शनिवार, 12 अप्रैल 2014

ऐतिहासिक चुनाव अभियान और निशाने पर मोदी


-संजय द्विवेदी
      हिंदुस्तान के लोकतांत्रिक इतिहास में शायद ये सबसे महत्वपूर्ण चुनाव हैं, जिसमें दिल्ली की गद्दी के बैठै शासकों के बजाए गुजरात राज्य के विकास माडल और उसके मुख्यमंत्री के चाल, चेहरे और चरित्र पर बात हो रही है। प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब और उनके बयान बताते हैं कि देश पिछले दस सालों से कैसे बेचारे प्रधानमंत्री के हवाले था। इस पूरी चुनावी जंग से वे गायब हैं। प्रचार अभियान से भी गायब हैं। विपक्षी दल भी अति उदारता बरतते हुए उन्हें निशाने पर नहीं ले रहे हैं।
   जाहिर तौर पर मनमोहन सिंह के लिए सहानुभूति चौतरफा है। ऐसे ईमानदार प्रधानमंत्री जिनके शासनकाल में घोटालों के अब तक के तमाम रिकार्ड टूट गए। ऐसे महान अर्थशास्त्री जिनके राज में देश की अर्थव्यवस्था औंधें मुंह गिरी हुयी है और महंगाई अपने चरम पर है। किंतु इतिहास की इस घड़ी में वे ही ऐसे हैं जो कांग्रेस के पहले गैर गांधी प्रधानमंत्री हैं जो बिना गांधी हुए कुर्सी पर दस साल का वक्त काट ले गए। इसके पहले पीवी नरसिंह राव ही थे जो पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे, किंतु मनमोहन सिंह ने उनका भी रिकार्ड तोड़ दिया। शायद उनके गैर राजनीतिक होने का लाभ उन्हें मिला और वे इतनी लंबी पारी खेल ले गए। अपने पूरे दस साल के कार्यकाल में वे दो ही बार सक्रिय नजर आए। एक अमरीका से साथ परमाणु करार को स्वीकारने के समय और दूसरे रिटेल में एफडीआई लागू करवाने के वक्त। जाहिर तौर पर ये दोनों कदम भारत की जनता को रास नहीं आए पर उन्होंने इसे संभव किया और इन दो अवसरों पर वे सरकार गिराने की हद तक आत्मविश्वासी और साहसी दिखे। लेकिन जाते-जाते उन्होंने न सिर्फ दल बल्कि देश को एक अविश्वास और निराशा से भर दिया। मनमोहन सिंह राजनीति इस कदर निराश करती है कि एक राज्य के नेता नरेंद्र मोदी भी हमें आदमकद दिखने लगे। निराशा यहां तक घनी थी कि लोग अरविंद केजरीवाल जैसे साधारण कद काठी के एक आंदोलनकारी को भी विकल्प के रूप में देखने लगे। जबकि अनुभव, विद्वता और ईमानदारी में जब मनमोहन सिंह जी प्रधानमंत्री बने थे तो एक चमकते चेहरे थे। आज उनकी सारी योग्यताएं औंधे मुंह पड़ी हैं। हालात यह हैं कि लोग उनके बारे में इस बेहद रोमांचक और हाईपर चुनाव में भी बात नहीं करना चाहते। देखें तो सारी चर्चा के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं। यानी कि कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने मान लिया है कि मोदी प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं और उनको रोकना जरूरी है।
   राहुल गांधी, मुलायम सिंह,मायावती, ममता बनर्जी,नीतिश कुमार सबके निशाने पर नरेंद्र मोदी है। ऐसे में लगता है कि नरेंद्र मोदी ने अपने सधे हुए चुनाव अभियान से न सिर्फ अपने प्रतिपक्षियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है वरन कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत हताशा भर दी है। चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी बढ़ने शुरू हुए उससे भी भाजपा को एक मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलनी प्रारंभ हो गयी थी। फिर तमाम नेताओं का भाजपा प्रवेश भी यह संदेश देने में सफल रहा कि हवा बदल रही है। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज का साथ भाजपा के सामाजिक आधार को स्वीकृति दिलाने वाला साबित हुआ तो तमाम दिग्गज कांग्रेसियों से भाजपा प्रवेश ने एक नई तरह की शुरूआत कर दी। मप्र में हाल में तीन कांग्रेस विधायक भाजपा की शरण में जा चुके हैं। इसके साथ ही कांग्रेस के कई सांसद उदयप्रताप सिंह (होशंगाबाद), जगदंबिका पाल (डुमरियागंज) भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इन हालात ने कांग्रेस के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसके साथ ही उसके सहयोगी दल भी चुनाव प्रचार में मोदी के साथ कांग्रेस पर ही हमले कर रहे हैं। आप देखें तो समय ने इतिहास की इस घड़ी में नरेंद्र मोदी को बैठै-बिठाए अनेक अवसर दिए। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के नेतृत्व में छेड़े गए ऐतिहासिक आंदोलन। इन आंदोलनों से निपटने का कांग्रेस का जो तरीका रहा, उसने जनता में गुस्सा भरा और भाजपा को एक विकल्प के रूप में देखने के लिए विचारों का निर्माण किया। भाजपा भी पिछले दो लोकसभा चुनाव हारकर आत्मविश्वास से रिक्त हो चुकी थी। इन आंदोलनों में सहयोग करते हुए उसने अपनी मैदानी सक्रियता बढ़ाई। पीढ़ीगत परिवर्तन से गुजर रही भाजपा को नरेंद्र मोदी एक उम्मीद की तरह नजर आने लगे। इस बीच अरविंद केजरीवाल के साथियों ने राजनीति में प्रवेश कर दिल्ली में चुनावी सफलता तो पा ली किंतु वे उस सफलता को संभाल नहीं पाए। अनुभवहीनता और महत्वाकांक्षांओं के भंवर में फंसकर उन्होंने एक बार फिर मोदी और भाजपा को ही ताकत दी। केजरीवाल आज खुद अपनी विफलता को स्वीकार कर चुके हैं। किंतु इस घटना ने देश के लोगों को मजबूर कर दिया कि वे भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी को एक बार अवसर देने का मन बनाएं।
  नरेंद्र मोदी की समूची राजनीतिक यात्रा में उफान उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद ही आया। किंतु बहुत संयम से उन्होंने अपने आपको गुजरात तक सीमित रखा और अपनी महत्वाकाक्षाएं प्रकट नहीं होने दीं। इस बीच वे गुजरात में काम करते रहे और अपनी लाईन बड़ी करते गए। 2002 के दंगों के आरोपों के बावजूद वे बिना हो-हल्ले और मीडिया से सीमित संवाद करते हुए कानूनी मोर्चों और मीडिया की एकतरफा वारों को सहते हुए आगे बढ़ते गए। इतिहास की इस घड़ी में समय ने यह अवसर उनके लिए स्वयं बनाया, क्योंकि भाजपा दो लोकसभा चुनाव हार कर एक नए चेहरे की तलाश में थी। मोदी गुजरात में खुद को साबित कर चुके थे। टेक्नोसेवी होने के नाते वे सोशल मीडिया और उसकी ताकत को पहचान रहे थे। गुजरात और खुद को उन्होंने एक ब्रांड की तरह स्थापित कर लिया। विकास और सुशासन उनके मूलमंत्र बने। इसे उन्होंने जितना किया, उतना ही विज्ञापित भी किया।
    केंद्र में एक फैसले न लेती हुयी सरकार। राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर  महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में पल रहे तमाम आंदोलन और बेचैनियां इस राष्ट्र को मथ रही थीं। नायक निराश कर रहे थे। युवा सड़कों पर थे। बदलाव के ताप से देश गर्म था। बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, श्रीश्री रविशंकर जैसे तमाम लोग अलख जगा रहे थे। इस बीच दिल्ली में हुई नृशंश बलात्कार की घटना ने देश को झकझोर दिया। आप देखें तो देश स्वयं एक ऐसे नायक की तलाश कर रहा था जो इन चीजों को बदल सके। बड़ी संख्या में आए नौजवान वोटर, प्रोफेशनल्स की आकांक्षाएँ हिलोरे ले रही थीं। देश के युवा आईकान राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल निराश करते नजर आए। जाहिर तौर पर जो इस नाउम्मीदी में जो चेहरा नजर आया वह नरेंद्र मोदी का था। अपने साधारण अतीत और आकर्षक वर्तमान से जुड़ती उनकी कहानियां एक फिल्म सरीखी हैं। इसके लिए वे तैयार भी थे। शायद इसीलिए चुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये चुनाव एक लंबी मुहिम के बाद लड़े जा रहे हैं। इस मुहिम में नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले अपना अभियान आरंभ कर दिया था। वे पूरे देश को मथ रहे थे। अब वे देश का चेहरा भी बन गए हैं। निश्चय ही अपने सामाजिक और भौगोलिक आधार में भाजपा आज भी कई राज्यों में अनुपस्थित है। किंतु इस चुनाव में मोदी के चेहरे के सहारे वह पूर्ण बहुमत के सपने भी देख रही है। भारत जैसे महादेश में कोई भी दल आज इस तरह का दावा नहीं कर सकता। किंतु ये चुनाव जिस अंदाज में लड़े जा रहे हैं उसमें राजग व भाजपा के समर्थकों के लिए मोदी उम्मीद का चेहरा हैं तो विरोधियों के लिए वे महाविनाशक हैं। उनके पक्ष और विपक्ष में सेनाएं सजी हुयी हैं। उनके खिलाफ विषवमन व आरोपों की एक लंबी धारा है तो दूसरी ओर उम्मीदों का एक आकाश भी है। अब फैसला तो जनता को लेना है कि वह किसके साथ जाना पसंद करती है हालांकि यह तो उनके विरोधी भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री पद के सभी उपलब्ध दावेदारों में मोदी सबसे चर्चित चेहरा हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) 

2 टिप्‍पणियां:

  1. चुनावी चेहरे का सही आईना ,
    गहरे विश्लेषण के लिए आपको बधाई ,

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  2. चुनावी चेहरे का सही आईना ,
    गहरे विश्लेषण के लिए आपको बधाई ,

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