अपनी पाकिस्तान यात्रा से आखिर क्या हासिल कर पाए
हमारे गृहमंत्री
-संजय द्विवेदी
जब पूरा पाकिस्तानी सत्ता
प्रतिष्ठान कश्मीर में आग लगाने की कोशिशें में जुटा है तब हमारे गृहमंत्री राजनाथ
सिंह पाकिस्तान क्यों गए, यह आज भी अबूझ पहेली है। वहां हुयी उपेक्षा, अपमान और
भोजन छोड़कर स्वदेश आकर उनकी ‘सिंह गर्जना’ से क्या हासिल हुआ है? क्या उनके इस प्रवास और आक्रामक वक्तव्य से
पाकिस्तान कुछ भी सीख सका है? क्या उसकी सेहत पर
इससे कोई फर्क पड़ा है? क्या उनके पाकिस्तान में दिए गए व्याख्यान से
पाकिस्तान अब आतंकवादियों की शहादत पर अपना विलाप बंद कर देगा? क्या पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान भारत के प्रति
सद्भाव से भर जाएगा और कश्मीर में आतंकवादियों को भेजना कर देगा? जाहिर तौर पर इसमें कुछ भी होने वाला नहीं है। इस
यात्रा के बहाने पाकिस्तान के आतंकवादी जहां एक मंच पर आ गए वहीं पाकिस्तानी सरकार
की उनके साथ संलग्नता साफ नजर आई। अपनी पीठ ठोंकने को गृहमंत्री और उनकी सरकार
दोनों प्रसन्न हो सकते हैं, किंतु सही तो यह है कि संभावित अपमान से बचना ही बुद्धिमत्ता
होती है।
हमारे जाने का न कोई मान था,
ना ही लौटकर आने से कोई इज्जत बढ़ी है। पाकिस्तान ने कश्मीर को एक अंतरराष्ट्रीय
मुद्दा बनाने में सफलता हासिल कर ली है, जबकि हम पाक अधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान
को लेकर अभी भी संकोच से भरे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब पाकिस्तान को हम उसी के
हथियारों से जवाब देना सीखेगें? हम क्यों पाकिस्तान
से रिश्ते रखने, सुधारने और संवाद रखने के लिए मरे जा रहे हैं? क्या हम पाकिस्तान के द्वारा निरंतर किए जा रहे
पापों को भूल चुके हैं? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कश्मीर के
सवाल पर, आतंकियों
की पर मौत पर अपना दुख जताकर, कश्मीर को
भारत में मिल जाने की दुआ कर रहे हैं। ऐसे में हम कौन सा मुंह लेकर उनसे हाथ
मिलाने के लिए आतुर हैं। यह न रणनीति है, न कूटनीति और न ही समझदारी। भारत की इस
तरह की कोशिशों से कोई लाभ मिलेगा, इसमें भी संदेह है।
हमारे गृहमंत्री वहां से
जिस मुद्रा में लौटे और जो वक्तव्य संसद में दिया, उसके बाद पूरे देश ने एकमत से
उनका साथ दिया। संसद में कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों में एक सुर से उनकी
उपेक्षा पर पाकिस्तान को खरी-खोटी सुनाई। एक देश के नाते यह एकजुटता, राष्ट्रीय
मुद्दों पर एक राय जरूरी भी है। किंतु क्या जरूरी है कि हम अपमान के अवसर स्वंय
तलाशें।
पाकिस्तान से आज हमारे
रिश्ते जिस मोड़ पर हैं, वहां गाड़ी पटरी से उतर चुकी है। एक विफल राष्ट्र
पाकिस्तान और सेना की कृपा पर आश्रित वहां की सरकार आखिर आतंकवाद के खिलाफ क्या
खाकर लड़ेगी? नवाज शरीफ जैसे परजीवी राजनेता को अगर सत्ता में
रहना है तो कश्मीर राग और भारत विरोधी सुर अलापना ही होगा। यह समझना मुश्किल है कि
भाजपा सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह अपमान, आतंक और हत्याएं सहकर भी
पाकिस्तान से बेहतर रिश्ते बनाना चाहती है? हम
चाहें तो बंगलादेश जैसै छोटे मुल्क से भी कुछ सीख सकते हैं। श्रीलंका से सीख सकते
हैं, जिसने लिट्टे के आतंक का शानदार मुकाबला किया और
अपनी अस्मिता को आंच नहीं आने दी। आज हालात यह हैं कि युद्ध के लिए हमारी ही जमीन
का इस्तेमाल हो रहा है, हमारे अपने लोग ही हलाक हो रहे हैं। भारतीयों के हाथ में
बंदूकें और एके-47 देकर पाकिस्तान ने हमारे सीने छलनी कर रखे हैं। कश्मीर की जंग
को हम बहुत साधारण तरीके से ले रहे हैं। क्या हमने तय कर रखा है कि हमें अनंतकाल तक
लड़ते ही रहना है, या हम इस छद्म युद्ध की कीमत थोड़ा बढ़ाएंगें।
पाकिस्तान के लिए इस लड़ाई की कीमत बढाना ही इसका उपाय है। एक विफल राष्ट्र हमें
लगातार धोखा दे रहा है और धोखा खाने को अपनी शान समझ बैठे हैं। किसके दम पर? अपने सैनिकों और आम लोगों के दम पर?
संसद से लेकर आपके सबसे सुरक्षित एयरबेस तक हमले
कर वे हमें बता चुके हैं कि पाकिस्तान क्या कर सकता है। किंतु लगता है कि हम इस
छद्म युद्ध के आदी हो चुके हैं। हमें इसके साथ रहने में मजा आने लगा है। एक जमाने
में जनरल जिया उल हक ने कहा था “भारत को एक हजार जगह
धाव दो।” गिनिए तो यह संख्या भी पूरी हो चुकी है। भारत का पूरा शरीर छलनी है। हमारे सैनिकों की
विधवाएं हमारे सामने एक सवाल की तरह हैं। हिंदुस्तान के कुछ लीडरों ने हालात ऐसे
कर दिए हैं कि आप बहस भी नहीं कर सकते। अपनी सुरक्षा चिंताओं पर संवाद करना कठिन
होता जा रहा है। आप संवाद इसलिए नहीं करते कि मुसलमान नाराज हो जाएंगें। क्या भारत
की सुरक्षा चिंता मुसलमानों और हिंदुओं की साझा चिंता नहीं है। क्या भारत के
मुसलमान किसी हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी और जैनी से कम भारतीय हैं? हम सब पहले हिंदुस्तानी हैं, बाद में कुछ और। इस भावना का विस्तार और
लोकव्यापीकरण करना होगा। हमारा जीना-मरना इसी देश के लिए है। इसलिए अपने मानस में
बदलाव लाते हुए, हर बात का राजनीतिकरण करने के बजाए, एक नए
तरीके से सोचना होगा। ईरान जैसे देश ने सऊदी अरब से अपने राजनायिक संबंध तोड़ लिए , क्या मजबूरी है कि हम पाकिस्तान से रिश्ते बनाए
हुए हैं। भारत सरकार पाक में पदस्थ राजनायिकों से कह रही है कि अपने बच्चों को
पाकिस्तान के स्कूलों में न पढ़ाएं। क्या ही बड़ी बात होती, हम वहां अपने दूतावास
बंद कर देते। आतंकी मानसिकता, धोखे व षडयंत्रों से बनी सोच से बने एक देश से हम दर्द
के अलावा क्या पा सकते हैं? भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना मनुष्यों के लिए है, आतंकी सोच से भरी
मानवता के दुश्मनों के लिए नहीं। दक्षेस के देशों को भी पता है कि पाकिस्तान की
नीति और नीयत क्या है। खुद श्रीलंका ने लिट्टे के साथ क्या किया। हमें भी विश्व
जनमत की बहुत परवाह किए बिना, अपने स्टैंड साफ
करने होगें। एक व्यापारी देश की तरह मिमियाने के बजाए ताकत के साथ बात करनी होगी।
हमारी जमीन आतंकवाद के लिए इस्तेमाल नहीं होगी, पाक को यह बहुत साफ बताना होगा।
इसराइल, श्रीलंका और अमरीका हमारे सामने उदाहरण हैं। हमें भी अपनी शक्ति को
पहचानना होगा। वाचिक गर्जन-तर्जन के बजाए, मैदान में उतरकर बताना होगा कि हमारे
खिलाफ ‘छद्म युद्ध’ कितना
महंगा है। किंतु लगता है कि हम जबानी तलवारें भांजकर ही अपनी राष्ट्ररक्षा का दम
भरते रहेगें और इस कायरता की कीमत सारा देश लंबे
समय तक चुकाता रहेगा।
(लेखक राजनीतिक विश्वलेषक हैं)
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