हमेशा
व्यक्तिकेंद्रित ही रहे हैं चुनाव अभियान, मोदी केंद्र में हैं तो बुरा क्या है
-संजय द्विवेदी
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि “नरेंद्र मोदी ने
लालकृष्ण आडवानी को बाहर कर दिया है और अडानी को अपना लिया है।” देश राहुल गांधी से जानना चाहता है कि आडवानी जी
तो गांधी नगर के मैदान में हैं किंतु प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह कहां हैं? दस
साल तक देश पर राज करने वाले प्रधानमंत्री से कांग्रेस और राहुल गांधी की इतनी
बेरूखी क्यों है। क्या बुर्जुर्गों को रिटायर करने का कांग्रेस का यह तरीका काबिले
तारीफ है? देश
भूला नहीं है कि कैसे श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी के बुर्जुगों को धकियाकर
कांग्रेस पर कब्जा किया था। इतना ही नहीं तो श्रीमती सोनिया गांधी को कांग्रेस
अध्यक्ष पद पर लाने के लिए एक निष्ठावान कांग्रेस नेता सीताराम केसरी जो उस समय
पार्टी के चुने गए अध्यक्ष थे, को किस तरह घक्के मारकर मंच से हटाया गया था।
भाजपा के तथाकथित ‘मोदी समय’ में तो आडवानी,डा. मुरलीमनोहर जोशी तो
मैदान में हैं ही। जो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं ऐसे कल्याण सिंह और यशवंत सिन्हा की
जगह उनके बेटे भी मैदान में हैं। इसलिए कांग्रेस जो एक परिवार से ही चलने वाली
पार्टी है, उसके नेता जब बुर्जुगों के सम्मान पर चिंतित होते हैं तो देश की जनता
को आश्चर्य होता है। दूसरे नेता हैं नीतिश कुमार जो अपने दल में अपने अधिनायकवादी
चरित्र के लिए मशहूर हैं और उन्होंने अपने नेता जार्ज फर्नांडीस के अंतिम दिनों ने
सिर्फ उनको एक लोकसभा की टिकट से वंचित कर दिया वरन उन्हें अकेला भी छोड़ दिया।
राजनीति की ये बेरहम कहानियां सबके सबके सामने हैं। किंतु नरेंद्र मोदी सबका आसान
निशाना बने हुए हैं। राजनीति में कोई किसी को पछाड़कर ही आगे बढ़ता है। अपनी
लोकप्रियता और कार्यकर्ता समर्थन के बल पर अगर नरेंद्र मोदी आगे बढ़ते दिख रहे हैं
तो इसे व्यक्तिवादी राजनीति कहना उचित नहीं है। हर चुनाव किसी नेता को केंद्र में
रखकर ही लड़ा जाता है। एक जमाने में “आधी रोटी खाएंगें, इंदिराजी को लाएंगें”, “इंदिरा लाओ-देश बचाओ” “जात पर न पात पर ,इंदिरा जी की
बात पर मोहर लगेगी हाथ पर”(इंदिरा गांधी), “उठे करोंड़ों हाथ
हैं, राजीव जी के साथ हैं” (राजीव गांधी)“वोट अटल को, वोट कमल
को” (
अटलबिहारी वाजपेयी), “राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है” (वीपी सिंह),
“जिसने
कभी न झुकना सीखा उसका नाम मुलायम है” (मुलायम सिंह यादव) जैसे नारे बताते
हैं कि भारतीय राजनीति कोई पहली बार व्यक्तियों को केंद्र में रखकर नहीं हो रही
है। कांग्रेस में तो एक जमाने में ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’( देवकांत बरूआ)
जैसी बयानबाजियां भी हुयीं। जाहिर तौर पर हर पार्टी अपने सेनापति तय करके ही मैदान
में उतरती है। भाजपा के लिए यह अवसर था कि वह इस निराशापूर्ण समय में उम्मीदों को
जगाने वाले किसी राजनेता को मैदान में उतारे। एक जमाने में अटलबिहारी वाजपेयी
भाजपा का चेहरा थे तब भाजपा के आलोचक उनको ‘मुखौटा’ कहकर उनके
सार्वजनिक प्रभाव को कम करने की कोशिश करते थे। बाद में लालकृष्ण आडवानी दो लोकसभा
चुनावों में दल का चेहरा रहे। जिसमें भाजपा को पराजय मिली। दो लोकसभा चुनावों की
पराजय से पस्तहाल भाजपा के सामने एक ही विकल्प था कि वो एक ऐसा चेहरा सामने लाए जो
उसे मैदान में फिर से खड़े होने और संभलने का मौका दे। कोई भी दल अनंतकाल तक अपने
नेता को नहीं ढोता। हर नेता का अपना समय होता है। जाहिर तौर पर आडवानी अपना
सर्वश्रेष्ठ पार्टी को दे चुके थे।
भाजपा पीढ़ीगत परिवर्तन से गुजर रही है। ऐसे में नरेंद्र मोदी अपने कार्यों
और कार्यशैली के बल पर भाजपा कार्यकर्ताओं की पहली पसंद बन चुके थे। उनके दल के
अन्य मुख्यमंत्री इस मायने में मोदी की लोकप्रियता के सामने अपने राज्यों तक सीमित
थे। दिल्ली में विराजे तमाम भाजपा नेताओं में कोई अपने राष्ट्रीय जनाधार का दावा
कर सके, ऐसी स्थिति नहीं थी। ऐसे में मोदी भाजपा के लिए एकमात्र विकल्प थे। समय ने
साबित किया कि भाजपा का फैसला ठीक था और आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के
संभावित उम्मीदवारों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरा हैं। कोई भी दल लोगों का
समर्थन मांगने जाता है तो उसके प्रचार अभियान में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में भी
उस नेता की छवि ही प्रस्तुत की जाती है। कांग्रेस के इस चुनाव अभियान का पूरा
केंद्र राहुल गांधी हैं। आप देखें तो कांग्रेस विज्ञापनों और होर्डिंग्स में सिर्फ
राहुल गांधी का चेहरा है जिसमें वे कुछ युवाओँ और विभिन्न अन्य वर्गों के लोगों के
साथ दिखते हैं। मनमोहन सिंह को छोड़िए, श्रीमती सोनिया गांधी का चेहरा भी
विज्ञापनों से गायब है। इसमें गलत भी क्या है? कांग्रेस पार्टी
राहुल गांधी को एक केंद्र में रखकर चुनाव लड़ रही है तो चेहरा उनका ही प्रमुख रहेगा।
इसी तरह जब भाजपा मोदी का चेहरा इस्तेमाल करती है तो वह लोगों की आलोचना के केंद्र
में आ जाती है। राहुल को केंद्र में रखने पर कोई आलोचना नहीं होती क्योंकि उन्हें
एक ऐसी पार्टी में होने की सुविधा प्राप्त है जो गांधी परिवार के नाम पर ही एकजुट
है। किंतु भाजपा की आलोचना इस आधार पर होती है कि वह व्यक्तिवादी या परिवारवादी
पार्टी नहीं हैं। किंतु हमें यह समझना होगा कि भाजपा स्वयं अपने तरीके से अपने दल
का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय किया है, तय करने के बाद क्या वह इस चेहरे का
वैसा ही इस्तेमाल नहीं करेगी जैसा उसने अटल जी या आडवानी जी का किया था।
इस
समय मोदी को घेरने के लिए जिस तरह के तर्क दिए जा रहे हैं, जरा-जरा सी बातें
निकाली और उछाली जा रही हैं वह बताती हैं, भाजपा के अभियान से किस कदर प्रतिपक्षी
दलों में घबराहट है। आज मनमोहन सिंह कहां हैं इसे देश जानना चाहता है पर विपक्षी
राजनेता भाजपा के बुर्जुर्गों के अपमान से पीड़ित हैं।जबकि भाजपा के सारे बड़े
नेता लोकसभा के मैदान में हैं आडवानी, डा. जोशी से लेकर राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र,
नितिन गडकरी, अरूण जेतली,सुषमा स्वराज सब मैदान में हैं। समान राजनीतिक आयु और
आकांक्षाओं वाले तमाम नेताओं के चलते भाजपा को पीढ़ीगत परिवर्तन में समस्या हुयी,
किंतु उसने अपने आपको संभाल लिया है और मोदी के नेतृत्व में एकजुट हो गयी है। यही
पीढ़ीगत परिर्वतन राहुल गांधी कांग्रेस में करना चाह रहे हैं, वे किस तरह संकटों
से दो-चार हैं कहने की आवश्यक्ता नहीं है। कांग्रेस इस काम में पिछड़ गयी, उसने
परिवर्तन को देर से पहचाना और ‘मनमोहन मंडली’ को ढोती रही, भाजपा
ने समय पर अपना कायाकल्प कर लिया इसलिए वह मैदान में नयी उर्जा से उतरी है। भाजपा
के इस बदलाव को भौंचक होकर देखने वाले इसमें कमियां निकालकर मोदी के अश्वमेध के रथ
को रोकना चाहते हैं, किंतु इसे रोकना तो सिर्फ जनता के बस में है। आलोचक तो मोदी
को हमेशा ताकतवर ही बनाते आए हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी , पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के बाद , नरेंद्र मोदी भारतीय जनता थे पार्टी का चेहरा बन चुके हैं यह दल में उनकी स्वीकार्यता या पकड़ का प्रमाण हैं , दल का नेता कौन हो यह दलीय मामला हैं ,कोई भी दल ऐसा नहीं हैं जिसमे स्व० बलराज मधोक और स्व ० नाना जी देशमुख, स्व ० अमृतपाद डांगे , स्व० मोरार जी देसाई ,स्व ० मधु लिमये जैसे लोग न हो , जिन्हे वक्त के साथ या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया गया हो या वे खुद राजनीति से विमुख हो गए हो या डा ० राम मनोहर लोहिया की भांति अलग दल बनाने पर मज़बूर हुए ,समय के साथ हर दल में परिवर्तन हुए हैं , भारतीय जनता पार्टी में जो घट रहा हैं वह कोई अनहोनी नहीं हैं। चुनाव के दौरान सच्चे- झूठे आरोप प्रत्यारोप लगना भी कोई नई बात नहीं हैं ,एक दृष्टि से सब कुछ वैसा ही हैं जैसा पहले था , पर कमोवेश, हर दल में व्यक्ति परक राजनीति के जरुरत से ज्यादा जोर के चलते , एक अप्रिय अनिश्चित राजनैतिक स्थिति बनी हुई हैं क्योकि पहले ऐसे दल कम थे , लोगो के पास विकल्प था अब विकल्प का अभाव हैं , यह धारा या आश्रिता, भावी राजनीति को किस मुकाम पर ले जाएगी कुछ कहा नहीं जा सकता हैं। मौजूदा स्थिति को देख कर कभी कभी लगता हैं कि 'एक ही हमाम में सभी नहा रहे हैं चाहे वह हम हो या राजनीति हो
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