बुधवार, 17 दिसंबर 2014

विनय उपाध्याय को पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान

मीडिया विमर्श के आयोजन में 7 फरवरी को होंगे अलंकृत
                               

    भोपाल,16 दिसंबर,2014। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष कला समय (भोपाल) के संपादक श्री विनय उपाध्याय  को दिया जाएगा।श्री विनय उपाध्याय  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। जनवरी,1998 से वे कला-संस्कृति पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका कला समयका संपादन कर रहे हैं।
       पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयर, डा. सच्चिदानंद जोशी, डा.सुभद्रा राठौर और जयप्रकाश मानस शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज और व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है। सम्मान कार्यक्रम 7, फरवरी, 2015 को गांधी भवन, भोपाल में सायं 5 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। इस अवसर पर मीडिया और मूल्यबोध विषय पर व्याख्यान भी आयोजित किया गया है।
कौन हैं विनय उपाध्यायः ­
  साहित्य,संस्कृति और कला पत्रकारिता में विगत 25 वर्षों से समान सक्रिय। दैनिक भास्कर और नई दुनिया समाचार समूह में लम्बी सम्बद्धता के बाद इन दिनों दो सांस्कृतिक पत्रिकाओं "कला समय" और "रंग संवाद" का सम्पादन और अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिए अनेक प्रादेशिक और राष्ट्रीय सम्मानो से विभूषित। जनवरी 1998 में कला और विचार की द्वैमासिक हिंदी पत्रिका  "कला समय" का सम्पादन आरम्भ। साहित्य और कला जगत से जुडी अनेक विभूतियों और घटना-प्रसंगों पर दस्तावेज़ी  अंकों का प्रकाशन। उनके द्वारा संपादित कलासमय पत्रिका माधवराव सप्रे समाचार पत्र और शोध संस्थान द्वारा रामेश्वर गुरु पुरूस्कार से सम्मानित। भारत सहित विदेशों में भी शोध-अध्ययन के लिए कला समय सन्दर्भ पत्रिका के बतौर मान्य। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और कंठ संगीत में विशारद। देश भर की  पत्र -पत्रिकाओं में सांस्कृतिक विषयों पर नियमित स्तम्भ और समसामयिक कला मुद्दों पर आलेख और टिप्पणियों का प्रकाशन। दूदर्शन के लिए अनेक वृत्तचित्रों का आलेख और पार्श्व स्वर तथा संगीत-नृत्य के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समारोहों के संचालन का सीधा प्रसारण। कई निजी प्रतिष्ठानो द्वारा निर्मित दृश्य-श्रव्य प्रस्तुतियों का संचालन। बतौर कला समीक्षक देश के विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक यात्राएं और अखबारों के लिए विशेष रिपोर्टिंग। कविता लेखन और संगीत  में भी विशेष  रूचि। प्रसार भारती द्वारा गणतंत्र दिवस के प्रतिष्ठित सर्व भाषा कविता सम्मलेन हेतु हिंदी के युवा कवि बतौर बनारस में शिरकत। मधुकली वृन्द द्वारा जारी संगीत अलबमों में गायक स्वर। एक  दर्जन से भी ज्यादा साहित्यिक -सांस्कृतिक संस्थाओं के मानद सदस्य। इन दिनों आईसेक्ट युनिव्हर्सिटी से सम्बद्ध वनमाली सृजन पीठ के राज्य समन्वयक। एक दशक पहले मॉरीशस का साहित्यिक प्रवास।


                                                                                          

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

उन्हें भारत से नफरत क्यों है?

एक सार्थक परिवर्तन के दौर से गुजर रहे राष्ट्र के रास्ते में मत आइए
-संजय द्विवेदी

 यह समझना मुश्किल है कि संस्कृत का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से क्या लेना-देना है। किंतु संस्कृत का विरोध इस नाम पर हो रहा है कि संघ परिवार उसे कुछ लोगों पर थोपना चाहता है। इसी तरह धर्मांतरण की किसी घटना से भाजपा या उसकी दिल्ली में बैठी सरकार का क्या रिश्ता हो सकता है? सरकार अगर धर्मांतरण के खिलाफ कड़े कानून की बात करे तो भी हंगामा है। मीडिया ऐसी खबरों को सनसनी देने में माहिर है और बिना बात के सवालों पर संसद और देश की जनता का दोनों का वक्त खराब करने में मीडिया की मास्टरी है। निरंजन ज्योति कोई पहली और आखिरी नेता नहीं है जिनकी जुबान फिसली है। हमारे देश में मुलायम सिंह, मायावती, लालू प्रसाद, आजम खां, ओवैसी से लेकर हर दल में ऐसे नेताओं की एक लंबी श्रृखंला है जिनकी जबान फिसल-फिसल पड़ती है। किंतु निरंजन ज्योति ने क्योंकि भगवा पहन रखा है और वे भाजपा से आती हैं इसलिए उनके पीछे जमाने का पड़ जाना स्वाभाविक है। यही सेकुलर राजनीति है और यही भारत विरोध है। 
देशतोड़कों से प्यार, देशभक्तों को दुत्कारः
  आप देखें तो कुछ लोग हर उस चीज के खिलाफ हैं जिसका रिश्ता भारत से जुड़ता हो। जो अरूंधती राय की बदजुबानियों के साथ खडे हैं, जिन्हें कश्मीर के पाक प्रेरित अलगाववादियों से मंच साझा करने में गुरेज नहीं है, जो देशतोड़क माओवादी आतंकवादियों के प्रति भी उदार हैं वही संस्कृत, हिंदी, हिंदू समाज और भारतीयता के किसी भी प्रतीक के खिलाफ हैं। किसी भी लोकतंत्र में रहते हुए ऐसी वैचारिक छूआछूत और असहिष्णुता की छूट नहीं दी जा सकती। संस्कृत भाषा इस देश की भाषा है। उसकी जर्मन से क्या तुलना। हमारा समूचा साहित्य, वांग्मय और दर्शन इसी भाषा में समाया हुया है। सही मायने में वह एक लोकप्रिय भाषा भले न हो किंतु बेहद वैज्ञानिक और भारत को समझने की एकमात्र खिडकी जरूर है। भारत की भाषाओं के खिलाफ इस प्रकार की सोच क्यों है? क्या भारतीय भाषाएं अपनी ही जमीन पर अपमानित होने के लिए हैं। अंग्रेजी के खिलाफ आपकी सोच इतनी आक्रामक क्यों नहीं है? क्यों एक ऐसे देश का राज और अदालतें एक ऐसी भाषा में चलती हैं, जिसे देश के ज्यादातर लोग नहीं समझते? किंतु अंग्रेजी साम्राज्यवाद को बचाए और बनाए रखने के लिए सत्ताएं अंग्रेजी को पोषित कर रही हैं। अंग्रेजी के खिलाफ जिनके बोल नहीं फूटते वे संस्कृत के खिलाफ और हिंदी के खिलाफ तलवारें भांजने का कोई अवसर नहीं चूकते। आखिर यह किस तरह का भारत हम बना रहे हैं जहां अपनी विरासतों के प्रति भी हममें संदेह जगाया जा रहा है। अयोध्या में रामजन्मभूमि से लेकर तमाम ऐसे सवाल हैं जो बताते हैं कि हम दरअसल अपनी विरासतों, पुरखों और मानविंदुओं पर भी अदालती फरमानों के इंतजार में हैं।
माटी के प्रति कम होता मोहः   
अदालतें हमें बता रही हैं कि हमारा इतिहास क्या है। वे हमें बताएंगीं कि बाबर कौन हैं और राम कौन हैं। क्या ही अच्छा होता कि हमारी राजनीति और समाज इतना वयस्क होता कि वह स्वयं आकर समस्याओं के समाधान में सहायक बनता। आखिर क्यों अयोध्या के हाशिम अंसारी जब रामलला पर चिंता जताते हैं तो कई खेमों की नींद हराम हो जाती है। क्यों कुछ लोगों और दलों को अपनी राजनीति दुकान उजड़ने का खतरा दिखता है। देश में समस्याएं बहुत हैं किंतु ज्यादातर हमने स्वयं पैदा की हैं। अपने देश और उसकी माटी के प्रति कम होते प्यार, राष्ट्रीयता की क्षीण हो रही भावनाएं हमें गलत मार्ग पर ले जाती हैं। यह साधारण नहीं है कि हमारे वतन में पैदा हो रही पौध किसी धार्मिक अतिवादी संगठन के आह्वान पर किसी दूसरे देश जमीन पर जाकर जंग में शामिल हो जाती है। यानी आप माने न मानें हमारा राष्ट्रवाद पराजित हो रहा है। वह विचलित हो रहा है। अतिवादी विचार युवाओं को इतना आकर्षित कर रहे हैं कि वे अपनी माटी को छोडकर कथित जेहाद में शामिल हो जाते हैं। ये हालात बताते कि हैं हमने आजादी के बाद अपनी भारतीयता को, अपनी राष्ट्रीय चेतना को कमजोर किया है। आज हमारे देश में वंदेमातरम् गाने न गाने को लेकर, रामजन्मभूमि को लेकर, संस्कृत को लेकर, गौहत्या को लेकर, राष्ट्रभाषा हिंदी को लेकर, कश्मीर को लेकर, जातियों और पंथों को लेकर अनेक विवाद हैं।
किसी मुद्दे पर तो एकमत हो जाइएः 
   किसी भी राष्ट्रीय सवाल पर पूरा देश एकमत नहीं है। यह हमारी बहुत बड़ी कमजोरी है। क्या इसी तरह खंड-खंड होकर हम इस देश को अखंड बनाएंगें। क्या टुकड़ों में बंटी सोच, बांटने की राजनीति हमें एक समर्थ देश के रूप में स्थापित होने देगी ? क्या राजनीति का यह रूप हमारी राष्ट्रीय भावना के लिए चुनौती नहीं है। आखिर हम कब समग्रता में सोचना और विविधता का सम्मान करना सीखेगें। हमारी भाषाएं हमारी माताओं की तरह पूज्य हैं। किंतु हम भाषा की राजनीति में ऐसे उलझे हैं कि अपनी माताओं को अपमानित करते हुए एक विदेशी पर पूरी तरह अवलंबित हो गए हैं। इस चित्र में हाल-फिलहाल कोई बदलाव आने की संभावना भी नहीं दिखती।
  एक भारत बना हुआ है तो एक नया भारत बनता हुआ दिखता है। देश की राजनीति और समाज जीवन में एक नया दौर प्रारंभ हो गया है। उसे भटकाने के लिए, मुद्दों से अलग करने के लिए तमाम ताकतें नए सिरे से लगी हैं। उन्हें एक भारत- समर्थ भारत पसंद नहीं है। वे आपस में लड़ता हुआ, टूटता हुआ, कमजोर भारत चाहती हैं। वे चाहते हैं कि भारतीयता अपमानित हो और दुनिया हम पर हंसे। किंतु उनके सपने थक रहे हैं, वे चूक रहे हैं। भारत से भारत का परिचय हो रहा है। वह एक नए सपने की दौड़ लगा रहा है। वह मानवता को सुखी करने और दुनिया को शांति-सद्भाव का पाठ पढ़ाने की अपनी विरासत की ओर देख रहा है। भारत को पता है वही है जो सह-अस्तित्व के मायने जानता है। वह अकेला है जो जिसका मंत्र वसुधैव कुटुम्बकम है, वही है जो कह सकता है जो कह सकता है कि सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया वही है जो कहता है मैं ही नहीं तू भी। यह तिरस्कार का नहीं स्वीकार का दर्शन है। पीड़ित मानवता को सुखी बनाने का दर्शन है। इसलिए दुनिया के सामने भारतीय एक तेजोमय विकल्प बनकर उभर रहा है।
सच होंगें विवेकानंद के सपनेः

    भारत का समाज, उसकी संस्कृति और परिवार व्यवस्था आज दुनिया के सामने एक सार्थक जीवन के विकल्प के रूप में दिखते हैं। अपनी विरासतों और अपने साहित्य पर गर्व करता यह समाज अनेक कमजोरियां से घिरा है। वह विस्मृतियों के लोक में है। वह भूल चुका था वह क्या है। आज फिर भारत खुद को याद कर रहा है, अपना पुर्नस्मरण कर रहा है। अपने वैभव को पुनः पाने को आतुर है। ऐसे समय में विरोधी ताकतें हताशा में हैं। वे ऐसा होते हुए देखना नहीं चाहतीं। उन्हें लग रहा है कि उनके सतत प्रयासों, षडयंत्रों के बावजूद आखिर क्या हो रहा है। क्या महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद के वचन सत्य होने वाले हैं? अगर हो जाएं तो आखिर आप कहां जाएंगें? किंतु घबराइए मत इस भारत में आप अपनी व्यापक असहमतियों के बावजूद भी सुरक्षित हैं। यही विचार है जो विरोधी को समाप्त करने में नहीं उसे साथ लेने के लिए, संवाद के लिए आतुर है। ऐसे समय में भारत से भारत का परिचय हो रहा है तो होने दीजिए... बाधक मत बनिए। क्योंकि यह परिर्वतन तो होगा, आप नहीं चाहेंगें तो भी होगा।

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि पर आखिरी जंग

मोदी इफेक्ट से घबराए समाजवादियों की एकता कितनी टिकाऊ होगी
-संजय द्विवेदी

  मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में पुराने जनता दल के साथियों का साथ आना बताता है कि भारतीय राजनीति किस तरह मोदी इफेक्ट से मुकाबिल है। प्रधानमंत्री होने के बाद भी जारी नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए हो रही यह कवायद बताती है कि समाजवादियों ने भविष्य के संकेत पढ़ लिए हैं और एकजुट होने लगे हैं। कभी एक रहे ये साथी जानते हैं कि वे साथ नहीं आए तो खत्म हो जाएंगें।
   उन्हें एकजुट करने के लिए बिहार, उप्र और हरियाणा के चुनावी परिणाम कारण बने हैं। उप्र और बिहार में जिस तरह लोकसभा चुनावों में भाजपा की आंधी चली उसमें जनता परिवार के पैर उखड़ गए। मुलायम अपने परिवार के अलावा कुछ हासिल न कर सके तो जेडीयू ही हालत भी खस्ता हो गयी। उत्तर प्रदेश और बिहार से ऐसे परिणामों की आस खुद भाजपा को भी नहीं थी। इसके बाद हुए हरियाणा के चुनाव परिणामों ने यह बता दिया कि माहौल क्या है और क्या होने जा रहा है। जाहिर तौर पर जनता परिवार के बिखरे साथियों के लिए यह समय चुनौती और चेतावनी दोनों का था। उन्हें लग गया कि राजनीति न सिर्फ बदल रही है बल्कि कई अर्थों में दो ध्रुवीय भी हो सकती है। कांग्रेस-भाजपा के बीच मैदान बंट गया तो छोटे दलों के दिल लद जाएंगें। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि पिछले दो दशक से सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने उप्र और बिहार के लोग इस तरह का फैसला सुनाएंगें। हरियाणा जहां जातीय राजनीति ही अरसे से प्रभावी रही,पहली बार कमल खिला है। राजनीति की इस चौसर ने बहुत अलग संकेत दिए हैं। महाराष्ट्र में अपनी साधारण और दूसरे दर्जे की उपस्थिति से अलग भाजपा ने सबसे बड़ी पार्टी बनकर सबको चौंका दिया है। जबकि इन राज्यों में भाजपा कभी बहुत ताकतवर नहीं रही। अकेले उप्र में उसे राज्य में अपने दम पर सरकार बनाने का अवसर मिला था, वह भी रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद। बिहार में वह जनता दल की सहयोगी ही रही, बाद में उसने जेडीयू के साथ सरकार बनायी। देश के बदलते राजनीतिक हालात में भाजपा एक बड़ा ध्रुव बनकर उभरी है। उसकी ताकत बढ़ी है और एक बड़ा मास लीडर उसे मिला है। ऐसे कठिन समय में कांग्रेस जैसे दल जहां अलग तरह  की चुनौतियों से जूझ रहे हैं तो छोटे दलों के सामने अस्तित्व का ही संकट है।
  उत्तर भारत के राज्यों में जिस तरह अराजक स्थितियां हैं लोग विकास के सपनों के पीछे एकजुट हो रहे हैं। उप्र और बिहार जैसे बड़े राज्य जो लोकसभा की ज्यादातर सीटें समेटे हुए हैं, में विकास की कामना जगाकर मोदी एक लंबी पारी की मांग कर रहे हैं। नीतिश कुमार ने बिहार में लालूप्रसाद यादव से हाथ मिलाकर अपनी सुशासन बाबू की छवि के विपरीत एक अलग राह पकड़ ली है। मुख्यमंत्री का पद छोड़कर अब वे पार्टी को फिर से खड़ी करना चाहते हैं। किंतु जिन नारों और विकास के सपनों ने मूर्ति गढ़ी थी वह टूट रही है। लालू विरोधी राजनीति नीतिश की प्राणवायु थी अब उस पर अकेला बीजेपी का दावा है। लालू विरोधी राजनीति की शुरूआत नीतिश ने ही की थी भाजपा उस अभियान में सहयोगी बनी थी। आज हालात बदल गए हैं नीतिश ने एक नया मार्ग पकड़ लिया है। उनकी छवि भी प्रभावित हो रही है।  
    मुलायम सिंह यादव की चिताएं उप्र का अपना गढ़ बचाने की हैं। उनके पुत्र अखिलेश यादव जहां उप्र में उम्मीदों का चेहरा बनकर उभरे थे और उन्हें जनता का अभूतपूर्व समर्थन भी मिला था, अब उनकी छवि ढलान पर है। वे युवाओं के आईकान बन सकते थे किंतु अनेक कारणों से वे एक दुर्बल शासक साबित हो रहे हैं और उनके दल के लोगों ने ही उन्हें सफल न होने देने का संकल्प ले रखा है ऐसा अनुभव हो रहा है। अंतर्विरोधों और आपसी कलह से घिरी उनकी सरकार को संभालने के लिए अक्सर नेताजी स्वयं मोर्चा संभालते हैं किंतु हालात काबू में नहीं आ रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभा ही यह तय करेगें कि जनता परिवार का भविष्य क्या है। पिछले विधानसभा चुनावों  भाजपा की हालात उत्तर प्रदेश में बहुत खराब थी। किंतु लोकसभा में उसने श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। राज्य स्तर पर लोग सपा के विकल्प के रूप में मायावती और उनकी पार्टी बसपा को देखते हैं। देखना है कि इस चुनाव में क्या वह जगह भाजपा ले पाती है? अथवा मायावती अपनी स्थिति में सुधार करते हुए एक विकल्प देने में सक्षम हो पाती हैं। नए बने जनता परिवार के मोर्चे के सभी दल क्षेत्रीय दल हैं जिन्हें अपने-अपने राज्यों में अपनी पतवार स्वयं खेनी है। अकेले बिहार में जेडीयू और राजद जैसी बड़ी पार्टियां साथ आ रही हैं जहां उनके आपसी विरोध सामने आ सकते हैं। उपचुनावों में बिहार में साथ आने का प्रयोग उनके पक्ष में जा चुका है। विधानसभा चुनावों में क्या यह दुहराया जा सकेगा यह एक बड़ा सवाल है। मोर्चे में कांग्रेस की स्थिति क्या होगी या वह एक अलग दल के रूप में चुनाव लड़ेगी यह एक बड़ा सवाल है। जहां तक समीकरणों का सवाल है भाजपा भी बिहार में स्थानीय तौर पर पासवान-कुशवाहा को साथ लेकर एक समीकरण तो बना ही रही है। कौन सा समीकरण भारी पड़ता है इसे देखना रोचक होगा।
     भारतीय जनता पार्टी ने इस बीच अपने आपको विकास, सुशासन और प्रगति के सपनों से जोड़कर एक नई यात्रा प्रारंभ की है। प्रधानमंत्री की संवाद कला, अभियान निपुणता और संगठन की एकजुटता ने उसे एक व्यापक आधार मुहैया कराया है। भाजपा इस अवसर का लाभ लेकर अपने सांगठनिक और वैचारिक विस्तार में लगी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने प्रचारक-स्वयंसेवक प्रधानमंत्री की सफलता सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय है। विदेश दौरों ने प्रधानमंत्री को एक विश्वनेता के रूप में स्थापित किया है तो उनके आत्मविश्वास से पूरी दुनिया भारत को एक नए नजरिए से देख रही है। ऐसे में अपने गढ़ों, मठों और जातीय गोलबंदी को बचाने के लिए सामाजिक न्याय की ताकतों का एकजुट होना साधारण नहीं है। कभी कमंडल को मंडल ने मात दी थी और उत्तर भारत का इलाका अलग तरह से प्रतिक्रिया देता नजर आया था। आज विकास और सुशासन के सवाल की ध्वजा भाजपा के हाथ में है। चलो चलें मोदी के साथ उसका प्रिय नारा है। देश के युवाओं और समाज जीवन के तमाम क्षेत्रों में मोदी ने उम्मीदों की एक लहर पैदा की है। अपनी सरकार के आरंभिक महीनों में भी उनकी लोकप्रियता का आलम बरकरार है। वे संवाद करते हुए सर्तकता बरत रहे हैं पर निरंतर संवाद कर रहे हैं। उनकी सरकार इच्छाशक्ति से भरी हुयी दिखती है। उनकी आलोचनाओं का आकाश अभी बहुत विस्तृत नहीं है। एक बड़ा मोर्चा बनाने की इच्छा से भी जनता परिवार खाली दिखता है, क्योंकि इस मोर्चे में कांग्रेस और वाममोर्चा की पार्टियां शामिल नहीं दिखतीं। वहीं ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और मायावती का साथ आना संभव नहीं दिख रहा है। इसके साथ ही लोकसभा में कुल 15 सांसदों के साथ यह मोर्चा बहुत अवरोध खड़े करने की स्थिति में नहीं है। स्वार्थों में एक होना और फिर बिखर जाने का अतीत इस जनता परिवार की खूबी रही है। नरेंद्र मोदी को यह श्रेय तो देना पड़ेगा कि उन्होंने इस बिखरे जनता परिवार को एक कर दिया इसके परिणाम क्या होंगें, इसे देखने के लिए थोड़ा इंतजार करना पडेगा। सही मायने में सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने उप्र और बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम ही जनता परिवार की राजनीति का भविष्य भी तय करेंगें। यह लड़ाई जनता परिवार की आखिरी जंग भी साबित हो सकती है।

                                                (लेखक राजनीतिक विश्वलेषक हैं)

रविवार, 2 नवंबर 2014

एकात्म मानवदर्शन के पचास साल और दीनदयाल जी


-संजय द्विवेदी
   भरोसा करना कठिन है कि श्री दीनदयाल उपाध्याय जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने भारतीय राजनीति को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया कि जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी मालिका तैयार हुयी, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली। क्या विचार सच में इतने ताकतवर होते हैं या यह सिर्फ समय का खेल है? किसी भी देश की जनता राजनीतिक निष्ठाएं एकाएक नहीं बदलतीं। उसे बदलने में सालों लगते हैं। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर श्री नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इसमें इस विचार को समर्पित लाखों-लाखों अनाम सहयोगियों को भुलाया तो जा सकता है किंतु उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
  पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के लिए नहीं बने थे, उन्हें तो एक नए बने राजनीतिक दल जनसंघ में उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मांग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर (गुरूजी) ने राजनीति में भेजा था। यह एक संयोग ही था कि डा. मुखर्जी और दीनदयाल जी दोनों की मृत्यु सहज नहीं रही और दोनों की मौत और हत्या के कारण आज भी रहस्य में हैं। दीनदयालजी तो संघ के प्रचारक थे। आरएसएस की परिपाटी में प्रचारक एक गृहत्यागी सन्यासी सरीखा व्यक्ति होता है, जो समाज के संगठन के लिए अलग-अलग संगठनों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में काम करता है। देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन बन चुके आरएसएस के लिए वे बेहद कठिन दिन थे। राजसत्ता उन्हें गांधी का हत्यारा कहकर लांछित करती थी, तो समाज में उनके लिए जगह धीरे-धीरे बन रही थी। शुद्ध सात्विक प्रेम और संपर्कों के आधार पर जैसा स्वाभाविक विस्तार संघ का होना था, वह हो रहा था, किंतु निरंतर राजनीतिक हमलों ने उसे मजबूर किया कि वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आए। खासकर संघ पर प्रतिबंध के दौर में तो उसके पक्ष में दो बातें कहने वाले लोग भी संसद और विधानसभाओं में नहीं थे। यही पीड़ा भारतीय जनसंघ के गठन का आधार बनी। डा. मुखर्जी उसके वाहक बने और दीनदयाल जी के नाते उन्हें एक ऐसा महामंत्री मिला जिसने दल को न सिर्फ सांगठनिक आधार दिया बल्कि उसके वैचारिक अधिष्ठान को भी स्पष्ट करने का काम किया।
     पं. दीनदयाल जी को गुरूजी ने जिस भी अपेक्षा से वहां भेजा वे उससे ज्यादा सफल रहे। अपने जीवन की प्रामणिकता, कार्यकुशलता, सतत प्रवास, लेखन, संगठन कौशल और विचार के प्रति निरंतरता ने उन्हें जल्दी ही संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं का श्रद्धाभाजन बना दिया। बेहद साधारण परिवार और परिवेश से आए दीनदयालजी भारतीय राजनीति के मंच पर बिना बड़ी चमत्कारी सफलताओं के भी एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित होते दिखे, जिसे आप आदर्श मान सकते हैं। उनके हिस्से चुनावी सफलताएं नहीं रहीं, एक चुनाव जो वे जौनपुर से लड़े वह भी हार गए, किंतु उनका सामाजिक कद बहुत बड़ा हो चुका था। उनकी बातें गौर से सुनी जाने लगी थीं। वे दिग्गज राजनेताओं की भीड़ में एक राष्ट्रऋषि सरीखे नजर आते थे। उदारता और सौजन्यता से लोगों के मनों में, संगठन कौशल से कार्यकर्ताओं के दिलों में जगह बना रहे थे तो वैचारिक विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए देश के बौद्धिक जगत को वे आंदोलित-प्रभावित कर रहे थे। वामपंथी आंदोलन के मुखर बौद्धिक नेताओं की एक लंबी श्रृखंला, कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से तपकर निकले तमाम नेताओं और समाजवादी आंदोलन के डा. राममनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण जैसे प्रखर राजनीतिक चिंतकों के बीच अगर दीनदयाल उपाध्याय स्वीकृति पा रहे थे, तो यह साधारण घटना नहीं थी। यह बात बताती है गुरूजी का चयन कितना सही था। उनके साथ खड़ी हो रही सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख. जेपी माथुर,सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे सैकड़ों कार्यकर्ताओं की पीढ़ी को याद करना होगा, जिनके आधार पर जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा परवान चढ़ी है। दीनदयाल जी इन सबके रोलमाडल थे। अपनी सादगी, सज्जनता, व्यक्तियों का निर्माण करने की उनकी शैली और उसके साथ वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें बनाया और गढ़ा था। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश जैसे पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के माध्यम से उन्होंने एक नया वैचारिक क्षितिज तैयार किया। अनेक लेखक और पत्रकारों को अपनी वैचारिक धारा से जोडने का काम किया। उनकी प्रेरणा तमाम लोग राजनीति में आए तो तमाम लोग लेखन और पत्रकारिता से भी जुड़े।
    एकात्म मानववाद के माध्यम से सर्वथा एक भारतीय विचार को प्रवर्तित कर उन्होंने हमारे राजनीतिक विमर्श को एक नया आकाश दिया। यह बहुत से प्रचलित राजनीतिक विचारों के समकक्ष एक भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसे वे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना रहे थे। उसके लिए उनके मुंबई जनसंघ के अधिवेशन में दिए गए मूल चार भाषणों की ओर देखना होगा। अपने इस विचार को वे व्यापक आधार दे पाते इसके पूर्व उनकी हत्या ने तमाम सपनों पर पानी फेर दिया। जब वे अपना श्रेष्ठतम देने की ओर बढ़ रहे थे, तब हुयी उनकी हत्या ने पूरे देश को अवाक् कर दिया।

   दीनदयाल जी ने अपने प्रलेखों और भाषणों में एकात्म मानववाद शब्द पद का उपयोग किया है। भाजपा ने 1985 में इसे इसी नाम से स्वीकार किया, किंतु नानाजी देशमुख की पहल से संघ परिवार के बीच एकात्म मानवदर्शन नामक शब्दपद स्वीकृति पा चुका है।  यह एक सुखद संयोग ही है कि उनके द्वारा प्रवर्तित एकात्म मानवदर्शन की विचारयात्रा अपने पांच दशक पूर्ण कर चुकी है। यह उसकी स्वर्णजयंती का साल है। इसके साथ ही अगले साल दीनदयाल जी का शताब्दी वर्ष भी प्रारंभ होगा। अब जबकि केंद्र में दीनदयाल जी के विचारों की सरकार स्थापित है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अपने वैचारिक अधिष्ठान की ओर भी देखेगी और कुछ सार्थक करके दिखाएगी। आज भी दीनदयाल जी की स्मृतियां उन लाखों लोगों को शक्ति देती हैं जो आज भी सादगी, सौजन्यता और जनधर्मी राजनीति पर भरोसा करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद भवन में अपने सांसदों के साथ प्रथम संबोधन में जब दीनदयाल जी को याद करते हुए बताया था कि अगला साल उनकी शताब्दी का साल है, तो उन्होंने न सिर्फ अपने वैचारिक अधिष्ठान को स्पष्ट किया वरन यह भी स्थापित किया कि दीनदयाल जी आज की राजनीतिक गिरावट के दौर में एक प्रकाश पुंज की तरह प्रेरणा दे सकते हैं। राजनीति को उन बुनियादी वसूलों से जोड़ने का हौसला दे सकते हैं, जहां सत्ता का उपयोग सेवा के लिए ही किया जाता है और जनप्रतिनिधि खुद को शासक नहीं सेवक ही समझता है।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

क्या आप इस नरेंद्र मोदी को जानते थे !

-संजय द्विवेदी

  एक हफ्ते में मीडिया और एनडीए सांसदों से संवाद करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस प्रचार की भी हवा निकालने की कोशिश की है कि वे संवाद नहीं करते या बातचीत से भागना चाहते हैं। एक अधिनायकवादी फ्रेम में उन्हें जकड़ने की कोशिशें उनके विरोधी करते रहे हैं और नरेंद्र मोदी हर बार उन्हें गलत साबित करते रहे हैं। लक्ष्य को लेकर उनका समर्पण, काम को लेकर दीवानगी उन्हें एक वर्कोहलिक मनुष्य के नाते स्थापित करती है। काम करने वाला ही उनके आसपास ठहर सकता है। एक वातावरण जो ठहराव का था, आराम से काम करने की सरकारी शैली का था, उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तोड़ने की कोशिश की है। सरकार भी आराम की नहीं, काम की चीज हो सकती है, यह वे स्थापित करना चाहते हैं।
  वे जानते हैं कि नए समय की चुनौतियों विकराल हैं। ऐसे में लिजलिजेपन,अकर्मण्यता या सिर्फ नारों और हुंकारों से काम नहीं चल सकता। वे भारत की जनाकांक्षाओं को समझने की निरंतर कोशिश कर रहे हैं और यही आग अपने मंत्रियों और सांसदों में फूंकना चाहते हैं। इसलिए बड़े लक्ष्यों के साथ, छोटे लक्ष्य भी रख रहे हैं। जैसे सांसदों से उन्होंने एक गांव गोद लेने का आग्रह किया है। समाज के हर वर्ग से सफाई अभियान में जुटने का वादा मांगा है। ये बातें बताती हैं कि वे सरकार के भरोसे बैठने के बजाए लोकतंत्र को जनभागीदारी से सार्थक करना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी को पता है कि जनता ने उन्हें यूं ही बहुमत देकर राजसत्ता नहीं दी है। यह सत्ता का स्थानांतरण मात्र नहीं है। यह राजनीतिक शैली, व्यवस्था और परंपरा का भी स्थानांतरण है। एक खास शैली की राजनीति से उबी हुयी जनता की यह प्रतिक्रिया थी, जिसने मोदी को कांटों का ताज पहनाया है। इसलिए वे न आराम कर रहे हैं, न करने दे रहे हैं। उन्हें पता है कि आराम के मायने क्या होते हैं। आखिर दस साल की नेतृत्वहीनता के बाद वे अगर सक्रियता, सौजन्यता और सहभाग की बातें कर पा रहे  हैं तो यह जनादेश उनके साथ संयुक्त है। उन्हें जनादेश शासन करने भर के लिए नहीं, बदलाव लाने के लिए भी मिला है। इसलिए वे ठहरे हुए पानी को मथ रहे हैं। इसे आप समुद्र मंथन भी कह सकते हैं। इसमें अमृत और विष दोनों निकल रहे हैं। इस अमृत पर अधिकार कर्मठ लोगों, सजग देशवासियों को मिले यह उनकी चिंता के केंद्र में है। एक साधारण परिवेश से असाधारण परिस्थितियों को पार करते हुए उनका सात-रेसकोर्स रोड तक पहुंच जाना बहुत आसान बात नहीं है। नियति और भाग्य को मानने वाले भी मानेंगें कि उन्हें किसी खास कारण ने वहां तक पहुंचाया है। यानि उनका दिल्ली आना एक असाधारण घटना है। मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की सरकार का हर मोर्चे पर विफल होना, देश में निराशा का एक घना अंधकार भर जाना, ऐसे में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से पूरे देश में एक आलोड़न और बदलाव की आग का फैल जाना, तब मोदी का अवतरण और जनता का उनके साथ आना यह घटनाएं बताती हैं कि कैसे चीजें बदलती और आकार लेती हैं। राजनीति की साधारण समझ रखने वाले भी इन घटनाओं और प्रसंगों को जोड़कर एक कोलाज बना सकते हैं। यानि वे उम्मीदों का चेहरा हैं, आशाओं का चेहरा हैं और समस्याओं का समाधान करने वाले नायक सरीखे दिखते हैं। नरेंद्र मोदी में इतिहास के इस मोड़ पर महानायक बन जाने की संभावना भी छिपी हुयी है। आप देखें चुनावों के बाद वे किस तरह एक देश के नेता के नाते व्यवहार कर रहे हैं। चुनावों तक वे गुजरात और उसकी कहानियों में उलझे थे। अब वे एक नई लकीर खींच रहे हैं। गुजरात तक की उनकी यात्रा में सरदार पटेल की छवि साथ थी, अब वे महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और इंदिराजी की याद ही नहीं कर रहे हैं। उनकी सरकार तो गजल गायिका बेगम अख्तर की जन्मशताब्दी मनाने भी जा रही है।  एक देश के नेता की देहभाषा, उसका संस्कार, वाणी,  सारा कुछ मोदी ने अंगीकार किया है।

   अपनी छवि के विपरीत अब वे लोगों को साधारण बातों का श्रेय दे रहे हैं। जैसे देश के विकास के लिए वे सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों को श्रेय देते हैं, स्वच्छता अभियान के उनके प्रयासों में शामिल मीडिया के लोगों, लेखकों से लेकर कांग्रेस सांसद शशि थरूर को श्रेय देना वे नहीं भूलते। वे अपने सांसदों और अपनी सरकार को अपने सपनों से जोड़ना चाहते हैं। आखिर इसमें गलत क्या है? सरकार कैसे चल रही है, इसे जानने का हक देश की जनता और सांसदों दोनों को है। दीवाली मिलन के बहाने इसलिए प्रमुख मंत्री, राजग के सांसदों को सामने प्रस्तुति देते हैं। यह घटनाएं नई भले हों पर संकेतक हैं कि प्रधानमंत्री चाहते क्या हैं। दीपावली मिलन पर मीडिया से संवाद से वे भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में करते हैं, इसका भी एक संदेश है। वे चाहते तो मीडिया को सात रेसकोर्स भी बुला सकते थे। किंतु वे बताना चाहते हैं कि संगठन क्या है और उसकी जरूरतें अभी और कभी भी उन्हें पड़ेगी। अमित शाह के रूप में दल को एक ऐसा अध्यक्ष मिला है जो न सिर्फ सपने देखना जानता है बल्कि उन्हें उसमें रंग भरना भी आता है। उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और हरियाणा की कहानियां बताती हैं कि वे कैसे रणनीति को जमीन पर उतारना जानते हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह  का लंबा साथ रहा है। सत्ता और संगठन की यह जुगलबंदी सफलता की अनेक कथाएं रचने को उत्सुक हैं। भाजपा का पीढ़ीगत परिवर्तन का कार्यक्रम न सिर्फ सफल रहा बल्कि समय पर परिणाम देता हुआ भी दिख रहा है। देखना है कि सत्ता के मोर्चे पर प्रारंभ में उम्मीदों का नया क्षितिज बना रहे मोदी आने वाले समय में देश को परिणामों के रूप में क्या दे पाते हैं? देश की जनता उन्हें जहां उम्मीदों से देख रही है, वहीं उनके विरोधी चौकस तरीके से उनके प्रत्येक कदम पर नजर रखे हुए हैं। दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है और उसकी ताकत भी। सच तो यह है कि आज देश में नरेंद्र मोदी के कट्टर आलोचक रहे लोग भी भौचक होकर उनकी तरफ देख रहे हैं। उनकी कार्यशैली और अंदाज की आलोचना के लिए उनको मुद्दे नहीं मिल रहे हैं। लोकसभा चुनावों के पूर्व हो रहे विश्लेषणों, अखबारों में छप रहे लेखों को याद कीजिए। क्या उसमें मोदी का आज का अक्स दिखता था। उनकी आलोचना के सारे तीर आज व्यर्थ साबित हो रहे हैं। उन्हें जो-जो कहा गया वो वैसे कहां दिख रहे हैं। गुजरात के चश्मे से मोदी को देखने वालों को एक नए चश्मे से उन्हें देखना होगा। यह नया मोदी है जो श्रीनगर जाने के लिए दिल्ली से निकलता है तो सियाचिन में सैनिकों के बीच दिखता है। यह वो प्रधानमंत्री है जो दीवाली का त्यौहार दिल्ली या अहमदाबाद में नहीं, श्रीनगर में बाढ़ पीड़ितों के बीच मनाता है। मोदी की इस चौंकाऊ राजनीतिक शैली पर आप क्या कह सकते हैं। वे सही मायने में देश में राष्ट्रवाद को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं। वे ही हैं जो लोगों के दिल में उतर कर उनकी ही बात कर रहे हैं। देश ने पिछले 12 सालों में मीडिया के माध्यम जिस नरेंद्र मोदी को जाना और समझा अब वही देश एक नए नरेंद्र मोदी को देखकर मुग्ध है। दरअसल मोदी वही हैं नजरिया और जगहें बदल गयी हैं। उनकी राजनीतिक सफलताओं ने सारे गणित बदल दिए हैं।  राजनीतिक विरोधियों की इस बेबसी पर आप मुस्करा सकते हैं। भारतीय राजनीति सही मायने में एक नए दौर में प्रवेश कर चुकी है, इसके फलितार्थ क्या होंगें कह पाना कठिन है किंतु देश तेजी से दो ध्रुवीय राजनीति की ओर बढ़ रहा है इसमें दो राय नहीं है। संकट यह है कि कांग्रेस राजनीति का दूसरा ध्रुव बनने की महात्वाकांक्षा से आज भी खाली है।

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

मोदीमय भारत या कांग्रेसमुक्त भारत!

-संजय द्विवेदी

 भारतीय राजनीति का यह मोदी समय है। हर तरफ मोदी। चारो तरफ मोदी। भाजपा में मोदी, कांग्रेस में भी मोदी। आप मोदी को नकारें या स्वीकारें उन्हें इग्नोर नहीं कर सकते। नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति की एक ऐसी परिघटना हैं जिसने लंबे समय के बाद व्यक्तित्व के जादू या करिश्मे का अहसास देश को कराया है। कांग्रेस की परंपरा में पंडित जवाहरलाल नेहरू का ऐसा ही करिश्मा और व्यक्तित्व रहा है, इंदिरा जी उससे कम, किंतु करिश्माई नेत्री रहीं। वहीं अपने विचार परिवार और भारतीय विपक्ष की पूरी परंपरा में नरेंद्र मोदी सबसे करिश्माई नेता बनकर उभरे हैं। यहां तक कि चुनावी सफलताओं के मामले में वे अपने दल के सबसे बडे नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी आगे जाते हुए दिख रहे हैं। भारत की जनसंघ और भाजपा की राजनीतिक धारा का यह सही मायने में स्वर्णयुग है। इसने भारतीय राजनीति के सबसे पुराने दल (कांग्रेस) को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है। मैदान में लड़ाईयां भाजपा और क्षेत्रीय दलों में हो रही हैं। कांग्रेस यहां लड़ाई से भी बाहर दिखती है।
   हरियाणा में अपने दम पर सरकार बनाती हुई भाजपा कोई साधारण घटना नहीं है। यह राजनीति का एकदम से बदल जाना है। धारा के विरूद्ध एक सफलता है, जबकि उनके सहयोगी रहे दल हरियाणा जनहित कांग्रेस से लेकर अकाली दल तक यहां भाजपा का विरोध करते दिखते हैं। निश्चय ही नरेंद्र मोदी और भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के आत्मविश्वास ने भी इन परिणामों को इस रूप में व्यक्त किया है। आत्मविश्वास से भरी भाजपा आज हर मैदान में अकेले दम पर उतर कर भी बेहतर परिणाम ला रही है। महाराष्ट्र में जहां शिवसेना उसे 120 सीटें से अधिक एक भी सीट देने को तैयार नहीं थी, अब वहा भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गयी है। एक तरह से यह समय क्षेत्रीय दलों के सिमटने का भी समय है। एक अखिलभारतीय पार्टी को मिलती जनस्वीकृति सुखद है किंतु कांग्रेस की बदहाली चिंता में डालती है। हाल के चुनाव परिणामों में क्षेत्रीय दलों की ताकत सिमट रही है, किंतु कांग्रेस की ताकत नहीं बढ़ रही है। जबकि देश में राष्ट्रीय दल के नाते कांग्रेस और भाजपा दोनों का ताकतवर होना जरूरी है। आप देखें तो हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल प्रमुख विपक्ष बनकर उभरी है तो महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर दिखते हैं। यह बात बताती है कांग्रेस मुक्त भारत का मोदी का नारा सच होता नजर आ रहा है। इन झटकों के बावजूद कांग्रेस के आलाकमान और उसके तंत्र में कोई हलचल होती नहीं दिखती। वे अभी भी अपनी परंपरागत शैली और आरामतलबी में डूबे हैं। कुछ उत्साही प्रियंका लाओ के नारे भी लगा रहे हैं। किंतु यह संकट को अतिसरलीकृत करके देखना है। आज कांग्रेस संगठन विचारशून्यता का एक ऐसा केंद्र बन गया है जहां गांधी परिवार का कोई भी चेहरा उसे चुनावी वैतरणी पार नहीं करवा सकता। शायद इसे ही समय कहते हैं।
  पिछले दिनों उप्र और कुछ अन्य राज्यों के उपचुनावों में प्रतिपक्ष को मिली हल्की-फुल्की सफलताओं से राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी लहर के खात्मे की भविष्यवाणी कर दी थी किंतु अब दो राज्यों के परिणाम बताते हैं भाजपा और नरेंद्र मोदी का जादू अभी टूटा नहीं हैं। वे आज भी देश की ज्यादातर जनता की आकांक्षाओं और सपनों का चेहरा हैं। वे राजनीतिक पटल पर उभरे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनसे लोगों की उम्मीदें कायम हैं। उन्हें इस दिशा में बहुत कुछ करना शेष है, किंतु जनता का भरोसा मोदी में निरंतर है। अपने कठिन परिश्रम और लगातार चुनाव सभाओं से उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में ऐसा वातावरण बना दिया जिससे भाजपा लड़ाई के केंद्र में आ गई। आप कल्पना करें कि महाराष्ट्र में बिना गठबंधन के भाजपा-शिवसेना का प्रदर्शन इतना श्रेष्ठ है तो गठबंधन कर लड़े होते तो शायद प्रतिपक्ष को काफी हानि उठानी पड़ती। दोनों का गठबंधन लहर के बजाए सुनामी बन जाता। सुनामीशब्द का उपयोग अमित शाह पिछले लोकसभा चुनाव में करते रहे। गठबंधन को तोड़कर भी शिवसेना- भाजपा एक स्वाभाविक सहयोगी हैं। वे विचारधारा के स्तर पर ही नहीं संगठनात्मक स्तर पर भी काफी करीब हैं। यह साधारण नहीं है कि गठबंधन की टूट के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ठीक नहीं ठहराया था। किंतु एक बार की दोस्ताना जंग ने बहुत कुछ साफ कर दिया है और हालात ऐसे बना दिए हैं दोनों दलों का साथ आना तय हो गया है। यह वैसे भी तय था क्योंकि शिवसेना ने रिश्तों के बिगड़ने के बावजूद केंद्र से अपने मंत्री का इस्तीफा नहीं लिया था। अब बनने वाली सरकार दरअसल उम्मीदों के पहाड़ पर खड़ी सरकार होगी। प्रधानमंत्री मोदी की वाणी पर भरोसा कर दोनों राज्यों की जनता ने भाजपा को सर्वाधिक समर्थन देकर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया है। हरियाणा और महाराष्ट्र में लंबे समय से कांग्रेस सत्ता में रही है अब जबकि 1995 के बाद एक अरसे बाद महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनने जा रही है तो वह एक बेहतर शासन देने के वादे पर ही स्वीकार्य हुयी है। जनादेश स्पष्ट तौर पर भाजपा-शिवसेना के पक्ष में है। इसलिए इस जनादेश की भावना समझना और उस अनुरूप आचरण करना दोनों दलों की जिम्मेदारी है।
   भाजपा-शिवसेना के लिए यह अवसर एक चुनौती भी है कि वे महाराष्ट्र की पटरी से उतरती गाड़ी को पुनः ट्रेक पर लाएं। इसी तरह विकसित राज्य होने के बावजूद हरियाणा ने पिछले दस सालों में अलग तरह की चुनौतियों का सामना किया है। हुडडा की सरकार से लोगों का काफी शिकायतें रही हैं। बेरोजगारी के अलावा तमाम सामाजिक संकट हरियाणा के सामने खड़े हैं। इसमें जमीनों और कृषि से जुड़ी समस्याएं भी हैं। इन सबसे जूझते हुए सुशासन और अनुशासन दोनों प्रदान करना नई सरकार की जिम्मेदारी है।

     दो राज्यों के चुनाव परिणामों ने एक दल के रूप में भाजपा की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब सुशासन और विकास के सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी उसकी ही है। एक रणनीतिकार के तौर पर अमित शाह का भाजपा की केंद्रीय राजनीति में आगमन उसके लिए शुभ साबित हुआ है। वे फैसले लेने वाले और उस पर अमल करवा ले जाने वाले नेता के तौर पर पहचान बना रहे हैं। भाजपा के संगठन को अरसे से एक ऐसे नायक की तलाश थी। लालकृष्ण आडवानी के बाद वे शायद वे पहले ऐसे अध्यक्ष हैं जिसका इकबाल इस तरह कायम हुआ है। वे सही मायने में संगठन की समझ और उसके निर्णयों को लेकर काफी सचेत दिखते हैं। दल के सार्वजनिक चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी इसमें एक निधि की तरह हैं। बहुत दिनों के बाद भाजपा में अटल-आडवानी के विकल्प की तरह एक जोड़ी मोदी-शाह के रूप में ख्यात हो सकती है। देखना है अटल-आडवानी के युग के समापन के बाद आई यह जोड़ी पार्टी और सरकार को कैसे और कितनी दूर तक ले जाती है। फिलहाल तो इस जीत पर मुग्ध भाजपाईयों को दीवाली की शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं। दीवाली और जीत का खुमार उतरे तो उन्हें भी डटकर काम में लगना होगा, आखिर देश की जनता भी तो यही चाहती है और उनके नेता नरेंद्र मोदी भी।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

अंधेरों की चीरती शब्दों की रौशनी – हिन्द स्वराज्य

-संजय द्विवेदी



  महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य  हमारे समय के तमाम सवालों से जूझती है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है कि पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था। 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।
गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चा पन नजर आया। गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। मिडलटन मरी कहते हैं- गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है। हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।
वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।
महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।
वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है।
गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।
गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं। एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं। गांधी कहते हैं- हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।
महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।
गांधी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं उनपर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिंदु-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। हमारी राजनीति की मुख्यधारा के नेता अगर गांधी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिंदु-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे। वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे जैसे की गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि  मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगें।

हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।