सोमवार, 5 जुलाई 2010

खामोश परिसरों में हलचलों का इंतजार



सार्थक प्रतिरोध की शक्ति को जगाएं छात्र संगठन
-संजय द्विवेदी

छात्र आंदोलन के यह सबसे बुरे दिन हैं। छात्र आंदोलनों का यह विचलन क्यों है अगर इसका विचार करें तो हमें इसकी जड़ें हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में दिखाई देंगी। आज के तमाम हिंसक अभियानों व आंदोलनों के पीछे और आगे युवा ही दिखते हैं। यह हो रहा है और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं। क्योंकि स्पष्ट सोच, वैचारिक उर्जा और समाज जीवन में मूल्यों की घटती अहमियत ने ही ऐसे हालात पैदा किए हैं। ऐसे में विघटनकारी तत्वों ने समाज को बदलने की उर्जा रखने वाले नौजवानों के हाथ में कश्मीर, पूर्वोत्तर के सात राज्यों समेत तमाम नक्सलप्रभावित राज्यों में हथियार पकड़ा दिए हैं। भारतीय युवा एवं छात्र आंदोलन कभी इतना दिशाहारा और थकाहारा न था। आजादी के पहले नौजवानों के सामने एक लक्ष्य था। अपने बेहतर कैरियर की परवाह न करके उस दौर में उन्होंने त्याग और बलिदान का इतिहास रचा। भाषा और प्रांत की दीवारें तोड़ते हुए देश के हर हिस्से के नौजवान ने राष्ट्रीय आंदोलन में अपना योगदान किया।
आजादी के बाद बिगड़े हालातः
आजादी के बाद यह पूरा का पूरा चित्र बदल गया। नौजवानों के सामने न तो सही लक्ष्य रखे गए, न ही देश की आर्थिक संरचना में युवाओं का विचार कर ऐसे कार्यक्रम बनाए गए जिससे देश के विकास में उनकी भागीदारी तय हो पाती। इस सबके बावजूद देश के महान नेताओं के प्रभामंडल से चमत्कृत छात्र-युवा शक्ति, उनके खिलाफ अपनी जायज मांगों को लेकर भी न खड़ी हो पायी। क्योंकि उस दौर के लगभग सभी नेता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े थे और उनकी देशनिष्ठा-कर्त्व्यनिष्ठा पर उंगली उठाना संभव न था। किंतु यह दौर 1962 में चीन-भारत युद्ध में भारत की हार के साथ खत्म हो गया। यह हताशा इस पराजय के बाद व्यापक छात्र-आक्रोश के रूप में प्रकट हुयी। देश के महानायकों के प्रति देश के छात्र-युवाओं के मोहभंग की यह शुरूआत थी।
1962 का यह साल, आजादी मिलने के बाद छात्र-आंदोलन में आई चुप्पी के टूटने का साल था। भारतीय सेनाओं की पराजय से आहत युवा मन को यदि उस समय कोई सार्थक नेतृत्व मिला होता तो निश्चय ही देश की तस्वीर कुछ और होती। इसके तत्काल बाद सरकार ने महामना मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय का नाम बदलकर काशी विश्वविद्यालय रखने का विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया। इस प्रसंग में पूरे देश के नौजवानों की तीखी प्रतिक्रिया के चलते सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा। अपनी सफलता के बावजूद इस प्रसंग ने छात्र राजनीति को धार्मिक आधार पर बांट दिया। इन्हीं दिनों भाषा विवाद भी गहराया और इसने भी छात्रों को उत्तर-दक्षिण दो खेमों में बांट दिया। दक्षिण में छात्रों के अंग्रेजी समर्थक आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया।1967 का यह दौर भाषा आंदोलन तीव्रता का समय था। सरकार द्वारा अंग्रेजी को स्थायी रूप से जारी रखने के फैसले के खिलाफ उत्तर भारत में चले इस आंदोलन को समाज भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। कई बड़े साहित्यकारों ने अपनी उपाधियां और पुरस्कार सरकार को लौटाकर अपना जताया। छात्र आंदोलन की व्यापकता और सामाजिक समर्थन के बावजूद सरकारी हठधर्मिता के चलते अंग्रेजी को स्थायित्व देने वाला विधेयक लोकसभा में पारित हो गया। इस आंदोलन ने छात्रों के मन में तत्कालीन शासन के प्रति गुस्से का निर्माण किया। इस दौर में सत्ता से क्षुब्ध नौजवान हिंसक प्रयोगों की ओर भी बढ़े, जिसके फलस्वरूप नक्सली आंदोलन का जन्म और विकास हुआ। जिसके नेता चारू मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल थे। इसके पीछे अहिंसक विचारधारा से उपजा नैराश्य था जिसने नौजवानों के हाथ में बंदूके पकड़ा दीं।
व्यवस्था परिवर्तन के वाहकः
इन अवरोधों के बावजूद नौजवानों का जज्बा मरा नहीं। वह निरंतर सत्ता से सार्थक प्रतिरोध करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की धार को तेज करने की कोशिशों में लगा रहा। इन दिनों अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी युवजन सभाष स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया जैसी तीन राजनीतिक शक्तियां परिसरों में सक्रिय थीं। तीनों की अपनी निश्चित प्रतिबद्धताएं थीं। इन संगठनों ने छात्रसंघ चुनावों में अपने हस्तक्षेप से छात्रों के जोश और उत्साह को रचनात्मक दिशा प्रदान की। छात्रों के भीतर जो उत्तेजनाएं थीं उन्हें जिंदा रखकर उसका सही ढंग से इस्तेमाल किया गया। इस दौर में डा. राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व का नौजवानों पर खासा असर रहा।
इस सदी के आखिरी बड़े छात्र आंदोलन की शुरूआत 1974 में गुजरात के एक विश्वविद्यालय के मेस की जली रोटियों के प्रतिरोध के रूप में हुयी और उसने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की भावभूमि तैयार की। विद्यार्थी परिषद, युवजन सभा के नेताओं की सक्रियता और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालने के बाद यह आंदोलन युवाओं की भावनाओं का प्रतीक बन गया। किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद कुर्सी की रस्साकशी में संपूर्ण क्रांति का नारा तिरोहित हो गया। रही सही कसर जेपी के असामयिक निधन ने पूरी कर दी। यह भारतीय छात्र आंदोलन के बिखराव, ठहराव और तार-तार होकर बिखरने के दिन थे। नौजवान असहाय और ठगे-ठगे से जनता प्रयोग की विफलता का तमाशा देखते रहने को मजबूर थे।
आदर्शविहीनता ने ली मूल्यों की जगहः
सपनों के इस बिखराव के चलते छात्र राजनीति में मूल्यों का स्थान आर्दशविहीनता ने ले लिया। राजनीति से हुयी अपनी अनास्था और प्रतिक्रिया जताने की गरज से युवा रास्ते तलाशने लगे। आदर्शविहीनता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में तब तक संजय गांधी का उदय हो चुका था। उनके साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली उदंड नौजवानों की एक पूरी फौज थी जो सारा कुछ डंडे के बल पर नियंत्रित करना चाहती थी। जिसके पास आदर्श और नैतिकता नाम की कोई चीज नहीं थी। जेपी आंदोलन में पैदा हुयी युवा नेताओं की इफरात जमात,जनता पार्टी की संपूर्ण क्रांति की विफलता की प्रतिक्रिया में युवक कांग्रेस से जुड़ गयी। यहा ‘संजय गांधी परिघटना’ की जीत हुयी और छात्र आंदोलनों से नैतिकता, आस्था और विचार दर्शन की राजनीति के भाव तिरोहित हो गए। इसके बाद शिक्षा मंदिरों में हिंसक राजनीति, छेड़छाड़, अध्यापकों से दुव्यर्हार, गुंडागर्दी, नकल, अराजकता और अनुशासनहीनता का सिलसिला प्रारंभ हुआ। छात्रसंघ चुनावों में बमों के धमाके सुनाई देने लगे। संसदीय राजनीति की सभी बुराईयां छात्रसंघ चुनावों की अनिर्वाय जरूरत बन गयीं। परिसरों में पठन-पाठन का वातावरण बिगड़ा। छात्र अपने मूल मुद्दों से भटक गए। दलीय राजनीति, जातीय राजनीति, माफियाओं और धनपतियों की धुसपैठ ने छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए। इससे छात्र राजनीति की धीमी मौत का सिलसिला शुरू हो गया। इसी दौर में लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रवींद्र सिंह की हत्या हुयी और कुछ परिसरों से छात्राओं के साथ दुराचार की खबरें भी आयीं। इन सूचनाओं ने वातावरण को बहुत विषाक्त कर दिया। इससे परिसर संस्कृति विकृत हुयी।
विफल हुआ असम आंदोलनः
1981 में असम छात्र आंदोलन की अनुंगूंज सुनाई देने लगी। लंबे संघर्ष के बाद प्रफुल्ल कुमार महंत असम के मुख्यमंत्री बने। किंतु सत्ता में आने के बाद महंत की सरकार ने बहुत निराश किया। यह सही मायने में पहली बार पूरी तरह छात्र आंदोलन से बनी सरकार थी। जिसकी निराशाजनक परिणति ने छात्र आंदोलनों की नैतिकता और समझदारी पर सवालिया निशान लगा दिए। इस घटाटोप के बीच राजीव गांधी जैसे युवा प्रधानमंत्री के उभार ने युवाओं को एक अलग तरीके से प्रेरित किया किंतु जल्दी ही बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के साथ प्रकट हुए। नौजवान उनके साथ पूरी ऊर्जा से लगा और वे देश के प्रधानमंत्री बने। यहां फिर जनता प्रयोग जैसे हाल और सत्ता संधर्ष से नौजवानों को निराशा ही हाथ लगी। मंडल आयोग की रिपोर्ट को हड़बड़ी में लागू करने के चलते नौजवानों के एक तबके में अलग किस्म का आक्रोश नजर आया। इस आंदोलन में हुयी आत्महत्याएं निराशा का चरमबिंदु थीं। ये बताती थीं कि युवा व्यवस्था में अपनी जगह को सिकुड़ता हुआ पाकर कितना निराश है। ऐसा लगा कि नौजवानों के पास अब भविष्य की आशा, आदर्श और भविष्य की इच्छाएं चुक सी गयी हैं। इस दौर ने संधर्ष के मार्ग को लूट के मार्ग में बदल दिया। बड़े आदर्शों की जगह विखंडित आदर्शों ने अपनी जगह बना ली।
छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर उठे सवालः
ये परिस्थितियां बताती थीं कि कमोबेश समस्त छात्र संगठन और छात्र नेता राजनीतिक दलों की चेरी बन गए हैं। छात्र संगठनों के एजेंडे भी अब राजनीतिक पार्टियां तय कर रही हैं। ये समूह किसी परिवर्तन का वाहक न बनकर अपनी ही पार्टी का साइनबोर्ड बनकर रह गए हैं। इनके सपने, आदर्श सब कुछ कहीं और तय होते हैं। छात्रसंघों की बदलती भूमिका और घटती प्रासंगिकता ने छात्रों के मन से उनके प्रति सहानुभूति खत्म कर दी है। छात्रसंघ चुनावों को उन मुख्यमंत्रियों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है जो छात्र आंदोलन से ही जन्में हैं। जहां चुनाव हो रहे हैं वहां भी मतदान का प्रतिशत गिर रहा है। ऐसा लगता है कि छात्रसंघ अब आम छात्रों की शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रतिभा के उन्नयन का माध्यम नहीं रहे। वे अराजक तत्वों और माफियाओं के अखाड़े बन गए हैं। छात्रसंघों ने सदैव भ्रष्ट राजसत्ता को चुनौती देने का काम किया है किंतु आज वे सत्तासीनों की आंख में गड़ने लगे हैं। छात्रसंघ चुनाव की विकृतियां भी हमारे संसदीय लोकतंत्र ही देन हैं। यहां तर्क यह भी है कि यदि तमाम बुराईयों के बावजूद लोकसभा से लेकर पंचायत के चुनाव हम करा रहे हैं तो छात्रसंघ की प्रतिबंधित क्यों। हमें इन चुनावों में सुधार की बात करनी चाहिए न कि इनका गला घोंटना चाहिए।
कुल मिलाकर देश को अपनी रचनात्मकता और संघर्ष से दिशा देने वाले परिसर आज नैतिकता और संस्कारहीन व्यवहार का पर्याय बन गए हैं। जो परिसर ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर संवाद का केंद्र हुआ करते थे, वे आज मूल्यहीन आपराधिक राजनीति का केंद्र बन गए हैं। जिन छात्रसंघों से निकले छात्रनेताओं ने देश का योग्य मार्गदर्शन किया और राजनीति को दिशा दी वहीं से आज पथभ्रष्ट और टुटपुजियां कार्यकर्ता निकल रहे हैं। ऐसे हालात में छात्रराजनीति के सामने गहरा संकट है। अपने शैक्षिक अधिकारों, निर्धनता, बेरोजगारी और विषमता के खिलाफ इन परिसरों से आवाज नहीं आती। अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की प्रवृति भी कम हुयी है। आज की आदर्शविहीनता, बाजारवादी हवाओं में हमारे परिसरों में संस्कृति कर्म के नाम पर फेयरवेल या फ्रेशर्स पार्टियां होती हैं जहां हमारे युवा मस्त-मस्त होकर झूम रहे हैं।परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें।
संवाद नहीं, परिसरों में पसरा मौनः
परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्कालीन सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। छात्र आंदोलन के दिन तभी बहुरेंगें जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें तभी लौटगें जब परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने। तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए।
देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। ऐसे कठिन समय में जब बाजार हमारी सभी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर अपनी रूचियों का आरोपण कर रहा है, ऐसे में हर तरह के आंदोलन,संवाद और बहसें खतरे में हैं। इसे बचाने के लिए के हम सभी को अपने-अपने तरीके से काम करने की जरूरत है क्योंकि तभी लोकतंत्र बचेगा और मजबूत भी होगा। खामोश परिसर हमारे लिए खतरे की घंटी हैं क्योंकि वे कारपोरेट के पुरजे तो बना सकते हैं पर मनुष्य बनाने के लिए संवाद, विमर्श और लड़ाइयां जरूरी हैं। इसलिए हमें नए जमाने के नए हथियारों और नए तरीकों से फिर से उस आंदोलन की धार को पाना होगा जिसे गवां बैठने का दुख हर संवेदनशील आदमी को बेतरह मथ रहा है।

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