनकी हत्या ने पूरे देश को अवाक् कर दिया। दीनदयाल जी ने अपने प्रलेखों और भाषणों में एकात्म मानववाद शब्द पद का उपयोग किया है। भाजपा ने 1985 में इसे इसी नाम से स्वीकार किया, किंतु नानाजी देशमुख और संघ परिवार के बीच एकात्म मानवदर्शन नामक शब्दपद स्वीकृति पा चुका है। यह एक सुखद संयोग ही है कि उनके द्वारा प्रवर्तित एकात्म मानवदर्शन की विचारयात्रा अपने पांच दशक पूर्ण कर चुकी है। यह उसकी स्वर्णजयंती का साल है। इसके साथ ही अगले साल दीनदयाल जी का शताब्दी वर्ष भी प्रारंभ होगा।
एकात्म मानवदर्शन के आधार पर कैसा मीडिया बनेगाः
  ऐसे प्रसंग यह विचार करना जरूरी हो जाता है कि आखिर एकात्म मानवदर्शन के आधार पर हमारी मीडिया का चेहरा बने तो वह कैसा होगा? एकात्म मानवदर्शन को लेकर समाज जीवन के विविध पक्षों में कैसे परिवर्तन होंगें, इस पर विद्वानों ने अलग-अलग विचार किया है। किंतु हमें यह जानना जरूरी है कि आज के सबसे प्रभावकारी माध्यम मीडिया में एकात्म भाव की उपस्थिति से क्या बदलाव आएंगें। एकात्म मानवदर्शन क्योंकि विभेद का दर्शन नहीं है, वह विषयों पर संपूर्णता में विचार करने वाला दर्शन है। एक ऐसी चिंतनधारा है जिसमें मनुष्यता के मूल्य और मनुष्य की मुक्ति संयुक्त है। दीनदयाल जी अपनी विचारधारा में मीडिया को अलग करके नहीं देखते। वे यही दृष्टि रखते किस तरह मीडिया समाज की एकता, उसकी बेहतरी और मनुष्यता की मुक्ति में सहायक हो।
  संवाद मनुष्य की आवश्यकता भी है और उसकी प्रेरणा भी। वह संवाद किए बिना रह नहीं सकता। उसका समूची सृष्टि से रिश्ता है और संवाद है। जिसे हम प्रकृति से संवाद की भी संज्ञा देते हैं। मनुष्य के लिए संवाद कैसा हो इस पर बहुत विचार हुआ है। सूचना की भी इसमें एक बड़ी भूमिका है। इस भूमिका का वास्तविक निर्वाह ही हमें मनुष्य बनाता है। एक शायर शायद इसीलिए कहते हैं- आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना। यानि आदमी को इंसान या मनुष्य बनाने की यात्रा एक कठिन यात्रा है। कठिन संकल्प से ही  व्यक्ति रूपांतरित होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर व्यक्ति की सूचना का संचार कितना व्यापक हो। सवाल यह भी है कि क्या हर सूचना व्यक्ति के लिए जरूरी है। साथ ही ऐसा क्या किया जाए कि व्यक्ति को सूचना इस प्रकार दी जाए, जिससे उसके विकास में मदद मिले न कि वह भ्रमित हो।
मीडिया में लाइए शुभदृष्टिः
   एकात्म मानवदर्शन के आधार बनने वाले मीडिया और सूचना की दुनिया में सबका हित निहित होना है। वह एकांगी मीडिया नहीं होगा, वह सूचना को जारी करने से पहले उसके प्रभाव का भी आकलन करेगा। मीडिया और शुभ दोनों विरोधी लगते हैं। पश्चिमी अवधारणा में खबर तभी बनेगी, जब कुछ अशोभन हो, चौंकानेवाला हो, दर्द का विस्तार करने वाला हो, तो इसमें शुभदृष्टि कहां है? एकात्म भाव से भरा मीडिया इसके विपरीत चलेगा। वह हर सूचना में शुभदृष्टि का विचार करेगा। सूचनाओं को विद्रूप करने, उसे खींचने के बजाए- वह शुभदृष्टि के चलते उसकी न्यूनतम नकारात्मकता का विचार करेगा। जाहिर तौर पर यह मीडिया आज की मीडिया के लीक से अलग चलेगा। वह बाजार और व्यापार के लिए संवाद से सौदा नहीं करेगा। वह मनुष्यता और मनुष्य की मुक्ति को केंद्र में रखते हुए वही परोसेगा, जिससे समाज में जुड़ाव बढ़े और शुभदृष्टि का विचार हो। क्या ऐसा मीडिया संभव है? साथ ही यह सवाल भी है कि यदि समाज में शुभदृष्टि का विचार स्थापित हो जाता है तो क्या हमारा परंपरागत मीडिया अप्रासंगिक नहीं हो जाएगा? सवाल यह भी मौजू है कि मीडिया में सकारात्मकता का प्रसार क्या मुख्यधारा के मीडिया को शक्ति दे सकता है?
   क्या विचारों और सुसंवाद पर आधारित ऐसे मीडिया की रचना संभव है जिसकी दृष्टि बाजारू न हो? आज दुनिया में 24 घंटे का कोलाहल करने वाला मीडिया उपलब्ध है, क्या इसका भी नियमन नहीं होना चाहिए कि आखिर चौबीस घंटें हमें मीडिया क्यों चाहिए? नकारात्मकता, बिजनेस माडल के आधार पर चलने वाला मीडिया आखिर किसकी जरूरत है? भारत में अभी मीडिया का बहुत व्याप न होने के बावजूद भी अब इसके कंटेट और इसकी जरूरतों पर बात शुरू हो गयी है। हमें यह विचार करने का समय आ गया है कि हमें सोचें कि आखिर हमें कितना और कैसा मीडिया चाहिए? हम कैसे इस मीडिया में वह एकात्म भाव भर सकते हैं जो हर मनुष्य में मौजूद है और नैसर्गिक है। मीडिया की परंपरागत संवाद शैली से अलग हमें इसे शुभदृष्टि की ओर ले जाने की जरूरत है।
मीडिया और समाज अलग-अलग नहीं चल सकतेः
   जीवन मूल्यों की जितनी जरूरत मनुष्य को है, उतनी ही मीडिया को भी है। यह संभव नहीं है कि समाज तो मूल्यों के आधार पर चलने का आग्रही हो और उसका मीडिया, उसकी फिल्में, उसकी प्रदर्शन कलाएं, उसकी पत्रकारिता नकारात्मकता का प्रचार कर रही हों। समाज और मनुष्य को प्रभावित करने का सबसे प्रभावी माध्यम होने के नाते हम इन्हें ऐसे नहीं छोड़ सकते। इन्हें भी हमें अपने जीवन मूल्यों के साथ जोड़ना होगा, जो मनुष्यता और मानवता के विस्तार का ही रूप हैं। अगर हम ऐसा मीडिया खड़ा कर पाते हैं तो समाज के बहुत सारे संकट स्वयं दूर हो जाएंगें। फिर टीवी बहसों से निष्कर्ष निकलेगें, फिर फिल्में समाज में समरसता और ममता का भाव भरेंगीं, फिर खबरें डराने के बजाए जीने का हौसला देंगीं। फिर खबरों का संसार ज्यादा व्यापक होगा। वे जिंदगी के हर पक्ष का विचार करेंगीं। वे एकांगी नहीं होंगीं, पूर्ण होंगीं और शुभता के भाव से भरी-पूरी होंगीं। जाहिर है यहां किसी धार्मिक और आध्यात्मिक मीडिया की बात नहीं हो रही है। सिर्फ उस दृष्टि की बात हो रही है जो एकात्म मानवदर्शन हमें देता है। वह है सबको साथ लेकर चलने, सबका विकास करने और सबसे कमजोर का सबसे पहले विचार करने की बात है। जहां दुनिया को बनाने वाले सारे अववय एक दूसरे से जुड़े हैं। जहां सब मिलकर संयुक्त होते हैं और वसुधा को परिवार समझने की दृष्टि देते हैं।

  दीनदयाल जी की स्मृतियां और उनके द्वारा प्रतिपादित विचारदर्शन एक सपना भी है तो भी इस जमीं को सुंदर बनाने की आकांक्षा से लबरेज है। उसकी अखंडमंडलाकार रचना का विचार करें तो मनुष्यता खुद अपने उत्कर्ष पर स्थापित होती हुयी दिखती है। इसके बाद उसका समाज और फिल्में, उसका समाज और उसका मीडया, उसका समाज और उसके मूल्य, उसका राह और उसका मन सब एक हो जाते हैं।  एकात्म सृष्टि से, एकात्म व्यक्ति से, एकात्म परिवेश से जब हम हो जाते हैं तो प्रश्नों के बजाए सिर्फ उत्तर नजर आते हैं। समस्याओं के बजाए समाधान नजर आते हैं। संकटों के बजाए उत्थान नजर आने लगता है। दुनिया एकात्म मानवदर्शन की राह पर आ रही है, अपने भौतिक उत्थान के साथ आध्यात्मिकता को संयुक्त करने के लिए वह आगे बढ़ चुकी है। यह होगा और जल्दी होगा, हम चाहें तो भी होगा, नहीं चाहे तो भी होगा। क्या हम घरती पर स्वर्ग उतारने के सपने को अपनी ही जिंदगी में सच होते देखना चाहते हैं, तो आइए इस विचार दर्शन को पढ़कर, जीवन में उतारकर देखते हैं। यह हमें इसलिए करना है क्योंकि हमारा जन्म भारत की भूमि पर हुआ है और जिसके पास पीड़ित मानवता को राह दिखाने का स्वाभाविक दायित्व सदियों से आता रहा है। एक बार फिर यह दायित्व क्या हम नहीं निभाएंगें?

विनय उपाध्याय को पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान



मीडिया विमर्श के आयोजन में 7 फरवरी को होंगे अलंकृत
    भोपाल,7 जनवरी,2015। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष कला समय (भोपाल) के संपादक श्री विनय उपाध्याय  को दिया जाएगा।श्री विनय उपाध्याय  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। जनवरी,1998 से वे कला-संस्कृति पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका कला समयका संपादन कर रहे हैं। सम्मान कार्यक्रम 7, फरवरी, 2015 को गांधी भवन, भोपाल में सायं 5.30 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। सम्मान समारोह के मुख्यअतिथि कथाकार एवं उपन्यासकार तेजिंदर होंगे तथा अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें। आयोजन में साहित्यकार गिरीश पंकज, सृजनगाथा डाट काम के संपादक जयप्रकाश मानस और कमोडिटी कंट्रोल डाट काम (मुंबई) के संपादक कमल भुवनेश विशिष्ट अतिथि होंगें।
       पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयर, डा. सच्चिदानंद जोशी, डा.सुभद्रा राठौर और जयप्रकाश मानस शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज और व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।
कौन हैं विनय उपाध्यायः ­
  साहित्य,संस्कृति और कला पत्रकारिता में विगत 25 वर्षों से समान सक्रिय। दैनिक भास्कर और नई दुनिया समाचार समूह में लम्बी सम्बद्धता के बाद इन दिनों दो सांस्कृतिक पत्रिकाओं "कला समय" और "रंग संवाद" का सम्पादन और अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिए अनेक प्रादेशिक और राष्ट्रीय सम्मानो से विभूषित। जनवरी 1998 में कला और विचार की द्वैमासिक हिंदी पत्रिका  "कला समय" का सम्पादन आरम्भ। साहित्य और कला जगत से जुडी अनेक विभूतियों और घटना-प्रसंगों पर दस्तावेज़ी  अंकों का प्रकाशन। उनके द्वारा संपादित कलासमय पत्रिका माधवराव सप्रे समाचार पत्र और शोध संस्थान द्वारा रामेश्वर गुरु पुरूस्कार से सम्मानित। भारत सहित विदेशों में भी शोध-अध्ययन के लिए कला समय सन्दर्भ पत्रिका के बतौर मान्य। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और कंठ संगीत में विशारद। देश भर की  पत्र -पत्रिकाओं में सांस्कृतिक विषयों पर नियमित स्तम्भ और समसामयिक कला मुद्दों पर आलेख और टिप्पणियों का प्रकाशन। दूदर्शन के लिए अनेक वृत्तचित्रों का आलेख और पार्श्व स्वर तथा संगीत-नृत्य के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समारोहों के संचालन का सीधा प्रसारण। कई निजी प्रतिष्ठानो द्वारा निर्मित दृश्य-श्रव्य प्रस्तुतियों का संचालन। बतौर कला समीक्षक देश के विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक यात्राएं और अखबारों के लिए विशेष रिपोर्टिंग। कविता लेखन और संगीत  में भी विशेष  रूचि। प्रसार भारती द्वारा गणतंत्र दिवस के प्रतिष्ठित सर्व भाषा कविता सम्मलेन हेतु हिंदी के युवा कवि बतौर बनारस में शिरकत। मधुकली वृन्द द्वारा जारी संगीत अलबमों में गायक स्वर। एक  दर्जन से भी ज्यादा साहित्यिक -सांस्कृतिक संस्थाओं के मानद सदस्य। इन दिनों आईसेक्ट युनिव्हर्सिटी से सम्बद्ध वनमाली सृजन पीठ के राज्य समन्वयक। एक दशक पहले मॉरीशस का साहित्यिक प्रवास।


मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ मे दिनांक 30.12.2014 को छपा लेख


सोमवार, 29 दिसंबर 2014

जाते हुए साल का विदागीत!

-संजय द्विवेदी

    जाते हुए साल को विदाई देते हुए हम उम्मीदों से भरे हुए हैं, यह मानकर कि 2015 भारत के लिए कुछ ज्यादा रोशनी लेकर आएगा। देश उम्मीदों से भरा हुआ है और दुनिया भर में बसे भारतवंशी भी अपने देश से शिकायतें नहीं कर रहे हैं, उन्हें भी लगने लगा है कि कुछ अच्छा हो सकता है। इसलिए 2014 को थैंक्स कि उसने हमें सपने देखने लायक बनाया। उसने हमें पिछले दस सालों के अवसाद, पीड़ा और सत्ता की मदांध शैली से मुक्त किया। आज देश संवाद करता हुआ, बोलता हुआ, अपने सपनों की तरफ दौड़ लगाता हुआ, कुछ करने का भाव लिए हुए दिखता है। यह उम्मीदें ऐसे ही नहीं आयी हैं। ये आई हैं एक राजनीतिक परिवर्तन के नाते जिसके लिए 2014 को हम भूल नहीं सकते। साल-2014 भारत से भारत के परिचय का साल है। थके हुए लोगों और हारे हुए मन को दिलासा देने का साल है। हिंदुस्तान  ही वह देश है, जिसे कभी राजसत्ता ने बहुत आंदोलित नहीं किया। हमारा समाज अपने स्वाभिमान और स्वावलंबन पर भरोसा करने वाला समाज है। हमारा समाज सत्ता की ओर देखने वाला समाज नहीं है, ना ही वह सत्ता के बल पर आगे बढने वाला समाज है। इस समाज की जिजीविषा सालों साल से उसके साथ है। शासक और शासन की भूमिका को हमेशा हमने बहुत सीमित माना। किंतु यह अच्छे और बुरे का फर्क जानने वाला समाज जरूर है। उसे पता है कि सत्ता को कितना मान देना और कब बदल देना।
     आप कल्पना करें कि यूपीए-3 के हाथ इस देश की सत्ता लगी होती तो क्या हम 2014 को माफ कर पाते। आने वाला साल क्या उम्मीदों का साल होता। सत्ता की सीमित भूमिका के बावजूद उसका सकारात्मक और ऊर्जावान होना जरूरी है। उसकी ऊर्जा से ही समाज निश्चिंत होकर अपने सपनों में रंग भरता है। आप मानें या न मानें वह उत्साह और सकारात्मकता 2014 हमें देकर जा रहा है। यह सकारात्मकता बनाए रखना, सत्ता के नए सवारों का काम है। हमें अनूकूलता चाहिए, हम अपना श्रेष्ठतम देने के लिए आतुर समाज हैं। दुनिया इसीलिए हमें एक नई नजर से देख रही है। 2014 की सबसे बड़ी देन यही है कि वह एक ऐसे परिवर्तन का वाहक बना है, जिसका यह देश लंबे समय से इंतजार कर रहा था। समाज जीवन ऐसी ही सूचनाओं से ताकत पाता है। हम एक राष्ट्र हैं यह भावना भी हममें आज दिखने लगी है। जम्मू-काश्मीर की विकराल बाढ़ हो या सीमापार पाकिस्तान बच्चों की सामूहिक हत्या, देश का मन विचलित हुआ और उसने भावनाओं के माध्यम से इस दर्द को बांटा। यही इस भूभाग की विशेषता है। हम अपने और पड़ोसी दोनों के दुख में दुखी होते हैं और उसकी खुशी में खुश होते हैं। 2014 की बुरी सूचनाएं भी एक भावनात्मक क्षण थी, जिसमें देश एक दिखा। यही अपनी माटी और अपने लोगों से एकात्म होना है। अगर हमें अपनी धरती और अपने लोगों से प्रेम हो जाए तो सारा कुछ गलत होता हुआ रूक जाएगा। सवाल यह है कि क्या हम अपने देश से प्यार करते हैं। सवाल यह भी है कि क्या हम कुछ करने से पहले यह सवाल करते हैं कि इससे मेरा देश कैसा बनेगा? 2014 ने हमें वह नजर दी है जब हम देश की सोचने लगे हैं।
    युवा शक्ति के हाथों में स्वच्छता अभियान की झाड़ू बहुत प्रतीकात्मक प्रयास है, किंतु इसके बड़े मायने हैं। प्रधानमंत्री द्वारा लगातार आकाशवाणी पर देशवासियों से संवाद और उसमें हर बार किसी नए विषय पर बात बहुत प्रतीकात्मक है किंतु इसके मायने हैं। यह देश तो संवाद ही चाहता था। किंतु नेतृत्व दस वर्षों तक मौन रहा। बड़ी से बड़ी घटना पर मौन और अवश। आखिर यह देश चलता कैसे? लोग सत्ता से चाहते क्या हैं? वह उन्हें चैन से काम करने, जीने और आगे बढने का वातावरण उपलब्ध कराए। 2014 के आखिरी दिन काम को प्रतिष्ठा देने वाले दिन हैं। ये दिन अवसाद और काहिली के विदाई के भी दिन हैं। उत्साह और स्वाभिमान के संचार के दिन हैं। आज लोगों को लगने लगा है कि कुछ बदल रहा है, बदल सकता है। इसके पहले के मंत्र सुनें इस देश का कुछ नहीं हो सकता, कुछ नहीं बदलेगा, भगवान ही मालिक –ऐसा कहने वाले लोग घट रहे हैं। नकारात्मकता का भाव घटा है। परिर्वतन को किस तरह स्वीकारा गया इसे समझना हो तो नोबेल विजेता अर्थशास्त्री श्री अर्मत्य सेन की सुन लीजिए। वे कहते हैं-मैं श्री मोदी का आलोचक हूं,लेकिन मुझको कहना पड़ेगा कि उन्होंने जन-मन में यह आस्था पैदा कर दी है कि कुछ किया जा सकता है। मेरे विचार से यह  खासी बड़ी उपलब्धि है। यह उनके लिए मेरी तरफ से एक प्रशस्ति है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्षता और अन्य मुद्दों पर हमारा मतभेद खत्म नहीं हो जाता।
      अफसोस यह नकारात्मकता राजनीति ने पैदा की थी। नौकरशाही ने पैदा की थी। सेवकों के मालिक की तरह व्यवहार ने पैदा की थी। आज भी हमें इस तंत्र में बहुत कुछ बदलने की जरूरत है। आने वाले सालों में हमें सोचना होगा कि आखिर हम कैसे सरकार की सोच में आम लोगों के संवेदना भर सकते हैं? कैसे मालिक और शासक की तरह आचरण कर रही सरकारी नौकरशाही को बदल सकते हैं? कैसे इस मशीनरी में लगी जंग को साफ कर सकते हैं? 2014 हमें सपने देकर जा रहा है। अब हमें इसमें रंग भरने का काम करना है। उसने सपने जगाए हैं और देश ने अब अपने सपनों की तरफ दौड़ लगा दी है।
    सरकारें आज सुशासन की बात करने लगी हैं। संभव है कि वे बातों से आगे भी बढ़ें, क्योंकि देश आगे बढ़ चुका है, जनता आगे बढ़ चुकी है। कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव को साधारण सूचना मत मानिए- यह राजनीतिक संस्कृति में भी बदलाव की भी सूचना है। समाज अब बदला हुयी सरकार से बदले हुए तंत्र की भी अपेक्षा कर रहा है। सत्ता में जो लोग आए हैं, वे सत्ता के स्वाभाविक अधिकारी नहीं है, उन्हें जनता ने यह सत्ता अपनी घोर निराशा में सौंपी है। जाहिर तौर पर उनका दायित्व बहुत बढ़ गया है। उनके सामने भारत की विशाल जनता के मन के अनुरूप आचरण का दबाव है। जातियों, वर्गों, उपवर्गों और क्षेत्रीयताओं के नारों के बीच राष्ट्र की आत्मा को स्वर देने वाला नेतृत्व अरसे बाद मिला है। वह संवाद को कृति में बदलने का आह्वान कर रहा है, अपने पस्तहाल तंत्र को सक्रिय कर रहा है। काम के लिए प्रेरित कर रहा है। ऐसे में समाज की निष्क्रिय प्रतिक्रिया से आगे बढ़ने की जरूरत है। समाज को तय करना होगा कि आखिर वह कैसा देश देखना चाहते हैं? पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम विजन-2020 की बात करते हैं। अब इसमें वक्त कम बचा है। जाते हुए साल का संदेश है कि हम अपनी गति बढ़ाएं। ज्यादा तेजी से अपनी कमियों का परिष्कार करते हुए देश की जरूरतों को पूरा करें। बाजार और मीडिया के शोर में वास्तविकताओं का आकलन करें। छूट रहे लोगों और क्षेत्रों को भी साथ लें। एक ऐसा भारत बनाने की ओर बढ़ें जिसमें सबका साथ-सबका विकास का नारा हकीकत में बदलता हुआ दिखे। देश का समाज वास्तव में बहुत स्वावलंबी और कर्मठ समाज है। सरकारी तंत्र और नौकरशाही की अकर्मण्यता के बावजूद यह देश धड़क रहा है और अपने सपनों में रंग भरने के लिए आतुर है। लोगों की कर्मठता और लगातार अच्छा काम करने के कारण ही दुनिया की मंदी का असर भारत में नहीं दिखता। सरकारी नीतियों की विफलता के वावजूद देश ने अपनी विकास की गति बनाए रखी है। सन् 2015 की देहरी पर खड़े होकर हम यह कह सकते हैं कि जाते हुए साल ने हमें इस लायक तो बना ही दिया है कि हम नए साल के स्वागत में दिल से कह सकें-हैप्पी न्यू ईयर।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ में छपे लेख



नेशनल दुनिया और स्वदेश में छपे लेख