-संजय द्विवेदी
देश की आतंरिक सुरक्षा को जिस तरह आतंकवादी
संगठनों से लगातार चुनौती मिल रही है, उसमें हमारी एकजुटता, भाईचारा और समझदारी ही
हमें बचा सकती है। आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग हटकर अब हमें सोचना होगा कि आखिर हम
अपने लोगों को कैसे बचाएं। अब यह कहने का समय नहीं है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं
होता, बल्कि हमें राष्ट्रधर्म निभाना होगा। हमारी मातृभूमि हमारे लिए सर्वस्व है
और उसके लिए सबकुछ निछावर करने का भाव ही हमें जगाना है।
‘देश प्रथम’ एक
नारे की तरह नहीं, बल्कि संकल्प की तरह हमारे जीवन में उतरना चाहिए। हमें देखना
होगा कि हम अपने नौजवानों में क्या राष्ट्रीय चेतना का संचार कर रहे हैं या हमने
उन्हें दुनिया में बह रही जहरीली हवाओं के सामने झोंक दिया है। इंटरनेट और साइबर
मीडिया पर भटकती यह पीढ़ी कहीं देश के दुश्मनों के हाथ में तो नहीं खेल रही है, यह
देखना होगा। आईएस जैसे खतरनाक संगठन और तमाम विचारधाराओं द्वारा पोषित देशतोड़क
गतिविधियों में शामिल युवा कैसा भारत बनाएगें, यह भी सोचना होगा। आज हमें खतरे के
संकेत दिखने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में युवाओं की देशविरोधी नारेबाजी के लिए
उकसाया जा रहा है तो एक प्रोफेसर को हमने माओवादी संगठनों की मदद करने के आरोप में
कोर्ट से सजा मिलते देखा। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं।
आज जबकि समूची दुनिया में
हिंदुस्तानी गहरे संकट में हैं, तो हमें अपने देश को बचाना ही होगा। जिन्हें जन्नत
का सपना दिख रहा है, उन्हें बताना होगा कि ट्रंप द्वारा खदेड़े गए हिंदुस्तानियों
को अंततः इसी जमीन पर जगह मिलेगी। इतिहास हमें कई तरह से सिखाता है पर हम सीखते
नहीं हैं। आप देखें 1947 में अपना वतन छोड़कर एक सुंदर सपना लेकर जो लोग पाकिस्तान
गए थे, वे आज भी वहां मुजाहिर हैं। कराची की गलियां आज भी उनके रक्त से लाल हैं।
इसी तरह दुनिया के तमाम देशों में हिंदुस्तानी रहते हैं और वहां के राष्ट्रजीवन
में उनका श्रेष्टतम योगदान है। किंतु उनके हर संकट के समय उनकी अंतिम शरणस्थली
हिंदुस्तान ही है। यह साधारण सी बात अगर हम समझ जाएं तो हमारे नौजवान किसी आईएस,
आईएसआई या माओवादियों के भटकाव भले अभियानों के झांसे में नहीं आएंगे। हम यह भी
स्वीकारते हैं कि राजसत्ता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज देशद्रोही नहीं है, भारत
में लोकतंत्र का होना इसका प्रमाण है। लोकतंत्र की जीवंतता इसी में है कि वहां
संवाद और विमर्श निरंतर हों। लेकिन आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न होना, या ऐसे
अभियानों को वैचारिक या नैतिक समर्थन देना स्वीकार कैसे किया जा सकता है। राज्य के
आतंक के विरूद्ध भी आतंक फैलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। देश में सुप्रीम कोर्ट
से लेकर अनेक ऐसे फोरम हैं जहां जाकर लोगों ने अपने हक हासिल किए हैं। जनांदोलनों
से सरकार को झुकाया है, किंतु हथियार उठाना और अपनी बौद्धिकता और तार्कितता से
आतंक को महिमामंडित करना ठीक नहीं है।
देश के बौद्धिक वर्गों की
एक बड़ी जिम्मेदारी देश के लोगों के प्रति है। सिर्फ असंतोष को बढ़ाना या समाज में
फैली विद्रूपता को ही लक्ष्य कर उसका प्रचार जिम्मेदारी नहीं है। दायित्व है लोगों
को न्याय दिलाना, उनकी जिंदगी में फैले अँधेरे को कम करना। बंदूकें पकड़ा कर हम
उनकी जिंदगी को और नरक ही बनाते हैं। देश में बस्तर से लेकर कश्मीर और वहां से
लेकर पूर्वांचल के कई राज्यों में अनेक हिंसक आंदोलन सक्रिय हैं। पर हम विचार करें
कि क्या इससे वास्तव में न्याय हासिल हुआ है। हममें से कई पंथ के आधार पर राज्य
व्यवस्था के सपने देखते हैं। पर क्या हमें पता है कि पंथों के आधार पर चलने वाले
राज्य सबसे पहले स्वतंत्रता और मनुष्यता का ही गला घोंटते हैं। आज अमरीकी
राष्ट्रपति ट्रंप मुस्लिमों के निशाने पर हैं, पर क्या दुनिया के मुस्लिम
राष्ट्रों ने अपना चेहरा देखा है? वहां मानवाधिकारों
की स्थिति क्या है? इसी तरह वामविचारी मित्रों को लोकतंत्र की कुछ
ज्यादा ही चिंता हो आई है। किंतु उनकी अपनी विचारधारा के आधार पर बने और चले देशों
में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन ही नहीं हुआ, बल्कि विचारधारा के नाम पर खून की
होली खेली गई। ऐसे में सबसे ज्यादा चिंता हमें अपने देश और उसके लोकतंत्र को बचाने
की होनी चाहिए। समृद्धि और स्वतंत्रता लोकतंत्र में ही साथ-साथ फल-फूल सकते हैं।
इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। कोई भी पंथ आधारित राज्य या वामपंथी विचारों के आधार
पर खड़ा देश लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकता, यह कटु सत्य नहीं है। यह
बात तब और साबित होती है जब हमें पता चलता है अरब, ईरान और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम
राष्ट्रों में बसने वालों में किस तरह अमरीकी वीजा पाने की ललक है। क्या समृद्धि
और धन के लिए नहीं। अगर ऐसा है तो अरब में क्या कमी है? सच तो यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन को
जीने की आजादी ही लोकतंत्र का मूल्य है, शायद इसलिए अमरीकी वीजा धनी-मानी मुस्लिम
देशों के लोगों का सपना है। वो एक ऐसी दुनिया के सपने देखते हैं जहां वे अपनी
जिंदगी को बेहतर तरीके से जी सकें। घुट-घुटकर पहरों में जीना कितनी भी समृद्धि के
साथ किसे स्वीकार है? एक मनुष्य होने के नाते आरोपित बंधन हमें रास नहीं
आते।
दुनिया के तमाम देशों के
बीच भारत एक उम्मीद का चेहरा है। जब दुनिया में खून के दरिया बह रहे हैं तो गौतम
बुद्ध, महावीर, नानक की घरती रास्ता दिखाती है। उपनिषद् हमें बताते हैं कि
अंतर्यात्रा पर निकलें। मन की यात्रा पर जाएं। खुद का परिष्कार करें। एक बेहतर
दुनिया के लिए सुंदर सपनें देखें और उन्हें सच करने के लिए जिंदगी लगा दें। हमने
विविधता के साथ जीने और रहने की शक्ति सालों की साधना से अर्जित की है। इसलिए
दुनिया के तमाम विचार, पंथ और विविधताएं यहां की जमीन पर आईं और इसकी खुशबू को
बढ़ाती रहीं। हजारों फूल खिलने दो, का विचार हमारा ही है। हमने कभी नहीं कहा कि हम
ही अंतिम सत्य हैं। जबकि दुनिया में बह रहे खून के पीछे ‘खुद को सबसे बेहतर’ समझने
की समझ है। अब लंबे समय के बाद फिर आतंकवाद का दानव सिर उठाता दिख रहा है। हमारे
नौजवान फिर एक जहरीली हवा के प्रभाव में आ रहे हैं। ऐसे कठिन समय में हमें फिर से
अपनी राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय मनीषा का पुनर्पाठ करना होगा। देश के हर कोने
से राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाली शक्तियों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। यह काम
सरकार के भरोसे नहीं होगा। लोगों के भरोसे होगा। राजनीति का पंथ अलग है, वे तोड़कर
ही अपने लक्ष्य संधान करते हैं। हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे। राष्ट्रीय
सवालों पर देश एक दिखे, इतनी सी कोशिश भी हमें सुरक्षित रख सकती है। हर खतरे से और
हर हमले से।
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