शुक्रवार, 20 मार्च 2015

आम’ नहीं ‘खास’ हो गए ‘आप


-संजय द्विवेदी


   आम आदमी पार्टी के साथ जो हो रहा है उसे लेकर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में खासी प्रसन्नता है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा कम ही होता है जब कोई नया दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इस तरह हिलाकर रख दे। राजनीति के बने-बनाए तरीके से अलग काम करने और उसके अनुरूप आचरण से किसी को समस्या नहीं होती किंतु जब कोई दल नए विचारों के साथ सामने आता है तो समस्या खड़ी होती है।
   आम आदमी पार्टी ने जिस तरह जाति, धर्म, क्षेत्र की बाड़बंदी तोड़कर दिल्ली चुनाव में सबका समर्थन प्राप्त किया, वह बात चौंकानेवाली थी। यह बात बताती है कि उम्मीदों और उजले सपनों की उम्मीद अभी भी देश की जनता में बाकी है। लोग चाहते हैं कि बदलाव हों और सार्थक बदलाव हों। लोग साथ आते हैं और साथ भी देते हैं। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल निश्चय ही इस सपने को जगाने और भुनाने में सफल रहे हैं। किंतु यह मानना कठिन है, यह अकेले अरविंद का करिश्मा है। यह उस समूह का करिश्मा है, जिसने जड़ता को तोड़कर एक नई राजनीतिक शैली का वादा किया। इसमें अरविंद के वे साथी जो दृश्य में हैं शामिल हैं, वे भी हैं जो अदृश्य हैं। वे लोग भी हैं, जिन्होंने अनाम रहकर इस दल के लिए समर्थन जुटाया। वह समर्थन सड़क पर हो, सोशल मीडिया में हो या कहीं और। ऐसे में अरविंद केजरीवाल को अपने इन साथियों की उम्मीदों को तोड़ने का हक नहीं है। प्रशांत भूषण,योगेंद्र यादव, मयंक गांधी से लेकर अंजलि दमानिया के सवाल असुविधाजनक जरूर हो सकते हैं, पर अप्रासंगिक नहीं हैं। क्योंकि यह आदत स्वयं आम आदमी पार्टी ने उनमें जगाई है। आम आदमी पार्टी  का चरित्र ही पहले दिन से ऐसा है कि वहां ऐसे सवाल उठेंगें ही। रोके जाने पर और उठेंगें। आम आदमी पार्टी का सच यह है कि वह अभी पार्टी बनी नहीं है। वह दल बनने की प्रक्रिया में है। उसका वैचारिक मार्ग भी अभी स्वीकृत नहीं है।वह विविध विचारों के अनुयायियों का एक ऐसा क्लब है, जिसने भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए सपना देखा और एकजुट हुआ। अब इस समूह ने आंदोलन की सीमाएं देखकर खुद सत्ता के सपने देखने शुरू किए हैं और बहुत आसानी से बड़ी सफलताएं पाई हैं। जाहिर है कि उन्हें इसका हक है कि वे सपने देखें और उनकी ओर दौड़ लगाएं। वाराणसी से लेकर अमेठी तक युद्धघोष करने वाली टीम अब दिल्ली की सत्ता में है और संभलकर चलना चाहती है। संभलकर चलना ऐसा कि दिल्ली देखें या देश यहां इसका सवाल भी अहम है।
    राजनीतिक दलों में ऐसे वैचारिक द्वंद कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो सब दलों में होता है। किंतु अरविंद केजरीवाल ने इन सवालों से निपटने का जो तरीका अपनाया वह सवालों के घेरे में है। मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान में एक की उक्ति को केजरीवाल सार्थक नहीं कर पाए। उन्हें समस्या से निपटने के लिए व्यक्तिगत संवाद का तरीका अपनाना चाहिए था। वे यहीं चूक गए, उन्होंने अपने गणोंको यह काम सौंप दिया जो अपने नेता की भक्ति में इतने बावले हुए कि उनको मर्यादाओं का ख्याल भी न रहा। सत्ता और ऐसी बहुमत वाली सरकार किसी में भी अहंकार भर सकती है। अब सही मायने मेंपांच साल केजरीवाल का नारा एक हकीकत है। देखें तो किसी भी सत्ता को सवाल खड़े करने वाले लोग नहीं सुहाते, इसलिए व्यक्तिगत आरोपों की लीला चरम पर है। अरविंद केजरीवाल के खेमे के माने जाने वाले मित्रों ने भी पत्र लिखे, ट्यूटर-फेसबुक पर कमेंट किए, टीवी इंटरव्यू दिए और पार्टी की बातें बाहर ले गए। इसी काम के लिए एक पक्ष को सजा और दूसरे पक्ष को मजा लेने की आजादी कैसे दी जा सकती है। यह ठीक है कि अरविंद बीमार हैं, उन्हें अपना स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए बाहर जाने की आजादी है। किंतु वह विवादित बैठक भी टाली जा सकती थीं और संवाद के लिए नए रास्ते खोजे जा सकते थे। क्या ही अच्छा होता कि प्रशांत-योगेंद्र यादव का सर कलम करने से पहले अरविंद इस बैठक को स्थगित करते, स्वास्थ्य लाभ लेने बंगलौर जाते और वहां एक-एक को बुलाकर सीधी बात कर लेते। इससे संवाद के सार्थक क्षण बनते और एक- दूसरे के प्रति प्रायोजित सद्भाव मीडिया में भी दिखता। इससे निश्चित ही रास्ते निकलते। किंतु अरविंद के उत्साही मैनेजरों ने पार्टी को 8-11 में बंटा हुआ साबित कर दिया और यह भी साबित किया कि उनको संवाद नहीं मनमानी में यकीन है।
  यह आश्चर्य ही है कि पार्टी के भीतर आपसी संवाद से ज्यादा संवाद नेताओं ने टीवी चैनलों पर किया। आम आदमी पार्टी की यह टीवी चपल और वाचाल टीम आज बेकार वक्तव्यों, ट्वीट्स व आरोपों-प्रत्यारोंपों के बीच फंसी हुयी है।यह बात उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता को ही प्रकट करती है। अरविंद केजरीवाल निश्चय ही पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा हैं। वे इस दल की धुरी हैं किंतु कोई भी संगठन एक नेता की छवि पर नहीं चलता, उसे ताकत देने वाले लोग बड़ी संख्या में पीछे काम करते हैं। नेपथ्य में काम कर रहे लोगों की एक शक्ति होती है और वे दल का आधार होते हैं। आम आदमी पार्टी ने स्टिंग के जो खेल खेले, आज उस पर भारी पड़ रहे हैं। हर व्यक्ति एक- दूसरे को अविश्वास से देख रहा है। एक दल का मुख्यमंत्री और विधायक भी अगर संवाद के तल पर आशंकाओं से घिरे हों तो क्या कहा जा सकता है। विधायक स्टिंग कर रहे हैं और अपने नेताओं को बेनकाब कर रहे हैं। यह अविश्वास राजनीतिक क्षेत्र में पहली बार इस रूप में प्रकट होकर जगह पा रहा है। एक राजनीतिक दल के नाते ही नहीं, एक मनुष्य होने के नाते हमारे सारे क्रिया-व्यापार भरोसे की नींव पर चलते हैं किंतु आम आदमी पार्टी इन स्टिंग आपरेशनों की प्रणेता के रूप में उभरी हैं- जहां अविश्वास ही केंद्र में है। भरोसे का यह संकट बताता है कि अभी भी आम आदमी पार्टी को एक दल की तरह, एक परिवार की तरह व्यवहार करना सीखना है। वे सब आंदोलन के साथी हैं, पर लगता है कि इतनी जल्दी सफलताओं ने उन्हें बौखला दिया है। क्या वे जीत को स्वीकार कर विनयी भाव से जनसेवा की ओर अग्रसर होगें या उनकी परिवार की महाभारत और नए रंग दिखाएगी कहना असंभव है।
    ऐसे कठिन समय में अरविंद केजरीवाल की यह जिम्मेदारी है कि वे जब स्वस्थ होकर लौटें तो कारकूनों के बजाए संवाद की बागडोर स्वयं लें। आज भी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है और लड़कर सबने अपनी हैसियत भी बता दी है कि हमाम में सब नंगें हैं। इन्हें फिर एक मंच पर लाना आम आदमी पार्टी के नेता होने के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी अरविंद केजरीवाल की ही है। वे माफी मांगकर दिल्ली का दिल जीत चुके हैं, साधारण संवाद से फिर से अपनों का दिल भी जीत सकते हैं। किंतु इसके लिए उन्हें खुद का दिल भी बड़ा करना पड़ेगा। उम्मीद तो की जानी चाहिए कि वे बंगलौर से कुछ ऐसी ही उम्मीदें जगाते हुए दिल्ली लौटेंगें।

गुरुवार, 5 मार्च 2015

कश्मीरः इतिहास में अटकी सूईयां

भाजपा-पीडीपी के सामने हालात को बदलने की चुनौती
-संजय द्विवेदी

  कश्मीर में भाजपा ने जिस तरह लंबे विमर्श के बाद पीडीपी के साथ गठबंधन की सरकार बनाई, उसकी आलोचना के लिए तमाम तर्क गढ़े जा सकते हैं। किसी भी अन्य राजनीतिक दल ने ऐसा किया होता तो उसकी आलोचना या निंदा का सवाल ही नहीं उठता, किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो महापाप हो गया। यहां तक कि कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी लग रहा है कि भाजपा के इस कदम से डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आत्मा को ठेस लगी होगी।
   यह समझना बहुत मुश्किल है कि भाजपा जब एक जिम्मेदार राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करते हुए विवादित सवालों से किनारा करते हुए काम करती है तब भी वह तथाकथित सेकुलर दलों की निंदा की पात्र बनती है। इसके साथ ही जब वह अपने एजेंडे पर काम कर रही होती है, तब भी उसकी निंदा होती है। यह गजब का द्वंद है, जो हमें देखने को मिलता है। अगर डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सम्मान और 370 की चिंता भाजपा को नहीं है तो उमर या फारूख क्या इस सम्मान की रक्षा के लिए आगे आएंगें? जाहिर तौर पर यह भाजपा को घेरने और उसकी आलोचना करने का कोई मौका न छोड़ने की अवसरवादी राजनीति है। क्यों बार-बार एक ऐसे राज्य में जहां भाजपा को अभी एक बड़े इलाके की स्वीकृति मिलना शेष है कि राजनीति में उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वह इतिहास को पल भर में बदल देगी।
साहसिक और ऐतिहासिक फैसलाः
    भाजपा का कश्मीर में पीडीपी के साथ जाना वास्तव में एक साहसिक और ऐतिहासिक फैसला है। यह संवाद के उस तल पर खड़े होना है, जहां से नई राहें बनाई जा सकती हैं। भाजपा के लिए कश्मीर सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं, एक भावनात्मक विषय है। भाजपा के पहले अध्यक्ष(तब जनसंघ) ने वहां अपने संघर्ष और शहादत से जो कुछ किया वह इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। भाजपा के लिए यह साधारण क्षण नहीं था, किंतु उसका फैसला असाधारण है। सरकार न बनाना कोई निर्णय नहीं होता। वह तो इतिहास के एक खास क्षण में अटकी सूइयों से ज्यादा कुछ नहीं है। किंतु साहस के साथ भाजपा ने जो निर्णय किया है, वह एक ऐतिहासिक अवसर में बदल सकता है। आखिर कश्मीर जैसे क्षेत्र के लिए कोई भी दल सिर्फ नारों और हुंकारों के सहारे नहीं रह सकता। इसीलिए संवाद बनाने के लिए एक कोशिश भाजपा ने चुनाव में की और अभूतपूर्व बाढ़ आपदा के समय भी की। यह सच है कि उसे घाटी में वोट नहीं मिले, किंतु जम्मू में उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। यह क्षण जब राज्य की राजनीति दो भागों में बंटी है, अगर भाजपा सत्ता से भागती तो वहां व्याप्त निराशा और बंटवारा और गहरा हो जाता। भाजपा ने अपने पूर्वाग्रहों से परे हटकर संवाद की खिड़कियां खोलीं हैं। अलगाववादी नेता स्व.अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद लोन को अपने कोटे से मंत्री बनवाया है। यह बात बताती है कि अलगाववादी नेता भी लोकतंत्र का हमसफर बनकर इस देश की सेवा कर सकते हैं।
यहां पराजित हुआ है पाक का द्विराष्ट्रवादः
  कश्मीर की स्थितियां असाधारण हैं। पाकिस्तान का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत कश्मीर में ही पराजित होता हुआ दिखता है। हमने सावधानी नहीं बरती तो कश्मीर का संकट और गहरा होगा। आज सेना के सहारे देश ने बहुत मुश्किलों से घाटी में शांति पाई है। कश्मीर का इलाज आज भी हमारे पास नहीं है। देश के कई इलाके इस प्रकार की अशांति से जूझ रहे हैं किंतु सीमावर्ती कश्मीर में पाक समर्थकों की उपस्थिति और पाकिस्तान के समर्थन से हालात बिगड़े हुए हैं। कश्मीर के लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े बिना यहां कोई पहल सफल नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि वहां के लोगों की स्वीकृति और समर्थन भारत सरकार के लिए कितनी जरूरी है। हमारे पहले प्रधानमंत्री की कुछ रणनीतिक चूकों की वजह से आज कश्मीर का संकट इस रूप में दिखता है। ऐसे में भाजपा का वहां सत्ता में होना कोई साधारण घटना और सूचना नहीं है। घाटी और जम्मू के बेहद विभाजित जनादेश के बाद दोनों दलों की यह नैतिक जिम्मेदारी थी कि वे अपने-अपने लोगों को न्याय दें। केंद्र की सत्ता में होने के नाते भाजपा की यह ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी थी।
उन्हें क्यों है 370 पर दर्दः
जिन लोगों को 370 दर्द सता रहा है वे दल क्या भाजपा के साथ 370 को हटाने के लिए संसद में साथ आएंगें, जाहिर तौर पर नहीं। फिर इस तरह की बातों को उठाने का फायदा क्या है। इतिहास की इस घड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ऐतिहासिक अवसर मिला है, जाहिर है वे इस अवसर का लाभ लेकर कश्मीर के संकट के वास्तविक समाधान की ओर बढ़ेंगें। संवाद से स्थितियां बदलें तो ठीक अन्यथा अन्य विकल्पों के लिए मार्ग हमेशा खुलें हैं। देश को एक बार कश्मीर के लोगों को यह अहसास तो कराना होगा कि श्रीनगर और दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जो उनके दर्द को कम करना चाहती है। जिसके लिए सबका साथ-सबका विकास सिर्फ नारा नहीं एक संकल्प है। यह अहसास अगर गहरा होता है, घाटी में आतंक को समर्थन कम होता है, वहां अमन के हालात लौटते हैं और सामान्य जन का भरोसा हमारी सरकारें जीत पाती हैं तो स्थितियां बदल सकती हैं। आज कश्मीर के लोग भी भारत में होने और पाकिस्तान के साथ होने के अंतर को समझते हैं।

    कोई भी क्षेत्र अनंतकाल तक हिंसा की आग में जलता रहे तो उसकी चिंताएं अलग हो जाती हैं। भारत सरकार के पास कश्मीर को साथ रखना एकमात्र विकल्प है। इसलिए उसे समर्थ और खुशहाल भी बनाना उसकी ही जिम्मेदारी है। 370 से लेकर अन्य स्थानीय सवालों पर विमर्श खड़ा हो, उसके नाते होने वाले फायदों और नुकसान पर संवाद हो। फिर लोग जो चाहें वही फैसला हो, यही तो लोकतंत्र है। भाजपा अगर इस ओर बढ़ रही है तो यह रास्ता गलत कैसे है।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

जमीन छीन लीजिए पर संवाद तो कीजिए

                               -संजय द्विवेदी

                                     


     भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने आते ही जिस तरह भूमि अधिग्रहण को लेकर एक अध्यादेश प्रस्तुत कर स्वयं को विवादों में डाल दिया है, वह बात चौंकाने वाली है। यहां तक कि भाजपा और संघ परिवार के तमाम संगठन भी इस बात को समझ पाने में असफल हैं कि जिस कानून को लम्बी चर्चा और विवादों के बाद सबकी सहमति से 2013 में पास किया गया, उस पर बिना किसी संवाद के एक नया अध्यादेश और फिर कानून लाने की जरूरत क्या थी? इस पूरे प्रसंग में साफ दिखता है कि केन्द्र सरकार के अलावा कोई भी पक्ष इस विधेयक के साथ नहीं है। हिन्दुस्तान के विकास के सपनों के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार से इतनी तो उम्मीद की ही जाती है कि वह बहुमत के अंहकार के बजाय जनमत के सम्मान का रास्ता अख्तियार करे। प्रधानमंत्री और उनके मंत्री इस मामले में एक रणनीतिक चूक का शिकार हुए हैं। जिसके चलते पूरे देश में भ्रम, निराशा और आक्रोश का वातावरण बन गया है। शायद सरकार के आकलन में कुछ भूल थी जिसके चलते किसी स्तर पर भी संवाद किए बिना इस बने-बनाए कानून से छेड़खानी की गई।
खाली जमीनों का कीजिए उपयोगः
    केंद्र सरकार इस विषय में संवादहीनता के आरोप से नहीं बच सकती, भले ही वह सत्ता की ताकत और अपने मैनेजरों के कुशल प्रबंधन से विधेयक को पास भी करा ले जाए। जाहिर तौर पर इस विधेयक का विरोध करने वाले लोग विकास विरोधी ही कहे जाएंगे और सरकार उन्हें विकास के रास्ते में रोड़े अटकाने वाले पत्थरों के रूप में ही आरोपित करना चाहेगी। लेकिन जहां छह करोड़ परिवारों के पास आज भी इंच भर जमीन नहीं है, वहां ऐसी बातें चिंता में डालती हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस देश में लड़ा गया सबसे बड़ा युद्ध महाभारत, दुर्योधन के द्वारा पांडवों को पांच गांव भी न देने की महाजिद के चलते शुरू हुआ था। दुर्योधन अपनी सत्ता की अकड़ में श्री कृष्ण से कहता है कि हे केशव मैं युद्ध के बिना सूर्ई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा। भारत की सरकार 1894 के अंग्रेजों के काले कानून को 2013 में बदल पाई और अब फिर वह इतिहास को पीछे ले जाने की तैयारी है। देश में आज भी तमाम उद्योगों के नाम पर आरक्षित 50 हजार एकड़ भूमि खाली पड़ी है। कुल कृषि योग्य भूमि का 20 प्रतिशत बंजर पड़ी है। इन जमीनों के बजाय नई सरकार बहुउपयोगी और सिंचित भूमि का अधिग्रहण करने को लालायित है। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या किसानों के हित और देश के हित अलग-अलग हैं? यह सच्चाई सबको पता है कि किस तरह सार्वजनिक कामों के लिए जमीनों का अधिग्रहण कर उनका लैंड यूज चेंज किया जाता है। 2010-11 में जो सवाल उठे थे, वे आज भी जिंदा हैं। सिंगूर, नंदीग्राम और भट्टापारसाल से लेकर मथुरा तक ये कहानियां बिखरी पड़ी हैं। सरकार ने हालात न सम्भाले तो टप्पल किसान आंदोलन जैसी स्थितियां दोबारा लौट सकती हैं।
इतनी हड़बड़ी में क्यों है सरकारः
            वर्ष 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के समय श्रीमती सुषमा स्वराज, श्री विनय कटियार और रविशंकर प्रसाद ने संसद में जो कुछ कहा था, वे भाषण फिर से सुने जाने चाहिए और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि उनके सत्ता में रहने के और विपक्ष में रहने के आचरण में इतना द्वंद्व क्यों है? जिस कानून को बने साल भर नहीं बीता उस पर अध्यादेश और उसके बाद एक नया कानून लाने की तैयारी सरकार की विश्वसनीयता और हड़बड़ी पर सवाल खड़े करती है। एक साल के भीतर ही नया कानून लाने की जरूरत पर सवाल उठ रहे हैं। सरकार के प्रबंधकों को इस व्यापक विरोध की आशंका जरूर रही होगी। बावजूद इसके किसानों को साथ लेने की कोशिश क्यों नहीं की गई? यह एक बड़ा सवाल है। सरकार का कहना है कि उसने कई गैर-भाजपा राज्यों के सुझावों पर बदलाव करते हुए यह अध्यादेश जारी किया है। सवाल यह उठता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने विरोधी राजनीतिक दलों के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की सलाह पर इतनी मेहरबान क्यों है कि उसे अपनी छवि की भी चिंता नहीं है। दिल्ली का चुनाव इन्हीं अफवाहों और भ्रमों के बीच हारने के बावजूद बीजेपी खुद को कॉरपोरेट और उद्योगपतियों के समर्थक तथा किसानों और आम आदमियों के विरोधी के रूप में स्थापित क्यों करना चाहती है?  यह आश्चर्य ही है कि लोगों को भरोसे में लिए बिना कोई राजनीतिक दल अपनी छवि को भी दांव पर लगाकर विकास की राजनीति करना चाहे। ऐसे विकास के मायने क्या हैं, जिसका लोकमत विरोधी हो? जिन कांग्रेसी और अन्य दलों के मित्रों के सुझाव पर भाजपा सरकार यह अध्यादेश लाई है, वे सड़क पर सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण तो ठीक भूमि-वितरण पर भी सोचिएः
   किसी भी भूमि अधिग्रहण के पहले, जिस सार्वजनिक सर्वेक्षण की वकालत पुराना कानून करता है, उसे हटाना भी खतरनाक है। इस कानून की स्टैंडिंग कमेटी की चेयरमैन रहीं श्रीमती सुमित्रा महाजन आज लोकसभा की अध्यक्ष हैं। जाहिर तौर पर 2013 में बने कानून के प्रभावों का साल-दो साल अध्ययन करने के बाद सरकार किसी नये कानून की तरफ लोगों से व्यापक विमर्श के बाद आगे बढ़ती तो कितना अच्छा होता। इस देश में भूमि अधिग्रहण की घटनाएं अनेक बार हुई हैं, विकास के नाम पर लगभग छह करोड़ लोगों का विस्थापन आजादी के बाद हुआ है। लेकिन, आप देखें तो केवल 17 प्रतिशत लोगों का हमारी सरकारें पुनर्वास कर सकी हैं। भाखड़ा नांगल बांध से लेकर नर्मदा के विस्थापित आज भी अपने बुनियादी अधिकारों के लिए मोहताज हैं। आजादी के बाद ऐसी स्थितियां हमें बताती हैं कि आज भी आखिरी आदमी सत्ताधीशों की चिंताओं से बहुत दूर है। देश में भूमिहीनों की एक बड़ी संख्या के बाद भी भूमि सुधार की दिशा में सरकारों ने बहुत कम काम किया है। सरकारें भूमि अधिग्रहण पर बातें करती हैं लेकिन भूमिहीनों को भूमि वितरण के सवाल पर खामोशी ओढ़ लेती हैं। जनहित क्या सिर्फ अमीरों को जमीन देना है या गरीबों को जमीनों से महरूम रखना?  संसद में एक समय श्री विनय कटियार और श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि 70 या 80 नहीं बल्कि 100 प्रतिशत किसानों की सहमति होने पर ही भूमि का अधिग्रहण किया जाना चाहिए। क्या राजनीति सत्ता में होने की अलग है और विपक्ष में होने की अलग?
क्या सरकारें ही देशहित में सोचती हैः
 किसानों की आत्महत्याओं की निरंतर खबरों के बीच सरकार बता रही है कि कब, किसकी सरकार के समय कितने अध्यादेश आए थे। आखिर इस तरह के कुतर्कों का मतलब क्या है?  आप हजार अध्यादेश लाएं वह एक संवैधानिक व्यवस्था है, किंतु क्या ये अध्यादेश बहुत जरूरी था, क्या इसके पक्ष में जनमत है? इन प्रश्नों का विचार जरूर करना चाहिए। या फिर जनमत बनाने की ओर बढ़ना चाहिए। केंद्र के एक माननीय मंत्री कहते हैं कि हमारा बहुमत है, हम कानून पास करेंगे। सत्ता की ऐसी भाषा न तो लोकतांत्रिक है, न ही स्वीकार्य। इसी तरह की देहभाषा और वाचालता जब यूपीए के मंत्री दिखाते थे, तो देश ने उसे दर्ज किया और समय पर प्रतिक्रिया भी की। हमारे वर्तमान राष्ट्रपति स्वयं ही एक अनुभवी राजनेता हैं। वे केंद्र की बहुमत प्राप्त सरकार को यह आगाह कर चुके हैं कि वह अध्यादेशों से बचे और लोगों की सहमति से कानून बनाए। बेहतर होगा कि सरकार इस पूरे मामले पर लोगों से सुझाव मांगे क्योंकि इस सरकार ने वोट अच्छे दिनों के लिए मांगे थे। अगर सरकार के किसी कदम से समाज के किसी वर्ग में यह आशंकाएं भी पैदा हो रही हैं कि वह उनके खिलाफ कानून बना रही है तो प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने मन की बात लोगों से सीधे करें, न कि संसद के फ्लोर मैनेजर के भरोसे देश को छोड़ दें। यह कैसे माना जा सकता है कि सरकारें ही राष्ट्रहित में सोचती हैं? अगर ऐसा होता तो सरकारों के खिलाफ इतने बड़े-बड़े आंदोलन न खड़े होते और सरकारें न बदलतीं।

   आज देश में लगभग 350 जगहों पर भूमि को लेकर टकराव दिख रहे हैं। एक जमाने में भाजपा ने खुद स्पेशल एकॉनोमिक जोन का विरोध किया था। सेज के नाम पर लगभग सात राज्यों में 38 हजार 245 हेक्टेयर जमीन सरकार ने किसानों से ली, उनमें से ज्यादातर खाली पड़ी हैं। पुनर्वास और उजड़ते किसानों की चिंताओं के बावजूद सरकारें एक सरीखा चरित्र अख्तियार कर चुकी हैं। जिनमें अच्छे दिनों की उम्मीदें दम तोड़ रही हैं। 1947 में जहां 20 करोड़ लोग खेती पर निर्भर थे, वहीं आज 70 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं। ऐसे में अगर शरद यादव राज्यसभा में यह कहते हैं कि खेती से बड़ा कोई उद्योग नहीं है तो हमें इस बात पर विवाद नहीं करना चाहिए। बेहतर होगा कि हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री स्वयं आगे आकर देश के किसानों और आमजन की शंकाओं का समाधान करें। देश उनके मुंह से सुनना चाहता है कि आखिर यह कानून कैसे लोगों का उद्वार करेगा? वे कहेंगे तो लोग जमीनें छोड़ सकते हैं, लेकिन शर्त है कि सरकार संवाद तो करे। 

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

संजय द्विवेदी द्वारा संपादित दो पुस्तकों का विमोचन

एक पुस्तक पत्रकार अच्युतानंद मिश्र और दूसरी मीडिया पर केन्द्रित



भोपाल, 7 फरवरी। मीडिया विमर्श के तत्वावधान में आयोजित समारोह में लेखक एवं मीडिया गुरु संजय द्विवेदी द्वारा संपादित दो पुस्तकों 'अजातशत्रु अच्युतानंद और 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाज का विमोचन किया गया। इस मौके पर संपादक श्री द्विवेदी ने कहा कि दोनों पुस्तकें रचनात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधाओं को समर्पित हैं। पुस्तकों का विमोचन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों ने किया, जो इन दिनों देश के विभिन्न मीडिया माध्यमों में कार्यरत हैं। कार्यक्रम का आयोजन सात फरवरी को भोपाल स्थित गांधी भवन में किया गया। इस मौके पर दिल्ली, छत्तीसगढ़, पंजाब, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, बिहार और उत्तरप्रदेश सहित अन्य शहरों से आए मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारिता के विद्यार्थी मौजूद थे।
   लेखक एवं संपादक श्री संजय द्विवेदी लगभग दो दशक से पत्रकारिता एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं तथा कई मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। वर्तमान में वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। श्री द्विवेदी निरंतर लेखन और संपादन में कार्यरत हैं। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक 'अजातशत्रु अच्युतानंद का लोकार्पण संयुक्त रूप से सात पूर्व विद्यार्थियों ने किया, जिनमें आर जे अनादि (रेड एफएम, भोपाल), प्राची मजूमदार (हिंदुस्तान टाइम्स, भोपाल), राहुल चौकसे( पीपुल्स समाचार, भोपाल),पंकज कुमार साव( भास्कर डाट काम, रांची), मनीष अग्रवाल (नई दुनिया, इंदौर), हेमंत पाणिग्राही (जगदलपुर) और पंकज गुप्ता (जनजन जागरण, भोपाल) शामिल हैं।
   इसी तरह दूसरी किताब 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाज  का विमोचन सर्वश्री का लोकार्पण संयुक्त रूप से सात पूर्व विद्यार्थियों ने किया जिनमें संयुक्ता बनर्जी( भास्कर डिजिटल, भोपाल), अमित सिंह (आजतक,दिल्ली) चैतन्य चंदन ( डाउन टू अर्थ, दिल्ली),  राजीव कुमार गांधी (साधना टीवी, रायपुर), कौशल वर्मा (दिल्ली), प्रेम राम त्रिपाठी (स्टार समाचार, सतना), दीपक कुमार (बिहार पुलिस) शामिल हैं। दोनों पुस्तकें नई दिल्ली के प्रकाशक यश पब्लिकेशंस ने प्रकाशित की हैं। 'अजातशत्रु अच्युतानंदपुस्तक जनसत्ता के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के लिखे 30 आलेख शामिल हैं। सर्वश्री रामबहादुर राय, विश्वनाथ सचदेव, पद्मश्री रमेशचंद्र शाह, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, कैलाशचंद्र पंत, रघु ठाकुर, प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, रमेश नैयर, डॉ. सच्चिदानंद जोशी, अभय प्रताप, संत समीर सहित कई प्रमुख लोगों ने अच्युतानंद मिश्र के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। 
   दूसरी पुस्तक 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाजसमूची पत्रकारिता के क्षेत्र में आए बदलावों को उजागर करती हुई दिखती है। संपादक संजय द्विवेदी कहते हैं कि भूमण्डलीकरण के बाद देश के मीडिया की स्थितियों में बहुत बदलाव आए हैं। सच कहें तो पूरी दुनिया ही बदल गई है। ऐसे में भूमण्डलीकरण के चलते विविध क्षेत्रों में पड़े प्रभावों का आकलन मीडिया प्राध्यापकों, पत्रकारों, चिंतकों और विद्वानों ने इस पुस्तक में किया है। पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के 34 आलेख 203 तीन पृष्ठों में समाहित हैं। डॉ. रामगोपाल सिंह, पी. साईंनाथ, अष्टभुजा शुक्ल, प्रो. कमल दीक्षित, डॉ. सुशील त्रिवेदी, आनंद प्रधान, डॉ. श्रीकांत सिंह, डॉ. वर्तिका नंदा, अनिल चमडिय़ा, डॉ. हरीश अरोड़ा, डॉ. सुभद्रा राठौर, अंकुर विजयवर्गीय, लोकेन्द्र सिंह और ऋतेश चौधरी सहित अन्य विद्वानों ने इस पुस्तक में मीडिया में आए बदलावों को रेखांकित किया है। दोनों पुस्तकें निश्चित ही पत्रकारिता से जुड़े बौद्धिक जगत और पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी साबित होंगी। 
पुस्तक परिचयः
1.      अजातशत्रु अच्युतानंद, संपादकः संजय द्विवेदी,
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1 /11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
मूल्यः 395/-   पृष्ठः144
2.      मीडिया, भूमंडलीकरण और समाज, संपादकः संजय द्विवेदी,
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1 /11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
मूल्यः 495/-   पृष्ठः207



राष्ट्र के बौद्धिक विकास में भूमिका निभाए मीडिया


-संजय द्विवेदी

   राष्ट्र के बौद्धिक विकास में मीडिया एक खास भूमिका निभा सकता है। वह अपनी सकारात्मक भूमिका से राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित अनेक चुनौतियों के समाधान खोजने की दिशा में वह एक अभियान चला सकता है। दुनिया के अनेक विकसित देशों में वहां के मीडिया ने सामुदायिक विकास में अपना खास योगदान दिया है। भारत का मीडिया तो इस गौरव से युक्त है कि उसने आजादी की लड़ाई में अपना विशेष योगदान दिया। आजादी के बाद भारत के नवनिर्माण में भी उसने भूमिका निभाई। सामाजिक भेदभाव-गैरबराबरी को दूर करने से लेकर अन्याय और शोषण के विरूद्ध पत्रकारिता का इस्तेमाल        
हमेशा एक लोकतंत्र में हथियार की तरह होता रहा है।
  आज दुनिया के तमाम देश प्रगति और विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत को एक नई उम्मीद से देख रहे हैं। भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की एक नई शुरूआत हुयी है। भारत की पहचान बदल रही है और वह एक समर्थ परंपरा का सांस्कृतिक उत्तराधिकारी मात्र नहीं बल्कि तेजी से सब क्षेत्रों में विकास करता हुआ राष्ट्र है। इसलिए वह उम्मीदें भी जगा रहा है। ऐसे समय में भारतीय मीडिया का आकार-प्रकार और शक्ति भी बढ़ी है। भारत में मीडिया का इस्तेमाल और उपयोग करने वाले लोग भी बढ़े हैं। तमाम संचार माध्यमों से विविध प्रकार की सूचनाएं समाज के सामने उपस्थित हो रही हैं। इसमें सूचनाओं की विविधता भी है और विकृति भी। अधिक सूचनाओं से संपन्न दुनिया बनाने के बजाए हमें सार्थक सूचनाओं की दुनिया बनानी होगी।
     भारत जैसे विविधता और बहुलता के वाहक देश में कोई एक माध्यम या कोई एक बाहरी विचार थोपा नहीं जा सकता। भारत के पास स्वयं का विचार ही इसे जोड़ने और शक्ति देने का काम कर सकता है। हमारे पास दुनिया को देने के लिए श्रेष्ठतम विचार हैं। श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है। श्रेष्ठतम सांस्कृतिक धारा है। जिसमें दूसरों का भी स्वीकार है। दूसरों के लिए भी जगह है। भारतीय सांस्कृतिक धारा और उसके विविध पहलुओं पर संवाद के माध्यम से स्वीकृति बनाने का यह उपयुक्त समय है।
   मीडिया इस देश की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए इसमें एकत्व के सूत्र निकाल सकता है। गणतंत्र दिवस पर इस शक्ति का प्रगटीकरण हमने होते हुए देखा। भारत की सांस्कृतिक विविधता और शक्ति के दर्शन हमें पहली बार इतने प्रकट रूप में देखने को मिले क्योंकि मीडिया की शक्ति और उसकी उपस्थिति ने पूरे देश को दिल्ली के राजपथ से जोड़ दिया। इसके पूर्व ऐसे आयोजन कई सालों से एक औपचारिकता बनकर रह गए थे जिसे मीडिया भी बहुत महत्व नहीं देता था। इस बार के आयोजन में एक राष्ट्र की शक्ति और उसकी एकता महसूस की गयी। ऐसे अवसरों पर मीडिया की शक्ति प्रकट रूप में दिखती है।
  हमारे देश की ताकत यह है कि हम संकटों में शीघ्र ही एकजुट हो जाते हैं। किंतु संकट टलते ही वह भाव नहीं रहता। हमें इस बात को लोगों के मनों में स्थापित करना है कि वे हर स्थिति में साथ हैं और अच्छे दिनों में साथ मिलकर चल सकते हैं। यही एकात्म भाव है। यही जुड़ाव जिसे जगाने की जरूरत है। बौद्धिकता सिर्फ बुद्धिजीवियों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, उसे आम-आदमी के विचार का हिस्सा बनना चाहिए। मीडिया अपने लोगों को प्रबोधन करने में भूमिका निभा सकता है। मीडिया का काम सिर्फ सूचनाएं देना नहीं है अपने पाठकों की रूचि परिष्कार तथा उन्हें बौद्धिक रूप से उन्नत करना भी है। हमें ऐसे मीडिया प्रोफेशनलों की पौध तैयार करनी होगी जो, अपने पाठकों की रूचियों का संसार विस्तृत तो करें हीं उनका परिष्कार भी करें। भौतिक विकास के साथ बुद्धि का स्तर भी बढ़ना जरूरी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसे ही सहभाग से साकार होता है। सार्थक होता है। अतः जनता से जुड़े मुद्दे और देश के सवालों की गंभीर समझ पाठकों और दर्शकों में पैदा करना मीडिया की जिम्मेदारी है।

   भारत जैसे देश में मीडिया का प्रभाव पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ा है। वह तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल करता हुआ एक बड़े उद्योग में भी बदल गया है। बावजूद हमें यह मानना पड़ेगा कि मीडिया का व्यवसाय अन्य व्यवसायों या उद्योगों सरीखा नहीं है। इसके साथ सामाजिक दायित्वबोध गुंथे हुए हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व से रहित मीडिया किसी काम का नहीं है। मीडिया के इसी चरित्र का विकास हमारा दायित्व है। मीडिया के नए बदलावों पर आज सवाल उठने लगे हैं। बाजार के दबावों ने मीडिया प्रबंधकों की रणनीति बदल दी है और बाजार के मूल्यों पर आधारित मीडिया का विकास भी तेजी से हो रहा है। जहां खबरों को बेचने पर जोर है। यहां मूल्य सकुचाए हुए दिखते हैं। समझौते और समर्पण के आधार पर बनने वाला मीडिया किसी भी तरह राष्ट्रीय संकल्पों का वाहक नहीं बन सकता। हमें अपने मीडिया की जड़ों को देखना होगा। वह परंपरा से ही व्यवस्था विरोधी और सामाजिक मूल्यों का संरक्षक और प्रेरक है। इसलिए हमें यह देखना होगा कि हम अपनी जड़ों से अलग न हों। पारंपरिक मूल्यों के आधार पर हम अपने मीडिया का विकास और विस्तार करें। आज मीडिया के प्रभाव के चलते इस क्षेत्र में तमाम तरह ऐसे लोग भी शामिल हुए हैं जिनके सामाजिक सरोकार शून्य हैं। वे विविध साधनों से धन कमाकर मीडिया में अचानक अवतरित हो गए हैं। उनका मुख्य उद्देश्य मीडिया की ताकत का इस्तेमाल करना है। इसके चलते मूल्यों में चौतरफा गिरावट देखने को मिल रही है। घने अंधेरे में रौशनी की चाह और प्रबल होती है। लगातार सच्चाई और अच्छाई की भूख बढ़ रही है। समाज तेजी से बदल रहा है। राजनीति, समाज हर जगह आज शुचिता और सच्चाई की भूख की इच्छा बढ़ रही है। यह इच्छा ही बदलाव की वाहक बनेगी। नए मीडियकर्मियों पर यह दायित्व है कि वे इस जनाकांक्षा को मूर्त रूप देने में सहायक बनें।

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

भाजपा की हार या आप की जीत !

-संजय द्विवेदी


   दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम में भाजपा की पराजय की चर्चा हर जुबान पर है। जाहिर तौर पर इस हार ने भाजपा के अश्वमेघ के अश्व को रोक दिया है और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी के जलवे में भी कमी आई है। दिल्ली का चुनाव सही मायने में बहुत छोटा चुनाव है, किंतु इसके संदेश बहुत बड़े हैं। मुंबई के मेयर से ज्यादा दिल्ली के मुख्यमंत्री का न कार्यक्षेत्र है, न ही बजट। किंतु राज्य तो राज्य है और महापालिका एक छोटी इकाई है। दिल्ली के चुनाव दरअसल जिस वातावरण और हाईपिच पर लड़ा गया, उसने इस छोटे से राज्य की राजनीतिक महत्ता को बहुत बढ़ा दिया है।
अप्रासंगिक कांग्रेसः
   आंदोलन से उपजी एक पार्टी के सामने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का जो हाल हुआ, उसके सदमे से उबर पाना दोनों के लिए आसान नहीं होगा। पंद्रह साल तक दिल्ली में राज करने वाली कांग्रेस का खाता भी न खुलना और भाजपा का तीन सीटों पर सिमट जाना कोई साधारण सूचना नहीं है। यह बात बताती है कि जनता के बीच किस तरह हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की हैसियत दिल्ली के अंदर घटी है। जहां तक कांग्रेस की बात है वह दिल्ली के चुनावों में अप्रासंगिक हो चुकी थी। अपने परंपरागत वोट प्रतिशत को भी वह, आप के खाते में जाने से रोक नहीं पाई। वहीं दिल्ली में भाजपा की हार के जो मोटे कारण समझ में आते हैं, वह सब लोगों की समझ में हैं। पता नहीं क्यों यह बात भाजपा का आलाकमान नहीं समझ सका।
काडर की नाराजगीः
भाजपा एक काडर बेस पार्टी है। सालों साल से उसके कार्यकर्ता और संघ परिवार के समविचारी संगठन उसका वोट आधार हैं। यह काडर इस चुनाव में अपने नेताओं के फैसलों से हैरान दिखा। दिल्ली एक बिखरा हुआ राज्य नहीं है, वह एक इकाई है और एक सरीखा सोचती है। वह इतनी बड़ी भी नहीं कि एक जगह का प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। दिल्ली भाजपा की उपेक्षा इस चुनाव का सबसे बड़ा कारण है। इसकी शुरूआत हुई दिल्ली भाजपा के सबसे प्रमुख चेहरे डा. हर्षवर्धन के स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाए जाने से। यह क्रम जारी रहा। आयातित नेताओं को टिकट देना, मुख्यमंत्री का प्रत्याशी भी आयात करना और स्थानीय नेताओं को घर बिठाना। यहां तक की दिल्ली भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय खुद भी टिकट नहीं ले पाए। लेकिन कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी जैसों को घर बैठे टिकट मिल गया। यह उत्तर प्रदेश जैसा राज्य नहीं कि पूरब की घटनाएं पश्चिम को, पूर्वांचल की घटनाएं बुंदेलखंड और रूहेलखंड को प्रभावित न करें। एक इकाई होने के नाते चीजों को होता हुआ देखकर कार्यकर्ता अवाक थे किंतु कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। मीडिया और पैसे के रूतबे की सवारी गांठ रहे आलाकमान के पास कार्यकर्ताओं को सुनने-गुनने का अवकाश भी नहीं था। कई राज्यों की विजय ने उनके चुनावी प्रबंधन के कौशल को स्थापित कर दिया था। यानी कार्यशैली पर सवाल नहीं उठ सकते थे, क्योंकि सफलता साथ-साथ थी। यह अकेली बात कार्यकर्ताओं को अवसाद में डाल चुकी थी।
  भाजपा और संघ परिवार के कार्यकर्ता आज भी भावनात्मक आधार पर कार्य करने वाला समूह है, यहां यह कहने में संकोच नहीं है कि वे राजनीतिक रूप से उतना विचार नहीं करते। राजनीतिक तरीके से चीजों को न सोचने के कारण वे भावनात्मक आधार पर फैसले करते हैं, जिसका भाजपा को अकसर नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में निराशा की स्थिति में वे घर बैठना पसंद करते हैं। दिल्ली में जहां आप के कार्यकर्ता राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित और आक्रामक थे, घर-घर संवाद कर रहे थे। वहीं भाजपा का कार्यकर्ता चुनाव के करीब आते-आते उदासीन होता गया। चुनाव जब प्रारंभ हुए उस समय का टेम्पो भी भाजपा अंत तक कायम नहीं रख सकी। भाजपा का पूरा चुनाव अभियान मीडिया शोर, साधनों की बहुलता और देश भर के सांसदों, संगठन की सक्रियता के बावजूद, इसी उदासीनता का शिकार हो गया। शायद यह पहली बार था जब टीम मोदी को पराजय हाथ लगी है। यह संवाद आम है कि मोदी-शाह-जेटली ही भाजपा बन गए हैं और भाजपा का शेष नेतृत्व स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहा है। चुनावी प्रबंधन, धनशक्ति, दल से बड़ी होती हुई दिखती है। जाहिर तौर पर दिल्ली के चुनावों को इससे अलग करके देखना संभव नहीं है।
आक्रामक और शब्द की हिंसा से भरा चुनावः
 कहते हैं दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम जहां सीधे संपर्क, संवाद और बातचीत में संयम का परिचय दे रही थी, वहीं भाजपा का प्रचार अभियान आक्रामक और शब्द की हिंसा से भरा था। लोकतंत्र में हिस्सा ले रहे लोग नक्सली हैं या बदनसीब हैं, यह बात समझ से परे है। फिर अरविंद केजरीवाल ने उपद्रवी गोत्र को जिस तरह व्याख्यायित किया, वह बात भी भाजपा के खिलाफ गयी। विज्ञापनों में अन्ना की फोटो पर माला, केजरीवाल के परिवार का जिक्र, सब उल्टे पड़े। केजरीवाल एक ऐसे बेचारे की तरह प्रस्तुत होने लगे जैसे भारत की सरकार ने दिल्ली के लोगों पर हमला कर दिया हो। गुजराती अस्मिता की बात करनेवाले प्रधानमंत्री इस बात को गहरे समझ रहे होंगे। बाहरी लोगों, बाहरी ताकतों और बाहरी नेताओं ने इस पूरे चुनाव में भाजपा की एक बड़ी पराजय की भूमिका तैयार की। इस चुनाव में लालकृष्ण आडवानी से लेकर विजय कुमार मल्होत्रा जैसे नेताओं की भूमिका क्या थी? यह भी सवाल पूछे जा रहे हैं। जबकि ऐसे नेता दिल्ली की रगों को जानते हैं, पहचानते हैं। क्योंकि इन सबने नगर निगम से लेकर लोकसभा की राजनीति इसी शहर में की है।
हारे को हरिनामः
 अब जबकि भाजपा यह चुनाव हार चुकी है। भाजपा के ताकतवर समूह के सामने चुप रहने वाले लोग भी आवाजें जरूर उठाएंगे। प्रधानमंत्री ने इस चुनाव में स्वयं को झोंककर खुद इस चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल में बदल दिया था। इससे पार्टी यह भले कहती रहे कि यह मोदी की हार नहीं है, इसके कोई मायने नहीं हैं। सच्चाई यह है कि दिल्ली के लोग भाजपा के साथ चलने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने एक चमकीली प्रगति का आश्वासन दे रही राजसत्ता के बजाए एक भगोड़े मुख्यमंत्री के इस आश्वासन पर भरोसा किया है कि वह अब नहीं भागेगा।
कैसे बनी अमीरों की पार्टीः

आखिर आठ महीनों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी जहां हर भारतीय के आशा के केंद्र बने हुए थे, दिल्ली वालों के लिए वे अमीरों की पार्टी और अमीरों के नेता बन गए। यह आम आदमी पार्टी का संवाद कौशल ही कहा जाएगा कि उन्होंने एक चायवाले से अपना जीवन शुरू करने वाले प्रधानमंत्री को कारपोरेट और अमीरों के नेता के रूप में स्थापित कर दिया। मफलर और प्रधानमंत्री के 10 लाख के कोट की कहानियां कैसे जन-मन में स्थापित कर दी गयीं, इस पर भी भाजपा के कम्युनिकेशन विभाग को सोचना चाहिए। एक ऐसी पार्टी जिसने अभी कुछ समय पूर्व, पूरे देश का प्यार पाया है, उसे दिल्ली में एक नई-नवेली पार्टी अगर पराजित करती है, तो यह साधारण नहीं है। इस चुनाव से भाजपा का कुछ नहीं बिगड़ा है, वह बहुत बड़ी पार्टी है और अगले पांच सालों के लिए देश की राजसत्ता के लिए जनादेश से संयुक्त है। किंतु भाजपा का जो बिगड़ा है, वह है उसकी और उसके नेता की छवि, जिसकी भरपाई के लिए उसने आज से कोशिशें शुरू नहीं कीं, तो कल बहुत देर हो जाएगी। सत्ता, संगठन, प्रभावी नेतृत्व और धन तो ठीक है किंतु जनता का भरोसा भी चाहिए। बहुत कम समय में मोदी- शाह और भाजपा को यह संदेश दिल्ली की जनता ने दिया है, यह उनके ऊपर है कि वे दिल्ली को सिर्फ एक राज्य का संदेश मानते हैं या देश की जनता का संयुक्त संदेश... मरजी टीम मोदी की।