मोदी इफेक्ट से घबराए समाजवादियों की एकता कितनी
टिकाऊ होगी
-संजय द्विवेदी
मुलायम सिंह यादव के
नेतृत्व में पुराने जनता दल के साथियों का साथ आना बताता है कि भारतीय राजनीति किस
तरह ‘मोदी इफेक्ट’ से
मुकाबिल है। प्रधानमंत्री होने के बाद भी जारी नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने
के लिए हो रही यह कवायद बताती है कि समाजवादियों ने भविष्य के संकेत पढ़ लिए हैं
और एकजुट होने लगे हैं। कभी एक रहे ये साथी जानते हैं कि वे साथ नहीं आए तो खत्म
हो जाएंगें।
उन्हें एकजुट करने के लिए
बिहार, उप्र और हरियाणा के चुनावी परिणाम कारण बने हैं। उप्र और बिहार में जिस तरह
लोकसभा चुनावों में भाजपा की आंधी चली उसमें जनता परिवार के पैर उखड़ गए। मुलायम
अपने परिवार के अलावा कुछ हासिल न कर सके तो जेडीयू ही हालत भी खस्ता हो गयी। उत्तर
प्रदेश और बिहार से ऐसे परिणामों की आस खुद भाजपा को भी नहीं थी। इसके बाद हुए
हरियाणा के चुनाव परिणामों ने यह बता दिया कि माहौल क्या है और क्या होने जा रहा
है। जाहिर तौर पर जनता परिवार के बिखरे साथियों के लिए यह समय चुनौती और चेतावनी
दोनों का था। उन्हें लग गया कि राजनीति न सिर्फ बदल रही है बल्कि कई अर्थों में दो
ध्रुवीय भी हो सकती है। कांग्रेस-भाजपा के बीच मैदान बंट गया तो छोटे दलों के दिल
लद जाएंगें। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि पिछले दो दशक से सामाजिक न्याय की
ताकतों की लीलाभूमि बने उप्र और बिहार के लोग इस तरह का फैसला सुनाएंगें। हरियाणा
जहां जातीय राजनीति ही अरसे से प्रभावी रही,पहली बार कमल खिला है। राजनीति की इस
चौसर ने बहुत अलग संकेत दिए हैं। महाराष्ट्र में अपनी साधारण और दूसरे दर्जे की
उपस्थिति से अलग भाजपा ने सबसे बड़ी पार्टी बनकर सबको चौंका दिया है। जबकि इन
राज्यों में भाजपा कभी बहुत ताकतवर नहीं रही। अकेले उप्र में उसे राज्य में अपने
दम पर सरकार बनाने का अवसर मिला था, वह भी रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद। बिहार में
वह जनता दल की सहयोगी ही रही, बाद में उसने जेडीयू के साथ सरकार बनायी। देश के
बदलते राजनीतिक हालात में भाजपा एक बड़ा ध्रुव बनकर उभरी है। उसकी ताकत बढ़ी है और
एक बड़ा मास लीडर उसे मिला है। ऐसे कठिन समय में कांग्रेस जैसे दल जहां अलग तरह की चुनौतियों से जूझ रहे हैं तो छोटे दलों के
सामने अस्तित्व का ही संकट है।
उत्तर भारत के राज्यों में
जिस तरह अराजक स्थितियां हैं लोग विकास के सपनों के पीछे एकजुट हो रहे हैं। उप्र
और बिहार जैसे बड़े राज्य जो लोकसभा की ज्यादातर सीटें समेटे हुए हैं, में विकास
की कामना जगाकर मोदी एक लंबी पारी की मांग कर रहे हैं। नीतिश कुमार ने बिहार में
लालूप्रसाद यादव से हाथ मिलाकर अपनी सुशासन बाबू की छवि के विपरीत एक अलग राह पकड़
ली है। मुख्यमंत्री का पद छोड़कर अब वे पार्टी को फिर से खड़ी करना चाहते हैं।
किंतु जिन नारों और विकास के सपनों ने मूर्ति गढ़ी थी वह टूट रही है। लालू विरोधी
राजनीति नीतिश की प्राणवायु थी अब उस पर अकेला बीजेपी का दावा है। लालू विरोधी
राजनीति की शुरूआत नीतिश ने ही की थी भाजपा उस अभियान में सहयोगी बनी थी। आज हालात
बदल गए हैं नीतिश ने एक नया मार्ग पकड़ लिया है। उनकी छवि भी प्रभावित हो रही है।
मुलायम सिंह यादव की
चिताएं उप्र का अपना गढ़ बचाने की हैं। उनके पुत्र अखिलेश यादव जहां उप्र में
उम्मीदों का चेहरा बनकर उभरे थे और उन्हें जनता का अभूतपूर्व समर्थन भी मिला था,
अब उनकी छवि ढलान पर है। वे युवाओं के आईकान बन सकते थे किंतु अनेक कारणों से वे
एक दुर्बल शासक साबित हो रहे हैं और उनके दल के लोगों ने ही उन्हें सफल न होने
देने का संकल्प ले रखा है ऐसा अनुभव हो रहा है। अंतर्विरोधों और आपसी कलह से घिरी
उनकी सरकार को संभालने के लिए अक्सर नेताजी स्वयं मोर्चा संभालते हैं किंतु हालात काबू
में नहीं आ रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभा ही यह तय करेगें कि जनता
परिवार का भविष्य क्या है। पिछले विधानसभा चुनावों भाजपा की हालात उत्तर प्रदेश में बहुत खराब थी।
किंतु लोकसभा में उसने श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। राज्य स्तर पर लोग सपा के विकल्प
के रूप में मायावती और उनकी पार्टी बसपा को देखते हैं। देखना है कि इस चुनाव में
क्या वह जगह भाजपा ले पाती है? अथवा मायावती अपनी
स्थिति में सुधार करते हुए एक विकल्प देने में सक्षम हो पाती हैं। नए बने जनता
परिवार के मोर्चे के सभी दल क्षेत्रीय दल हैं जिन्हें अपने-अपने राज्यों में अपनी
पतवार स्वयं खेनी है। अकेले बिहार में जेडीयू और राजद जैसी बड़ी पार्टियां साथ आ
रही हैं जहां उनके आपसी विरोध सामने आ सकते हैं। उपचुनावों में बिहार में साथ आने
का प्रयोग उनके पक्ष में जा चुका है। विधानसभा चुनावों में क्या यह दुहराया जा
सकेगा यह एक बड़ा सवाल है। मोर्चे में कांग्रेस की स्थिति क्या होगी या वह एक अलग
दल के रूप में चुनाव लड़ेगी यह एक बड़ा सवाल है। जहां तक समीकरणों का सवाल है
भाजपा भी बिहार में स्थानीय तौर पर पासवान-कुशवाहा को साथ लेकर एक समीकरण तो बना
ही रही है। कौन सा समीकरण भारी पड़ता है इसे देखना रोचक होगा।
भारतीय जनता पार्टी ने इस बीच अपने आपको विकास,
सुशासन और प्रगति के सपनों से जोड़कर एक नई यात्रा प्रारंभ की है। प्रधानमंत्री की
संवाद कला, अभियान निपुणता और संगठन की एकजुटता ने उसे एक व्यापक आधार मुहैया
कराया है। भाजपा इस अवसर का लाभ लेकर अपने सांगठनिक और वैचारिक विस्तार में लगी
है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने प्रचारक-स्वयंसेवक प्रधानमंत्री की सफलता
सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय है। विदेश दौरों ने प्रधानमंत्री को एक विश्वनेता के
रूप में स्थापित किया है तो उनके आत्मविश्वास से पूरी दुनिया भारत को एक नए नजरिए
से देख रही है। ऐसे में अपने गढ़ों, मठों और जातीय गोलबंदी को बचाने के लिए
सामाजिक न्याय की ताकतों का एकजुट होना साधारण नहीं है। कभी कमंडल को मंडल ने मात
दी थी और उत्तर भारत का इलाका अलग तरह से प्रतिक्रिया देता नजर आया था। आज विकास
और सुशासन के सवाल की ध्वजा भाजपा के हाथ में है। ‘चलो
चलें मोदी के साथ’ उसका प्रिय नारा है। देश के युवाओं और समाज जीवन
के तमाम क्षेत्रों में मोदी ने उम्मीदों की एक लहर पैदा की है। अपनी सरकार के
आरंभिक महीनों में भी उनकी लोकप्रियता का आलम बरकरार है। वे संवाद करते हुए
सर्तकता बरत रहे हैं पर निरंतर संवाद कर रहे हैं। उनकी सरकार इच्छाशक्ति से भरी
हुयी दिखती है। उनकी आलोचनाओं का आकाश अभी बहुत विस्तृत नहीं है। एक बड़ा मोर्चा
बनाने की इच्छा से भी जनता परिवार खाली दिखता है, क्योंकि इस मोर्चे में कांग्रेस
और वाममोर्चा की पार्टियां शामिल नहीं दिखतीं। वहीं ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और
मायावती का साथ आना संभव नहीं दिख रहा है। इसके साथ ही लोकसभा में कुल 15 सांसदों
के साथ यह मोर्चा बहुत अवरोध खड़े करने की स्थिति में नहीं है। स्वार्थों में एक
होना और फिर बिखर जाने का अतीत इस जनता परिवार की खूबी रही है। नरेंद्र मोदी को यह
श्रेय तो देना पड़ेगा कि उन्होंने इस बिखरे जनता परिवार को एक कर दिया इसके परिणाम
क्या होंगें, इसे देखने के लिए थोड़ा इंतजार करना पडेगा। सही मायने में सामाजिक
न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने उप्र और बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम ही जनता
परिवार की राजनीति का भविष्य भी तय करेंगें। यह लड़ाई जनता परिवार की आखिरी जंग भी
साबित हो सकती है।
(लेखक राजनीतिक विश्वलेषक हैं)
Nice añalysis
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