बुधवार, 21 जुलाई 2010

कहां से आए हिंदू आतंकवादी ?


आखिर आरएसएस क्यों है निशाने पर
-संजय द्विवेदी
एक टीवी चैनल के खिलाफ आरएसएस के कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन को लेकर जैसी बातें की गयीं वह एक बहस का हिस्सा जरूर हैं पर इससे देश को क्या मिलेगा? बहस दरअसल इस बात पर होनी चाहिए कि खबरों को पुष्ट किए बिना ले उड़ने की जो वर्तमान टीवी पत्रकारिता है वह कितनी उचित है। दिल्ली की शिक्षिका उमा खुराना के प्रकरण से लेकर गुजरात की लड़की इशरत हो या आरूषि हत्याकांड के मामले हमारे सामने हैं जहां टीवी मीडिया ने अपनी गैरजिम्मेदार रिर्पोटिंग से माहौल को खराब किया। इस बार भी आरएसएस की भूमिका को संदेहास्पद बनाना उसी सोच का हिस्सा है जिसका शिकार वह आजादी के बाद से लगातार होता आया है। लेकिन इससे आरएसएस की न तो ताकत घटी न ही उसकी देशनिष्ठा पर विरोधियों ने भी शक किया। आज जैसी भूमिका इलेक्ट्रानिक मीडिया खबरों को लेकर निभा रहा उस पर सवालिया निशान उठते ही रहे हैं। खबरों को जल्दी देने की त्वरा ही इसके पीछे जिम्मेदार नहीं है उसके पीछे वह मानसिकता भी है जो आरएसएस के खिलाफ सालों से बनाई गयी है। जैसे कि हिंदू आतंकवाद शब्द का सृजन। आप कहना क्या चाहते हैं, क्या आतंक पंथों और धर्मों का होता है। आतंकवाद से लड़ने के मामले पर चयनात्मक रूख नहीं अपनाया जा सकता है। उसे जातियों, पंथों, धर्मों में बांटकर हम कमजोर ही करेंगें। आरएसएस पर हिंदू आतंकवाद की तोहमत लगाने के पहले क्या उसका पक्ष जानने की कोशिश हुयी ? एक संगठन के तौर पर हर तरह की आतंकी गतिविधि को संघ ने हमेशा खारिज किया और कहा कि उसका इस तरह की कामों में यकीन नहीं है। अब आप उसकी तुलना सिमी, अलकायदा या लश्कर तैयबा से करने लगें तो यह जायज नहीं है। एक चीज के खिलाफ दूसरी चीज है ही नहीं, तो उसे मीडिया क्यों खड़ा करना चाहता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा क्या है कि वह देश के तमाम बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्र में रहता है। ऐसा क्या कारण है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी उसे संदेह की नजर से देखता है। बिना यह जाने कि आखिर उसका मूल विचार क्या है। आरएसएस को न जानने वाले और जानकर भी उसकी गलत व्याख्या करनेवालों की तादाद इतनी है कि पूरा सच सामने नहीं आ पाता। आरएसएस के बारे में बहुत से भ्रम हैं कुछ तो विरोधियों द्वारा प्रचारित हैं तो कुछ ऐसे हैं जिनकी गलत व्याख्या कर विज्ञापित किया गया है। आरएसएस की काम करने की प्रक्रिया ऐसी है कि वह काम तो करता है प्रचार नहीं करता। इसलिए वह कही बातों का खंडन करने भी आगे नहीं आता। ऐसा संगठन जो प्रचार के काम में भरोसा नहीं करता और उसके कैडर को सतत प्रसिध्दि से दूर रहने का पाठ ही पढ़ाया गया है वह अपनी अच्छाइयों को बताने के आगे नहीं आता, न ही गलत छप रही बातों का खंडन करने का अभ्यासी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आरएसएस के बारे में जो कहा जाता है, वह कितना सच है।
जैसे कि आरएसएस के बारे में यह कहा जाता है कि वह मुस्लिम विरोधी है। जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच नामक संगठन बनाकर मुस्लिम समाज के बीच काम कर रहा है। संघ का मानना है कि यह देश तभी प्रगति कर सकता है जब उसके सभी नागरिक राष्ट्रजीवन में सामूहिक योगदान दें। संघ के एक अत्यंत वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार मुस्लिम समाज को जोड़ने के इस काम में लगे हैं। संघ का मानना है कि पूजा-पद्धति में बदलाव से राष्ट्र के प्रति किसी समाज की निष्ठा कम नहीं होती। हमारे पूर्वज एक हैं इसलिए हम सब एक हैं। संघ किसी पूजा उपासना पद्धति के खिलाफ नहीं है, वह तो राष्ट्रमंदिर का पुजारी है। उसकी सोच है कि देश सर्वोपरि है, उसके बाद सब हैं। ईसाई मिशनरियों से भी संघ का संघर्ष किसी द्वेष भावना के चलते नहीं है, धर्मपरिवर्तन के उनके प्रयासों के कारण है। संघ का मानना है प्रलोभन देकर कराया जा रहा धर्मांतरण उचित नहीं है। शायद इसीलिए दुनिया भर में मीडिया का उपयोग कर संघ की छवि बिगाड़ी गयी। वनवासी क्षेत्रों में लोभ के आधार पर कराया जा रहा धर्मांतरण संघर्ष की एक बड़ी वजह बना हुआ है।
आरएसएस के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों का विरोधी है। सच्चाई यह है कि आरएसएस के प्रातः स्मरण में महात्मा गांधी का जिक्र अन्य स्मरीय महापुरूषों के साथ किया गया है। स्वदेशी और स्वालंबन की गांधी की नीति का संघ कट्टर समर्थक है। वह मानता है कि गांधी के रास्ते से भटकाव के चलते ही उनके अनुयायियों ने देश का कबाड़ा किया। ध्यान दें केंद्र में वाजपेयी सरकार के समय भी आर्थिक नीतियों पर संघ के मतभेद सामने आए थे उसके पीछे स्वदेशी की प्रेरणा ही थी। कहने की जरूरत नहीं कि संघ पर गांधी जी हत्या का आरोप भी झूठा था जिसे अदालत ने भी माना। गांधी जी स्वयं अपने जीवन काल में संघ की शाखा में गए और वहां के अनुशासन, सामाजिक एकता और साथ मिलकर भोजन करने की भावना को सराहा। वे इस बात से खासे प्रभावित हुए कि यहां जांत-पांत का असर नहीं है।
संघ की राजनीति में बहुत सीमित रूचि है। राजनीति में अच्छे लोग जाएं और राष्ट्रवादी सोच के तहत काम करें संघ की इतनी ही मान्यता है। वह किसी दल के साथ अच्छी या बुरी सोच नहीं रखता बल्कि उस दल के आचरण के आधार पर अपनी सोच बनाता है। जैसे कि श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की भी कुछ प्रसंगों पर संघ ने सराहना की। सरदार वल्लभभाई पटेल को भी उसने आदर दिया। जबकि ये कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे। संघ की राजनीति दरअसल चुनावी और वोट बैंक की सोच से उपर की है, उसने सदैव देश और देश की जनता के हित को सिर माथे लिया है। हम देखें तो संघ की समस्त राष्ट्रीय चिंताएं आज सामने प्रकट रूप में खड़ी हैं। संघ ने नेहरू की काश्मीर नीति की आलोचना की तो आज उसका सच सामने है। हजारों कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी बनने के लिए विवश होना पड़ा। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बनाया तो आज पूर्वांचल और बंगाल ही नहीं पूरे देश में हमारी सुरक्षा को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया है। जिसका सबसे ज्यादा असर आज असम में देखा जा रहा है। संघ ने अपनी प्रतिनिधि सभा की बैठकों में 1980 में सबसे पहले यह मुद्दा उठाया।1982,1984,1991 की संघ की प्रतिनिधि सभा के बैठकों के प्रस्ताव देखें तो हमारी आंखें खुल जाएंगीं। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर संघ की चिंताएं ही आज भारतीय राज्य की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। 1990 में संघ की प्रतिनिधि सभा ने आतंकवादी उभार पर अपनी बैठक में प्रस्ताव पास किया। आज 2010 में वह हमारी सबसे बड़ी चिंता बन गया है। इसी तरह अखिलभारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में 1990 में ही हैदराबाद में आरएसएस ने आतंकवाद पर सरकार की ढुलमुल नीति को निशाने पर लेते हुए प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में वह आतंकवाद और नक्सलवाद के दोनों मोर्चों पर विचार करते हुए बात कही गयी थी। इस तरह देखें तो आरएसएस की चिंता में देश सबसे पहले है और देश की लापरवाह राजनीति को जगाने और झकझोरने का काम वह अपने तरीके से करता रहता है।
आरएसएस को उसके आलोचक कुछ भी कहें पर उसका सबसे बड़ा जोर सामाजिक और सामुदायिक एकता पर है। आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने और वृहत्तर हिंदू समाज की एकता और शक्ति को जगाने के उसके प्रयास किसी से छिपे नहीं हैं। वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठन संघ की प्रेरणा से ही सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। शायद इसीलिए ईसाई मिशनरियों के साथ उसका संधर्ष देखने को मिलता है। आरएसएस के कार्यकर्ताओं के लिए सेवा का क्षेत्र बेहद महत्व का है। अपने स्कूल, कालेजों, अस्पतालों के माध्यमों से कम साधनों के बावजूद उन्होंने जनमानस के बीच अपनी पैठ बनाई है। देश पर पड़ी आपदाओं के समय हमेशा संघ के स्वयंसेवक सेवा के लिए तत्पर रहे। 1950 में संघ के तत्कालीन संघ चालक श्रीगुरू जी ने पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की मदद के लिए आह्वान किया। 1965 में पाक आक्रमण के पीड़ितों की सहायता का काम किया,1967 में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए संघ आगे आया, 1978 के नवंबर माह में दक्षिण के प्रांतों में आए चक्रवाती तूफान में संघ आगे आया। इसी तरह 1983 में बाढ़पीडितों की सहायता, 1991 में कश्मीरी विस्थापितों की मदद के अलावा तमाम ऐसे उदाहरण हैं जहां पीड़ित मानवता की मदद के लिए संघ खड़ा दिखा। इस तरह आरएसएस का चेहरा वही नहीं है जो दिखाया जाता है। हर संगठन समय के साथ अपने को परिष्कृत करता है और नए विचारों को शामिल करता है। ऐसे समय में जब संघ मुस्लिम समाज से एक संवाद विकसित करता चुका है और संवाद के नए अवसरों की तलाश कर रहा है। उसे आतंकवादी गतिविधियों का पोषक बताना न्याय नहीं है। सभी संगठनों में कुछ भटके हुए लोग होते हैं संभव है कि कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें आरएसएस के काम करने में आस्था न हो और वे अलग रास्ता लेकर अतिवादी राह पकड़ लेते हों। किंतु इसके लिए संघ को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। वह हर तरह की हिंसा के खिलाफ है और ऐसे में सिर्फ सस्ती लोकप्रियता या मीडिया के द्वारा टीआरपी के लिए उसे आरोपित करना ठीक नहीं है।
संकट यह है कि आरएसएस का मार्ग ऐसा है कि आज की राजनीतिक शैली और राजनीतिक दलों को वह नहीं सुहाता। वह देशप्रेम, व्यक्ति निर्माण के फलसफे पर काम करता है। वह सार्वजनिक जीवन में शुचिता का पक्षधर है। वह देश में सभी नागरिकों के समान अधिकारों और कर्तव्यों की बात करता है। उसे पीड़ा है अपने ही देश में कोई शरणार्थी क्यों है। आज की राजनीति चुभते हुए सवालों से मुंह चुराती है। संघ उससे टकराता है और उनके समाधान के रास्ते भी बताता है। संकट यही है कि आज की राजनीति के पास न तो देश की चुनौतियों से लड़ने का माद्दा है न ही समाधान निकालने की इच्छाशक्ति। आरएसएस से इसलिए इस देश की राजनीति डरती है। वे लोग डरते हैं जिनकी निष्ठाएं और सोच कहीं और गिरवी पड़ी हैं। संघ अपने साधनों से, स्वदेशी संकल्पों से, स्वदेशी सपनों से खड़ा होता स्वालंबी देश चाहता है,जबकि हमारी राजनीति विदेशी पैसे और विदेशी राष्ट्रों की गुलामी में ही अपनी मुक्ति खोज रही है। जाहिर तौर पर ऐसे मिजाज से आरएसएस को समझा नहीं जा सकता। आरएसएस को समझने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की जरूरत है। क्या वो हमारे पास है ?

4 टिप्‍पणियां:

  1. संजय जी , बहुत ही बढ़िया लेख है , बधाई आपने अपनी हंस दृष्टी से , अपने नीर क्षीर विवेक से जिस तरह से तथ्यों को प्रस्तुत किया बहुत ही बढ़िया , इस लेख को पढ़ने के बाद आर. एस .एस के बारे में व्याप्त भ्रम दूर होगें आपने हमेशा की तरह लेख को रुचिकर बना दिया है वरना अब ये विषय बड़े ही नीरस से लगते है लेकिन जब आपकी लेखनी से होकर गुजरते है तो रूचि कर लगने लगते है -लिखते रहिये शुभकामना -ममता व्यास

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  2. ...बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!

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  3. वाकई सर मीडिया को अपना दायरा और दायित्व बखूबी समझ लेना चाहिए...उसका काम सच्चई को सामने रखना है...न कि किसी को भी शक के दायरे में लेकर उन्हें फिजूल में परेशान करना...

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  4. आपका लेख आज दैनिक जनगरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है. हार्दिक शुभकामनाएँ.

    http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2010-07-23&pageno=9

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