शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

विनायक सेन, अरूंधती राय और माओवाद का सच!


दिल से पूछिए कि क्या माओवादियों की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है

-संजय द्विवेदी

नहीं, कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। स्वामी अग्निवेश कहते हैं इस फैसले ने न्यायपालिका को एक मजाक बना दिया है। आप याद करें जब सुप्रीम कोर्ट ने डा. विनायक सेन को जमानत पर छोड़ा था तो इसे एक विजय के रूप में निरूपित किया गया था। अगर वह राज्य की हार थी तो यह भी डा. सेन की जीत नहीं है। हमें अपनी अदालतों और अपने तंत्र पर भरोसा तो करना ही होगा। आखिर क्या अदालतें हवा में फैसले करती हैं ? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ सबूत गढ़े जा सकते हैं ? ये सारे सुविधा के सिद्धांत हैं कि फैसला आपके हक में हो तो गुडी-गुडी और न हो तो अदालतें भरोसे के काबिल नहीं हैं। भारतीय संविधान, जनतंत्र और अदालतों को न मानने वाले विचार भी यहां राहत की उम्मीद करते हैं, दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है। यह लोकतंत्र का ही सौन्दर्य है कि रात-दिन देश तोड़ने के प्रयासों में लगी ताकतें भी हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में अपनी बात कहते हुए धूम रही हैं और देश का मीडिया का भी उनके विचारों को प्रकाशित कर रहा है।

जनतंत्र के खिलाफ है यह जंगः

माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रख हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं।

देशतोड़कों की एकताः

देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे दंतेवाड़ा के लोगों को सलामभेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। पिछले दिनों अरूधंती ने अपने एक लेख में लिखा हैः मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों।

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः

ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं। अरूंधती इसी लेख में लिखती हैं -क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए।या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप हमारेसाथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।

सदके इन मासूम तर्कों केः

अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
अरूंधती कह रही हैं कि मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को माओवादीकरार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।

कारपोरेट लूट पर पलता माओवादः

अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है।

परमपवित्र नहीं हैं सरकारें:

सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं तो हमारे बुद्धिजीवी उनके साथ क्यों खड़े हैं। हमें पता है कि साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर भी ये लोग वहां क्या कर रहें हैं? जाहिर तौर ये बुद्धिजीवी नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, ये काडर हैं जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी किए जा रहे हैं क्योंकि उनके निशाने पर भारतीय जनतंत्र है।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

‘लोक’ मीडिया के लिए डाउन मार्केट चीजः संजय द्विवेदी


लोकसाहित्य और मीडिया विषय पर व्याख्यान

मुलताई (बैतूल-मप्र)। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष एवं मीडिया विश्लेषक संजय द्विवेदी का कहना है कि लोक मीडिया के लिए डाउन मार्केट चीज है। लोक का बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। वे यहां मुलताई के शासकीय महाविद्यालय में लोकसाहित्य के विविध आयामविषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के समापन सत्र में लोकसाहित्य और मीडिया विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि की आसंदी से उन्होंने कहा कि लोक को विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।

उन्होंने कहा कि सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की कोशिश खतरनाक है। जबकि राइट टू डिफरेंट एक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो लोक में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है।

श्री द्विवेदी ने कहा कि लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोक का हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविराय कहा जाता था। उनका कहना था कि बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बोनाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। उन्होंने आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोक की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।

समापन समारोह की मुख्यअतिथि प्रख्यात साहित्यकार डा. विद्याविंदु सिंह (लखनऊ) ने कहा कि लोकचेतना को जागृत करके ही संवेदनाएं बचाई जा सकती हैं और संवेदना से ही कोई समाज शक्तिशाली होता है। इससे देश की एकता भी मजबूत होगी। उन्होंने नई पीढ़ी से अपील की वे गांवों में जाएं और लोकसाहित्य के संरक्षण के प्रयासों में लगें। उनका संग्रहण करें और अपनी इस विरासत को बचा लें। कार्यक्रम का संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर में प्रोफेसर डा.सुभद्रा राठौर ने किया। आभार प्रदर्शन प्राचार्य डा. वर्षा खुराना ने किया। समापन समारोह में महाविद्यालय की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष ऐनलाल जैन, मीता अग्रवाल(राजनांदगांव-छत्तीसगढ़), डा.गिरिजा अग्रवाल ,डा. छेदीलाल कांस्यकार (औरंगाबाद-बिहार), डा. सुरेश माहेश्वरी (अमलनेर-महाराष्ट्र) ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

राहुल गांधीः तेरी रहबरी का सवाल है


अपने विवादित बयानों से अलोकप्रिय हो रहे हैं युवराज

-संजय द्विवेदी

अपने बेहद निष्पाप चेहरे और अपने पिता की भुवनमोहिनी छवि के अलावा राहुल गांधी कांग्रेस की एक ऐसी संभावना का नाम है जिसने बहुत कम समय में अपने प्रयासों से देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। अपने बेहद संकोची स्वभाव और सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर उन्होंने यह साबित किया कि वे एक अलग माटी के बने हैं। देश को जानने की उनकी ललक, प्रश्नाकुलता, कांग्रेस जैसे जड़ संगठन में युवा कांग्रेस और एनएसयूआई के चुनाव कराने की शुरूआत कर उन्होंने जताया कि उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों है। देश की इसी संभावना के परखच्चे विकिलीक्स उड़ा रहा है। विकिलीक्स की खबरों पर कितना और कैसा भरोसा किया जाए, इस प्रश्न के बावजूद भी राहुल गांधी ने हिंदू आतंकवाद के बारे में जो कुछ कहा है, उससे उनकी बचकानी समझ का पता चलता है। लश्करे तैयबा जैसे संगठनों से हिंदु संगठनों की तुलना एक ऐसा अपराध है, जिसका पता शायद राहुल गांधी को भी न हो। हालांकि वे सिमी और आरएसएस की तुलना भी करते रहे हैं। जाहिर तौर पर राहुल इस तरह के बयानों से अपनी बेहतर संभावनाओं के दरवाजे स्वयं बंद कर रहे हैं।

जिस दौर में विकास की राजनीति और गर्वेंनेस के सवाल सबसे प्रमुख राजनीतिक एजेंडा बन चुके हों, उस समय में एक बार फिर सांप्रदायिक राजनीति की शुरूआत उचित नहीं कही जा सकती। कांग्रेस का सांप्रदायिकता को लेकर ट्रेक बहुत बेहतर नहीं रहा है किंतु राहुल गांधी जैसे नई और ताजी सोच के नेता भी उन्हीं कटघरों में कैद होकर रह जाएं तो यह बात चिंता में डालने वाली है। जिन नरेंद्र मोदी से राहुल गांधी को बहुत परेशानी है वे भी विकास के एजेंडें के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं। आतंकवाद एक वैश्विक प्रश्न है और इसके कुप्रभावों को पूरी दुनिया भुगत रही है। जेहादी आतंकवाद का एक वीभत्स चेहरा है जिसे खारिज करने की जरूरत है किंतु क्या राहुल का बयान इसमें हमारी मदद करता है। यह सोचने की जरूरत है। आतंकवाद को आस्था के आधार पर बांटने की कोई भी कोशिश हमें कमजोर ही करेगी, क्योंकि हम आतंकवाद के सबसे बड़े शिकार देश हैं। आतंकवाद की विश्वस्वीकृत परिभाषाओं और उसके पीछे छिपे विचारों को राहुल को पढ़ना चाहिए। आतंकवाद को किस तरह से विचारधाराओं और पंथों का आवरण पहनाकर उसे जस्टीफाई किया जा रहा है उसे भी जानने की जरूरत है। किंतु क्या राहुल के पास इतना इंतजार है कि वे बोलने के पहले संदर्भों को जान भी लें। भारत की राजसत्ता पर राज कर रहे, देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के एक प्रभावी नेता होने के नाते उनके कथनों का अपना महत्व है। जबकि वे भारत के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं तो उन्हें तो अपने वचनों को लेकर और भी गंभीर रूख अख्तियार करना चाहिए। क्योंकि दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम के बयानों से तो कांग्रेस अपने को अलग कर सकती है किंतु राहुल गांधी के बयानों से वह खुद को अलग कैसे कर सकती है। राहुल को जानना होगा कि आतंकवाद और सांप्रदायिकता क्या एक ही चीजें हैं। क्या आतंकवाद और सांप्रदायिकता को एक मानकर की गयी किसी टिप्पणी का कोई मायने है। हिंदुत्व के विचार को आतंकी ठहराने की होड़ दरअसल कांग्रेस की उसी वोट बैंक की भूखी मानसिकता की उपज है जिसका वो सालों साल से इस्तेमाल करती आयी है। राहुल अगर देश में नई राजनीति के प्रारंभकर्ता बनना चाहते हैं तो उन्हें इससे बचना होगा। अन्यथा वो भी उन्हीं सामान्य नेताओं की तरह सुर्खियां तो बटोर सकते हैं किंतु उनके पास लंबा रास्ता न होगा। देश के भावी शासक होने के नाते राहुल गांधी को देश के इतिहास, संस्कृति और राजनय की गंभीर समझ विकसित करनी होगी। वरना ये स्थितियां उन्हें उपहास का पात्र ही बनाएंगीं। अगर उनकी यही समझ है कि जेहादी आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक हिंदू संगठन हैं तो इस बात पर कोई भी मुस्कराएगा। जाहिर तौर पर उनका यह बयान उनकी बेहद सामान्य समझ को प्रकट करता है। यह बेहतर है कि वे लिखा हुआ वक्तव्य ही दें। वैसे भी देश के अहम सवालों पर राहुल की प्रतिभा अभी प्रकट नहीं हुयी है।हम देखें तो राहुल गांधी की छवि बनाई ज्यादा जा रही है, उसमें स्वाभाविकता कम है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल स्पेक्ट्रम घोटाले, बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। किंतु राहुल गांधी ने इन दिनों जैसा रवैया अख्तियार किया है उससे उनके प्रति सहानुभूति और संवेदना रखने वालों की संख्या में कमी आ रही है। क्योंकि कहीं भी वे देश के सवालों पर जन के साथ नहीं दिखते और सांप्रदायिक सवालों को उठाकर अपनी लाइन बड़ी करना चाहते हैं। ऐसे में उस परंपरागत छवि को चोट पहुंच रही है, जिसमें वे बेहद मर्यादित और संयत दिखते हैं। इस प्रसंग पर राहुल गांधी पर यह शेर मौंजू है-

तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि कारवां क्यों लुटा

मुझे रहबरों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

सूचनाएं आ रही हैं हमें आईना दिखाने


- संजय द्विवेदी

सूचनाएं अब मुक्त हैं। वे उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों। कई बार वे असंपादित भी हैं, पाठकों को आजादी है कि वे सूचनाएं लेकर उसका संपादित पाठ स्वयं पढ़ें। सूचना की यह ताकत अब महसूस होने लगी है। विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे अब अकेले नहीं हैं, दुनिया के तमाम देशों में सैकड़ों असांजे काम कर रहे हैं। इस आजादी ने सूचनाओं की दुनिया को बदल दिया है। सूचना एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गयी है। क्योंकि वह उसी रूप में प्रस्तुत है, जिस रूप में उसे पाया गया है। ऐसी असंपादित और तीखी सूचनाएं एक असांजे के इंतजार में हैं। ये दरअसल किसी भी राजसत्ता और निजी शक्ति के मायाजाल को तोड़कर उसका कचूमर निकाल सकती हैं। क्योंकि एक असांजे बनने के लिए आपको अब एक लैपटाप और नेट कनेक्शन की जरूरत है। याद करें विकिलीक्स के संस्थापक असांजे भी एक यायावर जीवन जीते हैं। उनके पास प्रायः एक लैपटाप और दो पिठ्ठू बैग ही रहते हैं।

इस समय, सूचना नहीं सूचना तंत्र की ताकत के आगे हम नतमस्तक खड़े हैं। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि मीडियम इज द मैसेजयानी माध्यम ही संदेश है।मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। विकिलीक्स नाम की वेबसाइट इसका प्रमाण है जिसने पूरी दुनिया सहित सबसे मजबूत अमरीकी सत्ता को हिलाकर रख दिया है। एक लोकतंत्र होने के नाते अमरीकी कूटनीति के अपने तरीके हैं और वह दुनिया के भीतर अपनी साफ छवि बनाए रखने के लिए काफी जतन करता है। किंतु विकिलीक्स की विस्फोटक सूचनाएं उसके इस प्रयास को तार-तार कर देती हैं। हेलेरी क्लिंटन की बौखलाहट को इसी परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अमरीका कुछ भी कहे या स्थापित करने का प्रयास करे, किंतु पूरी दुनिया का नजरिया उसकी ओर देखने का अलग ही है। इन खुलासों में उसे बहुत नुकसान होगा यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके बारे में ऐसी सूचनाएं अब तक दबी जुबान से कही जाती रही हैं, विकिलीक्स ने उस पर मुहर लगा दी है। सही मायने में यह सूचनाओं की विलक्षण आजादी का समय है। इंटरनेट ने सीमाओं को तोड़कर संवाद को जिस तरह सहज बनाया है, उसने संचार को सही मायने में लोकतांत्रिक बना दिया है। इस स्पेस को मजबूत से मजबूत सत्ताएं भेद नहीं सकतीं। विकिलीक्स से लेकर हिंदुस्तान में तहलका जैसे प्रयोग इसके प्रमाण हैं। आज ये सूचनाएं जिस तरह सजकर सामने आ रही हैं कल तक ऐसा करने की हम सोच भी नहीं सकते थे। संचार क्रांति ने इसे संभव बनाया है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। इस सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक है, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होगी। जर्मनी को याद करें तो उसने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व जो ऐतिहासिक जीतें दर्जे की वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था। सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई है।

सत्तर के दशक में तो पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के बीच चल रही बहस और जंग इसी सूचना तंत्र पर लड़ी गई, एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल होता यह सूचना तंत्र आज अपने आप में एक निर्णायक बन गया है। समाज-जीवन के सारे फैसले यह तंत्र करवा रहा है। सच कहें तो इन्होंने अपनी एक अलग समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। रूस का मोर्चा टूट जाने के बाद अमरीका और उसके समर्थक देशों की बढ़ी ताकत ने सूचना तंत्र के एकतरफा प्रवाह को ही बल दिया है। सूचना तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण ने अमरीकी राजसत्ता और उसके समर्थकों को एक कुशल व्यापारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बाजार और सूचना के इस तालमेल में पैदा हुआ नया चित्र हतप्रभ करने वाला है। पूंजीवादी राजसत्ता इस खेल में सिंकदर बनी है। ये सूचना तंत्र एवं पूंजीवादी राजसत्ता का खेल आप खाड़ी युद्ध और उसके बाद हुई संचार क्रांति से समझ सकते हैं। आज तीसरी दुनिया को संचार क्रांति की जरूरतों बहुत महत्वपूर्ण बताई जा रही है। अस्सी के दशक तक जो चीज विकासशील देशों के लिए महत्व की न थी वह एकाएक महत्वपूर्ण क्यों हो गई । खतरे का बिंदू दरअसल यही है। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी रही हैं।

लेकिन ध्यान दें कि सूचनाएं अब पश्चिम के ताकतवर देशों की बंधक नहीं रह सकती। उन्होंने अपना निजी गणतंत्र रच लिया है। वे उड़ रही हैं। ताकतवरों की असली कहानियां कह रही हैं। वे बता रही हैं- अमरीका किस तरह का जनतंत्र है। उसकी कथनी और करनी के अंतर क्या हैं। यह दरअसल सूचनाओं का लोकतंत्र है। इसका स्वागत कीजिए। क्योंकि किसी भी देश में अगर लोकतंत्र है तो उसे सूचनाओं के जनतंत्र का स्वागत करना ही पड़ेगा। अब सूचनाएं अमरीका और पश्चिमी मीडिया कंपनियों की बंधक नहीं रहीं, वे आकाश मार्ग से आ रही हैं हमको, आपको, सबको आईना दिखाने। वह बताने के लिए कि जो हम नहीं जानते। इसलिए विकिलीक्स के खुलासों पर चौंकिए मत, नीरा राडिया के फोन टेपों पर आश्चर्य मत कीजिए, अब यह सिलसिला बहुत आम होने वाला है। फेसबुक ब्लाग और ट्विटर ने जिस तरह सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण किया है उससे प्रभुवर्गों के सारे रहस्य लोकों की लीलाएं बहुत जल्दी सरेआम होगीं। काले कारनामों की अंधेरी कोठरी से निकलकर बहुत सारे राज जल्दी ही तेज रौशनी में चौंधियाते नजर आएगें। बस हमें, थोड़े से जूलियन असांजे चाहिए।

रविवार, 28 नवंबर 2010

मत चूको चौहान!

मध्यप्रदेश को स्वर्णिम बनाने का अवसर इतिहास ने शिवराज को दिया है
29 नवंबर को अपने मुख्यमंत्रित्व के पांच साल पूरे कर रहे हैं शिवराज
किसी भी राष्ट्र-राज्य के जीवन में पांच साल की अवधि कुछ नहीं होती। किंतु जो कुछ करना चाहते हैं उनके एक- एक पल का महत्व होता है। मध्यप्रदेश में ऐसी ही जिजीविषा का धनी एक व्यक्ति एक इतिहास रचने जा रहा है। ऐसे में उसके संगठन का उत्साह बहुत स्वाभाविक है। बात मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की हो रही है। वे राज्य के ऐसे पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री हैं जो सत्ता में पांच साल पूरे कर एक इतिहास का सृजन कर चुके हैं। मध्यप्रदेश में गैरकांग्रेसी सरकारों का आना बहुत बड़ी बात नहीं रही है किंतु उसका दुखद पक्ष है या तो सरकारें गिर गयीं या मुख्यमंत्री बदल गए। 1967 की संविद सरकार हो, 1977 की जनता सरकार हो या 1990 की भाजपा की सरकार हो। सबके साथ यह हादसा हुआ ही। ऐसे में मध्य प्रदेश भाजपा के लिए प्रसन्नता के दो कारण हैं। एक तो लगातार उसे राज्य में दूसरी पारी खेलने का मौका मिला है तो दूसरी ओर उसके एक मुख्यमंत्री को पांच साल काम करने का मौका मिला। इसलिए यह क्षण उपलब्धि का भी है और संतोष का भी। शायद इसीलिए राज्य भाजपा के नए अध्यक्ष सांसद प्रभात झा ने ‘जनता वंदन-कार्यकर्ता अभिनंदन’ की रचना तैयार की। यह एक ऐसी कल्पना है जो लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करती है। होता यह है सत्ता में आने के बाद सरकारें जनता और कार्यकर्ता दोनों को भूल जाती हैं। ऐसे में यह आयोजन जनता और कार्यकर्ताओं को समर्पित कर भाजपा ने एक सही संदेश देने की कोशिश की है।

आप देखें तो राज्य भाजपा के लिए यह अवसर साधारण नहीं है। लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का मौका और पिछले पांच सालों में तीन मुख्यमंत्री के बनाने और बदलने की पीड़ा से मुक्ति। सही मायने में भाजपा के किसी मुख्यमंत्री को पहली बार मुस्कराने का मौका मिला है। यह भी माना जा रहा है सारा कुछ ठीक रहा तो शिवराज सिंह चौहान ही अगले चुनाव में भी भाजपा का नेतृत्व करेंगें और यह सारी कवायद उसी जनाधार को बचाए, बनाए और तीसरी बार सत्ता हासिल करने की है। इस स्थायित्व को भाजपा सेलीब्रेट करना चाहती है। इसमें दो राय नहीं कि शिवराज सिंह चौहान ने इन पांच सालों में जो प्रयास किए वे अब दिखने लगे हैं। विकास दिखने लगा है, लोग इसे महसूस करने लगे हैं। सबसे बड़ी बात है कि नेतृत्व की नीयत साफ है। शिवराज अपने देशज अंदाज से यह महसूस करवा देते हैं कि वे जो कह रहे हैं दिल से कह रहे हैं। राज्य के निर्माण और स्वर्णिम मध्यप्रदेश या आओ बनाएं अपना मध्यप्रदेश जैसे नारे जब उनकी जबान से निकलते हैं तो वे विश्वसनीय लगते हैं। उनकी आवाज रूह से निकलती हुयी लगती है,वह नकली आवाज नहीं लगती। जनता के सामने वे एक ऐसे संचारकर्ता की तरह नजर आते हैं, जिसने लोगों की नब्ज पकड़ ली है। वे सपने दिखाते ही नहीं, उसे पूरा करने में लोगों की मदद मांगते हैं। वे सब कुछ ठीक करने का दावा नहीं करते और जनता के सहयोग से आगे बढ़ने की बात कहते हैं। जनसहभागिता का यह सूत्र उन्हें उंचाई दे जाता है। वे इसीलिए वे जिस तरह सामाजिक सुरक्षा, स्त्री के प्रश्नों को संबोधित कर रहे हैं उनकी एक अलग और खास जगह खुद बन जाती है। जिस दौर में रक्त से जुड़े रिश्ते भी बिगड़ रहे हों ऐसे कठिन समय में एक राज्य के मुखिया का खुद को तमाम लड़कियों के मामा के रूप में खुद को स्थापित करना बहुत कुछ कह देता है।

शिवराज सिंह चौहान, राज्य भाजपा के पास एक आम कार्यकर्ता का प्रतीक भी हैं। बहुत पुरानी बात नहीं है कि जब वे विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता के नाते इस महापरिवार में आए और अपनी लगातार मेहनत, श्रेष्ठ संवादशैली और संगठन कौशल से मुख्यमंत्री का पद भी प्राप्त किया। अपनी भाव-भंगिमाओं,प्रस्तुति और वाणी से वे हमेशा यह अहसास कराते हैं कि वे आज भी दल के साधारण कार्यकर्ता ही हैं। कार्यकर्ता भाव जीवित रहने के कारण वे लोगों में भी लोकप्रिय हैं और जनता के बीच नागरिक भाव जगाने के प्रयासों में लगे हैं। वे जनमर्म को समझकर बोलते हैं और नागरिक को वोट की तरह संबोधित नहीं करते।

शिवराज सिंह जानते हैं वे एक ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री हैं जो विकास के सवाल पर काफी पीछे है। किंतु इसका आकार-प्रकार और चुनौतियां बहुत विकराल हैं। इसलिए वे राज्य के सामाजिक प्रश्नों को संबोधित करते हैं। लाड़ली लक्ष्मी, जननी सुरक्षा योजना, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण ऐसे प्रतीकात्मक कदम है जिसका असर जरूर दिखने लगा है। इसी तरह राज्य में कार्यसंस्कृति विकसित करने के लिए लागू किए गए लोकसेवा गारंटी अधिनियम को एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। शायद विश्ल के प्रशासनिक इतिहास में ऐसा प्रयोग देखा नहीं गया है। किंतु मध्यप्रदेश की अगर जनता जागरूक होकर इस कानून का लाभ ले सके तो, सरकारी काम की संस्कृति बदल जाएगी और लोगों को सीधे राहत मिलेगी। शिवराज विकास की हर घुरी पर फोकस करना चाहते हैं क्योंकि मप्र को हर मोर्चे पर अपने पिछड़ेपन का अहसास है। उन्हें अपनी कमियां और सीमाएं भी पता हैं। वे जानते हैं कि एक जागृत और सुप्त पड़े समाज का अंतर क्या है। इसलिए वे समाज की शक्ति को जगाना चाहते हैं। वे इसलिए मप्र के अपने नायकों की तलाश कर रहे हैं। वनवासी यात्रा के बहाने वे इस काम को कर पाए। टांटिया भील, चंद्रशेखर आजाद, भीमा नायक का स्मारक और उनकी याद इसी कड़ी के काम हैं। एक साझा संस्कृति को विकसित कर मध्यप्रदेश के अभिभावक के नाते उसकी चिंता करते हुए वे दिखना चाहते हैं। मुख्यमंत्री की यही जिजीविषा उन्हें एक सामान्य कार्यकर्ता से नायक में बदल देती है। शायद इसीलिए वे विकास के काम में सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं। राज्य के स्थापना दिवस एक नवंबर को उन्होंने उत्सव में बदल दिया है। वे चाहते हैं कि विकासधारा में सब साथ हों, भले ही विचारधाराओं का अंतर क्यों न हो। यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि जब मप्र की विकास और गर्वनेंस की तरफ एक नई नजर से देख रहा है तो पूरे देश में भी तमाम राज्यों में विकासवादी नेतृत्व ही स्वीकारा जा रहा है। बड़बोलों और जबानी जमाखर्च से अपनी राजनीति को धार देने वाले नेता हाशिए लगाए जा रहे हैं। ऐसे में शिवराज सिंह का अपनी पहचान को निरंतर प्रखर बनाना साधारण नहीं है। मध्यप्रदेश की जंग लगी नौकरशाही और पस्त पड़े तंत्र को सक्रिय कर काम में लगाना भी साधारण नहीं है। राज्य के सामने कृषि विकास दर को बढ़ाना अब सबसे बडी जरूरत है। एक किसान परिवार से आने के नाते मुख्यमंत्री इसे समझते भी हैं। इसके साथ ही निवेश प्रस्तावों को आकर्षित करने के लिए लगातार समिट आयोजित कर सरकार बेहतर प्रयास कर रही है। जिस राज्य के 45.5 प्रतिशत लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, उस राज्य की चुनौतियां साधारण नहीं है, शुभ संकेत यह है कि ये सवाल राज्य के मुखिया के जेहन में भी हैं।

भाजपा और उसके नेता शिवराज सिंह चौहान पर राज्य की जनता ने लगातार भरोसा जताते हुए बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। विरासत में मिली तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़े मप्र की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी मध्यप्रदेश के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे। मुख्यमंत्री के पद पर उनके पांच साल पूरे साल होने पर राज्य की जनता उन्हें अपनी शुभकामनाएं देते हुए शायद यही कह रही है ‘मत चूको चौहान!’

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

बिहारः ये जाति है बड़ी !

लालू यादव पर भारी पड़ी नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग
सामाजिक न्याय की ताकतों का कुनबा बिखर रहा था। किंतु लालूप्रसाद यादव अपनी ही अदा पर फिदा थे। वे अपनी चुनावी सफलताओं से इस कदर अभिभूत थे कि पैरों के नीचे जमीन खिसकती रही पर इसका उन्हें भान भी नहीं हुआ। जनता परिवार से ही निकली ताकतों ने उनके हाथ से ताज और राज छीन लिया किंतु उनको अपनी कार्यशैली पर न तो पछतावा था ना ही वे बदलने को तैयार थे। जाहिर तौर पर एक नई जातीय गोलबंदी उन्हें घेर रही थी, जिसका उन्हें पता भी नहीं चला। बिहार के चुनावों को मोटे तौर पर लालू प्रसाद यादव की हार से ही जोड़कर देखा जाना चाहिए। क्योंकि वे बिहार के नाम पर उस जातीय चेतना के विदूषक के रूप में सामने थे, जिसे परिवर्तन का वाहक माना जाता था। यही समय था जिसे नीतिश कुमार ने समझा और वे सामाजिक न्याय की ताकतों के नए और विश्वसनीय नायक बन गए। भाजपा के सहयोग ने उनके सामाजिक विस्तार में मदद की और बिहार चुनाव के जो परिणाम आए हैं वे बतातें हैं कि यह साधारण जीत नहीं है।
नीतिश बने असाधारण नायकः
अब नीतिश कुमार बिहार की सामूहिक चेतना के प्रतीक के बन गए हैं। वे असाधारण नायक बन गए हैं, जिसके बीज लालू प्रसाद यादव की विफलताओं में छिपे हैं। किंतु इसे इस तरह से मत देखिए कि बिहार में अब जाति कोई हकीकत नहीं रही। जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती। अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है। लालू प्रसाद यादव, अपनी सामाजिक न्याय की मुहिम को जागृति तक ले जाते हैं, आकांक्षांएं जगाते हैं, लोगों को सड़कों पर ले आते हैं( उनकी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को याद कीजिए)- किंतु सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल नहीं जानते। वे सामाजिक जागृति के नारेबाज हैं, वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं जानते। वे सोते हुए को जगा सकते हैं किंतु उसे दिशा देकर किसी परिणामकेंद्रित अभियान में लगा देना उनकी आदत का हिस्सा नहीं है। इसीलिए सामाजिक न्याय की शक्ति के जागरण और सर्वणों से सत्ता हस्तांतरण तक उनकी राजनीति उफान पर चलती दिखती है। किंतु यह काम समाप्त होते ही जब पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों की आकांक्षांएं एक नई चेतना के साथ उनकी तरफ देखती हैं तो उनके पास कहने को कुछ नहीं बचता। वे एक ऐसे नेता साबित होते हैं, जिसकी समस्त क्षमताएं प्रकट हो चुकी हैं और उसके पास अब देने और बताने के लिए कुछ भी नहीं है। नीतिश यहीं बाजी मार ले जाते हैं। वे सपनों के सौदागर की तरह सामने आते हैं। उनकी जमीन वही है जो लालू प्रसाद यादव की जमीन है। वे भी जेपी आंदोलन के बरास्ते 1989 के दौर में अचानक महत्वपूर्ण हो उठते हैं जब वे बिहार जनता दल के महासचिव बनाए जाते हैं। दोनों ओबीसी से हैं। दोनों का गुरूकुल और पथ एक है। लंबे समय तक दोनों साथ चलते भी हैं। किंतु तारीख एक को नायक और दूसरे को खलनायक बना देती है। जटिल जातीय संरचना और चेतना आज भी बिहार में एक ऐसा सच है जिससे आप इनकार नहीं कर सकते। किंतु इस चेतना से समानांतर एक चेतना भी है जिसे आप बिहार की अस्मिता कह सकते हैं। नीतिश ने बिहार की जटिल जातीय संरचना और बिहारी अस्मिता की अंर्तधारा को एक साथ स्पर्श किया। इस मायने में बिहार विधानसभा का यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। इसलिए इसका परिणाम भी असाधारण है। देश का यह असाधारण प्रांत भी है। शायद इसीलिए इस जमीन से निकलने वाली आवाजें, ललकार बन जाती हैं। सालों बाद नीतिश कुमार इसी परिवर्तन की ललकार के प्रतीक बन गए हैं। इस सफलता के पीछे अपनी पढ़ाई से सिविल इंजीनियर नीतिश कुमार ने विकास के साथ सोशल इंजीनियरिंग का जो तड़का लगाया है उस पर ध्यान देना जरूरी है। उन्हें जिस तरह की जीत हासिल हुयी है वह मीडिया की नजर में भले ही विकास के सर्वग्राही नारे की बदौलत हासिल हुयी है, किंतु सच्चाई यह है कि नीतिश कुमार ने जैसी शानदार सोशल इंजीनियरिंग के साथ विकास का मंत्र फूंका है, वह उनके विरोधियों को चारों खाने चित्त कर गया।
सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमिः
उप्र और बिहार दोनों राज्य मंदिर और मंडल आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं। मंडल की राजनीति यहीं फली-फूली और यही जमीन सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि भी बनी। इसे भी मत भूलिए कि बिहार का आज का नेतृत्व वह पक्ष में हो या विपक्ष में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज है। कांग्रेस विरोध इसके रक्त में है और सामाजिक न्याय इसका मूलमंत्र। इस आंदोलन के नेता ही 1990 में सत्ता के केंद्र बिंदु बने और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। आप ध्यान दें यह समय ही उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के सवाल और उसके नेताओं के उभार का समय है। लालू प्रसाद यादव इसी सामाजिक अभियांत्रिकी की उपज थे और नीतिश कुमार जैसे तमाम लोग तब उनके साथ थे। लालू प्रसाद यादव अपनी सीमित क्षमताओं और अराजकताओं के बावजूद सिर्फ इस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर पंद्रह साल तक राबड़ी देवी सहित राज करते रहे। इसी के समानांतर परिघटना उप्र में घट रही थी जहां मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती और कल्याण सिंह इस सोशल इंजीनियरिंग का लाभ पाकर महत्वपूर्ण हो उठे। आप देखें तो बिहार की परिघटना में लालू यादव का उभार और उनका लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता में बने रहना साधारण नहीं था, जबकि उनपर चारा घोटाला सहित अनेक आरोप थे, साथी उनका साथ छोड़कर जा रहे थे और जनता परिवार बिखर चुका था। इसी जनता परिवार से निकली समता पार्टी जिसके नायक जार्ज फर्नांडीज, शरद यादव, नीतिश कुमार, दिग्विजय सिंह जैसे लोग थे, जिनकी भी लीलाभूमि बिहार ही था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ होने के नाते सामाजिक न्याय का यह कुनबा बिखर चुका था और उक्त चारों नेताओं सहित रामविलास पासवान भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बन चुके थे। यह वह समय है जिसमें लालू के पराभव की शुरूआत होती है। अपने ही जनता परिवार से निकले लोग लालू राज के अंत की कसमें खा रहे थे और एक अलग तरह की सामाजिक अभियांत्रिकी परिदृश्य में आ रही थी। लालू के माई कार्ड के खिलाफ नीतिश कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा ओबीसी चेहरा सामने था, जिसके पास कुछ करने की ललक थी। ऐसे में नीतिश कुमार ने एक ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी की रचना तैयार की जिसमें लालू विरोधी पिछड़ा वर्ग, पासवान विरोधी दलित वोट और लालू राज से आतंकित सर्वण वोटों का पूरा कुनबा उनके पीछे खड़ा था। भाजपा का साथ नीतिश की इस ताकत के साथ उनके कवरेज एरिया का भी विस्तार कर रहा था। कांग्रेस लालू का साथ दे-देकर खुद तो कमजोर हुयी ही, जनता में अविश्वसनीय भी बन चुकी थी। वामपंथियों की कमर लालू ने अपने राज में ही तोड़ दी थी।
सोशल इंजीनियर भी हैं नीतिश कुमारः
इस चुनाव में एक तरफ लालू प्रसाद यादव थे जिनके पास सामाजिक न्याय के आंदोलन की आधी-अधूरी शक्ति, अपना खुद का लोकसभा चुनाव हार चुके रामविलास पासवान ,पंद्रह सालों के कुशासन का इतिहास था तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय का विस्तारवादी और सर्वग्राही चेहरा (नीतिश कुमार) था। उसके पास भाजपा जैसी सामाजिक तौर पर एक वृहत्तर समाज को प्रभावित करने वाली संगठित शक्ति थी। अब अगर आपको सामाजिक न्याय और विकास का पैकेज साथ मिले तो जाहिर तौर पर आपकी पसंद नीतिश कुमार ही होंगे, लालू प्रसाद यादव नहीं। लालू ने अपना ऐसा हाल किया था कि उनके साले भी उनका साथ छोड़ गए और उनका बहुप्रचारित परिवारवाद उन पर भारी पड़ा। राबड़ी देवी का दोनों स्थानों से चुनाव हारना, इसकी एक बानगी है। जाहिर तौर पर कभी अपराजेय दिखने वाले लालू के दिन लद चुके थे और वह जगह भरी थी ओबीसी(कुर्मी) जाति से आने वाले नीतिश कुमार ने।नीतिश ने लालू की संकुचित सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार किया, उसे वे अतिपिछड़ों, महादलितों, पिछड़े मुसलमानों और महिलाओं तक ले गए। देखने में ही सही ये बातें होनी लगीं और परिवर्तन भी दिखने लगा। बिहार जैसे परंपरागत समाज में पंचायतों में महिलाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला साधारण नहीं था। जबकि लालू प्रसाद यादव जैसे लोग संसद में महिला आरक्षण के खिलाफ गला फाड़ रहे थे। भाजपा के सहयोग ने सर्वणों को जद(यू) के साथ जोड़ा। अब यह जिस तरह की सोशल इंजीनिरिंग थी उसमें निशाने पर गरीबी थी और जाति टूट रही थी। आप उत्तर प्रदेश में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का ख्याल करें और उनके दलित, मुस्लिम, ब्राम्हण और गैर यादव पिछड़ा वर्ग की राजनीति को संबोधित करने की शैली पर नजर डालें तो आपको बिहार का चुनाव भी समझ में आएगा। मायावती सिर्फ इसलिए सबकी पसंद बनीं क्योंकि लोग मुलायम सिंह यादव की सरकार में चल रहे गुँडाराज से त्रस्त थे। जबकि नीतिश के पास एक विस्तारवादी सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ गुंडागर्दी को रोकने का भरोसा और विकास का सपना भी जुड़ा है-इसलिए उनकी जीत ज्यादा बड़ी होकर सामने आती है। वे जनता का अभूतपूर्व विश्वास हासिल करते हैं। इसके साथ ही कभी जनता परिवार में लालू के सहयोगी रहे नीतिश कुमार के इस पुर्नजन्म के ऐतिहासिक-सामाजिक कारण भी हैं। बिहार के लोग अपने राज्य में अराजकता, हिंसा और गुंडाराज के चलते सारे देश में लांछित हो रहे थे। कभी बहुत प्रगतिशील रहे राज्य की छवि लालू के राजनीतिक मसखरेपन से निरंतर अपमानित हो रही थी। प्रवासियों बिहारियों के साथ हो रहे अन्य राज्यों में दुव्यर्हार ने इस मामले को और गहरा किया। तय मानिए हर समय अपने नायक तलाश लेता है। यह नायक भी बिहार ने लालू के जनता परिवार से तलाशकर निकाला। नीतिश कुमार इस निरंतर अपमानित और लांछित हो रही चेतना के प्रतीक बन गए। वे बिहारियों की मुक्ति के नायक बन गए। बिहारी अस्मिता के प्रतीक बन गए। शायद तुलना बुरी लगे किंतु यह वैसा ही था कि जैसे गुजरात में नरेंद्र मोदी वहां गुजराती अस्मिता के प्रतीक बनकर उभरे और उसी तरह नीतिश कुमार में बिहार में रहने वाला ही नहीं हर प्रवासी बिहारी एक मुक्तिदाता की छवि देखने लगा। शायद इसीलिए नीतिश कुमार की चुनौतियां अब दूसरी पारी में असाधारण हैं। कुछ सड़कें, स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा की बेहतरी के हल्के-फुल्के प्रयासों से उन्होंने हर वर्ग की उम्मीदें जिस तरह से उभारी हैं उसे पूरा करना आसान न होगा। यह बिहार का भाग्य है उसे आज एक ऐसी राजनीति मिली है, जिसके लिए उसकी जाति से बड़ा बिहार है। बिहार को जाति की इसी प्रभुताई से मुक्त करने में नीतिश सफल रहे हैं, वे हर वर्ग का विश्वास पाकर जातीय राजनीति के विषधरों को सबक सिखा चुके हैं। उनकी सोशल इंजीनियरिंग इसीलिए सलाम के काबिल है कि वह विस्तारवादी है, बहुलतावादी है, उसमें किसी का तिरस्कार नहीं है। उनकी राजनीति में विकास की धारा में पीछे छूट चुके महादलितों और पसमांदा (सबसे पिछड़े) मुसलमानों की अलग से गणना से अपनी पहचान मिली है। इसीलिए नीतिश कुमार ने महादलित आयोग और फिर बिहार महादलित विकास मिशन ही नहीं बनाया वरन हर पंचायत में महादलितों के लिए एक विकास-मित्र भी नियुक्त किया। एक लाख से ज्यादा बेघर महादलितों को दलित आवास योजना से घर बनाने में मदद देनी शुरू की। लोग कहते रहे कि यह दलितों में फूट डालने की कोशिश है,यह नकारात्मक प्रचार भी नीतिश के हक में गया। राजद, लोजपा और कांग्रेस जैसे दल इस आयोग और मिशन को असंवैधानिक बताते रहे पर नीतिश अपना काम कर चुके थे। उनका निशाना अचूक था। यह बदलता हुआ बिहार अब एक ऐसे इंजीनियर के हाथ में है जिसने सिविल इंजीनियरिंग के बाद सोशल इंजीनियरिंग की परीक्षा भी पास कर ली है और बिहार में सामाजिक न्याय की प्रचलित परिभाषा को पलट दिया है। शायद इसलिए लालू राज के अगड़े-पिछड़े वाद की नकली लड़ाई के पंद्रह सालों पर नीतिश कुमार के पांच साल भारी पड़े हैं। अब अपने पिछले पांच सालों को परास्त कर नीतिश कुमार किस तरह जटिल बिहार की तमाम जटिल चुनौतियों और सवालों के ठोस व वाजिब हल तलाशते हैं-इस पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं। लालू प्रसाद यादव ने अपनी राजनीति को जहां विराम दिया था, नीतिश ने वहीं से शुरूआत की है। लालूप्रसाद यादव मार्का राजनीति का काम अब खत्म हो चुका है। लालू अपने ही बनाए मानकों में कैद होकर रह गए हैं। नीतिश कुमार ने अपनी राजनीति का विस्तार किया है वे इसीलिए आज भी गैरकांग्रेसवाद की जमीन पर जमकर खड़े हैं जबकि लालूप्रसाद यादव को सोनिया गांधी की स्तुति करनी पड़ रही है। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनके कथित संधर्ष के बजाए नीतिश कुमार पर मुसलमानों का भरोसा ज्यादा है। कहते हैं बिहार के यादव भी अगर साथ होते तो भी लालू कम से कम 50 सीटें जीत जाते पर राजनीति के सबसे बड़े बाजीगर लालू का तिलिस्म यहां तार-तार दिखता है। बिहार की सामाजिक संरचना के इन तमाम अंतर्विरोधों को संबोधित करते हुए नीतिश कुमार को आगे बढ़ना होगा क्योंकि बड़े सवालों के बीच छोटे सवाल खुद ही लापता हो जाएंगें। बस नीतिश को यह चाल बनाए रखनी होगी। अन्यथा बाजीगरों और वाचालों का हश्र तो उन्होंने इस चुनाव में देख ही लिया है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

क्या अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद के प्रवक्ता हैं हमारे टीवी चैनल


-संजय द्विवेदी
टीवी चैनलों की धमाल को रोकने के लिए शायद यह सरकार का पहला बड़ा कदम था। ‘बिग बास’ और ‘राखी का इंसाफ’ नाम के दोनों कार्यक्रमों को रात्रि 11 बजे के बाद प्रसारित करने का फैसला एक न्यायसंगत बात थी। दोनों आयोजन भाषा और अश्लीलता की दृष्टि से सीमाएं पार कर रहे थे। बावजूद इसके कि अब मुंबई हाईकोर्ट ने बिग बास को राहत दे दी है कि वह प्राइम टाइम पर ही प्रसारित होगा, इस फैसले का महत्व कम नहीं हो जाता। जिस तरह के हालात बन रहे हैं उसमें देर-सबेर चैनलों पर हो रहे वाहियात प्रसारण पर सरकार और हमारी सम्माननीय अदालतों को कोई न कोई कदम उठाना ही पड़ेगा। किंतु मंत्रालय को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनके रिपीट प्रसारण का समय रात्रि 11 के पूर्व न हो। होता यह है कि प्रसारण का मूल समय तो 11 को बाद हो जाता है पर ये कार्यक्रम रिपीट मनमाने समय पर होते रहते हैं। ‘इमोनशनल अत्याचार’ नाम का एक कार्यक्रम दिन में और सायं काल रिपीट होता रहता है। यह कार्यक्रम भी बच्चों के देखने योग्य नहीं कहा जा सकता। “सच का सामना” जैसे कार्यक्रमों से पतन की जो शुरूआत हुयी वह निरंतर जारी है। नए प्रयोगों के नाम पर अंततः अश्वीलता और भाषा की भ्रष्टता के सहारे ही टीआरपी लेने की होड़ एक अंधी दौड़ में बदल गयी है। शायद यही कारण है कि अपनी बेहद फूहड़ भाषा और प्रस्तुति के मशहूर राखी को हमें न्याय बांटते हुए देखना पड़ा । कलंक पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं और वे आपकी ख्याति का विस्तार कर रहे हैं। शादी जैसे पवित्र रिश्तों को भी बाजार में उतारकर सारा खान ने जिस तरह शादी और सुहागरात का रीटेक किया, वह अपने आप में बहुत शर्मनाक है। बाजार की यह तलाश इसी तरह मूल्यों को शीर्षासन करवा रही है।
सही मायने में कड़े नियम बनाने की जरूरत है जिसका अभाव दिखता है। सरकार कहीं न कहीं दबाव में है, इसलिए नियमों को कठोरता से लागू नहीं किया जा रहा है। बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध से सबको लपेट चुकी है, उसके खिलाफ हवा में लाठियां जरूर भांजी जा रही हैं, लेकिन लाठियां भांज रहे लोग भी इसकी व्यर्थता को स्वीकार करने लगे हैं। स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं। टीवी चैलनों पर मचा धमाल इससे अलग नहीं है।देश में सैकड़ों चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। इन विदेशी-देशी चैनलों का आपसी युद्ध चरम पर है।ज्यादा से ज्यादा बाजार ,विज्ञापन एवं दर्शक कैसे खींचे जाएं सारा जोर इसी पर है। जाहिर है इस प्रतिस्पर्धा में मूल्य, नैतिकता एवं शील की बातें बेमानी हो चुकी हैं। होड़ नंगेपन की है, बेहूदा प्रस्तुतियों की है और जैसे-तैसे दर्शकों को बांधे रखने की है। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे आयोजनों को इस होड़ से आप अलग भले करें, क्योंकि वे कुछ पूछताछ और ज्ञान आधारित मनोरंजन देने के नाते अलग संदेश देते नजर आते हैं।
टीवी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में ज्यादातर प्रेम-प्रसंगों, किसी को पाने-छोड़ने की रस्साकसी एवं विवाहेतर संबंधों के ही इर्द-गिर्द नाचते रहते हैं। अक्सर धारावाहिकों में बच्चे जिसे भाषा में अपने माता-पिता से पेश आते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है। इन कार्यों से जुड़े लोग यह कहकर हाथ झाड़ लेते हैं कि यह सारा कुछ तो समाज में घट रहा है, लेकिन क्या भारत जैसे विविध स्तरीय समाज रचना वाले देश में टीवी चैनलों से प्रसारित हो रहा सारा कुछ प्रक्षेपित करने योग्य है ? लेकिन इस सवाल पर सोचने की फुसरत किसे है ? धार्मिक कथाओं के नाम भावनाओं के भुनाने की भी एक लंबी प्रक्रिया शुरू है। इसमें देवी-देवताओं के प्रदर्शन तो कभी-कभी ‘हास्य जगाते हैं। देवियों के परिधान तो आज की हीरोइनों को भी मात करते हैं। ‘धर्म’ से लेकर परिवार, पर्व-त्यौहार, रिश्तें सब बाजार में बेचे–खरीदें जा रहे हैं। टीवी हमारी जीवन शैली, परंपरा के तरीके तय कर रहा है। त्यौहार मनाना भी सिखा रहा है। नए त्यौहारों न्यू ईयर, वेलेंटाइन की घुसपैठ भी हमारे जीवन में करा रहा है। नए त्यौहारों का सृजन, पुरानों को मनाने की प्रक्रिया तय करने के पीछ सिर्फ दर्शक को ढकेलकर बाजार तक ले जाने और जेबें ढीली करो की मानसिकता ही काम करती है।
जाहिर है टीवी ने हमारे समाज-जीवन का चेहरा-मोहरा ही बदल दिया है। वह हमारा होना और जीना तय करने लगा है। वह साथ ही साथ हमारे ‘माडल’ गढ़ रहा है। परिधान एवं भाषा तय कर रहा है। हम कैसे बोलेंगे, कैसे दिखेंगे सारा कुछ तय करने का काम ये चैनल कर रहे हैं । जाहिर है बात बहुत आगे निकल चुकी है। प्रसारित हो रही दृश्य-श्रव्य सामग्री से लेकर विज्ञापन सब देश के किस वर्ग को संबोधित कर रहे हैं इसे समझना शायद आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन सबका लक्ष्य सपने दिखाना, जगाना और कृत्रिम व अंतहीन दौड़ को हवा देना ही है। जीवन के झंझावातों, संघर्षों से अलग सपनीली दुनिया, चमकते घरों, सुंदर चेहरों के बीच और यथार्थ की पथरीली जमीन से अलग ले जाना इन सारे आयोजनों का मकसद होता है। बच्चों के लिए आ रहे कार्यक्रम भी बिना किसी समझ के बनाए जाते हैं। ऐसे हालात में समाज टीवी चैनलों के द्वारा प्रसारित किए जा रहे उपभोक्तावाद, पारिवारिक टूटन जैसे विषयों का ही प्रवक्ता बन गया है। अंग्रेजी के तमाम चैनलों के अलावा अब तो भाषाई चैनल भी ‘देह’ के अनंत ‘राग’ को टेरते और रूपायित करते दिखते हैं। ‘देहराग’ का यह विमर्श 24 घंटे मन को कहां-कहा ले जाता है व जीवन-संघर्ष में कितना सहायक है शायद बताने की आवश्यकता नहीं है।
सच कहें तो हमारे चैनल पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। समाज की मूल्य और मान्यताएं इनके लिए मायने नहीं रखते। सामाजिक नियंत्रण और दर्शकों के जागरूक न होने का फायदा उठाकर जैसी मनचाही चीजें परोसी और दिखाई जा रही हैं, वह बहुत खतरनाक है। तमाम आयोजन आज अश्लीलताओं की सीमा पार करते दिखते हैं। देश के दर्शकों पर इस तरह का इमोशनल अत्याचार रोकना सरकार की जिम्मेदारी है। इसी तरह कोड आफ कंडेक्ट को लेकर जिस तरह हमारे पढ़े- लिखे समाज में लोग एलर्जिक हैं, सो यह पतन की धारा कहां जाकर रूकेगी यह सोचना होगा। यहां बात सोशल पुलिसिंग की नहीं है, किंतु सामाजिक जिम्मेदारियों और सामाजिक उपयोग पर बात जरुर होनी चाहिए। कंटेट का नियमन न हो किंतु नंगेपन के खिलाफ एक आवाज जरूर उठे। बहुत बेहतर हो कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग के लोग स्वयं आगे आकर एक प्रभावी आचार संहिता बनाएं ताकि इस तरह के अप्रिय दृश्यों की भरमार रोकी जा सके। क्योंकि जनदबाव में अगर सरकार उतरती है तो बड़ा घोटाला होगा। बेहतर होगा कि हम खुद आत्ममंथन करते हुए कुछ नियमों का, संहिता का अपने लिए नियमन करें और उसका पालन भी करें।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

हम भ्रष्टन के, भ्रष्ट हमारे !!!


हमारी लालचें क्या हमें संवेदना से मुक्त कर चुकी हैं ?
-संजय द्विवेदी

देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी जो महात्मा गांधी से भी अपनी रिश्ता जोड़ते हुए नहीं थकती है, की अखिलभारतीय बैठक की सबसे बड़ी चिंता वह भ्रष्टाचार नहीं है जिससे केंद्र सरकार की छवि मलिन हो रही है। दुनिया के भ्रष्टतम देशों में हम अपनी जगह बना रहे हैं। उनकी चिंता ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी, शीला दीक्षित और शहीदों के फ्लैट हड़प जाने वाले मुख्यमंत्री नहीं हैं। चिंता है उस हिंदू आतंकवाद की जो कहीं दिखाई नहीं देता किंतु उसे पैदा करने की कोशिशें हो रही हैं।
नैतिकता और समझदारी पर उठते सवालः
मुंबई के आर्दश ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के मामले ने हमारी राजनीति की नैतिकता और समझदारी पर फिर सवाल कर दिए हैं। जब मुख्यमंत्री जैसे पद पर बैठा व्यक्ति भी कारगिल के शहीदों के खून के साथ दगाबाजी करे और सैनिकों की विधवाओं के लिए स्वीकृत फ्लैट पर नजरें गड़ाए हो, तो आप क्या कह सकते हैं। किंतु यही भ्रष्टाचार अब हमारा राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। हमारी लालचें हमें संवेदना से रिक्त कर चुकी हैं और हमें अब किसी भी बात से शर्म नहीं आती। ऐसे कठिन समय में हम उम्मीद से खाली हैं क्योंकि इस लालच से मुक्ति की कोई विधि हमारे पास नहीं है। कामनवेल्थ खेलों में हमने अपनी आंखों से इसी बेशर्मी के तमाम उदाहरण देखे, किंतु हम ऐसे सवालों पर लीपापोती से आगे बढ़ नहीं पाते। जाहिर तौर पर हमें अब इन सवालों पर सोचने और इनसे दो-दो हाथ करने की जरूरत है। क्या यह मुद्दा वास्तव में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के इस्तीफे से खत्म हो जाएगा? उनकी जरा सी असावधानी कुर्सी के लिए खतरा बन गयी। किंतु जैसा वातावरण बन चुका है क्या उसमें कोई राजनेता या राजनीतिक दल आगे से भ्रष्टाचार न करने की बात सोच सकता है ? क्योंकि राजनीतिक क्षेत्र में पद इसी तरह मिल और बंट रहे हैं।
राजनीति में धन का बढ़ता असरः
राजनीति में धन एक ऐसी आवश्यक्ता है जिसके बिना न तो पार्टियां चल सकती हैं न चुनाव जीते जा सकते हैं। इसी से भ्रष्टाचार फलता-फूलता है। राष्ट्रीय संपत्ति की लूट और सरकारी संपत्ति को निजी संपत्ति में बदलने की कवायदें ही इस देश में फल-फूल रही हैं। हम भारत के लोग इस पूरे तमाशे को होता हुआ देखते रहने के लिए विवश हैं। हर घटना के बाद हमारे पास बलि चढ़ाने के लिए एक मोहरा होता है और उसकी बलि देकर हम अपने पापों का प्रायश्चित कर लेते हैं। कामनवेल्थ के लिए कलमाड़ी और अब आर्दश सोसायटी के लिए शायद चव्हाण की बलि हो जाए। किंतु क्या इससे हमारा राजनीतिक तंत्र कोई सबक लेगा, शायद नहीं क्योंकि राजनीति में आगे बढ़ने की एक बड़ी योग्यता भ्रष्टाचार भी है। इसी गुण ने तमाम राजनेताओं की अपने आलाकमानों के सामने उपयोगिता बना रखी है। वफादारी और भ्रष्टाचार की मिली-जुली योग्यताएं ही राजनीतिक क्षेत्र में एक आदर्श बन चुकी है। शहीदों की विधवाओं के फ्लैट निगल जाने का दुस्साहस हमें यही घटिया राजनीति देती है।
भारतीय जनता का स्मृतिदोषः
आज हमारे राजनीतिक तंत्र को यह लगने लगा है कि भारत की जनता की स्मृति बहुत कमजोर है और वह कुछ भी गलत करेंगें तो भी उसे जनता थोड़े समय बाद भूल जाएगी। चुनावों के कई फैसले, कई बार यही बताते हैं। आप मुंबई हमलों की याद करें कि जिसके चलते महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और केंद्रीय मंत्री शिवराज पाटिल को अपनी कुर्सियां गंवानीं पड़ीं किंतु बाद में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली। ऐसे स्मृतिदोष को चलते ही हमारा हिंदुस्तान बहुत से संकटों से मुकाबिल है। हमें अपनी स्मृति के साथ अपने राजनीतिक तंत्र पर नियंत्रण रखने की विधि भी विकसित करनी पड़ेगी वरना यह लालच हमारे जनतंत्र को बेमानी बना देगा, इसमें दो राय नहीं है। हमें भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनने से रोकना होगा वरना हमारे पास उस खोखले जनतंत्र के अलावा कुछ नहीं बचेगा, जिसे राजनीति की दीमक चाट चुकी होगी।सही मायने में भ्रष्टाचार भारत की एक ऐसी समस्या बन चुका है जिससे पूरा समाज त्राहि-त्राहि कर रहा है किंतु उससे बचने का कोई कारगर रास्ता नजर नहीं आता। अब जबकि ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की रेंकिंग में भारत तीन पायदान फिसलकर 87 वें नंबर पर जा पहुंचा है तो हमें यह सोचना होगा कि दुनिया में हमारा चेहरा कैसा बन रहा है। संस्था का यह अध्ययन बताता है कामनवेल्थ खेलों ने हमारी भ्रष्ट छवि में और इजाफा किया है। इससे पता चलता है कि भ्रष्टाचार को रोकने में हम नाकाम साबित हुए हैं और दुनिया के अतिभ्रष्ट देशों की सूची में हमारी जगह बनी हुयी है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के चेयरमैन पीएस बावा का कहना है कि भारत में कुशल प्रशासक होने के बावजूद गर्वनेंस का स्तर नहीं सुधरना, चिंताजनक और शर्म का विषय है।
विकास को खा रहा है भ्रष्टाचारः
निश्चय ही भारत जैसे महान लोकतंत्र के लिए भ्रष्टाचार की समस्या एक बड़ी चुनौती है। इसके चलते भारत का जिस तेजी से विकास होना चाहिए वह नहीं दिखता। साथ ही तमाम विकास की योजनाओं का धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार वह तबका होता है जो सरकारी योजनाओं का लाभार्थी होता है। उसका दर्द बढ़ जाता है, जबकि सरकारी योजनाएं कागजों में सांस लेती रहती हैं। सरकार के जनहितकारी प्रयास इसीलिए जमीन पर उतरते नहीं दिखते। इसी तरह सार्वजनिक योजनाओं की लागत भ्रष्टाचार के नाते बढ़ जाती है। देश की बहुत सी पूंजी का प्रवाह इसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। तमाम कानूनों और प्रतिरोधक उपायों के बावजूद हमारे देश में यह समस्या बढ़ती जा रही है। सूचना के अधिकार कानून के बावजूद , पारदर्शिता के सवाल पर भी हम काफी पिछड़े हुए हैं। एक लोकतंत्र के लिए ये स्थितियां चिंताजनक है। क्या हम इसके समाधानों की ओर बढ़ नहीं सकते, यह सवाल सबके मन में है। आखिर क्या कारण है भ्रष्टाचार हमारे समाज जीवन की एक अपरिहार्य जरूरत बन गया है।
जनता का मानस भी ऐसा बन गया है कि बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं हो सकता। क्या हम ऐसे परिवेश को बेहतर मान सकते हैं। जहां जनता के मन में इतनी निराशा और अवसाद घर कर गया हो। क्या यह देश के जीवन के लिए एक चिंताजनक स्थिति नहीं है। सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने के सारे प्रयास बेमानी साबित हुए हैं। भ्रष्टाचार नियंत्रण और जांच को लेकर बनी हमारी सभी एजेंसियों ने भी कोई उम्मीद नहीं जगायी है। ऐसे में भ्रष्टाचार के राक्षस से लड़ने का रास्ता सिर्फ यही है कि जनमन में जागृति आए और लोग संकल्पित हों। किंतु यह काम बहुत कठिन है। जनता के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। वह अपने स्तर पर सारा कुछ नहीं कर सकती। किंतु एक जागृत समाज काफी कुछ कर सकता है इसमें कोई संदेह नहीं है। देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल यानि मुख्यधारा की राजनीति ही अगर भ्रष्टाचार के सवाल पर किनारा कर चुकी है, तो क्या हम भारत के लोग अपने देश की छवि को बचाने के लिए कुछ जतन करेंगें या इसे यूं ही कलमाड़ी और ए.राजा जैसों के भरोसे छोड़ देगें।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा है एक दीप जला लें



दीप पर्व पर सभी मित्रों को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
सादर आपका
संजय द्विवेदी

सोमवार, 1 नवंबर 2010

आजाद कश्मीर के दुस्वप्न की एकमात्र बाधा है सेना


कश्मीर से लेकर हर अशांत इलाके में सुरक्षाबलों के खिलाफ चल रहा है निंदा अभियान
-संजय द्विवेदी

कश्मीर के संकट पर जिस तरह देश की राय बंटी हुयी है और अरूंधती राय, अलीशाह गिलानी से लेकर बरवर राव तक एक मंच पर हैं, तो बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती। यूं लगने लगा है कि कश्मीर के मामले हर पक्ष ठीक है दोषी है तो सिर्फ सेना। जिसने अपनी बहादुरी से नाहक लगभग अपने दस हजार जवानों का बलिदान देकर कश्मीर घाटी को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा है। अलीशाह गिलानी से लेकर हर भारतविरोधी और पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले का यही ख्याल है कि सेना अगर वापस हो जाए तो सारे संकट हल हो जाएंगें। बात सही भी है।

कश्मीर घाटी के इन छ-सात जिलों का संकट यही है कि भारतीय सेना के रहते ये इलाके कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सकते। इसलिए निशाना भारतीय सेना है और वह भारत की सरकार है जिसने इसे यहां लगा रखा है। शायद इसीलिए देश के तमाम बुद्धिजीवी अब सेना के नाम पर स्यापा कर रहे हैं। जैसे सेना के हटाए जाते ही कश्मीर के सारे संकट हल हो जाएंगें। अलीशाह गिलानी, हड़तालों का कैलेंडर जारी करते रहें, उनके पत्थरबाज पत्थर बरसाते रहें, घाटी के सिखों और हिंदुओं को इस्लाम अपनाने या क्षेत्र छोड़ने की घमकियां मिलती रहें किंतु और सेना के हाथ से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट को वापस लेने की वकालत की जा रही है। क्या आपको पता है कि घाटी में भारतीय सेना को छोड़कर भारत माता की जय बोलने वाला कोई शेष नहीं बचा है ? क्या इस बात का जवाब भारत के उदारमना बुद्धिजीवियों और केंद्र सरकार के पास है कि गिलानी के समर्थकों के प्रदर्शन में पाकिस्तानी झंडे इतनी शान से क्यों लहराए जाते हैं ? देश यह भी जानना चाहता है कि अलग-अलग विचारधाराओं की यह संगति जहां माओवाद समर्थक, खालिस्तान समर्थक और इस्लामिक जेहादी एक मंच पर हैं तो इनका संयुक्त उद्देश्य क्या हो सकता है ? यदि ये अपने विचारों के प्रति ईमानदार हैं तो इनकी कोई संगति बनती नहीं। क्योंकि जैसा राज बरवर राव लाना चाहते हैं, वहां इस्लाम की जगह क्या होगी? और गिलानी के इस्लामिक इस्टेट में माओवादियों की जगह क्या होगी? इससे यह संदेश निकालना बहुत आसान है कि देश को तोड़ने और भारतीय लोकतंत्र को तबाह करने की साजिशों में लगे लोगों की वैचारिक एकता भी इस बहाने खुलकर सामने आ गयी है।

यह भी प्रकट है कि ये लोग अपने धोषित विचारों के प्रति भी ईमानदार नहीं है। इनका एकमात्र उद्देश्य भारत के लोकतंत्र को नष्ट कर अपने उन सपनों को घरती पर उतारना है, जिसकी संभावना नजर नहीं आती। किंतु अरूंधती राय जैसी लेखिका का इनके साथ खड़ा होना भी हैरत की बात है। एक लेखक के नाते अरूंधती की सांसें अगर भारत के लोकतंत्र में भी घुट रही हैं तो किसी माओवादी राज में, या इस्लामिक स्टेट में किस तरह वे सांस ले पाएंगी और अपनी अभिव्यक्ति के प्रति कितनी ईमानदार रह पाएंगीं। उस भारतीय लोकतंत्र में, जिसे लांछित करती हुयी वे कहती हैं कि यहां आपातकाल के हालात हैं, में भी वे पत्र-पत्रिकाओं में लंबे आलेख लिखती हैं, देशविरोधी भाषण करती हैं, किंतु भारत की सरकार उन्हें क्षमा कर देती है। क्या वे बताएंगी कि भारतीय लोकतंत्र के समानांतर कोई व्यवस्था पूरी इस्लामिक या कम्युनिस्ट पट्टी में कहीं सांस ले रही है ? भारतीय लोकतंत्र की यही शक्ति है और यही उसकी कमजोरी भी है कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को इतना स्पेस दिया है कि आप भारत मां को डायन, महात्मा गांधी को शैतान की औलाद और देश के राष्ट्र पुरूष राम को आप कपोल कल्पना और मिथक कह सकते हैं। इस आजादी को खत्म करने के लिए ही गिलानी के लोग पत्थर बरसा रहे हैं , जिनके लोगों के नाते 1990 में दो लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा। निमर्मता ऐसी कि कथित बुद्धिजीवी लिखते और कहते हैं कश्मीरी पंडितों को तो सरकार से मुआवजा मिलता है, राशन मिलता है। संवेदनहीनता की ऐसी बयानबाजियां भी यह देश सहता है। एक कश्मीरी पंडित परिवार को चार हजार रूपए, नौ किलो गेंहूं,दो किलो चावल और किलो चीनी मुफ्त मिलती है। अगर शरणार्थी शिविरों के नारकीय हालात में रहने के लिए इन सुविधाओं के साथ हुर्रियत के पत्थरबाजों और अरुंधती राय की टोली को कहा जाए तो कैसा लगेगा। किंतु आप आम हिंदुस्तानी की ऐसी स्थितियों का मजाक बना सकते हैं। क्योंकि आपकी संवेदनाएं इनके साथ नहीं है। आपके आका विदेशों में बैठे हैं जो आपको पालपोसकर हिंदुस्तान की एकता के टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहते हैं।

यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि जो माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं और जो गिलानी कश्मीर में निजामे-मुस्तफा लाना चाहते हैं एक साथ हैं। इस विचित्र संयोग पर देश की सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। किंतु देश के मन में इसे लेकर बहुत हलचल है। देश की आम जनता आमतौर पर ऐसे सवालों पर प्रतिक्रिया नहीं देती किंतु उसका मानस विचलित है। उसके सामने सरकार के दोहरे आचरण की तमाम कहानियां हैं। गिलानी श्री नगर से दिल्ली तक जहर उगलते घूम रहे हैं, अरूंधती राय दुनिया-जहान में भारत की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला रही हैं। बरवर राव लोकतंत्र की जगह माओवाद को स्थापित करने के प्रयासों के साथ हैं और एक खूनी क्रांति का स्वप्न देख रहे हैं। इन सबके रास्ते कौन सबसे बड़ा बाधक है क्या हमारी राजनीति ? क्या हमारे राजनेता? क्या हमारी व्यवस्था? क्या हमारी राजनीतिक पार्टियां ? नहीं..नहीं..नहीं। इन देशतोड़कों के रास्ते में बाधक है हमारी जनता ,सुरक्षा बल और बहादुर सेना। इसलिए इन कथित क्रांतिकारियों के निशाने पर हमारे सुरक्षा बल,सेना और आम जनता ही है। नेताओं और राजनीतिक दलों का चरित्र देखिए। आज गिलानी और कश्मीर के मुख्यमंत्री एक भाषा बोलने लगे हैं। नक्सल इलाकों में हमारी राजनीति ,प्रशासन, कारपोरेट और ठेकों से जुड़े लोग नक्सलियों और आतंकवादियों को लेवी दे रहे हैं। जिस पैसे का इस्तेमाल ये ताकतें हमारी ही जनता और सुरक्षा बलों का खून बहाने में कर रही हैं। इन खून बहाने वालों को ही अरूंधती राय, गांधीवादी बंदूकधारी कहती हैं और जिनपर सुरक्षा व शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी है उनको राज्य के आतंक का पर्याय बताया जा रहा है। इसलिए सारा निशाना उस सेना और सुरक्षाबलों पर है जिनकी ताकत के चलते ये देशतोड़क लोग हिंदुस्तान के टुकड़े करने में खुद को विफल पा रहे हैं। किंतु हमारी राजनीति का हाल यह है कि संसद पर हमलों के बाद भी उसके कान में घमाकों की गूंज सुनाई नहीं देती। मुंबई के हमले भी उसे नहीं हिलाते। रोज बह रहे आम आदिवासी के खून से भी उसे कोई दर्द नहीं होता।

पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने का विचार करने लगती है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के हाथ अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें।क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं? क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा।

मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय

मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय

-माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले

- डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर

भोपाल, 1 नवंबर, 2010। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुयी इस बैठक का सबसे बड़ा फैसला है मीडिया के लिए एक आचार संहिता बनाने का। इसके तहत विश्वविद्यालय मीडिया व जनसंचार क्षेत्र के विशेषज्ञों के सहयोग से तीन माह में एक आचार संहिता का निर्माण करेगा और उसे मीडिया जगत के लिए प्रस्तुत करेगा। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीके कुठियाला के कार्यकाल की यह पहली बैठक है, जिसमें विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए महापरिषद ने अपनी सहमति दी और कहा है कि इसे मीडिया, आईटी और शोध के राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित किया जाए।

नए विभाग- नई नियुक्तियां-
विश्वविद्यालय में शोध और अनुसंधान के कार्यों को बढ़ावा देने के लिए संचार शोध विभाग की स्थापना की गयी है। जिसके लिए प्रोफेसर देवेश किशोर की संचार शोध विभाग में दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का फैसला लिया गया है। इस विभाग में मौलिक शोध व व्यवहारिक शोध के कई प्रोजेक्ट डॉ. देवेश के मार्गदर्शन में चलेंगें। प्रोफेसर (डॉ.) नंदकिशोर त्रिखा की दो वर्ष के लिये सीनियर प्रोफेसर पद पर नियुक्ति की गयी है। अगले दो वर्ष में डॉ. त्रिखा के मार्गदर्शन में मीडिया की पाठ्यपुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी जाएंगी। इस काम को अंजाम देने के लिए विश्वविद्यालय में अलग से पुस्तक लेखन विभाग की स्थापना होगी। इसी तरह विश्वविद्यालय में प्रकाशन विभाग की स्थापना की गयी है। जिसमें प्रभारी के रूप में वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपुल्स समाचार के पूर्व स्थानीय संपादक राधवेंद्र सिंह की नियुक्ति की गयी है, विभाग में सौरभ मालवीय को प्रकाशन अधिकारी बनाया गया है। अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग की स्थापना की गयी है, जिसके तहत श्री रामजी त्रिपाठी, केन्द्रीय सूचना सेवा (सेवानिवृत्त), पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, प्रसार भारती (दूरदर्शन) की दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग में नियुक्ति की गयी है। श्री त्रिपाठी जिला और निचले स्तर के मीडिया कर्मियों के लिये प्रशासन में कार्यरत मीडिया कर्मियों के लिये व वरिष्ठ मीडिया कर्मियों के लिये प्रशिक्षण व कार्यशालाओं का आयोजन करेंगे। इसी तरह श्री आशीष जोशी, मुख्य विशेष संवाददाता, आजतक की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति की गयी है। श्री आशीष जोशी, भोपाल परिसर में टेलीविजन प्रसारण विभाग में कार्यरत रहेंगे।

टास्क कर्मचारियों को दीपावली का तोहफा- विश्वविद्यालय में कार्यरत दैनिक वेतन पाने वाले लगभग 85 कर्मचारियों के वेतन में 25 प्रतिशत वृद्धि करने का फैसला किया गया है। इसी तरह शिक्षकों के लिए ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन अवकाश की व्यवस्था भी एक बड़ा फैसला है। अब तक विश्वविद्यालय में जाड़े और गर्मी की छुट्टी (अन्य विश्वविद्यालयों की तरह) नहीं होती थी। आपात स्थिति के लिये 10 करोड़ रूपये का कार्पस फंड बनाया गया है , जिसमें हर वर्ष वृद्धि होगी। शिक्षक कल्याण कोष की स्थापना भी की गयी है। इसके अलावा चार प्रोफेसर, आठ रीडर व आठ लेक्चरार (कुल 20) अतिरिक्त शैक्षणिक पदों का अनुमोदन किया गया है, जिसपर विश्वविद्यालय नियमानुसार नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करेगा।

बनेगा स्मार्ट परिसरः विश्वविद्यालय के लिये भोपाल में 50 एकड़ भूमि पर ‘‘ग्रीन’’ व ‘‘स्मार्ट’’ परिसर बनाने के कार्यक्रम की शुरूआत की जाएगी। जिसके लिए भवन निर्माण शाखा की स्थापना भी की गयी है। आगामी दो वर्षों में टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण, नवीन मीडिया, पर्यावरण संवाद, स्पेशल इफैक्ट्स व एनीमेशन में श्रेष्ठ सुविधाओं का निर्माण के लिए यह परिसर एक बड़े केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा। इसके साथ ही आगामी पांच वर्षों में आध्यात्मिक संचार, गेमिंग, स्पेशल इफैक्ट्स, एनीमेशन व प्रकृति से संवाद के क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने की तैयारी है।इस बैठक में प्रबंध समिति के कार्यों व अधिकारों का स्पष्ट निर्धारण भी किया गया है। बैठक में महापरिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, कुलपति प्रो. बीके कुठियाला, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा (चंडीगढ़), साधना(गुजराती) के संपादक मुकेश शाह, विवेक (मराठी) के संपादक किरण शेलार, सन्मार्ग- भुवनेश्वर के संपादक गौरांग अग्रवाल, स्वदेश समाचार पत्र समूह के संपादक राजेंद्र शर्मा, काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर राममोहन पाठक, दैनिक जागरण भोपाल के संपादक राजीवमोहन गुप्त, जनसंपर्क आयुक्त राकेश श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सलाहकार अशोक चतुर्वेदी, विश्वविद्यालयय के रेक्टर प्रो.चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, नोयडा परिसर में प्रो. डा. बीर सिंह निगम शामिल थे।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

जिस इंद्रेश कुमार को मैं जानता हूं !!


क्या उन्हें अपने अच्छे कामों की सजा मिल रही है
- संजय द्विवेदी
कुछ साल पहले की ही तो बात है इंद्रेश कुमार से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मेरी मुलाकात हुयी थी। आरएसएस के उन दिनों वे राष्ट्रीय पदाधिकारी थे। एक अखबार का स्थानीय संपादक होने के नाते मैं उनका इंटरव्यू करने पहुंचा था। अपने बेहद निष्पाप चेहरे और सुंदर व्यक्तित्व से उन्होंने मुझे प्रभावित किया। बाद में मुझे पता चला कि वे मुसलमानों को आरएसएस से जोड़ने के काम में लगे हैं। रायपुर में भी उनके तमाम चाहने वाले अल्पसंख्यक वर्ग में भी मौजूद हैं। उनसे थोड़े ही समय के बाद आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में रायपुर में फिर मुलाकात हुयी। वे मुझे पहचान गए। उनकी स्मरण शक्ति पर थोड़ा आश्चर्य भी हुआ कि वे सालों पहले हुयी मुलाकातों और मेरे जैसे साधारण आदमी को भी याद रखते हैं। उसी इंद्रेश कुमार का नाम अजमेर बम धमाकों में पढ़कर मुझे अजीब सा लग रहा है। मुझे याद है कि इंद्रेश जी जैसे लोग ऐसा नहीं कर सकते। किंतु देश की राजनीति को ऐसा लगता है और वे शायद इसके ही शिकार बने हैं।
मेरे मन में यह सवाल आज भी कौंध रहा है कि क्या यह आदमी सचमुच बहुत खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह प्रचारक हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करता है। वह मुसलमानों को राष्ट्रवाद की राह पर डालकर सदियों से उलझे रिश्तों को ठीक करने की बात कर रहा है। ऐसे आदमी को भला हिंदुस्तान की राजनीति कैसे बर्दाश्त कर सकती है। क्योंकि आज नहीं अगर दस साल बाद भी इंद्रेश कुमार अपने इरादों में सफल हो जाता है तो भारतीय राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं की दुकान बंद हो जाएगी। इसलिए इस आदमी के कदम रोकना जरूरी है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एक ऐसा आदमी जो सदियों से जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिशें कर रहा है, उसे ही अजमेर के बम विस्फोट कांड का आरोपी बना दिया जाए।
अब उस इंद्रेश कुमार की भी सोचिए जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन में काम करते रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज का संगठन है। ऐसे संगठन में रहते हुए मुस्लिम समाज से संवाद बनाने की कोशिश क्या उनके अपने संगठन (आरएसएस) में भी तुरंत स्वीकार्य हो गयी होंगी। जाहिर तौर पर इंद्रेश कुमार की लड़ाई अपनों से भी रही होगी और बाहर खड़े राजनीतिक षडयंत्रकारियों से भी है। वे अपनों के बीच भी अपनी सफाई देते रहे हैं कि वे आखिर मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं , जबकि संघ का मूल काम हिंदू समाज का संगठन है। इंद्रेश कुमार की कोशिशें रंग लाने लगी थीं, यही सफलता शायद उनकी शत्रु बन गयी है। क्योंकि वे एक ऐसे काम को अंजाम देने जा रहे थे जिसकी जड़ें हिंदुस्तान के इतिहास में इतनी भयावह और रक्तरंजित हैं कि सदभाव की बात करनेवालों को उसकी सजा मिलती ही है। मुसलमानों के बीच कायम भयग्रंथि और कुठांओं को निकालकर उन्हें 1947 के बंटवारे को जख्मों से अलग करना भी आसान काम नहीं है। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, मौलाना आजाद जैसे महानायकों की मौजूदगी के बावजूद हम देश का बंटवारा नहीं रोक पाए। उस आग में आज भी कश्मीर जैसे इलाके सुलग रहे हैं। तमाम हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम रिश्ते अविश्वास की आग में जल रहे हैं। ऐसे कठिन समय में इंद्रेश कुमार क्या इतिहास की धारा की मोड़ देना चाहते हैं और उन्हें यह तब क्यों लगना चाहिए कि यह काम इतना आसान है। यह सिर्फ संयोग ही है कि कुछ दिन पहले राहुल गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सिमी के साथ खड़ा करते हैं। एक देशभक्त संगठन और आतंकियों की जमात में उन्हें अंतर नहीं आता। नासमझ राजनीति कैसे देश को तोड़ने और भय का व्यापार करती है, ताजा मामले इसका उदाहरण हैं। इससे यह साफ संकेत जाते हैं कि इसके पीछे केंद्र और राजस्थान सरकार के इरादे क्या हैं ? देश को पता है कि इंद्रेश कुमार, आरएसएस के ऐसे नेता हैं जो मुसलमानों और हिंदू समाज के बीच संवाद के सेतु बने हैं। वे लगातार मुसलमानों के बीच काम करते हुए देश की एकता को मजबूत करने का काम कर रहे हैं। ऐसा व्यक्ति कैसे कांग्रेस की देशतोड़क राजनीति को बर्दाश्त हो सकता है। साजिश के तार यहीं हैं। क्योंकि इंद्रेश कुमार ऐसा काम कर रहे थे कि अगर उसके सही परिणाम आने शुरू हो जाते तो सेकुलर राजनीति के दिन इस देश से लद जाते। हिदू- मुस्लिम एकता का यह राष्ट्रवादी दूत इसीलिए सरकार की नजरों में एक संदिग्ध है।
राजस्थान पुलिस खुद कह रही है अभी इंद्रेश कुमार को अभियुक्त नहीं बनाया गया है। यह समय बताएगा कि छानबीन से पुलिस को क्या हासिल होता है। फिर पूरी जांच किए बिना इतनी जल्दी क्या थी।क्या बिहार के चुनाव जहां कांग्रेस मुसलमानों को एक संकेत देना चाहती थी, जिसकी शुरूआत राहुल गांधी आऱएसएस पर हमला करके पहले ही कर चुके थे। संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल पुलिस का इस्तेमाल करते रहे हैं किंतु राजनीतिक दल इस स्तर पर गिरकर एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व पर कलंक लगाने का काम करेंगें, यह देखना भी शर्मनाक है। इससे इतना तो साफ है कि कुछ ताकतें देश में ऐसी जरूर हैं जो हिंदू-मुस्लिम एकता की दुश्मन हैं। उनकी राजनीतिक रोटियां सिंकनी बंद न हों इसलिए दो समुदायों को लड़ाते रहने में ही इनकी मुक्ति है। शायद इसीलिए इंद्रेश कुमार निशाने पर हैं क्योंकि वे जो काम कर रहे हैं वह इस देश की विभाजनकारी और वोटबैंक की राजनीति के अनूकूल नहीं हैं। अगर इस मामले से इंद्रेश कुमार बच निकलते हैं तो आखिर राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार का क्या जवाब होगा। किंतु जिस तरह से हड़बड़ी दिखाते हुए इंद्रेश कुमार को आरोपित किया गया उससे एक गहरी साजिश की बू आती है। क्योंकि उनकी छवि मलिन करने का सीधा लाभ उन दलों को मिलना है जो मुसलमानों के वोट के सौदागर हैं। आतंकवाद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई का देश स्वागत करता है किंतु आतंकवाद की आड़ में देशभक्त संगठनों और उनके नेताओं को फंसाने की किसी भी साजिश को देश महसूस करता है और समझता है। किसी भी राजनीतिक दल को ऐसी घटिया राजनीति से बाज आना चाहिए। किसी भी समाज के धर्मस्थल पर विस्फोट एक ऐसी घटना है जिसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। किंतु क्या एक डायरी में फोन नंबरों का मिल जाना एक ऐसा सबूत है जिसके आधार किसी भी सम्मानित व्यक्ति को आरोपित किया जा सकता है। हमें यह समझने की जरूरत है कि आखिर वे कौन से लोग हैं जो हिंदू-मुस्लिम समाज की दोस्ती में बाधक हैं। वे कौन से लोग हैं जिन्हें भय के व्यापार में आनंद आता है। अगर आज इंद्रेश कुमार जैसे लोगों का रास्ता रोका गया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों में मुस्लिम मुद्दों पर संवाद बंद हो जाएगा। हिंदुस्तान के 20 करोड़ मुसलमानों को देश की मुख्यधारा में लाने की यह कोशिश अगर विफल होती है तो शायद फिर कोई इंद्रेश कुमार हमें ढूंढना मुश्किल होगा। इंद्रेश कुमार जैसे लोगों के इरादे पर शक करके हम वही काम कर रहे हैं जो मुहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग ने किया था जिन्होंनें महात्मा गांधी को एक हिंदू धार्मिक संत और कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर लांछित किया था। जो काम 1947 में मुस्लिम लीग ने किया, वही काम आज कांग्रेस की सरकारें कर रही हैं। राष्ट्र जीवन में ऐसे प्रसंगों की बहुत अहमियत नहीं है किंतु इंद्रेश कुमार की सफलता को उनके अपने लोग भी संदेह की नजर से देखते थे। वे सरकारें जो आतंकी ताकतों से समझौते के लिए उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं, जो कश्मीर के गिलानी, मणिपुर के मुइया और अरूघंती राय जैसों के आगे बेबस हैं, वे इंद्रेश कुमार को लेकर इतनी उत्साहित क्यों हैं?
बावजूद इसके कि इंद्रेश कुमार एक गहरे संकट में हैं, पर इस संकट से वे बेदाग निकलेगें इसमें शक नहीं। उन पर उठते सवालों और संदेहों के बीच भी इस देश को यह कहने का साहस पालना ही होगा कि हमें एक नहीं हजारों इंद्रेश कुमार चाहिए जो एक हिंदू संगठन में काम करते हुए भी मुस्लिम समाज के बारे में सकारात्मक सोच रखते हों। आज इस षडयंत्र में क्या हम इंद्रेश कुमार का साथ छोड़ दें ? इस देश में तमाम लोग हत्यारे व हिंसक माओवादियों और कश्मीर के आतंकवादियों के समर्थन में लेखमालाएं लिख रहे हैं, व्याख्यान दे रहे हैं। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है। क्या इंद्रेश कुमार जिनसे मैं मिला हूं, जिन्हें मैं जानता हूं, उन्हें इस समय मैं अकेला छोड़ दूं और यह कहूं कि कानून अपना काम करेगा। कानून काम कैसे करता है, यह जानते हुए भी। जिस कानून के हाथ अफजल गुरू को फांसी देने में कांप रहे हैं, वह कानून कितनी आसानी से हिंदू-मुस्लिम एकता के इस प्रतीक को अपनी फन से डस लेता है, उस कानून की फुर्ती और त्वरा देखकर मैं आश्चर्यचकित हूं। मैं भारत के एक आम नागरिक के नाते, हिंदू-मुस्लिम एकता के सूत्रधार इंद्रेश कुमार के साथ खड़ा हूं। आपको भी इस वक्त उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

कुछ भी कहने की आजादी बनाम हिंदुस्तान का जनतंत्र



देश तोड़क ताकतों के खिलाफ कड़ा रूख अपनाए सरकार

-संजय द्विवेदी
भारतीय जनतंत्र ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या वास्तव में लोगों को खुला छोड़ दिया है। एक बहुलतावादी,बहुधार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज ने अपनी सहनशीलता से एक ऐसा वातावरण सृजित किया है जहां आप कुछ कहकर आजाद धूम सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार का दुरूपयोग भारत में जितना और जिसतरह हो रहा है उसकी मिसाल न मिलेगी। बावजूद इसके ये ताकतें भारत के लोकतंत्र को, हमारी व्यवस्था को लांछित करने से बाज नहीं आती। क्या मामला है कि नक्सलियों के समर्थक और कश्मीर की आजादी के समर्थक एक मंच पर नजर आते हैं। क्या ये देशद्रोह नहीं है। क्या भारत की सरकार इतनी आतंकित है कि वह इन देशद्रोही विचारों के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकती। आखिर ये देश कैसे बचेगा। एक तरफ देश के नौ राज्यों में बंदूकें उठाए हुए वह हिंसक माओवादी विचार है जो 2050 में भारत की राजसत्ता की कब्जा करने का घिनौना सपना देख रहा है। दूसरी ओर वे लोग हैं जो कश्मीर की आजादी का स्वप्न दिखाकर घाटी के नौजवानों में भारत के खिलाफ जहर भर रहे हैं। किंतु देश की एकता अखंडता के खिलाफ चल रहे ये ही आंदोलन नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर सीमावर्ती राज्यों में अलग-अलग नामों, समूहों के रूप में अलगाववादी ताकतें सक्रिय हैं जिन्होंने विदेशी पैसे के आधार पर भारत को तोड़ने का संकल्प ले रखा है। अद्भुत यह कि इन सारे संगठनों की अलग-अलग मांगें है किंतु अंततः वे एक मंच पर हैं। यह भी बहुत बेहतर हुआ कि हुर्रियत के कट्टपंथी नेता अली शाह गिलानी और अरूंधती राय दिल्ली में एक मंच पर दिखे। इससे यह प्रमाणित हो गया कि देश को तोड़ने वाली ताकतों की आपसी समझ और संपर्क बहुत गहरे हैं।

किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। दुनिया का कौन सा देश होगा जहां उसके देश के खिलाफ ऐसी बकवास करने की आजादी होगी। भारत ही है जहां आप भारत मां को डायन और राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने के बाद भी भारतीय राजनीति में झंडे गाड़ सकते हैं। राजनीति में आज लोकप्रिय हुए तमाम चेहरे अपने गंदे और धटिया बयानों के आधार पर ही आगे बढ़े हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा दुरूपयोग निश्चय ही दुखद है। गिलानी लगातार भारत विरोधी बयान दे रहे हैं किंतु उनके खिलाफ हमारी सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है। वे देश की राजधानी में आकर भारत विरोधी बयान दें और जहर बोने का काम करें किंतु हमारी सरकारें खामोश हैं। गिलानी का कहना है कि “ घाटी ही नहीं जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। राज्य के मुसलमानों ही नहीं हिंदुओं और सिखों को भी आत्मनिर्णय का हक चाहिए।”ऐसे कुतर्क देने वाले गिलानी बताएंगें कि वे तब कहां थे जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितो को घाटी छोड़कर हिंदुस्तान के तमाम शहरों में अपना आशियाना बनाना पड़ा। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, महिलाओं को अपमानित किया गया। जिन पत्थर बाजों को वे आजादी का योद्धा बता रहे हैं वे ही जब श्रीनगर में सिखों के घरों पर पत्थर फेंककर उन्हें गालियां दे रहे थे, तो वे कहां थे। इन पत्थरबाजों और आतंकियों ने वहां के सिखों को घमकी दी कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या घाटी छोड़ दें। तब गिलानी की नैतिकता कहां थी। आतंक और भय के व्यापारी ये पाकपरस्त नेता भारत ही नहीं घाटी के नौजवानों के भी दुश्मन हैं जिन्होंने घरती के स्वर्ग कही जाने धरती को नरक बना दिया है। दिल्ली में गिलानी पर जूते फेंकने की घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता किंतु एक आक्रोशित हिंदुस्तानी के पास विकल्प क्या है। जब वह देखता है उसकी सरकार संसद पर हमले के अपराधी को फांसी नहीं दे सकती, लाखों हिंदूओं को घाटी छोड़नी पड़े और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएं, पाकपरस्तों की तूती बोल रही हो, देश को तोड़ने के सारे षडयंत्रकारी एक होकर खड़ें हों तो विकल्प क्या हैं। एक आम हिंदुस्तानी मणिपुर के मुईया, दिल्ली के बौद्धिक चेहरे अरूंधती, घाटी के गिलानी, बंगाल के छत्रधर महतो के खिलाफ क्या कर सकता है। हमारी सरकारें न जाने किस कारण से भारत विरोधी ताकतों को पालपोस कर बड़ा कर रही हैं। जिनको फांसी होनी चाहिए वे जेलों में बिरयानी खा रहे हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए वे दिल्ली की आभिजात्य बैठकों में देश को तोडने के लिए भाषण कर रहे हैं। एक आम हिंदुस्तानी इन ताकतवरों का मुकाबला कैसे करे। जो अपना घर वतन छोड़कर दिल्ली में शरणार्थी हैं,वे अपनी बात कैसे कहें। उनसे मुकाबला कैसे करें जिन्हें पाकिस्तान की सरकार पाल रही है और हिंदुस्तान की सरकार उनकी मिजाजपुर्सी में लगी है। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।

शुक्र है कि दारूल -उलूम देवबंद ने जमात उलेमा-ए हिंद के तत्वावधान में एक सम्मेलन कर कश्मीर को भारत का अविभाज्य और अभिन्न अंग बताया है। जाहिर है जब कश्मीर का संकट एक विकराल रूप धारण कर चुका है, ऐसे समय में देवबंद की राय का स्वागत ही किया जाना चाहिए। इससे पता चलता है कि देश में आज भी उसके लिए सोचने और करने वालों कमी नहीं है। दारूल उलूम देवबंद ने यह खास सम्मेलन कश्मीर समस्या पर ही आयोजित किया था। इसमें बड़ी संख्या में उलेमाओं ने हिस्सा लिया था। इस सम्मेलन में वक्ताओं ने दो टूक कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। वक्ताओं ने इस सम्मेलन में आतंकवादियों की तीव्र भर्त्सना करते हुए वहां फैलाई जा रही हिंसा को गलत बताया। वक्ताओं का कहना था कि भारत एक फूलों का गुलदस्ता है। हम इस बात को गवारा नहीं कर सकते कि उससे किसी फूल को अलग किया जाए। जमात उलेमा –ए –हिंद के नेता महमूद मदनी ने यह भी कहा कि कश्मीर में अलगाववादियों के कारनामों का शेष भारत के मुसलमानों पर गंभीर परिणाम होगा। दारूल उल उलूम की इस पहल का निश्चय ही स्वागत किया जाना चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है पहली बार यह महत्वपूर्ण संस्था इस विषय पर खुलकर सामने आयी है। कश्मीर का संकट आज जिस रूप में हमारे सामने हैं उसमें प्रत्येक देशभक्त संगठन का कर्तव्य है कि वह आगे आकर इन मुद्दों पर संवाद करे तथा सही रास्ता सुझाए। देश के सामने खड़े संकटों में देश के संगठनों का दायित्व है कि वे सही फैसले लें और अमन का रास्ता कौम को बताएं। क्योंकि ऐसे अंधेरों में ही समाज को सही मार्गदर्शन की जरूरत होती है। ऐसे समय में दारूल-उलूम की बतायी राह एक मार्गदर्शन की तरह ही है। जो लोग भारत से कश्मीर को अलग करने का ख्याब देख रहे हैं उन्हें इससे बाज आना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का फायदा उठाकर जो तत्व देशतोड़क विचारों के प्रचारक बने हैं,उनपर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। भारतीय राज्य की अतिशय सदाशयता देश पर भारी पड़ रही है, हमें अपना रवैया बदलने और कड़े संकेत देने की जरूरत है। देश को यह बताने की जरूरत है गिलानी और अरूधंती जैसे लोग किससे बल पर देश में यह वातावरण बना रहे हैं। उनके पीछे कौन सी ताकते हैं। सरकार को तथ्यों के साथ इनकी असलियत सामने लानी चाहिए।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

विजयादशमी की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। यह पर्व आपको सच के साथ जीने का साहस दे।-संजय द्विवेदी

कैसे आएंगें राम इस रक्तरंजित बस्तर में !


जिस धरा पर पड़े प्रभु के चरण वहां बिछी हैं लैंड माइंस
-संजय द्विवेदी
बस्तर यानि दण्डकारण्य का वह क्षेत्र जहां भगवान राम ने अपने वनवास काल में प्रवास किया। बस्तर की यह जमीन आज खून से नहाई हुयी है। बस्तर एक युद्धभूमि में बदल गया है। जहां वे वनवासी मारे जा रहे हैं जिनकी मुक्ति की जंग कभी राम ने लड़ी थी और आज उस जंग को लड़ने का कथित दावा नक्सली संगठन भी कर रहे हैं। दशहरे का बस्तर में एक खास महत्व है। बस्तर का दशहरा विश्वप्रसिद्ध है। लगभग 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे में बस्तर की आदिवासी संस्कृति के प्रभाव पूरे ताप पर दिखती है। बस्तर की लोकसंस्कृति का शायद यह अपने आप में सबसे बड़ा जमावड़ा है। बस्तर राजपरिवार के नेतृत्व में जुटने वाला जनसमुद्र इसकी लोकप्रियता का गवाह है। लोकसंस्कृति किस तरह स्थानीयता के साथ एकाकार होती है इसका उदाहरण यह है कि दशहरे में यहां रावण नहीं जलाया जाता, पूजा भी नहीं जाता। क्या इस दशहरे में राम बस्तर आने का मन बना पाएंगें। जिन रास्तों से वे गुजरे होंगें वहां आज बारूदी सुरंगे बिछी हुयी हैं। आतंक और अज्ञात भय इन तमाम इलाकों में घेरते हैं। रावण की हिंसात्मक राजनीति का दमन करते हुए राम ने आतंक से मुक्ति का संदेश दिया था। किंतु आज के हालात में बस्तर अपने भागीरथ का इंतजार कर रहा है जो उसे आतंक के शाप से मुक्त करा सके। बस्तर के दशहरे में मुड़िया दरबार सजता है जो पंचायत सरीखी संस्था है, जहां पर आदिवासी जन बस्तर के राजपरिवार के साथ बैठकर अपनी चिंताओं पर बात करते हैं। इस दरबार में आदिवासी समाज को बस्तर में फैली हिंसा पर भी बात करनी चाहिए। ताकि बस्तर आतंक के शाप से मुक्त हो सके। आदिवासी जीवन फिर से अपनी सहज हंसी के साथ जी सके और बारूद व मांस के लोथड़ों की गंध से बस्तर मुक्त हो सके।
नक्सली जिस तरह भारतीय राजसत्ता को आए दिन चुनौती दे रहे हैं और उससे निपटने के लिए हमारे पास कोई समाधान नहीं दिखता । सरकार के एक कदम आगे आकर फिर एक कदम पीछे लौट जाने के तरीके ने हमारे सामने भ्रम को गहरा किया है। जाहिर तौर पर हमारी विवश राजनीति,कायर रणनीति और अक्षम प्रशासन पर यह सवाल सबसे भारी है। नक्सली हों या देश की सीमापार बैठे आतंकवादी वे जब चाहें, जहां चाहें कोई भी कारनामा अंजाम दे सकते हैं और हमारी सरकारें लकीर पीटने के अलावा कर क्या सकती हैं। राजनीति की ऐसी बेचारगी और बेबसी लोकतंत्र के उन विरोधियों के सामने क्यों है। क्या कारण है कि हिंसा में भरोसा रखनेवाले, हमारे लोकतंत्र को न माननेवाले, संविधान को न माननेवाले भी इस देश में कुछ बुद्धिवादियों की सहानुभूति पा जाते हैं। सरकारें भी इनके दबाव में आ जाती हैं। नक्सली चाहते क्या हैं। नक्सलियों की मांग क्या है। वे किससे यह यह मांग कर रहे हैं। वे बातचीत के माध्यम से समस्या का हल क्यों नहीं चाहते। सही तो यह है कि वे इस देश में लोकतंत्र का खात्मा चाहते हैं। वे जनयुद्ध लड़ रहे हैं और जनता का खून बहा रहे हैं।हमारी सरकारें भ्रमित हैं। लोग नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर प्रमुदित हो रहे हैं। राज्य का आतंक चर्चा का केंद्रीय विषय है जैसे नक्सली तो आतंक नहीं फैला रहे बल्कि जंगलों में वे प्रेम बांट रहे हैं। उनका आतंक, आतंक नहीं है। राज्य की हिंसा का प्रतिकार है। किसने उन्हें यह ठेका दिया कि वे शांतिपूर्वक जी रही आदिवासी जनता के जीवन में जहर धोलें। उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा दें, जो हमारे राज्य की ओर ही तनी हुयी हों। लोगों की जिंदगी बदलने के लिए आए ये अपराधी क्यों इन इलाकों में स्कूल नहीं बनने देना चाहते, क्यों वे चाहते हैं कि सरकार यहां सड़क न बनाए, क्यों वे चाहते हैं कि सरकार नाम की चीज के इन इलाकों में दर्शन न हों। पुल, पुलिया, सड़क, स्कूल, अस्पताल सबसे उन्हें परेशानी है। जनता को दुखी बनाए रखना और अंधेरे बांटना ही उनकी नीयत है। क्या हम सब इस तथ्य से अपरिचित हैं। सच्चाई यह है कि हम सब इसे जानते हैं और नक्सलवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई फिर भी भोथरी साबित हो रही है। हमें कहीं न कहीं यह भ्रम है कि नक्सल कोई वाद भी है। आतंक का कोई वाद हो सकता है यह मानना भी गलत है। अगर आपका रास्ता गलत है तो आपके उद्देश्य कितने भी पवित्र बताए जाएं उनका कोई मतलब नहीं है। हमारे लोकतंत्र ने जैसा भी भारत बनाया है वह आम जनता के सपनों का भारत है। माओ का कथित राज बुराइयों से मुक्त होगा कैसे माना जा सकता है। आज लोकतंत्र का ही यह सौंदर्य है कि नक्सलियों का समर्थन करते हुए भी इस देश में आप धरना-प्रदर्शन करते और गीत- कविताएं सुनाते हुए घूम सकते हैं। अखबारों में लेख लिख सकते हैं। क्या आपके माओ राज में अभिव्यक्ति की यह आजादी बचेगी। निश्चय ही नहीं। एक अधिनायकवादी शासन में कैसे विचारों, भावनाओं और अभिव्यक्तियों का गला घुटता है इसे कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे माओवादी हमारे लोकतंत्र को चुनौती देते घूम रहे हैं और हम उन्हें सहते रहने को मजबूर हैं।
नक्सलवादियों के प्रति हमें क्या तरीका अपनाना चाहिए ये सभी को पता है फिर इस पर विमर्श के मायने क्या हैं। खून बहानेवालों से शांति की अर्चना सिर्फ बेवकूफी ही कही जाएगी। हम क्या इतने नकारा हो गए हैं कि इन अतिवादियों से अभ्यर्थना करते रहें। वे हमारे लोकतंत्र को बेमानी बताएं और हम उन्हें सिर-माथे बिठाएं, यह कैसी संगति है। आपरेशन ग्रीन हंट को पूरी गंभीरता से चलाना और नक्सलवाद का खात्मा हमारी सरकार का प्राथमिक ध्येय होना चाहिए। जब युद्ध होता है तो कुछ निरअपराध लोग भी मारे जाते हैं। यह एक ऐसी जंग है जो हमें अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए जीतनी ही पड़ेगी। बीस राज्यों तक फैले नक्सली आतंकवादियों से समझ की उम्मीदें बेमानी हैं। वे हमारे लोकतंत्र की विफलता का फल हैं। राज्य की विफलता ने उन्हें पालपोस का बड़ा किया है। सबसे ऊपर है हमारा संविधान और लोकतंत्र जो भी ताकत इनपर भरोसा नहीं रखती उसका एक ही इलाज है उन प्रवृत्तियों का शमन।
भगवान राम आज इस बस्तर की सड़कों और इस शांत इलाके में पसरी अशांति पर क्या करते। शायद वही जो उन्होंने लंका के राजा रावण के खिलाफ किया। रावण राज की तरह नक्सलवाद भी आज हमारी मानवता के सामने एक हिंसक शक्ति के रूप में खड़ा है। हिंसा के खिलाफ लड़ना और अपने लोगों को उससे मुक्त कराना किसी भी राज्य का धर्म है। नक्सलवाद के रावण के खिलाफ हमारे राज्य को अपनी शक्ति दिखानी होगी। क्योंकि नक्सलवाद के रावण ने हमारे अपने लोगों की जिंदगी में जहर घोल रखा है। उनके शांत जीवन को झिंझोड़कर रख दिया है। बस्तर के लोग फिर एक राम का इंतजार कर रहे हैं। पर क्या वे आएंगें। क्या एक बार फिर जनता को आसुरी शक्तियों से मुक्त कराने का काम करेंगें। जाहिर तौर पर ये कल्पनाएं भर नहीं हैं, हमारे राज्य को अपनी शक्ति को समझना होगा। नक्सली हिंसा के रावण के खिलाफ एक संकल्प लेना होगा। हमारा देश एक नई ताकत के साथ महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। ये हिंसक आंदोलन उस तेज से बढ़ते देश के मार्ग में बाधक हैं। हमें तैयार होकर इनका सामना करना है और इसे जल्दी करना है- यह संकल्प हमारी सरकार को लेना होगा। भारत की महान जनता अपने संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हुए देश के विकास में जुटी है। हिंसक रावणी और आसुरी आतंकी प्रसंग उसकी गति को धीमा कर रहे हैं। हमें लोगों को सुख चैन से जीने से आजादी और वातावरण देना होगा। अपने जवानों और आम आदिवासियों की मौत पर सिर्फ स्यापा करने के बजाए हमें कड़े फैसले लेने होंगें और यह संदेश देना होगा कि भारतीय राज्य अपने नागरिकों की जान-माल की रक्षा करने में समर्थ है। बस्तर से आतंक की मुक्ति में आम जनता,आदिवासी समाज और सरकार को राम की सेना के रूप में एकजुट होना होगा। तभी लोकतंत्र की जीत होगी और रावणी व आसुरी नक्सलवाद को पराजित किया जा सकेगा। दशहरे पर नक्सलवाद के रावण के शमन का संकल्प लेकर हम अपने लोकतंत्र की बुनियाद को ही मजबूत करेंगें।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)