रविवार, 12 जून 2022

शिवाजीः सुशासन, समरसता, सामाजिक न्याय के वाहक

 

-प्रो.संजय द्विवेदी

   शिवाजी का नाम आते ही शौर्य और साहस की प्रतिमूर्ति का एहसास होता है। अपने सपनों को सच करके उन्होंने खुद को न्यायपूर्ण प्रशासक रूप में स्थापित किया। इतिहासकार भी मानते हैं कि उनकी राज करने की शैली में परंपरागत राजाओं और मुगल शासकों से अलग थी। वे सुशासन, समरसता और न्याय को अपने शासन का मुख्य विषय बनाने में सफल रहे। बिखरे हुए मराठों को एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने जिस तरह अपने सपनों को साकार किया वह प्रेरित करने वाली कथा है। एक अप्रतिम सैनिक, कूटनीतिज्ञ, योद्धा के साथ ही वे कुशल रणनीतिकार के रूप में भी सामने आते हैं। वे अपनी मां जीजाबाई और गुरू के प्रति बहुत श्रद्धाभाव रखते थे। शायद इन्हीं समन्वित मानवीय गुणों से वे ऐसे शासक बने जिनका कोई पर्याय नहीं है।

लोकमंगल रहा शिवाजी का शासन सूत्र-                                                                                                                          

    इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद कहते हैं- प्रशासन की उनकी प्रणाली कई क्षेत्रों में मुगलों से बेहतर थी। इतिहास के पन्नों में ऐसा शासक कभी-कभी आता है, जिसने लोकमन में जगह बनाई हो। शिवाजी एक ऐसे शासक हैं जिनके प्रति उनकी प्रजा में श्रद्धाभाव साफ दिखता है क्योंकि लोकमंगल ही उनके शासन का मूलमंत्र था। उनकी राज्य प्रणाली, प्रशासन में आम आदमी के लिए, स्त्रियों के लिए, कमजोर वर्गों के लिए ममता है, समरसता का भाव है। वे न्यायपूर्ण व्यवस्था के हामी हैं। प्रख्यात इतिहासकार डा. आरसी मजूमदार की मानें तो शिवाजी न केवल एक साहसी सैनिक और सफल सैन्य विजेता थे,बल्कि अपने लोगों के प्रबुद्ध शासक भी थे। बाद के इतिहासकारों ने तमाम अन्य भारतीय नायकों की तरह शिवाजी के प्रशासक स्वरूप की बहुत चर्चा नहीं की है। आज भारतीय पुर्नजागरण का समय है और हमें अपने ऐसे नायकों की तलाश है, जो हमारे आत्मविश्वास को बढ़ा सकें। ऐसे समय में शिवाजी की शासन प्रणाली में वे सूत्र खोजे जा सकते हैं, जिससे देश में एकता और समरसता की धारा को मजबूत करते हुए समाज को न्याय भी दिलाया जा सकता है।शिवाजी अपने समय के बहुत लोकप्रिय शासक थे। उन पर जनता की अगाध आस्था दिखती थी। साथ ही उनके राजतंत्र में बहुत गहरी लोकतांत्रिकता भी दिखती है। क्योंकि वे अपने विचारों को थोपने के बजाए या राजा की बात भगवान की बात है ऐसी सोच के बजाए अपने मंत्रियों से सलाहें लेते रहते थे। विचार-विमर्श उनके शासन का गुण हैं। जिससे वे शासन की लोकतांत्रिक चेतना को सम्यक भाव से रख पाते हैं।

सत्ता का विकेंद्रीकरण और सामाजिक संतुलन-

शिवाजी ऐसे शासक हैं जो सत्ता के विकेंद्रीकरण की वैज्ञानिक विधि पर काम करते हुए दिखते हैं। समाज के सभी वर्गों,जातियों, सामाजिक समूहों की अपनी सत्ता में वे भागीदारी सुनिश्चित करते हैं, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं। उन्होंने मंत्रियों को अलग-अलग काम सौंपे और उनकी जिम्मेदारियां तय कीं ताकि अनूकूल परिणाम पाए जा सकें। वे परंपरा से अलग हैं इसलिए वे अपने नागरिकों या सैन्य अधिकारियों को कोई जागीर नहीं सौंपते। किलों( दुर्ग) की रक्षा के लिए उन्होंने व्यवस्थित संरचनाएं खड़ी की ताकि संकट से जूझने में वे सफल हों। रक्षा और प्रशासन के मामलों को उन्होंने सजगता से अलग-अलग रखा और सैन्य अधिकारियों के बजाए प्रशासनिक अधिकारियों को ज्यादा अधिकार दिए। उनकी यह सोच बताती है नागरिक प्रशासन उनकी चिंता के केंद्र में था। उन्होंने राजस्व प्रणाली में व्यापक सुधार करते हुए किसानों से सीधा संपर्क और संवाद बनाने में सफलता पाई। उन्होंने केंद्रीय प्रशासन और प्रांतीय प्रशासन की साफ रचना खड़ी और उनके अधिकार व कर्तव्य भी सुनिश्चित किए। उन्होंने अष्ट प्रधान नाम से केंद्रीय मंत्रियों की टोली बनाई जिसमें आठ मंत्री थे। उनमें कुछ पेशवा कहे गए जो वरिष्ठ थे। चार प्रांतों विभक्त शिवाजी की राज्य रचना एक अनोखा उदाहरण थी। प्रत्येक प्रांत को जिलों और गांवों में बांटा गया था। गांव का प्रमुख देशपाण्डेय या पटेल कहलाता था। शिवाजी गांवों में राजस्व प्रणाली को वैज्ञानिक बनाने का काम किया और उनको किसानों के लिए उपयोगी बनाया। इस व्यवस्था में किसान किस्तों में भी भुगतान कर सकते थे। राज्यस्व अधिकारियों पर नियंत्रण रहे इसलिए नियमित उनके खातों की गहन जांच भी की जाती थी। उन्होंने न्यायिक प्रशासन को भी जवाबदेह बनाया।

सैन्य प्रणाली में किए नए प्रयोग-

  शिवाजी स्वयं योद्धा थे। जाहिर तौर पर उनकी सैन्य प्रणाली बहुत अग्रगामी थी। पूर्व की परंपरा में सैनिक छः माह काम करते थे फिर छः माह दूसरे कामों से अपना जीवन यापन करते थे। शिवाजी ने नियमित सेना को स्थापित किया, उन्हें पूरे साल सैनिक जीवन जीना होता था। सैनिकों को नियमित भुगतान के साथ उनकी योग्यता और देशभक्ति के आधार पर जगह मिलने लगी। शिवाजी ने लगभग 280 किलों के माध्यम से अभेद्य रचना खड़ी की। उनकी सेना में कठोर अनुशासन था। सेना में सभी वर्गों के सैनिक थे। 700 से अधिक मुस्लिम भी उनकी सेना में थे।अपने सैनिकों को उन्होंने गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित कर बड़ी सफलताएं पाईं। मृत सैनिकों के परिजनों का खास ख्याल रखा जाता था। इसके साथ ही उन्होंने बहुत अनुशासित सेना खड़ी की। सेना में अनुशासन बनाए रखने के लिए शिवाजी बहुत सख्त थे। महिलाओं और बच्चों को मारना या प्रताड़ित करना, ब्राह्मणों को लूटना, खेती को खराब करना आदि युद्ध के दौरान भी दंडनीय अपराध थे। अनुशासन के रखरखाव के लिए विस्तृत नियम सख्ती से लागू किए गए थे। किसी भी सैनिक को अपनी पत्नी को युद्ध के मैदान में ले जाने की अनुमति नहीं थी। शिवाजी ने अपनी सेना को सब तरह से सुसज्जित किया जिसमें छह विभाग थे। जो इस प्रकार हैं- घुड़सवार सेना, पैदल सेना, ऊंट और हाथी बटालियन, तोपखाने और नौसेना। यह विवरण बताता है कि उनका राज्यतंत्र किस तरह लोगों की सुरक्षा और शांति के लिए काम कर रहा था। वे प्रेरित करने वाले नेता था। इसलिए उनकी शक्ति बढ़ती चली गयी।उनके कट्टर दुश्मन औरंगज़ेब को स्वयं स्वीकार करना पड़ा कि "मेरी सेनाओं को उन्नीस वर्षों से उनके खिलाफ काम में लगाया गया है और फिर भी उनकी (शिवाजी की) स्थिति हमेशा बढ़ती रही है।"

उदार और सहिष्णु शासक-

  शिवाजी जी ने अपनी जंग मुगलों के विरूद्ध लड़ी, किंतु वे सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय के मंत्रदृष्टा थे। उन्होंने कभी किसी जाति और धर्म के विरूद्ध कभी कुछ न किया, न ही कहा। उनके शासन में सभी सुखी थे क्योंकि वे सबको अपना मानते थे। अपनी आठ सदस्यीय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में उन्होंने सात ब्राम्हणों को जगह दी। वे बेहद सहिष्णु हिंदू शासक थे। उन्होंने साफ कहा कि वे हिंदुओं, ब्राम्हणों और गायों के रक्षक हैं। उन्होंने सभी पंथों और उनके ग्रंथों के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया। किसी मस्जिद को अपने राज में कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया न पहुंचने दिया। युद्ध के दौरान महिलाओं और बच्चों के सम्मान और सुरक्षा उनकी चिंता का मूल विषय थे।

    मुस्लिम महिलाओं को सम्मान देने की उनकी अनेक कथाएं बहुश्रुत हैं। उन्होंने मुस्लिम विद्वानों और आलिमों को हमेशा आर्थिक मदद दी। सरकारी विभागों में उन्होंने मुस्लिम अधिकारियों को नियुक्त किया। औरंगजेब द्वारा सभी हिंदुओं पर जजिया कर लगाने पर शिवाजी ने उसे एक पत्र भी लिखा। बहुत खराब सामाजिक परिस्थितियां और मुगल शासकों द्वारा हिंदु विरोधी कृत्यों के बाद भी शिवाजी ने अपने राज्य में मुस्लिम जनता को कभी पराएपन का एहसास नहीं होने दिया और उनका संरक्षण किया। उन्होंने यह नियम ही बना दिया था कि किसी भी युद्ध, छापामार युद्ध में महिलाओं, मस्जिदों और पवित्र पुस्तक कुरान को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।

  समग्रता में शिवाजी ऐसे भारतीय शासक के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी बाल्यावस्था में जो सपना देखा, उसे पूरा किया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास का मंत्र फूंका और भारतीय लोकचेतना के मानकों के आधार पर राज्य संचालन किया। मूल्यों और अपने धर्म पर आस्था रखते हुए उन्होंने जो मानक बनाए वे आज भी प्रेरित करते हैं। ऐसे महापुरुष सदियों में आते हैं, जिनका व्यक्तित्व और कृतित्व लंबे समय तक लोगों के लिए आदर्श बन जाता है।

रविवार, 30 जनवरी 2022

भारतबोध का नया समयः नए युगबोध का दस्तावेज

 

- इंदिरा दांगी

(समीक्षक देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)


   प्रोफेसर संजय द्विवेदी भारतीय पत्रकारिता के प्रतिष्ठित आचार्य हैं। उनकी नई पुस्तक भारतबोध का नया समयके पहले आलेख में (जो कि पुस्तक का शीर्षक भी है) मीडिया आचार्य संजय द्विवेदी वसुधैव कुटुम्बकम् (धरती मेरा घर है) की उपनिषदीय अवधारणा को बताते हुए इस धरा को, इस धरती को ऋषियों-ज्ञानियों की जननी मानते हैं और इसी का परिणाम वे मानते हैं कि इस देश में राजसत्तायें भी लोकसत्तायें रही हैं। आलेख पुनर्जागरण से ही निकलेंगी राहेंमें लेखक प्रसिद्ध विचार गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती हैकी रोशनी में अपनी बात रखते हैं। अपनी संस्कृति को लेकर नए समय के लोगों में जो हीनताबोध है, वही लेखक की चिंता है।

आज़ादी की ऊर्जा का अमृतआलेख में लेखक स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर पुरोधाओं की महान परंपरा को कृतज्ञता से याद करते हैं। और एकदम यहां अनायास ही अपने पढ़ने वालों के जहन में एक सवाल भी छोड़ते चलते हैं। इस आलेख में स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर सिर्फ कुछ गिने हुए महापुरुषों और हाईलाइट्सवाले आन्दोलनों का ही नाम नहीं लिया गया है, बल्कि वे जो सच्चे लोकनायक थे, जिनकी सब लड़ाईयां और शहादतें देश के लिए थीं, उन्हें भी समतुल्य खड़ा किया गया है। जय-विजय के बीच हम सबके रामआलेख पढ़ते हुए मुझे पंडित विद्यानिवास मिश्र का निबंध मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैयाद आने लगता है। लेखक ने यहां तुलसी के राम, कबीर के राम, रहीम के राम से लेकर गांधी और लोहिया के राम तक को याद किया है।

गौसंवर्धन से निकलेंगी समृद्धि की राहेंआलेख न सिर्फ गौवंश पर आधारित भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवलोकन करता है, वरन विश्व अर्थव्यवस्था में गाय के महत्त्व के साथ ही साथ उसके औषधीय महत्त्व पर भी रोशनी डालता है। एकात्म मानव दर्शन और मीडिया दृष्टिलेख में एक बहुत ही जरूरी बात है कि मीडिया की दृष्टि लोकमंगल की हो, समाज के शुभ की हो। इसी तरह चुनी हुई चुप्पियों का समयएक बहुत ही प्रासंगिक और समसमायिक आलेख है, और साथ ही इसकी विषय वस्तु कालातीत है। अद्भुत अनुभव है योगलेख को पढ़ते हुए आप इस पुस्तक में उस मुकाम तक पहुंच जाएंगे, जहां आपको लगेगा कि गौसंवर्धन का अर्थशास्त्रीय पहलू हो या नई शिक्षा नीति की बात या फिर वर्तमान राजनीति का सिनारियो या फिर विश्व योग के सिरमौर भारत पर चर्चाये पुस्तक वास्तव में इस नये समय में नये भारत को समझने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

मोदी की बातों में माटी की महकआलेख में लेखक भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के जननायक हो जाने के सफर की पड़ताल करते हुए उनकी भाषण कला, देहभाषा और लोकविमर्श की शक्ति पर चर्चा करते हैं। खुद को बदल रहे हैं अखबारलेख में ई-पत्रकारिता के इस दौर में परंपरागत समाचार पत्रों को नये समय की चुनौतियों से रूबरू कराते हैं द्विवेदी जी। अगले लेख पत्रकारिता में नैतिकतामें जहां आचार्य द्विवेदी ग्रामीण पत्रकारिता की उपेक्षा की बात करते हैं, वहां मुझे याद आता है कि जब किसी छोटी जगह पर कोई बड़ा आयोजन होता है या कोई राजनेता जाता है तो रिपोर्टिंग करने के लिए स्टेट या राजधानी से पत्रकार जाते हैं, मतलब ग्रामीण भारत कितना उपेक्षित है भारतीय पत्रकारिता में, जबकि फिल्मी अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की छोटी-से-छोटी खबर छपती हैं बड़े-बड़े अख़बारों में। मीडिया गुरु ने सही ही विषय लिया है इस आलेख में।

मीडिया शिक्षा के सौ वर्षमें लेखक ने पिछली एक सदी में मीडिया शिक्षा की दशा और दिशा से अवगत कराया है। संकल्प से सिद्धि का सूत्र मिशन कर्मयोगीआलेख में वे बताते हैं कि मिशन कर्मयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों की क्षमता निर्माण की दिशा में अपनी तरह का एक नया प्रयोग है। देश को श्रेष्ठ लोकसेवकों आवश्यकता है, और ये पहली बार है कि बात सरकारी सेवकों के कौशल विकास की हो रही है।

इस पुस्तक में इन आलेखों से आगे, पत्रकारिता के शलाका पुरुषों, देव पुरुषों पर लेख हैं। देवर्षि नारद, विवेकानंद, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, बाबा साहेब आंबेडकर, वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन पर आधारित आलेख हैं।

इस तरह इस किताब में, नए युगबोध का ऐसा कोई विषय नहीं जो अछूता हो; अपनी पुस्तक में लेखक ने नए भारत से हमें मिलवाया है, नए भारतबोध के साथ। किताब पढ़कर एक आम पाठक शायद आखिर में यही सोचे कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कैसी किताबें पढ़ाई जानी चाहिए-यकीनन भारत बोध का नया समयजैसी!!

पुस्तक : भारतबोध का नया समय

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

 



समकालीन भारत को समझने की कुंजी

                                                     - प्रो. कृपाशंकर चौबे

             (समीक्षक- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हैं)



जनसंचार के गंभीर अध्येता प्रो. संजय द्विवेदी की नई पुस्तक भारतबोध का नया समयका पहला ही निबंध इसी शीर्षक से है। भारतबोध की समझ को स्पष्ट करने के लिए लेखक ने गांधी, धर्मपाल, लोहिया, वासुदेव शरण अग्रवाल, निर्मल वर्मा से लेकर रामविलास शर्मा के राष्ट्रबोध संबंधी चिंतन का अवलंबन लिया है। इस निबंध में संजय द्विवेदी ठीक कहते हैं कि भारतीय दर्शन संपूर्ण जीव सृष्टि का दर्शन है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि समस्त ब्रह्मांड के मंगल की ही कामना सनातन धर्म करता है और अध्यात्मवाद भी। सर्वे भवन्ति सुखिनः’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्जैसी सूक्तियों को छोड़ भी दें तो प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में कहा गया है, ‘विश्व पुष्टं ग्रामे अस्मिन अनातुरम। अथर्ववेद में भी कहा गया है, ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु। भारतीय दर्शन में लोक को सबसे अधिक वरीयता दी जाती है। लोक कोरे मनुष्य नहीं, सारे जीव-जंतु, सभी वनस्पति, नदी, समुद्र, पहाड़ सबको लेकर बनता है। भारतीय दृष्टि चूंकि पेड़, पत्ते, दूब, पौधे, नदी, समुद्र, पहाड़ में दैवी सत्ता का साक्षात्कार करती है, इसीलिए वह उदात्त है। भारतबोध की शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की पुकार कुछ लोग सुन रहे हैं, कुछ सुनकर भी बहरे बने हुए हैं। वैसे ही लोग भारतबोध की बहस को बहकाने में लगे हैं। संजय द्विवेदी लिखते हैं कि विविधता में एकता देश की प्रकृति है। जाहिर है कि विविधता भारत की कमजोरी नहीं, शक्ति है। एक और महत्त्वपूर्ण बात संजय द्विवेदी ने कही है कि भारत राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना है।

इस सांस्कृतिक अवधारणा का विस्तार रवींद्रनाथ ठाकुर तक की रचनाओं में भी हम देख सकते हैं। भारत तीर्थकविता में टैगोर कहते हैं-आर्य अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सब यहां एक देह में लीन हो गए। यह देह ही भारतबोध है। उसी विश्व भ्रातृत्व भावना को विवेकानंद के शिकागो भाषण के संबोधन के चार शब्दों मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनोंमें समूचे विश्व ने साक्षात किया था। विवेकानंद इसीलिए विश्व को धर्म का मर्म समझा पाए थे। संजय द्विवेदी ने विवेकानंद को सही अभिप्राय में उद्धृत किया है। किताब में विवेकानंद पर एक स्वतंत्र अध्याय भी है। उसका शीर्षक है विवेकानंद : युवा शक्ति के प्रेरक। विवेकानंद ने कहा था, “उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं।विवेकानंद ने देशवासियों में ही ईश्वर को देखा था। उन्होंने कहा था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। इस महान विचार के कारण विवेकानंद सदा-सर्वदा प्रेरणा पुरुष बने रहेंगे।

पुस्तक में आजादी के अमृत महोत्सव पर स्वतंत्र अध्याय है, जिसमें संजय द्विवेदी बताते हैं कि कितने उत्कट बलिदानों के बाद आजादी मिली। आजादी के बाद के भारत को गढ़ने में जिनका भी योगदान रहा, उसका वे स्मरण करते हैं। इस तरह के प्रसंगों के कारण पूरी पुस्तक एकांगी होने के दोष से मुक्त है। इसी अध्याय में लेखक ने वेद और श्रीमद्भागवत गीता को उद्धृत कर अमृत महोत्सव का आशय बताया है। एक वैदिक ऋचा में कहा गया है, ‘मृत्योः मुक्षीय मामृतात्अर्थात हम दुःख, कष्ट, क्लेश और विनाश से निकलकर अमृत की तरफ बढ़ें। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘सम दुःख-सुखम् धीरम् सः अमृत त्वाय कत्यचेअर्थात जो सुख-दुःख, आराम, चुनौतियों के बीच भी धैर्य के साथ अटल, अडिग और सम रहता है, वही अमृत को, अमरत्व को प्राप्त करता है। लेखक ने स्वतंत्रता आंदोलन और पत्रकारिताशीर्षक अध्याय में जेल-जब्ती-जुर्मानेवाली पत्रकारिता का स्मरण किया है। पुस्तक में संकलित लोकमंगल है मीडिया का धर्म’, ‘पत्रकारिता में नैतिकता’, ‘नारद : लोकमंगल के संचार कर्ता’, ‘आंबेडकर और मूकनायक’, ‘भारतीय पत्रकारिता के कर्मवीर’, ‘एकात्म मानववाद और मीडिया दृष्टि’, ‘मन की बातशीर्षक लेख पत्रकारिता के विद्यार्थियों व अध्येताओं के लिए बहुत उपयोगी हैं। लगे हाथ मीडिया शिक्षा के सौ वर्षऔर राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर भी अलग-अलग अध्यायों में संजय द्विवेदी ने विहंगम दृष्टि डाली है। लेखक ने गांधी, माधव राव सप्रे, वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेंद्र मोदी की प्रेरणाओं के प्रयोजन को भी रेखांकित किया है। एक अलग अध्याय में लेखक ने नए भारत की चुनौतीपर विचार किया है, तो श्रीराम, गौसंवर्द्धन, योग, संसद, मिशन कर्मयोगी पर भी। समकालीन भारत और विमर्शों को समझने के लिए यह पुस्तक कुंजी का काम करेगी।

पुस्तक : भारतबोध का नया समय

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 500 रुपये

 प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

 अमेजन पर उपलब्ध-

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मंगलवार, 25 जनवरी 2022

गुलाम भारत का आजाद फौजी

 

- प्रो. संजय द्विवेदी



सफल जीवन के चार सूत्र कहे जाते हैं - जिज्ञासा, धैर्य, नेतृत्व की क्षमता और एकाग्रता। जिज्ञासा का मतलब है जानने की इच्छा। धैर्य का मतलब विषम परिस्थितयों में खुद को संभाले रखना। नेतृत्व की क्षमता यानी जनसमूह को अपने कार्यों से आकर्षित करना। और एकाग्रता का अर्थ है एक ही चीज पर ध्यान केंद्रित करना। अगर भारत के संदर्भ में हम देखें, तो किसी व्यक्ति के जीवन में ये चारों सूत्र चरितार्थ होते हैं, तो वो सिर्फ नेताजी सुभाष चंद्र बोस हैं। नेताजी ने एक ऐसी सरकार के विरुद्ध लोगों को एकजुट किया, जिसका सूरज कभी अस्‍त नहीं होता था। दुनिया के एक बड़े हिस्‍से में जिसका शासन था। अगर नेताजी की खुद की लेखनी पढ़ें, तो हमें पता चलता है कि वीरता के शीर्ष पर पहुंचने की नींव कैसे उनके बचपन में ही पड़ गई‍ थी।

वर्ष 1912 में यानी आज से 110 साल पहले, उन्‍होंने अपनी मां को जो चिठ्ठी लिखी थी, वो चिट्ठी इस बात की गवाह है कि नेताजी के मन में गुलाम भारत की स्थिति को लेकर कितनी वेदना थी। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 15 साल थी। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी ने देश का जो हाल कर दिया था, उसकी पीड़ा उन्‍होंने अपनी मां से पत्र के द्वारा साझा की थी। उन्‍होंने अपनी मां से पत्र में सवाल पूछा था कि, मां, क्‍या हमारा देश दिनों-दिन और अधिक पतन में गिरता जाएगा? क्‍या ये दुखिया भारत माता का कोई एक भी पुत्र ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह अपने स्‍वार्थ को तिलांजलि देकर, अपना संपूर्ण जीवन भारत मां की सेवा में समर्पित कर दे? बोलो मां, हम कब तक सोते रहेंगे?” इस पत्र में उन्‍होंने अपनी मां से पूछे गए सवालों का उत्तर भी दिया था। उन्‍होंने अपनी मां को स्‍पष्‍ट कर दिया था कि अब और प्रतीक्षा नहीं की जा सकती, अब और सोने का समय नहीं है, हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा, आलस्‍य त्‍यागना ही होगा और कर्म में जुट जाना होगा। अपने भीतर की इस तीव्र उत्‍कंठा ने उस किशोर सुभाष चंद्र को नेताजी सुभाष चंद्र बोस बनाया।

नेताजी कहा करते थे कि, “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है। इसलिए किसी को असफलता से घबराना नहीं चाहिए।इस छोटी सी पंक्ति के माध्यम से नेताजी ने असफल और निराश लोगों के लिए सफलता के नए द्वारा खोल दिए। यही सरलता और सहजता ही उनकी संचार कला का अभिन्न अंग थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के साथ-साथ पत्रकारिता भी की थी और उसके माध्यम से पूर्ण स्वराज के अपने स्वप्न और विचारों को शब्दबद्ध किया था। नेताजी ने 5 अगस्त, 1939 को अंग्रेजी में राजनीतिक साप्ताहिक समाचार पत्र फॉरवर्ड ब्लॉकनिकाला और 1 जून, 1940 तक उसका संपादन किया। इस अखबार के एक अंक की कीमत थी, एक आना। नेताजी ने अपनी पत्रकारिता का उद्देश्य पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य से जोड़ रखा था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्रकारिता में यह विवेक था कि सही बात का अभिनंदन और गलत का विरोध करना चाहिए। नेताजी अंग्रेजी शासन के धुर विरोधी थे, लेकिन ब्रिटेन के जिन अखबारों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम का समर्थन किया, उसकी प्रशंसा करते हुए उन अखबारों के मत को नेताजी ने अपने अखबार में पुनर्प्रस्तुत किया। नेताजी ने स्वाधीनता की लक्ष्यपूर्ति के लिए अखबार निकाला, तो रेडियो के माध्यम का भी उपयोग किया। 1941 में रेडियो जर्मनी से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीयों के नाम संदेश में कहा था, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।उसके बाद 1942 में आजाद हिंद रेडियोकी स्थापना हुई, जो पहले जर्मनी से और फिर सिंगापुर और रंगून से भारतीयों के लिए समाचार प्रसारित करता रहा। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियोसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पहली बार महात्मा गांधी के लिए राष्ट्रपितासंबोधन का प्रयोग किया था।

आजाद हिंद सरकार की स्थापना के समय नेताजी ने शपथ लेते हुए एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था, जहां सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान अवसर हों। आज स्‍वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भारत अनेक कदम आगे बढ़ा है, लेकिन अभी नई ऊंचाइयों पर पहुंचना बाकी है। इसी लक्ष्‍य को पाने के लिए आज भारत के सवा सौ करोड़ लोग नए भारत के संकल्‍प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। एक ऐसा नया भारत, जिसकी कल्‍पना नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने की थी। समाज के प्रत्‍येक स्‍तर पर देश का संतुलित विकास, प्रत्‍येक व्‍यक्ति को राष्‍ट्र निर्माण का अवसर और राष्ट्र की प्रगति में उसकी भूमिका, नेताजी के विजन का एक अहम हिस्‍सा था। नेताजी ने कहा था, हथियारों की ताकत और खून की कीमत से तुम्‍हें आजादी प्राप्‍त करनी है। फिर जब भारत आजाद होगा, तो देश के लिए तुम्‍हें स्‍थाई सेना बनानी होगी, जिसका काम होगा हमारी आजादी को हमेशा बनाए रखना।आज भारत एक ऐसी सेना के निर्माण की तरफ बढ़ रहा है, जिसका सपना नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने देखा था। जोश, जुनून और जज्‍बा, हमारी सैन्‍य परम्‍परा का हिस्‍सा रहा है। अब तकनीक और आधुनिक हथियारी शक्ति भी उसके साथ जोड़ी जा रही है। सशस्‍त्र सेना में महिलाओं की बराबर की भागीदारी हो, इसकी नींव नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही रखी थी। देश की पहली सशस्‍त्र महिला रेजिमेंट, जिसे रानी झांसी रेजिमेंट के नाम से जाना जाता है, भारत की समृद्ध परम्‍पराओं के प्रति सुभाष बाबू के आगाध विश्‍वास का परिणाम था।

नेताजी जैसे महान व्यक्तित्वों के जीवन से हम सबको और खासकर युवाओं को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। लेकिन एक और बात जो सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो है अपने लक्ष्य के लिए अनवरत प्रयास। अपने संकल्पों को सिद्धि तक ले जाने की उनकी क्षमता अद्वितीय थी। अगर वो किसी काम के लिए एक बार आश्वस्त हो जाते थे, तो उसे पूरा करने के लिए किसी भी सीमा तक प्रयास करते थे। उन्होंने हमें ये बात सिखाई कि, अगर कोई विचार बहुत सरल नहीं है, साधारण नहीं है, अगर इसमें कठिनाइयां भी हैं, तो भी कुछ नया करने से डरना नहीं चाहिए। अगर हमें नेताजी को याद रखना है, तो संपूर्ण दुनिया में अपने प्रत्येक विचार, सिद्धांत, व्यवहार को किसी जन समूह के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने वाले संचारक के रूप में याद रखना चाहिए। आज भारत में जनसंचार के विभिन्न माध्यम हैं। आजादी के पूर्व सीमित संचार के साधनों के बाद भी नेताजी लोकप्रिय हुए। वे तब लोकप्रिय हुए, जब जन संचार की कोई अधोसंरचना उपलब्ध नहीं थी। भारत जैसी विविधता वाले देश में एक राष्ट्र की अवधारणा को बढ़ावा देने का कार्य एक कुशल संचारक ही कर सकता था और यह कार्य नेताजी ने किया। नेताजी ने अपने व्यक्तित्व के प्रयास से स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित, किसान, मजदूर, पूंजीपति, सभी को प्रभावित किया और देश की स्वतंत्रता के लिए सबको एक साथ पिरोने का कार्य किया।

आज जिस मॉर्डन इंडिया को हम देख पा रहे हैं, उसका सपना नेताजी ने बहुत पहले देखा था। भारत के लिए उनका जो विजन था, वो अपने समय से बहुत आगे का था। नेताजी कहा करते थे कि अगर हमें वाकई में भारत को सशक्त बनाना है, तो हमें सही दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है और इस कार्य में युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। एकता, अखंडता और आत्‍मविश्‍वास की हमारी ये यात्रा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आशीर्वाद से निरंतर आगे बढ़ रही है।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 : बदलाव की बुनियाद

 

- प्रो. संजय द्विवेदी

ऐसा कहा जाता है कि, “जो आपने सीखा है, उसे भूल जाने के बाद जो रह जाता है, वो शिक्षा है।शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसे आप दुनिया बदलने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। जब देश में बड़ा बदलाव करना हो, तो सबसे पहले शिक्षा नीति को बदला जाता है। एक वर्ष पहले 29 जुलाई, 2020 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी थी। शिक्षा नीति किसी भी देश के भविष्य को तैयार करने का सबसे अहम पड़ाव होती है। यह किस राजनीतिक और आर्थिक माहौल में तैयार की गई है, इस पर विचार करना भी काफी अहम होता है। किसी भी शिक्षा नीति को चाहिए कि उसमें न केवल देश के संवैधानिक मूल्य शामिल रहें, बल्कि वह एक जागरुक और आधुनिक पीढ़ी तैयार करने के साथ ही सामाजिक कुरीतियों को भी दूर करे। शिक्षा ऐसा विषय है, जिसमें रातों-रात परिवर्तन होना मुश्किल है। लेकिन, अगर लागू करने वाले प्राधिकारियों में इच्छाशक्ति हो, तो बदलाव बहुत कठिन भी नहीं होता।   बीते बारह महीनों में नई शिक्षा नीति के हिसाब से कई परिवर्तनों की आधारशिला रखी गई है। बदलाव की यह बयार आने वाले दिनों में उस सोच को रूपायित करेगी, जिसकी कल्पना राष्ट्रीय शिक्षा नीति में की गई है। पिछले एक वर्ष में शिक्षकों और नीतिकारों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को धरातल पर उतारने में बहुत मेहनत की है। कोरोना के इस काल में भी लाखों नागरिकों से, शिक्षकों, राज्यों, ऑटोनॉमस बॉडीज से सुझाव लेकर, टास्क फोर्स बनाकर नई शिक्षा नीति को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा रहा है। बीते एक वर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को आधार बनाकर अनेक बड़े फैसले लिए गए हैं।  

आज से कुछ दिन बाद 15 अगस्त को हम आजादी के 75वें साल में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरह से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का कार्यान्वयन, आजादी के अमृत महोत्सव का प्रमुख हिस्सा है। 29 जुलाई, 2021 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की पहली वर्षगांठ के अवसर पर भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने जिन योजनाओं की शुरुआत की है, वे नए भारत के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगी। भारत के जिस सुनहरे भविष्य के संकल्प के साथ हम आजादी का अमृत महोत्सव मनाने जा रहे हैं, उस भविष्य की ओर हमें आज की नई पीढ़ी ही ले जाएगी। भविष्य में हम कितना आगे जाएंगे, कितनी ऊंचाई प्राप्त करेंगे, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि हम अपने युवाओं को वर्तमान में कैसी शिक्षा दे रहे हैं, कैसी दिशा दे रहे हैं। भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है।

कोरोना काल में हमारी शिक्षा व्यवस्था के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी। इस दौरान विद्यार्थियों की पढ़ाई का, जीवन का ढंग बदल गया। लेकिन विद्यार्थियों ने तेजी से इस बदलाव को स्वीकार किया। ऑनलाइन एजुकेशन अब एक सहज चलन बनती जा रही है। शिक्षा मंत्रालय ने भी इसके लिए अनेक प्रयास किए हैं। मंत्रालय ने दीक्षा प्लेटफॉर्म शुरु किया, ‘स्वयं पोर्टल पर पाठ्यक्रम शुरू किए और देशभर से विद्यार्थी इनका हिस्सा बन गए। दीक्षा पोर्टल पर पिछले एक वर्ष में 2300 करोड़ से ज्यादा हिट्स होना यह बताता है कि सरकार का यह कितना उपयोगी प्रयास रहा है। आज भी इसमें हर दिन करीब 5 करोड़ हिट्स हो रहे हैं। 21वीं सदी का युवा अपनी व्यवस्थाएं, अपनी दुनिया खुद अपने हिसाब से बनाना चाहता है। आज छोटे-छोटे गांवों से, कस्बों से निकलने वाले युवा कैसे-कैसे कमाल कर रहे हैं। इन्हीं दूर-दराज इलाकों और सामान्य परिवारों से आने वाले युवा आज टोक्यो ओलंपिक में देश का झंडा बुलंद कर रहे हैं, भारत को नई पहचान दे रहे हैं। ऐसे ही करोड़ों युवा आज अलग अलग क्षेत्रों में असाधारण काम कर रहे हैं, असाधारण लक्ष्यों की नींव रख रहे हैं। कोई कला और संस्कृति के क्षेत्र में पुरातन और आधुनिकता के संगम से नई विधाओं को जन्म दे रहा है, कोई रोबोटिक्स के क्षेत्र में कभी साई-फाई मानी जाने वाली कल्पनाओं को हकीकत में बदल रहा है, तो कोई आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में मानवीय क्षमताओं को नई ऊंचाई दे रहा है। हर क्षेत्र में भारत के युवा अपना परचम लहराने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। यही युवा भारत के स्टार्टअप ईको सिस्टम में क्रांतिकारी बदलाव कर रहे हैं, इंडस्ट्री में भारत के नेतृत्व को तैयार कर रहे हैं और डिजिटल इंडिया को नई गति दे रहे हैं। इस युवा पीढ़ी को जब इनके सपनों के अनुरुप वातावरण मिलेगा, तो इनकी शक्ति कितनी ज्यादा बढ़ जाएगी। इसीलिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति युवाओं को ये विश्वास दिलाती है कि देश अब पूरी तरह से उनके हौसलों के साथ है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि शिक्षा में हुए डिजिटल बदलाव पूरे देश में एक साथ हों और गांव-शहर सब समान रूप से डिजिटल लर्निंग से जुड़ें। नेशनल डिजिटल एजुकेशन आर्किटेक्चर और नेशनल एजुकेशन टेक्नोलॉजी फोरम इस दिशा में पूरे देश में डिजिटल और टेक्नोलॉजिकल फ्रेमवर्क उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभाएंगे। युवा मन जिस दिशा में भी सोचना चाहे, खुले आकाश में जैसे उड़ना चाहे, देश की नई शिक्षा व्यवस्था उसे वैसे ही अवसर उपलब्ध कराएगी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक नए तरह का खुलापन लिए हुए है। इसे हर तरह के दबाव से मुक्त रखा गया है। इसमें जो खुलापन पॉलिसी के स्तर पर है, वही खुलापन विद्यार्थियों को मिल रहे विकल्पों में भी है। अब विद्यार्थी कितना पढ़ें, कितने समय तक पढ़ें, ये सिर्फ बोर्ड्स और विश्वविद्यालय नहीं तय करेंगे। इस फैसले में विद्यार्थियों की भी सहभागिता होगी। मल्टीपल एंट्री और एग्जिट की जो व्यवस्था शुरू हुई है, इसने विद्यार्थियों को एक ही क्लास और एक ही कोर्स में जकड़े रहने की मजबूरी से मुक्त कर दिया है। आधुनिक टेक्नॉलोजी पर आधारित अकैडमिक बैंक ऑफ क्रेडिटसिस्टम से इस दिशा में विद्यार्थियों के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन आने वाला है। अब हर युवा अपनी रुचि से, अपनी सुविधा से कभी भी एक स्ट्रीम का चयन कर सकता है और उसे छोड़ भी सकता है। अब कोई कोर्स चुनते समय ये डर भी नहीं रहेगा कि अगर हमारा निर्णय गलत हो गया तो क्या होगा? इसी तरह Structured Assessment for Analyzing Learning levels यानीसफलके जरिए विद्यार्थियों के आंकलन की भी वैज्ञानिक व्यवस्था शुरू हुई है। ये व्यवस्था आने वाले समय में विद्यार्थियों को परीक्षा के डर से भी मुक्ति दिलाएगी। ये डर जब युवा मन से निकलेगा, तो नए-नए स्किल लेने का साहस और नए नए नवाचारों का दौर शुरू होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत जो नए कार्यक्रम शुरू हुए हैं, उनमें भारत का भाग्य बदलने का सामर्थ्य है। वर्तमान में बन रही संभावनाओं को साकार करने के लिए हमारे युवाओं को दुनिया से एक कदम आगे होना पड़ेगा। एक कदम आगे का सोचना होगा। स्वास्थ्य, रक्षा, आधारभूत संरचना या तकनीक, भारत को हर दिशा में समर्थ और आत्मनिर्भर होना होगा। आत्मनिर्भर भारतका ये रास्ता स्किल डेवलपमेंट और तकनीक से होकर जाता है, जिस पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विशेष ध्यान दिया गया है। पिछले एक साल में 1200 से ज्यादा उच्च शिक्षा संस्थानों में स्किल डेवलपमेंट से जुड़े सैकड़ों नए कोर्सेस को मंजूरी दी गई है।

बचपन की देखभाल और शिक्षा, ये दो ऐसे तत्व हैं, जो हर बच्चे के लिए पूरे जीवन भर सीखने और अच्छे भविष्य की नींव स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह एक अत्यंत रुचिकर और प्रेरक पहलू है कि इस नई शिक्षा नीति ने, कम उम्र में ही वैज्ञानिक कौशल विकसित करने के महत्व पर ध्यान केंद्रित किया है। वैदिक गणित, दर्शन और प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा से जुड़े विषयों को महत्त्व देने की कवायद भी नई शिक्षा नीति में की गई है। नई शिक्षा नीति विद्यार्थियों को अपनी परंपरा, संस्कृति और ज्ञान के आधार पर 'ग्लोबल सिटीजन' बनाते हुये उन्हें भारतीयता की जड़ों से जोड़े रखने पर आधारित है। यह नीति सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारपरक ज्ञान पर बल देती है, जिससे बच्चों के कंधे से बैग के बोझ को हल्का करते हुये उनको भावी जीवन के लिये तैयार किया जा सके। विश्व के प्रसिद्ध शिक्षाविद् जैक्स डेलर्स की अध्यक्षता में एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग की रिपोर्ट को वर्ष 1996 में यूनेस्को द्वारा प्रकाशित किया गया। इस रिपोर्ट में 21वीं सदी मे शिक्षा के चार आधार स्तंभ बताए गए थे। ये आधार स्तंभ हैं, ज्ञान के लिए सीखना, करने के लिए सीखना, होने के लिए सीखना और साथ रहने के लिए सीखना। भारत की नई शिक्षा नीति इन सभी बातों पर जोर देती है।

शिक्षा के विषय में महात्मा गांधी कहा करते थे, “राष्ट्रीय शिक्षा को सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय होने के लिए राष्ट्रीय परिस्थितियों को दर्शाना चाहिए। गांधी जी के इसी दूरदर्शी विचार को पूरा करने के लिए स्थानीय भाषाओं में शिक्षा का विचार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में रखा गया है। अब हायर एजुकेशन में मीडियम ऑफ इन्सट्रक्शन' के लिए स्थानीय भाषा भी एक विकल्प होगी। 8 राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कॉलेज, 5 भारतीय भाषाएं-हिंदी, तमिल, तेलुगू, मराठी और बांग्ला में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू करने जा रहे हैं। इंजीनिरिंग के कोर्स का 11 भारतीय भाषाओं में अनुवाद के लिए एक टूल भी बनाया जा चुका है। इसका सबसे बड़ा लाभ देश के गरीब वर्ग को, गांव-कस्बों में रहने वाले मध्यम वर्ग के विद्यार्थियों को, दलित-पिछड़े और आदिवासी भाई-बहनों को होगा। इन्हीं परिवारों से आने वाले बच्चों को सबसे ज्यादा लैंग्वेज डिवाइड यानी भाषा विभाजन का सामना करना पड़ता था। सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं परिवार के होनहार बच्चों को उठाना पड़ता था। मातृभाषा में पढ़ाई से गरीब बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ेगा, उनके सामर्थ्य और प्रतिभा के साथ न्याय होगा। ब्रिटिश काउंसिल ने वर्ष 2017 की अपनी एक रिपोर्ट में ये माना था कि अच्छी अंग्रेजी सीखने के लिए पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा ही होनी चाहिए। वर्ष 1991 की जनगणना के भाषा खंड की भूमिका में भी कहा गया है, ‘भाषा आत्मा का वह रक्त है, जिसमें विचार प्रवाहित होते और पनपते हैं।शिक्षा में मूल्यबोध, व्यापक दृष्टिकोण और सृजनात्मक कल्पना का साधन भी भाषा को ही माना गया है। प्रारंभिक शिक्षा में मातृभाषा को प्रोत्साहित करने का काम शुरू हो चुका है। 'विद्या प्रवेश' कार्यक्रम की इसमें बहुत बड़ी भूमिका है। प्ले स्कूल का जो कॉन्सेप्ट अभी तक बड़े शहरों तक ही सीमित है, 'विद्या प्रवेश' के जरिए वो अब दूर-दराज के स्कूलों तक जाएगा। ये कार्यक्रम आने वाले समय में वैश्विक कार्यक्रम के तौर पर लागू होगा और राज्य भी अपनी-अपनी जरुरत के हिसाब से इसे लागू करेंगे।

दिव्यांगों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले नोल हेल्म का कहना था, “Being disabled does not mean Un-abled, just Different Abled.” यानी दिव्यांग होने का मतलब यह नहीं है कि आप किसी कार्य को कर नहीं सकते, बल्कि आप उस कार्य को एक अलग और विशेष प्रकार से कर सकते हैं। और भारत की नई शिक्षा नीति दिव्यांगों के लिए इसी सोच पर जोर देती है। नई शिक्षा नीति में दिव्यांग जन अधिकार अधिनियम के तहत सभी दिव्यांग बच्चों के लिए अवरोध मुक्त शिक्षा मुहैया कराने की पहल की गई है। विशिष्ट दिव्यांगता वाले बच्चों को कैसे शिक्षित किया जाए, यह नई शिक्षा नीति के तहत सभी शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का एक अभिन्न अंग है। इसके अलावा दिव्यांग बच्चों के लिए सहायक उपकरण, उपयुक्त तकनीक आधारित उपकरण और भाषा शिक्षण संबंधी व्यवस्था करने की बात भी शिक्षा नीति में कही गई है। आज देश में 3 लाख से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं, जिनको शिक्षा के लिए सांकेतिक भाषा की आवश्यकता पड़ती है। इसे समझते हुए भारतीय साइन लैंग्वेज को पहली बार एक भाषा विषय यानि एक सब्जेक्ट का दर्जा प्रदान किया गया है। अब छात्र इसे एक भाषा के तौर पर भी पढ़ पाएंगे। इससे भारतीय साइन लैंग्वेज को बहुत बढ़ावा मिलेगा और दिव्यांग साथियों को बहुत मदद मिलेगी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नियमन से लेकर कार्यान्वयन तक शिक्षक सक्रिय रूप से इस अभियान का हिस्सा रहे हैं। निष्ठा' 2.0 प्रोग्राम भी इस दिशा में एक अहम भूमिका निभाएगा। इस प्रोग्राम के जरिए देश के शिक्षकों को आधुनिक जरुरतों के हिसाब से ट्रेनिंग मिलेगी और वो अपने सुझाव भी विभाग को दे पाएंगे। शिक्षकों के जीवन में ये स्वर्णिम अवसर आया है कि वे देश के भविष्य का निर्माण करेंगे, भविष्य की रूपरेखा अपने हाथों से खींचेगे। आने वाले समय में जैसे-जैसे नई 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' के अलग-अलग तत्व हकीकत में बदलेंगे, हमारा देश एक नए युग का साक्षात्कार करेगा। जैसे-जैसे हम अपनी युवा पीढ़ी को एक आधुनिक और राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था से जोड़ते जाएंगे, देश आजादी के अमृत संकल्पों को हासिल करता जाएगा। 21वीं सदी ज्ञान की सदी है। यह सीखने और अनुसंधान की सदी है। इस संदर्भ में भारत की नई शिक्षा नीति अपनी शिक्षा प्रणाली को छात्रों के लिए सबसे आधुनिक और बेहतर बनाने का काम कर रही है। इस शिक्षा नीति के माध्यम से हम सीखने की उस प्रक्रिया की तरफ बढ़ेंगे, जो जीवन में मददगार हो और सिर्फ रटने की जगह तर्कपूर्ण तरीके से सोचना सिखाए। नई शिक्षा नीति का लक्ष्य भारत के स्कूलों और उच्च शिक्षा प्रणाली में इस तरह के सुधार करना है, कि दुनिया में भारत ज्ञान कासुपर पावरकहलाए। मुझे यह पूरी उम्मीद है कि अपनी सामाजिक संपदा, देशज ज्ञान और लोक भावनात्मकता को आधुनिकता से जोड़कर राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत मेंपूर्ण नागरिकके निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगी। भारत को अगर आत्मनिर्भर बनना है, तो ऐसे ही शिक्षित मनुष्य उसकी आधारशिला बनेंगे।