-संजय द्विवेदी
पं.श्यामलाल चतुर्वेदी और उनकी पत्रकारिता सही
मायने में लोक से जुड़ी हुई है। वे लोकमन, लोकजीवन और ग्राम्य जीवन के वास्तविक
प्रवक्ता हैं। वे मूलतः एक आंचलिक पत्रकार हैं, जिनका
मन लोक में ही रमता है। वे गांव,गरीब, किसान और लोक अंचल की प्रदर्शन कलाओं को मुग्ध
होकर निहारते हैं, उन पर निहाल हैं और उनके आसपास ही उनकी समूची पत्रकारिता ठहर सी
गई है। उनकी पत्रकारिता में लोकतत्व अनिवार्य है। विकास की चाह, लोकमन की
आकांक्षाएं, उनके सपने, उनके आर्तनाद और पीड़ा ही दरअसल श्यामलाल जी पत्रकारिता को
लोकमंगल की पत्रकारिता से जोड़ते हैं। उनकी समूची पत्रकारिता न्याय के लिए
प्रतीक्षारत समाज की इच्छाओं का प्रकटीकरण है।
लोक में रचा-बसा उनका समग्र
जीवन हमें बताता है कि पत्रकारिता ऐसे भी की जा सकती है। वे अध्यापक रहे हैं, और
पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। नई दुनिया और युगधर्म जैसे अखबारों से जुड़े रहकर
उन्होंने अपने परिवेश, समुदाय और क्षेत्र के हितों को निरंतर अभिव्यक्ति दी है।
मूलतः संवाददाता होने के नाते उनके विपुल लेखन का आकलन संभव नहीं है, क्योंकि संवाददाता
खबरें या समाचार लिखता है जो तुरंत ही पुरानी पड़ जाती हैं। जबकि विचार लिखने
वाले, लेखमालाएं लिखने वाले पत्रकारों को थोड़ा समय जरूर मिलता है। श्यामलाल जी ने
अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान कितनी खबरें लिखीं और उनसे क्या मुद्दे उठे क्या
समाधान निकले इसके लिए एक विस्तृत शोध की जरूरत है। उनसे चर्चा कर उनके इस अवदान
को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनकी यायावरी और निरंतर लेखन ने एक पूरे समय को
चिन्हित और रेखांकित किया है, इसमें दो राय नहीं है। अपने कुछ सामयिक लेखों से भी
हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहे हैं।
गुणों के पारखी-विकास के चितेरेः
श्यामलाल जी पत्रकारिता में सकारात्मकता के तत्व विद्यमान हैं। वे
पत्रकारिता से प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा तो रखते हैं किंतु गुणों के
पारखी भी हैं। उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा में सिर्फ खबर बनाने के लिए
नकारात्मकता को प्रश्रय नहीं दिया। वे मानते हैं कि पत्रकारिता का काम साहित्य की
तरह ही उजाला फैलाना है, दिशा दिखाना है और वह दिशा है विकास की, समृद्धि की,
न्याय की। अपने लोगों और अपने छत्तीसगढ़ अंचल को न्याय दिलाने की गूंज उनकी समूची
पत्रकारिता में दिखती है। वे बोलते, लिखते और जीते हुए एक आम-आदमी की आवाज को
उठाते, पहुंचाते और बताते हैं। सही मायने में एक संपूर्ण संचारकर्ता हैं। वे एक
बेहतर कम्युनिकेटर हैं, जो लिखकर और बोलकर दोनों ही भूमिकाओं से न्याय करता है।
अपने गांव कोटमी सोनार से आकर बिलासपुर में भी वे अपने गांव, उसकी माटी की सोंधी
महक को नहीं भूलते। वे भोपाल, दिल्ली और रायपुर में सत्ताधीशों के बीच भी अपनी
वाणी, माटी के दर्द और उसकी पीड़ा के ही वाहक होते हैं। वे भूलते कुछ भी नहीं
बल्कि लोगों को भी याद दिलाते हैं कि हमारी जड़ें कहां हैं और हमारे लोग किस हाल
में हैं। व्यंग्य में कही उनकी बातें अंदर तक चुभ जाती हैं और हमें आत्मवलोकन के
लिए मजबूर करती हैं।
श्रेष्ठ संचारक-योग्य पत्रकारः
श्यामलाल जी एक योग्य पत्रकार
हैं किंतु उससे बड़े संचारक या संप्रेषक हैं। उनकी संवाद कला अप्रतिम है। वे लिख
रहे हों या बोल रहे हों। दोनों तरह से आप उनके मुरीद हो जाते हैं। कम्युनिकेशन या
संचार की यह कला उन्हें विरासत में मिली है और लोकतत्व ने उसे और पैना बनाया है।
वे जीवन की भाषा बोलते हैं और उसे ही लिखते हैं। ऐसे में उनका संचार प्रभावी हो
जाता है। वे सरलता से बड़ी से बड़ी बात कह जाते हैं और उसका प्रभाव देखते ही बनता
है। आज जब कम्युनिकेशन को पढ़ाने और सिखाने के तमाम प्रशिक्षण और कोर्स उपलब्ध हैं,
श्यामलाल जी हमें सिखाते हैं कि कैसे ‘लोक’ किसी व्यक्ति को बनाता है। श्यामलाल जी इस मायने
में विलक्षण हैं। एक संवाददाता होने के नाते लोकजीवन से लेकर राजपुरूषों तक उनकी
उपस्थिति रही है। किंतु वे दरबारों में भी अपनी जड़ों को नहीं भूलते। वे खरी-खरी
कहते हैं और अपने लोगों के पक्ष में हमेशा एक प्रवक्ता की तरह खड़े दिखते हैं।
हमारे समय में श्यामलाल जी का होना दरअसल इस कठिन में मूल्याधारित पत्रकारिता की
एक मशाल और मिसाल दोनों है। जबकि बाजार की हवाओं ने लोक तत्व को ही नहीं बल्कि
ग्राम्य जीवन को ही मीडिया से बहिष्कृत कर दिया है। तब भी श्यामलाल जी जैसे लोग यह
याद दिलाते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।
वेदों से पुरानी है लोक चेतनाः
श्यामलाल जी जैसे साधक हमें
बताते हैं अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना
होगा। इस समय की चुनौती यह है कि हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट
होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली
जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है
और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ
मिलकर एक ऐसा लोक रचती है, जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो
वेदों से भी पुरानी है। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी ‘कविराय’ कहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह ‘लोक’ को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह
सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों
को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही
हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा
है। अंडमान की ‘बो’ नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका
सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया
के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध
पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस
चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है
क्योंकि ‘लोक’ की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा
रहे हैं।
जबकि
इसके संरक्षण की जरूरत है। श्यामलाल जी दरअसल इसी भावभूमि पर अरसे से काम कर रहे
हैं। उनकी पत्रकारिता में यह दरअसल इसी लोकभूमि से बनी और विकसित हुई है।
हम सबके बीच श्यामलाल जी की उपस्थिति सही मायने में एक ऐसे
यात्री की उपस्थिति है, जिसकी बैचेनियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। उनकी आंखों में
वही चमक, वाणी में वही ओज और जोश मौजूद है जिसका सपना उन्होंने अपनी युवा अवस्था
में देखा होगा। आज भी अखबारों या पत्रिकाओं में कुछ अच्छा पढ़कर अपनी नई पीढ़ी की
पीठ ठोंकना उन्हें आता है। वे निराश नहीं हैं, हताश तो बिल्कुल नहीं। वे उम्मीदों
से भरे हुए हैं, उनका इंतजार जारी है। एक उजले समय के लिए... एक उजली पत्रकारिता
के लिए.. एक सुखी-समृद्ध छत्तीसगढ़ के लिए...आत्मनिर्भर गांवों के लिए.. एक समृध्द
लोकजीवन के लिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें