लोकसाहित्य और मीडिया विषय पर व्याख्यान
मुलताई (बैतूल-मप्र)। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष एवं मीडिया विश्लेषक संजय द्विवेदी का कहना है कि ‘लोक’ मीडिया के लिए डाउन मार्केट चीज है। ‘लोक’ का बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। वे यहां मुलताई के शासकीय महाविद्यालय में ‘लोकसाहित्य के विविध आयाम’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के समापन सत्र में ‘लोकसाहित्य और मीडिया’ विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि की आसंदी से उन्होंने कहा कि ‘लोक’ को विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।
उन्होंने कहा कि सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की कोशिश खतरनाक है। जबकि ‘राइट टू डिफरेंट’ एक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है।
श्री द्विवेदी ने कहा कि लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी ‘कविराय’ कहा जाता था। उनका कहना था कि बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह ‘लोक’ को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की ‘बो’ नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। उन्होंने आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि ‘लोक’ की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।
समापन समारोह की मुख्यअतिथि प्रख्यात साहित्यकार डा. विद्याविंदु सिंह (लखनऊ) ने कहा कि लोकचेतना को जागृत करके ही संवेदनाएं बचाई जा सकती हैं और संवेदना से ही कोई समाज शक्तिशाली होता है। इससे देश की एकता भी मजबूत होगी। उन्होंने नई पीढ़ी से अपील की वे गांवों में जाएं और लोकसाहित्य के संरक्षण के प्रयासों में लगें। उनका संग्रहण करें और अपनी इस विरासत को बचा लें। कार्यक्रम का संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर में प्रोफेसर डा.सुभद्रा राठौर ने किया। आभार प्रदर्शन प्राचार्य डा. वर्षा खुराना ने किया। समापन समारोह में महाविद्यालय की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष ऐनलाल जैन, मीता अग्रवाल(राजनांदगांव-छत्तीसगढ़), डा.गिरिजा अग्रवाल ,डा. छेदीलाल कांस्यकार (औरंगाबाद-बिहार), डा. सुरेश माहेश्वरी (अमलनेर-महाराष्ट्र) ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
बढ़िया ...बहुत खूब...शानदार.
जवाब देंहटाएंपंकज.
jabardast... guruvar...
जवाब देंहटाएंbadhiya hai, sir aapne kya aalochna kiya hai,sachai ke ek teer se kai nisana lagaya hai
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