शनिवार, 9 मई 2015
समाचार पत्रों में छपे लेखों की क्लीपिंग्स
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
शुक्रवार, 8 मई 2015
मोदी सरकारः साल भर चले अढ़ाई कोस
देश के
प्रधानमंत्री के सामने सत्ता को मानवीय और जनधर्मी बनाने की चुनौती
-संजय द्विवेदी
भारतीय जनता पार्टी को पहली बार केंद्र में बहुमत दिलाकर सत्ता में आई
नरेंद्र मोदी की सरकार के एक साल पूर्ण होने पर जो स्वाभाविक उत्साह और जोशीला वातावरण
दिखना चाहिए वह सिरे से गायब है। क्या नरेंद्र मोदी की सरकार से उम्मीदें ज्यादा
थीं और बहुत कुछ होता हुआ न देखकर यह निराशा सिरे चढ़ी है या लोगों का लगता है
मोदी की सरकार अपने सपनों तक नहीं पहुंच पाएगी। सक्रियता, संवाद और सरकार की चपलता
को देखें तो वह नंबर वन है। मोदी आज भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उनके कद का
कोई नेता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। वैश्विक राजनेता बनने की ओर अग्रसर मोदी आज
दुनिया में सुने और सराहे जा रहे हैं। किंतु भारत के भीतर वह लहर थमती हुयी दिखती
है।
दिल्ली
चुनाव के परिणाम वह क्षण थे जिसने मोदी की हवा का गुब्बारा निकाल दिया तो कुशल
प्रबंधक माने जा रहे भाजपा अध्यक्ष का चुनाव प्रबंधन औंधे मुंह पड़ा था। सिर्फ तीन
सीटें जीतकर भाजपा दिल्ली प्रदेश में अपने सबसे बुरे समय में पहुंच गयी तो बिहार
में उसके विरोधी एकजुट हो गए। यह वही समय था, जिसने मोदी की सर्वोच्चता को चुनौती
दी। इधर अचानक लौटे राहुल गांधी के गर्जन-तर्जन और सोनिया गांधी के मार्च ने
विपक्षी एकजुटता को भी मुखर किया। संसद में राज्यसभाई लाचारी पूरी सरकार पर भारी
पड़ रही है और सरकार लोकसभा में बहुमत के बावजूद संसद के भीतर घबराई सी नजर आती
है। वह तो भला हो अरविंद केजरीवाल और उनके नादान दोस्तों का कि वे ऐसी सरकार चला
रहे हैं, जहां रोजाना एक खबर है और उनसे लोगों की उम्मीदें धराशाही हो गयी हैं। यह
अकेली बात मोदी को राहत देने वाली साबित हुयी है। केंद्र की सरकार को एक साल पूरा
करते हुए अपयश बहुत मिले हैं। बिना कुछ गलत किए यह सरकार कारपोरेट की सरकार, किसान
विरोधी सरकार, सूटबूट की सरकार, धन्नासेठों की सरकार जैसे तमगे पा चुकी है।
आश्चर्य यह है कि भाजपा के कार्यकर्ता और उसका संगठन इन गलत आरोपों को खारिज करने
के आत्मविश्वास से भी खाली है। आखिर इस सरकार ने ऐसा क्या जनविरोधी काम किया है कि
उसे खुद पर भरोसा खो देना चाहिए?
नरेंद्र मोदी की ईमानदारी, उनकी प्रामणिकता और जनता से संवाद के उनके निरंतर
प्रयत्नों को क्यों नहीं सराहा जाना चाहिए? एक
कठिन परिस्थितियों से वे देश को प्रगति और विकास की राजनीति से जोड़ना चाहते हैं।
वह संकल्प उनकी देहभाषा और वाणी दोनों से दिखता है। किंतु क्या नरेंद्र मोदी यही
अपेक्षा अपनी टीम से कर सकते हैं? अगर
अरविंद केजरीवाल के नादान दोस्तों ने उनकी छवि जमीन पर ला दी है तो मोदी भी समान
परिघटना के शिकार हैं। उनके दरबार में भी गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति,
आदित्यनाथ, साक्षी महराज जैसे नगीने हैं, जो
उन्हें चैन नहीं लेने देते तो विरोधियों के हाथ में कुछ कहने के लिए मुद्दे पकड़ा
देते हैं।
आप
देखें तो अटल जी के नेतृत्व वाली राजग सरकार का जादू इतनी जल्दी नहीं टूटा था
बल्कि साल पूरा करने पर अटल जी एक हीरो की तरह उभरे थे। यह भरोसा देश में पैदा हुआ
थी कि गठबंधन की सरकारें भी सफलतापूर्वक चलाई जा सकती हैं। अटल जी के नेतृत्व के
सामने भी संकट कम नहीं थे, किंतु उन्होंने उस समय जो करिश्मा कर दिखाया, वह बहुत
महत्व का था। उनकी सरकार ने जब एक साल पूरा किया तो उत्साह चरम पर था हालांकि यह
उत्साह आखिरी सालों में कायम नहीं रह सका। किंतु आज यह विचारणीय है कि वही उत्साह
मोदी सरकार के एक साल पूरे करने पर क्यों नहीं दिखता।
क्या संगठन और सरकार में समन्वय का अभाव है? हालांकि यह शिकायत करने का अधिकार नरेंद्र मोदी
को नहीं है क्योंकि यह माना जाता है कि अमित शाह उनका ही चयन हैं और वे मोदी को
अच्छी तरह समझते हैं। फिर आखिर संकट कहां है? मोदी का
मंत्रिमंडल क्या बेहद औसत काम करने वाली टीम बनकर नहीं रह गया है? उम्मीदों की तरफ भी छलांग लगाती हुयी यह सरकार
नहीं दिखती। संसद में सरकार का फ्लोर मैनेजमेंट भी कई बार निष्प्रभावी दिखता है।
मंत्री आत्मविश्वास से खाली दिखते हैं, किंतु उनका दंभ चरम पर है। कार्यकर्ताओं और सांसदों की न सुनने जैसी शिकायतें एक साल में
ही मुखर हो रही हैं। जाहिर तौर पर दल के भीतर और बाहर बैचेनियां बहुत हैं। संजय
जोशी प्रकरण को जिस तरह से मीडिया में जगह मिली और संगठन से जिस तरह के बर्ताव की
खबरें आयीं, वह चौंकाने वाली हैं। क्या सामान्य शिष्टाचार भी अब अनुशासनहीनता की
श्रेणी में आएंगे, यह बात लोग पूछने लगे हैं। नरेंद्र मोदी के अच्छे इरादों,
संकल्पों के बावजूद समूची सरकार की जो छवि प्रक्षेपित हो रही है, वह बहुत उत्साह
जगाने वाली नहीं है। समन्वय और संवाद का अभाव सर्वत्र और हर स्तर पर दिखता है।
विकास और सुशासन के सवालों के साथ भाजपा के अपने भी कुछ संकल्प हैं। उसके साथ
राजनीतिक संस्कृति में बदलाव की उम्मीदें भी जुड़ी हुई हैं, पर क्या बदल रहा है,यह
कह पाना कठिन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत जल्दी मोदी से ज्यादा उम्मीदें
पाली जा रही हैं। पर यह उम्मीदें तो मोदी ने ही जगाई थीं। वे पांच साल मांग रहे थे,
जनता ने उन्हें पांच साल दिए हैं। अब वक्त डिलेवरी का है। जनता को राहत तो मिलनी
चाहिए। किंतु मोदी सरकार के खिलाफ जिस तरह का संगठित दुष्प्रचार हो रहा है, वह इस
सरकार की छवि पर ग्रहण लगाने के लिए पर्याप्त है।
दिल्ली में आकर मोदी दिल्ली को समझते, उसके
पहले उनके विरोधी एकजुट हो चुके हैं। राजनेताओं में ही नहीं दिल्ली में बहुत बड़ी
संख्या में बसने वाले नौकरशाहों, बुद्धिजीवियों की एक ऐसी आबादी है, जो मोदी को
सफल होते देखना नहीं चाहती। इसलिए मोदी के हर कदम की आलोचना होगी। उन्हें देश की
जनता ने स्वीकारा है, किंतु लुटियंस की दिल्ली ने नहीं। स्वाभाविक शासकों के लिए
मोदी का राजधानी प्रवेश एक अस्वाभाविक घटना है। वे इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा
रहे हैं कि एक राष्ट्रवादी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में विराजी
हुयी है। नरेंद्र मोदी की विफलता में ही इन भारतविरोधी बुद्धिजीवियों और
अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की शक्ति लगी हुयी है। देश के भीतर हो रही साधारण घटनाओं पर
अमरीका की बौखलाहट देखिए। अश्वेतों पर आपराधिक अन्याय-अत्याचार करने वाले हमें
धार्मिक सहिष्णुता की सलाहें दे रहे हैं क्योंकि हम धर्मान्तरण की प्रलोभनकारी
घटनाओं के विरोध में हैं। वे ग्रीनपीस के साथ खड़े हैं क्योंकि सरकार भारतविरोधी
तत्वों पर नकेल कसती हुयी दिखती है। ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी की सरकार को यह
छूट नहीं दी जा सकती कि वह आराम से काम करे। उसके सामने यह चुनौती है कि वह समय
में देश के सामने खड़े जटिल प्रश्नों का हल निकाले। मोदी अपने समय के नायक हैं और
उन्हें यह चुनौतियां स्वीकारनी ही होगीं। साल का जश्न मने न मने, नरेंद्र मोदी और
उनकी टीम को इतिहास ने यह अवसर दिया है कि वे देश का भाग्य बदल सकते हैं। इस
दायित्वबोध को समझकर वे अपनी सत्ता और संगठन के संयोग से एक ऐसा वातावरण बनाएं
जिसमें देश के आम आदमी का आत्मविश्वास बढ़े, लोकतंत्र सार्थक हो और संवाद निरंतर
हो। उम्मीद की जानी कि अपनी सामान्य पृष्ठभूमि की विरासत का मान रखते हुए नरेंद्र
मोदी इस सत्ता तंत्र को आम लोगों के लिए ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय बनाने के
अपने प्रयत्नों को और तेज करेंगें। तब शायद उनके खिलाफ आलोचनाओं का संसार सीमित हो
सके। अभी तो उन्हें लंबी यात्रा तय करनी है।
Labels:
नरेंद्र मोदी,
भाजपा,
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
गुरुवार, 7 मई 2015
कौन हैं जो मोदी को विफल करना चाहते हैं?
-संजय द्विवेदी
क्या सच में नरेंद्र मोदी
और उनकी सरकार का जादू टूट रहा है? अगर
टूट रहा है तो वो कौन है जिसका जादू सिर चढ़कर बोल रहा है? वे कौन लोग हैं जो पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई
देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार को मार्ग से भटकाना चाहते हैं? जाहिर तौर पर सवाल कई हैं पर उनके उत्तर नदारद
हैं। क्या यथास्थितिवादी ताकतें इतनी प्रबल हैं कि वे जनमत का भी आदर नहीं करेंगी
और केंद्र की सरकार को उन्हीं कठघरों में कैद करने में सफल हो जाएंगी, जैसी वो
पिछले तमाम दशकों से कैद है? क्या भारतीय जनता
के प्रबल आत्मविश्वास और भरोसे से उपजा नरेंद्र मोदी और भाजपा का प्रयोग भी एक
सत्ता परिर्वतन की घटना भर बनकर रह जाएगा? भाजपा
को प्यार करने वाले और नरेंद्र मोदी को एक परिवर्तनकामी नेता मानकर उन पर भरोसा
जताने वाले लोग यही सोच रहे हैं। यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर नरेंद्र मोदी
विफल हो जाते हैं तो उससे किसका भला होगा?
एक राष्ट्रवादी दल और
भारतीय जमीन से उपजे विचारों से शक्ति लेने के कारण भाजपा ने आम भारतीय जनमानस की
उम्मीदों को बहुत बढ़ा दिया है। निश्चय ही जब एक राष्ट्रवादी दल सत्ता में आता है
तो समाज को परिवर्तित करने की दिशा में उसके द्वारा प्रभावी कदमों की उम्मीद की ही
जाती है। ऐसे समय में जब बहुत सावधानी से दोस्त और दुश्मन चुनने का समय होता है,
सत्ता-संगठन के गलियारों में निरंतर उपस्थित रहने वाली और उनका उपभोग करने वाली
यथास्थितिवादी ताकतें या दलाल चोला बदलकर तंत्र में पुनः शामिल होने का जतन करते
हैं। भारतीय राजनीति और चुनावी तंत्र ऐसा बन गया है कि इन ताकतों को चुनाव पूर्व
ही सत्ता संघर्ष में शामिल ताकतों के साथ रिश्ता बनाते देखा जा सकता है। ये सही
मायने में पूरे तंत्र को बिगाड़ने, भ्रष्ट बनाने और कई बार भ्रम पैदा करने की
कोशिशें करते हैं। उन्हें उनके संकल्प और पथ से विचलित करना चाहते हैं। क्या
दिल्ली में ऐसी संगठित कोशिशें प्रारंभ नहीं हो गयी हैं? ऐसे कठिन समय में सत्ता में विराजी परिवर्तनकामी
ताकतों को सर्तकता से इन सत्ता के दलालों को हाशिए लगाना होगा। इनकी शक्ति और इनकी
प्रभावी उपस्थिति के बावजूद यह काम करना होगा, वरना इस सरकार की विफलता की पटकथा
ये सब मिलकर लिख देगें।
सत्ता में आते ही सत्य दूर
रह जाता है। नई चमकीली चीजें आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं। अपने कार्य के स्वरूप,
अपने कामों की मीमांशा तब संभव नहीं रह जाती। साथ ही तब जब आप लोगों की सुनने को
तैयार न हों और असहमति के लिए जगह भी सिकुडती जा रही हो, तो यह खतरा और बड़ा हो
जाता है। ऐसे में सत्ता के दलालों की विरूदावली और भाटों का गायन हर शासक को प्रिय
लगने लगता है। मोदी सरकार इन संकटों से दो-चार हो रही है।
किसी भी तरह के परिर्वतन के लिए निष्ठा और
ईमानदारी ही पूंजी होती है। सौभाग्य से देश के प्रधानमंत्री के पास ये दोनों गुण
मौजूद हैं। इसलिए उन्हें संकल्प लेकर ऐसे बदलाव तेजी से करने चाहिए, जिनमें बदलाव
जरूरी हैं। जो परिर्वतन अपरिहार्य हैं वो होने ही चाहिए क्योंकि इतिहास बार-बार
मौके नहीं देता। जो स्थापित वर्ग हैं और जिनके हाथ में पहले से ही साधन और शक्ति
है- सुविधाएं हैं, उनके बजाए सरकार की नजर उन लोगों की ओर जानी चाहिए जो सालों-साल
से छले जा रहे हैं। जिनकी देश की इस चमकीली और बाजारू प्रगति में कोई हिस्सेदारी
नहीं हैं। उन अनाम लोगों की आस्थाएं लोकतंत्र में बनी और बची रहें, इसके लिए सरकार
को यत्न तेज करने होंगें।
अपने वादों के प्रति
ईमानदारी सिर्फ वाणी में ही नहीं, कर्म में भी दिखनी चाहिए। चतुराई के आधार पर
मंचों या संसद में की जा रही व्याख्याओं और उनके पीछे छिपे मंतव्यों को लोग समझते
हैं। इसलिए देहभाषा में सादगी और ईमानदारी दिखनी चाहिए न कि सिर्फ चपलता और
चतुराई। चतुराई के आधार पर की जा रही व्याख्याओं का समय अब जा चुका है। यह बहुत
अच्छी बात है कि हमारे प्रधानमंत्री राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और सरदार पटेल को
अपना आदर्श मानते हैं। उन्हें आदर्श मानते ही मोदी जी के सामने एक ही विकल्प है कि
वे गांधी की ईमानदारी और पटेल की दृढ़ता को अपने राजकाज के संचालन में प्रकट करने
का कोई अवसर न गवाएं।
यह मान लेने में कोई संकोच
नहीं होना चाहिए कि जो लोग प्रभुता संपन्न हैं सिर्फ उन्हें बढ़ाकर किसी देश की
प्रगति संभव नहीं हैं। वह प्रगति आपकी जीडीपी तो बढ़ा सकती है पर देश में छिपे
अंधेरे कायम रहेंगें। यह भी कटु सत्य है कि कोई भी व्यवसायी, व्यवसाय से समझौता
नहीं कर सकता, उसके लिए उसके आर्थिक हित ही प्रधान हैं। भारत भूमि पर व्यापार की
सहूलियतें न मिलीं तो वे विदेश चले जाएंगें, सब कुछ नष्ट हो गया तो मंगल पर
बस्तियां बसा लेगें, किंतु भूमि पुत्रों को तो यहीं रहना है। नरेंद्र मोदी की
सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस दोनों वर्गों के हितों का टकराव रोकने और सबसे
जरूरतमंद पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की है। भाजपा और उसके विचार परिवार के लिए
सोचने और अपने गिरेबान में झांकने का समय है। गांधी अंतकरणः के आधार पर बोलते थे,
इसलिए उन पर भरोसा करने का मन होता था। आज चतुराई, भाषण कौशल से जंग जीतने की
कोशिशें हो रही हैं, जबकि दिल्ली चुनाव में यह सारे चुनावी हथियार धरे रह गए। ये
इस बात की गवाही है कि अंततः आपको लोगों के दिलों में उतरना होता है और उनमें अपनी
कही जा रही बातों के प्रति भरोसा जगाना होता है। भरोसा न टूटे इसके लिए निरंतर
यत्न करना होता है। जब 6 माह में ही दिल्ली प्रदेश का चुनाव भाजपा हार गयी, सवाल
तभी से उठने शुरू हुए हैं। विरोधी एकजुट हो रहे हैं। ऐसे समय में भाजपा को यह
बताना होगा कि आखिर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में जो करिश्मा किया उससे उसने आखिर
क्या सीखा है? भाजपा और उसके नेतृत्व को यह समझना होगा कि
चाटुकारिता से कोई नेतृत्व स्वीकार्य नहीं बनता। संजय जोशी को बधाई देने वालों को
लेकर जैसी खबरें मीडिया में आईं आखिर वह क्या साबित करती हैं? पार्टी के दिग्गज नेताओं की उपेक्षा से लेकर
तमाम ऐसे सवाल हैं जो सामने खड़े हैं। क्या दल अब सामाजिक संबंधों और मानवीय व्यवहारों को भी
नियंत्रित करेगा, यह एक बड़ा सवाल है। एक जमाने में इंदिरा गांधी जी और उनकी
कांग्रेस के बारे में मजाक चलता था कि “इंदिरा
जी अगर किसी खंभे को खड़ा करें तो उसे भी वोट मिल जाएंगें।” किंतु इंदिरा जी अपने समस्त खंभों के साथ चुनाव
हार गयीं। आज राजनीति और देश दोनों बहुत आगे बढ़ चुके हैं। 1977 में सत्ता में आई जनता
पार्टी की सरकार के बारे में लोगों की राय बुरी नहीं थी और बताने वाले बताते हैं
कि यूं लगा कि जैसे कांग्रेस कभी वापस नहीं आएगी। किंतु अनुशासनहीनता तथा नेताओं
के आचरण के चलते जनता पार्टी इतिहास बन गयी और लोग उन्हीं इंदिरा जी को ले आए
जिन्हें उन्होंने हटाया था।
यह स्वीकारने में हिचक नहीं
होनी चाहिए कि भारत अमरीका नहीं है। इसलिए किसी भी सरकार को हमेशा गरीबों और
मध्यवर्ग के साथ ही दिखना होगा। अमीरों के प्रति हमारी सदाशयता हो सकती है किंतु
कोशिश यही होनी चाहिए हम उनके समर्थक के रूप में चिन्हित न हों। यह हमारी राजनीति
की विवशता और दिशाहीनता ही कही जाएगी कि हम गांव तो पहुंचे पर गांव के हो न सके।
शायद इसीलिए भरोसे से खाली किसान अपनी जान देकर भी हमसे कुछ कहना चाहता है। हमारी राजनीति
किसानों के प्रति वाचिक संवेदना से तो भरी है पर समाधानों से खाली है। ऐसे खालीपन को
भरने और भारत से भारत का परिचय कराने के लिए यह सरकार लोगों ने बहुत भरोसे से लाई
है। इस सरकार की विफलता किन्हें खुश करेगी कहने की जरूरत नहीं है, पर लोग एक बार
फिर छले जाएंगें, इसमें संदेह नहीं। यह भरोसा बचा और बना रहे, मोदी की सरकार अपने
सपने सच कर पाए, यही दरअसल भारत चाहता है। यह संभव हो इसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी
नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों की है। उम्मीद है कि वे भारत की जनता और उसके
भरोसे को नहीं यूं ही दरकने देंगें।
Labels:
नरेंद्र मोदी,
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सोमवार, 27 अप्रैल 2015
बौद्धिक विमर्शों से नाता तोड़ चुके हैं हिंदी के अखबार
-संजय द्विवेदी
हिंदी
पत्रकारिता को यह गौरव प्राप्त है कि वह न सिर्फ इस देश की आजादी की लड़ाई का मूल
स्वर रही, बल्कि हिंदी को एक भाषा के रूप में रचने, बनाने और अनुशासनों में बांधने
का काम भी उसने किया है। हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी भाषा बनी, जिसकी
पत्रकारिता और साहित्य के बीच अंतसंर्वाद बहुत गहरा था। लेखक-संपादकों की एक बड़ी
परंपरा इसीलिए हमारे लिए गौरव का विषय रही है। हिंदी आज सूचना के साथ
ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन को व्यक्त करने वाली भाषा बनी है तो इसमें उसकी
पत्रकारिता के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। हिंदी पत्रकारिता ने इस देश की धड़कनों
को व्यक्त किया है, आंदोलनों की वाणी बनी है और लोकमत निर्माण से लेकर लोकजागरण का
काम भी बखूबी किया है।
आज की
हिंदी पत्रकारिता पर आरोप लग रहे हैं कि वह अपने समय के सवालों से कट रही है। उन
पर बौद्धिक विमर्श छेड़ना तो दूर वह उन मुद्दों की वास्तविक तस्वीर सूचनात्मक ढंग
से भी रखने में विफल पा रही है तो यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर ऐसा क्यों है।
1990 के बाद के उदारीकरण के सालों में अखबारों का सुदर्शन कलेवर, उनकी शानदार
प्रिटिंग और प्रस्तुति सारा कुछ बदला है। वे अब पढ़े जाने के साथ-साथ देखे जाने
लायक भी बने हैं। किंतु क्या कारण है उनकी पठनीयता बहुत प्रभावित हो रही है। वे अब
पढ़े जाने के बजाए पलटे ज्यादा जा रहे हैं। पाठक एक स्टेट्स सिंबल के चलते घरों
में अखबार तो बुलाने लगा है किंतु वह इन अखबारों पर वक्त नहीं दे रहा है। क्या
कारण है कि ज्वलंत सवालों पर बौद्धिकता और विमर्शों का सारा काम अब अंग्रेजी
अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया है?
हिंदी अखबारों में अंग्रेजी के जो लेखक अनूदित होकर छप रहे हैं वह भी सेलिब्रेटीज
ज्यादा हैं, बौद्धिक दुनिया के लोग कम । हिंदी की इतनी बड़ी दुनिया के पास आज भी ‘द हिंदू’ या ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसा एक भी अखबार क्यों नहीं है, यह बात
चिंता में डालने वाली है। कम पाठक, सीमित स्वीकार्यता के बजाए अंग्रेजी के अखबारों
में हमारी कलाओं, किताबों, फिल्मों और शेष दुनिया की हलचलों पर बात करने का वक्त
है तो हिंदी के अखबार इनसे मुंह क्यों चुरा रहे हैं।
हिंदी के एक बड़े लेखक अशोक वाजपेयी अगर यह कह रहे हैं कि-“पत्रकारिता में विचार अक्षमता बढ़ती जा
रही है, जबकि उसमें यह स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। हिंदी में यह क्षरण हर स्तर
पर देखा जा सकता है। हिंदी के अधिकांश अखबार और समाचार-पत्रिकाओं का भाषा बोध बहुत
शिथिल और गैरजिम्मेदार हो चुका है। जो माध्यम अपनी भाषा की प्रामणिकता आदि के
प्रति सजग नहीं हैं, उनमें गहरा विचार भी संभव नहीं है। हमारी अधिकांश पत्रकारिता,
जिसकी व्याप्ति अभूतपूर्व हो चली है, यह बात भूल ही गयी है कि बिना साफ-सुथरी भाषा
के साफ-सुथरा चिंतन भी संभव नहीं है।” (जनसत्ता,26 अप्रैल,2015) जाहिर तौर पर श्री वाजपेयी का
चिंताएं हिंदी समाज की साझा चिंताएं हैं। हिंदी के पाठकों, लेखकों, संपादकों और
समाचारपत्र संचालकों को मिलकर अपनी भाषा और उसकी पत्रकारिता के सामने आ रहे संकटों
पर बात करनी ही चाहिए। यह देखना रोचक है कि हिंदी की पत्रकारिता के सामने आर्थिक
संकट उस तरह से नहीं हैं जैसा कि भाषायी या बौद्धिक संकट। हमारे समाचारपत्र अगर
समाज में चल रही हलचलों, आंदोलनों और झंझावातों की अभिव्यक्ति करने में विफल हैं
और वे बौद्धिक दुनिया में चल रहे विमर्शों का छींटा भी अपने पाठकों पर नहीं पड़ने
दे रहे हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने पाठकों का
रूचि परिष्कार भी रही है। साथ ही हमारा काम अपने पाठक का उसकी भाषा और समाज के साथ
एक रिश्ता बनाना भी है। कई बार ऐसा लगता है कि हिंदी के अखबार टीवी न्यूज चैनलों
से होड़ कर रहे हैं। यह होड़ अखबार के सौंदर्यबोध उसकी सुंदर प्रस्तुति तक सीमित
हो तो ठीक, किंतु यह कटेंट के स्तर पर जाएगी तो खतरा बड़ा होगा। एक एफएम रेडियो पर
बोलती या बोलते हुए किसी रेडियो जाकी और अखबार की भाषा में अंतर सिर्फ माध्यमों का
अंतर नहीं है, बल्कि इस माध्यम की जरूरत भी है। इसलिए टीवी और रेडियो की भाषा से
होड़ में हम अपनी मौलिकता को नष्ट न करें। हिंदी के अखबारों के संपादकों का
आत्मविश्वास शायद इस बाजारू हवा में हिल गया लगता है। वे हिंदी के प्रचारक और
रखवाले जरूर हैं किंतु इन सबने मिलकर जिस तरह आमफहम भाषा के नाम पर अंग्रेजी के
शब्दों को स्वीकृति और घुसपैठ की अनुमति दी है, वह आपराधिक है। यह स्वीकार्यता अब
होड़ में बदल गयी है। हिंदी पत्रकारिता में आई यह उदारता भाषा के मूल चरित्र को ही
भ्रष्ट कर रही है।
यह
चिंता भाषा की नहीं है बल्कि उस पीढ़ी की भी है, जिसे हमने बौद्धिक रूप से विकलांग
बनाने की ठान रखी है। आखिर हमारे हिंदी अखबारों के पाठक को क्यों नहीं पता होना
चाहिए कि उसके आसपास के परिवेश में क्या घट रहा है। हमारे पाठक के पास चीजों के
होने और घटने की प्रक्रिया के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पहलुओं पर विश्लेषण
क्यों नहीं होने चाहिए? क्यों वह गंभीर विमर्शों के लिए अंग्रेजी
या अन्य भाषाओं पर निर्भर हो?
हिंदी क्या सिर्फ सूचना और मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी? अपने बौद्धिक विश्लेषणों, सार्थक विमर्शों के आधार पर नहीं, सिर्फ चमकदार कागज पर शानदार प्रस्तुति
के कारण ही कोई पत्रकारिता लोकस्वीकृति पा सकती है? आज का पाठक समझदार, जागरूक और विविध
दूसरे माध्यमों से सूचना और विश्वेषण पाने की क्षमता से लैस है। ऐसे में हिंदी के
अखबारों को यह सोचना होगा कि वे कब तक अपनी छाप-छपाई और प्रस्तुति के आधार पर
लोगों की जरूरत बने रहेंगें।
एक समय में अखबार सूचना पाने के एक प्रमुख साधन
थे, किंतु अब सूचनाओं के लिए लोग अखबारों पर निर्भर नहीं है। लगभग हर सूचना पाठक
को अन्य माध्यमों से मिल जाती है। इसलिए लोग सूचना के लिए अखबार पढ़ते रहेंगें यह
सोचना ठीक नहीं है। अतः अखबारों को अंततः कटेंट पर लौटना होगा। गंभीर विश्लेषण और
खबरों के पीछे छपे अर्थ की तलाश करनी होगी। हिंदी अखबारों को अब सूचना और मनोरंजन
के डोज या ओवरडोज के बजाए नए विकल्प देखने होगें। उन विषयों पर फोकस करना होगा जिससे
पाठक को घटना का परिप्रेक्ष्य पता चले, इसके लिए हमें सूचनाओं से आगे होना होगा।
हिंदी अखबारों को यह मान लेना चाहिए कि वे अब सूचनाओं के प्रथम प्रस्तोता नहीं हैं
बल्कि उनकी भूमिका सूचना पहुंच जाने के बाद की है। इसलिए घटना की सर्वांगीण और विशिष्ट
प्रस्तुति ही उनकी पहचान बना सकती है। आज सारे अखबार एक सरीखे दिखने लगे हैं,
उनमें भी विविधता की जरूरत है। हिंदी के अखबारों ने अपनी साप्ताहिक पत्रिकाओं को
विविध विषयों पर केंद्रित कर एक बड़ा पाठक वर्ग खड़ा किया है। उन्हें अब साहित्य,
बौद्धिक विमर्शों, संवादों, दुनिया में घट रहे परिवर्तनों पर नजर रखते हुए ज्यादा सुरूचिपूर्ण
बनाना होगा। भारतीय भाषाओं खासकर मराठी, बंगला और गुजराती में ऐसे प्रयोग हो रहे
हैं, जहां सूचना के अलावा अन्य संदर्भ भी बराबरी से जगह पा रहे हैं। एक बड़ी भाषा
होने के नाते हिंदी से ज्यादा गंभीर प्रस्तुति और ठहराव की उम्मीद की जाती है।
उसकी तुलना अंग्रेजी के अखबारों होगी और होती रहेगी क्योंकि वह अंग्रेजी के
बौद्धिक आतंक को चुनौती देने की संभावना से हिंदी भरी-पूरी है। हिंदी के पास ज्यादा
बड़ा फलक और जमीनी अनुभव हैं। अगर वह अपने लोक की पहचान कर, भारत की पहचान कर,
अपने देश की वाणी को स्वर दे सके तो भारत का भारत से परिचय तो होगा ही,यह देश अपने
संकटों के समाधान भी अपनी ही भाषा में पा सकेगा। क्या हिंदी की पत्रकारिता, उसके
अखबार, संपादक और प्रबंधक इसके लिए तैयार हैं?
Labels:
पत्रकारिता,
मीडिया,
मीडिया विमर्श,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सोमवार, 20 अप्रैल 2015
जीवन में किसे है मूल्यों की जरूरत
भोपाल में मूल्यआधारित जीवन पर अंतराष्ट्रीय
परिसंवाद से उपजे कई विमर्श
-संजय द्विवेदी
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पिछले 17 से 19
अप्रैल को मूल्य आधारित जीवन पर तीन दिवसीय परिसंवाद का आयोजन किया गया। यह संवाद
किसी सामाजिक-धार्मिक संगठन ने किया होता तो कोई आश्चर्य नहीं था किंतु इसकी आयोजक
मध्यप्रदेश सरकार थी। खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस आयोजन के दो सत्रों
में आए, बोले भी। मप्र के संस्कृति विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
एवं संचार विश्वविद्यालय व शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के इस आयोजन में
देश-विदेश से आए लगभग 120 विद्वानों ने इस विचार मंथन में हिस्सा लिया।
कार्यक्रम में सद् गुरू जग्गी वासुदेव से लेकर प्रणव पंड्या जैसी
आध्यात्मिक हस्तियां थीं तो मीडिया दिग्गजों में आईबीएन-7 के प्रमुख उमेश उपाध्याय
से लेकर राजेश बादल, राखी बख्शी, आलोक वर्मा जैसे नाम थे। शिक्षा, संस्कृति,
चिकित्सा हर क्षेत्र में मूल्य स्थापना पर बात हुयी। दीनानाथ बत्रा, डा. ज्ञान
चतुर्वेदी, विजय बहादुर सिंह, रमेश चंद्र शाह, उदयन वाजपेयी, फिल्म निर्माता
चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसी हस्तियां इन चर्चाओं में शामिल रहीं। यह बात बताती है
कि मूल्यों को लेकर समाज में व्याप्त चिंताओं को मध्यप्रदेश सरकार ने सही वक्त पर
पहचाना है। यह प्रसंग बताता है कि सरकारें भी कैसे जीवन से जुड़े सवालों को
प्रासंगिक बना सकती हैं। इस आयोजन के पीछे संदर्भ यह है कि आस्था का महाकुंभ
सिंहस्थ 22 अप्रैल से 21 मई,2016 को मध्यप्रदेश की पावन नगरी उज्जैन में
हो रहा है। आस्था की डोर से बंधे देशभर के लोग इस आयोजन में आकर पुण्यलाभ प्राप्त
करते हैं। मध्यप्रदेश सरकार का मानना है कि भारतीय परंपरा में कुंभ सिर्फ एक मिलन
का स्थान,सार्वजनिक मेला या स्नान का लाभ प्राप्त करने का
स्थान भर नहीं है, वरन वह अपने समाज के बीच समरसता और संवाद का माध्यम भी
बनता रहा है।
सही मायने में कुंभ
युगों-युगों से विचार-विमर्श,शास्त्रार्थ और संवाद की अनंत धाराओं के समागम का
केंद्र रहा है। देश और दुनिया से आने वाले विद्वान यहां चर्चा -संवाद के माध्यम से भारतीय
ज्ञान-विज्ञान की तमाम परंपराओं का अवगाहन करते हैं, विश्लेषण और मूल्यांकन करते हैं तथा नए रास्ते
दर्शाते हैं। संवाद और शास्त्रार्थ की यह धारा मानव जीवन के लिए ज्यादा सुखों की तलाश भी
करती और मानव की मुक्ति के रास्ते भी खोजती है। भारतीय चिंतन ने हमेशा सत्य
की खोज को अपना ध्येयपथ माना है, जिससे समाज में सद् गुणों का विकास हो और वह सर्वांगीण प्रगति कर सके। भारतीय
चिंतन संपूर्णता में विचार का दर्शन है। उसकी दृष्टि एकांगी नहीं है इसलिए यहां
विमर्श स्वाभाविक और निरंतर है।
इसी भावभूमि के आलोक
में मध्यप्रदेश सरकार ने इस संविमर्श की योजना बनाई।
संविमर्श को कई स्तरों पर किए जाने की योजना है। भोपाल के यह विमर्श अन्य
क्षेत्रों में भी प्रस्तावित है। जाहिर है
मध्यप्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का चिंतन के क्षेत्र में यह नया
प्रयोग है। अपने भाषण में उन्होंने यह कहा भी इस विचार मंथन से निकले निकष से शासन
भी अपने कार्यक्रमों और नीतियों में बदलाव करेगा। निश्चय ही यह एकालाप नहीं है।
विद्वानो के साथ बैठना और संविमर्श के माध्यम से मानव कल्याण के लिए नए मार्ग
खोजना लाभकारी ही होगा। मध्यप्रदेश के लोकधर्मी प्रशासक और संस्कृति सचिव मनोज
श्रीवास्तव ने जो स्वयं एक अच्छे लेखक हैं, इस पूरे आयोजन की रचना तैयार की और उसे
जमीन पर उतारा। मध्यप्रदेश की विधानसभा के सभाकक्ष और उसके आसपास का सौंदर्यबोध
देखते ही बनता था।
यहां हुयी चर्चाओं में बड़ी संख्या बौद्धिक वर्गों के लोग भी रहे।
प्रशासक, प्राध्यापक, राजनेता,मीडिया, कलाकार, चिकित्सक, न्याय से जुड़े वर्ग की
मौजूदगी विशेष रही। इन व्यवसायों के भीतर काम करनेवाले लोगों के जीवन मूल्य क्या
हों- यही चर्चा का विषय रहा। सभी प्रोफेशन से जुड़े लोगों ने अपने कामों,
कार्यप्रणाली और संस्थाओं के लिए मूल्यों की बात की। इन सबने अपने लिए मूल्यों का
सूचीकरण भी किया। इस पूरे विमर्श से यह बात सामने आयी कि जो विविध व्यवसायों के
मूल्य हैं वही शेष समाज के भी जीवन मूल्य हैं। संस्थाएं भी अपने लिए मूल्यों का
निर्धारण करती हैं। कई बार मूल्यों के अनुसार स्वयं को ढालती हैं तो कई बार अपना
अनुकूलन वातावरण के हिसाब से कर लेती हैं। विमर्श का मूल स्वर यही था कि समाज को
अपने भवितव्य को लेकर मूल्यों का आग्रह करना ही होगा। मूल्य विहीन समाज अपनी पहचान
कायम नहीं कर सकता।
विमर्श का मूल स्वर यही था कि भारतीय समाज में
विकसित और पनपे जीवन मूल्य मात्र भावुक आस्थाएं न होकर वैज्ञानिक तथ्यों के ठोस
धरातल पर खडी हुयी हैं। यह दूसरी बात है कि समय के साथ विकसित होने वाली
अशिक्षा एवं भारतीय संस्कृति के हमारी
उपेक्षा ने यह हालात पैदा कर दिए हैं। विद्वानों का मानना था कि भारत की मुक्ति
भारत बनने में है। भारत अगर भारत की तरह नही सोचता तो वह भारत नहीं बन सकता।
विदेशी प्रवाहों और आक्रमणों ने देश का मनोबल और आत्मबल तोड़ दिया है। ऐसे समय में
भारत का भारत से परिचय कराना आवश्यक है। भारत का यही तत्वबोध और आत्मबोध जगाना समय
की जरूरत है। हमें अपने देश को जगाने और उसे उसकी शक्ति से परिचित कराने की जरूरत
है। यह एक 1947 में बना और एक हुआ राष्ट्र नहीं है, बल्कि अपने सांस्कृतिक परिवेश
और नैतिक चेतना से भरा देश है। भारत से इन अर्थो में भारत का परिचय जरूरी है। कुंभ
जैसे पर्व मेले नहीं हैं,यह हमारे देश की सांस्कृतिक शक्ति, उसके विचार और
सामर्थ्य का प्रगटीकरण हैं। कुंभ के बहाने भारतीय संस्कृति और समाज स्वयं में
झांकता और संवाद करता है। उस परंपरा को पुनः स्थापित करने का काम अगर एक राज्य
सरकार कर रही है तो उसका अभिनंदन ही किया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री
अगर संवाद और विमर्श में मूल्यों का राग छेड़ रहे हैं तो तय मानिए इस मंथन से अमृत
ही निकलेगा। इससे एक सुसंवादित समाज की रचना होगी और भारत अपनी पहचान को फिर से पा
सकेगा। समाज जीवन के विविध क्षेत्र अपनी चमकीली प्रगति से चमत्कृत ही न रहे बल्कि
वे अपनी शक्ति को पहचाने इसका यह सही समय है। उज्जैन में महाकाल की घरती अनंत
विमर्शों को आकाश देती रही है। देश में
होने वाले अन्य कुंभ पर्वों की अपेक्षा उज्जयिनी के कुंभ का महत्व विशेष है।यहां
कुंभ के साथ सिंहस्थ भी सम्मिलित होता है। इस सम्मिलन में दस दुर्लभ योग उपस्थित
होते हैं- वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि. मेष राशि का सूर्य, सिंह राशि पर
बृहस्पति की स्थिति, तुला राशि पर चंद्र की स्थिति, स्वाति नक्षत्र, व्यातिपात
योग, पवित्र तिथि सोमवार तथा मोक्ष प्रदायक अवन्ती क्षेत्र। इन कारणों से इस अवसर
पर स्नान का महत्व खास है। निश्चय ही ऐसे पुण्य समय में विद्वत जनों के बीच
संविमर्श कर समाज के लिए कुछ पाथेय देना खास है। ऐसे विमर्शों से निकले हुए
निष्कर्ष निश्चय ही हमारे समाज का मार्गदर्शन करेंगें।
Labels:
मनोज श्रीवास्तव,
शिवराज सिंह चौहान,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सोमवार, 13 अप्रैल 2015
देश के प्रमुख समाचार पत्रों में छपे लेख
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
अखबारों की क्लिपिंग्स
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
शनिवार, 11 अप्रैल 2015
कश्मीरी पंडितों की वापसी से कौन डरता है ?
-संजय द्विवेदी
कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों को वापस बसाने को लेकर अलगाववादी संगठनों
की जैसी प्रतिक्रियाएं हुयी हैं, वे बहुत स्वाभाविक हैं। यह बात साबित करती है कि
कश्मीर घाटी में जो कुछ हुआ, उसमें इन अलगाववादियों की भूमिका और समर्थन रहा है।
कश्मीर पंडितों की कालोनी बनाने की बात पर उन्हें ‘यहूदी’ शब्द से संबोधित
करना कितना खतरनाक है। यह वहां पल रही घातक मानसिकता और विचारधारा दोनों का
प्रगटीकरण है। कश्मीरी पंडित एक पीड़ित पक्ष हैं, जबकि इजराइल के यहूदी एक ताकतवर
समूह हैं। उनसे कश्मीरी पंडितों की तुलना अन्याय ही है। इतने अत्याचार और दमन के
बावजूद पंडितों ने अब तक अपनी लड़ाई कानूनी और अहिंसक तरीके से ही लड़ी है। वे
हथियार उठाने और कत्लेआम करने वाले लोग नहीं है। पाकप्रेरित अलगाववादी संगठन घाटी
को हिंदुमुक्त करने के नापाक इरादे में कामयाब हुए तो उन्हें यह लगा कि कश्मीर अब
अलग हो जाएगा। किंतु हिंदुस्तान के लोग, कश्मीर के लोग इस हिस्से को भारत का मुकुट
मानते हैं। उनके सुख-दुख में साथ खड़े होते हैं, समान संवेदना का अनुभव करते हैं।
कुछ मुट्ठी भर लोग इस सांझी विरासत से भरोसा उठाना चाहते हैं।उन्हें बार-बार
विफलता हाथ लगी है और आगे भी लगेगी। क्या कश्मीरी अलगाववादी यह कहना चाहते हैं कि
जहां मुसलमान बहुसंख्यक होंगे वहां दूसरे पंथ के लोग नहीं रह सकते?
पाकिस्तान के
द्विराष्ट्रवाद पर तमाचाः
कश्मीर दरअसल पाकिस्तान के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर एक तमाचा है। किसी
राज्य में बहुसंख्यक मुस्लिम जनता और भारत का शासन यह पाकिस्तान से बर्दाश्त नहीं
होता। हम साथ मिलकर रह रहे हैं, रह सकते हैं, यही पाकिस्तान की पीड़ा है। कश्मीर
भारत का सांस्कृतिक परंपरा का अविछिन्न अंग है। हमारे तीर्थ, पर्व, मंदिर, देवस्थल
सब यहां हैं। अमरनाथ और वैष्णो देवी से लेकर शंकराचार्य के मंदिर यही कथा कहते
हैं। यह क्षेत्र ऋषियों-मुनियों की तपस्यास्थली रहा है। लेकिन अलगाववादियों के
अपने तर्क हैं। उन्होंने बंदूकों, अपहरणों, दुराचारों, लूट और आतंक के आधार पर इस
इलाके को नरक बनाने की कोशिशें कीं। किंतु हाथ क्या लगा? आज भी वहां एक चुनी
हुयी सरकार है, जिसमें भारत का एक राष्ट्रवादी दल हिस्सेदार है। यह साधारण नहीं है
कि घाटी में भाजपा को वोट नहीं मिले, यह गहरे विभाजन का संकेत है। यह बात बताती है
कि एक खास इलाके में किस तरह से लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से काटकर देश के
खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। इस मानसिकता को पालने-पोसने और विकसित करने के जतन
निरंतर हो रहे हैं। भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियां चलाने वालों को समर्थन देने
वाले तत्व आज भी घाटी में मौजूद हैं। भारतीय सेना पर पत्थर फेंकना इसी मानसिकता का
परिचायक है। ऐसे असुरक्षित वातावरण में जहां पुलिस और सेना के लोग पत्थर खा रहे
हों, मार दिए जाते हैं वहां मुट्ठी भर कश्मीरी पंडित किस भरोसे और विश्वास पर
बसेंगें ? निश्चय
ही यह अलगाववादियों की पीड़ा है कि उन्होंने कितने जतन और षडयंत्रों से कश्मीरी
पंडितों को यहां से भगाया और वे फिर यहां बस जाएंगें। ये वही लोग हैं जो भारत से
आजादी चाहते हैं और पाकिस्तानी हुक्मरानों के तलवे चाटते हैं।
अब
शुरू कीजिए पाक अधिकृत कश्मीर की मांगः
कश्मीर की आजादी का सवाल उठाने वाले लोग अब यह अच्छी तरह समझ चुके हैं कि
उनकी हसरत पूरी नहीं हो सकती। भारत के लोग कभी यह होने नहीं देंगे। राजनीतिक
पहलकदमी से परे हिंसक आंदोलन चलाने वाली ये ताकतें भारत के खिलाफ कश्मीरी मानस में
जहर भरने का काम निरंतर कर रही हैं। भारत सरकार भी इनके प्रति नरम रवैया अख्तियार
करती रही है। जाने किस कूटनीति के चलते भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में बात
करनी बंद कर रखी है। जबकि भारत की सरकार को प्रखरता से आजाद कश्मीर (पाक अधिकृत
कश्मीर) के बारे में बात करनी चाहिए। कश्मीर घाटी ही नहीं हमें पूरा कश्मीर चाहिए
यही इस संकट का वास्तविक समाधान है। राजा हरि सिंह के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर
के बाद हुयी राजनीतिक गफलतों ने ही कश्मीर के हालात बिगाड़े हैं। घाटी की
हिंदू-सिख आबादी के साथ जो कुछ हुआ उसके भी दोषियों को दंडित करने और उन पर मुकदमे
चलाने की जरूरत है। कश्मीरी पंडितों पर जो अत्याचार हुआ, उसके दोषी आज भी मजे से
घूम रहे हैं। 2012 के दंगों पर एक गुजरात की सरकार के पीछे पड़े लोग, क्या
कश्मीरियों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ बोलेगें? गुजरात दंगों पर तो
सैंकड़ों को जेल और सजा हो चुकी है। क्या कश्मीर घाटी के गुनहगारों पर भी हमारी
सरकारों की नजर जाएगी? अपराध-अपराध है उसे चयनित आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। मलियाना के
गुनहगारों के लिए सारे मीडिया में स्यापा है। लेकिन कश्मीर में जो हुआ उसे पूरी
इंसानियत शर्मिंदा है। सरकार को चाहिए कि ऐसे मानवता विरोधी आतंकियों की पड़ताल कर
उनके खिलाफ,उनके मददगारों के खिलाफ मामले खोले और नए सिरे से कार्रवाई प्रारंभ
करे। जिन कश्मीरी पंडितों के घरों पर कब्जे करके लोग बैठे हैं, उनके कब्जे हटाए
जाएं। भारत की आजादी के बाद शायद ये सबसे बड़ा विस्थापन था, जिसमें 65 हजार
कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ना पड़ा। भारत औऱ राज्य की सरकार की यह जिम्मेदारी
है वे गुनहगारों को कतई माफ न करें।
यहां सिर्फ सेना ही
है भारत के साथः
आज चारो तरफ से एक ही आवाज आती है कि घाटी से सेना से हटाओ। सवाल यह उठता
है कि क्या सेना को हटाने से कश्मीर में आया अमन-चैन रह पाएगा? क्या इस हिस्से में
पुनः आतंकी शक्तियां हावी नहीं हो जाएगीं? लोकतंत्र के मायने मनमानी नहीं होती।
किंतु कश्मीरी अलगाववादियों ने इस राज्य को बहुत नुकसान पहुंचाया है। अहमद शाह
गिलानी की लंबी हड़तालों, प्रदर्शनों ने राज्य की अर्थव्यवस्था को तो चौपट किया ही
है लोगों को जान-माल के खतरे भी दिए। ऐसे नेताओं से लोग अब ऊब चुके हैं। गिलानी भी
अब बूढ़े हो चुके हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने का उनका सपना अब तो पूरा होने
से रहा। एक चुनी हुयी सरकार अब कश्मीर में है। जरूरत इस बात की है कश्मीर को विकास
के मोर्चे पर आगे लाकर खड़ा किया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी निरंतर
कश्मीर के सवाल को अपनी प्राथमिकता में रखा है। तमाम आलोचनाओं और राजनीतिक
मजबूरियों के बावजूद इस राज्य में मुफ्ती सरकार के साथ गठजोड़ किया। यह संकेत
बताते हैं कि भारत सरकार इस राज्य के विकास में रोड़े अटकाना नहीं चाहती। किंतु इस
पूरे खेल में सिर्फ लेना ही नहीं चलेगा। यह संभव नहीं कि भारत की सरकार आपके हर
दर्द में साथ खड़ी हो और आप पाकिस्तान के झंडे लहराएं। कश्मीर के अलगाववादी तत्वों
के साफ संदेश देने की जरूरत है कि वे आतंक, हिंसा, खून-खराबे, पत्थर फेंकने जैसे
सारे हथियार आजमा चुके हैं अब उन्हें चाहिए कि वे लोकतंत्र की खुली हवा में लोगों
को सांस लेने दें। ऐसे हालात बनाएं कि सेना बैरकों में जा सके। इसके पहले उन्हें
यह भरोसा देना होगा कि घाटी में सेना के अलावा अब तथाकथित अलगाववादी भी भारत के
प्रति प्रेम रखते हैं। हालात यह हैं कि घाटी में आज भी भारत विरोधी और पाक समर्थक
आवाजें गूंज रही हैं। ऐसे समय. में कश्मीरी पंडितों की वापसी का विरोध करके
अलगाववादियों ने अपना असली चेहरा दिखा दिया है। हालांकि श्राइन बोर्ड के जमीन देने
के सवाल पर ऐसे ही प्रपंची स्वर सामने आ चुके थे। यह समझना मुश्किल नहीं है कश्मीर
का असल संकट घाटी के मुट्ठी पर अलगाववादी हैं, जो पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं
के इशारे पर नाचते रहते हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ये अलगाववादी कश्मीर की
आवाज नहीं हैं। कश्मीर की जनता ने फैसला कर दिया है, एक लोकप्रिय सरकार वहां बनी
है, उसे काम करने दें। अगर शौक है तो अगले चुनाव में उतरकर अपनी हैसियत आजमा लें।
लोकतंत्र में यही एकमात्र विकल्प है। बंदूकों के साए में आजादी-आजादी की रट लगाने
से क्या हासिल है इसे वे अच्छी तरह जानते हैं।
Labels:
कश्मीर,
नरेंद्र मोदी,
मुसलमान,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सोमवार, 6 अप्रैल 2015
भाजपाः वाणी को कर्म में बदलने की चुनौती
-संजय
द्विवेदी
भारतीय
जनता पार्टी की बेंगलूरू कार्यकारिणी के संदेश आखिर क्या हैं? क्या पार्टी नई
चुनौतियों से जूझने के लिए तैयार है? बदलते देश की बड़ी उम्मीदों पर सवार भाजपा सरकार
के लिए वास्तव में कुछ कर दिखाने का समय है। उसके सामने उसके चतुर सुजान
प्रतिद्वंदी दल और वैचारिक विरोधी जिस तरह एकजुट होकर उस पर हमले बोल रहे हैं, उसे
देखते हुए भाजपा को संभलकर चलना चाहिए। भाजपा को सांप्रदायिक, कारपोरेट समर्थक और
किसान विरोधी साबित करने के तीन आरोप इस वक्त विपक्ष के हाथ में हैं। इसलिए भाजपा
को इन आरोपों की काट तैयार रखनी चाहिए। अपने वाणी और कर्म से भाजपा सरकार को ऐसा
कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे पार्टी की छवि पर दाग लगे। भाजपा ने जबसे सत्ता संभाली
है, साधारण लूटपाट की घटनाओं को भी सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें जारी हैं।
चर्च में लूट की घटनाओं को हमले बताकर आखिर देश का मीडिया और राजनीतिक समूह कैसा
माहौल बनाना चाहते हैं? इस बीच एक जज और पुलिस के एक सेवानिवृत्त आफिसर ने जो सवाल उठाए हैं,
वह कहीं न कहीं भाजपा सरकार में सांप्रदायिक आधार के सोच को लक्ष्य कर ही उठाए गए
हैं। कहा नहीं जा सकता कि ये बातें साजिशन हैं या सहज, किंतु इसे भाजपा सरकार
के बारे में राय बिगाड़ने का प्रयास तो माना ही जा सकता है।
भारत जैसे देश में जहां भारतीयता ही सबसे लांछित
किया जाने वाला विचार है वहां भाजपा जैसे दलों का संकट बढ़ जाता है। भाजपा की
सरकारों का नेतृत्व जब बेहतर परिणाम देता है, तो उसे भाजपा का नहीं व्यक्ति का
व्यक्तिगत गुण बता दिया जाता है। जैसे इस देश को गठबंधन का सर्वसरोकारी नेतृत्व
देने वाले अटलबिहारी वाजपेयी को आज भी संघ परिवार और भाजपा की उपलब्धि नहीं बल्कि
उनके व्यक्तिगत गुणों के नाते व्याख्यायित और विश्वेषित किया जाता है। जबकि सत्य
तो यह है कि डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी,
लालकृष्ण आडवानी से लेकर नरेंद्र मोदी तक भाजपा का नेतृत्व सरोकारी और भारतीयता की
उदात्त परंपरा का ही वाहक रहा है। लेकिन आप देखें तो भाजपा नेतृत्व को हर समय में
लांछित करने की कोशिशें हुयीं, जबकि इन नेताओं ने जो सवाल उठाए, वे किसी पंथ के
विरूद्ध न होकर भारतीयता और राष्ट्रवाद के पक्ष में थे।
कश्मीर के सवाल पर डा.श्यामाप्रसाद
मुखर्जी का संघर्ष हो, गांव-गरीबों-किसानों के उत्थान के लिए दीनदयाल जी के संघर्ष
हों या उनका अंत्योदय का विचार हो। दीनदयाल जी द्वारा प्रवर्तित ‘एकात्म मानववाद’ भी कोई पांथिक
अवरधारणा नहीं है, दीनदयाल जी ने तो एकात्म मानववाद की व्याख्या करते हुए अपने चार
मूल भाषणों में हिंदू शब्द पद का ही उपयोग नहीं किया है। यह विचार तो विश्व मानवता
को सुखी करने वाला विचार है। किंतु एकात्म मानववाद को भी पढ़े बिना उसका विरोध
जारी रहा। अटल जी और आडवानी जी ने जब छद्मधर्मनिरपेक्षता के विचार का विरोध किया,
370 पर आपत्तियां कीं, समान नागरिक संहिता की बात की तो इसे सांप्रदायिक विचार कहा
गया। जाहिर तौर पर विरोध के लिए विरोध की राजनीति इन वर्षों में फलती-फूलती रही
है। इसी तरह श्री नरेंद्र मोदी ने तो विकास और सुशासन के सवालों पर ही देश की
राजनीति को संबोधित किया और लोगों का समर्थन जुटाया। उन्होंने किसी सांप्रदायिक
प्रश्न को अपने पूरे चुनाव अभियान का हिस्सा नहीं बनाया। किंतु आज उनकी सरकार को
घेरने के लिए उनके वैचारिक विरोधी लगे हुए हैं। सत्य को तोड़-मरोड़ पेश करना और
दुष्प्रचार इनकी नीति बन गयी है। यह बात देश के राजनीतिक परिवेश को गंदला कर रही
है। आखिर भारतीयता के सवाल उठाना, उन पर विमर्श खड़ा करना कहां से
सांप्रदायिक विचार है? हर देश की एक मूलधारा होती है, एक सांस्कृतिक धारा होती है। वही उस देश
की मुख्यधारा का नेतृत्व करती है, यही उसकी पहचान होती है। भारत के ज्ञान- विज्ञान
को तिरस्कृत करने, उसके राष्ट्रगीत को गाने न गाने की छूट चाहने वाली मानसिकता
आखिर कहां से उपजती है? भारत में कुछ भाजपा सरकारों ने योग को स्वास्थ्य की दृष्टि से
पाठ्यक्रमों में शामिल करने का प्रयास किया तो उसे भी सांप्रदायिक और दकियानूसी
विचार माना गया। जबकि अमरीका की एक अदालत ने यह आदेश दिया है कि “योग एक ज्ञान है और
उसका हिंदुत्व से कोई लेना-देना नहीं है।” योग, सूर्य नमस्कार, आयुर्वेद,
वंदेमातरम्, संस्कृत,ज्योतिष और संस्कृति के सारे प्रतीक सांप्रदायिक खाने में
जोड़ दिए जाते हैं। यह वास्तव में एक इस देश के पारंपरिक ज्ञान, कौशल और मेघा का
ही तिरस्कार है। यह स्थापित करने कोशिश होती है कि जैसे भारत 1947 में ही पैदा हुआ
राष्ट्र है। इसके पूर्व की इसकी परंपराएं, ज्ञान, स्व -बोध सब व्यर्थ है।
यह बात बताती है कि देश ऐसे नहीं चल सकता।
भारतीय जनता पार्टी इस भारतीय परंपरा और ज्ञानधारा का वाहक होने का दावा
करती है, तो उसे
बहुत संयम और साहस के साथ चलना होगा। उसे नैतिकता की बात करनी ही नहीं होगी, बल्कि उसे इसे
स्थापित करना होगा। चरित्र और सार्वजनिक जीवन में आ रही गिरावट के खिलाफ खुद से
पहल करनी होगी। यह हालात चिंतित करने वाले हैं कि बीड़ी और सिगरेट पीने के पक्ष
में भाजपा के तीन सांसद मैदान में कूद पड़े। यह बेहतर है कि पार्टी ने इसका तुरंत
संज्ञान लिया। आज भाजपा के पास एक सांस्कृतिक धारा का उत्तराधिकार का दावा है,
किंतु उसे इसके स्वाभाविक उत्तराधिकारी बनने के लिए नैतिकता को स्थापित करना होगा।
भाजपा की राज्य सरकारों पर जिस प्रकार भ्रष्टाचार के
छींटें हैं, उनसे
बचना होगा। भारतीयता,नैतिकता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने के साथ-साथ, आचरण
की शुद्धता पर भी जोर देना होगा। इसी आचरण की गिरावट से उबे लोगों ने कांग्रेस
जैसी पार्टी का बुरा हाल किया है। भाजपा के कृति और वाणी में अंतर को भी लोग सहन
क्यों करेंगें? भाजपा
के सामने अलग पार्टी सरीखा व्यवहार करने की चुनौती है। विरोधी एकजुट हो रहे हैं और
उसके खिलाफ दुष्प्रचार तेज हो रहा है। उनके अच्छे कामों के बजाए बुरे कामों का
जिक्र ज्यादा हो रहा है। ऐसे में भाजपा और उनके समविचारी संगठनों को इस चुनौती को
समझकर अपने आचरण में ज्यादा दृढ़ और वैचारिकता का आग्रही दिखना होगा। राजनीतिक दंभ
की देहभाषा से परे अपने काडर को संभालना होगा। दल में वैचारिक प्रशिक्षण पर जोर
देना होगा। सरकारों का आना-जाना कोई बड़ी बात नहीं है, किंतु
मिले हुए अवसर का योग्य इस्तेमाल जरूरी है। भाजपा के सामने आज अवसरों का एक आसमान
है, उसके नेतृत्व का विवेक भी कसौटी पर है कैसे वह इन अवसरों का सही इस्तेमाल करते
हुए देश की राजनीति में कांग्रेस का एक सार्थक विकल्प बन पाती है। आज भाजपा के
आलोचक यह कह रहे हैं कि वह पूंजीपतियों और कारपोरेट की पार्टी है, इस धारणा को
स्थापित करने के लिए काफी यत्न चल रहे हैं। भाजपा को ऐसे प्रचार को काटने की
रणनीति बनानी होगी। किंतु रणनीतियों तभी सफल होती हैं जब उसके साथ में तथ्य और
सत्य हों। अब भाषणों से आगे कृति को ही आकलन का आधार बनाना होगा। अच्छे विचारों को
जमीन पर उतारने का जरूरत है। अगर वे सरकार के काम में दिखते हैं तो बिना विज्ञापनी
वृत्ति के भी लोकस्वीकृति का कारण बनेगें। सवाल यह है कि क्या भाजपा और उसकी
सरकारें इसके लिए तैयार हैं ?
Labels:
नरेंद्र मोदी,
भाजपा,
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)