शनिवार, 17 मई 2014

भागवत, भाजपा और मोदी!



     सफल रहा आरएसएस का नरेंद्र मोदी प्रयोग
-संजय द्विवेदी
           इस बात पर बहस हो सकती है कि भारतीय जनता पार्टी की इस ऐतिहासिक विजय का सूत्रधार कौन है। टीवी चैनलों की अनंत और निष्कर्षहीन बहसें भी इस सत्य को पूरा उजागर नहीं कर सकतीं। किंतु राजनीति के पंडितों को नरेंद्र मोदी ने 16 मई के अपने बडोदरा और अहमदाबाद के भाषणों में विश्लेषण के अनेक सूत्र दिए। जिसमें सबसे प्रमुख यह कि कांग्रेस पार्टी छोड़कर यह पहली ऐसी सरकार है, जिसमें किसी दल ने अकेले दम पर बहुमत पाया है। वे याद दिलाते हैं कि 1977 की जनता पार्टी की सरकार भी अनेक कांग्रेस विरोधी दलों का गठबंधन ही थी। किंतु परदे के पीछे के नायकों को देखें तो इस जीत ने उन्हें भी मुस्कराने का अवसर दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए शायद यह क्षण सबसे अधिक प्रसन्नता का है, जब वह दूसरी बार किसी स्वयंसेवक को भारत जैसे विशाल राष्ट्र का नेतृत्व करता हुआ देख रहा है। किंतु संघ परिवार की खुशी का सबसे बड़ा कारण यह है कि उसके विचार परिवार से जुड़े एक दल ने अपने दम पहली बार बहुमत पाया है।
    संघ एक ऐसा संगठन है जो राजनीतिक क्रियाकलापों पर मर्यादा में रहते हुए ही अपनी सक्रियता का प्रदर्शन करता है। आप ध्यान दें कि इस चुनाव में अपनी अतिसक्रियता के बावजूद आरएसएस के सरसंघचालक को एक बार कहना पड़ा कि हमारा काम नमो- नमो करना नहीं हैं। यह साधारण वक्तव्य नहीं था और यह ध्यान दिलाने के लिए था कि उसके स्वयंसेवक अपनी सीमाएं और मर्यादाएं न भूलें। बावजूद इसके यह मानना पड़ेगा कि इस चुनाव में जैसी सक्रियता संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने दिखाई वह अभूतपूर्व थी। इसका श्रेय लेने से वे बचने की कोशिश भी करेंगें और टीवी पर दिखने वाले उनके प्रवक्ताओं में एक वीतरागी विचार भी दिखेगा। किंतु यह तय मानिए कि यह चुनाव दरअसल संघ का खुद का रचा हुआ प्रयोग था जिसमें वह सफल हुआ।
     भारतीय जनता पार्टी 2004 और 2009 की पराजय से निष्प्राण होकर पड़ी थी। संघ अपनी सीमित राजनीतिक आकांक्षाओं के बावजूद अपने सम्मान और शुचिता को लेकर बेहद सजग संगठन है। कांग्रेस के वाचाल नेताओं द्वारा उस पर किए जा रहे हमले और हिंदू आतंकवाद जैसे गढ़े गए नए शब्दों से वह निरंतर आहत हो रहा था। कांग्रेस की इस संघ विरोधी फौज को लगता था कि इससे कांग्रेस अध्यक्षा प्रसन्न होंगीं। जबकि इतिहास की ओर नजर डालें तो जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक संघ नेतृत्व का संवाद कांग्रेस से कभी इतना कड़वाहट भरा नहीं था। संघ परिवार ने कभी सीधे तौर पर नेहरू-गांधी परिवार पर हमले नहीं बोले। जबकि कांग्रेस के सोनिया समय में यह सारा कुछ बिगड़ता दिखा।पस्तहाल भाजपा कांग्रेस की बी टीम सरीखा व्यवहार कर रही थी। भाजपा नेतृत्व एक गहरी दिशाहीनता का शिकार था और सत्ता जाने की व्याकुलता उसमें साफ दिखती थी। लालकृष्ण आडवानी जैसे शीर्ष नेता उसके कांग्रेसीकरण पर चिंताएं तो जता रहे थे पर बिखर रहे परिवार को लामबंद कर पुनः खड़ा करने के आत्मविश्वास से वे खाली थे। ऐसे में संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक वक्तव्य आता है कि भाजपा का अगला अध्यक्ष दिल्ली से नहीं होगा जिसे उन्होंने डी-4 नाम दिया था। यह दरअसल संघ के मैदान में उतरकर खड़े होने और देश को सरकारविहीनता और अराजकता से मुक्त कराकर एक समर्थ नेतृत्व एवं सरकार देने की दिशा में एक शुरूआत थी। इसके पूर्व 1975 के आपातकाल विरोधी आंदोलन में अपनी सक्रियता से संघ ने 1977 में जनता पार्टी सरकार बनाने में योगदान दिया था। लंबे समय बाद उसकी सक्रियता राममंदिर आंदोलन में नजर आई जब अटलजी को सरकार बनाने का अवसर मिला। किंतु राजग ने उसके सपनों पर पानी फेर दिया। वाजपेयी की सरकार से संघ के मतभेद आर्थिक नीतियों सहित अनेक मामलों पर सामने दिखने लगे थे। ऐसे में संघ ने अपने को अपनी गतिविधियों तक सीमित कर लिया और राजनीतिक विमर्शों से एक मर्यादित दूरी दिखाने लगा। एक अराजनैतिक और सांस्कृतिक संगठन होने के नाते उसकी गतिविधियों का समाज जीवन पर व्यापक प्रभाव है। इसे देखते हुए कमजोर भाजपा के बजाए कांग्रेस के कुछ नेता संघ को ही निशाने पर लेने लगे। इसी दौर में हिंदू आतंकवाद शब्द को प्रायोजित किया गया और संघ को एक ऐसे खतरे की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा कि जिसके बढ़ते प्रभाव से देश टूट जाएगा। संघ की ओर से मुस्लिम संपर्क का काम देखने वाले इंद्रेश कुमार जैसे प्रचारकों पर आरोप लगाने के प्रयास हुए और बम धमाकों में अनेक  निर्दोष स्वयंसेवकों को फंसाने की कोशिशें हुयीं। यह सारा कुछ इतने सधे हुए अंदाज में हो रहा था कि लगने लगा कि गृह मंत्रालय एक गलत विषय को जनता के बीच स्थापित कर ले जाएगा। राजनीति के इस घिनौने स्वरूप के खिलाफ संघ की चिंताएं सामने आ रही थीं किंतु उसका स्वयं का पोषित संगठन भाजपा पस्तहाल था। काडर निराश था और ऐसे समय में दिल्ली में नितिन गडकरी की ताजपोशी के माध्यम से संघ ने एक नया मार्ग पकड़ने के लिए भाजपा को प्रेरित किया। बाद में नितिन गडकरी को कुछ आरोपों के चलते दूसरा कार्यकाल न मिल सका और राजनाथ सिंह को यह काम सौंपा गया। आप देखें तो भाजपा में यह करना साधारण नहीं था। दिल्ली की राजनीति में अरसे काबिज राजनेता नए नेतृत्व को स्वीकारने को तैयार नहीं थे। कांग्रेस पर हमला करने और स्वयं को वास्तविक प्रतिपक्ष साबित करने में भाजपा विफल हो चुकी थी।
    भाजपा संगठन में बदलाव के बाद एक ऐसे चेहरे की तलाश थी जो संघ के प्रयोग को अंजाम तक ले जा सके। तमाम असहमतियों के बावजूद संघ ने साहस दिखाकर नरेंद्र मोदी को भाजपा के केंद्र में स्थापित कर दिया। भाजपा के भीतर रूठने-मनाने और पत्र लेखन के सिलसिले के बावजूद संघ ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की सलाह भाजपा को दी। समय ने साबित किया संघ ने जो निर्णय लिया था वह कितना सकारात्मक और भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ। इस बीच दिल्ली में हुए बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के आंदोलनों ने एक नई उर्जा का संचार किया और देश में व्यापक असंतोष का सृजन हुआ। कांग्रेस की सरकार की विफलताएं, मंत्रियों के बड़बोलेपन और अहंकारजन्य प्रस्तुति ने इस असंतोष को बढ़ाने का ही काम किया। नरेंद्र मोदी का नेतृत्व पाकर भाजपा का सोया हुआ काडर जाग उठा। उसमें उम्मीदें हिलोरें लेने लगीं।
   संघ ने अपने रणनीतिकारों भैया जी जोशी, सुरेश सोनी, दत्तात्रेय होसबाले, डा.कृष्णगोपाल, मनमोहन वैद्य,राम माधव की क्षमताओं का पूरा उपयोग करते हुए विविध क्षेत्रों की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी। संघ के क्षेत्र प्रचारकों ने अपने-अपने राज्यों में तगड़ी व्यूह रचना की और माइक्रो मानिटरिंग से एक अभूतपूर्व वातावरण का सृजन किया। चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने और शत प्रतिशत मतदान के लिए संपर्क का तानाबाना रचा गया। जिसका परिणाम है कि सूदूर कन्याकुमारी से लेकर लद्दाख से भी भाजपा के सांसद चुनकर संसद में पहुंचे हैं। संघ के काडर की सक्रियता ने देश में जहां मत प्रतिशत बढ़ाने में मदद की, वहीं नरेंद्र मोदी के समझौताविहीन और आक्रामक तेवरों ने सामान्य मतदाताओं के भीतर भरोसा जगाया। नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व को गढ़नेवाला संघ ही उन्हें अब एक नायक के रूप में पेश कर रहा था, जिसके पास आधुनिक भारत की चुनौतियों और समस्याओं का समाधान था। 2002 से हमले झेल रहे नरेंद्र मोदी का चयन वास्तव में संघ के लिए एक बहुत बड़ा जुआ था, जिसमें हारने पर भाजपा के लिए एक बड़ा संकट खड़ा होता और कम सीटें आने से भाजपा फिर उसी दौर में पहुंच जाती जहां समझौते, समर्पण और चयनित दृष्टिकोण से राजनीति की जाती है। बिहार से आए नीतिश कुमार जैसे नेताओं के विरोध को दरकिनार कर संघ ने एक नई सामाजिक अभियांत्रिकी का पूरा ताना-बाना बुना जिसमें उप्र और बिहार को अपनी राजनीति का केंद्र बनाया। यह तथ्य सामने उजागर नहीं हैं कि किसने नरेंद्र मोदी को बनारस से लड़ाने का फैसला किया किंतु इस एक घटना ने भाजपा को चुनाव-युद्ध के केंद्र में ला दिया। संघ परिवार ने जहां अपने खांटी स्वयंसेवक और पूर्व प्रचारक को मैदान में उतारा वहीं भाजपा के विरोधियों के पास मोदी विरोध के किस्से तो थे किंतु विकल्प नदारद था।
   नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस और गांधी परिवार के प्रति रियायत न बरतते हुए अपने राजनीतिक विरोधियों की हर गलत बात पर सवाल खड़े किए। वे चुनाव अभियान के ऐसे नायक बने जिसे सुनने को लोग उमड़ रहे थे। अपने भाषणों से वे जनता को राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित कर रहे थे। यूं लगा कि समय का चक्र काफी पीछे घूम गया है, जब अपने नेताओं के सुनने-देखने के लिए लोग दूर-दूर जाया करते थे। मोदी को लेकर पैदा हुयी दीवानगी अकारण नहीं थी। यह संघ की कार्यशाला में पके हुए एक ऐसे व्यक्ति के प्रति जनविश्वास का प्रगटीकरण था जिसके मित्र और शत्रु प्रकट थे, जो अपने विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को छिपाता नहीं था, जो परंपरा और आधुनिकता को एक साथ साधते हुए 21वीं सदी के भारत का नायक बनने की क्षमता से लैस था। वह एक ऐसा नायक था जो अपनी विरासत और परंपरा को हिकारत से नहीं देख रहा था। जो मां के चरण छू-कर हर काम की शुरूआत तो करता था, किंतु परिवार के मोह से मुक्त था। जिसने उसे मिले हुए हर काम को पूरी तनदेही से पूरा किया और आगे की मंजिल पर निगाह रखी। युगों में ऐसे करिश्मे घटित होते हैं। भारतीय राजनीति में करिश्माई व्यक्तित्व के रूप में पं. नेहरू, इंदिरा गांधी, अटलबिहारी वाजपेयी और उसके बाद कौन तो आपको नरेंद्र मोदी ही याद आएंगें। नरेंद्र मोदी ने यह सब करते हुए भी अपने विचार के प्रति आग्रहों को कभी छुपाया नहीं। वे अपने विचारों के प्रति ईमानदार,कार्य के प्रति समर्पित और एक बेहद मेहनती इंसान हैं। इसलिए जब उन्होंने खुद को एक मजदूर नंबर-1 बताया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। अपने साधारण जीवन, अप्रतिम वकृत्व कला, विचारधारा के प्रति समर्पण और टीम भावना ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है। याद कीजिए पस्तहाल भाजपा के बारे में कभी संघ प्रमुख ने कहा था कि "भारतीय जनता पार्टी में जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है। ...भाजपा का पतन नहीं हो सकता, उसमें राख से उठ खड़े होने का माद्दा है। आज इतिहास की इस घड़ी में जब नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री चुने जा चुके हैं तो राजनीतिक पंडितों को संघ के इस नरेंद्र मोदी प्रयोग को ठीक से समझने और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं, लेखक के विचार निजी हैं।)


शुक्रवार, 16 मई 2014

नरेंद्र मोदीः सपनों को सच करने की जिम्मेदारी



-संजय द्विवेदी
         भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय ने सही मायने में राजनीतिक विश्वलेषकों के होश उड़ा दिए हैं। यह इसलिए भी है कि क्योंकि भारतीय जनता पार्टी जैसे दल को लंबी राजनीतिक छूआछूत का सामना करता पड़ता है और कथित सेकुलरिज्म के नारों के बीच नरेंद्र मोदी का चेहरा लेकर वह बहुत आश्वस्त कहां थी? समूचे हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से से भाजपा की अनुपस्थिति और एक बड़ी दुनिया का उसके खिलाफ होना ऐसी स्थितियां थीं जिनसे लगता नहीं था कि भाजपा अपने बूते पर 272 का जादुई आंकड़ा पार कर पाएगी। चुनावी दौर में मेरे दोस्त और कलीग आशीष जोशी ने कहा आप लिखकर दीजिए कि भाजपा को अपने दम पर कितनी सीटें मिलेंगीं। एक अभूतपूर्व वातावरण की पदचाप को महसूस करते हुए भी, बंटें हुए हिंदुस्तान की अभिव्यक्तियों के मद्देनजर मैंने 240 प्लस लिखा और दस्तखत किए। परिणाम आए तो भाजपा 282 सीटें पा चुकी थी। आकलन हम जैसे कथित विश्वलेषकों का ही फेल नहीं हो रहा था। खुद पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इंडिया टुडे को एक इंटरव्यू में कहा था कि हम यूपी में 50 सीटें जीतेंगें, इस अभियान के नायक अमित शाह थोड़ा आगे बढ़े तो सीटों की संख्या 57 तक ले गए। किंतु परिणाम बता रहे हैं कि उप्र से भाजपा को 73 सीटें मिल चुकी हैं। सच मानिए, कौन यह कहने की स्थिति में था कि बसपा जैसी पार्टी का उप्र में खाता नहीं खुलेगा। दिल्ली में आप को एक भी सीट नहीं मिलेगी। कांग्रेस देश में 44 सीटों पर सिमट जाएगी।
     सही मायने में यह अभूतपूर्व चुनाव थे जहां एक ऐतिहासिक संदर्भ जुड़ता नजर आया कि कांग्रेस के अलावा भाजपा पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने अपने दम पर पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। 1977 के चुनाव में जनता पार्टी भी कई दलों का गठजोड़ थी, जिसे जयप्रकाश नारायण की जादुई उपस्थिति और आपातकाल के विरूद्ध पैदा हुए जनरोष ने खड़ा किया था। लेकिन 2004 के  लोकसभा चुनावों के बाद देश की राजनीति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिले हैं। देश की जनता अब जहां भी वोट कर रही है, आगे बढ़कर वोट कर रही है। उप्र के नागरिक इस मामले में अभूतपूर्व समझदारी का परिचय देते हुए दिख रहे हैं। आप याद करें कि वे बसपा की मायावती को अकेले दम पर सत्ता में लाते हैं। उनकी मूर्तिकला और पत्थर प्रेम से ऊब कर मुलायम सिंह के नौजवान बेटे पर भरोसा करते हैं और उन्हें भी अभूतपूर्व बहुमत देते हैं। उनकी सांप्रदायिक राजनीति और सपा काडर की गुंडागर्दी से त्रस्त होकर भाजपा को उप्र में लोकसभा की 73 सीटें देकर भरोसा जताते हैं। इतना ही नहीं ईमानदारी से काम कर रही सरकारें भी इसके पुरस्कार पा रही हैं बिहार में नितीश-भाजपा गठजोड़, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस,तमिलनाडु में जयललिता और उड़ीसा में भाजपा से अलग होकर लड़े नवीन पटनायक को भी वहां की जनता ने बहुमत दिया। यह संदेश बहुत साफ है कि अब जनता को काम करने वाली सरकारों का इंतजार है। मप्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, गोवा, राजस्थान, पंजाब की भी यही कहानी है।
  यहां सवाल यह उठता है कि आखिर जनता के निर्णायक फैसलों के बावजूद हमारी राजनीति इन संदेशों को समझने में विफल क्यों हो रही है। आखिर क्यों वह राजनीति के बने-बनाए मानकों से निकलने के लिए तैयार नहीं है? क्यों अखिलेख यादव जैसे युवा राजनेता भी अपने पिता की राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर कुछ सार्थक नहीं कर पाते? ऐसे में जनता का भरोसा तो टूटता है ही, युवा राजनीति के प्रति पैदा हुआ आशावाद भी टूटता है। आप देखें तो परिवारों से आई युवा बिग्रेड का क्या हुआ? कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने ऐसा क्या किया कि उनके अब्बा हुजूर भी हार गए और पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। इसके अलावा राहुल गांधी के युवा बिग्रेड के सितारों में शामिल सचिन पायलट,भंवर जितेंद्र सिंह, आरपीएन सिंह, जतिन प्रसाद, अरूण यादव, मीनाक्षी नटराजन, संदीप दीक्षित का क्या हुआ? इससे पता चलता है कि देश की बदलती राजनीति, उसकी आकांक्षाओं, सपनों का भी इस बिग्रेड को पता नहीं था। अपनी जड़ों से उखड़ी और अहंकार जनित प्रस्तुति से दूर लोगों से संवाद न बना पाने की सीमाएं यहां साफ दिखती हैं। यह अहंकार और संवाद न करने की शैली पराजय के बाद भी नजर आती है। पराजय के बाद की गयी प्रेस कांफ्रेस में कांग्रेस उपाध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्षा की ओर गौर करें वे पराजय की जिम्मेदारी तो लेते हैं और नई सरकार को बधाई देते हैं पर भाजपा का नाम लेना भी उन्हें गवारा नहीं है। साथ ही कोई सवाल लिए बिना वहां से चले जाते हैं। इस तरह राजतंत्र में तो चल सकता है, किंतु लोकतंत्र का तो आधार ही संवाद व विनयभाव है।
   कांग्रेस की इस बुरी पराजय के पीछे सही मायने में यही संवादहीनता घातक साबित हुयी है। अपने चुने हुए प्रधानमंत्री के कामों का अपयश आखिर आपके खाते में ही जाएगा। मनमोहन सिंह पर ठीकरा फोड़ने की कवायदें धरी रह गयीं और अंततः आखिरी दिनों का चुनाव अभियान मां-बेटे की सरकार के खिलाफ जनादेश में बदल गया। यह साधारण नहीं है कि कांग्रेस संगठन व सरकार के समन्यव पर ध्यान नहीं दे पायी। पार्टी में तो पीढ़ीगत परिवर्तन हो रहे थे किंतु सरकार रामभरोसे चल रही थी। क्या ही अच्छा होता कि पार्टी की तरह सरकार भी एक पीढ़ीगत परिर्वतन से गुजरती। दूसरा चुनाव( 2009) जीतने के कुछ समय बाद कांग्रेस अपने प्रधानमंत्री को बदलकर एक संदेश दे सकती थी। सबसे बड़ा संकट यह है कि राहुल जिम्मेदारियां संभालने को तैयार नहीं थे और सरकार किसी को सौंपने का साहस भी उनका परिवार नहीं जुटा पाया। मनमोहन सिंह उनके लिए सबसे सुविधाजनक नाम थे, जिसका परिणाम आज सामने है। यह गजब था कांग्रेस संगठन तो आम आदमी की पैरवी में खड़ा था तो सरकार बाजार की ताकतों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में खेल रही थी। आंदोलनों से निपटने की नादान शैली, अहंकार उगलती भाषा में बोलते वाचाल मंत्री और कुछ न बोलते प्रधानमंत्री- कांग्रेस पर भारी पड़ गए। बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे और न जाने कितने जनांदोलनों ने कांग्रेस के खिलाफ वातावरण को गहराने का काम किया। अहंकार में डूबी कांग्रेस ने अपने शत्रुओं को बढ़ाने में भी खास योगदान दिया। राहुल गांधी के सामने यह समय एक कठिन चुनौती लेकर आया है। उनके लिए संदेश साफ है कि सुविधा की राजनीति से और चयनित दृष्टिकोण से बाहर निकलकर वे कांग्रेस को एक आक्रामक विपक्ष के रूप में तैयार करें। कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारें और खुद भी उतरें। दिल से बात करें और लिखा हुआ संवाद बंद करें। संगठन के मोर्चे पर खुद खड़ें हों और मैदान बहन प्रियंका गांधी के लिए खाली करें। कांग्रेस में नई पीढ़ी की आमद उन्होंने बढ़ाई है तो उन्हें अधिकार भी दें। जैसा कि देखा गया कि इस चुनाव में श्रीमती सोनिया गांधी की सीनियर टीम और राहुल गांधी की जूनियर टीम में एक गहरी संवादहीनता व्याप्त थी। अनुभव और जोश का तालमेल गायब था। एक टीम आराम कर रही थी तो दूसरी टीम मैदान में अपनी स्वाभाविक अनुभवहीनता से पिट रही थी। यह भी सही है कि एक चुनावों से कोई भी दल खत्म नहीं होता, इसे समझना है तो 1984 की भाजपा को याद करें जब उसकी दो सीटें लोकसभा में आयी थीं और 2014 में वह 282 सीटें लेकर सत्ता में वापस आयी है। एक सक्रिय और सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका कांग्रेस के लिए आज भी खाली पड़ी है।
    वहीं भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव परिणाम एक ऐतिहासिक अवसर हैं। उसे इतिहास की इस घड़ी ने अभूतपूर्व बहुमत देकर देश के सपनों को सच करने की जिम्मेदारी दी है। इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता माने जा रहे हैं जो सूझबूझ, राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ता की भावनाओं से लबरेज हैं। एक सफल नायक के सभी पैमानों पर वे गुजरात में सफल रहे हैं, चुनावी अभियान में भी वे अकेले ही सब पर भारी पड़े। अब सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की आकांक्षाओं के वे प्रतिनिधि हैं। जनता का भरोसा बचाए और बनाए रखने की जिम्मेदारी मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तीनों की है। क्योंकि इन तीनों के मिले- जुले वायदों और प्रामाणिकता के आधार पर ही जनता ने उन्हें अपना नेतृत्व करने का अवसर दिया है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं, विचार निजी तौर लिखे गए हैं।)


गुरुवार, 15 मई 2014

मीडिया में दिख रहा है किस औरत का चेहरा ?

-संजय द्विवेदी
      मेरे सामने इंडिया टुडे का 18 दिसंबर,2013 का अंक है। जिसकी आवरण कथा एक सेक्स सर्वे पर आधारित है और उसका शीर्षक है- महिलाओं का मन मांगे मोर। एक मुख्यधारा की समाचार पत्रिका में प्रकाशित यह आवरण कथा बताती है कि आखिर स्त्री की तरफ देखने की मीडिया की दृष्टि क्या है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है । सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है, उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चैनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। मीडिया ने उदारीकरण के बाद बाजार में एकदम नई औरत उतार दी है, जो आत्मविश्वास से भरी है और तमाम वर्जित क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए उत्सुक है। इस सबके बीच मीडिया की कुछ सकारात्मक भूमिका भी है जो रेखांकित की जानी चाहिए। औरत की एक नई पहचान बनाने और स्थापित करने में उसने एक बड़ी भूमिका निभाई है। सौंदर्य एवं आकर्षण से इतर एक महत्वाकांक्षी और कर्मठ छवि बनाने में मदद की है। महिला अधिकार और स्वतंत्रता के साथ-साथ परिवार के अंदर वह एक निर्णायक भूमिका में नजर आ रही है। महिला उद्ममिता के साथ-साथ समाज में महिलाओं के संघर्ष को भी मीडिया ने स्वर दिया है। किंतु कुछ सकारात्मक पक्षों के साथ उसका महिला को एक सेक्स आब्जेक्ट के रूप में पेश करने का रवैया सबसे खतरनाक है, जो उसके सभी पुण्यकर्मों पर पानी फेर देता है।
दैहिक विमर्शों का वाहकः
      प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेरा रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।  इस पूरे वातावरण को इलेक्ट्रानिक टीवी चैनलों ने आँधी में बदल दिया है। प्रिंट मीडिया अब इससे होड़ ले रहा है। इंटरनेट ने सही रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुँचाया । पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी है। मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है, अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह ग्लोबल बना रहा है इसका उदाहरण विश्व कप फुटबाल में देखने को मिला। मीडिया रिपोर्ट से ही हमें पता चला कि जर्मनी के तमाम वेश्यालय इसके लिए तैयार थे और दुनिया भर से वेश्याएं वहाँ पहुंचीं। कुछ विज्ञापन विश्व कप के इस पूरे उत्साह को इस तरह व्यक्त करते थे मैच के लिए नहीं, मौज के लिए आइए। जाहिर है मीडिया ने हर मामले को ग्लोबल बना दिया है।हमारे गोपन विमर्शोंकोओपनकरने में मीडिया का एक खास रोल है। शायद इसीलिए मीडिया के कंधों पर सवार यह सेक्स कारोबार तेजी से ग्लोबल हो रहा है।  महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है । वे छापते हैं 80 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं । दरअसल यह छापा गया सबसे बड़ा झूठ हैं । ये पत्र-पत्रिकाओं के व्यापार और पूंजी गांठने का एक नापाक गठजोड़ और तंत्र है ।
बाजार की बाधाएं हटा रहा है मीडियाः
    सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते हैं । इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद उतना नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों मुद्रित माध्यम मचा रहे हैं । कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती । मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की । उसका विमर्श है-देह जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म, गोलियों की रासलीला जैसी तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है । जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है । अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का डै । कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है, जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है। वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि आज भी पत्रकारिता में महिलाओं का प्रतिशत भले बढ़ गया हो किंतु महिला मुद्दों के प्रति संवेदना की बहुत कमी है। अधिकांश महिलाएं पुरूष मानसिकता से भरी हुई हैं, और ऐसी महिलाओं के संवेदना का स्तर अधिक जागरूक नहीं है।”1
    अस्सी के दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देह राग में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं । भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए । अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया ।  एलफिन की संपादक रेखा तनवीर कहती हैं कि आज औरत का ग्लैमरस हिस्सा बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है।...औरत को असली रूप में प्रस्तुत करना अभी बाकी है जिससे उसकी पहचान बने।2   पत्रकार कुमकुम शर्मा भी इस बात से एक साक्षात्कार में सहमति दिखाती हैं- वे कहती हैं-मीडिया आज स्त्री की छवि को बहुत विकृत करके परोस रहा है। उनकी पहचान स्त्री देह के नाते बन रही है। औरतें लगातार समझौते कर रही हैं और अपने आप को पहचान नहीं पा रही हैं।”3
     इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं । हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं । कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है । अब सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमें बिना बात नहीं बनती । कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे मर्दकी आंख का आकर्षण बनें यही पहिला पत्रकारिता का मूल विमर्श है । जीवन शैली अब लाइफ स्टाइलमें बदल गया है । बाजारवाद के मुख्य हथियार विज्ञापनअब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलता मीडिया एक ऐसी दुनिया रच रहा है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग । इस समूचे परिदृश्य को हम भौंचक होकर देख रहे हैं। लेखिका और उपन्यासकार जया जादवानी लिखती हैं-कौन सी औरत खड़ी है इस स्क्रीन पर –वह जो आइटम गर्ल है, छोटे कपड़े पहनती है, बड़े-बड़े पर्स, हाईहील के शू पहनती है। एक-एक लाख का माल शरीर पर...घर बनाती नहीं, तोड़ती है..। वैसै घरों का जो हाल है, टूट ही जाने चाहिए।...स्त्रियों की मीडिया में सोचनीय भूमिका के लिए सिर्फ मीडिया ही जिम्मेदार है क्या? खुद स्त्री? इस तमाम चेहरों में उसका असली चेहरा कौन सा है? कब आएगी वह मुखौटों के पीछे से अपने वास्तविक रूप में?”4
न हो औरत की शक्ति का बाजारीकरणः
    इन तमाम संकटों के बीच भी स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। प्रख्यात आलोचक विजयबहादुर सिंह लिखते हैं कि-इसमें संदेह नहीं कि मीडिया ने स्त्री केलिए संभावनाओं के सैकड़ों गवाक्ष खोल दिए हैं। ये जितने रूपहले और चमकीले हैं, उतने ही आत्मस्मृतिमूलक(यानी कि अपने को पहचानने की सुविधा प्रदान करने वाले) और आत्मनिखार के मौके देने वाले भी। हम अगर उसे सिर्फ बाजार मान लें,तब भी एक यह गुंजाइश बची ही रहती है कि हम वहां एक प्रतिस्पर्धी उपस्थिति के लिए स्वाधीनता के साथ संघर्षरत रहें। गायन,नृत्य, अभिनय, कला-कौशल की अन्य भूमिकाओं में मीडिया ने स्त्री के लिए लगभग युगान्तर ही उपस्थित  कर दिया है।5
    मीडिया के इस उजले पक्ष की व्यापक उपस्थिति भी दिखती है। टीवी माध्यम के विस्तार ने युवतियों और महिलाओं को एक नई शक्ति दी है। न्यूज रूम जो प्रिंट मीडिया की शाहंशाही में पुरूषों से भरे थे, अब टीवी मीडिया दौर में न्यूज रूम औरतों की उपस्थिति से ही नई पहचान अर्जित कर रहे हैं। टीवी पर दिखने के अलावा उसके पीछे भी स्त्रियों की एक बड़ी शक्ति ही काम कर रही है। मनोरंजन जगत में एकता कपूर जैसे तमाम उदाहरण दिखते हैं तो न्यूज मीडिया में अनुराधा प्रसाद जैसी हस्तियां भी हैं, जो स्वयं कई चैनलों और रेडियो स्टेशनों की मालकिन हैं। बावजूद इसके मीडिया की तरफ देखने की दृष्टि क्या है इसका उल्लेख करते हुए विजयबहादुर सिंह लिखते हैं कि औसत निम्न मध्यवर्गीय और कभी-कभी मध्यवर्गीय दिमाग भी यह सोचा करता है कि मीडिया स्त्रियों के लिए एक संदिग्ध और खतरनाक क्षेत्र है। ऐसे मित्रों से यह कहना जरूरी है शिक्षा और नौकरशाही के क्षेत्र में ये अपवाद पहले से जारी है। फिर स्त्री अब खुद पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्रताप्रिय  और आत्मविश्वासी हुयी है। वहीं प्रख्यात लेखिका डा.कमल कुमार का कहना है कि –सेक्स की उन्मुक्त अभिव्यक्ति,स्त्री शरीर के नग्न प्रदर्शन की वृद्धि। इंटरनेट, डिजिटल टेक्नालाजी, मोबाइल,कैमरा, वीडियो पर पोर्नोग्राफी का समर्थन पर हिंसा नहीं तो क्या है ?....भोग विलास और सुख सुविधा को जीवन का लक्ष्य बना देना, सूचनाओं को सत्ता बना देना और बाजार को समाज बना लेने का काम मीडिया कर रहा है। 7
    इसमें दो राय नहीं की नई बाजारवादी व्यवस्था से प्रेरित मीडिया ने औरत की बोली लगानी शुरू की है, उसके भाव बढ़े हैं। सौंदर्य के बाजार कदम-कदम पर सज गए हैं, लेकिन बाजार का यह आमंत्रण, मीडिया के आमंत्रण जैसा नहीं है। दोनों जगहों पर उसकी चुनौतियां अलग हैं। सौंदर्य के बाजार में स्त्री विरोधी परंपराएं और नाजुकता रूप बदलकर बिक रही है, लेकिन मीडिया के मंच पर स्त्री का आमंत्रण उनके दायित्वबोध, नेतृत्वक्षमता और दक्षता का आमंत्रण भी है। जिस भी नीयत से हो, यह आमंत्रण सार्थक बदलाव की उम्मीद जगाता है। भारतीय स्त्री ने इस आमंत्रण को स्वीकारा है भारतीय मीडिया का चेहरा-मोहरा बदलकर रख दिया है। मीडिया में भी अब वे अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार के विरूद्ध भी खड़ी हो रही हैं( प्रसंगःतरूण तेजपाल)।तब महामानव गौतम बुद्ध द्वारा ढाई हजार साल पहले कही गई यह उक्ति के स्त्री होना ही दुःख हैशायद अप्रासंगिक हो जाए और फिर शायद किसी पामेंला बोर्डिस को यह कहने की जरूरत न पड़े कि यह समाज अब भी मिट्टी-गारे की बनी झुग्गी में रहता है।  1990 के बाद आई भूमंडलीकरण और उदारीकरण की आंधी ने सही मायने में भारतीय समाज को सब क्षेत्रों में प्रभावित किया है। मीडिया में प्रवेश कर आई विदेशी पूंजी ने हमारे मीडिया को भी प्रभावित किया। जिसे हमारे समय के श्रेष्ठ संपादक प्रभाष जोशी कभी गुस्से या क्षोभ से आवारा पूंजी भी कहते रहे। भारतीय मीडिया के इस सर्वव्यापी और सर्वग्रासी प्रभाव की ओर समाज भौंचक होकर देख रहा है। इसके व्यापक उठा रहे भारतीय मीडिया में आत्मालोचन की प्रवृत्ति के बावजूद वह सही और सरोकारी विकल्पों की ओर देख नहीं पा रहा है। शायद इसीलिए मीडिया प्राध्यापक मीता उज्जैन को लगता है कि मीडिया में स्त्री की चेहरा है उसके मुद्दे नहीं। अपने लेख में वे लिखती हैं- 90 का दशक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की आंधी के बीच एक नई चुनौती लेकर आया। जहां बाजार ने भारत और इंडिया की विभाजन रेखा को और गहरा कर दिया। वहीं दूसरी ओर महिलाओं को संभावनाओं का नया आकाश प्रदान किया। यह दौर था भारत से विश्वसुंदरियां निकलने का, जिसमें हर क्षेत्र में औरतें अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रही थीं। इसमें उनका आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता दोनों बढ़ते दिख रहे थे।... उदारीकरण ने जहां महिलाओं के लिए नए अवसर दिए वहीं उनके शोषण के रास्ते भी खोल दिए।”8 उदारीकरण के असर ने जहां मीडिया में महिलाओं की भौतिक मौजूदगी को बढ़ा दिया वहीं देखें तो उनके शोषण के अनेक रास्ते भी खोल दिए। इस बात का अध्ययन किया जाना शेष है कि उदारीकरण की इस आंधी के बाद औरतों के खिलाफ जुल्म बढ़े हैं या कम हुए हैं। उनके प्रति अपराध शहरों भी पनप रहे हैं। मुंबई-दिल्ली जैसै शहर भी औरतों के खिलाफ जुल्म ढाते नजर आ रहे हैं। सामूहिक बलात्कार, स्त्री के प्रति हिंसा की खबरों से समाचार माध्यम पटे पड़े हैं। मीता लिखती हैं-इन सारी परिस्थितियों में एक नया प्रश्न खड़ा हुआ है कि महिला या उससे जुड़े मुद्दों की जगह मीडिया में कहां है, किस पेज पर है। मीडिया महिलाओं के चेहरों से सुशोभित है, मगर महिला मुद्दों से मुंह चुराता है।9
   समूचा परिदृश्य बताता है कि मुख्यधारा के मीडिया में स्त्री के सवाल उस तरह से स्थापित नहीं हो सके हैं जिस परिमाण में स्त्री शक्ति का प्रकटीकरण हुआ है। उसके पूरे चरित्र में आज भी एक असंतुलन है। यह एक मीडिया की नाकामी ही है, जिस पर उसे निरंतर आत्मालोचन की जरूरत है।1949 में सिमोन द बोवुआर ने अपनी किताब द सेकंड सेक्स में स्थापना दी थी कि औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है। उनकी बात आज भी प्रासंगिक है क्योंकि हमारे तमाम भौतिक विकास के बावजूद हम मानसिक और सामाजिक स्तर पर स्त्री को वह जगह नहीं दे पाए हैं जिसकी वह हकदार है। मीडिया भी इससे मुक्त नहीं है क्योंकि वह भी इसी सामाजिक व्यवस्था से खाद-पानी पीकर बनता और प्रभावी होता है।
1.      शुक्ला सुधाः महिला पत्रकारिता,प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन, दिल्ली,पृष्ठ-217
2.      शुक्ला सुधाः महिला पत्रकारिता,प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन, दिल्ली,पृष्ठ-222
3.      शुक्ला सुधाः महिला पत्रकारिता,प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन, दिल्ली,पृष्ठ-240
4.      जादवानी जयाः कौन हो तुम पतित पावन पूज्या? मीडिया विमर्श(त्रैमासिक)अक्टूबर-दिसंबर,2009 भोपाल, पृष्ठः19
5.      सिंह विजयबहादुरः एक युगांतर है मीडिया स्त्री के लिएः मीडिया विमर्श(त्रैमासिक)अक्टूबर-दिसंबर,2009 भोपाल, पृष्ठः14
6.      वही
7.      कुमार कमलः स्त्री की बहुतेरी छवियाः मीडिया विमर्श(त्रैमासिक)अक्टूबर-दिसंबर,2009 भोपाल, पृष्ठः10
8.      उज्जैन मीताः यहां स्त्री का चेहरा है, उसके सवाल नहीः मीडिया विमर्श(त्रैमासिक),अप्रैल-जून,2012,पृष्ठः90
9.      वही



लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं तथा मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं।

रविवार, 11 मई 2014

भोपाल में रहते हुए

-संजय द्विवेदी


    तमाम नौजवानों की तरह मैं भी अपनी नजर से दुनिया देखने के लिए ही भोपाल में 1994 में दाखिल हुआ। पहली बार किसी इतने खूबसूरत शहर से वास्ता पड़ा था। पहाड़ियों पर बसा और अपनी जमीं पर ढेर सा पानी समेटे यह शहर तब से दिल में बसा हुआ है। इस शहर में रहते हुए डिग्रियां बटोरीं, जमाने के लायक बनते हुए अखबारनवीस से प्राध्यापक भी बने। बड़े तालाब के किनारे तो कभी मनीषा झील के पानी को उलीचते हुए कितनी शामें बिताईं। कभी आंखों में देखा तो कभी पानी में छलकती आंखें देखीं। यहीं समझा कि आंखों के पानी के साथ झील में भी पानी जरूरी है। भोपाल तबसे और बड़ा और खूबसूरत हुआ है। आज भी यहां पटिए (पुराने भोपाल में बातचीत के अड्डे) आबाद हैं, काफी हाउस जिंदा हैं और मुहब्बतें भी पल रही हैं। रिश्ते और जुबान आज भी यहां की खासियत हैं। न्यू मार्केट में टाप इन टाउन पर सरगोशियां करते हुए कितनी शामें और सुबहें काटीं हैं। पर वे दिन अलग थे दोस्त फुरसत में थे। अब भोपाल भी भागने को तैयार है, उसे भी नई सदी ने नई चाल में ढाल दिया है। राजा भोज के इस शहर में मेरे जैसे न कितने गंगू अपने सपने लेकर आते हैं और सच भी करते हैं।अब यह शहर, सपनों की तरफ दौड़ लगता शहर बन रहा है। उम्मीदों का शहर बन रहा है। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की राजधानियां रश्क करती हैं ,काश वे भोपाल हो पातीं। कांक्रीट के जंगलों में भी हरियाली समेटने में अब तक यह शहर सफल रहा है। बुरी नजरें लगती हैं, पर कायम नहीं रह पातीं। वीआईपी रोड पर अब राजा भोज भी खड़े हैं, तालाब में एक बड़ी तलवार के साथ जैसे कह रहे हों इस शहर का रक्षक अब आ गया है। शहर की तासीर में एक अजीब सी खुशबू है। एक गंगा-जमुनी तहजीब यहां बिखरी दिखती है। जहां रिश्ते बहुत बनावटी नहीं हैं। व्यापार और जिंदगी भी साझेपन में चल रही है। पुराना भोपाल, बैरागढ़ और उसके बाजार कुछ अलग तरह से अपने ठहरे जीवन के साथ नए जमाने से ताल मिलाने की कोशिशों में हैं तो नई उग रही कालोनियां एक नया सामाजिक परिवेश और विमर्श रच रही हैं। जहां रिश्ते नए तरह से पारिभाषित हो रहे हैं।
  अपने खास अंदाज के बावजूद भोपाल महानगर बनने की यात्रा पर है। नए उगते मल्टीप्लेक्स, माल और मेगा शो-रूम अपनी नजाकत के साथ इस शहर में अपने होने को साबित करना चाहते हैं पर पुराने भोपाल के बाजार भी आबाद हैं। उनमें उतनी ही भीड़ हैं, मोल-भाव हैं, रिश्ते हैं और पहचान है। कोई शहर कैसे अपना कायान्तरण करता है भोपाल इसे बताता है। जब मैं इस शहर में आया, वह आज का भोपाल नहीं है। आज का भोपाल शहर चारों तरफ अपनी भुजाएं फैला रहा है वह अपने भूगोल में तमाम खेत-खलिहानों और गांवों को निगल चुका है। लाल बसों ने शहर की और सड़कों की रंगत बदल दी है पर पूरी तरह हिलता -बजती हुयी और आर्तनाद करती छोटी बसें भी सेवा में जुटी हैं। भोपाल ने राजा भोज की यादों से जुड़कर नवाबों का समय देखा है तो आजाद भारत के साढ़े छः दशक की यात्रा ने उसे बहुत जिम्मेदार और परिपक्व बनाया है।

  एक समय धीरे-धीरे सरकता शहर आज गति से दौड़ रहा है और खुद को महानगर बनाने और साबित करने की स्पर्धा में शामिल है। भोपाल को लेकर कई बिंब बनते हैं तो कई टूटते भी हैं। इस शहर ने खुद को कला, संस्कृति और साहित्य की राजधानी के तौर पर खुद को स्थापित करने के सचेतन जतन भी किए हैं। इसके चलते कलाओं, संस्कृति और यहां तक की आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करने के प्रयास भी यहां दिखते हैं। साहित्य और जनसरोकारों से जुड़े लोग भोपाल को आज भी एक जिंदा और उम्मीदों वाले शहर की तरह देखते हैं। यह वह शहर है जो बाजार की आंधी में भी अपनी खास पहचान के साथ खड़ा है। जहां कलाएं, साहित्य, थियेटर, गायन-वादन, आदिवासी संस्कृति और मनुष्यता के मूल्य बचे हुए हैं। यह शहर बाजार की हवाओं से टकराता हुआ भी अपने सांस्कृतिक वैभव और मूल्यबोध के साथ खड़ा है। नई कलाएं और नई अभिव्यक्तियां यहां स्वागत व स्वीकार्यता पाती हैं। यहां होना एक खूबसूरत शहर में होना भर नहीं है, यह अपने लिए एक ऐसा कोना तलाशने की जगह भी देता है जिसे शायद आप अपना कह सकें। संवेदनशील मनुष्यों के लिए भोपाल की फिजां में आज भी ज्यादा अपनापन और ज्यादा मानवीयता मौजूद है। इसे यहां होते हुए ही महसूस किया जा सकता है।

वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरे से बचे भारत


आतंकवाद का विस्तार अब नए रूपों में हो रहा है
-संजय द्विवेदी

      आतंकवाद को लेकर हमारी ढीली-ढाली शैली पर समय-समय पर टिप्पणियां होती रहती हैं। एक बड़े खतरे के रूप में इस संकट को स्वीकारने के बावजूद हम इसके खिलाफ कोई सार्थक रणनीति नहीं बना पाए हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद के खिलाफ हमारी शैली घुटनाटेक ही है और हमारा राज्य हमेशा हास्य का पात्र ही बनता है। सीमाओं के भीतर चल रहे आतंकवाद के विरूद्ध भी हम राज्य-केंद्र की लड़ाई से बाहर नहीं निकल पाते और समाधान की संयुक्त कोशिशों के बजाए दोषारोपण ही हमारे हिस्से आता है। जबकि ऐसे सवालों से सिर्फ अपेक्षित संवेदनशीलता से ही जूझा जा सकता है। हम देखें तो राष्ट्रीयता के प्रति सोच संदेह के दायरे में है। देश की एकता और सुरक्षा को लेकर लापरवाही हमारे चरित्र में है और हम बड़ी आसानी से अपने गणतंत्र और राष्ट्र की आलोचना का कोई अवसर नहीं छोड़ते। कर्तव्यबोध के बजाए हमारा अधिकारबोध अधिक जागृत है। देश के लिए दीवानापन और कर्तव्यनिष्ठा खोजे नहीं मिलती।
     ऐसे कठिन समय में जब मैदानी युद्ध कम लड़े जा रहे हैं, हमें खतरा अलग तरह के युद्धों से भी है। जिसमें एक बड़ा खतरा आज साइबर वारफेयर और वैचारिक युद्ध है। पूर्व में युद्ध का चरित्र अलग था, जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति से युद्ध करता था। सही मायने में तब यह शारीरिक बल पर निर्भर करता था कि कौन किससे जीतेगा। दूर से मारने वाले हथियार आए और पशुओं का शिकार प्रारंभ हुआ। आज का समय बदल गया है, इस दौर में सूचना एक तीक्ष्ण हथियार में बदल गयी है। आज सूचना एक शक्ति भी है और हथियार भी है। कालोनिजम आफ माइंड यानि यह दौर वैचारिक साम्राज्यवाद का है। जिसमें हथियारों की होड़ के साथ दिमागों पर भी कब्जा करने की जंग चल रही है। दिमागों पर कब्जा करने के लिए एक लंबी रणनीति चल रही है। यह भी एक लंबी कवायद है जो पश्चिमी देश करते रहे हैं। पूर्व में भी संचार माध्यमों पर कब्जे के नाते उनकी परोसी गयी सामग्री ही पूरी दुनिया के दिमागों पर आरोपित की जाती रही है। आज जबकि संचार माध्यमों की बहुलता है और मोबाइल जैसे यंत्र के अविष्कार ने हर व्यक्ति को मीडिया की पहुंच में ला दिया है तब यह संकट और गहरा हो गया है। इस युद्ध का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि यह बिना कोई खून बहाये जंग जीत या हार जाने जैसा है।
    सूचना और मीडिया की शक्तियां आज देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर वैश्विक हो चुकी हैं। अपने जैसा सोचने, खाने, पहनने और व्यवहार करने वाला समाज खड़ा करना ही शायद वैचारिक साम्राज्यवाद  का अंतिम लक्ष्य है। भारत में अंग्रेजी शासनकाल में इसकी जड़ें हम तलाश सकते हैं, जब तमाम हिंदुस्तानी हमें आजाद भारत में भी ऐसे मिले जो पूरी तरह अंग्रेज हो चुके थे। मुगलों और अन्य आक्रामणकारियों ने लूटपाट में धन-संपदा और मंदिरों को क्षति पहुंचाई पर वैचारिक तौर हम पर अपने चिन्ह जैसे अंग्रेजों ने छोड़े वैसा पूर्व के आक्रांता नहीं कर पाए। खानपान-परिवेश-शिक्षा-व्यवहार सबमें पश्चिमी परिवेश दिखने लगा और इसे ही प्रगतिशीलता माना जाने लगा। इसके प्रति समाज में भी प्रतिरोध अनुपस्थित था, क्योंकि वे एक ऐसा मानस तैयार कर चुके थे जो उनकी चीजों को स्वीकार करने के प्रति उदार था। गांधी चाहकर भी उस हिंदुस्तानी मन को नहीं जगा पाए जो राजनीतिक आजादी से आगे की बात करता और अपने पर गर्व करता। हिंदुस्तानी मनों को भी यह लगने लगा कि अंग्रेजियत का विरोध बेमानी है। आजादी के सातवें दशक में यह संकट और गहरा हुआ है। हम एक महाशक्ति होने के गुमाम से भरे होने के बावजूद वैचारिक युद्ध हार रहे हैं। इंटरनेट ने इसे संभव किया है। आप याद करें कि बंग्लादेश युद्ध के समय हमने मैदानी और वैचारिक दोनों युद्ध जीते थे किंतु वही लड़ाई हम नेपाल में हार रहे हैं। नेपाल में आज भारत विरोधी भावनाएं प्रखर दिखती हैं। क्योंकि यह वैचारिक साम्राज्यवाद का कुचक्र था जिसे हम तोड़ नहीं पाए। मीडिया में विदेशी निवेश को संभव बनाकर हमने अपने पैरों पर कुल्हाडी मार ली है। आज विदेशी पैसे के बल पर कौन किस इरादे से क्या दिखा और पढ़ा रहा है, इस पर हमारा नियंत्रण समाप्त सा है।
  द्वितीय विश्वयुद्ध की याद करें तो इसके उदाहरण साफ दिखेंगें कि किस तरह इंग्लैंड ने पूरे वातावरण को अपने पक्ष में किया था। चीजें इतनी तरह से और इतनी बार, इतने माध्यमों से आरोपित की जा रही हैं कि वे सच लगने लगी हैं। वे विवेक का अपहरण तो कर ही रही हैं साथ ही सोचने के लिए अपनी दिशा दे रही हैं। ईराक युद्ध के समय में भी हमने इसे संभव होते हुए देखा। कश्मीर से लेकर तमिलनाडु में इसे संभव होता हुआ देख रहे हैं। मीडिया के द्वारा, साहित्य के द्वारा और अपने वैचारिक प्रबंधकों के द्वारा जनता के मत परिवर्तन की कोशिशें चरम पर हैं। वे साइबर के माध्यम से भी हैं और परंपरागत माध्यमों के द्वारा भी। गोयाबल्स को याद करें और सोचें कि आज अकेले हिंदुस्तानियत  से लड़ने के लिए कितने गोयाबल्स रचे जा रहे हैं। अफवाहें सच्चाई में बदल रही हैं। झूठ को धारणा बनाने के सचेतन प्रयास हो रहे हैं। गणेश जी का दूध पीना एक ऐसी ही घटना थी। जिसका प्रयोग बताता है कि कैसे हम हिंदुस्तानी किसी भी सूचना के शिकार हो सकते हैं। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध भी कह सकते हैं। साथ ही चल रहे सूचना युद्ध की भी चर्चा और उसे लेकर सजगता जरूरी है। इस हा-हाकारी मीडिया समय में मीडिया ही हमें बता रहा है कि हमें आखिर कैसा होना है। हमारा होना, जीना और प्रतिक्रिया करने के विषय भी मीडिया तय कर रहा है। वैचारिक साम्राज्यवाद के ये अनेक रूप हमें लुभा रहे हैं, विवेकशून्य कर रहे हैं, जड़ों से उखाड़ रहे हैं, सोचने-मनन करने की प्रक्रिया को भंग कर हमारा अवकाश भी छीन रहे हैं। आप देखें तो इस सूचना साम्राज्यवाद से दुनिया कितनी घबराई हुयी है। 2002 में अलजजीरा से तंग आकर ही हुस्नी मुबारक (मिस्र) ने कहा था कि सारे फसाद की जड़ ईडियट बाक्स है। यही घटनाएं हम अपने आसपास घटती हुयी देख रहे हैं। ओसामा बिन लादेन के मरने से लेकर राष्ट्रपति ओबामा की प्रेस कांफ्रेस तक कुल दो घंटे और45 मिनट में हुए 2.79 करोड़ ट्विट बताते हैं कि चीजें कितनी बदल गयी हैं। कश्मीर में हुआ ई-प्रोटेस्ट भी इसका एक उदाहरण है। इसके साथ-साथ इंटरनेट माध्यमों के उपयोग से मनोविकारी, मनोरोगी और अवसादग्रस्त व्यक्ति कैसे अपराध कर रहे हैं बताने की आवश्यकता नहीं है। प्रतिदिन सोशल साइट्स के माध्यम से रची जा रही सूचनाएं कितनी बड़ा संसार बना रही हैं यह भी पूर्व में संभव कहां था। भारत जैसे बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक परिवेश वाले देश के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी है। सूचना का एक अलग गणतंत्र रचा जा रहा है। निजताएं अब सामूहिक वार्तालाप में बदल रही हैं। विचार की ताकत बड़ी हुयी है, इस अर्थ में एक वाक्य भी क्रांति का सूचक बन सकता है। ऐसे समय में भारत जैसे देश को इस वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरे को ठीक से समझने और व्याख्यायित करते हुए सही रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इसके सामाजिक प्रभावों और संकटों पर हमने आज बातचीत शुरू नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। इसके लिए हमें वैचारिक साम्राज्यवाद के खतरों को समझकर इससे लड़ने का मन बनाना होगा।