भाजपा-पीडीपी के सामने हालात को बदलने की चुनौती
-संजय द्विवेदी
कश्मीर में भाजपा ने जिस तरह
लंबे विमर्श के बाद पीडीपी के साथ गठबंधन की सरकार बनाई, उसकी आलोचना के लिए तमाम
तर्क गढ़े जा सकते हैं। किसी भी अन्य राजनीतिक दल ने ऐसा किया होता तो उसकी आलोचना
या निंदा का सवाल ही नहीं उठता, किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो महापाप हो गया। यहां
तक कि कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी लग रहा है कि भाजपा के इस
कदम से डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आत्मा को ठेस लगी होगी।
यह समझना बहुत मुश्किल है
कि भाजपा जब एक जिम्मेदार राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करते हुए विवादित सवालों से
किनारा करते हुए काम करती है तब भी वह तथाकथित सेकुलर दलों की निंदा की पात्र बनती
है। इसके साथ ही जब वह अपने एजेंडे पर काम कर रही होती है, तब भी उसकी निंदा होती है।
यह गजब का द्वंद है, जो हमें देखने को मिलता है। अगर डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के
सम्मान और 370 की चिंता भाजपा को नहीं है तो उमर या फारूख क्या इस सम्मान की रक्षा
के लिए आगे आएंगें? जाहिर तौर पर यह भाजपा को घेरने और उसकी आलोचना
करने का कोई मौका न छोड़ने की अवसरवादी राजनीति है। क्यों बार-बार एक ऐसे राज्य
में जहां भाजपा को अभी एक बड़े इलाके की स्वीकृति मिलना शेष है कि राजनीति में
उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वह इतिहास को पल भर में बदल देगी।
साहसिक और ऐतिहासिक फैसलाः
भाजपा का कश्मीर में
पीडीपी के साथ जाना वास्तव में एक साहसिक और ऐतिहासिक फैसला है। यह संवाद के उस तल
पर खड़े होना है, जहां से नई राहें बनाई जा सकती हैं। भाजपा के लिए कश्मीर सिर्फ
जमीन का टुकड़ा नहीं, एक भावनात्मक विषय है। भाजपा के पहले अध्यक्ष(तब जनसंघ) ने
वहां अपने संघर्ष और शहादत से जो कुछ किया वह इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है।
भाजपा के लिए यह साधारण क्षण नहीं था, किंतु उसका फैसला असाधारण है। सरकार न बनाना
कोई निर्णय नहीं होता। वह तो इतिहास के एक खास क्षण में अटकी सूइयों से ज्यादा कुछ
नहीं है। किंतु साहस के साथ भाजपा ने जो निर्णय किया है, वह एक ऐतिहासिक अवसर में
बदल सकता है। आखिर कश्मीर जैसे क्षेत्र के लिए कोई भी दल सिर्फ नारों और हुंकारों
के सहारे नहीं रह सकता। इसीलिए संवाद बनाने के लिए एक कोशिश भाजपा ने चुनाव में की
और अभूतपूर्व बाढ़ आपदा के समय भी की। यह सच है कि उसे घाटी में वोट नहीं मिले,
किंतु जम्मू में उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। यह क्षण जब राज्य की राजनीति दो भागों
में बंटी है, अगर भाजपा सत्ता से भागती तो वहां व्याप्त निराशा और बंटवारा और गहरा
हो जाता। भाजपा ने अपने पूर्वाग्रहों से परे हटकर संवाद की खिड़कियां खोलीं हैं। अलगाववादी
नेता स्व.अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद लोन को अपने कोटे से मंत्री बनवाया है। यह
बात बताती है कि अलगाववादी नेता भी लोकतंत्र का हमसफर बनकर इस देश की सेवा कर सकते
हैं।
यहां पराजित हुआ है पाक का द्विराष्ट्रवादः
कश्मीर की स्थितियां असाधारण
हैं। पाकिस्तान का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत कश्मीर में ही पराजित होता हुआ
दिखता है। हमने सावधानी नहीं बरती तो कश्मीर का संकट और गहरा होगा। आज सेना के
सहारे देश ने बहुत मुश्किलों से घाटी में शांति पाई है। कश्मीर का इलाज आज भी
हमारे पास नहीं है। देश के कई इलाके इस प्रकार की अशांति से जूझ रहे हैं किंतु
सीमावर्ती कश्मीर में पाक समर्थकों की उपस्थिति और पाकिस्तान के समर्थन से हालात
बिगड़े हुए हैं। कश्मीर के लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े बिना यहां कोई पहल सफल
नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि वहां के लोगों की
स्वीकृति और समर्थन भारत सरकार के लिए कितनी जरूरी है। हमारे पहले प्रधानमंत्री की
कुछ रणनीतिक चूकों की वजह से आज कश्मीर का संकट इस रूप में दिखता है। ऐसे में
भाजपा का वहां सत्ता में होना कोई साधारण घटना और सूचना नहीं है। घाटी और जम्मू के
बेहद विभाजित जनादेश के बाद दोनों दलों की यह नैतिक जिम्मेदारी थी कि वे अपने-अपने
लोगों को न्याय दें। केंद्र की सत्ता में होने के नाते भाजपा की यह ज्यादा बड़ी
जिम्मेदारी थी।
उन्हें क्यों है 370 पर दर्दः
जिन लोगों को 370 दर्द सता रहा है वे दल क्या भाजपा के साथ 370 को
हटाने के लिए संसद में साथ आएंगें, जाहिर तौर पर नहीं। फिर इस तरह की बातों को
उठाने का फायदा क्या है। इतिहास की इस घड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक
ऐतिहासिक अवसर मिला है, जाहिर है वे इस अवसर का लाभ लेकर कश्मीर के संकट के
वास्तविक समाधान की ओर बढ़ेंगें। संवाद से स्थितियां बदलें तो ठीक अन्यथा अन्य
विकल्पों के लिए मार्ग हमेशा खुलें हैं। देश को एक बार कश्मीर के लोगों को यह
अहसास तो कराना होगा कि श्रीनगर और दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जो उनके दर्द को कम
करना चाहती है। जिसके लिए ‘सबका साथ-सबका विकास’ सिर्फ नारा नहीं एक संकल्प है। यह अहसास अगर
गहरा होता है, घाटी में आतंक को समर्थन कम होता है, वहां अमन
के हालात लौटते हैं और सामान्य जन का भरोसा हमारी सरकारें जीत पाती हैं तो
स्थितियां बदल सकती हैं। आज कश्मीर के लोग भी भारत में होने और पाकिस्तान के साथ
होने के अंतर को समझते हैं।
कोई भी
क्षेत्र अनंतकाल तक हिंसा की आग में जलता रहे तो उसकी चिंताएं अलग हो जाती हैं।
भारत सरकार के पास कश्मीर को साथ रखना एकमात्र विकल्प है। इसलिए उसे समर्थ और
खुशहाल भी बनाना उसकी ही जिम्मेदारी है। 370 से लेकर अन्य स्थानीय सवालों पर
विमर्श खड़ा हो, उसके नाते होने वाले फायदों और नुकसान पर संवाद हो। फिर लोग जो
चाहें वही फैसला हो, यही तो
लोकतंत्र है। भाजपा अगर इस ओर बढ़ रही है तो यह रास्ता गलत कैसे है।
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