-संजय द्विवेदी
उत्तर प्रदेश अरसे बाद एक ऐसे
मुख्यमंत्री से रूबरू है, जिसे राजनीति के मैदान में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा
रहा था। उनके बारे में यह ख्यात था कि वे एक खास वर्ग की राजनीति करते हैं और
भारतीय जनता पार्टी भी उनकी राजनीतिक शैली से पूरी तरह सहमत नहीं है। लेकिन उत्तर
प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भारी विजय के बाद भाजपा ने जिस तरह का भरोसा जताते
हुए राज्य का ताज योगी आदित्यनाथ को पहनाया है, उससे पता चलता है कि ‘अपनी राजनीति’ के
प्रति भाजपा का आत्मदैन्य कम हो रहा है।
भाजपा का आज तक का ट्रैक हिंदुत्व
का वैचारिक और राजनीतिक इस्तेमाल कर सत्ता में आने का रहा है। देश की राजनीति में
चल रहे विमर्श में भाजपा बड़ी चतुराई से इस कार्ड का इस्तेमाल तो करती थी, किंतु
उसके नेतृत्व में इसे लेकर एक हिचक बनी रहती थी। वो हिचक अटल जी से लेकर आडवानी तक
हर दौर में दिखी है। भाजपा का हर नेता सत्ता पाने के बाद यह साबित करने में लगा
रहता है वह अन्य दलों के नेताओं के कम सेकुलर नहीं है।
उत्तर प्रदेश की ‘आदित्यनाथ परिघटना’ दरअसल भाजपा की
वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति को स्थापित करती नजर आती है। नरेंद्र मोदी के
राज्यारोहण के बाद योगी आदित्यनाथ का उदय भारतीय राजनीति में एक अलग किस्म की
राजनीति की स्वीकृति का प्रतीक है। एक धर्मप्राण देश में धार्मिक प्रतीकों, भगवा
रंग, सन्यासियों के प्रति जैसी विरक्ति मुख्यधारा की राजनीति में दिखती थी, वह
अन्यत्र दुर्लभ है। भाजपा जैसे दल भी इस सेकुलर विकार से कम ग्रस्त न थे। धर्म और
धर्माचार्यों का इस्तेमाल, धार्मिक आस्था का दोहन और सत्ता पाते ही सभी धार्मिक
प्रतीकों से मुक्ति लेकर सारी राजनीति सिर्फ तुष्टीकरण में लग जाती थी।
प्रधानमंत्रियों समेत जाने कितने सत्ताधीशों के ताज जामा मस्जिद में झुके होगें, लेकिन
हिंदुत्व के प्रति उनकी हिचक निरंतर थी।
यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं की एक समय
में दीनदयाल जी उदार थे, तो अटलजी और बलराज मधोक अपनी वक्रता के चलते उग्र नेता
माने जाते थे। अटलजी का दौर आया तो लालकृष्ण आडवाणी उग्र कहे जाने लगे, फिर एक समय
ऐसा भी आया जब आडवानी उदार हो गए और नरेंद्र मोदी उग्र मान जाने लगे। आज की
व्याख्याएं सुनें- नरेंद्र मोदी उदार हो गए हैं और योगी आदित्यनाथ उग्र माने जाने लगे हैं। यह मीडिया, बौद्धिकों की
अपनी रोज बनाई जाती व्याख्याएं हैं। लेकिन सच यह है कि अटल, मधोक, आडवानी, मोदी या
आदित्यनाथ कोई अलग-अलग लोग नहीं है। एक विचार के प्रति समर्पित राष्ट्रनायकों की
सूची है यह। इसमें कोई कम जा ज्यादा उदार या कठोर नहीं है। किंतु भारतीय राजनीति
का विमर्श ऐसा है जिसमें वास्तविकता से
अधिक ड्रामे पर भरोसा है। भारतीय राजनेता की मजबूरी है कि वह टोपी पहने, रोजा भले
न रखे किंतु इफ्तार की दावतें दे। आप ध्यान दें सरकारी स्तर पर यह प्रहसन लंबे समय
से जारी है। भाजपा भी इसी राजनीतिक क्षेत्र में काम करती है। उसमें भी इस तरह के
रोग हैं। वह भी राष्ट्रनीति के साथ थोड़े तुष्टिकरण को गलत नहीं मानती। जबकि उसका
अपना नारा रहा है सबको न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं। उसका एक नारा यह भी रहा है-“राम, रोटी और इंसाफ। ”
लंबे समय के बाद भाजपा में अपनी
वैचारिक लाइन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। असरे बाद वे भारतीय राजनीति के
सेकुलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े दिख रहे
हैं। समझौतों और आत्मसमर्पण की मुद्राओं के बजाए उनमें अपनी वैचारिक भूमि के प्रति
हीनताग्रंथि के भाव कम हुए हैं। अब वे अन्य दलों की नकल के बजाए एक वैचारिक लाइन
लेते हुए दिख रहे हैं। दिखावटी सेकुलरिज्म के बजाए वास्तविक राष्ट्रीयता के उनमें
दर्शन हो रहे हैं। मोदी जब एक सौ पचीस करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करते हैं तो
बात अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक से ऊपर चली जाती है। यहां देश सम्मानित होता है, एक
नई राजनीति का प्रारंभ दिखता है। एक भगवाधारी सन्यासी जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर
बैठता है तो वह एक नया संदेश देता है। वह संदेश त्याग का है, परिवारवाद के विरोध
का है, तुष्टिकरण के विरोध का है, सबको न्याय का है।
आजादी के बाद के
सत्तर सालों में देश की राजनीति का विमर्श भारतीयता और उसकी जड़ों की तरफ लौटने के
बजाए घोर पश्चिमी और वामपंथी रह गया था। जबकि बेहतर होता कि आजादी के बाद हम अपनी
ज्ञान परंपरा की और लौटते और अपनी जड़ों को मजबूत बनाते। किंतु सत्ता,शिक्षा, समाज
और राजनीति में हमने पश्चिमी तो, कहीं वामपंथी विचारों के आधार पर चीजें खड़ी कीं।
इसके कारण हमारा अपने समाज से ही रिश्ता कटता चला गया। सत्ता और जनता की दूरी और
बढ़ गयी। सत्ता दाता बन बैठी और जनता याचक।
सेवक मालिक बन गए। ऐसे में लोकतंत्र एक छद्म लोकतंत्र बन गया। यह लोकतंत्र
की विफलता ही है कि हम सत्तर साल के बाद सड़कें बना रहे हैं। यह लोकतंत्र की
विफलता ही है कि हमारे अपने नौजवानों ने भारतीय राज्य के खिलाफ बंदूकें उठा रखी
हैं। लोकतंत्र की विफलता की ये कहानियां सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं। राजनीतिक तंत्र
के प्रति उठा भरोसा भी साधारण नहीं है।
बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनाव
के परिणाम एक उम्मीद का अवतरण भी हैं। वे आशाओं, उम्मीदों से उपजे परिणाम हैं।
नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ इन्हीं उम्मीदों
के चेहरे हैं। दोनों अंग्रेजी नहीं बोलते। दोनों जन-मन-गण के प्रतिनिधि है।
यह भारतीय राजनीति का बदलता हुआ चेहरा है। क्या सच में भारत खुद को पहचान रहा है ? वह जातियों, पंथों, क्षेत्रों की पहचान से
अलग एक बड़ी पहचान से जुड़ रहा है- वह पहचान है भारतीय होना,
राष्ट्रीय होना। एक समय में राजनीति हमें नाउम्मीद करती हुयी नजर आती थी। बदले समय
में वह उम्मीद जगा रही है। कुछ चेहरे ऐसे हैं जो भरोसा जगाते हैं। एक आकांक्षावान
भारत बनता हुआ दिखता है। यह आकांक्षाएं राजनीति दलों के एजेंडे से जुड़ पाएं तो
देश जल्दी और बेहतर बनेगा। राजनीतिक विमर्श और जनविमर्श को साथ लाने की कवायद हमें
करनी ही होगी। जल्दी बहुत जल्दी। यह जितना और जितना जल्दी होगा भारत अपने भाग्य पर
इठलाता दिखेगा।
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