-संजय द्विवेदी
अब जबकि भोपाल में 10 सितंबर से विश्व हिंदी
सम्मेलन प्रारंभ हो रहा है, तो यह जरूरी है कि हम हिंदी की विकास बाधाओं पर बात
जरूर करें। यह भी पहचानें कि हिंदी किसकी है और हिंदी की जरूरत किसे है?
लंबे समय
के बाद दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जिसके मुखिया हिंदी बोलते और उसमें व्यवहार
करते हैं। वे एक ऐसे विचार परिवार से आते हैं, जहां हिंदी को प्रतिष्ठा हासिल है।
इसी तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी हिंदी प्रेम जाहिर है। विश्व हिंदी
सम्मेलन का आयोजक विदेश मंत्रालय ही है, ऐसे में एक ऐसे विदेश मंत्री का होना एक
सौभाग्य है,जिसने अपनी सुंदर भाषा के जादू से लोगों को सम्मोहित कर रखा है। इसी
तरह हमारे गृहमंत्री भी उ.प्र. की माटी से आते हैं जो वास्तव में हिंदी का ह्दय
प्रदेश है। मध्यप्रदेश में इस आयोजन के मायने खास हैं। म.प्र. एक ऐसा राज्य है,
जहां हिंदी का वास्तविक सौंदर्य और शक्ति दिखती है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री
शिवराज सिंह चौहान जब भोपाल की सड़कों पर व्यापारियों से यह आग्रह करने निकले कि “आप अंग्रेजी के साथ बोर्ड पर हिंदी में भी नाम
लिखें,” तो यह पहल भी साधारण नहीं है। यानि राजनीति के
मैदान पर हिंदी इस वक्त बहुत ताकतवर दिखती है।
सत्ता और समय दोनों हिंदी
के साथ दिखता है। फिर हिंदी इतनी दयनीय क्यों? क्या
हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति में कहीं कोई कमी रह गयी है या हम हिंदी को उसकी
स्वाभाविक दीनता से निकालने के इच्छुक नहीं दिखते? हिंदी
का व्यापक आधार है, उसकी पहुंच, उसके सरोकार सभी कुछ व्यापक हैं किंतु हिंदी कहां
है? क्या कर्मकांडों से अलग हिंदी अपनी जगह बना पा
रही है? क्या हम चाहते हैं कि वह रोजगार और शिक्षा की
भाषा बने? क्या हम आश्वश्त हैं कि हमारी आनेवाली पीढ़ियां
हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर भी किसी तरह की हीनता और अपराधबोध की शिकार
नहीं बनी रहेंगीं। क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे
अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी
में दिखता हो तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, उसे शिक्षा से
हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात
है।
कितना अच्छा होता कि हमारे
न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। दवाएं हमारी भाषा में मिल
पातीं। शिक्षा का माध्यम हमारी भारतीय भाषाएं बन पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए
चुना है। कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब लोग, मजबूर लोग,
अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते तो हिंदी और
भारतीय भाषाएं कहां दिखती। मदरसे में गरीब का बच्चा, संस्कृत विद्यालयों में गरीब
ब्राम्हणों के बच्चे और अन्य गरीबों के बच्चे, हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के
माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे। कई बार लगता
है कि गरीबी मिट जाएगी तो हिंदी और भारतीय भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगीं। गरीबों के
देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। यही मजबूरी ही राजनेताओं को
हिंदी-हिंदी करने को मजबूर कर रही है। मजबूरी का नाम क्या हिंदी भी होता है, यह
सवाल भी हमारे सामने खड़ा है। अगर मजबूर के हाथ ही हिंदी के साथ हैं तो हिंदी का
हम क्या कर सकते हैं। लेकिन समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर, दो
घंटे ज्यादा करके अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। उसने यह
काम शुरू कर दिया है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि
अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में हिंदी का क्या
होगा, उसकी बहनों भारतीय भाषाओं का क्या होगा। हिंदी को मनोरंजन,बाजार,विज्ञापन और
वोट मांगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान- विज्ञान,
उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का
विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आंकी जा रही है किंतु उसकी गहराई
कम हो रही है।
देश की भाषा को हम उपेक्षित
करके अंग्रेजी बोलने वाली जमातों के हाथ में इस देश का भविष्य दे चुके हैं। ऐसे
में देश का क्या होगा। संतोष है कि इस देश के सपने अभी हिंदी और भारतीय भाषाओं में
देखे जा रहे हैं। पर क्या भरोसा आने वाली पीढ़ी अपने सपने भी अंग्रेजी में देखने
लगे। संभव है कि वही समय, अपनी भाषाओं से मुक्ति का दिन भी होगा। आज अपने
पास-पड़ोस में रह रहे बच्चे की भाषा और ज्ञान के संसार में आप जाएं तो वास्तविकता
का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू कर दिया है। उसे हिंदी में लिखते हुए
मुश्किलें आ रही हैं, वह अपनी कापियां अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में
करता है। इसे रोकना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी
पर गौरवान्वित और गलत अंग्रेजी पर दुखी है। हिंदी का यही आकाश है और हिंदी की यही
दुनिया है। हिंदी की चुनौतियां दरअसल वैसी ही हैं जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं।
चालीस वर्ष की आयु के बाद लोग गीता पढ़ रहे थे, संस्कृत के मूल पाठ को सीखने की
कोशिशें कर रहे थे। अंततःसंस्कृत लोकजीवन से निर्वासित सी हो गयी और देश देखता रह
गया। आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया है। वे खत्म हो रही है और अपने साथ-साथ हजारों
हजार शब्द और अभिव्यक्तियां समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएं
विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं
आएगा, इस पर भी सोचिए। वे ताकतें जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहती हैं,
एक से वस्त्र पहनाना चाहती हैं,एक से विचारों, आदतों और भाषा से जोड़ना चाहती हैं,
वे साधारण नहीं हैं। कपड़े, खान-पान, रहन-सहन, केश विन्यास से लेकर रसोई और घरों
के इंटीरियर तक बदल गए हैं। भाषा कब तक और किसे बाँधेगी? समय लग सकता है, पर सावधान तो होना ही होगा। आज
भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक होकर देखा जा रहा है, उसकी
तारीफ की जा रही है कि “आपकी हिंदी बहुत अच्छी है।” वहीं शेष भारत के संवाद की शुरूआत “मेरी हिंदी थोड़ी वीक है” कहकर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने
हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं। पर खतरे को समझकर आज ही हमने अपनी
तैयारी नहीं की तो कल बहुत देर जाएगी। विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने क्या इस बात
पर सोच सकते हैं कि अब जमाने को भी बता दें कि हिंदी की जरूरत हमें है।
साधुवाद..
जवाब देंहटाएंएक सुदृढ़ आलेख
मेरी हिन्दी थोड़ी सी वीक है
कहने वालों के मुख पर कालिख पोतता लेखन
उपकृत हुई मैं
सादर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबचपन के दिनों से ही संजय भाईसाहब जुझारू और ईमानदार प्रयास के संवाहक हैं ----------कलम के इस सच्चे सिपाही को मेरी शुभकामना
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संजय भाई. मेरी टिप्पणी:-इतना भव्य कार्यक्रम पर आम जन से दूर. ५००० प्रवेश शुल्क और पंजीयन २५ अगस्त को बंद. अर्थात अधिकतर वाही लोग जिनके कार्य करने के संसथान इसका खर्चा वहन करेंगे. एजेंडे में भी ना पहले ना बाद में आम जन को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं. मुझे लगता है इस तरह हिंदी को मुग़ल काल की “परशियन” या फिर संस्कृत तो बनाया जासकता है. आम जन के सरोकारों से जोड़ने के लिए शायद आम जन स्वयं प्रयास करे.
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