-संजय द्विवेदी
जाते हुए साल को विदाई देते हुए हम उम्मीदों से
भरे हुए हैं, यह मानकर कि 2015 भारत के लिए कुछ ज्यादा रोशनी लेकर आएगा। देश
उम्मीदों से भरा हुआ है और दुनिया भर में बसे भारतवंशी भी अपने देश से शिकायतें
नहीं कर रहे हैं, उन्हें भी लगने लगा है कि कुछ अच्छा हो सकता है। इसलिए 2014 को
थैंक्स कि उसने हमें सपने देखने लायक बनाया। उसने हमें पिछले दस सालों के अवसाद,
पीड़ा और सत्ता की मदांध शैली से मुक्त किया। आज देश संवाद करता हुआ, बोलता हुआ,
अपने सपनों की तरफ दौड़ लगाता हुआ, कुछ करने का भाव लिए हुए दिखता है। यह उम्मीदें
ऐसे ही नहीं आयी हैं। ये आई हैं एक राजनीतिक परिवर्तन के नाते जिसके लिए 2014 को
हम भूल नहीं सकते।
साल-2014 भारत से भारत के परिचय का साल
है। थके हुए लोगों और हारे हुए मन को दिलासा देने का साल है। हिंदुस्तान ही वह
देश है, जिसे कभी राजसत्ता ने बहुत आंदोलित नहीं किया। हमारा समाज अपने स्वाभिमान
और स्वावलंबन पर भरोसा करने वाला समाज है। हमारा समाज सत्ता की ओर देखने वाला समाज
नहीं है, ना ही वह सत्ता के बल पर आगे बढने वाला समाज है। इस समाज की जिजीविषा
सालों साल से उसके साथ है। शासक और शासन की भूमिका को हमेशा हमने बहुत सीमित माना।
किंतु यह अच्छे और बुरे का फर्क जानने वाला समाज जरूर है। उसे पता है कि सत्ता को
कितना मान देना और कब बदल देना।
आप कल्पना करें कि
यूपीए-3 के हाथ इस देश की सत्ता लगी होती तो क्या हम 2014 को माफ कर पाते। आने
वाला साल क्या उम्मीदों का साल होता। सत्ता की सीमित भूमिका के बावजूद उसका
सकारात्मक और ऊर्जावान होना जरूरी है। उसकी ऊर्जा से ही समाज निश्चिंत होकर अपने
सपनों में रंग भरता है। आप मानें या न मानें वह उत्साह और सकारात्मकता 2014 हमें
देकर जा रहा है। यह सकारात्मकता बनाए रखना, सत्ता के नए सवारों का काम है। हमें
अनूकूलता चाहिए, हम अपना श्रेष्ठतम देने के लिए आतुर समाज हैं। दुनिया इसीलिए हमें
एक नई नजर से देख रही है। 2014 की सबसे बड़ी देन यही है कि वह एक ऐसे परिवर्तन का
वाहक बना है, जिसका यह देश लंबे समय से इंतजार कर रहा था। समाज जीवन ऐसी ही
सूचनाओं से ताकत पाता है। हम एक राष्ट्र हैं यह भावना भी हममें आज दिखने लगी है।
जम्मू-काश्मीर की विकराल बाढ़ हो या सीमापार पाकिस्तान बच्चों की सामूहिक हत्या,
देश का मन विचलित हुआ और उसने भावनाओं के माध्यम से इस दर्द को बांटा। यही इस
भूभाग की विशेषता है। हम अपने और पड़ोसी दोनों के दुख में दुखी होते हैं और उसकी
खुशी में खुश होते हैं। 2014 की बुरी सूचनाएं भी एक भावनात्मक क्षण थी, जिसमें देश
एक दिखा। यही अपनी माटी और अपने लोगों से एकात्म होना है। अगर हमें अपनी धरती और
अपने लोगों से प्रेम हो जाए तो सारा कुछ गलत होता हुआ रूक जाएगा। सवाल यह है कि
क्या हम अपने देश से प्यार करते हैं। सवाल यह भी है कि क्या हम कुछ करने से पहले
यह सवाल करते हैं कि इससे मेरा देश कैसा बनेगा? 2014
ने हमें वह नजर दी है जब हम देश की सोचने लगे हैं।
युवा शक्ति के हाथों में स्वच्छता अभियान की झाड़ू बहुत प्रतीकात्मक
प्रयास है, किंतु इसके बड़े मायने हैं। प्रधानमंत्री द्वारा लगातार आकाशवाणी पर
देशवासियों से संवाद और उसमें हर बार किसी नए विषय पर बात बहुत प्रतीकात्मक है
किंतु इसके मायने हैं। यह देश तो संवाद ही चाहता था। किंतु नेतृत्व दस वर्षों तक
मौन रहा। बड़ी से बड़ी घटना पर मौन और अवश। आखिर यह देश चलता कैसे? लोग सत्ता से चाहते क्या हैं? वह उन्हें चैन से काम करने, जीने और आगे बढने का
वातावरण उपलब्ध कराए। 2014 के आखिरी दिन काम को प्रतिष्ठा देने वाले दिन हैं। ये
दिन अवसाद और काहिली के विदाई के भी दिन हैं। उत्साह और स्वाभिमान के संचार के दिन
हैं। आज लोगों को लगने लगा है कि कुछ बदल रहा है, बदल सकता है। इसके पहले के मंत्र
सुनें इस देश का कुछ नहीं हो सकता, कुछ नहीं बदलेगा, भगवान ही मालिक –ऐसा कहने वाले
लोग घट रहे हैं। नकारात्मकता का भाव घटा है। परिर्वतन को किस तरह स्वीकारा गया इसे समझना हो
तो नोबेल विजेता अर्थशास्त्री श्री अर्मत्य सेन की सुन लीजिए। वे कहते हैं-“मैं श्री मोदी का आलोचक हूं,लेकिन मुझको कहना
पड़ेगा कि उन्होंने जन-मन में यह आस्था पैदा कर दी है कि कुछ किया जा सकता है।
मेरे विचार से यह खासी बड़ी उपलब्धि है।
यह उनके लिए मेरी तरफ से एक प्रशस्ति है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्षता और अन्य
मुद्दों पर हमारा मतभेद खत्म नहीं हो जाता। ”
अफसोस यह नकारात्मकता राजनीति ने पैदा की थी।
नौकरशाही ने पैदा की थी। सेवकों के मालिक की तरह व्यवहार ने पैदा की थी। आज भी
हमें इस तंत्र में बहुत कुछ बदलने की जरूरत है। आने वाले सालों में हमें सोचना
होगा कि आखिर हम कैसे सरकार की सोच में आम लोगों के संवेदना भर सकते हैं? कैसे मालिक और शासक की तरह आचरण कर रही सरकारी
नौकरशाही को बदल सकते हैं?
कैसे इस मशीनरी में लगी जंग को साफ कर
सकते हैं? 2014 हमें सपने देकर जा रहा है। अब हमें इसमें
रंग भरने का काम करना है। उसने सपने जगाए हैं और देश ने अब अपने सपनों की तरफ दौड़
लगा दी है।
सरकारें
आज सुशासन की बात करने लगी हैं। संभव है कि वे बातों से आगे भी बढ़ें, क्योंकि देश आगे बढ़ चुका है, जनता आगे बढ़ चुकी है। कांग्रेस के ऐतिहासिक
पराभव को साधारण सूचना मत मानिए- यह राजनीतिक संस्कृति में भी बदलाव की भी सूचना
है। समाज अब बदला हुयी सरकार से बदले हुए तंत्र की भी अपेक्षा कर रहा है। सत्ता
में जो लोग आए हैं, वे सत्ता के स्वाभाविक अधिकारी नहीं है, उन्हें जनता ने यह
सत्ता अपनी घोर निराशा में सौंपी है। जाहिर तौर पर उनका दायित्व बहुत बढ़ गया है।
उनके सामने भारत की विशाल जनता के मन के अनुरूप आचरण का दबाव है। जातियों, वर्गों,
उपवर्गों और क्षेत्रीयताओं के नारों के बीच राष्ट्र की आत्मा को स्वर देने वाला
नेतृत्व अरसे बाद मिला है। वह संवाद को कृति में बदलने का आह्वान कर रहा है, अपने
पस्तहाल तंत्र को सक्रिय कर रहा है। काम के लिए प्रेरित कर रहा है। ऐसे में समाज
की निष्क्रिय प्रतिक्रिया से आगे बढ़ने की जरूरत है। समाज को तय करना होगा कि आखिर
वह कैसा देश देखना चाहते हैं? पूर्व राष्ट्रपति
डा. अब्दुल कलाम विजन-2020 की बात करते हैं। अब इसमें वक्त कम बचा है। जाते हुए
साल का संदेश है कि हम अपनी गति बढ़ाएं। ज्यादा तेजी से अपनी कमियों का परिष्कार
करते हुए देश की जरूरतों को पूरा करें। बाजार और मीडिया के शोर में वास्तविकताओं
का आकलन करें। छूट रहे लोगों और क्षेत्रों को भी साथ लें। एक ऐसा भारत बनाने की ओर
बढ़ें जिसमें ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा हकीकत
में बदलता हुआ दिखे। देश का समाज वास्तव में बहुत स्वावलंबी और कर्मठ समाज है।
सरकारी तंत्र और नौकरशाही की अकर्मण्यता के बावजूद यह देश धड़क रहा है और अपने
सपनों में रंग भरने के लिए आतुर है। लोगों की कर्मठता और लगातार अच्छा काम करने के
कारण ही दुनिया की मंदी का असर भारत में नहीं दिखता। सरकारी नीतियों की विफलता के
वावजूद देश ने अपनी विकास की गति बनाए रखी है। सन् 2015 की देहरी पर खड़े होकर हम
यह कह सकते हैं कि जाते हुए साल ने हमें इस लायक तो बना ही दिया है कि हम नए साल के
स्वागत में दिल से कह सकें-‘हैप्पी न्यू ईयर।‘
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
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