शुक्रवार, 26 मार्च 2010

शिक्षा परिसरों को तो बख्श दीजिए

-संजय द्विवेदी
हमारे शिक्षा परिसर राजनीति के केंद्र बन गए हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। छात्र राजनीति कभी मूल्यों के आधार पर होती है। शेष समाज की तरह उसका भी बुरा हाल हुआ है। छात्र राजनीति से निकले तमाम नेता आज देश के बड़े पदों पर हैं, छात्र राजनीति का एक सृजनात्मक रूप भी तब दिखता था। आज हालात बदल गए हैं। छात्र संगठन राजनीति दलों की चेरी की तरह हैं। वे उनके इशारे पर काम करते हैं। जिंदाबाद –मुर्दाबाद तक आकर उनकी राजनीति सिमट जाती है।
राजनीतिक प्रशिक्षण की परंपरा लगभग लुप्त है। लोग कैसे और क्यों राजनीति में आ रहे हैं कहा नहीं जा सकता। इंदौर में पिछले दिनों अहिल्यादेवी विश्वविद्यालय में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के प्रवास ने काफी हलचल मचा दी। मप्र की सरकार ने इस मामले पर विश्वविद्यालय को नोटिस जारी कर दिया। राहुल गांधी का परिसर में जाना गलत है या सही इसका कोई सीधा जवाब नहीं हो सकता। अपनी बात कहने के लिए लोकतंत्र में सबको हक है, राहुल गांघी को भी है। परिसरों में विमर्श का वातावरण, संवाद बहाल हो, मुद्दों पर बात हो यह बहुत अच्छी बात है पर यह किसी दल के आधार पर नहीं हो। परिसरों में छात्र संगठन अपनी गतिविधियां चलाते रहे हैं और उन्हें इसका हक भी है पर मैं दलीय राजनीति को परिसर में जड़ें जमाने देने के खिलाफ हूं। वे परिसर में आएंगें तो अपने दल का एजेंडा और झंडा भी साथ लाएंगें। दलीय राजनीति अंततः उन्हीं अंधेरी गलियों में भटक जाती है और छात्र ठगा हुआ रह जाता है।
परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें। परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्काल सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। आजादी के आंदोलन में भी हमारे परिसरों की एक बड़ी भूमिका थी। नौजवान आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारियां निभाने ही नहीं अपनी जान को हथेली पर रखकर सर्वस्व निछावर करने को तैयार था। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। परिसर में राहुल गांधी का आना किसी जयप्रकाश नारायण का आना नहीं हैं, मैं इस सूचना पर मुग्ध नहीं हो सकता। मैं मुग्ध तभी हो पाउंगा जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें। परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने, तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए। देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। राहुल गांधी का परिसरों में जाना बुरा नहीं पर खतरा यह है कि वे अकेले नहीं जाएंगें उनके साथ वह राजनीतिक संस्कृति भी जाएगी जिससे शायद हम भारतवासी सबसे ज्यादा भयभीत हैं।

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