-रमेश नैयर
पुस्तक ‘मोदी युग’
का शीर्षक देखकर प्रथम दृष्टया लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी की स्तुति में धड़ाधड़ प्रकाशित हो रही पुस्तकों में एक कड़ी और जुड़ गई। अल्पजीवी
पत्र-पत्रिकाओं के लेखों के साथ ही एक के बाद एक सामने आ रही पुस्तकों में मोदी सरकार
की जो अखंड वंदना चल रही है, वो अब उबाऊ लगने लगी है। परंतु पुस्तक को जब ध्यान से पढ़ना शुरू
किया तो मेरा भ्रम बिखरता गया कि ये पुस्तक भी मोदी वंदना में एक और पुष्प का अर्पण
है। वैसे भी संजय द्विवेदी की पत्रकारिता की तासीर से परिचित होने के कारण मेरे सामने
यह तथ्य खुलने में ज्यादा देर नहीं लगी कि पुस्तक में यथार्थ का यथासंभव तटस्थ मूल्यांकन
किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार संपादक और विचारक प्रोफेसर कमल दीक्षित का आमुख पढ़कर स्थिति
और भी स्पष्ट हो गई। वस्तुत: प्रोफेसर कमल दीक्षित द्वारा लिखा गया आमुख पुस्तक की
निष्पक्ष,
दो टूक और सांगोपांग समीक्षा है। उसके बाद किसी के भी लिए संजय
द्विवेदी की इस कृति की सामालोचना की गुंजाइश बचती नहीं है। यह स्वयं में सम्यक नीर-क्षीर
विवेचन है।
भाजपा विरोधी समझे जाते रहे उर्दू के अखबारों और रिसालों को
भी यह खुली आंखों से देखना पड़ रहा है कि बीते-तीन सालों की सियासत में दबदबा नरेंद्र
मोदी का ही है। जिस तरह से बिखरे हुए प्रतिपक्ष के एकजुट होने की किसी भी कोशिश के
पहले श्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा अचानक तुरूप का कोई पत्ता चल देती है,
उससे सारी तस्वीर बदल जाती है। ताजा उदाहरण है राष्ट्रपति पद
के प्रत्याशी के रूप में प्रतिपक्ष द्वारा किसी नाम पर एकजुटता से विचार करने से पहले
ही भाजपा द्वारा दलित वर्ग के प्रबुध्द और बेदाग छवि वाले रामनाथ कोविंद के नाम की
घोषणा करके चमत्कृत कर देना। मै मौजूदा सियासी परिदृश्य को जांचने की कोशिश कर ही रहा
था कि नजर हैदराबाद से प्रकाशित उर्दू डेली, ’’मुंसिफ’’ की इस आशय की खबर पर पड़ गई कि आज पूरे मुल्क में मोदी और भाजपा
का ही दबदबा है। जैसे किसी जमाने मे पं. जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी की
कांग्रेस देश की राजनीति की नियंता रहा करती थी, वैसे ही आज श्री मोदी की टक्कर का कोई नेता नजर नहीं आता।
श्री मोदी के जो आलोचक उन पर अहंकारी होने का आरोप लगाते हैं
उनको वर्तमान सरकार के नीतिगत फैसलों की श्रृंखला एक कोने में धकेल देती है। वस्तुतः
श्री मोदी की राजनीति की शैली ही ऐसी है कि जिसमें किसी प्रकार के दैन्य-प्रदर्शन की
कोई गुंजाईश ही नहीं है। संजय द्विवेदी की पुस्तक में ठीक ही लिखा है कि “नई राजनीति ने मान लिया है कि सत्ता का विनीत होना जरूरी नहीं
है। अहंकार उसका एक अनिवार्य गुण है। भारत की प्रकृति और उसके परिवेश को समझे बिना
किए जा रहे फैसले इसकी बानगी देते हैं। कैशलेश का हौवा ऐसा ही एक कदम है। यह हमारी
परम्परा से बनी प्रकृति और अभ्यास को नष्ट कर टेक्नोलाजी के आगे आत्मसमर्पण कर देने
की कार्रवाई है। एक जागृत और जीवंत समाज बनने के बजाय हमें उपभोक्ता समाज बनने से अब
कोई रोक नहीं सकता।’’
इसी में आगे कहा गया है, “इस फैसले की जो ध्वनि और संदेश है वह खतरनाक है। यह फैसला इस
बुनियाद पर लिया गया है कि औसत हिन्दुस्तानी चोर और बेईमान है। क्या नरेन्द्र मोदी
ने भारत के विकास महामार्ग को पहचान लिया है या वे उन्हीं राजनीतिक नारों में उलझ रहे
हैं, जिनमें भारत की राजनीति अरसे से उलझी हुई है?
कर्ज माफी से लेकर अनेक उपाय किए गए किन्तु हालात यह है कि किसानों की आत्महत्याएं
एक कड़वे सच की तरह सामने आती रहती है। भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इन दिनों इस
बात के लिए काफी दबाव में हैं कि उनके अच्छे कामों के बावजूद उसकी आलोचना और विरोध
ज्यादा हो रहा है। उन्हें लगता है कि मीडिया उनके प्रतिपक्ष की भूमिका में खडे़ हैं।
’’मोदी सरकार’’ मीडिया से कुछ ज्यादा उदारता की उम्मीद कर रही है। यह उम्मीद
नहीं करनी चाहिए कि आपके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी भी देश की बेहतरी के लिए मोदी-मोदी
करने लगेंगे।”
प्रो. कमल दीक्षित जी के ही शब्दों में “मोदी युग ग्रंथ में संकलित लेखों में जहां श्री द्विवेदी,
श्री मोदी की संगठन क्षमता, संकल्प निष्ठता और प्रशासनिक उत्कृष्टता को रेखांकित करते हैं,
सत्ता को जनधर्मी बचाने के प्रयासों को उभारते हैं और संसदीय लोकतंत्र को सफल बनाने
के उपायों को स्वर देते हैं, वहीं आत्मदैन्य से मुक्त हो रहे भारत की उजली छवि प्रस्तुत करते
हैं, और राष्ट्रवाद की नई परिभाषा को रूपायित करते हैं। देश में क्षेत्रीय
दलों के घटते जनाधार, लगातार सत्ता में बने रहने से आई नीति,
निष्क्रियता, संसदीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की मर्यादा का उल्लंघन,
राजनीतिक अवसरवाद जैसे सामरिक विषयों पर श्री द्विवेदी की टिप्पणियां विषयपरक तो
हैं ही, वे प्रकारान्तर से हमारे लोकतंत्र की कमजोरियां को उभारने वाली
हैं।’’
‘भारतीय मन और प्रकृति के खिलाफ है कैशलेस’ शीर्षक लेख में संजय द्विवेदी ने एक निष्पक्ष पत्रकार की छवि को सुरक्षित रखते
हुए कड़वे-मीठे सच को दो टूक लिख दिया है कि “इस मामले में सरकार के प्रबंधकों की तारीफ करनी पडे़गी कि वे हार को भी जीत में बदलने की क्षमता रखते हैं और विफलताओं
का रूख मोड़कर तुरंत नया मुद्दा सामने ला सकते हैं। हमारा मीडिया,
सरकार पर बलिहारी है ही।” दूसरा तथ्य यह, “हमारी जनता और हम जैसे तमाम आम लोग अर्थशास्त्री नहीं हैं। मीडिया
और विज्ञापनों द्वारा लगातार हमें यह बताया जा रहा है कि नोटबंदी से कालेधन और आतंकवाद
से लड़ाईमें जीत मिलेगी, तो हम सब यही मानने के लिए विवश हैं। नोटबंदी के प्रभाव के आंकलन
करने की क्षमता और अधिकार दोनों हमारे पास नहीं हैं।’’
सवाल पूछा जा सकता है, नोटबंदी से क्या हासिल हुआ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अनेक क्षेत्रों में
गतिशील हुआ है। भारत-पाकिस्तान संबंधों में नीतिगत स्पष्टता का आभास हुआ है। विदेश
नीति के माध्यम से आतंकवाद के विरूध्द वैश्विक एकजुटता विकसित करने में भारत ने तीन
वर्षों में जो बहुआयामी प्रयास किए उनके सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। इस कारण भी देश
के आम लोगों की उम्मीदें अभी टूटी नहीं है और वे मोदी को परिणाम देने वाला राष्ट्र
नायक मानते हैं। उससे साफ है कि सरकार ने उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने और कोयले,
स्पेक्ट्रम जैसे संसाधनों की पारदर्शी नीलामी से जैसे साहसी
फैसलों से भरोसा कायम किया है। देश की समस्याओं को पहचानने और अपनी दृष्टि को लोगों
के सामने रखने का काम भी बखूबी इस सरकार ने किया है।
मन के तंतुओं में प्रतिबद्धता की सीमा तक रची वैचारिक आसक्ति
को संजय द्विवेदी छुपाते भी नहीं है और ‘आजकल’ के दुनियादार लोगों की तरह सत्ता से काम निकालने के लिए उसका
ढिंढ़ोरा भी नहीं पीटते। संजय की लोकप्रियता और सभी वर्गों में स्वीकृति का एक बड़ा कारण
उनकी व्यवहार कुशलता भी है। अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए भी वे दूसरों की सुनने का धैर्य
रखते हैं और कभी-कभी इस अंदाज से असहमति भी व्यक्त करते हैं कि सामने वाला कहीं उलझ
जाता है और उस उलझन के बावजूद उसका मर्म अमूर्त ही रह जाता है। संजय द्विवेदी की इस
अदा पर मुझे उर्दू का एक शेर याद आता है “ न है इकरार का पहलू,
न इनकार का पहलू, तेरा अंदाज मुझे नेहरू का बयां मालूम होता है।’’
परंतु यह संजय द्विवेदी की प्रकृति का मात्र संचारी भाव है।
स्थायी भाव है व्यक्ति संस्था और शासन-प्रशासन तंत्र की गहरी पड़ताल करना। अपनी बात
को दृढ़ता से कहना। हां, इतना अवश्य है कि इनका सौंदर्यबोध कई कुरूपताओं और अभद्रताओं
पर झीनी-बीनी रेशमी चदरिया डाल देता है। सामने वाले को रेशमी चदरिया के स्पर्श की पुलक
और लिखने वाले को यह प्रतीति की अप्रिय छवि से आंखें नहीं मूंदी। अपने अनुराग को किस
हद तक छलकाना है और क्षोम को किस सीमा तक व्यक्त कर देना है,
इस लेखन कला में संजय ने कुछ दशकों की साधना से सिद्धि प्राप्त
कर ली है।
जहां बात सांस्कृतिक संस्कारों और सरोकारों
की आती है, वहां संजय द्विवेदी शब्द जाल में पाठक को उलझाने और मूल मुददे से कतराने
की बजाय स्पष्ट तथा सीधी धारणा व्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के पक्ष में वह लिखते हैं, “आरएसएस को उसके आलोचक कुछ भी कहें पर उसका सबसे बड़ा जोर सामाजिक और सामुदायिक एकता
पर है। आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने और वृहत्तर हिंदू समाज की एकता और शक्ति के उसके
प्रयास किसी से छिपे नहीं है। वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठन संघ की प्रेरणा से ही सेवा के क्षेत्र
में सक्रिय हैं। इसलिए ईसाई मिशनरियों के साथ उसका संघर्ष देखने को मिलता है। आरएसएस
के कार्यकर्ताओं के लिए सेवा का क्षेत्र बेहद महत्व का है।”
संजय द्विवेदी के जन्म से पूर्व के एक तथ्य को मैं अपनी तरफ
से जोड़ना चाहता हूं, जब भारत विभाजन के पश्चात पश्चिमी पंजाब से लाखों की संख्या
में हिंदू पूर्वी पंजाब पहुंचे तो संघ के स्वयंसेवकों ने बड़ी संख्या में उनके आतिथ्य,
त्वरित पुर्नवास और उनके संबंधियों तक उन्हें पहुंचाने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। उस समय बड़ी तादाद में अनेक व्यक्ति घायल और अंग-भंग के शिकार होकर विभाजित
भारत में पहुंचे थे। उन्हें यथा संभव उपचार उपलब्ध कराने में संघ के स्वयंसेवकों ने
शासन-प्रशासन तंत्र को मुक्त सहयोग दिया था। उसके साथ ही स्वतंत्र भारत ने अनेक प्राकृतिक
आपदाओं के दौरान भी संघ के अनुषांगिक संगठनों से जुडे़ समाज सेवियों को स्वतःस्फूर्त
सक्रिय पाया जाता रहा।
संजय लिखते हैं “1950 में संघ के तत्कालीन संघ चालक श्रीगुरू जी ने पूर्वी पाकिस्तान
से आने वाले शरणार्थियों की मदद के लिए आह्वान किया। 1965 में पाक आक्रमण के पीड़ितों की सहायता का काम किया। 1967 में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए संघ आगे आया। 1978 के नवंबर माह में दक्षिण के प्रांतों में आए चक्रवाती तूफान
में संघ आगे आया। इसी तरह 1983 में बाढ़ पीड़ितों की सहायता,
1997 में काश्मीरी विस्थापितों की मदद के अलावा तमाम ऐसे उदाहरण है जहां पीड़ित मानवता
की मदद के लिए संघ खड़ा दिखा। इस तरह आरएसएस का चेहरा वही नहीं है जो दिखाया जाता है।
संकट यह है कि आरएसएस का मार्ग ऐसा है कि आज की राजनीतिक शैली और राजनीतिक दलों को
वह नहीं सुहाता। वह देशप्रेम, व्यक्ति निर्माण के फलसफे पर काम काम करता है। वह सार्वजनिक
जीवन में शुचिता का पक्षधर है। वह देश में सभी नागरिकों के समान अधिकारों और कर्तव्यों
की बात करता है। उसे पीड़ा है अपने ही देश में कोई शरणार्थी क्यों है। आज की राजनीति
चुभते हुए सवालों से मुंह चुराती है। संघ उससे टकराता है और उनके समाधान के रास्ते
भी बताता है। संकट यह भी है कि आज की राजनीति के पास न तो देश की चुनौतियों
से लडने का माद्दा है न ही समाधान निकालने की इच्छाशक्ति। आरएसएस से इसलिए इस देश की
राजनीति डरती है। वे लोग डरते हैं जिनकी निष्ठाएं और सोच कहीं और गिरवी पड़ी हैं। संघ
अपने साधनों से, स्वदेशी संकल्पों से,
स्वदेशी सपनों से खड़ा होता स्वालंबी देश चाहता है,
जबकि हमारी राजनीति विदेशी पैसे और विदेशी राष्ट्रों की गुलामी में ही अपनी मुक्ति
खोज रही है।ऐसे मिजाज से आरएसएस को समझा नहीं जा सकता। आरएसएस को समझने के लिए दिमाग
से ज्यादा दिल की जरूरत है। क्या वो आपके पास है?
’’
पुस्तक के आवरण के मुखडे़ से उसकी पीठ
सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति असहमति में हाथ उठाने वाले प्रखर लेखक-समालोचक विजय बहादुर
सिंह, कुछ ख्यातिनाम पत्रकारों के साथ ही छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की
टिप्पणियां संजय द्विवेदी की लोकप्रियता के जीवंत साक्ष्य उपस्थित करती हैं। तीन दशकों
से अधिक समय के मेरे आत्मीय परिचय संजय द्विवेदी को मैंने एक आत्मीय ओजस्वी पत्रकार,
प्रबुध्द अध्यापक और मनमोहिनी शक्ति से संपन्न मित्र के रूप
में पाया है। अभी तो इन्होंने यशयात्रा का एक ही पड़ाव पार किया है। मंजिलें अभी और
भी हैं। अनेक सुनहरी संभावनाओं का अनंत आकाश उड़ान भरने के लिए उनके सामने खुला पड़ा
है।
पुस्तक: मोदी युग, लेखक: संजय द्विवेदी
प्रकाशकः पहले पहल प्रकाशन , 25 ए, प्रेस काम्पलेक्स, एम.पी. नगर,
भोपाल (म.प्र.) 462011, मूल्य: 200 रूपए, पृष्ठ-250
पुस्तक के समीक्षक श्री रमेश नैयर देश के जाने-माने पत्रकार
और दैनिक भास्कर, रायपुर के संपादक रहे हैं।