शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

लिखिए जोर से लिखिए, किसने रोका है भाई!

-संजय द्विवेदी

   देश में बढ़ती तथाकथित सांप्रदायिकता से संतप्त बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला वास्तव में प्रभावित करने वाला है। यह कितना सुंदर है कि एक लेखक अपने समाज के प्रति कितना संवेदनशील है, कि वह यहां घट रही घटनाओं से उद्वेलित होकर अपने सम्मान लौटा रहा है। कुछ ने तो चेक भी वापस किए हैं। सामान्य घटनाओं पर यह संवेदनशीलता और उद्वेलन सच में भावविह्वल करने वाला है।
    सही मायने में देश के इतिहास में यह पहली घटना है, जब पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला इतना लंबा चला है। बावजूद इसके लेखकों की यह संवेदनशीलता सवालों के दायरे में है। यह संवेदना सराही जाती अगर इसके इरादे राजनीतिक न होते। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जहां भाजपा की सरकार नहीं है के पाप भी नरेंद्र मोदी के सिर थोपने की हड़बड़ी न होती,तो यह संवेदना सच में सराही जाती। सांप्रदायिकता को लेकर चयनित दृष्टिकोण रखने और प्रकट करने का पाप लेखक कर रहे हैं। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं कि जिस नरेंद्र मोदी को कोस-कोसकर, लिख-लिखकर, बोल-बोलकर वे थक गए, उन्हें देश की जनता ने अपना प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह कैसा लोकतांत्रिक स्वभाव है कि जनता भले मोदी को पूर्ण बहुमत से दिल्लीपति बना दे, किंतु आप उन्हें अपना प्रधानमंत्री मानने में संकोच से भरे हुए हैं।
    देश में सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत लंबा है किंतु इस पूरे लेखक समूह को गोधरा और उसके बाद के गुजरात दंगों के अलावा कुछ भी याद नहीं आता। विस्मृति का संसार इतना व्यापक है कि इंदिरा जी हत्या के बाद हुए सिखों के खिलाफ सुनियोजित दंगें भी इन्हें याद नहीं हैं। मलियाना और भागलपुर तो भूल ही जाइए। जहां मोदी है, वहीं इन्हें सारी अराजकता और हिंसा दिखती है। कुछ अखबारों के कार्टून कई दिनों तक मोदी को ही समर्पित दिखते हैं। ये अखबारी कार्टून समस्या केंद्रित न होकर व्यक्तिकेंद्रित ही दिखते हैं। उप्र में दादरी के बेहद दुखद प्रसंग पर समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री को कोसने के बजाए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना कहां से उचित है? क्या नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों के पास मुद्दों का अकाल है? इस नियम से तो गोधरा दंगों के समय इन साहित्यकारों को नरेंद्र मोदी के बजाए प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना चाहिए था, लेकिन उस समय मोदी उनके निशाने पर थे। किंतु अखिलेश यादव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हिंसा को न रोक पाने के बावजूद लेखकों के निशाने पर नहीं हैं। उन्हें इतनी राहत इसलिए कि वे सौभाग्य से भाजपाई मुख्यमंत्री नहीं हैं और सेकुलर सूरमाओं के साथ उनके रक्त संबंध हैं। ऐसे आचरण, बयानों और कृत्यों से लेखकों की स्वयं की प्रतिष्ठा कम हो रही है।
   हमारे संघीय ढांचे को समझे बिना किसी भी ऐरे-गैरे के बयान को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कहां तक उचित है? औवेसी से लेकर साध्वी प्राची के विवादित बोल का जिम्मेदार नरेंद्र मोदी को ठहराया जाता है जबकि इनका मोदी से क्या लेना देना? लेकिन तथाकथित सेकुलर दलों के मंत्री और पार्टी पदाधिकारी भी कोई बकवास करें तो उस पर किसी लेखक को दर्द नहीं होता। क्या ही अच्छा होता कि ये लेखक उस समय भी आगे आए होते जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं हुयीं। उस समय इन महान लेखकों की संवेदना कहां खो गयी थी, जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने ही वतन में विस्थापित होना पड़ा। नक्सलियों पर पुलिस दमन पर टेसुए बहाने वाली यह संवेदना तब सुप्त क्यों पड़ जाती है, जब हमारा कोई जवान माओवादी आतंक का शिकार होता है। जनजातियों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं करने वाले माओवादी इन बुद्धिजीवियों की निगाह में बंदूकधारी गांधीवादी हैं। कम्युनिस्ट देशों में दमन, अत्याचार और मानवाधिकारों को जूते तले रौंदनेवाले समाजवादियों का भारतीय लोकतंत्र में दम घुट रहा है, क्योंकि यहां हर छोटी- बड़ी घटना के लिए आप बिना तथ्य के सीधे प्रधानमंत्री को लांछित कर सकते हैं और उनके खिलाफ अभियान चला सकते हैं।
    दरअसल ये वे लोग हैं जिनसे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है। ये भारतीय जनता के विवेक पर सवाल उठाने वाले अलोकतांत्रिक लोग हैं। ये उसी मानसिकता के लोग हैं, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश छोड़ देने की धमकियां दे रहे थे। सही मायने में ये ऐसे लेखक हैं जिन्हें जनता के मनोविज्ञान, उसके सपनों और आकांक्षाओं की समझ ही नहीं है। वैसे भी ये लेखक भारत में रहना ही कहां चाहते हैं? भारतद्वेष इनकी जीवनशैली, वाणी और व्यवहार में दिखता है। भारत की जमीन और उसकी खूशबू का अहसास उन्हें कहां है? ये तो अपने ही बनाए और रचे स्वर्ग में रहते हैं। जनता के दुख-दर्द से उनका वास्ता क्या है? शायद इसीलिए हमारे दौर में ऐसे लेखकों का घोर अभाव है, जो जनता के बीच पढ़े और सराहे जा रहे हों। क्योंकि जनता से उनका रिश्ता कट चुका है। वे संवाद के तल पर हार चुके हैं। एक खास भाषा और खास वर्ग को समर्पित उनका लेखन दरअसल इस देश की माटी से कट चुका है।
   साहित्य अकादमी दरअसल लेखकों की स्वायत्त संस्था है। एक बेहद लोकतांत्रिक तरीके से उसके पदाधिकारियों का चयन होता है। पुरस्कार भी लेखक मिल कर तय करते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग इस संस्था के अध्यक्ष रहे। आज डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसके अध्यक्ष हैं। वे पहले हिंदी लेखक हैं, जिन्हें अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। ऐसे में इस संस्था के द्वारा दिए गए पुरस्कारों पर सवाल उठाना कहां का न्याय है? लेखकों की,लेखकों के द्वारा, चुनी गयी संस्था का विरोध बेमतलब ही कहा जाएगा। अगर यह न भी हो तो सरकार द्वारा सीधे दिए गए अलंकरणों, सम्मानों, पुरस्कारों और सुविधाओं को लौटाने का क्या औचित्य है? यह सरकार हमारी है और हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से ही चलती है। कोई सरकार किसी लेखक को कोई सुविधा या सम्मान अपनी जेब से नहीं देती। यह सब जनता के द्वारा दिए गए धन से संचालित होता है। ऐसे में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लेकर लौटाना जनता का ही अपमान है। जनता के द्वारा दिए गए जनादेश से चुने गए प्रधानमंत्री की उपस्थिति अगर आपसे बर्दाश्त नहीं हो रही है तो सड़कों पर आईए। अपना विरोध जताइए, किंतु वितंडावाद खड़ा करने से लेखकों की स्थिति हास्यापद ही बनी रहेगी। आज यह भी आवाज उठ रही है कि क्या ये लेखक सरकारों द्वारा दी गयी अन्य सुविधा जैसे मकान या जमीन जैसी सुविधाएं वापस करेंगें। जाहिर है ये सवाल बेमतलब हैं,लंबे समय तक सरकारी सुविधाओं और सुखों को भोगना वाला समाज अचानक क्रांतिकारी नहीं हो सकता।
    सुविधा और अवसर के आधार पर चलने वाले लोग हमेशा हंसी का पात्र ही बनते हैं। अपनी संस्थाओं, अपने प्रधानमंत्री, अपने देश और अपनी जमीन को लांछित कर आप खुद सवालों के घेरे में हैं। जब आप एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई हार चुके हैं, तो लेखकों को आगे कर यह जंग नहीं जीती जा सकती। राजनीतिक दलों की हताशा समझी जा सकती है, किंतु लेखकों का यह व्यवहार समझ से परे है। राजनीतिक निष्ठा एक अलग चीज है किंतु एक लेखक और बुद्धिजीवी होने के नाते आपसे असाधारण व्यवहार की उम्मीद की जाती है। आशा की जाती है कि आप हो रहे परिवर्तनों को समझकर आचरण करेंगें। देश की जनता के दुख-दर्द का चयनित आधार पर विश्लेषण नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के कामों पर सवाल खड़े करिए। संघर्ष के लिए आगे आइए किंतु लोगों को गुमराह मत कीजिए। यह नकली और झूठी बात है कि इस देश में तानाशाही या आपातकाल के हालात हैं। जिन्होंने आपातकाल देखा है उनसे पूछिए कि आपातकाल क्या होता है? जिस समय में हर छोटा-बड़ा मुंह खोलते ही प्रधानमंत्री को बुरा-भला कह रहा है, क्या वहां तानाशाही है? ऐसे झूठ और भ्रम फैलाकर देश में तनाव मत पैदा कीजिए। आपातकाल में आप सब कहां थे, जब देश के तमाम लेखक-पत्रकार कालकोठरी में डाल दिए गए थे? जो देश इंदिरा गांधी की तानाशाही से नहीं डरा, उसे मत डराइए। हिम्मत से लिखिए और लिखने दीजिए। पुरस्कारों, पदों, सम्मानों और लोभ-लाभ के चक्कर में मत पड़िए। अफसरों और नेताओं के तलवे मत चाटिए। लिखिए जोर से लिखिए, बोलिए जोर से बोलिए, किसने रोका है भाई।
(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

आभासी सांप्रदायिकता के खतरे

-संजय द्विवेदी


   जिस तरह का माहौल अचानक बना है, वह बताता है कि भारत अचानक अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमान) के लिए एक खतरनाक देश बन गया है और इसके चलते उनका यहां रहना मुश्किल है। उप्र सरकार के एक मंत्री यूएनओ जाने की बात कर रहे हैं तो कई साहित्यकार अपने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने पर आमादा हैं। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा समय है, जिसमें आई ऐसी प्रतिक्रियाएं हैरत में डालती हैं।
   गाय की जान बचाने के लिए मनुष्य की जान लेने को कौन सी संस्कृति और सभ्यता अनुमति देगी? खासे शोरगुल के बाद राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा वही दरअसल भारत की पहचान है, देश की सामूहिक राय है। भारत को न जानने वाले ही इस छद्म और आभासी सांप्रदायिकता की हवा से विचलित हैं। भारत की शक्ति को महसूस करना है, तो हमें साथ-साथ चलती हुए लोगों की बहुत सारी आकांक्षाओं और सपनों की ओर देखना होगा। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री की इस बात का खास महत्व है कि हमें तय करना होगा कि हिंदुओं को मुसलमानों से लड़ना है या गरीबी से। मुसलिमों को फैसला करना चाहिए कि हिंदुओं से लड़ना है या गरीबी से। यह साधारण नहीं है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति की बात को न सिर्फ सही ठहराया बल्कि यहां तक कहा कि अगर इस सवाल पर वे भी(मोदी) कोई बात कहें तो उसे न माना जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा किमैं देशवासियों को कहना चाहता हूं कि कुछ छुटभैये नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए गैरजिम्मेदाराना बयान देने पर उतारू हैं।  ऐसे बयान बंद होने चाहिए। मैं जनता से अनुरोध करना चाहता हूं कि इस तरह के बयानों पर ध्यान नहीं दें, फिर चाहे नरेंद्र मोदी भी इस तरह की कोई बात क्यों न करे। मोदी का बयान बताता है कि वे इस मामले में क्या राय रखते हैं। इस बयान के बाद किसी को भी कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि आखिर सरकार की राय और मर्यादा क्या है। लेकिन सवाल यह उठता है कि उत्तरप्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री का इकबाल क्या खत्म हो गया है? क्या वे चंद सांप्रदायिक तत्वों के हाथ का खिलौना बनकर रह गए हैं। जब सांप्रदायिकता के खिलाफ कठोर फैसलों और शरारती तत्वों पर कड़ी कार्रवाई का समय है तो उनका एक मंत्री जहर को स्थाई बनाने के प्रयासों में जुट जाता है। अगर सरकार इस तरह जिम्मेदारियों से भागेंगी तो शरारती तत्वों को कौन नियंत्रित करेगा। यहां यह सवाल भी खास है कि ऐसे हालात से क्या राजनीतिक दलों को फायदा होता है या उन्हें इसके नुकसान उठाने होते हैं? क्या हिंदू और मुस्लिम गोलबंदी बनाने का यह कोई सुनियोजित यत्न तो नहीं है? लोगों की लाश पर राजनीति का समय अब जा चुका है। लोग समझदार हैं और अपने फैसले कर रहे हैं, किंतु राजनीति आज भी बने-बनाए मानकों से आगे निकलना नहीं चाहती। लंबे समय बाद देश में सुशासन और विकास के सवाल चुनावी राजनीति के केंद्रीय विषय बन रहे हैं। ऐसे में उन्हें फिर वहीं जाति और पंथ के कठघरों में ले जाना कहां की सोच है? सांप्रदायिकता के खिलाफ राजनीतिक दलों का चयनित सोच इसकी बढत के लिए जिम्मेदार है। ज्यादातर राजनीतिक दल हिंदूओं को लांछित करने के लिए एक लंबे अभियान के हिस्सेदार हैं। लेकिन इससे मुसलमानों का हित क्या है? देश की बहुसंख्यक आबादी की अपनी समझ, मानवीय संवेदना, पारंपरिक जीवन मूल्यों के प्रति समर्पण के नाते ही यह देश पंथनिरपेक्ष है। पाकिस्तान और भारत को बनते हुए इस भूभाग ने देखा और खुद को पंथनिरपेक्ष बनाए रखा। यह इस देश की ताकत है। इसे कमजोर करना और अल्पसंख्यकों में भयग्रंथि का विस्तार करना कहीं से उचित नहीं है। देश के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक एक वृहत्तर परिवार के अभिन्न अंग हैं। उनके अधिकार समान हैं। पाकिस्तान बनाने वाली ताकतें अलग थीं, वे देश छोड़कर जा चुकी हैं। इसलिए हिंदुस्तानी मुसलमानों को सही रास्ता दिखाने की जरूरत है। अपने सांप्रदायिक तेवरों के विख्यात नेताओं को चाहिए कि वे वाणी संयम से काम लें। समाज अपनी तकदीर लिखने के लिए आगे आ रहा है, उसे आगे आने दें। हाल में गौहत्या को लेकर जिस तरह के प्रसंग और बयान सामने आए हैं उस पर ज्यादातर मुस्लिम धर्मगुरूओं ने गौहत्या को उचित नहीं माना है। मौलाना सैय्यद अहमद बुखारी ने स्वयं अपने बयान में यह कहा कि जिस बात से हिंदुओं की धार्मिक भावना को ठेस लगती हो उसे नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इस साधारण सी बात को स्वीकारने के बजाए इसे राजनीतिक गोलबंदी का विषय बनाया जा रहा। ऐसा करने वाले हिंदुस्तानी मुसलमानों के शुभचिंतक नहीं हैं। दादरी की घटना एक शर्म और कलंक की तरह हमारे सामने है। यह बताती है कि सामान्य व्यक्ति तो अनायास मार दिया जाएगा और राजनेता उसकी लाश पर राजनीति करते रहेंगें। देश में सही मायने में सांप्रदायिकता कोई बड़ी समस्या नहीं है। किंतु कुछ राजनीति कार्यकर्ता और विभिन्न पंथों के कुछ अनुयायी अपना वजूद बनाए रखने के लिए इसे जिंदा रखना चाहते हैं। सांप्रदायिकता के विरूद्ध कोई ईमानदार लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे दोनों पक्षों के हित सध रहे हैं। चुनावी राजनीति में जहां मुस्लिम ध्रुवीकरण की उम्मीदें कुछ लोगों को लाभ पहुंचा रहीं है तो हिंदुओं पर आभासी खतरे से दूसरी तरह का ध्रुवीकरण सामने आता है। राजनीति का सब कुछ दांव पर लगा है क्योंकि उसके पास अब मुद्दे बचे नहीं है। वह लोगों को मुद्दों के आधार पर नहीं, देश के सवालों के आधार पर नहीं- जातियों, पंथों, आभासी सांप्रदायिकता के खतरों के नाम पर एकजुट करना चाहती है।
  बदलता हुआ हिंदुस्तान इन सवालों से आगे आ चुका है। लेकिन दादरी में बहा एक निर्दोष आदमी का खून भी हमारे लिए चुनौती है और एक बड़ा सवाल भी। पर भरोसा यूं देखिए कि दादरी में खतरे में पड़ा अखलाक आखिरी फोन एक हिंदू दोस्त को ही लगाता है। यही उम्मीद है जो बनाए और बचाए रखनी है। जो बताती है कि लोग आभासी सांप्रदायिकता के खतरों के बावजूद अपनों को पहचानते हैं। क्योंकि अपना कोई भी हो सकता है, वह दलों के झंडों और पंथों के हिसाब से तय नहीं होता। दादरी जैसी एक घटना कैसे पूरी दुनिया में हमारा नाम खराब करने का काम करती है। इसे भी सोचना होगा। देश की इज्जत को मिट्टी में मिला रहे लोग देशभक्त हैं, आपको लगे तो लगे, देश इन पर भरोसा नहीं करता। हमारी सांझी विरासतों, सांझे सपनों पर नजर लगाने में लगी ताकतें सफल नहीं होगीं, भरोसा कीजिए।



गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

दीनदयालजी पर एक प्रामाणिक किताब

-सईद अंसारी
(समीक्षक आजतक न्यूज चैनल में एडीटर-स्पेशल प्रोजेक्ट्स तथा प्रख्यात एंकर हैं)


पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का शताब्दी वर्ष 25 सितंबर 2015 से शुरू हुआ है। इस मौके पर लेखक संजय द्विवेदी ने दीनदयाल पर बेहद प्रामाणिक, वैचारिक सामग्री इस किताब के रूप में पेश की है। निश्चित रूप से इस प्रयास के लिए संजय बधाई के पात्र हैं।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पूरे व्यक्तित्व का आकलन पांच भागों में पुस्तक को बांटकर किया गया है। लेखक संजय द्विवेदी की लेखनी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन के हर पहलू को बड़ी सहजता और सरलता से पाठकों के मानस पटल पर अंकित किया है। पुस्तक के पहले भाग में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में पंडित दीनदयाल के विचारों को बहुत ही खूबी से स्पष्ट किया है संजय ने। दीनदयालजी के अनुसार परस्पर जोड़ने वाला विचार हमारी संस्कृति है और यही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मर्म है. किस तरह से दीनदयाल अखंड भारत के समर्थक रहे, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उन्होंने कैसे परिभाषित किया, 'वसुधैव कुटुम्बकम' की पंडितजी ने क्या अवधारणा दी, समाज के सर्वांगीण विकास और उत्थान के लिए उनके कार्यों और प्रयासों से पाठकों को अवगत कराने की सराहनीय कोशिश की गई है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संबंध में डॉ. महेशचंद शर्मा का कहना है कि 'गुरुजी' श्री गोलवलकर के अनुसार दो प्रकार के राष्ट्रवाद हैं. पहला भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और दूसरा राजनीतिक क्षेत्रीय राष्ट्रवाद ( politico territorial nationalism ). भू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानवीय है जबकि राजनीतिक क्षेत्रीय राष्ट्रवाद युद्दकामी और साम्राज्यवाद का सर्जक है। संस्कृति तत्व ही राष्ट्रीयत्व का नियामक होता है। दीनदयाल के अनुसार 'अखंडता की भगीरथी की पुण्यधारा में सभी प्रवाहों का संगम आवश्यक है। यमुना भी मिलेगी और अपनी सारी कालिमा खोकर गंगा की धवल धारा में एकरूप हो जाएगी.।
दीनदयाल के एकात्म अर्थ चिंतन पर डॉ. बजरंगलाल गुप्ता ने विचार रखे हैं। दीनदयालजी ने समाज के विकास और प्रगति की आकांक्षा रखी थी इसीलिए न केवल आर्थिक परिदृश्य बल्कि सामाजिक, आर्थिक समस्याएं और उनके समाधान के लिए भी हमेशा अपने विचार व्यक्त किए और यही था अर्थ चिंतन। लेकिन वह एक ऐसी व्यवस्था के पक्षधर थे जिसमें धर्म, अर्थ, सदाचार, और समृद्धि साथ-साथ चल सकें. ऐसी व्यवस्था से अर्थ के अभाव और अर्थ के प्रभाव दोनों से बचाव संभव है। पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी के विराट व्यक्तित्व के पीछे उनकी तपस्या, त्याग और संघर्ष का विशेष आधार था। पंडितजी को जनसंघ का अध्यक्ष बनाए जाने पर उन्होंने कहा, 'आपने मुझे किस झमेले में डाल दिया.' इसपर गुरू गोलवलकर का यही जवाब था कि जो संगठन के काम में अविचल निष्ठा और श्रद्धा रखे वही कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से अछूता रहते हुए भी सुचारू रूप से वहां की सफाई कर सकेगा.।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अनुकरण करना सबके लिए आसान नहीं है। उपाध्यायजी की भतीजी मधु शर्मा पंडितजी की लगन का एक उदाहरण देते हुए बताती हैं कि जनसंघ का संविधान लिखने के लिए पंडितजी लगातार दो दिन तक जागते रहे थे और इसी अवधि में उन्होंने बिना खाए पीये सिर्फ काम किया था। दीनदयाल ने हर व्यक्ति के सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार पर महत्व दिया है।  बीजेपी ने भारतीय जनसंघ के बड़े नेता पंडित दीनदयाल को एकात्म मानवतावाद के साथ पूर्ण रूप में अपनाया है. पंडितजी का चिंतन मौलिक था और पूरी मानवता के लिए था। पंडित हरिदत्त शर्मा के अनुसार 'दीनदयाल के व्यक्तित्व को शब्दों में पिरो पाना बड़ा कठिन है।
संजय द्विवेदी ने दीनदयाल के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को उजागर करते हुए इस पुस्तक का संपादन किया है। दीनदयाल के बारे में जानने उन्हें समझने, उनके आदर्शों की जानकारी हासिल करने वाले पाठक और मीडिया से जुड़े व्यक्तित्वों के लिए निश्चित रूप से यह पुस्तक उनके अध्ययन, विश्लेषण और शोध के लिए विशेष सहायता करेगी। विद्वानों के उपाध्यायजी के बारे में जाहिर किए गए विचार, उनके लेखों और भाषणों को किताब में शामिल कर संजय द्विवेदी ने पंडितजी के बारे में सबकुछ समेट दिया है। संजय की संपादित पुस्तक के जरिए पंडितजी का संचारक व्यक्तित्व तो पाठकों के सामने आएगा ही साथ लेखकीय और पत्रकारिता के रूप में उनके व्याख्यान दिशा-निर्देश का काम करेंगे।
पुस्तक: भारतीयता का संचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय 
संपादन:
 संजय द्विवेदीप्रकाशक: विजडम पब्लिकेशन, सी-14, डी.एस.आई.डी.सी. वर्क सेंटर, झिलमिल कालोनी,  दिल्ली-110095
मूल्य:
 500 रुपये

Sayeed Ansari
Editor, Special Projects- Editorial – AT ,
TV Today Network Ltd.
India Today Mediaplex
FC 8, Sec. 16 A, Film City
Noida 201301



गुरुवार, 24 सितंबर 2015

दीनदयाल उपाध्याय होने का मतलब

जन्मशती वर्ष पर विशेष (जयंती 25 सितंबर)

-संजय द्विवेदी

     राजनीति में विचारों के लिए सिकुड़ती जगह के बीच पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ज्योतिपुंज की तरह सामने आता है। अब जबकि उनकी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत से दिल्ली की सत्ता में स्थान पा चुकी है, तब यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर दीनदयाल उपाध्याय की विचारयात्रा में ऐसा क्या है जो उन्हें उनके विरोधियों के बीच भी आदर का पात्र बनाता है।
   दीनदयाल जी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, वे एक पत्रकार, लेखक, संगठनकर्ता, वैचारिक चेतना से लैस एक सजग इतिहासकार, अर्थशास्त्री और भाषाविद् भी थे। उनके चिंतन, मनन और अनुशीलन ने देश को एकात्म मानवदर्शन जैसा एक नवीन भारतीय विचार दिया। सही मायने में  एकात्म मानवदर्शन का प्रतिपादन कर दीनदयाल जी ने भारत से भारत का परिचय कराने की कोशिश की। विदेशी विचारों से आक्रांत भारतीय राजनीति को उसकी माटी से महक से जुड़ा हुआ विचार देकर उन्होंने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया। अपनी प्रखर बौद्धिक चेतना, समर्पण और स्वाध्याय से वे भारतीय जनसंघ को एक वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफल रहे। सही मायने में वे गांधी और लोहिया के बाद एक ऐसे राजनीतिक विचारक हैं, जिन्होंने भारत को समझा और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए सचेतन प्रयास किए। वे अनन्य देशभक्त और भारतीय जनों को दुखों से मुक्त कराने की चेतना से लैस थे, इसीलिए वे कहते हैं-प्रत्येक भारतवासी हमारे रक्त और मांस का हिस्सा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगें जब तक हम हर एक को यह आभास न करा दें कि वह भारत माता की संतान है। हम इस धरती मां को सुजला, सुफला, अर्थात फल-फूल, धन-धान्य से परिपूर्ण बनाकर ही रहेंगें। उनका यह वाक्य बताता है कि वे किस तरह का राजनीतिक आदर्श देश के सामने रख रहे थे। उनकी चिंता के केंद्र में अंतिम व्यक्ति है, शायद इसीलिए वे अंत्योदय के विचार को कार्यरूप देने की चेष्ठा करते नजर आते हैं।
   वे भारतीय समाज जीवन के सभी पक्षों का विचार करते हुए देश की कृषि और अर्थव्यवस्था पर सजग दृष्टि रखने वाले राजनेता की तरह सामने आते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनकी बारीक नजर थी और वे स्वावलंबन के पक्ष में थे। राजनीतिक दलों के लिए दर्शन और वैचारिक प्रशिक्षण पर उनका जोर था। वे मानते थे कि राजनीतिक दल किसी कंपनी की तरह नहीं बल्कि एक वैचारिक प्रकल्प की तरह चलने चाहिए। उनकी पुस्तक पोलिटिकल डायरी में वे लिखते हैं- भिन्न-भिन् राजनीतिक पार्टियों के अपने लिए एक दर्शन (सिद्दांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्र होने वाले लोगों का समुच्च मात्र नहीं बनना चाहिए। उनका रूप किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान या ज्वाइंट स्टाक कंपनी से अलग होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी घोषणापत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझना चाहिए और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए। उनका यह कथन बताता है कि वे राजनीति को विचारों के साथ जोड़ना चाहते थे। उनके प्रयासों का ही प्रतिफल है कि भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) को उन्होंने वैचारिक प्रशिक्षणों से जोड़कर एक विशाल संगठन बना दिया। यह विचार यात्रा दरअसल दीनदयाल जी द्वारा प्रारंभ की गयी थी, जो आज वटवृक्ष के रूप में लहलहा रही है। अपने प्रबोधनों और संकल्पों से उन्होंने तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा जीवनदानी उत्साही नेताओं की एक बड़ी श्रृंखला पूरे देश में खड़ी की।
  कार्यकर्ताओं और आम जन के वैचारिक प्रबोधन के लिए उन्होंने पांचजन्य, स्वदेश और राष्ट्रधर्म जैसे प्रकाशनों का प्रारंभ किया। भारतीय विचारों के आधार पर एक ऐसा दल खड़ा किया जो उनके सपनों में रंग भरने के लिए तेजी से आगे बढ़ा। वे अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति भी बहुत उदार थे। उनके लिए राष्ट्र प्रथम था। गैरकांग्रेस की अवधारणा को उन्होंने डा.राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर साकार किया और देश में कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। भारत-पाक महासंघ बने इस अवधारणा को भी उन्होंने डा. लोहिया के साथ मिलकर एक नया आकाश दिया। विमर्श के लिए बिंदु छोड़े। यह राष्ट्र और समाज सबसे बड़ा है और कोई भी राजनीति इनके हितों से उपर नहीं है। दीनदयाल जी की यह ध्रुव मान्यता थी कि राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते देश के हित नजरंदाज नहीं किए जा सकते। वे जनांदोलनों के पीछे दर्द को समझते थे और समस्याओं के समाधान के लिए सत्ता की संवेदनशीलता के पक्षधर थे। जनसंघ के प्रति कम्युनिस्टों का दुराग्रह बहुत उजागर रहा है। किंतु दीनदयाल जी कम्युनिस्टों के बारे में बहुत अलग राय रखते हैं। वे जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में 28 दिसंबर,1967 को कहते हैं- हमें उन लोगों से भी सावधान रहना चाहिए जो प्रत्येक जनांदोलन के पीछे कम्युनिस्टों का हाथ देखते हैं और उसे दबाने की सलाह देते हैं। जनांदोलन एक बदलती हुयी व्यवस्था के युग में स्वाभाविक और आवश्यक है। वास्तव में वे समाज के जागृति के साधन और उसके द्योतक हैं। हां, यह आवश्यक है कि ये आंदोलन दुस्साहसपूर्ण और हिंसात्मक न हों। प्रत्युत वे हमारी कर्मचेतना को संगठित कर एक भावनात्मक क्रांति का माध्यम बनें। एतदर्थ हमें उनके साथ चलना होगा, उनका नेतृत्व करना होगा। जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं वे इस जागरण से घबराकर निराशा और आतंक का वातावरण बना रहे हैं।
  इस प्रकार हम देखते हैं कि दीनदयाल जी का पूरा लेखन और जीवन एक राजनेता की बेहतर समझ, उसके भारत बोध को प्रकट करता है। वे सही मायने में एक राजनेता से ज्यादा संवेदनशील मनुष्य हैं। उनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुयी है। सादा जीवन और उच्च विचार का मंत्र उनके जीवन में साकार होता नजर आता है। वे अपनी उच्च बौद्धिक चेतना के नाते भारत के सामान्य जनों से लेकर बौद्धिक वर्गों में भी आदर से देखे जाते हैं। एक लेखक के नाते आप दीनदयाल जी को पढ़ें तो अपने विरोधियों के प्रति उनमें कटुता नहीं दिखती। उनकी आलोचना में भी एक संस्कार है, सुझाव है और देशहित का भाव प्रबल है। जन्मशताब्दी वर्ष में उनके जैसे लोकनायक की याद सत्ता में बैठे लोग करेंगें, शेष समाज भी करेगा। उसके साथ ही यह भी जरूरी है कि उनके विचारों का अवगाहन किया जाए, उस पर मंथन किया जाए। वे कैसा भारत बनाना चाहते थे? वे किस तरह समाज को दुखों से मुक्त करना चाहते थे? वे कैसी अर्थनीति चाहते थे?

    दीनदयाल जी को आयु बहुत कम मिली। जब वे देश के पटल पर  अपने विचारों और कार्यों को लेकर सर्वश्रेष्ठ देने की ओर थे, तभी हुयी उनकी हत्या ने इस विचारयात्रा का प्रवाह रोक दिया। वे थोड़ा समय और पाते थे तो शायद एकात्म मानवदर्शन के प्रायोगिक संदर्भों की ओर बढ़ते। वे भारत को जानने वाले नायक थे, इसलिए शायद इस देश की समस्याओं का उसके देशी अंदाज में हल खोजते। आज वे नहीं हैं, किंतु उनके अनुयायी पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में हैं। यह अकारण नहीं है कि इसी वर्ष दीनदयाल जी का जन्मशताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। भाजपा और उसकी सरकार को चाहिए कि वह दीनदयाल जी के विचारों का एक बार फिर से पुर्नपाठ करे। उनकी युगानूकूल व्याख्या करे और अपने विशाल कार्यकर्ता आधार को उनके विचारों की मूलभावना से परिचित कराए। किसी भी राजनीतिक दल का सत्ता में आना बहुत महत्वपूर्ण होता है, किंतु उससे कठिन होता है अपने विचारों को अमल में लाना। भाजपा और उसकी सरकार को यह अवसर मिला है वह देश के भाग्य में कुछ सकारात्मक जोड़ सके। ऐसे में पं.दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों की समझ भी कसौटी पर है। सवाल यह भी है कि क्या दीनदयाल उपाध्याय,कांग्रेस के महात्मा गांधी और समाजवादियों के डा. लोहिया तो नहीं बना दिए जाएंगें? उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्ता के नए सवार दीनदयाल उपाध्याय को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेंगें।

रविवार, 6 सितंबर 2015

हिंदी की जरूरत किसे है?


-संजय द्विवेदी
   अब जबकि भोपाल में 10 सितंबर से विश्व हिंदी सम्मेलन प्रारंभ हो रहा है, तो यह जरूरी है कि हम हिंदी की विकास बाधाओं पर बात जरूर करें। यह भी पहचानें कि हिंदी किसकी है और हिंदी की जरूरत किसे है?
     लंबे समय के बाद दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जिसके मुखिया हिंदी बोलते और उसमें व्यवहार करते हैं। वे एक ऐसे विचार परिवार से आते हैं, जहां हिंदी को प्रतिष्ठा हासिल है। इसी तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी हिंदी प्रेम जाहिर है। विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजक विदेश मंत्रालय ही है, ऐसे में एक ऐसे विदेश मंत्री का होना एक सौभाग्य है,जिसने अपनी सुंदर भाषा के जादू से लोगों को सम्मोहित कर रखा है। इसी तरह हमारे गृहमंत्री भी उ.प्र. की माटी से आते हैं जो वास्तव में हिंदी का ह्दय प्रदेश है। मध्यप्रदेश में इस आयोजन के मायने खास हैं। म.प्र. एक ऐसा राज्य है, जहां हिंदी का वास्तविक सौंदर्य और शक्ति दिखती है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब भोपाल की सड़कों पर व्यापारियों से यह आग्रह करने निकले कि आप अंग्रेजी के साथ बोर्ड पर हिंदी में भी नाम लिखें, तो यह पहल भी साधारण नहीं है। यानि राजनीति के मैदान पर हिंदी इस वक्त बहुत ताकतवर दिखती है।
   सत्ता और समय दोनों हिंदी के साथ दिखता है। फिर हिंदी इतनी दयनीय क्यों? क्या हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति में कहीं कोई कमी रह गयी है या हम हिंदी को उसकी स्वाभाविक दीनता से निकालने के इच्छुक नहीं दिखते? हिंदी का व्यापक आधार है, उसकी पहुंच, उसके सरोकार सभी कुछ व्यापक हैं किंतु हिंदी कहां है? क्या कर्मकांडों से अलग हिंदी अपनी जगह बना पा रही है? क्या हम चाहते हैं कि वह रोजगार और शिक्षा की भाषा बने? क्या हम आश्वश्त हैं कि हमारी आनेवाली पीढ़ियां हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर भी किसी तरह की हीनता और अपराधबोध की शिकार नहीं बनी रहेंगीं। क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी में दिखता हो तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, उसे शिक्षा से हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात है।
   कितना अच्छा होता कि हमारे न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। दवाएं हमारी भाषा में मिल पातीं। शिक्षा का माध्यम हमारी भारतीय भाषाएं बन पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए चुना है। कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब लोग, मजबूर लोग, अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते तो हिंदी और भारतीय भाषाएं कहां दिखती। मदरसे में गरीब का बच्चा, संस्कृत विद्यालयों में गरीब ब्राम्हणों के बच्चे और अन्य गरीबों के बच्चे, हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे। कई बार लगता है कि गरीबी मिट जाएगी तो हिंदी और भारतीय भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगीं। गरीबों के देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। यही मजबूरी ही राजनेताओं को हिंदी-हिंदी करने को मजबूर कर रही है। मजबूरी का नाम क्या हिंदी भी होता है, यह सवाल भी हमारे सामने खड़ा है। अगर मजबूर के हाथ ही हिंदी के साथ हैं तो हिंदी का हम क्या कर सकते हैं। लेकिन समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर, दो घंटे ज्यादा करके अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। उसने यह काम शुरू कर दिया है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में हिंदी का क्या होगा, उसकी बहनों भारतीय भाषाओं का क्या होगा। हिंदी को मनोरंजन,बाजार,विज्ञापन और वोट मांगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान- विज्ञान, उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आंकी जा रही है किंतु उसकी गहराई कम हो रही है।
   देश की भाषा को हम उपेक्षित करके अंग्रेजी बोलने वाली जमातों के हाथ में इस देश का भविष्य दे चुके हैं। ऐसे में देश का क्या होगा। संतोष है कि इस देश के सपने अभी हिंदी और भारतीय भाषाओं में देखे जा रहे हैं। पर क्या भरोसा आने वाली पीढ़ी अपने सपने भी अंग्रेजी में देखने लगे। संभव है कि वही समय, अपनी भाषाओं से मुक्ति का दिन भी होगा। आज अपने पास-पड़ोस में रह रहे बच्चे की भाषा और ज्ञान के संसार में आप जाएं तो वास्तविकता का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू कर दिया है। उसे हिंदी में लिखते हुए मुश्किलें आ रही हैं, वह अपनी कापियां अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में करता है। इसे रोकना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी पर गौरवान्वित और गलत अंग्रेजी पर दुखी है। हिंदी का यही आकाश है और हिंदी की यही दुनिया है। हिंदी की चुनौतियां दरअसल वैसी ही हैं जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं। चालीस वर्ष की आयु के बाद लोग गीता पढ़ रहे थे, संस्कृत के मूल पाठ को सीखने की कोशिशें कर रहे थे। अंततःसंस्कृत लोकजीवन से निर्वासित सी हो गयी और देश देखता रह गया। आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया  है। वे खत्म हो रही है और अपने साथ-साथ हजारों हजार शब्द और अभिव्यक्तियां समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएं विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं आएगा, इस पर भी सोचिए। वे ताकतें जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहती हैं, एक से वस्त्र पहनाना चाहती हैं,एक से विचारों, आदतों और भाषा से जोड़ना चाहती हैं, वे साधारण नहीं हैं। कपड़े, खान-पान, रहन-सहन, केश विन्यास से लेकर रसोई और घरों के इंटीरियर तक बदल गए हैं। भाषा कब तक और किसे बाँधेगी? समय लग सकता है, पर सावधान तो होना ही होगा। आज भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक होकर देखा जा रहा है, उसकी तारीफ की जा रही है कि आपकी हिंदी बहुत अच्छी है। वहीं शेष भारत के संवाद की शुरूआत मेरी हिंदी थोड़ी वीक है कहकर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं। पर खतरे को समझकर आज ही हमने अपनी तैयारी नहीं की तो कल बहुत देर जाएगी। विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने क्या इस बात पर सोच सकते हैं कि अब जमाने को भी बता दें कि हिंदी की जरूरत हमें है।

बुधवार, 2 सितंबर 2015

सुधीर सक्सेना होने के मायने

-संजय द्विवेदी

  सुधीर भाई भिगो देने वाली आत्मीयता के धनी कवि-पत्रकार हैं। अपने फन के माहिर, एक बेहद जीवंत भाषा के धनी, कवि और कविह्दय दोनों। वे ज्यादा बड़े कवि हैं या ज्यादा बड़े पत्रकार, यह तय करने का अधिकारी मैं नहीं हूं, किंतु इतना तय है कि वे एक संवेदनशील मनुष्य हैं, अपने परिवेश से गहरे जुड़े हुए और उतनी ही गहराई से अपनों से जुड़े हुए। जाहिर तौर पर यही एक गुण (संवेदनशीलता) एक अच्छा कवि और पत्रकार दोनों गढ़ सकता है। मुझे याद है माया के वे उजले दिन जब वह हिंदी इलाके की वह सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका हुआ करती थी। सुधीर जी की लिखी रिपोर्ट्स पढ़कर हमारी पूरी पीढ़ी ने राजनीतिक रिपोर्टिंग के मायने समझे। वे मध्यप्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से कम रोमांचक और दो-ध्रुवीय राजनीति में रहने वाले राज्य से भी जो खबरें लिखते थे, उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का पता चलता था। उनकी राजनीति को समझने की दृष्टि विरल है। वे अपनी भाषा से एक दृश्य रचते हैं जो सामान्य पत्रकारों के लिए असंभव ही है। उनका लेखन अपने समय से आगे का लेखन है। उनकी यायावरी, लगातार अध्ययन ने उनके लेखन को असाधारण बना दिया है। उनकी कविताएं मैंने बहुत नहीं पढ़ीं क्योंकि मैं साहित्य का सजग पाठक नहीं हूं किंतु मैं उनके गद्य का दीवाना हूं। आज वे कहीं छपे हों, उन्हें पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाता।
यकीन से भरा कविः
  एक अकेला आदमी कविता, पत्रकारिता, अनुवाद, संपादन और इतिहास-लेखन में एक साथ इतना सक्रिय कैसे हो सकता है। लेकिन वे हैं और हर जगह पूर्णांक के साथ। ऐसे आदमी के साथ जो दुविधा है उससे भी वे दो-चार होते हैं। एक बार सुधीर भाई ने अपने इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहा था कि संजय, पत्रकार मुझे पत्रकार नहीं मानते और साहित्यकार मुझे साहित्यकार नहीं मानते।  मैंने सुधीर जी से कहा था सर आप पत्रकार या साहित्यकार नहीं है, जीनियस हैं। उनके कविता संग्रहों के नाम देखें तो वे आपको चौंका देगें, वे कुछ इस प्रकार हैं- समरकंद में बाबर, बहुत दिनों के बाद, काल को नहीं पता, रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यकीन। कविताओं से मेरी दूरी को भांपकर भी वे मुझे अपनी कविता की किताब देते हैं। एक बार एक ऐसी ही किताब पर उन्होंने लिखकर दिया-
यकीन मानो
एक दिन पढ़ेंगें
लोग
कविता की
नयी किताब
   सच, मुझे लगा कि यह एक दिग्गज पत्रकार की हमारे जैसे अपढ़ पत्रकारों को सलाह थी कि भाई शब्दों से भी रिश्ता रखो। सुधीर जी की कविताएं सच में उम्मीद और प्रेम की कविताएं हैं। उनके मन में जो आद्रता है वही कविता में फैली है। उन्होंने समरकंद में बाबर में जिस तरह बाबर को याद किया है, वह पढऩा अद्भुत है। माटी और उसकी महक कैसे दूर तक और देर तक व्यक्ति की स्मृतियों का हिस्सा होती है, यह कविता संग्रह इसकी गवाही देता है। बाबर के सीने, होंठों, आंखों सबमें समरकंद था, पर बाबर समरकंद में नहीं था। यह कल्पना भी किसी साधारण कवि की हो नहीं सकती। वे समय से आगे और समय से पार संवाद करने वाले कवि हैं। उनकी कविताएं अपने परिवेश और दोस्तों तक भी जाती हैं। दोस्तों को वे अपनी कविताओं में याद करते हैं और सही मायने में अपने बीते हुए समय का पुर्नपाठ करते हैं। उनका कवि इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह सिर्फ कहने के लिए नहीं कहता। यहां कविता आत्म का विस्तार नहीं है बल्कि वह समय और उसकी चुनौतियों से एकात्म होकर पूर्णता प्राप्त कर रही है। उनकी कविता टुकड़ों में नहीं है, एक थीम को लेकर चलती है। चार पंक्तियों में कविता करके भी वे अपना पूरा पाठ रचते हैं। उनकी कविता में प्रेम की अतिरिक्त जगह है। यही प्रेम हमारे समय में सिकुड़ता दिखता है तो उनकी कविता में ज्यादा जगह घेर रहा है।
माटी की महकः
 सुधीर सक्सेना कहां के हैं, कहां से आए, तो आपको साफ उत्तर शायद न मिलें। हम उन्हें भोपाल और दिल्ली में एक साथ रहता हुआ देखते हैं। रायपुर-बिलासपुर उनकी सांसों में बसता है तो लखनऊ से उन्होंने पढ़ाई लिखाई कर अपनी यात्रा प्रारंभ की। लखनऊ में जन्मे और पले-बढ़े इस आदमी ने कैसे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश को अपना बना लिया इसे जानना भी रोचक है। उनके दोस्त तो पूरे ग्लोब पर बसते हैं पर उनका दिल मुझसे कोई पूछे तो छत्तीसगढ़ में बसता और रमता है। यह सिर्फ संयोग है कि मैं भी लखनऊ से अपनी पढ़ाई कर भोपाल आया और रायपुर और बिलासपुर में मुझे भी रमने का अवसर मिला। जब मैं बिलासपुर-रायपुर पहुंचा तो सुधीर जी छत्तीसगढ़ छोड़ चुके थे। लेकिन हवाओं में उनकी महक बाकी थी। उनके दोस्तों में मप्र सरकार में मंत्री रहे स्व.बीआर यादव से लेकर पत्रकार रमेश नैयर, साहित्यकार तेजिंदर तक शामिल थे। साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता तीनों के शिखर पुरूषों तक सुधीर की अंतरंगता जाहिर है। वे यारों के यार तो हैं कई मायने में खानाबदोश भी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने भाभी-बच्चों के लिए तो घर बनाया और सुविधाएं जुटायीं पर खुद वे यायावर और फकीर ही हैं। जिन्हें कोई जगह बांध नहीं सकती। अपने परिवार पर जान छिड़कने वाली यह शख्सियत घर में होकर भी एक सार्वजनिक निधि है। इसलिए मैंने कहा कि उन्हें आपको हर जगह पूर्णांक देना होगा। उनकी सदाशयता इतनी कि आप उन्हें काम का आदमी मानें न मानें अगर आप उनके कवरेज एरिया में एक बार आ गए तो उनके फोन आपका पीछा करते हैं। जिंदगी की रोजाना की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी उनमें एक स्वाभिमानी मनुष्य है जो निरंतर चलता है और रोज नई मंजिलें छूता है। अथक परिश्रम, अथक यात्राएं और अथक अध्ययन। आखिर सुधीर भाई चाहते क्या हैं? उनके दोस्त उनसे मुंह मोड़ लें पर वे हर दिन नए दोस्त बनाने की यात्रा पर हैं। बिना थके, बिना रूके। सही मायने में उनमें कोलंबस की आत्मा प्रवेश कर गयी है। कई देशों को नापते, कई शहरों को नापते, तमाम गांवों को नापते वे थकते नहीं है। वे आज भी एक पाक्षिक पत्रिका दुनिया इन दिनों के नियमित संपादन-प्रकाशन के बीच भी अपनी यायावरी के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उनकी यही जिजीविषा तमाम लोगों को हतप्रभ करती है।
 स्मृतियों का व्यापक संसारः
  आजकल वे भोपाल में कम होते हैं। होंगे तो मुझे बुलाकर मिलेंगें जरूर। आत्मीयता से भीगा उनका संवाद और निरंतर लिखने के लिए कहना वे नहीं भूलते। वे ही हैं जो कहते हैं लिखो, लिखो और लिखो। उनका सामना करने से संकोच होता है। उनकी सक्रियता मन में अपराधबोध भरती है। उनका बहुपठित होना, एक आईने की तरह सामने आता है। अपने दोस्तों,परिवेश और सूखते रिश्तों के बीच वे एक जीवंत उपस्थिति हैं। वे इस निरंतर नकली हो रही दुनिया में खड़े एक असली आदमी की तरह हैं। वे अपने अनुभव साझा करते हैं, सावधानियां भी बताते हैं पर खुद सब कुछ मन की करते हैं। उनके पास बैठना एक ऐसे वृक्ष की छांव में बैठना है जहां सुरक्षा है, ढेर सी आक्सीजन है, ढेर सा प्यार है और स्मृतियों का व्यापक संसार है। सुधीर जी ने एक लंबी और सार्थक पारी खेली है। उनका पहला दौर बहुतों के जेहन में है। उम्मीद है कि वे अभी एक बार और अपने जीनियस होने का यकीन कराएंगें। उनसे कुछ खास रचने का यकीन हमें है, वे तो कभी नाउम्मीद होते ही नहीं। उनके सफल,सार्थक और दीर्घजीवन की कामनाएं।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

बिहार चुनावः अग्निपरीक्षा किसकी?

-संजय द्विवेदी
    बिहार का चुनाव वैसे तो एक प्रदेश का चुनाव है, किंतु इसके परिणाम पूरे देश को प्रभावित करेंगें और विपक्षी एकता के महाप्रयोग को स्थापित या विस्थापित भी कर देगें। बिहार चुनाव की तिथियां आने के पहले ही जैसे हालात बिहार में बने हैं, उससे वह चर्चा के केंद्र में आ चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां तीन रैलियां कर चुके हैं। एक खास पैकेज भी बिहार को दे चुके हैं। वहीं दूसरी ओर यह चुनाव नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के लिए भी जीवन-मरण का प्रश्न है। मोदी तो केंद्र में हैं और प्रधानमंत्री रहेंगें किंतु अगर लालू-नीतिश की सेना हारती है तो उनके लिए केंद्र में तो जगह है नहीं, राजनीतिक जमीन भी जाएगी।
कसौटी पर है टीम मोदी का राजनीतिक कौशलः
   बदले राजनीतिक परिदृश्य में कभी नीतिश कुमार की सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी अब दुश्मन नंबर वन है। मोदी के भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आते ही नीतीश कुमार और जनता दल यू के साथ रिश्ते बिगड़ गए थे। इन अर्थों में मोदी और नीतिश कुमार पुराने राजनीतिक प्रतिद्वंदी हैं, जो लोकसभा चुनाव के बाद फिर विधानसभा चुनाव में भी एक-दूसरे के सामने है। राज्य में किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित न करके भाजपा ने मोदी के नेतृत्व और चेहरे को ही आजमाने का फैसला किया है। यह फैसला भी कम साहसिक नहीं है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह वैसे भी अपने राजनीतिक दुस्साहस के लिए ख्यात हैं। दिल्ली राज्य के प्रयोग में असफलता के बावजूद उनका आत्मविश्वास चरम पर है। बिहार चुनाव दरअसल मोदी के साथ शाह के संगठन कौशल की भी परीक्षा है। संभावित चुनाव के चलते ही मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में भाजपा के पांच और सहयोगी दलों के 2 मंत्रियों को जगह दी थी। यह संयोग मात्र नहीं है कि भाजपा के रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूढ़ी, राधामोहन सिंह, गिरिराज सिंह, रामकृपाल यादव और सहयोगी दलों के रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री हैं। बावजूद इसके अनंत कुमार और धर्मेंद्र प्रधान जैसे दो अन्य मंत्री भी बिहार के मैदान में उतारे गए हैं। इसके साथ ही राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव और गुजरात के सांसद सीआर पाटिल भी बिहार में सक्रिय हैं। शाहनवाज हुसैन को भागलपुर रैली का प्रभारी बनाया गया तो जदयू में रहे साबिर अली को ऐन चुनाव के पहले पार्टी ने प्रवेश दिया। जबकि पहले उठे विवाद में उन्हें पार्टी में शामिल कर तुरंत हटा दिया गया था। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को राजग में लाकर भाजपा अध्यक्ष ने एक बड़ा दांव चला है। इसके साथ ही सवाल यह भी है कि क्या भाजपा अपने संगठनात्मक आधार पर ही यह चुनाव लड़ेगी या संघ परिवार के स्वयंसेवक भी उसके साथ मैदान में उतरेगें। दिल्ली में हुयी कड़वाहटों के बाद अगर समन्वय बन सका तो संघ एक बड़ी ताकत भाजपा को दे सकता है। लोकसभा चुनाव में जिस प्रतिबद्धता से संघ के स्वयंसेवक मैदान में उतरे, क्या वह तेजी संघ दिखाएगा यह आज भी एक बड़ा सवाल है।
शाह चूके तो उठ खड़े कई होंगें शांता कुमारः
  नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कार्यशैली से परंपरागत नेतृत्व तो आहत है ही तमाम लोग गुस्से से भरे हैं। दिल्ली चुनाव के बाद अगर बिहार चुनाव में भी पराजय मिलती है तो शाह के लिए कदम-कदम पर शांता कुमार जैसे लोग दिखेंगें। बिहार में शत्रुध्न सिन्हा और कीर्ति आजाद तो अपनी असहमतियां जताते ही रहते हैं। बिहार चुनाव के नकारात्मक परिणाम अमित शाह के लिए भारी पड़ सकते हैं। जबकि अगर भाजपा बिहार जीत जाती है तो अमित शाह का डंका एक बार फिर बज सकता है और उनके विरोधी हाशिए लग सकते हैं। भाजपा ने रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी की पार्टियों से तालमेल कर दलितों-पिछड़ों की गोलबंदी बनाने की कोशिश भी की है, जिसमें वह अपने वोट आधार को मिलाकर एक बड़ी ताकत बनना चाहती है। बिहार के लोकसभा चुनावों के परिणामों से वह आत्मविश्वास से भरी भी है, किंतु यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि यह राज्य का चुनाव है और इसके मुद्दे बहुत अलग हैं। इस मायने में बिहार का चुनाव देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाला चुनाव भी है।
दांव पर है सामाजिक न्याय की शक्तियों का भविष्यः

 बिहार अरसे से सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि रहा है लालूप्रसाद यादव और नीतिश कुमार इसके प्रमुख चेहरे बने। किंतु टूट-फूट और बिखराव ने इस सामाजिक शक्ति को कई खेमों में बांट दिया है। भाजपा ने भी अपने सामाजिक आधार का विस्तार करते हुए, हर समाज में नेता खड़े कर दिए हैं। आज भाजपा के पास राज्य में भी सुशील कुमार मोदी और नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े वर्ग से आने वाले चेहरे हैं, तो गठबंधनों के माध्यम से उसने अपना सामाजिक आधार मजबूत ही किया है। इस अर्थ में लालू और नीतिश कुमार के लिए यह चुनाव अस्तित्व की परीक्षा भी हैं। शायद इस गंभीर खतरे को भांपकर ही दोनों साथ आए हैं। अब वे केजरीवाल को साथ लाकर अपने सामाजिक आधार को व्यापक करने की कवायद में हैं। यह देखना भी गजब है कि लालू यादव के साथ नीतिश कुमार व केजरीवाल वोट मांगने निकले हैं। राजनीति इसीलिए संभावनाओं का नाम है और यहां ऐसे प्रयोगों की सफलता काफी मायने रखती है। बिहार का चुनाव इस अर्थ में खास है कि अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो भाजपा के खिलाफ अन्य राज्यों में विपक्षी पार्टियां इसी तरह गोलबंद होंगीं। दिल्ली वाया बिहार नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों की यह एकजुटता एक अलग लहर पैदा कर सकती है, जिसके परिणाम उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में एक अलग दृश्य खड़ा कर सकते हैं। कुल मिलाकर बिहार में जो भी होगा वह मोदी-शाह और नीतिश-लालू के लिए एक बड़ा सबक होगा। बिहार की जमीन से निकला संदेश भारतीय राजनीति के वर्तमान चित्र को एक नई दिशा देने वाला साबित हो सकता है। हां गजब यह कि कांग्रेस इस राज्य में अरसे अप्रासंगिक है, आने वाले चुनाव में उसका कोई बड़ा रोल नहीं है। नीतिश को भी सोनिया-राहुल के बजाए अरविंद केजरीवाल ज्यादा उपयोगी दिख रहे हैं। एक राष्ट्रीय दल की इस बेबसी पर दया आती है। किंतु इतना तय है कि बिहार में यदि नीतिश कुमार जीतते हैं तो कांग्रेस उसे अपनी जीत मानकर खुश हो  लेगी। खासकर उप्र और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस के पराभव की यह कहानी जारी रहनी है किंतु मोदी का अश्वमेघ यदि बिहार ने रोक लिया तो भाजपा में भी भारी उथल-पुथल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

सोमवार, 24 अगस्त 2015

आओ, हिंदी की भी सोच लें भाई

भारतीय भाषाओं की एकजुटता से ही देश की भाषा में बोलेगा भारत
-संजय द्विवेदी


   सितंबर का महीना आ रहा है। हिंदी की धूम मचेगी। सब अचानक हिंदी की सोचने लगेंगें। सरकारी विभागों में हिंदी पखवाड़े और हिंदी सप्ताह की चर्चा रहेगी। सब हिंदीमय और हिंदीपन से भरा हुआ। इतना हिंदी प्रेम देखकर आंखें भर आएंगी। वाह हिंदी और हम हिंदी वाले। लेकिन सितंबर बीतेगा और फिर वही चाल जहां हिंदी के बैनर हटेंगें और अंग्रेजी का फिर बोलबाला होगा। इस बीच भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन भी होना है। यहां भी दुनिया भर से हिंदी प्रेमी जुटेगें और हिंदी के उत्थान-विकास की बातें होगीं। ऐसे में यह जरूरी है कि हम हिंदी की विकास बाधा पर भी बात करें। सोचें कि आखिर हिंदी की विकास बाधाएं क्या हैं?
  एक तो यह बात मान लेनी चाहिए कि हिंदी अपने स्वाभाविक तरीके से, सहजता के नाते जितनी बढ़नी थी, बढ़ चुकी है। अब उसे जो कुछ चाहिए वह इस तरह के कर्मकांडों से नहीं होगा। अब उसे जो कुछ दे सकती है सत्ता दे सकती है, राजनीतिक इच्छाशक्ति और संकल्प दे सकते हैं। पर क्या हमारी राजनीतिक,प्रशासनिक और न्यायिक संस्थाएं हिंदी को उसका हक देने के लिए तैयार हैं? यही सवाल भारत की सभी भाषाओं के सामने है। अगर सत्ता हक देना चाहती है, तो उसे किसने रोक रखा है? क्या वे अनंतकाल तक किसी शुभ मूहूर्त की प्रतीक्षा में ही रहेंगी या वे आगे बढ़कर हिंदी को, भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने का फैसला करेंगीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं में भारतीय नागरिकों को न्याय सुलभ होना चाहिए, आखिर इस फैसले पर किसे आपत्ति हो सकती है। पर है और बहुत गहरी आपत्ति है। न्याय भी हमें एक विदेशी भाषा में मिलता है,पर हम विवश हैं। इस विवशता में जो कुछ छिपा हुआ है उसे समझने की जरूरत है।   इसी तरह हमारी उच्चशिक्षा का माध्यम भी कमोबेश एक विदेशी भाषा है। ज्यादातर भारत को इस तरह अज्ञानी रखने का षडयंत्र समझ से परे है। सत्ता आती है, जाती है किंतु हिंदी का सवाल वहीं का वहीं है। देश हिंदी में बोलता है, सोचता है, सांसें लेता है, सपने देखता है, अपने आंदोलन-संघर्ष करता है। किंतु अध्ययन-अध्यापन-रोजगार में सफलता की गारंटी तभी है जब आप अंग्रेजीदां भी हों। यहां किसी भाषा का विरोध या समर्थन का भाव नहीं है बल्कि अपनी भाषा के लिए आदर का भाव है। अगर भारतीय भाषाएं रोजी-रोजगार और शिक्षा की भाषा नहीं बन सकीं तो इसका जिम्मेदार कौन है? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर आजादी के आंदोलन के सभी सिपाहियों ने अगर हिंदी को आजादी के आंदोलन की भाषा माना और कहा कि यही भाषा देश को एक सूत्र में बांध सकती है तो आजादी के बाद ऐसा क्या हुआ कि हिंदी उपेक्षिता हो गयी? सही मायने में अतिलोकतंत्र और सुनियोजित साजिशों ने हिंदी को उसके स्थान से गिराया और जनभावनाओं की उपेक्षा की।
    जो देश अपनी भाषा में शिक्षा न हासिल कर सके, राज न चला सके, न्याय न कर सके, न न्याय पा सके उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? हिंदी की वैश्विक लोकप्रियता के बावजूद, उसके व्यापक आधार के बाद भी हिंदी आज भी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी तो इसके कारणों पर विचार करना होगा। देश की आजादी के बाद आखिर क्या हमारी सोच, एकता और सद्भावना के सूत्र बदल गए हैं? क्या आज हम ज्यादा विभाजित हैं और अपनी क्षेत्रीय अस्मिताओं को प्रति ज्यादा आस्थावान हो गए हैं? राष्ट्रीयता का भाव और उसकी भावना कम हो रही है? अगर ऐसा हुआ है तो क्या इन आजादी के सालों में हमने अपनी जड़ों से दूर जाने का काम किया है। जड़ों से दूर होता समाज क्या अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों को पूर्ण कर पाएगा? भाषा के सवाल पर आज जिस तरह हम बंटे हैं और निरंतर बांटे जा रहे हैं उससे लगता है कि अंग्रेजी लंबे समय तक राजरानी बनी बैठी रहेगी। हालात यह हैं कि आज अंग्रेजी समर्थकों की जमात आजादी की प्रप्ति के वर्ष से ज्यादा ताकतवर है। यह कितना बड़ा अन्याय है कि देश की सबसे लोकप्रिय भाषा (हिंदी) के स्थान पर अंग्रेजी का राज प्रकारांतर से कायम है। राज्यों में भारतीय भाषा और देश में हिंदी भाषा का प्रभाव होना था किंतु आज देश से लेकर प्रदेश की राजधानियों तक कामकाज की भाषा अंग्रेजी बनी हुयी है। एक विदेशी भाषा को अपनाते हुए हमें संकोच नहीं है, किंतु हम हिंदी के खिलाफ एक खास मानसिकता से ग्रस्त हैं। हिंदी की एक लंबी विरासत, उसकी बड़ी भौगोलिक उपस्थिति के बाद भी हमें हिंदी के प्रति दुर्भाव को रोकना के सचेतन प्रयास करने होंगें।
   राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को खुद को साबित करने के लिए किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। किंतु उसकी उपेक्षा के चलते वह इस रूप में खड़ी दिखती है। राजनीति के क्षेत्र में सभी राजनीतिक दल हिंदी में वोट मांगते हैं किंतु हिंदी के सवाल पर एकजुटता नहीं दिखाते। राज्यों में प्रांतीय भाषाएं और देश में हिंदी इस नारे के साथ हमें आगे आना होगा। सच कहें तो कोई भी राजनीतिक दल भाषा के सवाल पर ईमानदार नहीं है और बाबुओं की तो कहिए मत- इसी अकेली अंग्रेजी के दम पर उनका राज चल रहा है इसलिए वे भला क्यों चाहेंगे कि अंग्रेजी इस देश से विदा हो।
   हिंदी के सम्मान की बहाली का काम अब राजनीति और संसद का ज्यादा है, जनता इसमें बहुत कुछ नहीं कर सकती। बड़ा खतरा यह है कि जिस तरह समाज अंग्रेजी शिक्षा के साथ अनूकूलित हो रहा है और सहजता से नई पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की ओर जा रही है, के चलते देर-सबरे हिंदी और भारतीय भाषाओं के सामने एक बड़ा बौद्धिक संकट खड़ा होगा। यह सवाल भी सामने खड़ा है कि क्या हिंदी और भारतीय भाषाएं सिर्फ वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा बनकर रह जाएंगीं? हिंदी और भारतीय भाषाओं के सामने यह चुनौती भी है कि वे खुद को उच्चशिक्षा, शोध और अनुसंधान की भाषा के रूप में खुद को स्थापित करें। राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए जनसंगठन और सामाजिक संगठन आगे आएं, हमारी भाषाएं इस बाजार की आंधी में तभी बचेंगी। यह भी आवश्यक है कि सभी भारतीय भाषाएं, अंग्रेजी और अंग्रजियत के इस मायाजाल के खिलाफ एकजुट हों।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)


शनिवार, 8 अगस्त 2015

खो रही है चमकः कुछ करिए सरकार

-संजय द्विवेदी

  नरेंद्र मोदी के चाहने वाले भी अगर उनकी सरकार से निराशा जताने लगे हों तो यह उनके संभलने और विचार करने का समय है। कोई भी सरकार अपनी छवि और इकबाल से ही चलती है। चाहे जिस भी कारण से अगर आपके चाहने वालों में भी निराशा आ रही है तो आपको सावधान हो जाना चाहिए।
   नरेंद्र मोदी की सरकार पहले दिन से ही अपने विरोधियों के निशाने पर है। दिल्ली में बसनेवाला एक बड़ा वर्ग उन्हें आज भी स्वीकार नहीं करता। उनका प्रधानमंत्री बनना उनकी उम्मीदों और आशाओं पर तुषारापात जैसा ही था। नरेंद्र मोदी अपनी छवि और वकृत्वकला के चलते ही भले ही लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं किंतु एक बड़ी बौद्धिक दुनिया के लिए वे नफरत के ही पात्र हैं। इसलिए उनके हर फैसले और वक्तव्य की नुक्ताचीनी होती है। यूपीए-3 के इंतजार में बैठे बौद्धिकों-मीडिया के एक खास तबके लिए नरेंद्र मोदी की सरकार का पूर्ण बहुमत में आना एक ऐसा झटका था, जिससे वे आज तक उबरे नहीं हैं। इसलिए विरोधियों की जमात से आलोचना के स्वरों का बहुत मतलब नहीं है किंतु अगर राहुल बजाज जैसे उनके प्रशंसक भी निराश दिखते हैं तो सवाल उठता है कि आखिर गड़बड़ कहां हो रही है? जब मोदी आए तो उनके साथ सपनों की एक लंबी फेहरिस्त थी। उन्होंने उम्मीदें जगायीं और लोगों ने उनको स्वीकार किया। यह उम्मीदें और सपने ही अब उनका पीछा कर रहे हैं। यह पीछा ऐसा कि नरेंद्र मोदी उनसे पीछा नहीं छुड़ा सकते।
    उद्योग जगत में तमाम चिंताएं व्याप्त हैं, तो लोगों को भी लगने लगा है कि बदलाव की गति बहुत धीमी है। सरकार के काम करने का तरीका और उसका तंत्र अपेक्षित संवेदनाओं से युक्त नहीं है। उनकी वही चाल है और लोगों को परेशान करने वाली शैली बदस्तूर है। भारतीय नौकरशाही का चरित्र अपने आप में बहुत अजूबा है और वह राजनीतिक तंत्र को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेने की कला में बहुत प्रवीण है। यही तंत्र अंततः जनविरोधी तंत्र में बदल जाता है। सामान्य तरीके संघर्ष कर संसद और फिर मंत्रालयों में पहुंचे जनप्रतिनिधि अचानक खास वर्ग के प्रतिनिधि बन जाते हैं। सत्ता और प्रशासन का तंत्र उन्हें आम आदमी से काट देता है। नौकरशाही उनकी माई-बाप बन जाती है। नरेंद्र मोदी भी बहुलतः नौकरशाही के आधारतंत्र पर भरोसा करने वाले और राजनीतिक तंत्र को दूसरे दर्जे पर रखने वाले राजनेता हैं। इससे राजनीतिक तंत्र की शक्ति तो कम होती ही है और नौकरशाही भी बेलगाम हो जाती है। मंत्रियों और नौकरशाही के बीच के तनावपूर्ण संबंध विकसित होते हैं और काम पीछे छूटता है। आज हालात यह हैं कि एनडीए सांसदों के बीच भी अपनी ही सरकार के प्रति गहरा असंतोष है। यह असंतोष संवादहीनता, काम की शिथिल गति, समस्याओं के समाधान के लिए उदासीन रवैये से पनपा है। शायद इसीलिए उद्योगपति राहुल बजाज की चेतावनी को अनसुना करने का समय नहीं हैं। केंद्र सरकार को यह मान लेना चाहिए कि राहुल बजाज, कोई शत्रुध्न सिन्हा नहीं हैं। वे एक जाने-माने उद्योगपति और सही बातें कहने वाले व्यक्ति हैं। ऐसे व्यक्ति की चेतावनी को अनसुना कर केंद्र सरकार और भाजपा अपना ही नुकसान करेगी।
   सरकार को इस बात पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि 2014 में जो महानायक हमें मिला था आज उसकी चमक फीकी क्यों पड़ रही है? ऐतिहासिक विजय का शिल्पकार क्यों बड़े सवालों पर बात नहीं करता? भारत जैसे देश में जहां एक बड़ी युवा आपकी तरफ उम्मीदों से देख रही है, उसके सपनों को संबोधित करना नेतृत्व की जिम्मेदारी है। इसके साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद की बढ़ती गतिविधियों पर केंद्र की अपेक्षित सक्रियता का इंतजार है। विपक्ष के आरोपों से पूरी सरकार हिलती हुयी नजर आ रही है और बिना कुछ गलत किए खुद को कटघरे में पा रही है। नरेंद्र मोदी जैसे नेता के लिए इंतजार भारी पड़ सकता है, क्योंकि वे एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो उम्मीदों के पहाड़ पर ही खड़ा है। नरेंद्र मोदी की सरकार की विफलता को मनमोहन की विफलता से मत जोड़िए, क्योंकि मनमोहन सिंह की सरकार एक मजबूर सरकार थी, जिससे लोगों को बहुत उम्मीदें नहीं थीं। आज मोदी की सरकार लोगों के सपनों, उम्मीदों और आकांक्षाओं की सरकार है। किंतु वह उन्हीं कठघरों में उलझ रही है जिनके चलते मनमोहन सरकार विफल हुयी।
   नौकरशाही पर ज्यादा भरोसा, राजनीतिक तंत्र की उपेक्षा, मंत्रियों का अंहकार और सांसदों की निराशा इस सरकार का सबसे बड़ा संकट है। सरकार को संभालने और संवाद के माध्यम से चीजों को दुरूस्त कर सकने वाले मार्गदर्शक भी कोप भवन में हैं। लालकृष्ण आडवानी, डा. मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का उपयोग क्राइसिस मैनेजमेंट के लिए हो सकता था। वे सरकार और कार्यकर्ताओं के बीच संवादसेतु भी बन सकते थे। किंतु एक पूरी पीढ़ी को घर बिठाकर, सरकार उनके विकल्प में समर्थ संवादकर्ता तंत्र विकसित नहीं कर पाई। एक अकेले प्रधानमंत्री और उनके सेनापति अमित शाह को अपनी क्षमताओं पर जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए। अंततः एक विशाल परिवार की पार्टी होने के नाते भाजपा को संवाद के कई तल खोलने ही होगें। जहां लोगों के काम भले न हों पर बातें तो सुन ली जाएं। इस मामले में भाजपा की सांगठनिक विफलता और सरकारी दिशाहीनता दोनों ही उसे नुकसान पहुंचाएगी।

   जिस नौकरशाही ने आजतक किसी भी सरकार को चलने नहीं दिया और उसे उसके सपनों के साथ ही दफन कर दिया। जो नौकरशाही खुद को असली शासक मानने के अहंकार से भरी हुई हैं, वह इस देश में लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने में सबसे बड़ी बाधक है। नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी इस बात को जितनी जल्दी समझ लेगें, चमक खोती सरकार की छवि को बचाने में वे उतने ही कामयाब हो पाएंगें। सरकार पांच साल रहेगी और पांच साल बाद हिसाब पूछिए ऐसा दंभ कभी भी किसी को मुक्ति नहीं देता। हर दिन का हिसाब और हर पल लोगों के लिए और इस देश के जनतंत्र के लिए, यह भावना ही भाजपा की सरकार को सार्थकता देगी। भाजपा को पूर्ण बहुमत लोगों ने जुमलों के लिए नहीं, काम करके दिखाने के लिए दिया  है। बदलाव के लिए दिया था। यह बदलाव का वादा सिर्फ चेहरे का बदलाव नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति में बदलाव का भी था। अगर लोग बहुत कम समय में यह कहने लगे हैं कि क्या बदला, सब पहले जैसा है तो सरकार के छवि प्रबंधकों के लिए सचेत होने का समय है। क्योंकि मोदी सरकार की विफलता इस देश की आकांक्षाओं और उसके सपनों की हार होगी।