-संजय द्विवेदी
हिंदी
पत्रकारिता को यह गौरव प्राप्त है कि वह न सिर्फ इस देश की आजादी की लड़ाई का मूल
स्वर रही, बल्कि हिंदी को एक भाषा के रूप में रचने, बनाने और अनुशासनों में बांधने
का काम भी उसने किया है। हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी भाषा बनी, जिसकी
पत्रकारिता और साहित्य के बीच अंतसंर्वाद बहुत गहरा था। लेखक-संपादकों की एक बड़ी
परंपरा इसीलिए हमारे लिए गौरव का विषय रही है। हिंदी आज सूचना के साथ
ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन को व्यक्त करने वाली भाषा बनी है तो इसमें उसकी
पत्रकारिता के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। हिंदी पत्रकारिता ने इस देश की धड़कनों
को व्यक्त किया है, आंदोलनों की वाणी बनी है और लोकमत निर्माण से लेकर लोकजागरण का
काम भी बखूबी किया है।
आज की
हिंदी पत्रकारिता पर आरोप लग रहे हैं कि वह अपने समय के सवालों से कट रही है। उन
पर बौद्धिक विमर्श छेड़ना तो दूर वह उन मुद्दों की वास्तविक तस्वीर सूचनात्मक ढंग
से भी रखने में विफल पा रही है तो यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर ऐसा क्यों है।
1990 के बाद के उदारीकरण के सालों में अखबारों का सुदर्शन कलेवर, उनकी शानदार
प्रिटिंग और प्रस्तुति सारा कुछ बदला है। वे अब पढ़े जाने के साथ-साथ देखे जाने
लायक भी बने हैं। किंतु क्या कारण है उनकी पठनीयता बहुत प्रभावित हो रही है। वे अब
पढ़े जाने के बजाए पलटे ज्यादा जा रहे हैं। पाठक एक स्टेट्स सिंबल के चलते घरों
में अखबार तो बुलाने लगा है किंतु वह इन अखबारों पर वक्त नहीं दे रहा है। क्या
कारण है कि ज्वलंत सवालों पर बौद्धिकता और विमर्शों का सारा काम अब अंग्रेजी
अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया है?
हिंदी अखबारों में अंग्रेजी के जो लेखक अनूदित होकर छप रहे हैं वह भी सेलिब्रेटीज
ज्यादा हैं, बौद्धिक दुनिया के लोग कम । हिंदी की इतनी बड़ी दुनिया के पास आज भी ‘द हिंदू’ या ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसा एक भी अखबार क्यों नहीं है, यह बात
चिंता में डालने वाली है। कम पाठक, सीमित स्वीकार्यता के बजाए अंग्रेजी के अखबारों
में हमारी कलाओं, किताबों, फिल्मों और शेष दुनिया की हलचलों पर बात करने का वक्त
है तो हिंदी के अखबार इनसे मुंह क्यों चुरा रहे हैं।
हिंदी के एक बड़े लेखक अशोक वाजपेयी अगर यह कह रहे हैं कि-“पत्रकारिता में विचार अक्षमता बढ़ती जा
रही है, जबकि उसमें यह स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। हिंदी में यह क्षरण हर स्तर
पर देखा जा सकता है। हिंदी के अधिकांश अखबार और समाचार-पत्रिकाओं का भाषा बोध बहुत
शिथिल और गैरजिम्मेदार हो चुका है। जो माध्यम अपनी भाषा की प्रामणिकता आदि के
प्रति सजग नहीं हैं, उनमें गहरा विचार भी संभव नहीं है। हमारी अधिकांश पत्रकारिता,
जिसकी व्याप्ति अभूतपूर्व हो चली है, यह बात भूल ही गयी है कि बिना साफ-सुथरी भाषा
के साफ-सुथरा चिंतन भी संभव नहीं है।” (जनसत्ता,26 अप्रैल,2015) जाहिर तौर पर श्री वाजपेयी का
चिंताएं हिंदी समाज की साझा चिंताएं हैं। हिंदी के पाठकों, लेखकों, संपादकों और
समाचारपत्र संचालकों को मिलकर अपनी भाषा और उसकी पत्रकारिता के सामने आ रहे संकटों
पर बात करनी ही चाहिए। यह देखना रोचक है कि हिंदी की पत्रकारिता के सामने आर्थिक
संकट उस तरह से नहीं हैं जैसा कि भाषायी या बौद्धिक संकट। हमारे समाचारपत्र अगर
समाज में चल रही हलचलों, आंदोलनों और झंझावातों की अभिव्यक्ति करने में विफल हैं
और वे बौद्धिक दुनिया में चल रहे विमर्शों का छींटा भी अपने पाठकों पर नहीं पड़ने
दे रहे हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने पाठकों का
रूचि परिष्कार भी रही है। साथ ही हमारा काम अपने पाठक का उसकी भाषा और समाज के साथ
एक रिश्ता बनाना भी है। कई बार ऐसा लगता है कि हिंदी के अखबार टीवी न्यूज चैनलों
से होड़ कर रहे हैं। यह होड़ अखबार के सौंदर्यबोध उसकी सुंदर प्रस्तुति तक सीमित
हो तो ठीक, किंतु यह कटेंट के स्तर पर जाएगी तो खतरा बड़ा होगा। एक एफएम रेडियो पर
बोलती या बोलते हुए किसी रेडियो जाकी और अखबार की भाषा में अंतर सिर्फ माध्यमों का
अंतर नहीं है, बल्कि इस माध्यम की जरूरत भी है। इसलिए टीवी और रेडियो की भाषा से
होड़ में हम अपनी मौलिकता को नष्ट न करें। हिंदी के अखबारों के संपादकों का
आत्मविश्वास शायद इस बाजारू हवा में हिल गया लगता है। वे हिंदी के प्रचारक और
रखवाले जरूर हैं किंतु इन सबने मिलकर जिस तरह आमफहम भाषा के नाम पर अंग्रेजी के
शब्दों को स्वीकृति और घुसपैठ की अनुमति दी है, वह आपराधिक है। यह स्वीकार्यता अब
होड़ में बदल गयी है। हिंदी पत्रकारिता में आई यह उदारता भाषा के मूल चरित्र को ही
भ्रष्ट कर रही है।
यह
चिंता भाषा की नहीं है बल्कि उस पीढ़ी की भी है, जिसे हमने बौद्धिक रूप से विकलांग
बनाने की ठान रखी है। आखिर हमारे हिंदी अखबारों के पाठक को क्यों नहीं पता होना
चाहिए कि उसके आसपास के परिवेश में क्या घट रहा है। हमारे पाठक के पास चीजों के
होने और घटने की प्रक्रिया के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पहलुओं पर विश्लेषण
क्यों नहीं होने चाहिए? क्यों वह गंभीर विमर्शों के लिए अंग्रेजी
या अन्य भाषाओं पर निर्भर हो?
हिंदी क्या सिर्फ सूचना और मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी? अपने बौद्धिक विश्लेषणों, सार्थक विमर्शों के आधार पर नहीं, सिर्फ चमकदार कागज पर शानदार प्रस्तुति
के कारण ही कोई पत्रकारिता लोकस्वीकृति पा सकती है? आज का पाठक समझदार, जागरूक और विविध
दूसरे माध्यमों से सूचना और विश्वेषण पाने की क्षमता से लैस है। ऐसे में हिंदी के
अखबारों को यह सोचना होगा कि वे कब तक अपनी छाप-छपाई और प्रस्तुति के आधार पर
लोगों की जरूरत बने रहेंगें।
एक समय में अखबार सूचना पाने के एक प्रमुख साधन
थे, किंतु अब सूचनाओं के लिए लोग अखबारों पर निर्भर नहीं है। लगभग हर सूचना पाठक
को अन्य माध्यमों से मिल जाती है। इसलिए लोग सूचना के लिए अखबार पढ़ते रहेंगें यह
सोचना ठीक नहीं है। अतः अखबारों को अंततः कटेंट पर लौटना होगा। गंभीर विश्लेषण और
खबरों के पीछे छपे अर्थ की तलाश करनी होगी। हिंदी अखबारों को अब सूचना और मनोरंजन
के डोज या ओवरडोज के बजाए नए विकल्प देखने होगें। उन विषयों पर फोकस करना होगा जिससे
पाठक को घटना का परिप्रेक्ष्य पता चले, इसके लिए हमें सूचनाओं से आगे होना होगा।
हिंदी अखबारों को यह मान लेना चाहिए कि वे अब सूचनाओं के प्रथम प्रस्तोता नहीं हैं
बल्कि उनकी भूमिका सूचना पहुंच जाने के बाद की है। इसलिए घटना की सर्वांगीण और विशिष्ट
प्रस्तुति ही उनकी पहचान बना सकती है। आज सारे अखबार एक सरीखे दिखने लगे हैं,
उनमें भी विविधता की जरूरत है। हिंदी के अखबारों ने अपनी साप्ताहिक पत्रिकाओं को
विविध विषयों पर केंद्रित कर एक बड़ा पाठक वर्ग खड़ा किया है। उन्हें अब साहित्य,
बौद्धिक विमर्शों, संवादों, दुनिया में घट रहे परिवर्तनों पर नजर रखते हुए ज्यादा सुरूचिपूर्ण
बनाना होगा। भारतीय भाषाओं खासकर मराठी, बंगला और गुजराती में ऐसे प्रयोग हो रहे
हैं, जहां सूचना के अलावा अन्य संदर्भ भी बराबरी से जगह पा रहे हैं। एक बड़ी भाषा
होने के नाते हिंदी से ज्यादा गंभीर प्रस्तुति और ठहराव की उम्मीद की जाती है।
उसकी तुलना अंग्रेजी के अखबारों होगी और होती रहेगी क्योंकि वह अंग्रेजी के
बौद्धिक आतंक को चुनौती देने की संभावना से हिंदी भरी-पूरी है। हिंदी के पास ज्यादा
बड़ा फलक और जमीनी अनुभव हैं। अगर वह अपने लोक की पहचान कर, भारत की पहचान कर,
अपने देश की वाणी को स्वर दे सके तो भारत का भारत से परिचय तो होगा ही,यह देश अपने
संकटों के समाधान भी अपनी ही भाषा में पा सकेगा। क्या हिंदी की पत्रकारिता, उसके
अखबार, संपादक और प्रबंधक इसके लिए तैयार हैं?
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