शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

क्या अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद के प्रवक्ता हैं हमारे टीवी चैनल


-संजय द्विवेदी
टीवी चैनलों की धमाल को रोकने के लिए शायद यह सरकार का पहला बड़ा कदम था। ‘बिग बास’ और ‘राखी का इंसाफ’ नाम के दोनों कार्यक्रमों को रात्रि 11 बजे के बाद प्रसारित करने का फैसला एक न्यायसंगत बात थी। दोनों आयोजन भाषा और अश्लीलता की दृष्टि से सीमाएं पार कर रहे थे। बावजूद इसके कि अब मुंबई हाईकोर्ट ने बिग बास को राहत दे दी है कि वह प्राइम टाइम पर ही प्रसारित होगा, इस फैसले का महत्व कम नहीं हो जाता। जिस तरह के हालात बन रहे हैं उसमें देर-सबेर चैनलों पर हो रहे वाहियात प्रसारण पर सरकार और हमारी सम्माननीय अदालतों को कोई न कोई कदम उठाना ही पड़ेगा। किंतु मंत्रालय को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनके रिपीट प्रसारण का समय रात्रि 11 के पूर्व न हो। होता यह है कि प्रसारण का मूल समय तो 11 को बाद हो जाता है पर ये कार्यक्रम रिपीट मनमाने समय पर होते रहते हैं। ‘इमोनशनल अत्याचार’ नाम का एक कार्यक्रम दिन में और सायं काल रिपीट होता रहता है। यह कार्यक्रम भी बच्चों के देखने योग्य नहीं कहा जा सकता। “सच का सामना” जैसे कार्यक्रमों से पतन की जो शुरूआत हुयी वह निरंतर जारी है। नए प्रयोगों के नाम पर अंततः अश्वीलता और भाषा की भ्रष्टता के सहारे ही टीआरपी लेने की होड़ एक अंधी दौड़ में बदल गयी है। शायद यही कारण है कि अपनी बेहद फूहड़ भाषा और प्रस्तुति के मशहूर राखी को हमें न्याय बांटते हुए देखना पड़ा । कलंक पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं और वे आपकी ख्याति का विस्तार कर रहे हैं। शादी जैसे पवित्र रिश्तों को भी बाजार में उतारकर सारा खान ने जिस तरह शादी और सुहागरात का रीटेक किया, वह अपने आप में बहुत शर्मनाक है। बाजार की यह तलाश इसी तरह मूल्यों को शीर्षासन करवा रही है।
सही मायने में कड़े नियम बनाने की जरूरत है जिसका अभाव दिखता है। सरकार कहीं न कहीं दबाव में है, इसलिए नियमों को कठोरता से लागू नहीं किया जा रहा है। बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध से सबको लपेट चुकी है, उसके खिलाफ हवा में लाठियां जरूर भांजी जा रही हैं, लेकिन लाठियां भांज रहे लोग भी इसकी व्यर्थता को स्वीकार करने लगे हैं। स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं। टीवी चैलनों पर मचा धमाल इससे अलग नहीं है।देश में सैकड़ों चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। इन विदेशी-देशी चैनलों का आपसी युद्ध चरम पर है।ज्यादा से ज्यादा बाजार ,विज्ञापन एवं दर्शक कैसे खींचे जाएं सारा जोर इसी पर है। जाहिर है इस प्रतिस्पर्धा में मूल्य, नैतिकता एवं शील की बातें बेमानी हो चुकी हैं। होड़ नंगेपन की है, बेहूदा प्रस्तुतियों की है और जैसे-तैसे दर्शकों को बांधे रखने की है। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे आयोजनों को इस होड़ से आप अलग भले करें, क्योंकि वे कुछ पूछताछ और ज्ञान आधारित मनोरंजन देने के नाते अलग संदेश देते नजर आते हैं।
टीवी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में ज्यादातर प्रेम-प्रसंगों, किसी को पाने-छोड़ने की रस्साकसी एवं विवाहेतर संबंधों के ही इर्द-गिर्द नाचते रहते हैं। अक्सर धारावाहिकों में बच्चे जिसे भाषा में अपने माता-पिता से पेश आते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है। इन कार्यों से जुड़े लोग यह कहकर हाथ झाड़ लेते हैं कि यह सारा कुछ तो समाज में घट रहा है, लेकिन क्या भारत जैसे विविध स्तरीय समाज रचना वाले देश में टीवी चैनलों से प्रसारित हो रहा सारा कुछ प्रक्षेपित करने योग्य है ? लेकिन इस सवाल पर सोचने की फुसरत किसे है ? धार्मिक कथाओं के नाम भावनाओं के भुनाने की भी एक लंबी प्रक्रिया शुरू है। इसमें देवी-देवताओं के प्रदर्शन तो कभी-कभी ‘हास्य जगाते हैं। देवियों के परिधान तो आज की हीरोइनों को भी मात करते हैं। ‘धर्म’ से लेकर परिवार, पर्व-त्यौहार, रिश्तें सब बाजार में बेचे–खरीदें जा रहे हैं। टीवी हमारी जीवन शैली, परंपरा के तरीके तय कर रहा है। त्यौहार मनाना भी सिखा रहा है। नए त्यौहारों न्यू ईयर, वेलेंटाइन की घुसपैठ भी हमारे जीवन में करा रहा है। नए त्यौहारों का सृजन, पुरानों को मनाने की प्रक्रिया तय करने के पीछ सिर्फ दर्शक को ढकेलकर बाजार तक ले जाने और जेबें ढीली करो की मानसिकता ही काम करती है।
जाहिर है टीवी ने हमारे समाज-जीवन का चेहरा-मोहरा ही बदल दिया है। वह हमारा होना और जीना तय करने लगा है। वह साथ ही साथ हमारे ‘माडल’ गढ़ रहा है। परिधान एवं भाषा तय कर रहा है। हम कैसे बोलेंगे, कैसे दिखेंगे सारा कुछ तय करने का काम ये चैनल कर रहे हैं । जाहिर है बात बहुत आगे निकल चुकी है। प्रसारित हो रही दृश्य-श्रव्य सामग्री से लेकर विज्ञापन सब देश के किस वर्ग को संबोधित कर रहे हैं इसे समझना शायद आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन सबका लक्ष्य सपने दिखाना, जगाना और कृत्रिम व अंतहीन दौड़ को हवा देना ही है। जीवन के झंझावातों, संघर्षों से अलग सपनीली दुनिया, चमकते घरों, सुंदर चेहरों के बीच और यथार्थ की पथरीली जमीन से अलग ले जाना इन सारे आयोजनों का मकसद होता है। बच्चों के लिए आ रहे कार्यक्रम भी बिना किसी समझ के बनाए जाते हैं। ऐसे हालात में समाज टीवी चैनलों के द्वारा प्रसारित किए जा रहे उपभोक्तावाद, पारिवारिक टूटन जैसे विषयों का ही प्रवक्ता बन गया है। अंग्रेजी के तमाम चैनलों के अलावा अब तो भाषाई चैनल भी ‘देह’ के अनंत ‘राग’ को टेरते और रूपायित करते दिखते हैं। ‘देहराग’ का यह विमर्श 24 घंटे मन को कहां-कहा ले जाता है व जीवन-संघर्ष में कितना सहायक है शायद बताने की आवश्यकता नहीं है।
सच कहें तो हमारे चैनल पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। समाज की मूल्य और मान्यताएं इनके लिए मायने नहीं रखते। सामाजिक नियंत्रण और दर्शकों के जागरूक न होने का फायदा उठाकर जैसी मनचाही चीजें परोसी और दिखाई जा रही हैं, वह बहुत खतरनाक है। तमाम आयोजन आज अश्लीलताओं की सीमा पार करते दिखते हैं। देश के दर्शकों पर इस तरह का इमोशनल अत्याचार रोकना सरकार की जिम्मेदारी है। इसी तरह कोड आफ कंडेक्ट को लेकर जिस तरह हमारे पढ़े- लिखे समाज में लोग एलर्जिक हैं, सो यह पतन की धारा कहां जाकर रूकेगी यह सोचना होगा। यहां बात सोशल पुलिसिंग की नहीं है, किंतु सामाजिक जिम्मेदारियों और सामाजिक उपयोग पर बात जरुर होनी चाहिए। कंटेट का नियमन न हो किंतु नंगेपन के खिलाफ एक आवाज जरूर उठे। बहुत बेहतर हो कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग के लोग स्वयं आगे आकर एक प्रभावी आचार संहिता बनाएं ताकि इस तरह के अप्रिय दृश्यों की भरमार रोकी जा सके। क्योंकि जनदबाव में अगर सरकार उतरती है तो बड़ा घोटाला होगा। बेहतर होगा कि हम खुद आत्ममंथन करते हुए कुछ नियमों का, संहिता का अपने लिए नियमन करें और उसका पालन भी करें।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सरकार को निर्देश देना चाहिये कि एक अलग चैनल बनाया जाये जिसमें अश्लील कार्यक्रम दिखाये जायें..

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  2. कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई !

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