सोमवार, 19 सितंबर 2016

एक विफल देश का शोक गीत !

-संजय द्विवेदी

   पाकिस्तान प्रायोजित हमलों से तबाह भारत आज दुखी है, संतप्त है और क्षोभ से भरा हुआ है। उसकी जंग एक ऐसे देश से है जो असफल हो चुका है, नष्ट हो चुका है और जिसके पास खुद को संयुक्त रखने का एक ही उपाय है कि भारत के साथ युद्ध के हालात बने रहें। भारत का भय ही अब पाकिस्तान के एक रहने का गारंटी है।
   पाकिस्तान जैसा पड़ोसी पाकर कोई भी देश सिर्फ दुखी रह सकता है। क्योंकि पाकिस्तान में सरकार जैसी कोई चीज है नहीं, और है भी तो, सेना तथा आतंकी समूहों पर उसका कोई जोर नहीं है। ऐसे में भारत किसके साथ संवाद करना चाह रहा है, किससे रिश्ते सुधारना चाह रहा है? और इस उम्मीद में कि पड़ोसी सुधर जाएगा सात दशक बीत चुके हैं, कश्मीर से लेकर देश की आंतरिक सुरक्षा को बिगाड़ने के लिए पाकिस्तान ने कितने षडयंत्र किए यह किसी से छिपी बात नहीं है। किंतु यह सिलसिला जारी है और इसके रूकने की उम्मीद कम है। अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद की थ्योरी पर काम कर रहे पाकिस्तान को पता है कि चीजें उसके हाथ से भी निकल चुकी हैं। वह अपने ही बनाए जाल में इस तरह फंस चुका है कि उसका सत्ता प्रतिष्ठान भी अब चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। आतंकी संगठन और मौलाना वहां की सत्ता को इस तरह निर्देशित कर रहे हैं कि सत्ता अपने मायने खो बैठी है।
   कश्मीर की जंग को भी दरअसल जमीन पर लड़ते हुए पाकिस्तान थक चुका है। इसलिए उसने सीधी कार्रवाई के बजाए कश्मीर के युवाओं को आगे किया है। यह पत्थर फेंकने वाला गिरोह दरअसल पाकिस्तान प्रेरित गुमराह युवा हैं, जिन्हें पाकिस्तान रूपी जन्नत की हकीकत अभी पता नहीं हैं। वे आजादी के मायने में नहीं जानते वरना उन्हें पाक अधिकृत कश्मीर के हालात देखने चाहिए,जो उनसे ज्यादा दूर नहीं है। पाकिस्तान की इस आत्मघाती मानसिकता के निर्माण के पीछे दरअसल उसके जन्म की कथा को भी देखना चाहिए। वह एक ऐसा राष्ट्र है, जिसका कोई सपना नहीं है। वह हर तरह से भारत के विरोध से उपजा हुआ एक देश है। जिसने जिद करके एक भूगोल पाया है।
   पाकिस्तान की रगों में भारत-घृणा का खून है। वह एक बैचेन देश है, जिसने अपने सपने तो पूरे किए नहीं और न खुद की एकता कायम रख सका। अपने लोगों पर दमन-अत्याचार की कहानी उसने बंटवारे के बाद फिर दोहराई जिसका परिणाम बंगलादेश के रूप में सामने आया। आज भी वह बलूचिस्तान, गिलगित और पीओके में यही कर रहा है। जम्मू और कश्मीर में भी उसे शांति सहन नहीं होती। भारत में रहकर प्रगति कर रहे इलाके उसे रास नहीं आते। यहां हो रही चौतरफा समृद्धि से उसे डाह होती है। बाकी देशों की तुलना में पाकिस्तान की जलन और कुढ़न ज्यादा है, क्योंकि वह भारत से अलग होकर बना देश है। भारत विरोध उसके डीएनए में है। खुद को बनाने, विकसित करने और अपनी ज्यादातर आबादी की खुशी के बजाए उसका सारा ध्यान भारत को नष्ट करने, उसे तबाह करने में है।
    एक नष्ट हो चुका देश, अपने लोगों को न्याय दिलाने के बजाए बंदूकों और तोपों से बलूचिस्तान को रौंद रहा है। ऐसे देश से मानवीय पहल की उम्मीदें व्यर्थ हैं। उनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे लोगों की मौतों और आर्तनाद पर कोई संवेदना भरी प्रतिक्रिया देगें। भारत जैसे देश ने पिछले सालों में आतंकवाद के नाम पर काफी कुछ सहा है, भोगा है। यह एक अंतहीन  पीड़ा है जिससे देश अब निजात चाहता है। अपने लोगों की मौत पर उन्हें कंधा देते-देते भारत का मन दुखी है। वह एक विफल देश द्वारा दिए जा रहे जख्मों को अब और नहीं सह सकता। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान को यह सोचना होगा कि भारत से तीन युद्ध लड़कर उसे क्या मिला?  एक देश अलग हो गया- जिसका नाम बंगलादेश है। पाकिस्तान अब एक छद्म युद्ध लड़ रहा है और भारत को उलझाए रखना चाहता है। एक विफल देश इससे ज्यादा कर भी क्या सकता है। किंतु भारत के पास अब धीरज खो देने के अलावा क्या विकल्प हैं। निश्चित ही भारत अमरीका नहीं है। वह रूस भी नहीं है, लेकिन भारत एक स्वाभिमानी राष्ट्र जरूर है। उसे पता है अपने मुकुट मणि जम्मू-कश्मीर को दिए जा रहे धावों का कैसा जवाब पाकिस्तान को देना है।

   पाकिस्तानी दरअसल एक बदहवासी में डूबा देश बन चुका है। जहां तर्क गायब हैं। जहां बुद्धिजीवियों, पढ़े-लिखे तबकों की जुबानें बंद हैं। जहां भावना के आधार पर पंथिक तकरीरें करने वाले लोग वहां का मिजाज बना रहे हैं। पाकिस्तान ने एक देश के रूप में अपने आप पर भरोसा खो दिया है। वहां पर नान स्टेट एक्टर्स ज्यादा प्रभावी भूमिका में दिखते हैं। ऐसे में इस पाकिस्तान का कायम रहना मानवता के लिए एक बड़ा संकट है। समूची दुनिया इस खतरे को देख रही है, महसूस कर रही है। भारत के जख्म भी अब नासूर बन चुके हैं। आज पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान चाहकर भी विश्व समुदाय से कोई वादा करने की स्थिति में नहीं है। वह आतंकी समूहों के प्रति मौन रहने के लिए मजबूर है। जिन्ना का पाकिस्तान सच में बिखर चुका है। वह मानसिक,वैचारिक, सांगठनिक तीनों घरातल पर एक टूटा हुआ देश है। बहुत सी क्षेत्रीय अस्मिताएं वहां इस पाकिस्तान से मुक्ति के लिए चिंतित और प्रयासरत हैं। एक विफल देश के साथ हर कोई अपनी किस्मत नहीं जोड़ना चाहता। हर सुबह काम पर जाते पाकिस्तानी शाम को घर सुरक्षित आने की दुआएं करते हुए निकलते हैं। कराची से लेकर मुजफ्फराबाद तक यह आग फैली हुयी है। विश्व शांति के लिए खतरा बन चुके पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान से मुक्ति ही इस संकट का समाधान है। ताकि इस उपमहाद्वीप के लोग फिर से एक खूबसूरत-शांति प्रिय समाज और जमीन का सपना देख सकें। क्या एक विफल हो चुके देश से मुक्ति अब विश्व मानवता का सपना नहीं होना चाहिए? लोगों के सुख-चैन और एक बेहतर दुनिया के लिए आप कितना बर्दाश्त करेगें? भारत को तोड़ने का सपना देखने वाले अब इंतिहा कर चुके हैं। सब्र का प्याला भी भर चुका है। ऐसे समय में विश्व समुदाय को पाकिस्तान संकट का स्थार्ई हल निकालने के लिए तुरंत आगे आना चाहिए, ताकि एक सुंदर दुनिया का सपने देखने की चाहत रखने वाली आंखें थक न जाएं। 

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

लोकजीवन का चितेरा पत्रकार

-संजय द्विवेदी

   पं.श्यामलाल चतुर्वेदी और उनकी पत्रकारिता सही मायने में लोक से जुड़ी हुई है। वे लोकमन, लोकजीवन और ग्राम्य जीवन के वास्तविक प्रवक्ता हैं। वे मूलतः एक आंचलिक पत्रकार हैं, जिनका मन लोक में ही रमता है। वे गांव,गरीब, किसान और लोक अंचल की प्रदर्शन कलाओं को मुग्ध होकर निहारते हैं, उन पर निहाल हैं और उनके आसपास ही उनकी समूची पत्रकारिता ठहर सी गई है। उनकी पत्रकारिता में लोकतत्व अनिवार्य है। विकास की चाह, लोकमन की आकांक्षाएं, उनके सपने, उनके आर्तनाद और पीड़ा ही दरअसल श्यामलाल जी पत्रकारिता को लोकमंगल की पत्रकारिता से जोड़ते हैं। उनकी समूची पत्रकारिता न्याय के लिए प्रतीक्षारत समाज की इच्छाओं का प्रकटीकरण है।
  लोक में रचा-बसा उनका समग्र जीवन हमें बताता है कि पत्रकारिता ऐसे भी की जा सकती है। वे अध्यापक रहे हैं, और पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। नई दुनिया और युगधर्म जैसे अखबारों से जुड़े रहकर उन्होंने अपने परिवेश, समुदाय और क्षेत्र के हितों को निरंतर अभिव्यक्ति दी है। मूलतः संवाददाता होने के नाते उनके विपुल लेखन का आकलन संभव नहीं है, क्योंकि संवाददाता खबरें या समाचार लिखता है जो तुरंत ही पुरानी पड़ जाती हैं। जबकि विचार लिखने वाले, लेखमालाएं लिखने वाले पत्रकारों को थोड़ा समय जरूर मिलता है। श्यामलाल जी ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान कितनी खबरें लिखीं और उनसे क्या मुद्दे उठे क्या समाधान निकले इसके लिए एक विस्तृत शोध की जरूरत है। उनसे चर्चा कर उनके इस अवदान को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनकी यायावरी और निरंतर लेखन ने एक पूरे समय को चिन्हित और रेखांकित किया है, इसमें दो राय नहीं है। अपने कुछ सामयिक लेखों से भी हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहे हैं।
गुणों के पारखी-विकास के चितेरेः
श्यामलाल जी पत्रकारिता में सकारात्मकता के तत्व विद्यमान हैं। वे पत्रकारिता से प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा तो रखते हैं किंतु गुणों के पारखी भी हैं। उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा में सिर्फ खबर बनाने के लिए नकारात्मकता को प्रश्रय नहीं दिया। वे मानते हैं कि पत्रकारिता का काम साहित्य की तरह ही उजाला फैलाना है, दिशा दिखाना है और वह दिशा है विकास की, समृद्धि की, न्याय की। अपने लोगों और अपने छत्तीसगढ़ अंचल को न्याय दिलाने की गूंज उनकी समूची पत्रकारिता में दिखती है। वे बोलते, लिखते और जीते हुए एक आम-आदमी की आवाज को उठाते, पहुंचाते और बताते हैं। सही मायने में एक संपूर्ण संचारकर्ता हैं। वे एक बेहतर कम्युनिकेटर हैं, जो लिखकर और बोलकर दोनों ही भूमिकाओं से न्याय करता है। अपने गांव कोटमी सोनार से आकर बिलासपुर में भी वे अपने गांव, उसकी माटी की सोंधी महक को नहीं भूलते। वे भोपाल, दिल्ली और रायपुर में सत्ताधीशों के बीच भी अपनी वाणी, माटी के दर्द और उसकी पीड़ा के ही वाहक होते हैं। वे भूलते कुछ भी नहीं बल्कि लोगों को भी याद दिलाते हैं कि हमारी जड़ें कहां हैं और हमारे लोग किस हाल में हैं। व्यंग्य में कही उनकी बातें अंदर तक चुभ जाती हैं और हमें आत्मवलोकन के लिए मजबूर करती हैं।
श्रेष्ठ संचारक-योग्य पत्रकारः
 श्यामलाल जी एक योग्य पत्रकार हैं किंतु उससे बड़े संचारक या संप्रेषक हैं। उनकी संवाद कला अप्रतिम है। वे लिख रहे हों या बोल रहे हों। दोनों तरह से आप उनके मुरीद हो जाते हैं। कम्युनिकेशन या संचार की यह कला उन्हें विरासत में मिली है और लोकतत्व ने उसे और पैना बनाया है। वे जीवन की भाषा बोलते हैं और उसे ही लिखते हैं। ऐसे में उनका संचार प्रभावी हो जाता है। वे सरलता से बड़ी से बड़ी बात कह जाते हैं और उसका प्रभाव देखते ही बनता है। आज जब कम्युनिकेशन को पढ़ाने और सिखाने के तमाम प्रशिक्षण और कोर्स उपलब्ध हैं, श्यामलाल जी हमें सिखाते हैं कि कैसे लोक किसी व्यक्ति को बनाता है। श्यामलाल जी इस मायने में विलक्षण हैं। एक संवाददाता होने के नाते लोकजीवन से लेकर राजपुरूषों तक उनकी उपस्थिति रही है। किंतु वे दरबारों में भी अपनी जड़ों को नहीं भूलते। वे खरी-खरी कहते हैं और अपने लोगों के पक्ष में हमेशा एक प्रवक्ता की तरह खड़े दिखते हैं। हमारे समय में श्यामलाल जी का होना दरअसल इस कठिन में मूल्याधारित पत्रकारिता की एक मशाल और मिसाल दोनों है। जबकि बाजार की हवाओं ने लोक तत्व को ही नहीं बल्कि ग्राम्य जीवन को ही मीडिया से बहिष्कृत कर दिया है। तब भी श्यामलाल जी जैसे लोग यह याद दिलाते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।
वेदों से पुरानी है लोक चेतनाः
   श्यामलाल जी जैसे साधक हमें बताते हैं अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। इस समय की चुनौती यह है कि हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है, जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविराय कहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बो नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोक की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। श्यामलाल जी दरअसल इसी भावभूमि पर अरसे से काम कर रहे हैं। उनकी पत्रकारिता में यह दरअसल इसी लोकभूमि से बनी और विकसित हुई है।

    हम सबके बीच श्यामलाल जी की उपस्थिति सही मायने में एक ऐसे यात्री की उपस्थिति है, जिसकी बैचेनियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। उनकी आंखों में वही चमक, वाणी में वही ओज और जोश मौजूद है जिसका सपना उन्होंने अपनी युवा अवस्था में देखा होगा। आज भी अखबारों या पत्रिकाओं में कुछ अच्छा पढ़कर अपनी नई पीढ़ी की पीठ ठोंकना उन्हें आता है। वे निराश नहीं हैं, हताश तो बिल्कुल नहीं। वे उम्मीदों से भरे हुए हैं, उनका इंतजार जारी है। एक उजले समय के लिए... एक उजली पत्रकारिता के लिए.. एक सुखी-समृद्ध छत्तीसगढ़ के लिए...आत्मनिर्भर गांवों के लिए.. एक समृध्द लोकजीवन के लिए। 

बुधवार, 14 सितंबर 2016

युवा ही लाएंगे हिंदी समय !

अब लडाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं हिंदी को बचाने की है
-संजय द्विवेदी

  सरकारों के भरोसे हिंदी का विकास और विस्तार सोचने वालों को अब मान लेना चाहिए कि राजनीति और सत्ता से हिंदी का भला नहीं हो सकता। हिंदी एक ऐसी सूली पर चढ़ा दी गयी है, जहां उसे रहना तो अंग्रेजी की अनुगामी ही है। आत्मदैन्य से घिरा हिंदी समाज खुद ही भाषा की दुर्गति के लिए जिम्मेदार है। हिंदी को लेकर न सिर्फ हमारा भरोसा टूटा है बल्कि आत्मविश्वास भी खत्म हो चुका है। यह आत्मविश्वास कई स्तरों पर खंडित हुआ है। हमें और हमारी आने वाली पीढियों को यह बता दिया गया है कि अंग्रेजी के बिना उनका कोई भविष्य नहीं है। हमारी सबसे बड़ी अदालत भी इस देश के जन की भाषा को न तो समझती है, न ही बोलती है। ऐसे में सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा भर रह गयी हिंदी से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।
      सरकारों का संकट यह है कि वे चीन, जापान, रूस जैसे तमाम देशों के भाषा प्रेम और विकास से अवगत हैं किंतु वे नई पीढ़ी को ऐसे आत्मदैन्य से भर चुके हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर उनका आत्मविश्वास और गौरव दोनों चकनाचूर हो चुका है। आप कुछ भी कहें हिंदी की दीनता जारी रहने वाली है और यह विलाप का विषय नहीं है। महात्मा गांधी के राष्ट्रभाषा प्रेम के बाद भी हमने जैसी भाषा नीति बनाई वह सामने है। वे गलतियां आज भी जारी हैं और इस सिलसिले की रुकने की उम्मीदें कम ही हैं। संसद से लेकर अदालत तक, इंटरव्यू से लेकर नौकरी तक, सब अंग्रेजी से होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित कैसे होगी? आजादी के सत्तर साल बाद अंग्रेजी को हटाना तो दूर हम हिंदी को उसकी जगह भी नहीं दिलवा पाए हैं। समूचा राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक तंत्र अंग्रेजी में ही सोचता, बोलता और व्यवहार करता है। ऐसे तंत्र में हमारे भाषाई समाज के प्रति संवेदना कैसे हो सकती है। उनकी नजर में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं एक वर्नाक्यूलर भाषाएं हैं। ये राज काज की भाषा नहीं है। कितना आश्चर्य है कि जिन भाषाओं के सहारे हमने अपनी आजादी की जंग लड़ी, स्वराज और सुराज के सपने बुने, जो केवल हमारे सपनों एवं अपनों ही नहीं अपितु आकांक्षाओं से लेकर आर्तनाद की भाषाएं हैं, उन्हें हम भुलाकर अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
     हिंदी दिवस मनाता समाज यह बता रहा है कि हम कहां हैं? यह बात बताती है कि दरअसल हिंदी के लिए बस यही एक ही दिन बचा है, बाकी 364 दिन अंग्रेजी के ही हैं। यह ढोंग और पाखंड हमारी खूबी है कि हम जिसे जी नहीं सकते, उसके उत्सव मनाते हैं। घरों से निष्काषित हो रही, शिक्षा से हकाली जा रही हिंदी अब दिनों, सप्ताहों और पखवाड़ों की चीज है। यह पाखंड पर्व निरंतर है और इससे हिंदी का कोई भला नहीं हो रहा है। राजनीति, जिससे उम्मीदें वह भी पराजित हो चुकी है।
     समाजवादियों से लेकर राष्ट्रवादियों तक ने भाषा के सवाल पर अपने मूल्यों से शीर्षासन कर लिया है। अब उम्मीद किससे की जाए?  इस घने अंधेरे में महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया, पुरूषोत्तमदास टंडन जैसे राजनेता और मार्गदर्शक हमारे बीच नहीं हैं। जो हैं भी वे सब के सब आत्मसमर्पणकारी मुद्रा में हैं। कभी लगता था कि कोई अहिंदी भाषी देश का प्रधानमंत्री बनेगा तो हिंदी के दिन बहुरेगें। लेकिन लगता है वह उम्मीद भी अब हवा हो चुकी है। राजनेताओं ने जिस तरह से अंग्रेजी के आतंक के सामने आत्मसमर्पण किया है, वह एक अद्भुत कथा है। वहीं हिंदी समाज भी लगभग इसी मुद्रा में है। इसलिए राजनीति और उसके सितारों से हिंदी को कोई उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। नया दौर इस अंग्रेजी और अंग्रेजियत को पालने-पोसने वाला ही साबित हुआ है। हमारे समय के एक बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं- दिल्ली हमका चाकर कीन्ह, दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह।
हिंदी में वोट मांगते और हिंदी के सहारे राजसत्ता पाने वाले ही, दिल्ली पहुंचकर सबसे पहले देश की भाषा को भूलते हैं और उन्हें प्रशासनिक तंत्र के वही तर्क रास आने लगते हैं, जिसकी पूर्व में उन्होंने सर्वाधिक आलोचना की हुई होती है। दिल्ली उन्हें अपने जैसा बना लेती है। अनेक हिंदी भक्त प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे पर हिंदी तो वहीं की वहीं है, अंग्रेजी का विस्तार और प्रभाव कई गुना बढ़ गया। लार्ड मैकाले जो नहीं कर पाए, वह हमारे भूमि पुत्रों ने कर दिया और गांव-गांव तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए। अंग्रेजी सिखाना एक उद्योग में बदल गया। अंग्रेजी न जानने के कारण आत्मविश्वास खोकर इस देश की नौजवानी आत्महत्या तक करती रही, लेकिन सत्ता अपनी चाल में मस्त है।
  ऐसे में भरोसा फिर उन्हीं नौजवानों का करना होगा जो एक नए भारत के निर्माण के लिए जुटी है। जो अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहती है। जो जड़ों में मुक्ति खोज रही है। भरोसे और आत्मविश्वास से दमकते तमाम चेहरों का इंतजार भारत कर रहा है। ऐसे चेहरे जो भारत की बात भारत की भाषाओं में करेंगे। जो अंग्रेजी में दक्ष होंगे, किंतु अपनी भाषाओं को लेकर गर्व से भरे होंगे। उनमें हिंदी मीडियम टाइप (एचएमटी) या वर्नाकुलर पर्सन कहे जाने पर दीनता पैदा नहीं होगी बल्कि वे अपने काम से लोगों का, दुनिया का भरोसा जीतेंगे। हिंदी और भारतीय भाषाओं की विदाई के इस कठिन समय में देश ऐसे युवाओं का इंतजार कर है जो अपनी भारतीयता को उसकी भाषा, उसकी परंपरा, उसकी संस्कृति के साथ समग्रता में स्वीकार करेंगे। जिनके लिए परम्परा और संस्कृति एक बोझ नहीं बल्कि गौरव का कारण होगी।

   एक युवा क्रांति देश में प्रतीक्षित है। यह नौजवानी आज कई क्षेत्रों में सक्रिय दिखती है। खासकर सूचना-प्रौद्योगिकी की दुनिया में। जिन्होंने इस भ्रम को तोड़ दिया कि आई टी की दुनिया में बिना अंग्रेजी के गुजारा नहीं है। ये लोग ही भरोसा जगा रहे हैं। ये भारत को भी जगा रहे हैं। एक गुजराती भाषी अपनी राष्ट्रभाषा में ही इस देश को संबोधित कर प्रधानमंत्री बना है। भरोसा जगाते ऐसे कई दृश्य हैं अमिताभ बच्चन हैं, प्रसून जोशी हैं, बाबा रामदेव, नरेंद्र कोहली हैं, लता मंगेश्कर हैं। जिनके श्रीमुख और कलम से मुखरित-व्यक्त होती हिंदी ही तो देश की ताकत है। आजादी के सात दशक के बाद हिंदी दिवस मनाने के बजाए हम हिंदी को उसका वास्तविक स्थान दिलाने, घरों और नई पीढ़ी तक हिंदी और भारतीय भाषाओं को पहुंचाने का काम करें तो ही अंग्रेजी के विस्तारवाद से लड़ सकेंगे। अब लड़ाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं, हिंदी और भारतीय भाषाओं को बचाने की है, अपने घर से बेधर न हो जाने की है।

शनिवार, 27 अगस्त 2016

जमीनी युद्धों के साथ वैचारिक साम्राज्यवाद से लड़ने का सही समय

-संजय द्विवेदी


  देश की असुरक्षित सीमाओं और साथ-साथ देश के भीतर पल रहे असंतोष के मद्देनजर राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल इन दिनों बहुत महत्वपूर्ण हो गया। आतंकवाद और माओवाद के मानवता विरोधी आचरण से टकराता राज्य अकेला इन सवालों से जूझ नहीं सकता। यह युद्ध समाज, मीडिया और आमजन की एकजुटता के बिना जीतना असंभव सा है। ऐसे में एकता, जागरूकता और राष्ट्रीयता के भाव ही हमें बचा सकते हैं। हमारे देश का युवा संवेदनशील है, किंतु देश के ज्वलंत सवालों पर न तो उसकी समझ है न ही उसे प्रशिक्षित करने के यत्न हो रहे हैं। युवा शक्ति को बांटने और लड़ाने के लिए भाषा, जाति, क्षेत्र, समुदाय के सवाल जरूर खड़े किए जा रहे हैं। राष्ट्रीयता को जगाने और बढ़ाने का हमारे पास कोई उपक्रम नहीं है। शिक्षण संस्थान और परिवार दोनों इस सवाल पर उदासीन हैं। वे कैरियर और सफलता के आगे कोई राह दिखाने में विफल हैं, जिनसे अंततः असंतोष ही पनपता है और अवसाद बढ़ता है।
कठिन है यह युद्धः दुनिया के पैमाने पर युद्ध की शक्लें अब बदल गयी हैं। यह साइबर वारफेयर का भी समय है। जहां आपके लोगों का दिलोदिमाग बदलकर आपके खिलाफ ही इस्तेमाल किया जा सकता है। पूर्व के परंपरागत युद्धों में व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से संघर्ष करता था। यह संघर्ष शारीरिक और बाद में हथियारों से होने लगा। विकास के साथ दूर तक और ज्यादा नुकसान पैदा करने वाले हथियार और विनाशकारी संसाधन बने। आधुनिक समय में सूचना भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो रही है। सूचना भी एक शक्ति है और हथियार भी। ऐसे में कोलोजियम आफ माइंड्स (वैचारिक साम्राज्यवाद) का समय आ पहुंचा है। जहां लोगों के दिमागों पर कब्जा कर उनसे वह सारे काम करवाए जा सकते हैं जिससे उनके देश, समाज या राष्ट्र का नुकसान है। अपने ही देश में देश के खिलाफ नारे, देशतोड़क गतिविधियों में सहभाग, हिंदुस्तानी युवाओं का आईएस जैसे खतरनाक संगठन के आकर्षण में आना और वहां युद्ध के लिए चले जाना, भारत में रहकर दूसरे देशों के पक्ष बौद्धिक वातावरण बनाना, अन्य देशों के लिए लाबिंग इसके ही उदाहरण हैं। लार्ड मैकाले जो करना चाहते थे, नई तकनीकों ने उन्हें और संभव बनाया है। कश्मीर में आतंक बुरहान वानी की मौत के बाद साइबर मीडिया में जो माहौल बना वह बताता है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इस युद्ध के लड़ाके और आंदोलनकारी दोनों साइबर स्पेस पर तलाशे जा रहे हैं। एक ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें राज्य की हिंसा तो हिंसा ही है अपितु अलगाववादी समूहों की हिंसा भी जायज बन जाती है। ऐसे कठिन समय में हमें ज्यादा चैतन्य होकर अपनी रणनीति को अंजाम देना होगा।  
  अपने पड़ोसियों से हमारा एक लंबा छद्म युद्ध चल रहा है। चीन और पाकिस्तान ने अपने-अपने तरीकों से हमें परेशान कर रखा है। यह एक छद्म युद्ध भी है। इससे जीतने की तैयारी चाहिए। जैसे बंगलादेश में हमने एक जंग जीती किंतु नेपाल में हम वह नहीं कर पाए। आज नेपाल की एक बड़ी आबादी और राजनीति में भारतविरोधी भाव हैं। पाकिस्तान जो कश्मीर में कर पाया, वह हम पीओके, बलूचिस्तान या गिलगित में नहीं कर पाए। आजादी के सत्तर साल बाद कोई प्रधानमंत्री बलूचिस्तान के मुद्दे पर कुछ कह पाया? कश्मीर की आजादी के दीवानों ने न तो बलूचिस्तान देखा है, न पीओके और न ही गिलगित। चीन अपने विद्रोहियों से कैसे निपट रहा है, वह भी उनकी जानकारी में नहीं है। भारत को मानवाधिकारों का पाठ पढ़ा रहे देश खुद अपने देश में आम जन के साथ क्या आचरण कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।
भारतीय मीडिया की जिम्मेदारीः भारतीय मीडिया को भी इस साइबर वारफेयर में जिम्मेदार भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर ईराक,अफगान युद्ध में पश्चिमी मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हुए यह जानना जरूरी है कैसे मीडिया ने सत्य के साथ छेड़छाड़ की तथा वही दिखाया और बताया जो ताकतवर देश चाहते थे। ऐसे कठिन समय में भारतीय मीडिया को भारतीय पक्ष का विचार करना चाहिए। मीडिया लोगों का मत और मन बनाता है। अभिव्यक्ति की आजादी की संविधान प्रदत्त सीमा से आगे जाकर हमें प्रोपेगेंडा से बचना होगा। वस्तुनिष्ठ होकर स्थितियों का विश्वलेषण करना होगा। अफवाहों, मिथ और धारणाओं से परे हमें सत्य के अनुसंधान की ओर बढ़ना होगा। इस साइबर वारफेयर, साइको वारफेयर के वैश्विक युद्ध में सच्चाईयों को उजागर करने के यत्न करने होंगे। देश की भूमि पर वैचारिक आजादी की मांग करने वाले योद्धा तमाम सवालों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं। एक मुद्दे पर उनकी राय कुछ होती है, उसी के समानांतर दूसरे मुद्दे पर उनकी राय अलग होती है। यह द्वंद राजनीतिक लाभ उठाने और पोजिशिनिंग के नाते होता है। मीडिया को ऐसे खल बौद्धिकों के असली चेहरों को उजागर करना चाहिए। कश्मीर में ई-प्रोटेस्ट के जो प्रयोग हुए वे बताते हैं कि आज के समय में लोगों को गुमराह करना ज्यादा आसान है। सूचना की शक्ति और उसकी बहुलता ने आज एक नयी दुनिया रच ली है,जिसे पुराने हथियारों से नहीं निपटा जा सकता। 2002 में मिस्र के हुस्नी मुबारक ने अलजजीरा से तंग होकर कहा था कि सारे फसाद की जड़ यह ईडियट बाक्स है। तबसे आज काफी पानी गुजरा चुका है। न्यू मीडिया अपने नए-नए रूप धरकर एक बड़ी चुनौती बन चुका है। जहां टीवी से बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। सिटीजन जर्नलिज्म की अवधारणा भी एक नए अवसर और संकट दोनों को जन्म दे रही है। यह पारंपरिक मीडिया को एक चुनौती भी है और मौका भी। आप देखें तो नए मीडिया की शक्ति किस तरह सामने है कि ओसामा बिन लादेन की मौत और अमरीकी राष्ट्रपति की प्रेस कांफ्रेस के बीच दो घंटे 45 मिनट में 2.79 करोड़ ट्विट हो चुके थे। यह अकेला उदाहरण बताता है कि कैसा नया मीडिया इस नए समय में अपनी समूची शक्ति के साथ एक बड़े समाज को अपने साथ ले चुका है। सही मायने में भारतीय मीडिया को इस वक्त अपनी भूमिका पहचानने और आगे बढ़ने का समय आ गया है। वैचारिक साम्राज्यवाद और सूचना के साम्राज्यवाद के खिलाफ हमने आज जंग तेज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

-संजय द्विवेदी, 
अध्यक्षः जनसंचार विभाग,
 
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, 
प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 09893598888

शनिवार, 20 अगस्त 2016

हमारा कश्मीर, तुम्हारा बलूचिस्तान

-संजय द्विवेदी

     देर से ही सही भारत की सरकार ने एक ऐसे कड़वे सच पर हाथ रख दिया है जिससे पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान को मिर्ची लगनी ही थी। दूसरों के मामले में दखल देने और आतंकवाद को निर्यात करने की आदतन बीमारियां कैसे किसी देश को खुद की आग में जला डालती हैं, पाकिस्तान इसका उदाहरण है। बदले की आग में जलता पाकिस्तान कई लड़ाईयां हारकर भारत के खिलाफ एक छद्म युद्ध लड़ रहा है और कश्मीर के बहाने उसे जिलाए हुए है। पड़ोसी को छकाए-पकाए और आतंकित रखने की कोशिशों में उसने आतंकवाद को जिस तरह पाला-पोसा और राज्याश्रय दिया, आज वही लोग उसके लिए भस्मासुर बन गए हैं।
     दुनिया के देशों के बीच पाकिस्तानी वीजा एक लांछित और संदिग्ध वस्तु है। वहां के नागरिक जीवन में जिस तरह का भय और असुरक्षा व्याप्त है, उससे पाकिस्तान के जनजीवन के हालत का पता चलता है। सही मायने में वह अपनी ही लगाई आग में सुलगता हुआ देश है। जिसका खुद की ही कोई मुकाम और लक्ष्य नहीं है, वह भारत की तबाही में ही अपनी खुशी खोज रहा है। बावजूद इसके भारतीय उपमहाद्वीप के देश कहां से कहां जा पहुंचे हैं पर पाकिस्तान नीचे ही जा रहा है। अमरीकी और चीनी मदद और इमदाद पर वहां का सत्ता प्रतिष्ठान जिंदा है एवं लोग परेशान हाल हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस समय बलूचिस्तान, पीओके तथा गिलगित के सवाल उठाए हैं, यह वक्त ही इसके लिए सही समय है। यह समय पाकिस्तान को आईना दिखाने का भी है और कश्मीरी भाईयों को यह बताने का भी है कि पाकिस्तान के साथ होकर उनका हाल क्या हो सकता है। यहां सवाल नीयत का है। विश्व जानता है कि भारत ने कश्मीर की प्रगति और विकास के लिए क्या कुछ नहीं किया। आप पीओके से भारत के कश्मीर की तुलना करके प्रसन्न हो सकते हैं कि यहां पर भारत ने अपना सारा कुछ दांव पर लगाकर विकास के हर काम किए हैं।
    कश्मीर में लगातार बंद, हिंसा और आतंक की वजह से विकास की गति धीमी होने के बावजूद भी भारत सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, आवागमन और व्यापार हर नजरिए से कश्मीर को ताकत देन की कोशिशें की हैं। कश्मीर की वादियों में आतंक के बाद भी वहां विकास की गतिविधियां निरंतर हैं। अराजकता के बाद भी इरादे चट्टानी हैं। भारत की संसद ने हर बार उसे अपना अभिन्न अंग माना और नागरिकों को हो रहे कष्टों पर दुख जताया। यह नागरिकों को मिले दर्द से उपजी पीड़ा ही थी कि कश्मीरी नागरिकों को पैलेट गन से लगी चोटों पर संसद से लेकर न्यायपालिका तक चिंतित नजर आई। इस संवेदना को क्या बलूचिस्तान और पीओके में रह रहे लोग महसूस कर सकते हैं? क्या पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान और पाक सेना के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से दुनिया अनभिज्ञ है? बलूच नेताओं की वाणी से जो दर्द फूट रहा है, वह वहां के आवाम का दर्द है, उनकी पीड़ा है जो वे भोग रहे हैं। पाकिस्तान के अत्याचारों से कराहते ये इलाके उनकी सेना के बूटों से निकली हैवानियत की कहानी बयान करते हैं। बलूचिस्तान के भूमि पुत्र अपनी ही जमीन पर किस तरह लांछित हैं, यह एक काला अध्याय है। जबकि भारत का कश्मीर एक लोकतांत्रिक जमीन का हिस्सा है। भारत का दिल है, भारत का मुकुट है। हमारे कश्मीर में पाक प्रेरित आतंकियों ने बर्बर कार्रवाई कर कश्मीरी पंडितों पर भीषण अत्याचार किए, उन्हें कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए विवश कर दिया, किंतु फिर भी हर हिंदुस्तानी कश्मीरी की माटी और वहां के लोगों से उतनी ही मुहब्बत करता है जितनी पहले करता था।
     हर भारतीय को पता है कश्मीर में जो कुछ चल रहा है वह आम कश्मीरी हिंदुस्तानी का स्वभाव नहीं है। उसके नौजवानों को बहला-फुसला कर जेहाद के बहाने जन्नत के ख्वाब दिखाए गए हैं। उन्हें बताया गया है कि पाकिस्तान के साथ जाकर वे एक नई दुनिया में रहेंगें जहां सुख ही होगा, विकास होगा और वे एक नयी जमीन तोड़ सकेंगे। पाकिस्तान प्रेरित आतंकी कभी धन से कभी, आतंकित कर कश्मीरियों का इस्तेमाल कर उनकी जिंदगी को जहन्नुम बना रहे हैं। जबकि उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीर की हालत लोगों से छिपी नहीं है। बलूचियों का जिस तरह पाकिस्तान ने भरोसा तोड़ा और उनके मान-सम्मान और जीवन जीने के हक भी छीन लिए, वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में भारत में रहकर पाकिस्तान का सपना देखने वालों की आंखें खुल जानी चाहिए, क्योंकि भारत में होना एक लोकतंत्र में होना है। जहां कोई भी नागरिक- ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति, पुलिस या सेना के खिलाफ अपनी बात कर सकता है। उचित मंचों पर शिकायत भी कर सकता है। लेकिन पाकिस्तान में होना सेना और आतंकियों के द्वारा पोषित ऐसे खतरनाक लोगों के बीच रहना है जहां किसी की जान सलामत नहीं है। जो देश अपने नागरिकों में भी भेद रखता है, उनके ऊपर भी दमन चक्र चलाए रखता है। पाकिस्तान की जमीन इन्हीं पापों से लाल है और वहां असहमति के लिए कोई जगह नहीं है। भारत और पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान के चरित्र का आकलन और विश्लेषण करने वाले जानते हैं कि भारत ने खुद को पिछले सत्तर सालों में एक लोकतांत्रिक चरित्र के साथ विकसित किया है। अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत और स्थिर किया है। जबकि पाकिस्तान का लोकतंत्र आज भी सेना के बूटों तले कभी भी रौंदा जा सकता है। वहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों का क्या हाल है? इतना ही नहीं वहां के तमाम मुसलमान आज किस हाल में हैं। हत्याएं, आतंक और खून वहां का दैनिक चरित्र है।
     पूरी दुनिया के लिए खतरा बन चुके पाकिस्तान की सच्चाईयां सामने लाना जरूरी है। यह बताना जरूरी है कि कैसे सेना, मुल्ला और आतंकवादी मिलकर एक देश और वहां के आवाम को बंधक बना चुके हैं। कैसे वहां पर आतंकवाद को राज्याश्रय मिला हुआ है और सरकारें उनसे कांप रही हैं। पाकिस्तान का कंधा अपने मासूम बच्चों को कंधा देते हुए भी नहीं कांपा। वह आतंकवाद के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करता है, पर सच यह है कि ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने पाकिस्तान की जमीन पर ही पाया। आज भी ओसामा की मानसिकता लिए अनेक आतंकी और अपराधी वहां खुले आम घूमकर दहशतगर्दों की भर्ती करते हुए पूरी दुनिया में आतंक का निर्यात कर रहे हैं। ऐसे खतरनाक देश का टूटकर बिखर जाना ही विश्व मानवता के हित में है।

( लेखक राजनीतिक विश्वेषक है)

शनिवार, 6 अगस्त 2016

इस गर्जन-तर्जन से क्या हासिल?

अपनी पाकिस्तान यात्रा से आखिर क्या हासिल कर पाए हमारे गृहमंत्री
-संजय द्विवेदी

  जब पूरा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान कश्मीर में आग लगाने की कोशिशें में जुटा है तब हमारे गृहमंत्री राजनाथ सिंह पाकिस्तान क्यों गए, यह आज भी अबूझ पहेली है। वहां हुयी उपेक्षा, अपमान और भोजन छोड़कर स्वदेश आकर उनकी सिंह गर्जना से क्या हासिल हुआ है? क्या उनके इस प्रवास और आक्रामक वक्तव्य से पाकिस्तान कुछ भी सीख सका है? क्या उसकी सेहत पर इससे कोई फर्क पड़ा है? क्या उनके पाकिस्तान में दिए गए व्याख्यान से पाकिस्तान अब आतंकवादियों की शहादत पर अपना विलाप बंद कर देगा? क्या पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान भारत के प्रति सद्भाव से भर जाएगा और कश्मीर में आतंकवादियों को भेजना कर देगा? जाहिर तौर पर इसमें कुछ भी होने वाला नहीं है। इस यात्रा के बहाने पाकिस्तान के आतंकवादी जहां एक मंच पर आ गए वहीं पाकिस्तानी सरकार की उनके साथ संलग्नता साफ नजर आई। अपनी पीठ ठोंकने को गृहमंत्री और उनकी सरकार दोनों प्रसन्न हो सकते हैं, किंतु सही तो यह है कि संभावित अपमान से बचना ही बुद्धिमत्ता होती है।
   हमारे जाने का न कोई मान था, ना ही लौटकर आने से कोई इज्जत बढ़ी है। पाकिस्तान ने कश्मीर को एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने में सफलता हासिल कर ली है, जबकि हम पाक अधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान को लेकर अभी भी संकोच से भरे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब पाकिस्तान को हम उसी के हथियारों से जवाब देना सीखेगें? हम क्यों पाकिस्तान से रिश्ते रखने, सुधारने और संवाद रखने के लिए मरे जा रहे हैं? क्या हम पाकिस्तान के द्वारा निरंतर किए जा रहे पापों को भूल चुके हैं? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कश्मीर के सवाल पर, आतंकियों की पर मौत पर अपना दुख जताकर, कश्मीर को भारत में मिल जाने की दुआ कर रहे हैं। ऐसे में हम कौन सा मुंह लेकर उनसे हाथ मिलाने के लिए आतुर हैं। यह न रणनीति है, न कूटनीति और न ही समझदारी। भारत की इस तरह की कोशिशों से कोई लाभ मिलेगा, इसमें भी संदेह है।
    हमारे गृहमंत्री वहां से जिस मुद्रा में लौटे और जो वक्तव्य संसद में दिया, उसके बाद पूरे देश ने एकमत से उनका साथ दिया। संसद में कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों में एक सुर से उनकी उपेक्षा पर पाकिस्तान को खरी-खोटी सुनाई। एक देश के नाते यह एकजुटता, राष्ट्रीय मुद्दों पर एक राय जरूरी भी है। किंतु क्या जरूरी है कि हम अपमान के अवसर स्वंय तलाशें।
   पाकिस्तान से आज हमारे रिश्ते जिस मोड़ पर हैं, वहां गाड़ी पटरी से उतर चुकी है। एक विफल राष्ट्र पाकिस्तान और सेना की कृपा पर आश्रित वहां की सरकार आखिर आतंकवाद के खिलाफ क्या खाकर लड़ेगी? नवाज शरीफ जैसे परजीवी राजनेता को अगर सत्ता में रहना है तो कश्मीर राग और भारत विरोधी सुर अलापना ही होगा। यह समझना मुश्किल है कि भाजपा सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह अपमान, आतंक और हत्याएं सहकर भी पाकिस्तान से बेहतर रिश्ते बनाना चाहती है? हम चाहें तो बंगलादेश जैसै छोटे मुल्क से भी कुछ सीख सकते हैं। श्रीलंका से सीख सकते हैं, जिसने लिट्टे के आतंक का शानदार मुकाबला किया और अपनी अस्मिता को आंच नहीं आने दी। आज हालात यह हैं कि युद्ध के लिए हमारी ही जमीन का इस्तेमाल हो रहा है, हमारे अपने लोग ही हलाक हो रहे हैं। भारतीयों के हाथ में बंदूकें और एके-47 देकर पाकिस्तान ने हमारे सीने छलनी कर रखे हैं। कश्मीर की जंग को हम बहुत साधारण तरीके से ले रहे हैं। क्या हमने तय कर रखा है कि हमें अनंतकाल तक लड़ते ही रहना है, या हम इस छद्म युद्ध की कीमत थोड़ा बढ़ाएंगें। पाकिस्तान के लिए इस लड़ाई की कीमत बढाना ही इसका उपाय है। एक विफल राष्ट्र हमें लगातार धोखा दे रहा है और धोखा खाने को अपनी शान समझ बैठे हैं। किसके दम पर? अपने सैनिकों और आम लोगों के दम पर?
       संसद से लेकर आपके सबसे सुरक्षित एयरबेस तक हमले कर वे हमें बता चुके हैं कि पाकिस्तान क्या कर सकता है। किंतु लगता है कि हम इस छद्म युद्ध के आदी हो चुके हैं। हमें इसके साथ रहने में मजा आने लगा है। एक जमाने में जनरल जिया उल हक ने कहा था भारत को एक हजार जगह धाव दो। गिनिए तो यह संख्या भी पूरी हो चुकी है। भारत का पूरा शरीर छलनी है। हमारे सैनिकों की विधवाएं हमारे सामने एक सवाल की तरह हैं। हिंदुस्तान के कुछ लीडरों ने हालात ऐसे कर दिए हैं कि आप बहस भी नहीं कर सकते। अपनी सुरक्षा चिंताओं पर संवाद करना कठिन होता जा रहा है। आप संवाद इसलिए नहीं करते कि मुसलमान नाराज हो जाएंगें। क्या भारत की सुरक्षा चिंता मुसलमानों और हिंदुओं की साझा चिंता नहीं है। क्या भारत के मुसलमान किसी हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी और जैनी से कम भारतीय हैं? हम सब पहले हिंदुस्तानी हैं, बाद में कुछ और। इस भावना का विस्तार और लोकव्यापीकरण करना होगा। हमारा जीना-मरना इसी देश के लिए है। इसलिए अपने मानस में बदलाव लाते हुए, हर बात का राजनीतिकरण करने के बजाए, एक नए तरीके से सोचना होगा। ईरान जैसे देश ने सऊदी अरब से अपने राजनायिक संबंध तोड़ लिए , क्या मजबूरी है कि हम पाकिस्तान से रिश्ते बनाए हुए हैं। भारत सरकार पाक में पदस्थ राजनायिकों से कह रही है कि अपने बच्चों को पाकिस्तान के स्कूलों में न पढ़ाएं। क्या ही बड़ी बात होती, हम वहां अपने दूतावास बंद कर देते। आतंकी मानसिकता, धोखे व षडयंत्रों से बनी सोच से बने एक देश से हम दर्द के अलावा क्या पा सकते हैं? भारत की वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना मनुष्यों के लिए है, आतंकी सोच से भरी मानवता के दुश्मनों के लिए नहीं। दक्षेस के देशों को भी पता है कि पाकिस्तान की नीति और नीयत क्या है। खुद श्रीलंका ने लिट्टे के साथ क्या किया। हमें भी विश्व जनमत की बहुत परवाह किए बिना, अपने स्टैंड साफ करने होगें। एक व्यापारी देश की तरह मिमियाने के बजाए ताकत के साथ बात करनी होगी। हमारी जमीन आतंकवाद के लिए इस्तेमाल नहीं होगी, पाक को यह बहुत साफ बताना होगा। इसराइल, श्रीलंका और अमरीका हमारे सामने उदाहरण हैं। हमें भी अपनी शक्ति को पहचानना होगा। वाचिक गर्जन-तर्जन के बजाए, मैदान में उतरकर बताना होगा कि हमारे खिलाफ छद्म युद्ध कितना महंगा है। किंतु लगता है कि हम जबानी तलवारें भांजकर ही अपनी राष्ट्ररक्षा का दम भरते रहेगें और इस कायरता की कीमत सारा देश लंबे समय तक चुकाता रहेगा।

(लेखक राजनीतिक विश्वलेषक हैं)

सोमवार, 1 अगस्त 2016

कश्मीर में कुछ करिए

स्पष्ट संदेश दीजिए कि नहीं मिलेगी आजादी
-संजय द्विवेदी

    गनीमत है कि कश्मीर के हालात जिस वक्त बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं, उस समय भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में नहीं है। कल्पना कीजिए कि इस समय केंद्र और राज्य की सत्ता में कोई अन्य दल होता और भाजपा विपक्ष में होती तो कश्मीर के मुद्दे पर भाजपा और उसके समविचारी संगठन आज क्या कर रहे होते। इस मामले में कांग्रेस नेतृत्व की समझ और संयम दोनों की सराहना करनी पड़ेगी कि एक जिम्मेदार विपक्ष के नाते उन्होंने अभी तक कश्मीर के सवाल पर अपनी राष्ट्रीय और रचनात्मक भूमिका का ही निर्वाह किया है।
  ऐसे कठिन समय में जब कश्मीर की मुख्यमंत्री को एक आतंकी को मारे जाने पर अफसोस और उसकी मौत को शहादत बताने की राजनैतिक नासमझी दिख रही हो, तब यह मानना ही पड़ेगा कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य नहीं है। जिले के जिले कर्फ्यू और अराजकता की गिरफ्त में हैं। वहां के अतिवादियों के निशाने पर सेना और पुलिस के जवान हैं, जिन पर पत्थर बरस रहे हैं। पूरी संसद कश्मीरियों की कश्मीरियत और इंसानियत पर फिदा है, जबकि वे अपनी ही सेना पर पत्थर बरसा रहे हैं, अपने हम वतन पुलिस वालों को पीट रहे हैं। ऐसे कठिन समय में जबकि सेना और पुलिस के 2228 लोग पत्थरों के हमलों में घायल हैं, तब हम उनका विचार न कर उन 317 लोगों के बारे में विलाप कर रहे हैं, जो पेलेट गन से जख्मी हुए हैं। पत्थरों को बरसाने के जिहादी तेवरों का मुकाबला आप कैसे करेगें इस पर सोचने की जरूरत है। लेकिन लगता है कि भारतीय मीडिया और राजनीति का एजेंडा तय करने वाले नान इश्यु को इश्यु बनाने में महारत हासिल कर चुके हैं। इसी हीला-हवाली और ना-नानुर वाली स्थितियों ने कश्मीर को इस अँधेरी सुरंग में भेज दिया है। हमारी सारी सहानुभूति पत्थर फेंकने वाले समूहों के साथ है। जबकि सेना और पुलिसवाले भी हमारे ही हैं। कश्मीर में पेलेट गन से घायल लोगों के अपराध क्या कम हैं? स्कूल-कालेजों से लौटते और मस्जिदों से निकलते समय खासकर जुमे की नमाज के बाद देशविरोधी नारे बाजियां, पाकिस्तान और आईएस के झंडे लहराना तथा सेना व पुलिस की चौकियों पर पथराव एक सामान्य बात है। क्या इस तरह से हम कश्मीर को संभाल पाएंगें? आतंकियों के जनाजे में हजारों की भीड़ एकत्र हो रही है और हम उस आवाम को देशभक्त और इंसानियत पसंद बताकर क्या मजाक बना रहे हैं। अब समय आ गया है कि भारत सरकार इन तथाकथित आजादी के दीवानों को साफ संदेश दे दे। उन्हें साफ बताना होगा कि कश्मीरियों को उतनी ही आजादी मिलेगी जितनी देश के किसी भी नागरिक को है। वह नागरिक उप्र का हो या महाराष्ट्र का या कश्मीर का। उन्हें हर हालत में हिंदुस्तान के साथ रहने का मन बनाना होगा। पाकिस्तानी टुकड़ों पर पलने वालों को यह साफ बताना होगा कि उन्हें ऐसी आजादी किसी कीमत पर नहीं मिल सकती, जिसके वे सपने देख रहे हैं, कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। इन पत्थरों और नारों से भारत की सरकार को दबाने और ब्लैकमेल करने की कोशिशें बंद होनी चाहिए। दूसरी बात कहनी चाहिए कि जब तक पूर्ण शांति नहीं होगी, कश्मीरी पंडित अपने घरों या नई कालोनियों में नहीं लौटते तब तक न तो सेना हटेगी, ना ही सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को हटाया जाएगा। सरकारों की लीपापोती करने की आदतों और साफ भाषा में संवाद न करने से कश्मीर संकट और गहरा ही हो रहा है।
      भारत सरकार की सारी विकास योजनाएं और सारी धनराशि खर्च करने के बाद भी वहां शांति नहीं आ सकती, क्योंकि वहां के कुछ लोगों के मन में एक पापी सपना पल रहा है और उस सपने को तोड़ना जरूरी है। कश्मीर के अतिवादियों की ताकत दरअसल पाकिस्तान है। भारत की सरकार पाकिस्तान से हर तरह का संवाद बनाए रखकर संकट को और गहरा कर रही है। पाकिस्तान को आइसोलेट किए बिना कश्मीर में शांति नहीं आ सकती यह सब जानते हैं। कश्मीर के अतिवादी नेताओं के दुष्प्रचार के विरूद्ध हमें भी उनका सच सामने लाना चाहिए कि वे किस तरह कश्मीर के नाम पर पैसे बना रहे हैं और आम कश्मीरी युवकों का इस्तेमाल कर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। इन्हीं अतिवादियों के बेटे-बेटियां और संबंधी विदेशों और भारत के बड़े शहरों में आला जिंदगी बसर कर रहे हैं और आम कश्मीरी अपना धंधा खराब कर पत्थर फेंकने और आतंकियों के जनाजों में शामिल होकर खुद को धन्य मान रहा है। ये अतिवादी अपनी लंबी हड़तालों से किस तरह कश्मीर की अर्थव्यवस्था को नष्ट करके वहां के सामान्य नागरिक के जीवन को नरक बना रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। वहां के युवाओं को अच्छी राह दिखाने, पढकर अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के बजाए एक ऐसी सुरंग में धकेल रहे हैं जहां से लौटना मुश्किल है।

  भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को बेहतर बनाने का यह समय नहीं हैं जबकि पूरा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान आतंकियों और अतिवादियों की गोद में जा बैठा है। पाकिस्तान से अपने रिश्तों पर हमें पुर्नविचार करना होगा। यह ठीक बात है कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते पर पड़ोसी से रिश्ते रखने या न रखने की आजादी तो हमें मिलनी चाहिए। तमाम राजनीति-कूटनीतिक पहलकदमियां करके भारत देख चुका है कि पाकिस्तान फिर लौटकर वहीं आ जाता है। भारतद्वेष और भारत से घृणा उसके डीएनए में है। जाहिर तौर पर पाकिस्तान से दोस्ती का राग अलापने वाले इस पाकिस्तान को नहीं पहचानते। भारत के प्रति घृणा ही पाकिस्तान को एक किए हुए है। भारत के प्रति विद्वेष खत्म होते ही पाकिस्तान टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। इसलिए भारत घृणा वह विचार बीज है, जिसने अंतर्विरोधों से घिरे पाकिस्तान को जोड़ रखा है। कश्मीर उसका दूसरा दर्द है। इसके साथ ही विश्व स्तर पर चल रहा इस्लामी आतंकवाद और जेहाद ने इसमें जगह बना ली है। कश्मीर आज उसकी प्रयोगशाला है। कश्मीर में हम हारे तो हारते ही जाएंगें। इसलिए कश्मीर में चल रहे इस अघोषित युद्ध को हमें जीतना है, किसी भी कीमत पर। लेकिन हम देखते हैं कि चीजें लौटकर वहीं आ जाती हैं। कभी पाकिस्तान से रिश्तों को लेकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार को वर्तमान प्रधानमंत्री पाकिस्तान को लव लेटर लिखने की झिड़कियां दिया करते थे। आज की विदेश मंत्री एक सर के बदले दस सिर की बात करती थीं। सारा कुछ वही मंजर है, देश चिंतित है क्या इस बार आप कश्मीर पर देशवासियों से मन की बात करेंगें। एक साफ संदेश देशवासियों और कश्मीर को देंगें कि यह देश अब और सहने को तैयार नहीं हैं। न तो पत्थर, न गोलियां और ना ही आजादी के नारे।