मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत हुए ‘अक्षरा’ के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत

विस्तृत रिपोर्टः

 पंतजी हिंदी के अप्रतिम योद्धाः राजेंद्र शर्मा







भोपाल। हिंदी और साहित्य के क्षेत्र में अक्षरा के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत का अवदान महत्वपूर्ण है। सभी विचारधाराओं के लोगों के बीच उनकी प्रतिष्ठा है। साहित्यिक पत्रकारिता में वे उन मूल्यों को लेकर चले हैं, जो आजादी के पूर्व की पत्रकारिता में थे। पंत जी अक्षरा के माध्यम से सिर्फ साहित्य की साधना ही नहीं कर रहे, बल्कि हिंदी के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह विचार हिंदी दैनिक स्वदेश के प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा ने व्यक्त किए। मीडिया विमर्श पत्रिका की ओर से गांधी भवन, भोपाल में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में श्री शर्मा बतौर मुख्यअतिथि उपस्थित थे। 
      श्री शर्मा ने कहा कि सफल व्यक्ति वही होते हैं, जो समाज को दिशा देते हैं। पंतजी यही कर रहे हैं। हिंदी की प्रतिष्ठा का विषय जहाँ भी आया, पंत जी ने वहां अपनी भूमिका का निर्वहन किया है। अभी अपनी स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर स्वदेश समाचार पत्र ने संकल्प लिया है कि हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी भाषा के गैर जरूरी शब्दों के उपयोग को ख़त्म करने के लिए एक वातावरण बनाया जाये। जब हमने इसकी योजना के लिए बैठक बुलाई तो पंतजी का मार्गदर्शन हमें प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया हिंदी को हिंग्लिश बनाकर उसकी आत्मा को ही खंड-खंड कर रहा है। हिंदी की दुर्दशा के पीछे एक प्रमुख कारण हमारे प्रारंभिक नेतृत्व की कमजोरी भी है। यदि मजबूती के साथ शुरुआत में ही संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा तय कर दिया होता, तब आज यह स्थिति नहीं होती। उस समय अंग्रेजी को हम पर थोप दिया गया, जो अब तक हमारे दिमाग पर सवार है। उन्होंने कहा कि नेतृत्व की कमजोरी 1947 में भी दिखी थी। हमारा नेतृत्व 1947 में थोड़ी दृढ़ता दिखा देता तो देश बंटता नहीं। जैसी स्थिति हमारे देश में बनी थी, वैसी गृहयुद्ध की स्थिति अमेरिका में भी बनी थी। लेकिन, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन ने कह दिया था कि गृहयुद्ध मंजूर है, लेकिन देश नहीं बंटने दूंगा। 
    श्री शर्मा ने कहा कि आज समाज में राष्ट्रवादी सोच की कमी दिखाई देती है, इसकी बड़ी वजह अंग्रेजी और अंग्रेजियत है। हमने अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने के लिए मिल-जुल कर प्रयास करना होगा। उन्होंने बताया कि हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए पंतजी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। पंतजी ने साहित्य और हिंदी पर सरकारी आधिपत्य के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उसमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने अनेक प्रमुख साहित्यकारों को जोड़कर हिंदी के लिए आवाज उठाई है। 
हिंदी के प्रचार-प्रसार का दायित्व हम सबका : सम्मान समारोह की अध्यक्षता कर रहे हरिभूमि के समूह संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित करके मीडिया विमर्श अनुकरणीय कार्य कर रही है। यह 9वां सम्मान समारोह है। उन्होंने अपनी बात प्रसिद्ध शायर वसीम बरेलवी की शायरी वसूलों पर जहां आंच आए तो टकराना जरूरी है, जो जिंदा तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है से शुरू करते हुए पत्रकारिता की चुनौतियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में कल भी चुनौतियां थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेगीं। ऐसे में इस क्षेत्र में दो तरह के लोग शुरू से रहे हैं। एक वो जो किस्मत के भरोसे बैठकर इंतजार करते हैं कि किस्मत की लहरें जहां ले जाएंगी, वहां चले जाएंगें। दूसरे वे होते हैं जो लहरों के विरूद्ध दरिया को पार करते हैं, ऐसे ही दरिया पार करने वाले लोगों को दुनिया याद करती है। हिंदी को बचाने के संबंध में उन्होंने कहा कि हिंदी के प्रचार-प्रसार का दायित्व सिर्फ सरकार का नहीं है, बल्कि देश के सभी लोगों का कर्तव्य है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि इस समय स्वदेश ने हिंदी से अंग्रेजी के शब्दों को बाहर करने के लिए जो आग्रह किया है, मेरा संस्थान उस आग्रह के साथ है। 
अंग्रेजियत से मुक्ति था उद्देश्य था : अक्षरा के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत ने अपने संबोधन में कहा कि अंग्रेजों से देश को आज़ाद कराना मात्र स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य नहीं था बल्कि, सम्पूर्ण अंग्रेजियत से मुक्ति स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य था। महात्मा गांधी ने यह समझ लिया था कि आज़ादी के बाद देश को एक सूत्र में जोड़कर रखने के लिए हिंदी भाषा के संस्थानों को मजबूत करना जरूरी है। इसीलिये महात्मा गांधी ने देश के अहिन्दी प्रान्तों में जाकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। वे हिंदी को भारत की एकता का सबसे बड़ा माध्यम मानते थे। श्री पंत ने कहा कि हिंदी के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले लोग उनकी प्रेरणा हैं। उन्होंने कहा कि मानसिक गुलामी के कारण हम स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी अपनी भाषा के प्रति जागरूक नहीं हैं। साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका के सम्बंध में उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मुख्यधारा की पत्रकारिता का दायित्व है कि जो भी घटित हुआ, उसे उसी प्रकार निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ समाज के सामने प्रस्तुत करें। उसी प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता का दायित्व है कि साहित्य में जो भी धाराएं चल रही हैं, वे राष्ट्र और समाज के लिए कितनी लाभदायक और हानिकारक हैं, इस पर नज़र रखना। 
    उन्होंने कहा कि आज जो जन बोलता है, वो तंत्र नहीं समझ पाता है और जो तंत्र बोलता है, वह जन की भाषा नहीं है। इस कारण जन और तंत्र के बीच एक खाई बनती है। इस खाई को भरने के जरूरत है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में बनने वाले कानूनों को गांव का आदमी कैसे समझ सकेगा। अंग्रेजी के कारण बड़ी गड़बड़ हुयी है। अंग्रेजी ने ही भारत में राष्ट्रवाद को विवादित बनाया है। राष्ट्रवाद के लिए अंग्रेजी का नेशन शब्द का उपयोग किया जाता है। नेशन एक प्रकार से राजनीतिक शब्द है, जबकि भारत में राष्ट्रवाद साहित्य, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा हुआ है। नेशन की उत्पत्ति नाज़ीवाद से हुयी है, जिसका भारत के राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है। 
चरैवेति-चरैवेति मंत्र है पंतजी का : समारोह के विशिष्ट अतिथि एवं मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मुख्य सचिव कृपाशंकर शर्मा ने कहा कि वे पहली ही मुलाकात में मूल्यों के प्रति पंतजी की प्रतिबद्धता से बहुत प्रभावित हो गए थे। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद के त्रेत्रेय ब्राह्मण के एक मंत्र चरैवेति-चरैवेति को अपना कर पंतजी अपने ध्येय पथ पर निरंतर चले जा रहे हैं। जिस समय हिंदी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, उस समय में हिंदी के लिए पंतजी खड़े दिखाई देते हैं। हिंदी में अनावश्यक अंग्रेजी शब्दों के उपयोग से हिंदी की समृद्धि रुक गयी है। उन्होंने कहा कि पंतजी ने जितनी सेवा हिंदी की है, उतना ही महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रवाद को पुष्ट करने में है। आज भारतीय संस्कृति के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं। अंग्रेजी मीडिया में जिस प्रकार की भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं, वे किसी भी प्रकार राष्ट्रहित में नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में भ्रम और मिथ्या धारणा हमारी शिक्षा पद्धति की खामी के कारण है। शिक्षा में सुधार आवश्यक है। 
    मीडिया विमर्श के 'राष्ट्रवाद और मीडिया' विशेषांक का जिक्र करते हुए श्री शर्मा ने कहा कि राष्ट्रवाद पर मीडिया विमर्श के दो अंक देखकर अच्छा लगा कि मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रवाद पर विचार कर रहा है। आज जरूरत है कि राष्ट्रवाद की भावना और मूल्यों को समझा और समझाया जाये। आज बहुत से प्रायोजित तत्व भारतीयता को चोट पहुँचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्वों को असफल करने के लिए राष्ट्रहित में लिखना जरूरी है। 
हिंदी के योद्धा हैं दादा : पद्मश्री से अंलकृत विजयदत्त श्रीधर ने कैलाश चंद्र पंत की जीवनयात्रा और पत्रकारीय सफर का विवरण देते हुए बताया कि दादा केवल अक्षरा के संपादक नहीं हैं, बल्कि उन्होंने हिंदी के समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का जिस प्रकार घटिया प्रयोग बढ़ रहा है, वे उसके विरुद्ध अलख जगाने वाले योद्धा हैं। मऊ में जन्मे दादा ने अपनी पत्रकारिता का शुभारंभ 1972 में इंदौर समाचार से किया। दादा नवभारत, नवप्रभात और शिक्षा प्रदीप जैसे अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में उन्होंने काम किया। पंतजी की लेखनी और संपादकीय कौशल के कारण भवानी प्रसाद के साप्ताहिक समाचार पत्र का जनधर्म का पाठक इंतजार किया करते थे। इस समाचार पत्र का प्रत्येक अंक एक विशेषांक होता था। वर्ष 2003 से साहित्यिक पत्रिका 'अक्षरा' की संपादकीय व्यवस्था पंतजी को सौंपी गई। पंतजी अक्षरा को साहित्य से थोड़ा-सा बाहर ले गए। उन्होंने अक्षरा में वैचारिक आलेखों की श्रृंखला की शुरुआत की, जिससे यह पत्रिका लोगों के बीच लोकप्रिय हो गई। पंतजी के लोकसंपर्क और लोगों को अपना बनाने के आत्मीय व्यवहार के संबंध में श्री श्रीधर ने बताया कि देश का ऐसा कोई कोना नहीं होगा, जहाँ पंतजी के अपने लोग नहीं होंगे। वे लोगों को अपने परिवार का हिस्सा बना लेते हैं। पंतजी ने हिंदी भवन को भी ऐसा सक्रिय मंच बना दिया, जहाँ निरंतर कुछ न कुछ होता रहता है। हिंदी भवन पंतजी की योजना से प्रत्येक आयु वर्ग के बौद्धिक संवर्धन के लिए गतिविधियों का संचालन करता है। उन्होंने कहा कि हर शहर में ऐसी विभूतियां होती हैं, जो शहर की पहचान बन जाती हैं। ऐसी ही विभूति कैलाश चंद्र पंत हैं। 81 साल के होने के बाद भी वे इतना गतिशील हैं कि सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता सबको प्रेरित करती है।
साहित्य का सरलीकरण अक्षरा की विशेषता : वरिष्ठ अभिनेता एवं रंगकर्मी राजीव वर्मा ने बताया कि उनके पिता को दहेज में किताबों से भरा हुआ एक बक्सा, हारमोनियम और कुछ बर्तन मिले थे। किताबें साहित्य और इतिहास की थीं। कुछ उपन्यास भी थे। उन्होंने कहा कि वह साहित्य के विद्यार्थी हैं। उपन्यास को कहानी की तरह पढ़ता था। लेकिन, जब अक्षरा की संपादक सुनीता खत्री से परिचय हुआ और उन्होंने अक्षरा मुझे भेजना शुरू किया। इसके बाद अक्षरा में प्रकाशित नाटक और कहानियों पढऩा शुरू किया, तब पहली बार लगा कि साहित्य समाज के आम लोगों के लिए भी होता है। इससे पहले मैं सोचता था कि साहित्य सिर्फ विद्वानों के लिए नहीं लिखा जाता है, लेकिन अक्षरा ने मेरा यह भ्रम तोड़ा। प्रतिष्ठित पत्रिका साहित्य को सरल ढंग से लोगों के बीच लेकर जाती है, यह उसकी विशेषता है। श्री वर्मा ने बताया कि अक्षरा में प्रकाशित कई कहानियों पर मैंने छोटे-छोटे नाटक भी लिखवाए।
    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. परमात्मानाथ द्विवेदी ने सम्मान समारोह के प्रस्तावित भाषण में कहा कि मीडिया विमर्श की ओर से नौ वर्षों से प्रतिवर्ष पंडित बृजलाल द्विवेदी की स्मृति में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के लिए समर्पित संपादक का सम्मान किया जाता है। इस वर्ष 'पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2017'साहित्य क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'अक्षरा' के संपादक कैलाश चंद्र पंत को दिया गया। श्री पंत  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। पिछले तीन दशक से वे साहित्य पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका'अक्षरा' का संपादन कर रहे हैं।
   इस अवसर पर सर्वश्री रामेश्वर मिश्र, प्रो. कुसुमलता केडिया, कवि शिवकुमार अर्चन, सुबोध श्रीवास्तव, महेंद्र गगन, रमाकांत श्रीवास्तव, उपन्यासकार इंदिरा दांगी, लाजपत आहूजा, पूर्व विधायक पीसी शर्मा, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी.शशिकला, डा. अविनाश वाजपेयी, पत्रकार प्रिंस गाबा, प्रकाश साकल्ले, दिनकर सबनीस, महेश सक्सेना, शिवशंकर पटेरिया. अनुराधा आर्य, डा. रामदीन त्यागी सहित अनेक पत्रकार, साहित्यकार एवं रचनाकार उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन संस्कृतिकर्मी विनय उपाध्याय ने किया।
   इसके पूर्व के सत्र में विचारक एवं राजनेता हरेंद्र प्रताप(पटना) ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि प्रसंग पर एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता पर व्याख्यान दिया। इस सत्र की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने की। कार्यक्रम की प्रस्तावना मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने रखी और संचालन डॉ. सौरभ मालवीय ने किया। 
प्रस्तुतिः लोकेंद्र सिंह


शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

एक लोकसंग्रही व्यक्तित्व

बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता से भोपाल के गांधी भवन में अलंकृत होगें कैलाश चंद्र पंत
-प्रो. रमेश चंद्र शाह

       ‘बायो डाटा को हमारे यहाँ जीवन वृत्त कहा जाता है और यह अकारण नहीं है । मनुष्य का जीवन या कह लीजिए, मनुष्य की आयु – रेखा कभी एक सीधी लकीर का अनुसरण नहीं होती है,वह वृत्ताकार ही हो सकती है,बल्कि वर्तुल जिसे कहते हैं वैसी । हम वहीं पहुँच जाते हैं, जहाँ से प्रारम्भ किया था,इन माइ बिगनिंग इज माई एण्ड – जैसा कि आधुनिक कवियों में अग्रणी टी.एस.इलियट की एक कविता कहती है (मेरे प्रारम्भ ही में मेरा अन्त है) । अन्य संस्कृतियों की तुलना में भारतीय संस्कृति में इस तथ्य तो कहीं अधिक निर्भ्रान्त ढंग से स्वीकार किया गया है । क्या यह तथ्य नहीं,कि बच्चे अपने माता-पिता की तुलना में अपने दादा-दादी अथवा नाना-नानी को अधिक अपने निकट पाते हैं ? क्या यह भी तथ्य ही नहीं कि उम्र के इस आखिरी पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते हमारी स्मृति का आचरण भी बदल जाता है,कल-परसों क्या हुआ था। इसकी अपेक्षा पचास-साठ-सत्तर वर्ष पहले क्या हुआ था – इसकी स्मृति अधिक तात्कालिक और सजीव हो सकती है।क्यों ? इसीलिए न,कि यह हमारा दूसरा बचपन है : यानी लगभग वैसी ही स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं: जीवन–चक्र हमें फिर से वहीं ले आता है – जहां से फिर एक दूसरे धरातल पर नई धरती पर नई जीवनयात्रा आरम्भ होगी ।
   यह सन् 1962 की बात होगी,जब इसी भोपाल नगरी में कैलाशचन्द्र पंत नाम की शख्सियत की नजदीकी हासिल हुई थी। संयोग भी अकारण घटित नहीं होते। मेरे एक पहाड़ी बंधु हुआ करते थे डॉ हरीशलाल शाह, महू के वेटनरी कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनके निमंत्रण पर मेरा महू जाना हुआ था, पंत जी के बड़े भाई साहब उन्हीं मेरे बंधु के अत्यन्त प्रिय आत्मीय मित्र हुआ करते थे और उन्हीं के घर उनसे – अर्थात पंत जी के भाई से परिचय हुआ था । उसी नाते उनके अनुज से भी । हमारी मैत्री इसी निमित्त से आरम्भ हुई और चूँकि कैलाशचन्द्र जी भोपाल ही रहते थे, अत: हमारा मिलना-जुलना शीघ्र ही नैमित्तिक से नैत्यिक की श्रेणी में पहुंच गया । वह मैत्री ही क्या,जिसकी जड़ में एकाध व्यसन या दुर्व्यसन भी न हो । पक्का निश्चय तो नहीं है,किन्तु एकदम कच्चा अनुमान भी इसे नही कहूंगा,कि पंत जी भी मेरे ही पान के – यानी बाकायदा खुशबूदार ज़र्दे वाले पान के शौकीन थे। परन्तु असली रागबन्ध तो हमारे उनके बाच साहित्य का था ।दरअसल पान-ज़र्दा तो बाद में आया या साथ ही साथ आया। पंत जी मेरे ही तरह साहित्यानुरागी थे, साहित्य का चस्का उन्हें तभी पड़ गया था और वह गहरा चस्का था, जो कि बदस्तूर कायम है और नित नए रंग दिखाता रहा है ।
इसी से लगा-लिपटा एक और व्यसन भी है उनका। वह तभी जड़ पकड़ चूका था- सम्पादन का,पत्रकारिता का। यहाँ मैं उनसे होड़ करने में अक्षम था। ईर्ष्या ही कर सकता था। मुझे लगता था है,क्या पता वह मेरी पहली ही कहानी रही हो, जिसे अपने द्वारा सम्पादित पत्रिका शिक्षा प्रदीप में पंत जी ने बाकायदा प्रकाशित किया था,पहली- यानी,वयस्क जीवन की पहली कहानी । एकदम कच्ची अनगढ़ और प्रारंभिक रचना इस विधा की रही होगी वह ।
  उन दिनों भोपाल मेरे लिए नया-नया नगर था। विचित्र संयोग, कि मेरे लिए इस नगर की अजनबीपन को कम करने और उससे अपना तालमेल बिठाने में सर्वाधिक मदद जिन्होंने की,वे दोनों ही महानुभाव मालवा की संस्कृति में पगे हुए और भाषा–संवेदना के धनी थे और दोनों ही इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज के स्नातक और हीरो भी रह चुके थे।पहले मुझे रमेश बक्षी का साथ मिला और तदनन्तर कैलाशचंद्र पंत जी का । मैं अत्यधिक समाज–भीरु,ऐकान्तिक स्वभाव का व्यक्ति था। पंत जी इसके ठीक उलटे अत्यंत सामाजिक और लोकसंग्रही। यदि मैं भूल नहीं करता तो भोपाल के इसके प्रवासी कुमाउंनी समाज से मुझे परिचित कराने की उत्साहपूर्ण पहल भी पंत जी ने ही की थी । उनमें भी सबसे जिन्दादिल और रोचक लोगों से पंत जी आदमी को परखने में,कौन कहाँ है, क्या कदोकामत है उसकी – भाविक या बौद्धिक इसे भांपने या पकड़ने में कभी चूकते नहीं। ज्यादातर लोग इस मामले में चूकते नहीं । सुनने में आसान लगता है , पर यह बड़ा विरल और दुर्लभ गुण है । ज्यादातर लोग इस मामले में चूकते ही नज़र आते हैं, उनका जजमेंट विश्वसनीय नहीं होता, क्योंकि वह उनके ईगो की पल-पल बदलती रंगतों के अनुसार रंग पकड़ता है : न कि जो वास्तविक मानुषी सत्ता सामने है, उसके यथावत् साक्षात्कार से। यह ईगो प्राब्लेम हमारे पढ़े-लिखे और सत्ताधारी समाज की बहुत बड़ी कमजोरी है, लगभग लाईलाज व्याधि जिसके दुष्परिणाम क्या शिक्षाजगत , क्या विद्वतजगत और क्या साहित्यिक परिवेश सब जगह उजागर है। ईगो भला किसमें नहीं होता? बिना ईगो के तो हम खड़े ही नहीं हो सकते। समस्या एक परिपक्व अहम विकसित करने की होती है। जो यथास्थान स्वयं को स्थगित और विसर्जित भी करने में सहज सक्षम हो। जिसमें दूसरे के दूसरेपन का भी यथावत अनुभव और आंकलन शामिल हो। पंत जी का लोकसंग्रही व्यक्तित्व इस माने में बड़ा सजग संवेदनशील रहा है, उनके क्रियाकलप , उनकी उपलब्धियां उसी से प्रेरित और संभव हुई हैं, यह देख पाना उन्हें करीब से जानने वालों के लिए तो सजग है ही, सामान्य जानकारों के लिए भी कठिन होना चाहिए । कहना न होगा कि उनकी भावी गतिविधियों के, भावी प्रवृतियों के और भावी सफलताओं के भी पर्याप्त लक्षण उनके उन आरंभिक दिनों में प्रगट हो चुके थे, ऐसा मुझे प्रथम दृष्टि से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है।
  पंत जी सजग और दायित्वप्रवण पत्रकार के रूप में बहुत जल्द ही अपनी पहचान बना चुके थे। क्या जनधर्म नामक साप्ताहिक की सुदीर्घ कार्यशीलता से,और क्या अक्षरा के प्रधान संपादक की हैसियत से। पत्रकारिता हमारा क्षेत्र नहीं है, किन्तु समझदार और संवेदनशील पत्रकारिता क्या होती है, क्या होनी चाहिए इसका प्रयाप्त पुष्ट प्रमाण उनका विशाल पाठक वर्ग उनके संपादकीयों से, लेखों से निरंतर पाता रहा होगा। मिशाल के तौर पर मात्र अक्षरा के एक अंक का सम्पादकीय ही देख लें ; जिसकी शुरुआत ही यों होती है:
" देश में जिस प्रकार के नित्य नये रहस्योदघाटन हो रहे हैं, भ्रष्टाचार तथा अपराधों के समाचार बढ़ रहे हैं, और उसके बाद भी बुनियादी चिंताओं के प्रति नागरिकों में व्याप्त उदासीनता क्या हमें एक जनतांत्रिक देश का नागरिक कहलाने का नैतिक अधिकार देती है?"
यह प्रश्न अपना उत्तर आप है।
पंत जी के आयोजन - सामर्थ्य का सभी लोहा मानते हैं जितनी गतिविधियां आज उनके द्वारा पोषित - संचालित हिंदी भवन में चल रही है, किसी को भी चकरा देने वाली है। उनका साहित्यानुराग इन गतिविधियों से प्रमाणित होता है। कोई कल्पना भी नही कर सकता था। देश की महत्वपूर्ण मीडिया पत्रिका मीडिया विमर्श अक्षरा के यशस्वी संपादन के लिए 11 फरवरी,2017 को पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत कर रही है। इस अवसर उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

(लेखक पद्मश्री से अलंकृत हिंदी के प्रख्यात लेखक एवं बुद्धिजीवी हैं। )

बृजलाल द्विवेदी सम्मान से अलंकृत किए जाएंगें कैलाश चंद्र पंत

हरेंद्र प्रताप देगें एकात्म मानववाद पर व्याख्यान

       भोपाल,10 फरवरी,2017। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष अक्षरा’ (भोपाल) के संपादक श्री कैलाश चंद्र पंत  को दिया जाएगा।
     श्री कैलाश चंद्र पंत  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। पिछले तीन दशक से वे साहित्य पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका अक्षरा’ का संपादन कर रहे हैं।
     सम्मान कार्यक्रम पं. दीनदयाल उपाध्याय के पुण्यतिथि प्रसंग पर 11, फरवरी, 2017 को गांधी भवन, भोपाल में सायं 6.00 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। सम्मान समारोह के मुख्यअतिथि ख्यातिनाम संपादक श्री राजेंद्र शर्मा होंगे तथा अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार डा. हिमांशु द्विवेदी करेंगे। आयोजन में पद्श्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव श्री कृपाशंकर शर्मा और फिल्म अभिनेता श्री राजीव वर्मा विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल होंगें। कार्यक्रम का संचालन संस्कृतिकर्मी श्री विनय उपाध्याय करेगें।
     कार्यक्रम के पहले सत्र में सायं चार बजे एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता विषय पर सामाजिक कार्यकर्ता एवं विचारक श्री हरेंद्र प्रताप का व्याख्यान होगा, जिसकी अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला करेंगें।

       पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयर, डा. सच्चिदानंद जोशी शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज, व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय, कला समय के संपादक विनय उपाध्याय (भोपाल) एवं संवेद के संपादक किशन कालजयी(दिल्ली) को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।                                                                           

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

सेवा से दिल जीतने की कोशिश

-संजय द्विवेदी


     समाज में व्याप्त भेदभाव, छूआछूत, को मिटाने के लिए संत रविदास ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनके आदर्शों और कर्मों से सामाजिक एकता की मिसाल हमें देखने को मिलती है लेकिन वर्तमान दौर में इस सामाजिक विषमता को मिटाने के सरकारी प्रयास असफल ही कहे जा सकते हैं। कहीं-कहीं आशा की किरण समाज क्षेत्र में कार्यरत सेवा भारती जैसे संस्थानों के प्रकल्पों में दृष्टिगोचर होती है।
   भारत गावों में बसता है, गांवों में आज भी सामाजिक कुरीतियां कम नहीं हुयी हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने छुआछूत को मिटाने का नारा दिया, उनका जीवन भी सामाजिक समरसता की मिसाल है। गांधी जी ने स्वाधीनता आंदोलन में जितने भी प्रकल्प तय किए, उनका ध्येय भारत की सामाजिक विषमता को पाटना था। वे चाहते थे कि समाज में ऊंच-नीच, भेदभाव, लिंग अनुपात और आर्थिक सम्पन्नता,विपन्नता की खांई खत्म हो और भारत एक लय, एक स्वर, एक समानता और एक अखंडता के साथ मंडलाकार प्रवृत्ति में विश्व का नेतृत्व करे। कुछ ऐसी ही परिकल्पना पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी की। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामाजिक एकता के इसी प्रकल्प को आगे बढ़ा रहे हैं।
  आजादी के लगभग सत्तर वर्षों के बाद भी भारत से गरीबी हटी नहीं है और सामाजिक विषमता दूर नहीं हो सकी है। इस विषमता से समाज में लड़ाई-झगड़े, वैमनस्यता और ऊंच-नीच की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस समस्या को भारत में मिटाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ आगे आया और सेवा के अनेक प्रकल्प शुरू किए। उनके इन सेवा प्रकल्पों का उद्देश्य भेदभाव से मुक्त, स्वाभिमानी-समरस और आत्मनिर्भर समाज बनाना था। सेवा भारती, संघ का एक ऐसा ही संगठन है जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक जागरण एवं कौशल विकास के लगभग हजारों केंद्रों के द्वारा प्रकल्प चला रहा है। सेवा भारती इस मुहिम में 25 वर्षों से जुटा हुआ है। वर्ष 2017 सेवा भारती का रजत जयंती वर्ष है। इस वर्ष में सेवा भारती अपने प्रकल्पों का आत्मावलोकन कर रहा है और नए प्रकल्पों पर विचार कर रहा है। रजत जयंती वर्ष पर सेवा भारती भोपाल के लाल परेड मैदान पर ऐसे हजारों श्रम साधकों का संगम करने जा रहा है। इस संगम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत स्वयं उपस्थित होगें। इस आयोजन में श्रमिकों और गरीब व पिछड़े वर्गों के लिए जीवन समर्पित करने वाले साधकों का सम्मान भी होगा।
  आरएसएस निरंतर समाज के पिछड़े वर्गों की ओर देखता रहा है और विविध प्रकल्पों के जरिए उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रहा है। यह सच है कि संत रविदास एक ऐसे संत थे जिन्होंने जीवन भर श्रम की साधना की। श्रम को प्रतिष्ठा करने वाले इस महान संत के शिष्यों में काशी नरेश व भक्त मीराबाई भी रहीं। अपने धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास के कारण संत रविदास जी ने दिल्ली के शासक सिकंदर लोधी को भी कह दिया था कि मैं प्राण त्याग दूंगा पर अपना धर्म नहीं छोडूंगा। हमारे अनेक संतों की तरह संत रविदास जी ने भी जन्म के आधार पर ऊंच-नीच को नकार दिया था। श्रम साधक समागम उन्हीं संत रविदास जी की जयंती पर आयोजित किया जा रहा है। माना जा सकता है कि भोपाल के लाल परेड मैदान से  संत रविदास की दृष्टि समाज के अंतिम छोर तक पहुंचेगी और जाति, पंथ के आधार पर भेदभाव को मिटाने में कारगर हो सकेगी। यह साधारण नहीं है कि मध्यप्रदेश आरंभ से ही संघ की एक प्रयोगशाला रहा है, जहां उसने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रों में विविध प्रयोग किए हैं। बैतूल एक ऐसा जिला है, जहां पर 200 गांवों को केंद्र बनाकर ग्रामीण विकास का एक नया अध्याय लिखने की पहल हुयी है। संघ के सरसंचालक मोहन भागवत ने ग्रामीण विकास के इन प्रकल्पों को सराहा है। यह साधारण नहीं है कि संघचालक मोहन राव भागवत 7 से 13 फरवरी तक मध्यप्रदेश के इन क्षेत्रों में रहते हुए, खुद सामाजिक बदलाव के इन दृश्यों का जायजा लेगें। इसके तहत बैतूल जिले में नशामुक्ति, आर्थिक-सामाजिक विकास, पर्यावरण जैसे विषयों पर हो रहे ये काम निश्चय ही बदलते भारत की बानगी पेश करते हैं।

   मध्यप्रदेश एवं देश के तमाम राज्यों में सरकारी स्तर पर भी कई योजनाएं श्रमिक और निचले तबके के  उत्थान के लिए बनती रही हैं। उन योजनाओं से इन वर्गों में कोई आमूलचूल बदलाव हुआ हो ऐसा कम ही दिखाई देता है। आजादी के सत्तर वर्षों में यदि सरकारी योजनाएं आम आदमी तक पहुंच पाती तो संत रविदास,राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बाबा साहेब आंबेडकर और पं. दीनदयाल उपाध्याय के सपने सच हो जाते। किंतु अफसोस है कि बदलाव की यह गति उतनी तेज नहीं रही जितनी होनी चाहिए। सरकारें आज भी उन्हीं के लिए योजना बना रही हैं और हर बजट में अधिक वित्त का प्रावधान करती हैं किंतु धरातल पर सूरतेहाल नहीं बदलते। यही कारण है कि सामाजिक विषमता अमरबेल की तरह पनप रही है। इस वर्ग के जो व्यक्ति समाज का नेतृत्व करते हैं, वह भी आगे आ जाने पर पीछे मुड़कर नहीं देखते हैं। बाद में अपने लोग ही उन्हें बेगाने लगने लगते हैं। सरकारी स्तर पर इस सामाजिक विषमता को पाटना नामुमकिन लगता है। इसमें समाज और सामाजिक संगठनों की सहभागिता जरूरी है। इसी ध्येय को आत्मसात कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सामाजिक विषमता को दूर करने का बीड़ा उठाया है और सेवा प्रकल्पों में श्रम साधकों के माध्यम से सामाजिक साधना का काम निरंतर किया जा रहा है। भोपाल के इस महती आयोजन में शामिल होने वाले लोग दरअसल वे हैं जो दैनिक रोजी-रोजी कमाने के लिए रोज अपना पसीना बहाते हैं। इन वर्गों से संवाद और उनकी एकजुटता के बहाने संघ एक बड़ी सामाजिक पहल कर रहा है, इसमें दो राय नहीं है।