हाथ में आए ऐतिहासिक
अवसर का करें राष्ट्रोत्थान के लिए इस्तेमाल
-संजय द्विवेदी
पिछले कुछ दिनों से
सार्वजनिक जीवन में जैसी कड़वाहटें, चीख-चिल्लाहटें, शोर-शराबा और आरोप-प्रत्यारोप
अपनी जगह बना रहे हैं, उससे हम देश की ऊर्जा को नष्ट होता हुआ ही देख रहे हैं।
भाषा की अभद्रता ने जिस तरह मुख्य धारा की राजनीति में अपनी जगह बनाई है, वह
चौंकाने वाली है। सवाल यह उठता है कि नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने से दुखीजन अगर
आर्तनाद और विलाप कर रहे हैं तो उनकी रूदाली टीम में मोदी समर्थक और भाजपा के संगठन क्यों
शामिल हो रहे हैं? वैसे भी जिनको बहुमत मिला है, उन्हें शक्ति पाकर
और शालीन व उदार हो जाना चाहिए, पर वे भी अपने विपक्षियों की तरह ही हल्लाबोल की
मुद्रा में हैं। ताकत का रचनात्मक इस्तेमाल इस देश के वंचितों को ताकत देने, देश
को शक्ति देने और एकजुट करने के लिए होना चाहिए किंतु लगता है कि भाजपा और उसके
समर्थक मार्ग से भटक गए हैं और अपने विरोधियों द्वारा नित्य रचे जा रहे नाहक
मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने में वक्त खराब कर रहे हैं।
उनसे सिर टकराकर
क्या हासिलः ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर जा चुके
वामपंथियों से सिर टकराने और उन्हें महत्वपूर्ण बनाने के बजाए भाजपा को लंबे समय
और संघर्ष के बाद मिले इस अवसर का सही इस्तेमाल करना चाहिए। गर्जन-तर्जन और टीवी
पर बाहें चढ़ाने के बजाए देश को जोड़ने, सामाजिक समरसता पैदा करने, मुसलमानों,
ईसाईयों और वंचित वर्गों को इस अहसास से जोड़ना चाहिए कि वे उन्हें अपना शत्रु न
समझें। रची जा रही कृत्रिम लड़ाईयों में उलझकर भाजपा अपने कुछ समर्थकों को तो खुश
रखने में कामयाब होगी, किंतु इतिहास को बदलने और कुछ नया रचने की अपनी भूमिका से
चूक जाएगी। इन नकली लड़ाईयों की उपेक्षा ही सबसे बड़ा दंड है। वरन रोज कोई कन्हैया
हीरो बनेगा और देश की राजसत्ता को चुनौती देता दिखाई देगा। नान इश्यू पर बहस करना
सबसे बड़ा अपराध है, किंतु अफसोस कि बीजेपी उसी ट्रैक में फंस रही है, जिसमें
वामपंथियों का रिकार्ड है। वे सिर्फ बहस कर सकते हैं, नए नारे गढ़ सकते हैं, भ्रम
पैदा कर सकते हैं। उन्हें दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के जीवन स्तर को
उठाने, भारत के विकास और उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए देश की समग्र
तस्वीर बदलने के ऐतिहासिक संकल्प से आई सरकार को इन सवालों में नहीं उलझना चाहिए।
तोड़िए पूंजीवादी
होने का मिथकः केन्द्र की भाजपा
सरकार को इस मिथक को तोड़ने के लिए तेजी के साथ काम करना होगा कि वह नारे और
मुखौटे तो आम- आदमी व देश के विकास के लगा रही है, पर उसका छिपा हुआ एजेंडा ‘नंगा पूंजीवाद’ है। इस
मिथक को तोड़कर ही भाजपा अपना जनसमर्थन बचाए और बनाए रख सकती है। यह काम भाषणों से
नहीं हो सकता, इसके लिए जमीन पर काम करना होगा। प्रतिपक्ष की राजनीतिक शक्तियों से
टकराकर सत्ता उन्हें शक्ति ही देती है, इसलिए उनकी उपेक्षा और बहस में उनसे न
उलझकर विकास की गति को तेज करना, कम प्रतिक्रिया देना ही विकल्प है। सबसे पहले देश
की भावना का विस्तार करते हुए हमें एक ऐसा जन समाज बनाना होगा जो राष्ट्र प्रथम की
ऊर्जा से लबरेज हो।
बौद्धिक और
राष्ट्रप्रेमी समाज बनाने की चुनौतीः हमारे देश का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने आजादी के इन सालों में
बौद्धिक चेतना संपन्न राष्ट्रप्रेमी, भारतीयता के भावों से भरा समाज बनाने के
बजाए, बौद्धिक रूप से विपन्न समाज को सृजित किया है। जन समाज में बौद्धिक विपन्नता
बढ़े इस पर हमारी राजनीति, शिक्षा और मीडिया का सामूहिक योगदान रहा है। यह खतरा
1991 में उदारीकरण के बाद और बढ़ गया। ऐसे में ‘समाज’ के बजाए हम ‘भीड़’ बना रहे हैं। एक अरब के देश में हर सही-गलत
मुद्दे पर हजार-दस हजार जोड़ लेना और अपनी बात कहने लगना बहुत आसान हो गया है।
उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस आंधी में टूटते परिवार, बिखरते गांव, कमजोर होते
संस्कार, शिक्षा में बढ़ती असमानता के चलते कई स्तरों वाला समाज निर्मित हो रहा
है। जिसकी सपने और आकांक्षाएं इस राष्ट्र की आकांक्षाओं से कई बार अलग-अलग दिखती
हैं। जन समाज की बौद्धिक विपन्नता, घर में घुस आए बाजार, मीडिया के हर क्षेत्र में
एफडीआई के माध्यम से आयातित विचारों की घुसपैठ और नागरिकों को ग्राहक बनाने में
जुटा पूरा तंत्र हमें आतंकित करता हुआ दिखता है। यहां स्लोगन की शक्ल में कुछ
चीजें हैं, पर संकल्प नदारद हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार और उनके विचार परिवार की
यह जिम्मेदारी है कि वह देश में ऐसी बौद्धिक चेतना के निर्माण का वातावरण बनाए, जो
सत्ता को भी आईना दिखा सके। आलोचना के प्रति औदार्य और राष्ट्रप्रेम की
स्वीकार्यता से यह संभव है। मोदी समर्थकों को यह स्वीकरना चाहिए कि मोदी पर हमला,
देश पर हमला नहीं है। सरकार की आलोचना, भारतद्रोह नहीं है। जेएनयू जैसे प्रसंगों
को ज्यादा हवा देकर हम विदेशियों को यह बता रहे हैं कि हम कितने बँटे हुए हैं।
जबकि सच यह है कि यह कुछ मुट्टी भर बीमार-मनोरोगी-बुद्धिजीवियों का षडयंत्र है, जिसमें
पूरा देश उलझ गया है। हमें समाज जीवन में
ऐसी बौद्धिक चेतना का विकास करना है, जिसमें हम शासन-सत्ता से लेकर राज-काज की
शैलियों पर सवाल उठा सकें। अपने समय में रचनात्मक हस्तक्षेप कर सकें। नरेंद्र मोदी
और उनकी पार्टी को यह ऐतिहासिक विजय सत्ता परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं बल्कि
सत्ता संस्कृति में भी परिर्वतन के लिए भी मिली है। एक ऐसी विचारधारा के अवलंबन के
लिए मिली है जिसके लिए ‘देश प्रथम’ है।
लोगों को यह अहसास होना चाहिए कि यह कुछ अलग लोग हैं, कुछ अलग सरकार है। दिल्ली
में जाकर ‘दिल्लीवाला’ न होना
ही नरेंद्र मोदी की शक्ति है। अगर वे दिल्ली वाले हो गए, तो उनमें क्या बचेगा? उनके विरोधियों की बिलबिलाहट यही है कि नरेंद्र
मोदी लुटियंस के मिजाज में फिट नहीं बैठते। विरोधियों की नजर में वे वहां एक ‘अवैध उपस्थिति’ हैं।
लेकिन यह उपस्थिति अपार जनसमर्थन से संयुक्त है। ऐसे में सरकार के बढ़िया-अच्छे
कामों को प्रचारित करने में शक्ति लगाने की जरूरत है, न कि वामपंथियों के रोज रचे
षडयंत्रों में फंसकर उस पर प्रतिक्रिया देने की। यह बहुत अच्छा है कि प्रधानमंत्री
इस बात को समझते हैं, और वे हर बात पर प्रतिक्रिया देने के लिए उपलब्ध नहीं होते,
किंतु उनके उत्साही समर्थक जिन्हें ‘भक्त’ कहकर संबोधित किया जा रहा है, वे मोदी विरोधियों
के षडयंत्र में फंसते रहे हैं।
आलोचना से क्या
डरनाः लोकतंत्र में आलोचना
तो शक्ति देती है। ऐसे में आलोचना से क्या डरना। आलोचना स्वस्थ हो या अस्वस्थ इससे
क्या फर्क पड़ता है। आलोचनाओं से घबराकर, खुद हमलावर हो जाना, बिखरे और पस्त पड़े
विपक्ष को जीवनदान देना ही है। मोदी और उनकी पार्टी यहीं चूक रही है और उसने अपने
एनडीए के कुनबे को विस्तार को रोककर, अपनों की तो नाराजगी ली है, पर विपक्ष को एक
कर दिया है। दिल्ली से बिहार तक इसके परिणाम बिखरे पड़े हैं। ऐसे समय में जब भाजपा
और उसके परिवार को मुसलमानों और ईसाईयों के साथ संवाद को निरंतर और तीव्र करते हुए,
उनमें भारत प्रेमी नेतृत्व का विकास करते हुए अपनी भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं का
अतिक्रमण करना चाहिए। वह खुद को छुद्र मुद्दों पर घेरने की विपक्षियों की रणनीति
में स्वयं शामिल होने को आतुर दिखती है। हाशिए के समाज के अपनी संलग्नता को स्थाई
करने के प्रयासों के बजाए, वह जेएनयू जैसे विवादों पर अपनी शक्ति जाया कर रही है।
ज्यादा
डिजीटिलाईजेशन से बचिएः मोदी सरकार को यह साबित करना होगा कि वह अंतिम
आदमी के साथ है। हाशिए के लोगों के साथ उसकी संलग्नता और संवाद ही मोदी और उनकी
पार्टी की शक्ति बन सकती है। अधिक डिजीटलाईजेशन के बजाए, हाशिए के समाज के
शक्तिवान बनाने और फैसले लेने की शक्ति देने के प्रयास होने चाहिए। इससे डिजीटल
डिवाइट का खतरा बढ़ेगा और एक नया दलाल वर्ग यहां भी विकसित हो जाएगा, जो इस
डिजीटलाईजेशन के फायदे खुद खा जाएगा। इससे असमर्थ को क्या हासिल होगा, इस पर सोचना
चाहिए। गुणवत्तापूर्ण श्रेष्ठ शिक्षा गांवों तक पहुंचाए बिना हम समर्थ भारत की
कल्पना भी नहीं कर सकते। निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की नीतियों से आगे हमें
अपने सरकारी शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता पर बहुत काम करने की जरूरत है। यह बहुत
जरूरी है कि हम ऐसे दिन देख पाएं कि कृष्ण और सुदामा दोनों एक स्कूल में साथ पढ़
सकें। इससे समाज में असंतोष और गैरबराबरी कम होगी। गरीबों को चोर या भ्रष्टाचारी
बनाने वाला तंत्र अपना इलाज पहले खुद करे। इस तंत्र को यह भी सोचना होगा कि देश के
आम गरीब लोग कामचोर, काहिल या बेईमान नहीं हैं- उन्हें अवसर देकर, सुविधाएं और
अच्छी शिक्षा देकर ही कोई भी लोकतंत्र सार्थक हो सकता है। भारतीयों की तरफ
अंग्रेजों की सोच और नजरिए से ही हमारा तंत्र और प्रशासन देखता आया है, उस सोच में
बदलाव की जरूरत है, जो हमें ‘नागरिक’ के बजाए ‘प्रजा’ समझती है। इसलिए विकल्प यही है कि सरकारें वो
राज्य की हों या केंद्र की, वे जवाबदेह बनें और डिलेवरी पर मुख्य फोकस करें। वोट
की परवाह क्या और क्यों करना?
याद कीजिए 1967 में डा. राममनोहर लोहिया के
संविद सरकारों के प्रयोग को जिसने पहली बार देश को यह भरोसा दिलाया कि कांग्रेस भी
सत्ता से बाहर हो सकती है। राज्यों में ऐसी सरकारें बनीं जिसमें कम्युनिस्ट और
जनसंघ के लोग साथ बैठे। ऐसे में एनडीए का कुनबा बिखरा और भाजपा की अहंकारजन्य
प्रस्तुति रही तो सत्ता तो हाथ से फिसलनी ही है। नरेन्द्र मोदी और उनके भक्तों को
यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवसर उन्हें किसलिए मिला है? उन्हें यह भी याद होगा कि वे क्या करने सत्ता
में आए हैं, और यह तो जरूर पता होगा कि वे क्या कर रहे हैं? इतिहास की घड़ी में पांच साल का वक्त कुछ नहीं
होता, दो साल गुजर गए हैं। कुछ करिए भाई।