रविवार, 24 अगस्त 2014

इस देश में कौन है हिंदू!



-संजय द्विवेदी
  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत पर इस समय देश की राजनीतिक पार्टियां खासी नाराज हैं। विवाद एक शब्द को लेकर है कि उन्होंने हिंदुस्तान में रहने वालों को हिंदू क्यों कहा। जाहिर तौर पर प्रथम दृष्ट्या यह विवाद सिर्फ शब्दों का मामला नहीं है, यह मामला राजनीति का है और इसकी राजनीतिक व्याख्या का भी है। किंतु हमें यह देखना होगा कि आखिर सरसंघचालक ने क्या कोई नई बात कही है। यह तो वही बात है जो संघ के नेता अपनी स्थापना के साल 1925 से ही कहते आ रहे हैं।
   संघ के लिए हिंदू एक धर्मवाचक प्रयोग नहीं है, वह इसके वृहत्तर सांस्कृतिक अर्थ का ही उपयोग लंबे समय से करता आ रहा है। द्वंद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि आज संघ का एक पूर्व प्रचारक प्रधानमंत्री के पद पर आसीन है। इसलिए संघ की सामान्य व्यवहार की शब्दावली को भी विवादों में घसीटा जा रहा है। हर देश की एक सांस्कृतिक पहचान और उसके जीवन मूल्य होते हैं। पूजा पद्धति के बदलने से सांस्कृतिक पहचान, जीवन मूल्य और पूर्वज नहीं बदलते। जड़ता नहीं, निरंतर प्रवाह यह भारतीय संस्कृति का उत्स और मूल है। इस भूमि पर रहने वाला,यहां की हवा-पानी में सांस लेने वाला प्रत्येक नागरिक यहां का भूमिपुत्र है। इसे बहुत भावुक होकर ही भारतमाता कहा गया। संभव है कुछ लोगों को भारतमाता का विचार भी पसंद न आए। किंतु घरती और उसके पुत्र, यह एक सांस्कृतिक विचार है। जन्म देने वाली माता के साथ घरती माता और गौ माता यह विचार किसी को अस्वीकार्य हो सकता है,पर यह भारतीय विचार है। इसी तरह संघ की अपनी वैचारिक मान्यताएं हैं। सब इससे सहमत हों या जरूरी नहीं, हिंदू शब्द का इस्तेमाल एक सांस्कृतिक परंपरा, इतिहास के उत्तराधिकारियों के रूप में संघ करता है। इस अर्थ में यह धार्मिक नहीं, एक सांस्कृतिक पद है। तमाम लोगों को इससे आपत्ति भी नहीं रही है। किंतु कुछ को शब्दों के पीछे पड़ने और राजनीति सूंघने का आदत है, वे इसके शिकार भी हैं। मोहन भागवत जो बात कह रहे हैं वह उनके जैसे संघ के करोड़ों समर्थक वर्षों से कह रहे हैं। इस वक्त क्योंकि भाजपा सत्ता में है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तो यह विचार एक धार्मिक आक्रमण सरीखा दिख रहा है। समस्या यह है कि एक राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी और एक सांस्कृतिक संगठन की सीमाओं को एक कर देखा जा रहा है। दोनों दो कामों के लिए बने और कार्यरत हैं। यहां यह भी समझना होगा भारत का हिंदू राष्ट्र कोई धर्मराज्य नहीं है। यहां सब पंथों को समान रूप से काम करने, अपनी पूजा-उपासना करने की आजादी है। इसलिए मिथ्या भय से वैचारिक आतंक पैदा करने की कोशिशें उचित नहीं कही जा सकती हैं।
  हमें देखना होगा कि क्या भारत जैसा उदार लोकतंत्र पूरी इस्लामिक पट्टी में कहीं मौजूद है। जो दूसरे पंथों से सद्भभाव के साथ रहता हुआ दिखता हो। ईराक के उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एक पंथ के पोषित आतंकवाद से पूरा देश तबाह हो चुका है। हिंसा, आतंक के  आधार पर विस्तार करने वाले पंथ या विचार अलग ही होते हैं। उनका काम करने का तरीका दिखता है और आज वे पूरी मानवता के लिए चुनौती हैं। हिंदुत्व का विचार मैं ही के दर्शन को नहीं मानता उसकी सोच है मैं ही नहीं, तू भी । यह एक समन्वयवादी विचार है। जो सबको साथ लेकर चलने और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। सर्वे भवंतु सुखिनः जिसका घोषमंत्र है और वसुधैव कुटुम्बकम् जिसकी प्रेरणा है। जिसके धार्मिक कवि भी कहते हैं- परहित सरिस घरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। ऐसे विचार को अतिवादी कहना और बताना अपराध है। मोहन भागवत इसी भारतीय औदार्य के प्रतिनिधि हैं। वे यह कहना चाह रहे हैं कि उनके लिए भारत की भूमि पर रहने वाला हर नागरिक भारत मां का पुत्र है, उसके अधिकार और कर्तव्य इस घरती के लिए समान हैं। उनकी इस भावना को हिंदू शब्द के आधार पर गलत तरीके से व्याख्यायित करना ठीक नहीं है। आलोचना का,विचार का,विमर्श का स्तर भी क्या है। आप उन्हें हिटलर कह रहे हैं। अपने प्रधानमंत्री को हिटलर कह रहे हैं। इस देश की जनता के अपमान का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। मुस्लिम तुष्टीकरण का मंत्र फेल होने के बावजूद चीजें लौटकर वहीं आ जाती हैं। भागवत के आलोचकों से पूछना चाहिए कि वे उनकी आलोचना क्यों कर रहे हैं। अगर उनका वक्तव्य किसी प्रकार की ताकत नहीं रखता तो उसे नजरंदाज क्यों नहीं करते। किंतु उन्हें पता है भागवत और आरएसएस का भूत दिखाकर शायद वे दो-चार मुस्लिम वोट पा जाएं। आश्चर्य है कि अभी भी आंखों से परदा नहीं हटा है। देश एक नई यात्रा पर निकल पड़ा है और हमारी राजनीति अभी भी उन्हीं मानकों पर खडी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहती है।
  क्या हम तटस्थ होकर विषयों का विश्लेषण नहीं कर सकते हैं? क्या हमें देश को जोड़ने के लिए प्रयत्न तेज नहीं करने चाहिए? आखिर हमारी राजनीति और मीडिया का जोर समाज को तोड़ने पर क्यों है? क्यों हम चीजों को संदर्भों से काटकर वातावरण बिगाड़ना चाहते हैं? हमें पता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हिंदू संगठन है। हमें यह भी पता है कि उसने मुस्लिम समाज से संवाद बनाने के लिए राष्ट्रीय मुस्लिम मंच नामक एक संगठन की स्थापना की है। रिश्तों में जमी बर्फ अब पिधल रही है। मुस्लिम समाज भी अब अलग ढंग से सोच रहा है और बदलते भारत की आकांक्षाओं से साथ खुद को स्थापित कर रहा है। उसकी इन कोशिशों को बढ़ाने और उसका मनोबल बढ़ाने के बजाए राजनीति विभाजनों को गहरा करने के कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती है। हिंदुस्तान की घरती पर रहने वाले लोगों ने एक साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लडी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी। आरएसएस और जमाते इस्लामी के लोगों ने साथ में मिलकर देश को आपातकाल के काले दिनों से मुक्ति दिलाई। आज उसी आम हिंदुस्तानी ने दस साल के भ्रष्ट शासन से भी मुक्ति दिलाई है। इस बदलाव को गहरे महसूस करने और आम हिंदुस्तानी के सपनों को समझने की जरूरत है। वह एक समर्थ भारत देखना चाहता है। एक वैभवशाली राष्ट्र को देखना चाहता है। काश्मीर से कन्याकुमारी तक सारा हिंदुस्तान इस भूमि के प्रति एक सरीखा भाव रखता है। यह भूमि सबकी साझा है। सबकी मां है। इस विचार से नफरत करने वालों को भी यह भारत मां अपने आंचल में जगह देती है। क्योंकि बेटा बिगड़ जाए तो भी मां की भावनाएं तो बेटे के लिए संवेदना भरी ही होंगीं। मोहन भागवत के बोले एक शब्द पर मत जाईए, उनके भाषण के पूरे संदर्भ को सांस्कृतिक संदर्भ में पढिए तो समस्या दूर हो जाएगी। राजनीतिक और धार्मिक संदर्भ में पढ़िएगा तो समस्या बढ़ जाएगी। किंतु कुछ लोगों को संवाद, सार्थक संवाद और सुसंवाद में नहीं, समस्याओं को बढ़ाने और विवाद को वितंडावाद बनाने में मजा आता है। उन्हें भी इस लोकतंत्र में यह करने की आजादी है। कीजिए ,खूब कीजिए... पर यह मत समझिए कि लोग बहुत नादान हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

बुधवार, 20 अगस्त 2014

जब मोदी कुछ कहते हैं


                      


                       -संजय द्विवेदी
  स्वतंत्रता दिवस के मौके पर नरेंद्र मोदी ने जो कुछ कहा उसने समूचे देश को झकझोरकर रख दिया। लालकिले से अरसे के बाद कोई आवाज सुनाई पड़ी जो देश के जन-मन को अपनी सी लगी। वे मनों को छू रहे थे और उन प्रश्नों पर बात कर रहे थे जिन पर सत्ताधीश कुछ कहने से बचते हैं। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विकास और सुशासन के अलावा चार बातें खासतौर कहीं जिनमें स्त्री सम्मान व सुरक्षा, किसानों की आत्महत्या और सांप्रदायिक हिंसा के साथ माओवादी आतंकवाद का उल्लेख था।
   जाहिर तौर पर किसी भी प्रधानमंत्री और शासक के लिए ये चुनौती भी है और चुभने वाले सवाल भी हैं। स्त्रियों की सुरक्षा का मामला कभी इतनी बड़ी चुनौती के रूप में नहीं देखा गया किंतु ताजा समय में हो रहे सामूहिक बलात्कारों की घटनाओं ने पूरे समाज की नैतिकता और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं, मोदी ने इसीलिए लोगों से पूछा कि वे अपने लड़कों से भी सवाल करें कि आखिर वे कहां से आ रहे हैं या कहां जा रहे हैं। प्रश्नांकित की जा रही लड़कियों और स्वच्छंद युवकों के प्रश्न उन्होंने पालकों के सामने रखे। जाहिर तौर पर हमारी सामाजिक रचना में ये प्रश्न आज फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। बिगड़ता लिंगानुपात प्रधानमंत्री की चिंताओं में था, वे भूणहत्या पर भी सवाल उठाते नजर आए। यह बात बताती है कि मोदी जमाने की हलचलों और उसकी चिंताओं से वाकिफ हैं। वे जानते हैं जनता के असल दर्द क्या हैं। इसीलिए वे किसानों की आत्महत्या के सवाल को लालकिले इतने पुरजोर तरीके से उठाते हैं। देश की इस विकराल समस्या पर मीडिया भी निगाहें उस तरह नहीं जाती जिस तरह जानी चाहिए। किंतु प्रधानमंत्री ने अपने भाषण को इस विषय को शामिल कर यह बता दिया है कि वे समस्याओं पर परदा डालने के अभ्यासी नहीं हैं वरन् समस्याओं से मुठभेड़ कर उनके हल निकालना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी यहीं लोगों को अपना मुरीद बना लेते हैं। वे माओवादियों का भी आह्वान कर रहे हैं कि बंदूकें छोड़ दें और विकास की धारा में साथ आएं। उन्हें गांव की गरीबी और योजना आयोग की सीमाओं का भान है। वे गरीबों के लिए बैंक में खाता खोलने से लेकर उनके बीमा की बात करते हैं। एक शासक की संवेदना का इससे पता चलता है। उनके विरोधी यह कह सकते हैं कि उनके भाषण में कोई नई बात नहीं हैं। किंतु उनके भाषण में एक आत्मविश्वास, आत्मगौरव और देश के नेता होने का भाव है जो अरसे तक प्रधानमंत्री रहे लोगों में नहीं देखा गया।
   वे खुद को प्रधानमंत्री के बजाए जब प्रधानसेवक कहते हैं और सरकारी तंत्र को झकझोरते हुए जाब और सर्विस के अंतर को बताते हैं तो उनका अभिभावकत्व और भी बड़ा हो जाता है। नरेंद्र मोदी सही मायने में भारत के आमजन के आत्मविश्वास, उसकी रचनाशीलता, उसकी उद्यमिता और कर्मठता के प्रतीक हैं। वे अभिजनों के चुनौती हैं जो भारतीय जनमानस को निकम्मा, काहिल, कामचोर और जाहिल मानने की अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे आम भारतीयों में श्रमदेव और श्रमदेवियों के दर्शन करने वाले प्रधानमंत्री हैं। वे आम भारतीयों में मन से अवसाद की परतें झाड़कर एक आत्मविश्वास भरना चाहते हैं। इसलिए वे भारतीय युवाओं और लघु उद्यमियों को भरोसे से देखते हैं। वे चाहते हैं कि भारत तमाम उन चीजों का स्वयं निर्माण करे जिनका वह आयात करता है। उद्यमिता को बढ़ाने और भारतीय युवाओं की प्रतिभा का सही और सार्थक इस्तेमाल की प्रेरणा भी वे देते हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी एक शासक की तरह नहीं एक मोटीवेटर, प्रेरक वक्ता और बेहतर कम्युनिकेटर की तरह दिखते हैं जो स्वतंत्रता दिवस के मंच का इस्तेमाल एक औपचारिक भाषण के लिए नहीं करता, बल्कि वह एक अलग दृष्टि पेश करता है और रचनाशीलता का आह्वान करता है। सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ उनकी चिंता आज के एक बड़े चिंताजनक सवाल पर हमारी चिंता से साझा करती है। वे भारत को एक होते और अखंड होते देखना चाहते हैं। उन्हें देश की चुनौतियों का पता है। उन्हें पता है उनसे जनता की उम्मीदें विशाल हैं। वे जानते हैं कि उन्हें किसी परिवार से होने के नाते विशेष सुविधा प्राप्त नहीं है। वे जो कुछ हैं तब तक हैं जब तक जनता के प्रिय हैं। नरेंद्र मोदी सही मायने में किसी की कृपा और चयन के नाते दिल्ली में पहुंचे दिल्लीपति नहीं हैं। वे वास्तव में पहले जनता के दिलों में उतरे, फिर पार्टी ने स्वीकारा और फिर दिल्ली पहुंचे हैं।
   वे सही मायने में लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति के प्रतीक हैं। जिसने उन्हें न सिर्फ उन्हें इतना ताकतवर बनाया बल्कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को सबसे खराब दिनों में ला दिया। नरेंद्र मोदी इस कठिन उत्तराधिकार को स्वीकारते हुए इसीलिए साहस से भरे हैं। यह उनका अतिविश्वास ही है कि वे लालकिले से बुलेटप्रूफ शीशों के भीतर से खड़े होकर बोलने की लंबी परंपरा को भी तोड़ देते हैं। सुबह उठकर आए बच्चों से उनकी भीड़ में मिलने चले जाते हैं। उनका यह आत्मविश्वास एक आम हिंदुस्तानी  का आत्मविश्वास है। यह भरोसा उन्होंने लोगों के बीच लगातार काम करके हासिल किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका यह देसीपना बना रहेगा। जब तक यह कायम रहेगा, उनमें माटी की खूशबू और महक बनी रहेगी। जनता भी उनके साथ खड़ी रहेगी तब तक जब तक वे बोलते रहेंगें डायरेक्ट दिल से। क्योंकि जनता बड़ी नहीं सरल और साधारण बाते सुनना चाहती है उनके मुंह से जो, जो जो कह रहे हों उन पर अमल भी कर रहे हों। नरेंद्र मोदी कृति और जीवन से एक लगते हैं इसलिए उनपर भरोसा करने का मन करता है। उम्मीद कीजिए कि यह भरोसा बना रहे।

( लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

ये उन दिनों की बात है...

-संजय द्विवेदी

   
   
         मुंबई में होना सच में एक सपने की तरह था। मुंबई में बिताए तीन साल सचमुच सपनों की तरह रहे और आज भी आंखों में तैरते हैं। उप्र के बस्ती शहर से निकला एक युवक मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में अपने होने को लेकर ही अचंभित था। हमें याद हैं वे दिन जब 1997 में मुंबई से एक नए हिंदी अखबार का प्रकाशन प्रारंभ होना था। उन दिनों मैं रायपुर के एक अखबार में काम करता था, जहां समय पर वेतन के भी लाले थे। छत्तीसगढ़ के एक बड़े पत्रकार श्री बबन प्रसाद मिश्र की कृपा और आशीर्वाद से मुझे उस नए अखबार के मुंबई संस्करण में काम करने का अवसर मिला।
इन मुंबईः
जब मैं मुंबई पहुंचा तो यहां भी मेरे कई दोस्त और सहयोगी पहले से ही मौजूद थे। इन दिनों एबीपी न्यूज, दिल्ली में कार्यरत रघुवीर रिछारिया उस समय मुंबई में ही थे। वे स्टेशन पर मुझे लेने आए और संयोग ऐसा बना कि मुंबई के तीन साल हमने साथ-साथ ही गुजारे। यहां जिंदगी में गति तो बढ़ी पर उसने बहुत सारी उन चीजों को देखने और समझने का अवसर दिया, जिसे हम एक छोटे से शहर में रहते हुए महसूस नहीं कर पाते। मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र, अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में आज भी कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है। यहां देश के वरिष्ठतम पत्रकार और उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मुलाकात अब एक ऐसे रिश्ते में बदल गई है, जो उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ और मप्र आने के लिए विवश करती रहती है। विश्वनाथ जी ने पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव और अपने जीवन की सहजता से मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनके पास बैठकर मुझे यह हमेशा लगता रहा कि एक बड़ा व्यक्ति किस तरह अपने अनुभवों को अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करता है।
प्यार..दोस्ती और मस्तीः
इस शहर में हमने दोस्तियां की, आवारागर्दी की और मस्ती की। लहराते समुद्र के किनारे हाथ में हाथ डाले कितनी शामें गुजारीं तो वीकली आफ पर कई फिल्में एक साथ देखीं। फिल्में चुनकर नहीं देखीं, जो लगीं थीं, वही देख लीं। ये अजीब सा पागलपन था। पानी में भीगते हुए न जाने कितनी सुबहें और शामें गुजारीं। पहले कोपरखैरणे से, बाद में नालासोपारा से ट्रेन पकड़ कर सीएसटी आना और चर्चगेट होते हुए मरीन ड्राईव की सैर करना। कई बार समय बिताने के लिए जहांगीर आर्ट गैलरी के अबूझ चित्रों को देखना भी इसमें शामिल था। ये दिन आराम के दिन न थे। थकान के दिन न थे। एक खास आयु में किए जाने वाले हर शौक को हम फरमा रहे थे। कल का पता न था, बस मस्ती से जिए जा रहे थे... बिंदास और बेधड़क। हमें हमेशा लगता रहा कि चीजें हमारे अनूकूल हो रही हैं और इस जमाने में हमारा भी नाम होगा। लड़कियां आफिस हो सड़क, हमेशा अच्छी लगती रहीं और हमेशा ये लगता रहा कि ये न होतीं तो दुनिया कितनी बदरंग और बेमतलब  होती। मुंबई में गुजरे तीन साल ऐसी ही धूप-छांव के साल थे। जहां प्यार..दोस्ती और मस्ती का मेल था। शायद इसीलिए मुंबई की सोचता हूं तो एक पंक्ति याद आती है- ये उन दिनों की बात है..जब पागल-पागल फिरते थे।
अखबारी नौकरी और दोस्तों की फौजः
   यहां मेरे संपादक के नाते कार्यरत स्व. श्री भूपेंद्र चतुर्वेदी का स्नेह भी मुझे निरंतर मिला। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कर्मठता, काम के प्रति उनका निरंतर उत्साह मुझे प्रेरित करता है। उसी दौरान पत्रकारिता से जुड़े सर्वश्री राघवेंद्र नाथ द्विवेदी, मनोज दुबे, कमल भुवनेश, अरविंद सिंह, केसर सिंह बिष्ट, अजय भट्टाचार्य, विमल मिश्र, सुधीर जोशी, विनीत चतुर्वेदी जैसे न जाने कितने दोस्त बने, जो आज भी जुड़े हुए हैं। मुंबई में काम करने के अनेक अवसर मिले। उससे काम में विविधता और आत्मविश्वास की ही वृध्दि हुई। यह अनुभव आपस में इतने घुले-मिले हैं कि जिसने एक पूर्ण पत्रकार बनाने में मदद ही की। मुंबई में रहने के दौरान ही वेब पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अनेक हिंदी वेबसाइट का भी काम प्रारंभ हुआ। वेबदुनिया, रेडिफ डाटकाम, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे अनेक वेबसाइट हिंदी में भी कार्य करती दिखने लगीं। हिंदी जगत के लिए यह एक नया अनुभव था। हमारे अनेक साथी इस नई बयार के साथ होते दिखे, किंतु मैं साहस न जुटा पाया। कमल भुवनेश के बहुत जोर देने पर मैंने इन्फोइंडिया डाटकाम में चार घंटे की पार्टटाइम नौकरी के लिए हामी भरी। जिसके लिए मुझे कंटेन्ट असिस्टेंट का पद दिया गया। वेब पत्रकारिता का अनुभव मेरे लिए एक अच्छा अवसर रहा, जहां मैंने वेब पत्रकारिता को विकास करते हुए देखा। आज वेब पत्रकारिता किस तरह मुख्यधारा की पत्रकारिता से होड़ कर रही है उसके पदचाप हमने सन 2000 में सुन लिए थे।
   मुंबई के वे दिन आज भी याद आते हैं और यह बताते हैं कि एक शहर कैसे अपने साथ इतने सपनों को लिए जी सकता है। मुंबई में होने का अहसास आज भी यादों को हरा-भरा कर देता है। दोस्तों के साथ गुजरा समय बार-बार याद आता है। ये स्मृतियां अनुभवों में बहुत सघन हैं और गुजरे वक्त के साथ बातचीत करती रहती हैं। बहुत से शहरों में रहने, जीने और होने के बाद भी मुंबई में होना एक सुखद अहसास की तरह जिंदा है। दोस्त आज भी उसी जिंदादिली से मिलते हैं, मुंबई में रहने वाले तो युवा बने ही रहते हैं। जिंदगी की जद्दोजहद उन्हें शहर के लायक बना ही लेती है। मुंबई यूं चलती रहे.. बिना ठहरे..बिना रूके। जिंदगी और उसकी धड़कनों की तरह।

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

अभूतपूर्व चुनाव का अहम दस्तावेज 'मोदी लाइव'

पुस्तक समीक्षा


- लोकेन्द्र सिंह (लेखक युवा साहित्यकार और लेखक हैं l)
    सोलहवीं लोकसभा का आम चुनाव अपने आप में अनोखा था। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मामला था जब समस्त राजनीतिक दल सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ न होकर एक विपक्षी पार्टी के खिलाफ मोर्चाबंदी कर रहे थे। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को घेरने का काम सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं कर रहे थे बल्कि लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग भी निचले स्तर तक जाकर मोदी विरोधी अभियान चला रहे थे। लेकिन, कांग्रेस के भ्रष्टाचार, घोटालों-घपलों और कुनीतियों से तंग जनता ने न केवल मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया बल्कि भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व, अकल्पनीय बहुमत दिया और कांग्रेस के गले में डाल दी ऐतिहासिक हार।
                भारत के सबसे लम्बे चलने वाले आम चुनाव-2014 की तारीखों की घोषणा के पहले से लेकर परिणाम के बाद तक की प्रक्रिया पर पैनी नजर रखने वाले देश के जाने-माने चुनाव विश्लेषक संजय द्विवेदी की पुस्तक 'मोदी लाइव' इस अभूतपूर्व चुनाव का एक अहम दस्तावेज है। श्री द्विवेदी भले ही आमुख में यह लिखें - ''यह कोई गंभीर  और मुकम्मल किताब नहीं है। एक पत्रकार की सपाटबयानी है। इसे अधिकतम चुनावी नोट्स और अखबारी लेखन ही माना जा सकता है।'' लेकिन, दो दशक से पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में सक्रिय संजय द्विवेदी को जानने वाले जानते हैं कि उनका राजनीतिक विश्लेषण गंभीर रहता है। वे सपाटबयानी के साथ गहरी बातें कहते हैं, जो भविष्य में सच के काफी करीब होती हैं। इसी पुस्तक के कई लेखों में उनकी गहरी राजनीतिक समझ और ईमानदार विश्लेषण से परिचित हुआ जा सकता है। 25 जनवरी को लिखे गए एक आलेख में उन्होंने संकेत दिया था- ''इस बार के चुनाव साधारण नहीं, विशेष हैं। ये चुनाव खास परिस्थियों में लड़े जा रहे हैं जब देश में सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार मुक्ति के सवाल सबसे अहम हो चुके हैं। नरेन्द्र मोदी इस समय के नायक हैं। ऐसे में दलों की बाड़बंदी, जातियों की बाड़बंदी टूट सकती है। गठबंधनों की तंग सीमाएं टूट सकती हैं। चुनाव के बाद देश में एक ऐसी सरकार बन सकती है जिसमें गठबंधन की लाचारी, बेचारगी और दयनीयता न हो।'' चुनाव परिणाम से उनकी एक-एक बात सच साबित हुई। लम्बे समय बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला। गठबंधन की अवसरवादी राजनीति से देश को राहत मिली। जात-पात और वोटबैंक की राजनीति काफी कुछ छिन्न-भिन्न हुई। अवसरवादी राजनीति के पर्याय बनते जा रहे क्षेत्रीय दलों का सफाया हो गया। राजनीतिक छुआछूत की शिकार भाजपा सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी बनकर उभरी, दक्षिण-पूर्व में भी कमल खिला।
                कांग्रेस के भ्रष्टाचार से अधिक, समय के साथ लोकनायक बनते जा रहे नरेन्द्र मोदी के कारण यह आम चुनाव सर्वाधिक चर्चा का विषय बना। संभवत: यह नए भारत का एकमात्र चुनाव है, जिसने फिर से राजनीतिक चर्चा-बहस को घर-घर तक पहुंचाया। राजनीति के नाम से ही बिदकने वाले लोग भी सकारात्मक परिवर्तन की बात कर रहे नरेन्द्र मोदी के भाषण गौर से सुन रहे थे। सबसे अहम बात यह है कि राजनीति में रुचि रखने वाले लोगों के बीच ही नहीं युवाओं और महिलाओं के बीच भी नरेन्द्र मोदी चर्चा का केन्द्र बने। बच्चों की तोतली जुबान पर भी मोदी का नाम चढ़ा हुआ था। गुजरात से निकलकर देश के जनमानस पर यूं छा जाने के नरेन्द्र मोदी के सफर को 'मोदी लाइव' में आसानी से समझा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, कैसे उन्होंने विरोधियों की ओर से उछाले गए पत्थरों से मंजिल तक पहुंचने के लिए सीढ़ी बनाई, कैसे अपनों से मिल रही चुनौती से पार पाई, इन सवालों के जवाब आपको मिलेंगे मोदी लाइव में। इसके साथ ही श्री द्विवेदी ने बहुत से सवाल राजनीतिक विमर्श और शोध के लिए अपनी तरफ से प्रस्तुत किए हैं। निश्चित ही उन सवालों पर भविष्य में राजनीति के विद्यार्थियों को शोध करना चाहिए और राजनीतिक विचारकों को सार्थक विमर्श।
                पुस्तक के एक लेख 'भागवत, भाजपा और मोदी!' में श्री द्विवेदी उन तमाम विश्लेषकों का ध्यान दुनिया के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के सफल प्रयोग की ओर दिलाते हैं, जिसके कारण भारतीय जनता पार्टी को ऐतिहासिक विजय मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक खास नजरिए से देखने वाले बुद्धिजीवी सदैव उसका गलत मूल्यांकन करते हैं। इस सच को सबको स्वीकार करना होगा कि आरएसएस राजनीतिक संगठन नहीं है लेकिन जब बात देश की आती है तो राजनीतिक परिवर्तन के लिए भी वह चुप रहकर काम करता है। लोकनायक जेपी के नेतृत्व में व्यवस्था परिवर्तन के लिए खड़ा किया गया आंदोलन हो या फिर आपातकाल के खिलाफ संघर्ष, आम समाज की नजर में संघ की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। बावजूद इसके देश के तमाम तथाकथित बड़े साहित्यकार, इतिहासकार और बुद्धिजीवी संघ की भूमिका और ताकत को नजरंदाज ही नहीं करते बल्कि उसकी गलत व्याख्या करते हैं। श्री द्विवेदी अपने इसी लेख में बताते हैं कि किस तरह संघ ने 'मोदी प्रयोग' को सफल बनाया। वे लिखते हैं - ''संघ के क्षेत्र प्रचारकों ने अपने-अपने राज्यों में तगड़ी व्यूह रचना की और माइक्रो मॉनीटरिंग से एक अभूतपूर्व वातावरण का सृजन किया। चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने और शत प्रतिशत मतदान के लिए संपर्क का तानाबाना रचा गया।'' संघ के इस प्रयास का खुले दिल से स्वागत करना चाहिए कि दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र के महायज्ञ की तैयारी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने वाले चुनाव आयोग के अलावा आरएसएस ही एकमात्र ऐसा संगठन था जिसने अपनी पूरी ताकत मतदान प्रतिशत बढ़ाने में झोंक रखी थी। पुस्तक का आखिरी लेख भी संघ को समझने में काफी मदद करता है। वरिष्ठ पत्रकार भुवनेश तोमर ने इस बात का जिक्र बातचीत के दौरान किया था कि इस आम चुनाव में संघ की भूमिका का सही विश्लेषण किसी ने किया है तो वे संजय द्विवेदी ही हैं। वे बताते हैं कि यह संघ की ही तैयारी थी कि उत्तरप्रदेश में उम्मीद से अधिक अच्छा प्रदर्शन भाजपा ने किया।
                'मोदी लाइव' 22 आलेखों का संग्रह है। हर एक आलेख चुनाव से जुड़ी अलग-अलग जिज्ञासाओं का समाधान है। चुनाव के दौरान की परिस्थितियों का बयान करते आलेखों में मीडिया गुरु संजय द्विवेदी ने नरेन्द्र मोदी के नाम पर बौद्धिक प्रलाप कर रहे बुद्धिजीवियों के चयनित दृष्टिकोण पर भी सवाल उठाए हैं। उन्होंने ऐसे लेखकों को 'सुपारी लेखक' बताया है। लेखक ने लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक तरीके से एक व्यक्ति के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने वाले यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, के. सच्चिदानंद और प्रभात पटनायक जैसे स्वयंभू बुद्धिजीवियों को आड़े हाथ लिया है। मोदी का भय दिखाकर सदैव से मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति करने वालों की हकीकत बयान की है। श्री द्विवेदी ने अपने एक आलेख में बताया है कि कैसे कांग्रेस सहित अन्य दल मुस्लिमों का अपनी राजनीतिक दुकान चलाने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। इसके अलावा इस अभूतपूर्व आम चुनाव में मीडिया की भूमिका, चुनाव से पहले अंगड़ाई लेने वाले तीसरे मोर्चे का वजूद, राष्ट्रीय दलों की स्थिति, परिवारवाद और अवसरवाद की राजनीति को समझने का मौका 'मोदी लाइव' में संग्रहित श्री द्विवेदी के चुनिंदा आलेख उपलब्ध कराते हैं।
                छत्तीसगढ़ सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 99 पृष्ठों की बड़ी महत्वपूर्ण पुस्तक 'मोदी लाइव' की भूमिका लिखी है। 'मीडिया विमर्श' ने 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के मौके पर पुस्तक को प्रकाशित किया है। इसका आवरण शिल्पा अग्रवाल ने तैयार किया है। पुस्तक कितनी चर्चित और पाठकप्रिय हो गयी है, उसे यूँ समझिये कि एक ही माह बाद यानी 24 जून, 2014 को रानी दुर्गावती बलिदान दिवस के मौके पर मोदीलाइव का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो गया।l
पुस्तक : मोदी लाइव, लेखक : संजय द्विवेदी
मूल्य : 25 रुपये, पृष्ठ : 99
प्रकाशक : मीडिया विमर्श, एम.आई.जी.-37, हाऊसिंग बोर्ड कॉलोनी,
कचना, रायपुर (छत्तीसगढ़)-492001

ईमेल : mediavimarsh@gmail.com

सोमवार, 21 जुलाई 2014

कहां जाएं औरतें



-संजय द्विवेदी
        आखिर औरतें कहां जाएं? इस बेरहम दुनिया में उनका जीना मुश्किल है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता (जहां नारियों की पूजा होती है देवता वहां निवास करते है)का मंत्रजाप  करने वाले देश में क्या औरतें इतनी असुरक्षित हो गयी हैं कि उनका चलना कठिन है। शहर-दर-शहर उन पर हो रहे हमले और शैतानी हरकतें बताती हैं कि हमारा अपनी जड़ों से नाता टूट गया है। अपने को साबित करने के लिए निकली औरत के खिलाफ शैतानी ताकतें लगी हैं। वे उन्हें फिर उन्हीं कठघरों में बंद कर देना चाहती हैं, जिन्हें सालों बाद तोड़कर वे निकली हैं।
     एक लोकतंत्र में होते हुए स्त्रियों के खिलाफ हो रहे जधन्य अपराधों की खबरें हमें शर्मिन्दा करती हैं। ये बताती हैं कि अभी हमें सभ्य होना सीखना है। घरों की चाहरदीवारी से बाहर निकली औरत सुरक्षित घर आ जाए ऐसा समाज हम कब बना पाएंगें? जाहिर तौर पर इसका विकास और उन्नति से कोई लेना-देना नहीं है। इस विषय पर घटिया राजनीति हो रही है पर यह राजनीति का विषय भी नहीं है। पुलिस और कानून का भी नहीं। यह विषय तो समाज का है। समाज के मन में चल रही व्यथा का है। हमने ऐसा समाज क्यों बनने दिया जिसमें कोई स्त्री,कोई बच्चा, कोई बच्ची सुरक्षित नहीं है? क्यों हमारे घरों से लेकर शहरों और गांवों तक उनकी व्यथा एक है? वे आज हमसे पूछ रही हैं कि आखिर वे कहां जाएं। स्त्री होना दुख है। यह समय इसे सच साबित कर रहा है। जबकि इस दौर में स्त्री ने अपनी सार्मथ्य के झंडे गाड़े हैं। अपनी बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक क्षमता से स्वयं को इस कठिन समय में स्थापित किया है। एक तरफ ये शक्तिमान स्त्रियों का समय है तो दूसरी ओर ये शोषित-पीड़ित स्त्रियों का भी समय है। इसमें औरत के खिलाफ हो रहे अपराध निरंतर और वीभत्स होते जा रहे हैं। इसमें समाज की भूमिका प्रतिरोध की है। वह कर भी रहा है, किंतु इसका असर गायब दिखता है। कानून हार मान चुके हैं और पुलिस का भय किसी को नहीं हैं। अपराधी अपनी कर रहे हैं और उन्हें नियंत्रित करने वाले हाथ खुद को अक्षम पा रहे हैं। कड़े कानून आखिर क्या कर सकते हैं, यह भी इससे पता चलता है। अपराधी बेखौफ हैं और अनियंत्रित भी। स्त्रियों के खिलाफ ये अपराध क्या अचानक बढ़े हैं या मीडिया कवरेज इन्हें कुछ ज्यादा मिल रहा है। इसमें मुलायम सिंह यादव की जनसंख्या जैसी चिंताओं को भी जोड़ लीजिए तो भी हमारा पूरा समाज कठघरे में खड़ा है। स्त्री को गुलाम और दास समझने की मानसिकता भी इसमें जुडी है। पुरूष, स्त्री को जीतना चाहता है। वह इसे अपने पक्ष में एक ट्राफी की तरह इस्तेमाल करना चाहता है। यह मानसिकता कहां से आती है ?हमारे घर-परिवार, नाते-रिश्ते भी सुरक्षित नहीं रहे। छोटे बच्चों और शिशुओं के खिलाफ हो रहे अपराध और उनके खिलाफ होती हिंसा हमें यही बताती है। इसकी जड़ें हमें अपने परिवारों में तलाशनी होंगीं। अपने परिवारों से ही इसकी शुरूआत करनी होगी, जहां स्त्री को आदर देने का वातावरण बनाना होगा। परिवारों में ही बच्चों में शुरू से ऐसे संस्कार भरने होंगें जहां स्त्री की तरफ देखने का नजरिया बदलना होगा। बेटे-बेटी में भेद करती कहानियां आज भी हमारे समाज में गूंजती हैं। ये बातें साबित करती हैं और स्थापित करती हैं कि बेटा कुछ खास है। इससे एक नकारात्मक भावना का विकास होता है। इस सोच से समूचा भारतीय समाज ग्रस्त है ऐसा नहीं है, किंतु कुछ उदाहरण भी वातावरण बिगाड़ने का काम करते हैं। आज की औरत का सपना आगे बढ़ने और अपने सपनों को सच करने का है। वह पुरूष सत्ता को चुनौती देती हुयी दिखती है। किंतु सही मायने में वह पूरक बन रही है। समाज को अपना योगदान दे रही है। किंतु उसके इस योगदान ने उसे निशाने पर ले लिया है। उसकी शुचिता के अपहरण के प्रयास चौतरफा दिखते हैं। फिल्म, टीवी, विज्ञापन और मीडिया माध्यमों से जो स्त्री प्रक्षेपित की जा रही है, वह यह नहीं है। उसे बाजार लुभा रहा है। बाजार चाहता है कि औरत उसे चलाने वाली शक्ति बने, उसे गति देने वाली ताकत बने। इसलिए बाजार ने एक नई औरत बाजार में उतार दी है। जिसे देखकर समाज भौचक है। इस औरत ने फिल्मों,विज्ञापनों, मीडिया में जो और जैसी जगह घेरी है उसने समूचे भारतीय समाज को, उसकी बनी-बनाई सोच को हिलाकर रख दिया है। बावजूद इसके हमें रास्ता निकालना होगा।
  औरत को गरिमा और मान देने के लिए मानसिकता में परिवर्तन करने की जरूरत है। हमारी शिक्षा में, हमारे जीवन में, हमारी वाणी में, हमारे गान में स्त्री का सौंदर्य, उसकी ताकत मुखर हो। हमें उसे अश्लीलता तक ले जाने की जरूरत कहां है। भारत जैसे देश में नारी अपनी शक्ति, सौंदर्य और श्रद्धा से एक विशेष स्थान रखती है। हमारी संस्कृति में सभी प्रमुख विधाओं की अधिष्ठाता देवियां ही हैं। लक्ष्मी- धन की देवी, सरस्वती –विद्या की, अन्नपूर्णाः खाद्यान्न की, दुर्गा- शक्ति यानि रक्षा की। यह पौराणिक कथाएं भी हैं तो भी हमें सिखाती हैं। बताती हैं कि हमें देवियों के साथ क्या व्यवहार करना है। देवियों को पूजता समाज, उनके मंदिरों में श्रद्धा से झूमता समाज, त्यौहारों पर कन्याओं का पूजन करता समाज, इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है, यह एक बड़ा सवाल है। पौराणिक पाठ हमें कुछ और बताते हैं, आधुनिकता का प्रवाह हमें कुछ और बताता है। हालात यहां तक बिगड़ गए हैं हम खून के रिश्तों को भी भूल रहे हैं। कोई भी समाज आधुनिकता के साथ अग्रणी होता है किंतु विकृतियों के साथ नहीं। हमें आधुनिकता को स्वीकारते हुए विकृतियों का त्याग करना होगा। ये विकृतियां मानसिक भी हैं और वैचारिक भी। हमें एक ऐसे समाज की रचना की ओर बढ़ना होगा,जहां हर बच्चा सहअस्तित्व की भावना के साथ विकसित हो। उसे अपने साथ वाले के प्रति संवेदना हो, उसके प्रति सम्मान हो और रिश्तों की गहरी समझ हो। सतत संवाद, अभ्यास और शिक्षण संस्थाओं में काम करने वाले लोगों की यह विशेष जिम्मेदारी है। समस्या यह है कि शिक्षक तो हार ही रहे हैं, माता-पिता भी संततियों के आगे समर्पण कर चुके हैं। वे सब मिलकर या तो सिखा नहीं पा रहे हैं या वह ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं है। जब उसका शिक्षक ही कक्षा में उपस्थित छात्र तक नहीं पहुंच पा रहा है तो संकट  और गहरा हो जाता है। हमारे आसपास के संकट यही बताते हैं कि शिक्षा और परिवार दोनों ने इस समय में अपनी उपादेयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। स्त्रियों के खिलाफ इतना निरंतर और व्यापक होता अपराध, उनका घटता सम्मान हमें कई तरह से प्रश्नांकित कर रहा है। यहां बात प्रदेश, जिले और गांव की नहीं है, यही आज भारत का चेहरा है। कर्नाटक से लेकर उत्तर प्रदेश से एक जैसी सूचनाएं व्यथित करती हैं। राजनेताओं के बोल दंश दे रहे हैं और हम भारतवासी सिर झुकाए सब सुनने और झेलने के लिए विवश हैं। अपने समाज और अपने लोगों पर कभी स्त्री को भरोसा था, वह भरोसा दरका नहीं है, टूट चुका है। किंतु वह कहां जाए किससे कहे। इस मीडिया समय में वह एक खबर से ज्यादा कहां है। एक खबर के बाद दूसरी खबर और उसके बाद तीसरी। इस सिलसिले को रोकने के लिए कौन आएगा, कहना कठिन है। किंतु एक जीवंत समाज अपने समाज के प्रश्नों के हल खुद खोजता है। वह टीवी बहसों से प्रभावित नहीं होता, जो हमेशा अंतहीन और प्रायः निष्कर्षहीन ही होती हैं। स्त्री की सुरक्षा के सवाल पर भी हमने आज ही सोचने और कुछ करने की शुरूआत नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 13 जुलाई 2014

भाजपा की उम्मीदों का चेहरा हैं अमित शाह


पार्टी में पीढ़ीगत परिवर्तन के प्रतीक हैं नए राष्ट्रीय अध्यक्ष
-संजय द्विवेदी
    भारतीय जनता पार्टी के नए अध्यक्ष अमित शाह की ताजपोशी सही मायने में दल की बदलती हुई राजनीति की बानगी पेश करती है। एक समय के साथ चलती हुयी पार्टी किस तरह से अपने राजनीतिक नेतृत्व और सांगठनिक नेतृत्व में बदलाव करती है, भाजपा इसका उदाहरण है। नरेंद्र मोदी को सरकार और अमित शाह को संगठन की कमान सौंपने की घटना यही बताती है।
   अमित शाह नए जमाने के नेता हैं और गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक अपने संगठन कौशल, प्रबंधन क्षमता और चुनावी रणनीति के जानकार के रूप धाक जमा चुके हैं। जाहिर तौर पर किसी भी राजनीतिक दल के लिए ऐसा व्यक्ति उपयोगी ही कहा जाएगा। उनकी नियुक्ति पर भाजपा के भीतर कम, बाहर ज्यादा हाहाकार है। यह बताता है अमित शाह में विरोधियों को भी संभावनाएं दिख रही हैं। एक ही राज्य से आने के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वे गुजरात मंत्रिमंडल में भी अभिन्न सहयोगी रहे हैं। यानि सत्ता और संगठन की राह अब एक होगी। वे अलग-अलग मार्गों पर नहीं चलेंगें और सुर भी एक होगा।
  भाजपा एक अलग तरह से चलने वाला संगठन है। यह एक परिवार के बजाए आरएसएस के विचार परिवार से आए लोगों द्वारा चलाई जाने वाली पार्टी है। राजनीतिक क्षेत्र में होने के नाते भाजपा ने समय-समय पर विचारधारा से समझौते किए और सत्ता पाई। कई नीतियों पर आज भी भाजपा और संघ के मतभेद सामने आते रहते हैं। किंतु आरएसएस के लोग यह मानते रहे कि अल्पमत में होने के नाते भाजपा का ऐसा करना मजबूरी है। किंतु इस बार पूर्ण बहुमत की सरकार पाकर संघ का आशावाद चरम पर है। वह किसी कीमत पर इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता है। उसे पता है कि सत्ता की राह रपटीली होती है और यह फिसलन भरा रास्ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकर्षक नेतृत्व और प्रभावी भाषणकला के बावजूद कुछ ऐसी बातें है जो सरकार की छवि बनाने के लिए जरूरी हैं। इसलिए पहले दिन से ही मंत्रियों से लेकर सांसदों तक को सहयोगियों को सावधानी से चुनने की हिदायतें दी जा रही हैं। पार्टी के सत्ता में आने के बाद दल का प्रभावशाली नेतृत्व सरकार में जा चुका है। ऐसे समय में संगठन की शक्ति को सहेजने और अपनी चुनावी मिशनरी को सजग रखने के लिए एक ऐसे व्यक्तित्व की जरूरत थी, जिसमें नरेंद्र मोदी की छवि भी दिखे और वह नरेंद्र मोदी को भरोसे में लेकर सरकार से प्रभावी फैसले भी करवा सके। अमित शाह की जगह कोई भी अध्यक्ष होता तो उसे नरेंद्र मोदी के यस मैन सरीखा ही व्यवहार करना पड़ता अन्यथा टकराव के रास्ते खुल जाते। किंतु अमित शाह की शख्सियत ऐसी है कि वे नरेंद्र मोदी के सामने अपनी बात न सिर्फ रख सकते हैं बल्कि मनवा भी सकते हैं। वहीं संगठन में उनकी भूमिका इसलिए प्रभावी होगी क्योंकि यह माना जाएगा कि शाह जो कह रहे हैं, उसमें मोदी की सहमति जरूर होगी। यह सही मायने में भाजपा के एक सुनहरे दौर की शुरूआत है। जहां सत्ता और संगठन पर दो अलग-अलग और प्रभावी शख्सियतों की उपस्थिति के बावजूद उनमें संघर्ष नहीं समन्वय देखने को मिलेगा। भाजपा जैसी पार्टी में संघ के आए प्रचारकों और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का खासा प्रभाव है, किंतु आप भाजपा के संविधान को देखें तो वह दरअसल अध्यक्ष को बहुत शक्तिमान बनाता है। सही मायने में यह अध्यक्ष का ही दल है। पार्टी में विचारों की बहुलता के बावजूद एक समन्वय दिखता है। शायद इसीलिए भाजपा ने देश के किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा अध्यक्ष बनाए और हटाए हैं। शेष दलों में दशकों तक कोई परिवर्तन नहीं होता और कई में तो लोग मृत्यु तक अध्यक्ष बने रहते हैं किंतु भाजपा लगातार बदलती हुयी पार्टी है और एक नदी की धारा की तरह चल रही है। विचारधारा के प्रति कभी आक्रामक और कभी समझौतावादी रूख अपनाने के बावजूद अब वह पूरी तरह से सत्ता का दल बन चुकी है, इसमें संदेह नहीं है। उसके पास आज नेताओं की एक लंबी श्रृंखला है जिनमें हर जाति, वर्ग, धर्म तथा क्षेत्रीयताओं का नेतृत्व मौजूद है। अपने भौगोलिक और सामाजिक विस्तार को उसने साबित भी किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अमित शाह एक रणनीतिकार होने के नाते एक इसे और आगे बढ़ाएंगें। गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रयोग के बाद अमित शाह दरअसल भाजपा की उम्मीदों का चेहरा भी हैं। यह भी महत्व की बात है कि शाह केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाने के बजाए दल के अध्यक्ष के रूप में कार्य करना स्वीकार करते हैं। इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकारों की नजर में संगठन की सतत सक्रियता बनाए रखने का भी मानस बना हुआ है।
    नरेंद्र मोदी सरकार के प्रयोग पर दरअसल आरएसएस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। इसलिए वह इस अवसर को खोना नहीं चाहता। पहले प्रचारक प्रधानमंत्री की सफलता से उसका राजपथ मजबूत बनेगा, वहीं जनता के मन में उसकी विचारधारा के प्रति आस्था बनेगी। आप देखें तो संघ राजनीति के प्रति इतिहास के समूचे समय में इतना उत्सुक कभी नहीं दिखा। क्योंकि चाहे-अनचाहे यह बात लोगों तक पहुंच चुकी है, इस सरकार को बनाने में संघ का प्रत्यक्ष योगदान बहुत ज्यादा है। इसमें संघ का बेहतर पक्ष यह है कि वह व्यक्तियों की नहीं, नीतियों की बात कर रहा है। उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह फ्री हैंड दिया है कि वे व्यक्तियों के चयन में तो अपनी चलाएं पर नीतियों से समझौता न करें। नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर संघ की बातचीत के शुभ फलितार्थ देश को प्राप्त होंगें, इसमें दो राय नहीं हैं। एक दल के नाते भाजपा के अध्यक्ष पद पर अमित शाह की ताजपोशी बताती है, भाजपा सत्ता पाकर अभी भरी और संतुष्ठ नहीं हैं। सरकार आने पर आमतौर पर संगठन हाशिए पर और दरकिनार कर दिया जाता है। यह फैसला बताता है भाजपा सत्ता पाकर बहुत ज्यादा मुदित नहीं है वह अपने संगठन को और बेहतर और प्रभावी बनाना चाहती है, तभी उसने आलोचनाओं को दरकिनार करते हुएचुनावी समर-2014 में अपने सबसे बेहतर सेनापति साबित हुए अमित शाह को संगठन का ताज पहनाया है। यह अमित शाह के लिए पुरस्कार भी है और अपेक्षित परिणाम लाने की चुनौती भी । उनके लिए उन इलाकों में भाजपा का कमल खिलाने की चुनौती अभी भी है, जहां आज भी भाजपा का शून्यकाल चल रहा है। दक्षिण के राज्यों और पूर्वोत्तर पर उन्हें ज्यादा फोकस करने के साथ, जीती हुयी जमीनें भी बचाने के जतन करने होगें। इसके साथ ही जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां भाजपा को अपेक्षित सफलता भी दिलानी होगी। संगठन का मंच तो हमेशा कांटों का ताज होता है, पार्टी सत्ता में हो तो यह चुनौती और कठिन हो जाती है। अमित शाह ने बहुत सारे संकटों को पार कर यहां तक की यात्रा की है, उनका दिल्ली आना उन्हें कितना रास आता है इस सवाल के जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा।


रविवार, 6 जुलाई 2014

मौसम की तरह तुम भी बदल तो न जाओगे


-संजय द्विवेदी
    उनका संकट यह है कि उन्हें अरसे बाद देश में एक ऐसी सरकार का नेतृत्व करने का अवसर मिला है, जो पूर्ण बहुमत की सरकार है। जिसके साथ प्रबल जनादेश और जनांकांक्षाएं संयुक्त हैं। जाहिर तौर पर समर्थ राजनीतिक नेतृत्व के बिना दस साल तक चली यूपीए सरकार के मुकाबले वे ज्यादा आदमकद और सरोकारी राजनेता हैं। गुजरात में अपने कामकाज और बेहद धारदार चुनाव अभियान चलाकर वे वैसे भी आकांक्षाओं का विस्तार जरूरत से ज्यादा कर चुके हैं। नरेंद्र मोदी का वर्णन इससे ज्यादा भी किया जा सकता है, किंतु मोदी अब केंद्रीय सत्ता में हैं जो उनके लिए एक अनजानी जगह है।
   यहां यह भी स्वीकारना होगा कि उनके विरोधी बेहद चतुर-चालाक और सत्ता संविमर्श में दशकों से लगे हुए लोग हैं। वे इतने टीवी और मीडिया चपल हैं कि एक महीने में ही अच्छे दिन आने वाले हैं के नारे को एक मजाक में बदल चुके हैं। यह देखना भी रोचक है कि मप्र से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस अब महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर संघर्ष कर रही है। तो क्या महंगाई अलग-अलग होती है? मनमोहन और मोदी की महंगाई का अंतर क्या है? जाहिर तौर पर जनता को इन सवालों से मतलब नहीं होता, उसे राहत चाहिए, जीवन जीने की न्यूनतम जरूरतें पूरी होनी चाहिए। उसे राज और ताज बदलने से बहुत मतलब नहीं होता। उसने बदलाव इसी आशा से किया है कि उसके अच्छे दिन आएंगें। क्योंकि चुनावी मैदान में यह वादा करने वाले मोदी अकेले थे इसलिए जनता ने उनके सर्वाधिक सांसदों को चुनकर भेजा। शेष राजनीतिक दल महंगाई, भ्रष्टाचार और निर्णयहीनता से लड़ने के बजाए मोदी को रोकने में लगे थे, ऐसे में मोदी को वे अतिरिक्त ताकत और सहानुभूति दोनों दे रहे थे। इस अभूतपूर्व चुनाव के परिणाम बताते हैं कि लोग आज भी उम्मीदों से खाली नहीं हैं और वे एक नई तरह की राजनीति को जन्म देना चाहते हैं। राजनीतिक दलों के तमाम किंतु-परंतु के बावजूद देश की जनता एक नई राजनीतिक शैली को पसंद कर रही है और उसे ताकत दे रही है।
   एक विशाल देश की आकांक्षाएं और सपने जाहिर तौर पर एक नहीं हो सकते। दिल्ली को इसे समझकर कदम उठाने होंगें किंतु देश आगे बढ़े और जनता का एजेंडा राजनीति का भी एजेंडा बने यह सोच सबकी है। सत्ता पर नियंत्रण और राजनीतिक दलों पर सामाजिक समूहों का निरंतर दबाव जरूरी है। वरना सत्ता मनमाने व्यवहार से जनविरोधी चरित्र जल्दी ही ओढ़ लेती है। पांच साल का जनादेश उसे शासन करने का प्रमाणपत्र लगने लगता है। एक अतिरिक्त अहंकार के बोझ से दबी हमारी राष्ट्रीय राजनीति और नौकरशाही की नजर में हम भारतीय सबसे निकम्मे,काहिल और बेईमान लोग दिखने लगते हैं। दिल्ली में बैठे राजपुत्रों को दो समय के भोजन के बंदोबस्त में जुटा भारत नजर नहीं आता है और यहीं जनता और सत्ता से रिश्ते टूट जाते हैं। अंग्रेजी राज की मानसिकता और अंग्रेजी कानूनों से देश आज भी मुक्त नहीं है। जनसेवक और लोकसेवक की परिभाषा में आने वाले पदाधिकारी आज भी अपने को साहब कहलाना पसंद करते हैं, उनके लिए आमजन तो सेवक और नौकर सरीखे ही होंगें। जिस मानसिकता से अंग्रेज नौकरशाही हम भारतीयों को हेय दृष्टि से, हिकारत की नजर से देखती थी, हमें काहिल-कामजोर, नमक हराम समझकर दमनचक्र चलाती थी, उसमें बदलाव कहां आया है? साहब आज भी साहब है। लोकतंत्र के सात दशक की यात्रा सिर्फ आम भारतीय के अपमान और तिरस्कार की यात्रा बनकर रह गयी है। पांच रूपए, एक रूपए में भरपेट भोजन हमें मिलता है, यह बताने वाली राजनीति और नौकरशाही की खुद की एक थाली कितने में पड़ती है, उसका भी हिसाब लेने की जरूरत है। अखबार आपको बता ही रहे हैं एक गरीब राज्य छत्तीसगढ़ के विधानसभा अध्यक्ष के बंगले में कितने एसी लगाए गए हैं। यह प्रतीकात्मक सूचनाएं बताती हैं कि हिंदुस्तान कहां से और कितना बदला है।
  सरकारी अफसरों की अकड़, हेकड़ी और देहभाषा देखिए उनके लिए आम जनता तो छोड़िए सामान्य आम जनप्रतिनिधि भी कोई मायने नहीं रखता। उन्हें साहब कहलाना और साहबी दिखाना पसंद है। जिस भारतीय आम जन को हम निकम्मा समझने की अंग्रेजी सरकार की मानसिकता से ग्रस्त हैं, अपना चश्मा उतारेंगें तो आपको इनमें ही श्रमदेव और श्रमदेवियां नजर आएंगीं। एक गरीब देश और उसके अमीर शासक। यह देश अफसरों की फौज और राजनेताओं को इतनी सुविधाएं साधन इसलिए दे रहा है कि ये इन सुविधाओं को पाकर अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ जनता के एजेंडे पर काम करेंगें। किंतु सत्ता पाकर लोगों की दृष्टि और सृष्टि दोनों बदल जाती है।
     दिल्ली की सत्ता पर ऐसे समय में नरेंद्र मोदी का आगमन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह है, क्योंकि वे मनमोहन सिंह की तरह इंडिया नहीं भारत के प्रतिनिधि हैं। वे गांवों के दर्द, उसकी गरीबी और संघर्ष को जानते हैं। दिल्ली उन्हें बदल न सके इसके लिए हम सबको प्रार्थना करनी चाहिए। उनके जीवन के अनुभव और उनकी समूची जीवन यात्रा उम्मीदों को जागने वाली है। देश ने उनके इसी देशीपने पर मुग्ध होकर उन्हें स्वीकारा है। खतरा यहीं बड़ा है कि वे जनादेश पा चुके हैं और लुटियंस जोन को क्रेक कर चुके हैं। कल तक जो ताकतें उन्हें दिल्ली न आने देने के लिए सारे जुगत लगा रही थीं और इसमें उनके दल के अंदर-बाहर के लोग भी शामिल थे, अब वे उनका अनूकूलन करने का प्रयास करेंगें। दिल्ली आपको अपने जैसा बना लेती है या फिर वेबफा हो जाती है। नरेंद्र मोदी अपार जनशक्ति से समर्थन से वहां पहुंचे हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस जनविश्वास की रक्षा करते हुए शासन-प्रशासन में आम आदमी के लिए ज्यादा संवेदना का विस्तार करेंगें। वे उन इलाकों पर भी ध्यान देंगें जहां असली नक्सलियों से ज्यादा लूट और अत्याचार शासन का खुद का तंत्र और उद्योंगों कर रहे हैं। वे इस बात को समझने की कोशिश करेंगें कि क्यों जमीनों, जंगलों और पानी की लूट का माहौल बना हुआ है और उन लोगों की परवाह किए बिना जो इन संसाधनों पर अपना पहला हक रखते हैं। सवाल यह भी हैं कि सरकार एक व्यापारी की तरह काम करेगी या एक संवेदनशील मानवीय आचरण भी करेगी। दिल्ली की बेरहमी के किस्से हमारे इतिहास में बिखरे पड़े हैं। दिल्ली के बारे में हमारे समय के एक बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं-
दिल्ली हमका चाकर कीन्ह
दिल दिमाग भूसा भर-दीन्ह।

  इतिहास की इस घड़ी में समूचा देश नरेंद्र मोदी को दिल्ली में रहकर भी देशी आदमी बने रहने की प्रार्थना प्रभु से कर रहा है। वह उम्मीद कर रहा है कि वे देश की राजधानी को उस सोच से मुक्त कराएंगें जिसमें आम भारतीय के बारे में अच्छी धारणा नहीं है। उस प्रशासन तंत्र में संवेदना भरने का काम भी करेंगें जिसे भारतीयता, उसके मूल्यों, संस्कृति और यहां के लोगों से दूरी बनाना ही पसंद है। वह भारतीय मेघा का सम्मान करने वाला वातावरण भी बनाने का काम करेंगें। हिंदुस्तान को समझकर झकझोरने और इस देश की एकता के लिए गुजरात से आए नायकों स्वामी दयांनद, महात्मा गांधी और सरदार पटेल ने अभूतपूर्व काम किया है। सही मायने में हमारे अंदर सोये हुए मनुष्य को जगाने, झकझोरने और एक भारतीय दृष्टि से सोचने का जो जज्बा महात्मा गांधी ने हमें दिया वह आज हमारा मार्गदर्शक हो सकता है। गुजरात की घरती से आने के नाते, अपने पूर्व जीवन के अनुभवों के आधार पर नरेंद्र मोदी अगर कुछ कर पाते हैं तो यही बात देश के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी। ऐसे में उन्हें यह परवाह करने की जरूरत नहीं है कि देश के प्रभु वर्गों में उनको लेकर क्या राय बनती है। उन्हें तो देश की महान जनता पर भरोसा करना चाहिए, जिसने उन्हें भारत जैसे महादेश की कमान तब सौंप दी जब हर प्रभावी विचार, व्यक्ति, बुद्धिजीवी और संस्थाएं उनके दिल्ली की तरफ बढ़ रहे अश्वमेघ को रोकने के लिए हम संभव उपाय अपना रहे थे। दिल्ली उन्हें अनूकूलित करने के प्रयासों में विफल होती है तो नरेंद्र मोदी को इतिहास पुरूष बनने से कोई रोक नहीं सकता। वे विश्व इतिहास के एक ऐसे नायक बनेंगें जिस पर हमारी पीढियों को गर्व होगा और वे कहेंगी कि हमने नरेंद्र मोदी को देखा था।