जेएनयू या जादवपुर
विवि से आई बेसुरी आवाजें रोकना ही होगा
-संजय द्विवेदी
कई बार
लगता है कि विचारधारा राष्ट्र से बड़ी हो गयी है। पार्टी, विचारधारा से बड़ी हो गयी है, और व्यक्ति पार्टी
से बड़ा हो गया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में रहते हुए, जैसी बेसुरी आवाजें शिक्षा परिसरों से आ रही
हैं, वह बताती हैं कि राजनीति और राजनेता तो जीत गए हैं, किंतु शिक्षक और
विद्यार्थी हार रहे हैं। समाज को बांटना, खंड-खंड करना ही तो राजनीति का काम है,
वह उसमें निरंतर सफल हो रही है। हमारे परिसर, विचारधाराओं की राजनीति के इस कदर
बंधक बन चुके हैं, कि विद्यार्थी क्या, शिक्षक भी अपने विवेक को त्यागकर इसी
कुचक्र में फंसते दिख रहे हैं।
सबसे पहले राष्ट्रः
पहले राष्ट्र, फिर समाज, फिर परिवार और फिर
स्वयं को रखने का भाव अपने विद्यार्थियों में भरना, बताना और उसे भविष्य के लिए
तैयार करना दरअसल शिक्षकों का ही काम है। हमारे विद्यार्थी गुमराह होकर अगर
देशद्रोह की हद तक जा पहुंचे हैं तो शिक्षकों को सोचना होगा कि वे उन्हें कैसी
शिक्षा दे रहे हैं? अपने राजनीतिक इरादों के लिए विद्यार्थियों का
इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है, राजनीतिक दल ऐसा करते भी आए हैं। युवाओं की ऊर्जा का
इस्तेमाल करने में यह होड़ प्रारंभ से ही है, क्योंकि युवा ही किसी भी समाज में
बदलाव का जरिया बनते हैं। किंतु बदलाव सकारात्मक हों, राष्ट्र की एकता-अखंडता,
भाईचारे को मजबूती देने वाले हों, तो उसे सार्थक कहा जा सकता है। लेकिन विडंबना है
कि आज विदेशी विचारों, विदेशी पैसों और प्रेरणाओं के चलते भारत विरोधी विचारधारा
रखने वाली शक्तियां भी हमारे परिसरों में सक्रिय हैं। यही कारण है कि नौजवान अपने
राष्ट्र और उसकी अस्मिता को चोटिल करने वाली कार्रवाईयों में संलग्न हो जाता है।
जब तक उसकी आंखें खुलती हैं, देर हो चुकी होती है। कश्मीर जैसे खूबसूरत राज्य को
अशांत करने, घाटी को खून से रंगने और कश्मीरी पंडितों के साथ अमानवीय व्यवहार करते
हुए उन्हें घाटी छोड़ देने के लिए विवश करने वाली वहां की युवा शक्ति ही थी, जो
पाक प्रेरित अभियानों से गुमराह होकर अपने ही माटी पुत्रों के खिलाफ खड़ी हो गयी।
दक्षिण- पूर्व के सात राज्यों में आज अनेक आतंकी संगठन सक्रिय हैं, जिसमें अगली
पंक्ति में युवा ही हैं। नक्सल आंदोलन की पृष्ठभूमि निर्मित करने और उसके नेतृत्व
में युवाओं की भूमिका रही। दुनिया के एक हिस्से में खून की नदियां बहा रहे आईएस के
खूनी अभियान में हिस्सा लेने के लिए भारत के कुछ युवा भी देश छोड़कर निकल पड़े
हैं। उक्त उदाहरणों का सबक है कि अब अपने नौजवानों को गुमराह होने से बचाने और सही
राह दिखाने का वक्त आ गया है।
हमारी कमजोरियों के
नाते फैलता रोगः
युवा
अवस्था में क्रांति की बातें, और सब कुछ बदल देने का विचार, बहुत अच्छा लगता है।
खून का लाल रंग, बंदूकों की आवाज और बमों के धमाके से सब कुछ बदलने का ख्वाब बहुत
पास दिखता है, पर हकीकत इसके विपरीत होती है। विदेशी विचारों से प्रेरित अनेक
अभियान आज हमारे समाज की कमजोरियों के कारण सफल हो रहे हैं। भारतीय समाज में
व्याप्त बहुस्तरीय शिक्षा, छूआछूत, गैरबराबरी, प्रशासनिक तंत्र की संवेदनहीनता,
पुलिस-तंत्र द्वारा किए जाने वाले अन्याय, अवसरों की असमानता ने भारत को कई स्तरों
पर बांट दिया है। ऐसे में प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गए वर्गों में असंतोष की
भावना व्याप्त है। इसी असंतोष और गुस्से को वैचारिक जामा पहनाकर देश विरोधी ताकतें
हमारे युवाओं का इस्तेमाल कर ले जाती हैं। असंतोष को भुनाने के लिए वह कोई भी आंदोलन
हो सकता है, और उसका नाम कुछ भी हो सकता है। कश्मीर से लेकर नक्सल इलाकों में
हमारे युवाओं के हाथों में इन्हीं ताकतों ने बंदूकें पकड़ा दी हैं। आज हमारा
राष्ट्रबोध इतना सीमित हो गया है कि कोई भी जाति, भाषा, आरक्षण, उपेक्षा, पंथ के
नाम पर हमें बरगला सकता है। हमारे विरोधी जितने सजग, सक्रिय और एकजुट हैं- हम उतने
ही बिखरे, लड़ते-भिड़ते और एक- दूसरे को मिटाकर सत्ता प्राप्ति की लालसा में लिप्त
हैं।
मोदी विरोध या भारत
विरोधः
इसलिए राष्ट्र विरोधी नारेबाजी के सवाल भी हमें
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने का अवसर लगते हैं। नरेंद्र मोदी भारत के
प्रधानमंत्री हैं, वे भारत नहीं हैं। मोदी का विरोध, कब ‘भारत विरोध’ में
बदल जाता है, हमें पता भी नहीं लगता। ऐसे में राजनेताओं से यह उम्मीद करना व्यर्थ
है कि वे अपने राजनीतिक स्वार्थों से उपर उठ कर बात करेगें। उनका हर स्टैंड, उनके वोट बैंक और एजेंडे से परिचालित है। नहीं
तो क्या कारण हैं कि दादरी में अखलाक की मौत पर स्यापा करने वाले राजनेता केरल में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता की हत्या पर खामोश हैं। यहां तक कि भाजपा
के लिए भी यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, क्योंकि जेएनयू मामले से जिस
ध्रुवीकरण की उम्मीद भाजपा को है, वह राजनीतिक लाभ एक ‘बेचारे स्वयंसेवक’ की मौत
से नहीं मिल सकता। राजनीतिक दलों के इसी चयनित दृष्टिकोण तथा चीजों को बांटकर
देखने की प्रवृत्ति से देश को एकात्म करना कठिन होता जा रहा है। यह देश ऐसे
राजनेताओं और ऐसी राजनीति से एक कैसे रह सकता है, जहां विभाजन और बंटवारा भी एक
मूल्य की तरह सहेजे और पाले पोसे जा रहे हैं।
वैचारिक गुलामी के
शिकार अध्यापकः
ऐसे कठिन समय में शिक्षकों की जिम्मेदारी बहुत
अहम हो सकती थी, किंतु वे भी विचारधारा के मारे, अपने राजनीतिक आकाओं की गुलामी
में व्यस्त हैं। शिक्षक अगर निरपेक्ष होकर इस देश की आन-बान-शान के लिए नौजवानों
को प्रेरित नहीं कर पाते तो आप क्या यह उम्मीद राहुल गांधी, सीताराम येचुरी और
अमित शाह से कर सकते हैं?
विद्यार्थियों के निर्माण का जिम्मा
राजनीतिक दलों के पास नहीं शिक्षकों और शिक्षा मंदिरों के पास ही है। सही मायने
में जेएनयू प्रसंग ने हमारे राजनीतिक दलों, प्रशासनिक तंत्र और सामाजिक संगठनों की
पोल खोलकर रख दी है। इनमें तमाम बेशर्मी से टीवी चैनलों पर देशद्रोहियों की पैरवी
में जुटे हैं। इस हालात से आहत एक रिटायर्ड फौजी एक टीवी चैनल पर ही द्रवित होकर
रो पड़े। स्थितियां यह हैं कि हजारों बेगुनाहों भारतीय जेलों में बंद है और
देशविरोधी नारे लगाने वालों के लिए दिग्गज वकीलों का पूरा पैनल खड़ा हो जाता है। ऐसे
देश की दशा समझी जा सकती है। लगता है हमारे नेताओं का हमारी सेना पर भरोसा जरूरत
से ज्यादा है, कि वे कुछ भी करेगें, कितने भी पाप करेंगें, भारतीय सेना और सुरक्षा
बलों के जवान इस देश और उनको बचा ही लेगें। इसी का परिणाम है कि भारतीय सेना पर
पत्थर फेंक रही नौजवानी, अफजल गुरू और मकबूल भट्ट की शहादत मनाने में व्यस्त है।
स्वायत्तता और
सम्मान दोनों खतरे में-
एक बार फिर हमें शिक्षकों की ओर देखना होगा।
शिक्षकों को यह सोचना होगा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया कि उनके परिसरों में
पुलिस डेरा डाल रही है। उनकी स्वायत्तता और सम्मान आज हाशिए पर है। राजनीतिक दलों
से जुड़ी अपनी आस्थाओं के चलते अगर शिक्षक अपनी भूमिका से समझौता करेगें, तो उनका सम्मान बच नहीं सकता। विचारधारा और
देशद्रोही विचारों के आधार पर चलने वाली शक्तियां परिसर को तो कलंकित करेंगी ही,
शिक्षकों के सम्मान को भी आहत करेंगी। जेएनयू में कई वर्षों से चल रही देश विरोधी
गतिविधियों को अगर रोकने, संभालने और अपने युवाओं को सही राह दिखाने की कोशिशें
होतीं तो यह जहर आज नासूर बनकर न फूटता। आखिर जेएनयू में ऐसा क्या है कि हर
देशद्रोही को वहां स्पेस मिल जाता है? कोई भी
विचार तभी तक स्वीकार्य है, जब तक हमारी अकादमिक योग्यताओं को निखारने और संवर्धित
करने में सहायक हो। जो विचार देश को तोड़ने और उसके टुकड़े करने के स्वप्न देखे
उसका मिट जाना ही ठीक है।
भारत
जैसे लोकतंत्र में रहते हुए आप ‘आजादी’ की रट लगा रहे हैं, यह आजादी क्या आपको माओ, आईएस,
तालिबानी या साम्यवादी राज में मिलेगी? आप इस
देश को तोड़ने की नारेबाजी में लगे हैं, लेकिन
यह महान देश और उसका लोकतंत्र, हमारी अदालतें आपकी
हर बात सुनने को तैयार हैं और आपकी शिकायतों पर भी संज्ञान ले रही हैं। कई देश
विरोधी नेता इसी जमीन पर भारतीय राज्य की दी गयी सुरक्षा के नाते जिंदा हैं, किंतु
वे भी नौजवानों का गुमराह करने का कोई जतन नहीं छोड़ते। शिक्षक समुदाय की यह
जिम्मेदारी है कि वह अपने विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना का ऐसा ज्वार पैदा
करे, कि कोई भी ताकत उन्हें उनके मार्ग से हटा न सके।
शिक्षकों को तय करना होगा कि वे खुद में चाणक्य का चरित्र विकसित करें। राष्ट्र के
निर्माण में अपने योगदान को सुनिश्चित करके ही वे वर्तमान की चुनौतियों और अपने
सम्मान के सुरक्षित रख सकेगें। अगर अब भी आपको राजनीति से ‘बहुत कुछ बदल जाने की उम्मीद’ है, तो कृपया छोड़ दीजिए और खुद पर भरोसा करते
हुए एक नए भारत के निर्माण में जुट जाइए। जेएनयू प्रसंग को एक बुरे सपने की तरह
भूलना और ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना शिक्षक समुदाय की ही जिम्मेदारी है, सवाल यह है कि क्या हम इस जिम्मदारी को उठाने के
लिए तैयार हैं?
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