सोमवार, 16 मई 2016

विचार महाकुंभ से क्या हासिल?

संघ परिवार के सामने विचारों को जमीन पर उतारने की चुनौती
-संजय द्विवेदी


 उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ कुंभ का लाभ लेते हुए अगर मध्यप्रदेश सरकार ने जीवन से जुड़े तमाम मुद्दों पर संवाद करते हुए कुछ नया करना चाहा तो इसमें गलत क्या है? सिंहस्थ के पूर्व मध्य प्रदेश की सरकार ने अनेक गोष्ठियां आयोजित कीं और इसमें दुनिया भर के विद्वानों ने सहभागिता की। इन गोष्ठियों से निकले निष्कर्षों के आधार पर सिंहस्थ-2016 का सार्वभौम संदेश सरकार ने जारी किया है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने नवाचारों और सरोकारों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी मंशा थी कि कुंभ के अवसर पर होने वाली विचार विमर्शों की परंपरा को इस युग में भी पुनर्जीवित किया जाए। उनकी इस विचार शक्ति के तहत ही मध्यप्रदेश में लगभग दो साल चले विमर्शों की श्रृंखला का समापन उज्जैन के समीप निनोरा गांव में तीन दिवसीय अंतराष्ट्रीय विचार महाकुंभ के रूप में हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना सहित आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने भी शिरकत की।
  मूल्य आधारित जीवन, मानव कल्याण के लिए धर्म, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन, विज्ञान और अध्यात्म, महिला सशक्तिकरण, कृषि की ऋषि परम्परा, स्वच्छता और पवित्रता, कुटीर और ग्रामोद्योग जैसे विषयों पर विमर्शों ने इन संगोष्ठियों की उपादेयता न केवल बढ़ाई है, बल्कि यह आयोजन एक सरकारी कर्मकांड से आगे लोक-विमर्श के स्वरूप में बदल गया। किसी भी सरकार द्वारा किए जा रहे आयोजन पर यह आरोप लगाना बहुत आसान है कि यह एक सरकारी आयोजन है। आरोप यह भी लगे कि संघीकरण है। किंतु आप विषयों की विविधता और विद्वानों की उपस्थिति देखें तो लगेगा कि यह एक सरकार प्रेरित आयोजन जरूर था, किंतु इसमें जिस तरह से भारतीय भूमि को केन्द्र में रखकर लोकहितार्थ विमर्श हुआ, वह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। राजसत्ता को जनसरोकारों से जोड़ता है और विमर्श की भारतीय परम्परा को मजबूत करता है।
      विमर्श के 51 सूत्रों की पुस्तिका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जारी की। इन 51 मुद्दों सूत्रों पर नजर डालें तो यह सूत्र भारत से भारत का परिचय कराते हुए नजर आते हैं। पहली नजर में शायद आपको कुछ नया नजर न भी आए, क्योंकि जिस धारा को हम छोड़कर आए यह बिंदु आपकी उसी राह पर वापसी कराते हैं। सही मायने में भारतीय राज्य और राष्ट्र को अपनी नजर से देखना है, अपने घर लौटना है। यह घर वापसी विचारों की भी है, राजनीतिक संस्कृति की भी है। भारतीय परम्पराओं और सांस्कृतिक प्रवाह की भी है। इस भावधारा को लोगों तक ले जाना, उनके मन और जीवन में बसे भारत से उनका परिचय कराना,  राजनीति का काम भले न रहा हो किंतु राजसत्ता को इसे करना चाहिए। यहां जो निकष निकले वह चौंकाने वाले नहीं हैं। वे वही बातें हैं जिन्हें हमारे ऋषि, विद्वान, पीर-फकीर, बुद्धिजीवी कहते आ रहे हैं और आधुनिक समय में जिन बातों को महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया,दीनदयाल उपाध्याय, आचार्य नरेन्द्र देव, जेबी कृपलानी, डा.बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर, डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा। यह सिंहस्थ घोषणापत्र जब कहता है कि विकास का लक्ष्य सभी के सुख, स्वास्थ्य और कल्याण को सुनिश्चित करना है। जीवन में मूल्य के साथ जीवन के मूल्य का उतना ही सम्मान करना जरूरी है। इसी घोषणापत्र में कहा गया है कि धर्म यह सीख देता है कि जो स्वयं को अच्छा न लगे, वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। जियों और जीने दो का विचार हमारे सामाजिक व्यवहार का मार्गदर्शी सिद्धांत होना चाहिए। धर्म एक जोड़ने वाली शक्ति है अतः धर्म के नाम पर की जा रही सभी प्रकार की हिंसा का विरोध विश्व भर के समस्त धर्मों , पंथों, संप्रदायों और विश्वास पद्धतियों के प्रमुखों द्वारा किया जाना चाहिए।
   सिंहस्थ का घोषणा पत्र सिर्फ इस अर्थ में ही महत्वपूर्ण नहीं है कि वह केवल भारत और भारत के लोगों का विचार करता है बल्कि इसमें विश्व मानवता की चिंता है और समूची पृथ्वी पर सुख कैसे विस्तार पाए इसके सूत्र इसमें पिरोए गए हैं। यह पारिस्थितिकी की रक्षा की बात करता है, तो पौधों की चिंता भी करता है। नदियों की चिंता करता है, तो प्रकृति के साथ सहजीवन की बात भी कही गयी है। अनियोजित शहरीकरण, अंधाधुंध विकास, रासायनिक खेती, विज्ञापनों में स्त्री देह के वस्तु की तरह इस्तेमाल से लेकर नारी की प्रतिष्ठा और गरिमा की बात इसमें है। सिंहस्थ घोषणा पत्र गिरते भूजल स्तर, मिट्टी के क्षरण की चिंता करते हुए ऋषि खेती या जैविक खेती के पक्ष में खड़ा दिखता है। देशी गायों को बचाने और उनके संवर्धन की चिंता भी यहां की गई है। यह घोषणा पत्र एक वृहत्तर समाजवाद की पैरवी करते हुए कहता है-पूंजी का अधिकतम लोगों में अधिकतम प्रसार ही आर्थिक प्रजातंत्र है। कुटीर उद्योगों को आर्थिक और सामाजिक प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण अंश की तरह देखा जाना चाहिए। खेती के बारे में सिंहस्थ घोषणापत्र कहता है कि शून्य बजट खेती की अवधारणा को लोकप्रिय करने की जरूरत है ताकि न्यूनतम लागत से अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके।

     12 से 14 मई,2016 को निनौरा में आयोजित इस महाकुंभ की विशेषता यह है कि यह एक साथ अनेक विषयों पर बात करते हुए, हमारे समय के अनेक सवालों से टकराता है और उनके ठोस और वाजिब हल ढूंढने की कोशिश करता है। यह धर्म की छाया में मानवता के उदात्त विचारों के आधार पर विकास की अवधारणा पर बात करता है। यह आयोजन राजनीति और विकास के पश्चिमी प्रेरित अधिष्ठानों के खिलाफ खड़ा है। यह लंबे समय से चल रही विकास की परिपाटी को प्रश्नांकित करता है और भारतीय स्वावलंबन, ग्राम स्वराज की पैरवी करता है। यह आयोजन सही मायने में गांधी का पुर्नपाठ सरीखा है। जहां गांव, समाज, गाय, कृषि, स्त्री, विकास की दौड़ में पीछे छूटे लोगों,किसानों, बुनकरों, चर्मकारों इत्यादि सब पर विचार हुआ। यह साधारण नहीं था कि मंच से ही बाबा रामदेव ने कहा कि आज से वे मिलों के बने कपड़े नहीं पहनेंगे और हाथ से बुने कपड़े पहनेंगे। उन्होंने लोगों से भी कहा कि वे भी सूती कपड़े पहनें, मोची के हाथों से बने जूते पहनें। उन्होंने लोगों से ब्रांड के मोह से बचने की सलाह दी। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि लोग चाहें तो पतंजलि के बने दंतकांति के पेस्ट के बजाए दातून करें। जाहिर तौर यह आयोजन भारतीय मेधा के वैश्विक संकल्पों को तो व्यक्त करता ही था, वैश्विक चेतना से जुड़ा हुआ भी था। कई देशों से आए प्रतिनिधियों से लेकर निनौरा गांव वासियों के बीच आपसी विमर्श के तमाम अवसर नजर आए। निनोरा ग्राम वासियों के प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कार्यक्रम के एक दिन बाद जाकर आभार भी जताया और कहा कि एक माह के बाद उनके खेतों में फिर खेती हो सकेगी। इस पूरे आयोजन ने म.प्र. को एक नई तरीके से देखने और सोचने के अवसर दिया है। पिछले चार सालों से कृषि कर्मण अवार्ड जीत रहे म.प्र. ने खेती के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर अपना लोहा मनवाया है। अब उसके सामने एक नई तरह की चुनौती है। वह विकास की पश्चिमी भौतिकवादी अवधारणा से विलग कुछ करके दिखाए और भारतीय पारंपरिक मूल्यों के आधार पर कृषि और अन्य संरचनाएं खड़ी करे। विचारों को घरती पर उतारना एक कठिन काम है, शिवराज सिंह चौहान ने इस बहाने अपने लिए बहुत से नए लक्ष्य तय कर लिए हैं, देखना है  कि उनके ये प्रयोग पूरे देश को किस तरह आंदोलित और प्रभावित कर पाते हैं। इसके साथ ही संघ परिवार और उसके संगठनों के सामने सिंहस्थ के विचार महाकुंभ से उपजे विचारों को जमीन पर उतारने की चुनौती मौजूद है, वरना यह आयोजन भी इतिहास के निर्मम पृष्ठ पर एक मेले से ज्यादा अहमियत शायद ही रख पाए।

सोमवार, 9 मई 2016

वे क्यों चाहते हैं संघ मुक्त भारत?

-संजय द्विवेदी

     बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने संघमुक्त भारतका एक नया शिगूफा छोड़कर खुद को चर्चा के केन्द्र में ला दिया है। यह नारा देखने में तो भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारतजैसा ही लगता है। किन्तु द्वंद्व यह है कि संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है, जिससे आप वोटों के आधार पर उसकी बढ़ती या घटती साख का आकलन कर सकें।
     संघ एक ऐसा सांस्कृतिक संगठन है, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी शक्ति का लगातार विस्तार किया है। उसने न सिर्फ अपने जैसे अनेक संगठन खड़े किये बल्कि समाज जीवन के हर क्षेत्र में एक सकारात्मक और सार्थक हस्तक्षेप किया है। नित्य होने वाले सामाजिक, राजनीतिक, मीडिया विमर्शों से दूर रहकर संघ ने चुपचाप अपनी शक्ति का विस्तार किया है और लोगों के मनों में जगह बनाई है। शायद इसीलिये उसे और उसकी शक्ति को राजनीतिक आधार पर आंकना गलत होगा। बावजूद इसके सवाल यह उठता है कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दल भारतीय जनता पार्टी से मुक्त भारत बनाने के बजाय नीतीश कुमार क्यों संघ मुक्त भारत बनाना चाहते हैं। उनकी मैदानी जंग तो भाजपा से है पर वे संघ मुक्त भारत चाहते हैं। जाहिर तौर पर उनका निशाना उस विचारधारा पर है, जिसने 1925 में एक संकल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की और आज समाज जीवन के हर क्षेत्र में उसकी प्रभावी उपस्थिति है। भारत के भूगोल के साथ-साथ दुनिया भर में संघ विचार को चाहने और मानने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं। संघ के प्रचारकों के त्याग, आत्मीय कार्य शैली और परिवारों को जोड़कर एक नया समाज बनाने की ललक ने उन्हें तमाम तपस्वियों से ज्यादा आदर समाज में दिलाया है।
     अपने राष्ट्रप्रेम, कर्तव्य निष्ठा और परम्परागत राजनीतिक विचारों से अलग एक नई राजनीतिक संस्कृति को गढ़ने और स्थापित करने में भी संघ के स्वयंसेवकों ने सफलता पाई है। भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक सफलतायें और विचार कहीं न कहीं संघ की प्रेरणा से ही बल पाते हैं। राजनीति का पारम्परिक दृष्टिकोण धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और तमाम गढ़े गये विवादों से बल पाता है। किन्तु संघ की कार्यशैली में इन वादों और विवादों का कोई स्थान नहीं है। संघ ने पहले दिन से ही खुद को हिंदु समाज के संगठन का व्रतधारी सांस्कृतिक संगठन घोषित किया। किंतु उसने किसी पंथ से दुराव या संवाद बंद नहीं किया। संघ ने खुद का नाम भी इसीलिये शायद हिंदू स्वयं सेवक संघ के बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा, क्योंकि उसके हिंदुत्व की परिभाषा में वह हर भारतवासी आता है, जिसे अपनी मातृभूमि से प्रेम है और वह उसके लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना से भरा है। इस संघ को आज की राजनीति नहीं समझ सकती। जबकि आजादी के आंदोलन के दौर ने महात्मा गांधी, बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर इसे समझ गये थे। चीन युद्ध के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू भी इस बात को समझ गये थे कि संघ की राष्ट्रभक्ति संदेह से परे है। जबकि पंडित नेहरू के वामपंथी साथी उन दिनों चीन के चेयरमैन माओ की भक्ति में राष्ट्रदोह की सभी सीमायें लांघ चुके थे। इन संदर्भों से पता चलता है कि संघ को देश पर पड़ने वाले संकटों के वक्त ठीक से पहचाना जा सकता है। आज संघ का जो भौगोलिक और वैचारिक विस्तार हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ी बौद्धिक ताकतें या थिंक टैंक नहीं हैं, सिर्फ संघ के द्वारा भारत और उसके मन को समझकर किये गये कार्यों के नाते यह विस्तार मिला है। आज भी संघ एक बेहद प्रगतिशील संगठन है, जिसने नये जमाने के साथ खुद को ढाला और निरंतर बदला है। विचारधारा की यह निरंतरता कहीं से भी उसे एक जड़ संगठन में तब्दील नहीं होने देती। राष्ट्रहित में संघ ने जो कार्य किये हैं उनकी एक लम्बी सूची है। देश पर आये हर संकट पर राष्ट्रीय पक्ष में खड़े होना उसका एक स्वाभाविक विचार है। संघ ने इसी विचारधारा पर आधारित राजनीतिक संस्कृति को स्थापित करने के लिये अपने स्वयंसेवकों को प्रेरित किया। पडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी, अटलबिहारी वाजपेयी, विजयराजे सिंधिया, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, बलराज मधोक से लेकर नरेन्द्र मोदी तक अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनके स्मरण मात्र से राजनीति की एक नई धारा के उत्थान और विकास का पता चलता है। 1925 में प्रारंभ हुई संघ की विचार यात्रा और 1952 में भाजपा की स्थापना, भारतीय समाज जीवन में भारत के मन के अनुसार संस्कृति और राजनीति को स्थापित करने की दिशा में एक बड़ा कदम था। आज जबकि यह भाव यात्रा एक बड़े राजनीतिक बदलाव का कारण बन चुकी है, तो परंपरागत राजनीति के खिलाड़ी घबराये हुये हैं। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति करते आये समाजवादी हों या भारत की भूमि में कुछ भी अच्छा न देख पाने वाले तंग नजर वामपंथी सबकी नजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर टेढ़ी है। इसीलिये वे भाजपा को कम संघ को ज्यादा कोसते हैं। उन्हें लगता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ न हो तो भाजपा को अपने रंग में ढाला जा सकता है। भाजपा भी अन्य राजनीतिक दलों जैसा एक दल हो जाए, अगर उसके पीछे संघ की वैचारिक निष्ठा, चेतना और नैतिक दबाव न हो। जाहिर तौर पर इस वैचारिक युद्ध में संघ ही भाजपा के राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर है क्योंकि संघ जिस वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि की राजनीति देश में स्थापित करना चाहता है, परम्परागत राजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दल इसे समझ भी नहीं सकते। आज की राजनीति में जाति एक बड़ा हथियार है, संघ इसे स्वीकार नहीं करता। अल्पसंख्यकवाद और पांथिक राजनीति इस देश के राजनीतिक दलों का एक बड़ा एजेंडा है, संघ इसे देशतोड़क और समाज को कमजोर करने वाला मानता है। ऐसे अनेक विचार हैं जहां संघ विचार की टकराहट परंपरागत राजनीति के खिलाडि़यों से होती रही है। किंतु आप देखें तो भारत के मन और उसके समाज की गहरी समझ होने के कारण संघ ने अपने विचारों के प्रति हर आयु वर्ग के लोगों को आकर्षित किया है। उसके संगठन राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से बड़ी संख्या में महिलायें आगे बढ़कर काम कर रही हैं। किंतु उसके विरोधी दल, विरोधी विचारक आपको यही बतायेंगे कि संघ में महिलाओं की कोई जगह नहीं है। दलित और आदिवासी समाज के बीच अपने वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठनों के माध्यम से संघ ने जो मैदानी और जमीनी काम किया है उसका मुकाबला सिर्फ जबानी जमा खर्च से सामाजिक परिवर्तन कर दावा करने वाले दल क्या कर पायेंगे। संघ में सेवा एक संस्कार है, मुख्य कर्तव्य है। यहां सेवा कार्य का प्रचार नहीं, एक आत्मीय परिवार का सृजन महत्व का है। अनेक अवसरों पर कुछ फल और कम्बल बांटकर अखबारों में चित्र छपवाने वाली राजनीति इसको नहीं समझ सकती। ऐसे में संघ मुक्त भारत एक हवाई कल्पना है क्योंकि मुक्त उसे किया जा सकता है जो कुछ प्राप्ति के लिये निकला हो। जिन्हें सत्ता, पद और पैसे का मोह हो, उनसे मुक्ति पाई जा सकती है। किंतु जो सिर्फ समाज को प्यार, सेवा, शिक्षा और संस्कार देने के लिये निकले हैं उनसे आप मुक्ति कैसे पा सकते हैं। क्या सेवा, शिक्षा, संस्कार देने वाले लोग किसी भी समाज के लिये अप्रिय हो सकते हैं। भाजपा की राजनीतिक सफलताओं से संघ के विस्तार की समझ मांपने वाले भी अंधेरे मंे हैं। वरना केरल जैसे राज्य में जहां आज भी भाजपा बड़ी राजनीतिक सफलतायें नहीं पा सकी हैं वहां वामपंथी आक्रान्ता किन कारणों से स्वयंसेवकों की हत्यायें कर रहे हैं। निश्चय ही यदि केरल में संघ एक बड़ी शक्ति न होता तो वामपंथियों को खून बहाने की जरूरत नहीं होती।

     कुल मिलाकर नीतीश कुमार का संघ मुक्त भारत का सपना एक हवाई नारे के सिवा कुछ नहीं है। अपने राजनीतिक विरोधियों से राजनीतिक हथियारों से लड़ने के बजाय इस प्रकार की नारेबाजी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जिस संगठन को जय प्रकाश नारायण ने आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में हमेशा अपने साथ पाया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में वी.पी.सिंह से लेकर अन्ना हजारे तक ने उसकी शक्ति को महसूस किया। ऐसे राष्ट्रवादी संगठन के प्रति सिर्फ राजनीतिक दुर्भावना से बढ़कर ऐसे बयान थोड़े समय के लिये नीतीश कुमार को चर्चाओं में ला सकते हैं। किंतु इसके कोई बड़े अर्थ नहीं हैं, इसे खुद नीतीश कुमार भी जानते ही होंगे। 

मोदी सरकारः कितना इंतजार

                            -संजय द्विवेदी   
              
      सत्ता के शिखर पर दो साल पूरे करने के बाद अब शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथियों को भी अहसास हो गया होगा कि दिल्ली का सिंहासन किसी भी शासक के लिए अवसर से ज्यादा चुनौती ही होता है।
     देश में यथास्थितिवादी ताकतें इतनी सबल हैं, कि वे किसी भी परिवर्तन को न तो समर्थन दे सकती हैं न ही शांत होकर बैठ सकती हैं। इनकी पूरी ताकत किसी भी बदलाव को टालने और विफल बना देने में लगती है। इसमें सबसे अग्रणी है, हमारी नौकरशाही। भारतीय सेवा के अफसरों को राज करने का अभ्यास इतना लंबा है कि वे अस्थायी सरकारों ( राजनीतिक तंत्र) को विफल बनाने की अनेक जुगतें जानते हैं। बावजूद इसके इन दो सालों में नरेंद्र मोदी की सरकार अगर बदलाव और परिवर्तन के कुछ संकेत दे पा रही है, तो यह मानिए कि ये बहुत बड़ी बात है। खासकर मोदी सरकार के कुछ मंत्रियों नितिन गडकरी, श्रीमती सुषमा स्वराज, मनोहर पारिकर, सुरेश प्रभु, राजनाथ सिंह, पीयूष गोयल की गति तो सराही जा रही है। दिल्ली की सत्ता पर परिर्वतन के नारे के साथ आई मोदी सरकार की जिम्मेदारियां जाहिर तौर पर बहुत बड़ी हैं।
   समूचे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में परिर्वतन करने का वादा करके यह सरकार आयी है और देश की जनता ने पूर्ण बहुमत देकर इसे शक्ति भी दी है। लेकिन देखा जा रहा है कि परिर्वतनों की गति उतनी तेज नहीं है और लोगों में सरकार से निराशा आ रही है। खासकर आर्थिक क्षेत्र में सरकार उन्हीं समाजवादी और जनता पर कृपा करने वाली नीतियों की शिकार है जिसके चलते देश का कबाड़ा हुआ है। गरीबी को संरक्षित करने और गरीबों को गरीब बनाए रखनी वाली नीतियों के चलते देश का पिछले साठ सालों में यह हाल हुआ है। जिस तेजी से आर्थिक बदलाव के संकल्प प्रकट होने थे, वह होने से रहे। ईपीएफ और पीएफ पर नजरें गड़ाए वित्त मंत्रालय ने जरूर नौकरीपेशा लोगों को नाराज कर दिया है। फैसले लेना और रोलबैक करना सरकार के अस्थिर चित्त को ही दिखाता है। लोग बदलावों के इंतजार में हैं लेकिन बदलावों की गति से संतुष्ठ नहीं हैं। कोई भी सरकार अपने नायक के सपनों को ही साकार करती हुयी दिखनी चाहिए। लगता है कि मोदी सरकार दिल्ली आकर कई तरह के दबावों के चलते रास्ते से भटकती हुयी दिख रही है। संसद के अंदर- बाहर विकास विरोधी दबाव समूहों के नारों और प्रायोजित विमर्शों ने भी उनकी राह रोक रखी है। नरेंद्र मोदी जिस तेजी और त्वरा के साथ अपने सपनों को गुजरात में अंजाम दे पाए, दिल्ली में उन्हें उन्हीं चीजों के लिए सहमति बना पाना कठिन हो रहा है।
     दूसरा संकट यह है कि दिल्ली के बौद्धिक, राजनीति, सामाजिक और मीडिया तबकों के एक वर्ग ने आज भी मोदी को स्वीकार नहीं किया है। मोदी का दिल्ली प्रवेश आज भी इन तबकों के लिए एक अवैध उपस्थिति है। देश की जनता ने भले ही नरेंद्र मोदी को अपार बहुमत से संयुक्त करके दिल्ली भेजा है, किंतु अभारतीय सोच के बुद्धिजीवी वर्गों के लिए आज भी एक मोदी एक अस्वीकार्य नाम हैं। इस कारण से मीडिया के एक वर्ग में उनके हर काम का विरोध तो होता ही है, साथ ही एक खास छवि के साथ जोड़ने के प्रयास होते हैं। मोदी के खिलाफ षडयंत्र आज भी रूके नहीं हैं और प्रायोजित विचारों और खबरों का संसार उनके आसपास मंडराता रहता है। षडयंत्रों में उलझने और उनका जबाव देने में केंद्र सरकार और भाजपा संगठन की बहुत सारी शक्ति नष्ट हो रही है। पहले दिन से मोदी सरकार को प्रायोजित मुद्दों पर घेरने और बदनाम करने की कोशिशें जारी हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी और उनके साथियों को यह सोचना होगा कि नाहक मुद्दों में समय जाया कराने में सरकार के संकट कम नहीं होगें बल्कि बढ़ते जाएंगें। पांच साल का समय बहुत कम होता है, इसमें भी दो साल बीत चुके हैं।
   अनेक योजनाओं के माध्यम से सरकार ने एक सही शुरूआत की है, किंतु अब सारा जोर डिलेवरी पर देना होगा। जनता का भरोसा बचाए और बनाए रखना ही, मोदी सरकार और भाजपा संगठन के भविष्य के लिए उचित होगा। दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली पराजय से शायद मोदी और उनके सलाहकारों का आत्मविश्वास हिल गया है और लोकप्रियतावादी कदमों की ओर बढ़े हैं, किंतु हमें देखना होगा कि सरकारों को लाभ सिर्फ सुशासन और छवि के कारण के मिलता है। अन्यथा लोकप्रियतावादी कदमों की मनमोहन सरकार में क्या कमी थी। जनता को कई तरह के अधिकार दिलाने के बाद भी मनमोहन सरकार सत्ता से चली गयी। ऐसे में केंद्र सरकार के लिए यह सोचने का समय है कि वह बचे हुए समय का कैसा इस्तेमाल करती है। कैसे वह जनता के मनों वह भरोसा बनाए रखती है जिसके नाते वह सत्ता के शिखर पर पहुंची है। यह एक अलग बात है कि कांग्रेस एक कमजोर प्रतिपक्ष है, जिसके नाते भाजपा राहत में दिखती है। किंतु यह मानना होगा कि सिर्फ 45 सांसदों के साथ कांग्रेस ने जिस तरह का वातावरण बना रखा है और सरकार की गति लगभग संसदीय मामलों में रोक दी है, उस पर विचार करने की जरूरत है। दोनों सदनों में कांग्रेस ने जैसा रवैया अपना रखा है, उस व्यवहार में परिवर्तन की उम्मीद कम ही है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार को यह सोचना होगा कि कैसे वह संसद से लेकर सड़क तक कांग्रेस की घेरेबंदियों से निकलकर जनता के लिए राहत और बदलाव के अवसर उपलब्ध करा सके।

    कारण कुछ भी हों मोदी सरकार के प्रति एक साल पहले तक जो उत्साह था, वह आज कम होता दिखता है। यह बहुत स्वाभाविक भी है, किंतु नरेंद्र मोदी जैसे नेता जो निरंतर लोगों से संवाद करते हुए दिखते हैं के संदर्भ में इसे सामान्य नहीं माना जा सकता। देश के आर्थिक क्षेत्र में पसरी मंदी, पाकिस्तान के साथ संबंधों में कड़वाहट, रोजगार का इंतजार करते युवा, कश्मीर में उभर रही नई चुनौतियों के साथ अनेक विषय दिखते हैं जिससे मोदी सरकार को टकराना होगा। अपने समय की चुनौतियों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल निकालना किसी भी सरकार की जिम्मेदारी है। इतिहास ने नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है कि वे इस वृहत्तर भूगोल(भारत) के सामने खड़े संकटों और उसके समाधानों के लिए काम करें। मोदी और उनकी सरकार के दो साल पूरे होने पर उनकी नीति-नीयत और संकल्पों पर संदेह न करते हुए भी यह कहना होगा कि कामों की गति तेज करनी होगी, विपक्षी षडयंत्रों  से बचते हुए सही अपने मार्ग की पहचान करते हुए, मध्यवर्ग को चिढाने वाले फैसलों से बचना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि जनता के बीच नरेंद्र मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं और उनसे लोगों की आज भी भारी उम्मीदें हैं, देखना है कि वे आशाओं को पूरा करने के लिए क्या जतन करते हैं।

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

शराबबंदीः सवाल, नीयत और नैतिकता का

जिसके पक्ष में एक भी तर्क नहीं, उसे भी बंद करते हुए क्यों कांप रहे हैं हाथ
-संजय द्विवेदी


  शराबबंदी इस तरह राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बन जाएगी किसने सोचा था। भ्रष्टाचार के बाद शायद अगला राजनीतिक विमर्श, शराब पर ही होना है। बिहार के मुख्यमंत्री के इस साहसिक निर्णय ने कई नेताओं को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि शराब के सहारे ही चुनाव जीतने वाली राजनीति अब किस मुंह से शराबबंदी की बात करेगी। शराब से मिलने वाला राजस्व जहां राज्य का एक बड़ा सहारा है, वहीं शराब माफिया से मिलने वाला चंदा राजनीति के लिए प्राणवायु। इसके साथ ही चुनावों में बहने और बंटने वाली शराब तो है ही जीवनी शक्ति। ऐसे में राजनीति अचानक शराबबंदी के सवाल पर गंभीर हो जाए, तो सोचने की बात है। सुना है तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी अपनी सरकार की वापसी पर शराबबंदी का वायदा कर रही हैं। जाहिर तौर पर शराब आने वाले चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बन रही है।
   भारतीय समाज में शराब की वजह से कई तरह के संकट खड़े हो रहे हैं। खासकर गरीब परिवारों में तो शराब ने हालात बहुत खराब कर दिए हैं। अपने खून-पसीने की कमाई शराब में बहाकर तमाम परिवारों के पुरूष, महिलाओं पर अत्याचार करने से भी बाज नहीं आते हैं। यह कितना गजब है कि एक तरफ हमारी सरकारें शराब बेचने पर आमादा हैं तो वहीं दूसरी तरफ यही सरकारें शराब के विरूद्ध जन-जागरण भी करती हैं। यह सरकारों का द्वंद समझ से परे है कि एक तरफ तो आबकारी विभाग भी चलाती हैं तो दूसरी ओर मद्यनिषेध विभाग भी चलाती हैं। ऐसे ढोंग हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बिखरे पड़े हैं। इससे पता चलता है कि हम कितने ढोंगी और नकली समाज के हैं। सच तो यह है कि शराब के पक्ष में एक भी तर्क नहीं है। किंतु वह बिक रही है और सरकारें हर दरवाजे पर शराब की पहुंच के लिए जतन कर रही हैं। शराब का बिकना और मिलना इतना आसान हो गया है कि वह पानी से ज्यादा सस्ती हो गयी है। पानी लाने के लिए यह समाज आज भी कई स्थानों पर मीलों का सफर कर रहा है किंतु शराब तो घर पहुंच सेवा के रूप में ही स्थापित हो चुकी है।
  सवाल यह उठता है कि क्या शराब के बिना हमारा जीवन नहीं चलेगा? या शराब के बिना हमारी सरकार नहीं चलेगी। आप देखें तो शराब के राजस्व के बिना भी गुजरात चल रहा है और शान से चल रहा है। बिहार जैसे पिछड़े राज्य ने भी यह हिम्मत जुटा ली है, तो क्या कारण है कि अन्य राज्य इस बात से हिचक रहे हैं? जाहिर तौर पर शराब माफिया की जकड़ और पकड़ हमारे तंत्र पर ऐसी है कि हम शराब मुक्त राजनीति की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सरकारें शराब बेचने और उसका बाजार बढ़ाने के लिए आतुर हैं। देखते ही देखते शराब की दुकानें हर कस्बे, हर गांव तक पहुंच गयीं तो इसके पीछे सरकारी नीतियों की ओर ही देखना होगा। क्यों हमारी सरकारें शराब को इतना सुलभ बना देना चाहती हैं? पूर्ण शराबबंदी न सही किंतु उसकी उपलब्धता तो नीतियों को कठोर बनाकर कम की जा सकती है। बढ़ते अपराधों, बिखरते परिवारों, स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न, परिवारों की बिगड़ती आर्थिक दशा की सामूहिक और चौतरफा शिकायतों के बाद भी शराब का मोह हमारे राजनीतिक परिसर को जकड़े हुए है। निश्चय ही ऐसे फैसले बड़े कलेजे और राजनीतिक संकल्पों से ही लिए जा सकते हैं। नीतिश कुमार ने जो किया वह साधारण नहीं है। लेकिन साथ में उनकी जिम्मेदारी यह भी है कि यह एक मजाक बनकर न रह जाए। नकली शराब का कुटीर उद्योग न पनपे और शराब की तस्करी का खेल न शुरू हो। ऐसे में बिहार के पुलिस तंत्र और प्रशासनिक तंत्र की नैतिकता और समझदारी कसौटी पर है।
   शराब के चलते कितने परिवार उजड़े हैं और मुसीबतजदा हैं, इसे देखने के लिए सरकार के पास तमाम सरकारी और गैरसरकारी आंकड़े उपलब्ध हैं। राज्य की सरकारों को इस ओर देखना चाहिए और खासकर गरीब महिलाओं और उनके परिवारों पर रहम खाना चाहिए। शराब के दुष्प्रभावों के व्यापक आकलन के बाद भी हम अगर इस बीमारी को पाल रहे हैं तो निश्चित ही समाज की ओर से इसके विरूद्ध एक जनांदोलन की जरूरत है। बिहार की महिलाएं इस अर्थ में बहुत ताकतवर है कि उन्होंने अपने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को ऐसा करने के लिए शक्ति दी। यह शक्ति अगर विस्तार पाती है और एक आंदोलन का रूप लेती है तो शराबबंदी का सवाल एक अभियान में बदल सकता है। जो काम गुजरात और बिहार में हो सकता है जिसके लिए तमिलनाडु की राजनीति में वादा किया जा रहा है, वह काम देश के अन्य राज्यों में भी हो सकता है। बस जरूरत है कि हम राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर दबाव  बनाएं और उन्हें इस बात के लिए मजबूर करें कि वे शराब और उसके काले पैसे का मोह छोड़ पाएं। शराब की कमाई से चलते हुए राज्य वैसे भी लोककल्याणकारी राज्य नहीं हो सकते क्योंकि शराबजनित जो सामाजिक संकट और समस्याएं वह राज्य के सकल राजस्व पर भारी हैं। राजनीतिक दलों को भी शराब के सवाल पर अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए। क्या वे यह चाहते हैं कि शराब की दुकानों का, ठेकों का इस कदर विस्तार हो कि वह हर व्यक्ति की पहुंच में हो? एक तरफ शराब की अंधाधुंध दूकानें खोलना और दूसरी तरफ शराब पर नियंत्रण करने और मद्य-निषेध जैसे अभियानों को चलाकर सरकार अपने धन का अपव्यय नहीं कर रही है? शराब से मिलने वाले राजस्व के क्या अन्य विकल्प नहीं खोजे जा सकते? क्या शराब माफिया के बिना चुनाव लड़ना बहुत कठिन हो जाएगा? क्या हमारी राजनीति यह संकल्प लेने का साहस पालेगी वह बिना शराब बांटे भी चुनावी मैदान में सफलता प्राप्त कर सकती है? क्या शराब के राजस्व की लालच में शराब जनित संकटों के कारण पैदा हो रहे रोगों, बीमारियों, पारिवारिक संकटों को हम नजरंदाज करते रहेगें? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिसका जवाब हमारे राजनेताओं, राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों से पूछे जाने चाहिए। हमारी राजनीति से यह भी पूछा जाना चाहिए कि शराब के पैसे से लड़े जा रहे चुनाव कितने लोकतांत्रिक हैं?  जबकि यह गारंटी भी नहीं रही कि शराब पीकर मतदाता आपके ही पक्ष में मतदान करेगा?

    ऐसे कठिन समय में समाज को नजरंदाज कर की जा रही राजनीति उचित नहीं कही जा सकती। देर-सबेर हमें अपने समाज के संकटों से मुठभेड़ करनी ही होगी। भारत जैसे युवा देश की नई पीढ़ी को नशे, ड्रग्स और शराब से मुक्त कराना हम सबकी जिम्मेदारी है। शराब के खिलाफ नहीं, हर नशे के खिलाफ जनचेतना ही इसका विकल्प है। एक सुंदर समाज जिसकी सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, उसे नशे के अभिशाप से बचाना ही होगा। नीतिश कुमार ने हिम्मत दिखाई है, अन्य भी हिम्मत दिखाएं- ज्यादातर समाज इन सुखद संकल्पों के साथ खड़ा होगा, खड़ा रहेगा।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

ग्रामोदय से भारत उदयः कितना संकल्प, कितनी राजनीति

-संजय द्विवेदी

  क्या नरेंद्र मोदी ने भारत के विकास महामार्ग को पहचान लिया है या वे उन्हीं राजनीतिक नारों में उलझ रहे हैं, जिनमें भारत की राजनीति अरसे से उलझी हुयी है। गांव, गरीब, किसान इस देश के राजनीतिक विमर्श का मुख्य एजेंडा रहे हैं। इन समूहों को राहत देने के प्रयासों से सात दशकों का राजनीतिक इतिहास भरा पड़ा है। कर्ज माफी से लेकर अनेक उपाय किए गए, किंतु हालात यह हैं कि किसानों की आत्महत्याएं एक कड़वे सच की तरह सामने हैं। नीतियों की असफलता और बीमारी की पहचान करने में हमारी विफलता, यहां साफ दिखती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार का नया अभियान ग्रामोदय से भारत उदय किन अर्थों में अलग है और उसकी संभावनाएं कितनी उजली हैं, इस पर विचार होना ही चाहिए।
   एक तो शब्द चयन में सरकार का साहस साफ झलकता है। आपको याद होगा वह भारत उदय शब्द ही था, जिसको भारतीय समाज ने स्वीकार नहीं किया और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार केंद्र से विदा हो गयी। इस अर्थ में मोदी भारत उदय का पुर्नपाठ कर रहे हैं और उसे ग्रामोदय की नई पैकेजिंग के साथ पेश कर रहे हैं। यह साहसिक ही है और अपने अतीत से निरंतरता बनाने की कोशिश भी है। इस नवीन अभियान की पैकेजिंग. टाइमिंग और प्रस्तुति सब कुछ प्रथम दृष्टया बहुत मनोहारी है। यह साधारण नहीं है कि 14 अप्रैल को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती से इसकी शुरूआत होती है और इसे एक सप्ताह चलना है। इसके लिए प्रधानमंत्री  उनकी जन्मभूमि महू जाते हैं, यह संयोग ही है कि मप्र में भाजपा की सरकार है और यहां का आयोजन एक बड़े आयोजन में बदल जाता है। आयोजन का संदेश इतना गहरा की मायावती से लेकर मोदी के सभी राजनीतिक विरोधियों का ध्यान इस आयोजन ने खींचा। बाबा साहेब के राजनीतिक उत्तराधिकार की एक जंग भी यहां दिखी, जहां कांग्रेस पर काफी हमले भी हुए। बाबा साहेब की स्मृति से जुड़े पांच स्थलों को पंच तीर्थ की संज्ञा देकर मोदी ने कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस आयोजन में पूरा भाषण भी कांग्रेस द्वारा बाबा साहेब से जुड़े स्थानों की उपेक्षा पर केंद्रित था। इस आयोजन का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व ही नहीं है बल्कि इसके गहरे राजनीतिक अर्थ भी हैं।
   इस अभियान के तहत सरकार ने गांवों के लिए पिटारा खोलने जैसे छवि प्रक्षेपित की है। केंद्रीय बजट में भी लगभग यही ध्वनि देने की कोशिश हो चुकी है। 14 अप्रैल को महू में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सामाजिक समरसता कार्यक्रम हो या पांचवीं अनूसूची के क्षेत्रों की आदिवासी महिला ग्राम पंचायत सरपंचों का राष्ट्रीय सम्मेलन(19 अप्रैल,2016 –विजयवाड़ा) हो या पंचायत प्रतिनिधियों का सम्मेलन (24 अप्रैल,2016 जमशेदपुर) हो- ये आयोजन और इनकी रचना साफ बताती है कि मामला सिर्फ ग्रामोदय का नहीं उससे बड़ा है। इसमें समरसता, सामाजिक न्याय, दलित और आदिवासी समुदायों की भागीदारी महत्व की है। सरकार की एजेंडा साफ दिखता है कि उसने ग्रामीण भारत और उपेक्षित भारत को अपने लक्ष्य में लिया है। इसीलिए देश की 2.5 लाख ग्राम पंचायतों को 14 वें वित्त आयोग की अनुशंसा के अनुसार 2,00,292 करोड़ रूपए, 5 वर्षों के लिए अनुदान के रूप दिए गए हैं। ग्राम पंचायतें इस राशि के साथ-साथ अन्य राशि जैसे मनरेगा का अनुदान मिलाकर ग्राम पंचायत विकास योजना बनाएंगीं जिसमें गांव के सभी व्यक्ति जैसे महिलाएं , वृद्ध और दिव्यांग भाग लेगें। सरकार के तीन मंत्रालयों पंचायती राज मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय और पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के प्रयासों से ये काम जमीन पर उतरने हैं। इसी क्रम में पंचायत स्तर के कार्यक्रम भी तय हो चुके हैं जिनमें सामाजिक समरसता कार्यक्रम 14 से 16 अप्रैल, ग्राम किसान सभा 17 से 20 अप्रैल तथा प्रधानमंत्री का सभी ग्राम सभाओं को संबोधन 24 अप्रैल को होना है। यह रचना बताती है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस अभियान को एक आंदोलन की तरह लिया है।

  इस अभियान के प्रशासनिक संकल्प और इसके ईमानदार क्रियान्वयन पर ही इसकी सफलता टिकी है। वरना तमाम अभियानों की तरह इसका भी कुछ परिणाम नहीं आएगा। प्रधानमंत्री मोदी इस पूरे आयोजन में स्वयं जिस तरह रूचि का प्रदर्शन कर रहे हैं और सरकारी तंत्र को इसके प्रचार-प्रसार में झोंक रखा है उससे इस सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है। नरेंद्र मोदी बहुत साफ जानते हैं एक खास परिस्थितियों में उनकी पार्टी को बहुमत मिला है और उनसे अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। इस समर्थन को स्थायी बनाने का तंत्र वे अभी भी विकसित नहीं कर सके हैं। राज्यों की स्थानीय राजनीतिक जरूरतों का तोड़ अभी भी उनकी पार्टी के पास नहीं है। साथ ही भाजपा के सीमित भौगोलिक और सामाजिक आधार को बढ़ाने की चुनौती सामने है। केंद्रीय सत्ता में होने के बाद भी आज भी एक बड़े भारत में भाजपा अनुपस्थित है। इसलिए सामाजिक न्याय और ग्रामीण-कृषि विकास के दोनों मंत्रों को साथ-साथ साधा जा रहा है। आज भी भारतीय राजनीतिक में कांग्रेस की सिकुड़न के बावजूद क्षेत्रीय दलों की चुनौती प्रखर है। भाजपा दक्षिण और पूर्वोत्तर में अपनी प्रभावी उपस्थिति के लिए बेचैन है तो लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलताओं के बाद भी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपने बेहतर प्रदर्शन के प्रति आश्वस्त नहीं है। जाहिर तौर पर लोकसभा चुनावों में मिले परिणामों ने जहां भाजपा के मनोबल को बहुत बढ़ा दिया था, वहीं दिल्ली और बिहार के परिणामों ने बता दिया कि भाजपा को जमीनी राजनीति में अभी बहुत कुछ करना शेष है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इस अभियान में जुटे हैं। असम, बंगाल जैसे कठिन परीक्षाएं भाजपा के सामने हैं। यह बातें बताती हैं कि भाजपा ने आरंभ में जिस चमक-दमक के साथ अपनी केंद्र सरकार की शुरूआत की आज उसके तेवर बदल गए हैं। मोदी खुद कहने लगे हैं कि कुछ शहरों की चमक-दमक और विकास से कुछ नहीं होगा। हमें अपने गांवों का विकास करना होगा। भूमि अधिग्रहण बिल से अपनी छवि को लगे झटके से उबरने में भाजपा को समय लगा किंतु नए केंद्रीय बजट में ग्रामीण क्षेत्रों को एक नया संदेश देने में वह सफल रही है। इस नए रूप में मोदी सरकार अब सामाजिक समरसता, ग्रामीण-कृषि विकास, हर गांव तक बिजली, हर व्यक्ति को 2022 तक मकान जैसे नारों के साथ मैदान में उतरी है। इससे भाजपा अपनी शहरी विकास और कारपोरेट समर्थक छवि को बदलना चाहती है। इस बहाने वह अपने सामाजिक और भौगोलिक आधार को विस्तृत भी करना चाहती है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को कारपोरेट समर्थक बताने और रेखांकित करने के प्रयास भी जारी हैं किंतु मोदी की भाषण कला के सामने उनके विरोधी फीके पड़ जाते हैं। कृषि और ग्रामीण विकास के सवालों पर वे जिस तरह संवाद कर रहे हैं, वह अप्रतिम है। इससे जमीनी जीवन के उनके अनुभव भी झांकते हैं और विकास के सपने भी। नरेंद्र मोदी की सरकार ने यह अभियान जिन भी कारणों से प्रारंभ किया हो, इसके शुभ फल देश को मिले तो किसानों की आत्महत्या के कलंक से इस राष्ट्र को मुक्ति मिलेगी। जिस देश में अन्नदाता आत्महत्या करने को विवश हो, उस क्षण में हमारी सरकार अगर खेती और ग्रामीण विकास को अपना मुख्य एजेंडा बनाकर कुछ सपने पाल रही है तो हमें उसके सपनों को सच करने के लिए योगदान देना ही चाहिए। सरकार और उसके तंत्र को भी चाहिए कि वह अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ इन योजनाओं का क्रियान्वयन करे तथा इसे भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ने दे। ताकि हम अपने ग्रामीण भारत से भी अच्छी खबरों का इंतजार कर सकें।

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

कुछ बातें ‘भारत माता की जय’ न बोलने वालों से !

-संजय द्विवेदी

  देश की आजादी के सात दशक बाद वंदेमातरम् गाएं या न गाएं, भारत माता की जय बोलें या न बोलें इस पर छिड़ी बहस ने हमारे राजनीतिक विमर्श की नैतिकता और समझदारी दोनों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आजादी के दीवानों ने जिन नारों को लगाते हुए अपना सर्वस्व निछावर किया, आज वही नारे हमारे सामने सवाल की तरह खड़े हैं। देश की आजादी के इतने वर्षों बाद छिड़ी यह निरर्थक बहस कई तरह के प्रश्न खड़े करती है। यह बात बताती है राजनीति का स्तर इन सालों में कितना गिरा है और उसे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान से समझौता करने में भी गुरेज नहीं है। लोकतंत्र इस मामले में हमें इतना दयनीय बना देगा, यह सोचकर दुख होता है।
    जिन नारों ने हमारी आजादी के समूचे आंदोलन को एक दिशा दी, ओज और तेज दिया, वे आज हमें चुभने लगे हैं। वोट की राजनीति के लिए समझौतों और समर्पण की यह कथा विचलित करने वाली है। यह बताती है कि एक राष्ट्र के रूप में हमारी पहचानें, अभी भी विवाद का विषय हैं। इन सालों में हमने भारतीयता के उदात्त भावों का तिरस्कार किया और उस भाव को जगाने में विफल रहे, जिनसे कोई देश बनता है। विदेशी विचारों और देश विरोधी सोच ने हमारे पाठ्यक्रमों से लेकर हमारे सार्वजनिक जीवन में भी जगह बना ली है। इसके चलते हमारा राष्ट्रीय मन आहत और पददलित होता रहा और राष्ट्रीय स्वाभिमान हाशिए लगा दिया गया। भारत और उसकी हर चीज से नफरत का पाठ कुछ विचारधाराएं पढ़ाती रहीं। भारत के विश्वविद्यालयों से लेकर भारत के बौद्धिक तबकों में उनकी धुसपैठ ने भारत की ज्ञान परंपरा को पोगापंथ और दकियानूसी कहकर खारिज किया। विदेशी विचारों की जूठन उठाते- उठाते हमारी पूरी उच्चशिक्षा भारत विरोधी बन गयी। अपने आत्मदैन्य के बोझ से लदी पीढी तैयार होती रही और देश इसे देखता रहा।
    सत्ता में रहे जनों को सिर्फ सत्ता से मतलब था, शिक्षा परिसरों में क्या हो रहा है- इसे देखने की फुरसत किसे थी। राजनीति यहां सत्ता प्राप्ति का उपक्रम बनकर रह गयी और किसी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवर्तन से उसने हाथ जोड़ लिए। कुछ अर्धशिक्षित और वामविचारी चिंतकों ने भारत को छोड़कर सब कुछ जानने-जनाने की कसम खा रखी थी। वे ही शिक्षा मंदिरों में बैठकर सारा कुछ लाल-पीला कर रहे थे। एक स्वाभिमानी भारत को आत्मदैन्य से युक्त करने में इन वाम विचारकों ने एक बड़ी भूमिका निभाई। युवा शक्ति अपनी जड़ों से कटे और भारत का भारत से परिचय न हो सके, इनकी पूरी कोशिश यही थी और इसमें वे सफल भी रहे।दरअसल यही वह समय था, जिसके चलते हमारी भारतीयता, राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावनाएं सूखती गयीं। जो वर्ग जितना पढ़ा लिखा था वह भारत से, उसकी माटी की महक से उतना ही दूर होता गया। देश की समस्याओं की पहचान कर उनका निदान ढूंढने के बजाय, सामाजिक टकराव के बहाने खोजे और स्थापित किए जाने लगे। समाज में विखंडन की राजनीति को स्थापित करना और भारत को खंड-खंड करके देखना, इस बुद्धिजीवी परिवार का सपना था। भारत के लोग और उनके स्वप्नों के बजाए विखंडन ही इनका स्वप्न था।
  दुनिया में कौन सा देश है जो कुछेक समस्याओं से घिरा नहीं है। किंतु क्या वो अपनी माटी और भूमि के विरूद्ध ही विचार करने लगता है। नहीं, वह अपनी जमीन पर आस्था रखते हुए अपने समय के सवालों का हल तलाशते हैं। किंतु यह विचारधारा, समस्याओं का हल तलाशने के लिए नहीं, सवाल खड़े करने और विवाद प्रायोजित करने में लगी रही। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही कांग्रेस जैसी पार्टी ने भी अपने सारे पुण्यकर्मों पर पानी फेरते हुए इसी विचार को संरक्षण दिया। जबकि इन्होंने चीन युद्ध में पं.नेहरू के साथ खड़े होने के बजाए माओ के साथ खड़े होना स्वीकार किया। जिनकी नजर में महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस सब लांछित किए जाने योग्य थे- ये लोग ही भारत के वैचारिक अधिष्ठान के नियंता बन गए। ऐसे में देश का वही होना था जो हो रहा है। यह तो भला हो देश की जनता का जो ज्यादा संख्या में आज भी बौद्धिक क्षेत्र में चलने वाले विमर्शों से दूर अपने श्रम फल से इस देश को गौरवान्वित कर रही है। भला हो इस विशाल देश का कि आज भी बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज तक वामपंथियों का वैचारिक जहर नहीं फैल सका और वे कुछ बौद्धिक संस्थाओं तक सीमित रह गए हैं। वरना देश को टुकड़े करने का, इनका स्वप्न और जोर से हिलोरें मारता।   
  आजादी के शहीदों, हमारे वर्तमान सैनिकों के साहस, पुरूषार्थ और साहस को चुनौती देते ये देशतोड़क आज भी अपने मंसूबों को कामयाब होने का स्वप्न देखते हैं। जंगलों में माओवादियों, कश्मीर में आजादी के तलबगारों, पंजाब में खालिस्तान का स्वप्न देखने वालों और पूर्वोत्तर के तमाम अतिवादी आंदोलनों की आपसी संगति समझना कठिन नहीं है। भारत में पांथिक, जातिवादी, क्षेत्रीय आकांक्षाओं के उभार के हर अभियान के पीछे छिपी ताकतों को आज पहचानना जरूरी है। क्योंकि इन सबके तार देश विरोधी शक्तियों से जुड़े हुए हैं। देश को कमजोर करने, लोकतंत्र से नागरिकों की आस्था उठाने और उन्हें हिंसक अभियानों की तरफ झोंकने की कोशिशें लगातार जारी है। हालात यह हैं कि हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर भी एक सुर से बात नहीं कर पा रहे हैं। क्या इस देश के और तमाम राजनीतिक दलों के हित अलग-अलग हैं? क्या राज्यों के हित और देश के हित अलग-अलग हैं? क्या इस देश के बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, वनवासी-गिरिवासी-आदिवासियों के हित अलग-अलग हैं? जाहिर तौर पर नहीं। सबकी समस्याएं, इस देश की चिताएं हैं। सबका पिछड़ापन, इस देश का पिछड़ापन है। जाहिर तौर पर अपनी समस्याओं का हल हमें मिलकर ही तलाशना है। जैसे हमने साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी, वैसी ही लड़ाई गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा के खिलाफ करनी होगी। किंतु हर लड़ाई का अलग-अलग मोर्चा खोलकर, हम समाज की सामूहिक शक्ति को कमजोर कर रहे हैं। इस देश और उसकी माटी को लांछित कर रहे हैं। राष्ट्रीयता का यह बोध आज इस स्तर तक जा पहुंचा है कि हमें आज यह बहस करनी पड़ रही है कि भारत मां की जय बोलें या ना बोलें। संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठे एक सांसद कह रहे हैं कि भारत की मां की जय नहीं बोलूंगा, क्या कर लेगें। निश्चित ही आप भारत मां की जय न बोलें, पर ऐसा कहने की जरूरत क्या है। यह कहकर आप किसे खुश कर रहे हैं?

       जाहिर तौर पर स्थितियां बहुत त्रासद हैं। देश की अस्मिता और उसके सवालों को इस तरह सड़क पर लांछित होते देखना भी दुखद है। लोकतंत्र में होने का यह मतलब नहीं कि आप मनमानी करें, किंतु ऐसा हो रहा है और हम सब भारत के लोग इसे देखने के लिए विवश हैं। ऐसी गलीज और निरर्थक बहसों से दूर हमें अपने समय के सवालों, समस्याओं के समाधान खोजने में अपनी ताकत लगानी चाहिए। इसी से इस देश और उसके लोगों का सुखद भविष्य तय होगा।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है नया भारत

वैश्विक नेतृत्व की भूमिका के लिए तैयार है देश
-संजय द्विवेदी


      देश में परिवर्तन की एक लहर चली है। सही मायनों में भारत जाग रहा है और नए रास्तों की तरफ देख रहा है। यह लहर परिर्वतन के साथ संसाधनों के विकास की भी लहर है। जो नई सोच पैदा हो रही है वह आर्थिक संपन्नता, कमजोरों की आय बढ़ाने, गरीबी हटाओ और अंत्योदय जैसे नारों से आगे संपूर्ण मानवता को सुखी करने का विचार करने लगी है। भारत एक नेतृत्वकारी भूमिका के लिए आतुर है और उसका लक्ष्य विश्व मानवता को सुखी करना है।
   नए चमकीले अर्थशास्त्र और भूमंडलीकरण ने विकार ग्रस्त व्यवस्थाएं रची हैं। जिसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई बनी है और निरंतर बढ़ती जा रही है। अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब हो रहा है। शिक्षा,स्वास्थ्य और सूचना और सभी संसाधनों पर ताकतवरों या समर्थ लोगों का कब्जा है। पूरी दुनिया के साथ तालमेल बढ़ाने और खुले बाजारीकरण से भारत की स्थिति और कमजोर हुयी है। उत्पादन के बजाए आउटसोर्सिंग बढ़ रही है। इससे अमरीका पूरी दुनिया का आदर्श बन गया है। मनुष्यता विकार ग्रस्त हो रही है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भोग और अपराधीकरण का विचार प्रमुखता पा रहा है। कानून सुविधा के मुताबिक व्याख्यायित किए जा रहे हैं। साधनों की बहुलता के बीच भी दुख बढ़ रहा है, असंतोष बढ़ रहा है।
   ऐसे समय में भारत के पास इन संकटों के निपटने के बौद्धिक संसाधन मौजूद हैं। भारत के पास विचारों की कमी नहीं है किंतु हमारे पास ठहरकर देखने का वक्त नहीं है। आधुनिक समय में भी महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, जे.कृष्णमूर्ति, महात्मा गांधी जैसे नायक हमारे पास हैं, जिन्होंने भारत की आत्मा को स्पर्श किया था और हमें रास्ता दिखाया था। ये नायक हमें हमारे आतंरिक परिर्वतन की राह सुझा सकते हैं। मनुष्य की पूर्णता दरअसल इसी आंतरिक परिर्वतन में है।  मनुष्य का भीतरी परिवर्तन ही बाह्य संसाधनों की शुद्धि में सहायक बन सकता है। हमें तेजी के साथ भोगवादी मार्गों को छोड़कर योगवादी प्रयत्नों को बढ़ाना होगा। संघर्ष के बजाए समन्वय के सूत्र तलाशने होगें। स्पर्धा के बजाए सहयोग की राह देखनी होगी। शक्ति के बजाए करूणा, दया और कृपा जैसे भावों के निकट जाना होगा। दरअसल यही असली भारत बनाने का महामार्ग है। एक ऐसा भारत जो खुद को जान पाएगा। सदियों बाद खुद का साक्षात्कार करता हुआ भारत। अपने बोध को अपने ही अर्थों में समझता हुआ भारत। आत्मसाक्षात्कार और आत्मानुभूति करता हुआ भारत। आत्मदैन्य से मुक्त भारत। आत्मविश्वास से भरा भारत।
    आज के भारत का संकट यह है कि उसे अपने पुरा वैभव पर गर्व तो है पर वह उसे जानता नहीं हैं। इसलिए भारत की नई पीढ़ी को इस आत्मदैन्य से मुक्त करने की जरूरत है। यह आत्म दैन्य है, जिसने हमें पददलित और आत्मगौरव से हीन बना दिया है। सदियों से गुलामी के दौर में भारत के मन को तोड़ने की कोशिशें हुयी हैं। उसे उसके इतिहासबोध, गौरवबोध को भुलाने और विदेशी विचारों में मुक्ति तलाशने की कोशिशें परवान चढ़ी हैं। आजादी के बाद भी हमारे बौद्धिक कहे जाने वाले संस्थान और लोग अपनी प्रेरणाएं कहीं और से लेते रहे और भारत के सत्व और तत्व को नकारते रहे। इस गौरवबोध को मिटाने की सचेतन कोशिशें आज भी जारी हैं। विदेशी विचारों और विदेशी प्रेरणाओं व विदेशी इमदादों पर पलने वाले बौद्धिकों ने यह साबित करने की कोशिशें कीं कि हमारी सारी भारतीयता पिछडेपन, पोंगापंथ और दकियानूसी विचारों पर केंद्रित है। हर समाज का कुछ उजला पक्ष होता है तो कुछ अंधेरा पक्ष होता है। लेकिन हमारा अंधेरा ही उन्हें दिखता रहा और उसी का विज्ञापन ये लोग करते रहे। किसी भी देश की सांस्कृतिक धारा में सारा कुछ बुरा कैसे हो सकता है। किंतु भारत, भारतीयता और राष्ट्रवाद के नाम से ही उन्हें मिर्च लगती है। भारतीयता को एक विचार मानने, भारत को एक राष्ट्र मानने में भी उन्हें हिचक है। खंड-खंड विचार उनकी रोजी-रोटी है, इसलिए वे संपूर्णता की बात से परहेज करते हैं। वे भारत को जोड़ने वाले विचारों के बजाए उसे खंडित करने की बात करते हैं। यह संकट हमारा सबसे बड़ा संकट है। आपसी फूट और राष्ट्रीय सवालों पर भी एकजुट न होना, हमारे सब संकटों का कारण है। हमें साथ रहना है तो सहअस्तित्व के विचारों को मानना होगा। हम खंड-खंड विचार नहीं कर सकते। हम तो समूची मनुष्यता के मंगल का विचार करने वाले लोग हैं, इसलिए हमारी शक्ति यही है कि हम लोकमंगल के लिए काम करें। हमारा साहित्य, हमारा जीवन, हमारी प्रकृति, हमारी संस्कृति सब कुछ लोकमंगल में ही मुक्ति देखती है। यह लोकमंगल का विचार साधारण विचार नहीं है। यह मनुष्यता का चरम है। यहां मनुष्यता सम्मानित होती हुयी दिखती है। यहां वह सिर्फ शरीर का नहीं, मन का भी विचार करती है और भावी जीवन का भी विचार करती है। यहां मनुष्य की मुक्ति प्रमुख है।

    नया भारत बनाने की बात दरअसल पुराने मूल्यों के आधार पर नयी चुनौतियों से निपटने की बात है। नया भारत सपनों को सच करने और सपनों में नए रंग भरने के लिए दौड़ लगा रहा है। यह दौड़ सरकार केंद्रित नहीं, मानवीय मूल्यों के विकास पर केंद्रित है। इसे ही भारत का जागरण और पुर्नअविष्कार कहा जा रहा है। कई बार हम राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण की बात इसलिए करते हैं, क्योंकि हमें कोई नया राष्ट्र नहीं बनाना है। हमें अपने उसी राष्ट्र को जागृत करना है, उसका पुर्ननिर्माण करना है, जिसे हम भूल गए हैं। यह अकेली राजनीति से नहीं होगा। यह तब होगा जब समाज पूरी तरह जागृत होकर नए विमर्शों को स्पर्श करेगा। अपनी पहचानों को जानेगा, अपने सत्व और तत्व को जानेगा। उसे भारत और उसकी शक्ति को जानना होगा। लोक के साथ अपने रिश्ते को समझना होगा। तब सिर्फ चमकीली प्रगति नहीं, बल्कि मनुष्यता के मूल्य, नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक मूल्यों की चमक उसे शक्ति दे रही होगी। यही भारत हमारे सपनों का भी है और अपनों का भी। इस भारत को हमने खो दिया, और बदले में पाएं हैं दुख, असंतोष और भोग के लिए लालसाएं। जबकि पुराना भारत हमें संयम के साथ उपभोग की शिक्षा देता है। यह भारत परदुखकातरता में भरोसा रखता है। दूसरों के दुख में खड़ा होता है। उसके आंसू पोंछता है। वह परपीड़ा में आनंद लेने वाला समाज नहीं है। वह द्रवित होता है। वात्सल्य से भरा है। उसके लिए पूरी वसुधा पर रहने वाले मनुष्य मात्र ही नहीं प्राणि मात्र परिवार का हिस्सा हैं। इसलिए इस लोक की शक्ति को समझने की जरूरत है। भारत इसे समझ रहा है। वह जाग रहा है। एक नए विहान की तरफ देख रहा है। वह यात्रा प्रारंभ कर चुका है। क्या हम और आप इस यात्रा में सहयात्री बनेगें यह एक बड़ा सवाल है।

शनिवार, 26 मार्च 2016

इतने गुस्से में क्यों हैं लोग?

-संजय द्विवेदी

    यह कितना निर्मम समय है कि लोग इतने गुस्से से भरे हुए हैं। दिल्ली में डा. पंकज नारंग की जिस तरह पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी,वह बात बताती है कि हम कैसा समाज बना रहे हैं। साधारण से वाद-विवाद का ऐसा रूप धारण कर लेना चिंता में डालता है। लोगों में जैसी अधीरता,गुस्सा और तुरंत प्रतिक्रिया देने का अंदाज बढ़ रहा है वह बताता है कि, हमारे समाज को एक गंभीर इलाज की जरूरत है। सोचना यह भी जरूरी है कि क्या कानून का कोई खौफ लोगों के भीतर बचा है या अब सब कानून को हाथ में लेकर खुद ही अपने फैसले करेगें। एक स्कूटी सवार को रबर गेंद लग जाए और वह नाराजगी में किसी की हत्या कर डाले, यह खबर बताती है कि हम कैसा संवेदनहीन समाज बना रहे हैं। कानून अपने हाथ में लेकर घूमते ये लोग दरअसल भारतीय राज्य और पुलिस के लिए भी एक चुनौती हैं।
    गुस्से से भरे लोग क्या यूं ही गुस्से में हैं या उसके कुछ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारण भी हैं। बताया जा रहा है रहा है मारपीट करने वाले लोग बेहद सामान्य परिवारों से हैं और उनमें कुछ बगल की झुग्गी में रहते थे। एक क्षणिक आवेश किस तरह एक बड़ी घटना में बदल जाता है, यह डा. पंकज के साथ हुआ हादसा बताता है। गुस्से और आक्रोश की मिली-जुली यह घटना बताती है लोगों में कानून का खौफ खत्म हो चुका है। लोगों की जाति-धर्म पूछकर व्यवहार करने वाली राजनीति और पुलिस तंत्र से ज्यादातर समाज का भरोसा उठने लगा है। आज यह सवाल पूछना कठिन है, किंतु पूछा जाना चाहिए कि डा. नारंग अगर किसी अल्पसंख्यक वर्ग या दलित वर्ग से होते तो शेष समाज की क्या इतनी सामान्य प्रतिक्रिया होती? इस घटना को मोदी सरकार के विरूद्ध हथियार की तरह पेश किया जाता। इसलिए सामान्य घटनाओं और झड़पों को राजनीतिक रंग देने में जुटी मीडिया और राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना जरूरी है कि एक मनुष्य की मौत पर उनमें समान संवेदना क्यों नहीं है? क्यों वे एक इंसान की मौत को धर्म या जाति के चश्मे से देखते हैं?
    डा. नारंग की मौत हमारी इंसानियत के लिए एक चुनौती है और समूची सामाजिक व्यवस्था के लिए एक काला घब्बा है। हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहां सामान्य तरीके से जीने के लिए भी, हमें वहशियों से बचकर चलना होगा। भारत जैसे देश में जहां पड़ोसी के लिए हम कितनी भावनाएं रखते हैं और उसके सुख-दुख में उसके साथ होने की कामना करते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि हमारे पड़ोसी भी कितने ह्दयहीन हैं, वे कैसी पशुता से भरे हुए हैं, उनके मन में हमारे लिए कितना जहर है। समाज में फैलती गैरबराबरी-ऊंच-नीच, जाति-धर्म और आर्थिक स्थितियों के विभाजन बहुत साफ-साफ जंग की ओर इशारा कर रहे हैं। ये स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं, क्योंकि परिवारों में हम बच्चों को अच्छी शिक्षा और दूसरे को सहन करने, साथ लेने की आदतें नहीं विकसित कर रहे हैं। एकल परिवारों में बच्चों की हर जिद का पूरा होना जरूरी है और वहीं सामान्य परिवारों के बच्चे तमाम अभावों के चलते एक प्रतिहिंसा के भाव से भर रहे हैं। एक को सब चाहिए दूसरे को कुछ मिल नहीं रहा है-ये दोनों ही अतियां गलत हैं। समाज में संयम का बांध टूटता दिख रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी, सिमटते संसाधन, उपभोग की बढ़ती भूख, बाजारीकरण और बिखरते परिवारों ने एक ऐसे युवा का सृजन किया है जो गुस्से में है और संस्कारों से मुक्त है। संस्कारहीनता और गुस्से का संयोग इस संकट को गहरा कर रहा है। जहां माता-पिता अन्यान्य कारणों से अपनी संततियों को सही शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, वहीं विद्यालय और शिक्षक भी विफल हो रहे हैं। इस संकट से उबरने में सामाजिक संगठनों, परिवारों का एकजुट होना जरूरी है।
  बचपन से ही बच्चों में सहनशीलता, संवाद और साहचर्य को सिखाने की जरूरत है। दिल्ली की ह्दय विदारक घटना में जिस तरह नाबालिग बच्चों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया और एक परिवार को उजाड़ दिया वह बात बहुत चिंता में डालने वाली है। किसी भी घटना को हिंदू और मुसलमान के नजरिए से देखने के बजाए यह देखना जरूरी है कि इसके पीछे मानसिकता क्या है? इसी हिंसक मानस का रूप आप हरियाणा के जाट आंदोलन में देख सकते हैं जहां अपने पड़ोसियों और अपने शहर के साथ हिंसक आंदोलनकारियों ने क्या किया। इस हिंसक वृत्ति का विस्तार हमें रोकना ही होगा। हमारे आसपास और परिवेश में अनेक ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जिसमें समाज का हिंसक चेहरा उभर कर सामने आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन प्रवृत्तियों के खिलाफ हमें साथ आना और एकजुट होना भी सीखना होगा। सार्वजनिक स्थलों पर, बसों में, ट्रेनों में स्त्रियों के विरूद्ध हो रहे अपराध हों या हिंसक आचरण- सबको हम देखकर चुप लगा जाते हैं।

   देश में बढ़ रही हिंसा और अराजकता के विरूद्ध सामाजिक शक्ति को एकत्र होना होगा। सबसे बड़ी बात अपने आसपास हो रहे अपराध और अन्याय के प्रति हमारी खामोशी हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। अकेले पुलिस और सरकार के भरोसे बैठा हुआ समाज, कभी सुख से नहीं रख सकता। होते हुए अन्याय को चुप होकर देखना और प्रतिक्रिया न देना एक बड़ा संकट है ऐसे में मनोरोगियों और अपराधियों के हौसले बढ़ते हुए दिखते हैं। समाज को भयमुक्त और आतंक से मुक्त करना होगा। जहां हर बच्चा, बच्ची सुरक्षित होकर अपने बचपन का विकास  कर सके,जहां पिता और मां अपनी पीढ़ी को योग्य संस्कार दे सके। बदली हुयी दुनिया में हमें ज्यादा मनुष्य बनने के यत्न करने होगें। इसलिए एक शायर कहते हैं- आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना । हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को इंसानियत के पाठ पढ़ाने होगें। परदुखकातरता सिखानी होगी। दूसरों के दुख में दुखी होना और दूसरों के सुख में प्रसन्न होना यही संस्कृति है। इसका विपरीत आचरण विकृति है। हमें संस्कृति और इंसानियत के साझा पाठ सीखने होगें। डा. नारंग की हत्या हमारे लिए चेतावनी है और एक पाठ भी कि हम आज भी संवेदना से, इंसानियत से चूके तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक नया समाज बनाने की आकांक्षा से भरे-पूरे हम भारतवासी किसी भी इंसानी हत्या को इंसानियत की हत्या मानें और दुबारा यह दोहराया न जाए, इसके लिए सचेतन प्रयास करें। अपने धर्मों की ओर देखें वे भी हमें यही बता रहे हैं। इस्लाम बता रहा है कि कैसे पड़ोसी के साथ रहें, ईसाईयत करूणा को प्राथमिकता दे रही है, हिंदुत्व भी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को ही समूची मनुष्यता में रूपांतरित करने का इच्छुक है। लोककवि तुलसीदास भी इसी बात को कह रहे हैं-परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। यानि दूसरों का हित करना ही सबसे धर्म है और दूसरे को पीड़ा देना सबसे बड़ा अधर्म है। गुस्से में अंधे हो चुके युवाओं और उनके माताओं-पिताओं की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे एक बार फिर जागृत विवेक की ओर लौटें ताकि मनुष्यता ऐसे कलंकों से बचकर अपना परिष्कार कर सके। डा. नारंग की हत्या का सबक यही है कि हम अपने क्रोध पर नियंत्रण करें और अपनत्व के दायरे को विस्तृत करें।