गुरुवार, 8 जनवरी 2015

आइए बनाएं एकात्म मानवदर्शन पर आधारित मीडिया

-संजय द्विवेदी
      पं. दीनदयाल उपाध्याय स्वयं बहुत बड़े पत्रकार और संचारक थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभलेखन, पुस्तक लेखन उनकी रूचि का विषय था। उन्होंने लिखने के साथ-साथ बोलकर भी एक प्रभावी संचारक की भूमिका का निर्वहन किया है। उनकी स्मृति को रेखांकित करते हुए क्या हम विचार कर सकते हैं कि समाज जीवन के हर पक्ष में एकात्म मानवदर्शन किस तरह प्रभावी हो सकता है। भरोसा करना कठिन है कि श्री दीनदयाल उपाध्याय जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने भारतीय राजनीति और समाज को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया कि जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी मालिका तैयार हुयी, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली। क्या विचार सच में इतने ताकतवर होते हैं या यह सिर्फ समय का खेल है? किसी भी देश की राजनीतिक निष्ठाएं एकाएक नहीं बदलतीं। उसे बदलने में सालों लगते हैं। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर श्री नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इसमें इस विचार को समर्पित लाखों-लाखों अनाम सहयोगियों को भुलाया तो जा सकता है किंतु उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
राजनीति के लिए नहीं, विचार के साधकः
  पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के लिए नहीं बने थे, उन्हें तो एक नए बने राजनीतिक दल जनसंघ में उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मांग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर (गुरूजी) ने राजनीति में भेजा था। यह एक संयोग ही था कि डा. मुखर्जी और दीनदयाल जी दोनों की मृत्यु सहज नहीं रही और दोनों की मौत और हत्या के कारण आज भी रहस्य में हैं।  दीनदयालजी तो संघ के प्रचारक थे। आरएसएस की परिपाटी में प्रचारक एक गृहत्यागी सन्यासी सरीखा व्यक्ति होता है, जो समाज के संगठन के लिए अलग-अलग संगठनों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में काम करता है। देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन बन चुके आरएसएस के लिए वे बेहद कठिन दिन थे। राजसत्ता उन्हें गांधी का हत्यारा कहकर लांछित करती थी, तो समाज में उनके लिए जगह धीरे-धीरे बन रही थी। शुद्ध सात्विक प्रेम और संपर्कों के आधार पर जैसा स्वाभाविक विस्तार संघ का होना था, वह हो रहा था, किंतु निरंतर राजनीतिक हमलों ने उसे मजबूर किया कि वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आए। खासकर संघ पर प्रतिबंध के दौर में तो उसके पक्ष में दो बातें कहने वाले लोग भी संसद और विधानसभाओं में नहीं थे। यही पीड़ा भारतीय जनसंघ के गठन का आधार बनी। डा. मुखर्जी उसके वाहक बने और दीनदयाल जी के नाते उन्हें एक ऐसा महामंत्री मिला जिसने दल को न सिर्फ सांगठनिक आधार दिया बल्कि उसके वैचारिक अधिष्ठान को भी स्पष्ट करने का काम किया।
चुनावी सफलताओं के बिना बने राजनीति के दिशावाहकः
     पं. दीनदयाल जी को गुरूजी ने जिस भी अपेक्षा से वहां भेजा वे उससे ज्यादा सफल रहे। अपने जीवन की प्रामणिकता, कार्यकुशलता, सतत प्रवास, लेखन, संगठन कौशल और विचार के प्रति निरंतरता ने उन्हें जल्दी ही संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं का श्रद्धाभाजन बना दिया। बेहद साधारण परिवार और परिवेश से आए दीनदयालजी भारतीय राजनीति के मंच पर बिना बड़ी चमत्कारी सफलताओं के भी एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित होते दिखे, जिसे आप आदर्श मान सकते हैं। उनके हिस्से चुनावी सफलताएं नहीं रहीं, एक चुनाव जो वे जौनपुर से लड़े वह भी हार गए, किंतु उनका सामाजिक कद बहुत बड़ा हो चुका था। उनकी बातें गौर से सुनी जाने लगी थीं। वे दिग्गज राजनेताओं की भीड़ में एक राष्ट्रऋषि सरीखे नजर आते थे। उदारता और सौजन्यता से लोगों के मनों में, संगठन कौशल से कार्यकर्ताओं के दिलों में जगह बना रहे थे तो वैचारिक विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए देश के बौद्धिक जगत को वे आंदोलित-प्रभावित कर रहे थे। वामपंथी आंदोलन के मुखर बौद्धिक नेताओं की एक लंबी श्रृखंला, कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से तपकर निकले तमाम नेताओं और समाजवादी आंदोलन के डा. राममनोहर लोहिया जैसे प्रखर राजनीतिक चिंतकों के बीच अगर दीनदयाल उपाध्याय स्वीकृति पा रहे थे, तो यह साधारण घटना नहीं थी। यह बात बताती है गुरूजी का चयन कितना सही था। उनके साथ खड़ी हो रही सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख. जेपी माथुर,सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे सैकड़ों कार्यकर्ताओं की पीढ़ी को याद करना होगा, जिनके आधार पर जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा परवान चढ़ी है। दीनदयाल जी इन सबके रोलमाडल थे। अपनी सादगी, सज्जनता, व्यक्तियों का निर्माण करने की उनकी शैली और उसके साथ वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें बनाया और गढ़ा था।
भारतीय राजनीतिक विमर्श में सार्थक हस्तक्षेपः
    एकात्म मानववाद के माध्यम से सर्वथा एक भारतीय विचार को प्रवर्तित कर उन्होंने हमारे राजनीतिक विमर्श को एक नया आकाश दिया। यह बहुत से प्रचलित राजनीतिक विचारों के समकक्ष एक भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसे वे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना रहे थे। अपने इस विचार को वे व्यापक आधार दे पाते इसके पूर्व उनकी हत्या ने तमाम सपनों पर पानी फेर दिया। जब वे अपना श्रेष्ठतम देने की ओर बढ़ रहे थे, तब हुयी उनकी हत्या ने पूरे देश को अवाक् कर दिया। दीनदयाल जी ने अपने प्रलेखों और भाषणों में एकात्म मानववाद शब्द पद का उपयोग किया है। भाजपा ने 1985 में इसे इसी नाम से स्वीकार किया, किंतु नानाजी देशमुख और संघ परिवार के बीच एकात्म मानवदर्शन नामक शब्दपद स्वीकृति पा चुका है। यह एक सुखद संयोग ही है कि उनके द्वारा प्रवर्तित एकात्म मानवदर्शन की विचारयात्रा अपने पांच दशक पूर्ण कर चुकी है। यह उसकी स्वर्णजयंती का साल है। इसके साथ ही अगले साल दीनदयाल जी का शताब्दी वर्ष भी प्रारंभ होगा।
एकात्म मानवदर्शन के आधार पर कैसा मीडिया बनेगाः
  ऐसे प्रसंग यह विचार करना जरूरी हो जाता है कि आखिर एकात्म मानवदर्शन के आधार पर हमारी मीडिया का चेहरा बने तो वह कैसा होगा? एकात्म मानवदर्शन को लेकर समाज जीवन के विविध पक्षों में कैसे परिवर्तन होंगें, इस पर विद्वानों ने अलग-अलग विचार किया है। किंतु हमें यह जानना जरूरी है कि आज के सबसे प्रभावकारी माध्यम मीडिया में एकात्म भाव की उपस्थिति से क्या बदलाव आएंगें। एकात्म मानवदर्शन क्योंकि विभेद का दर्शन नहीं है, वह विषयों पर संपूर्णता में विचार करने वाला दर्शन है। एक ऐसी चिंतनधारा है जिसमें मनुष्यता के मूल्य और मनुष्य की मुक्ति संयुक्त है। दीनदयाल जी अपनी विचारधारा में मीडिया को अलग करके नहीं देखते। वे यही दृष्टि रखते किस तरह मीडिया समाज की एकता, उसकी बेहतरी और मनुष्यता की मुक्ति में सहायक हो।
  संवाद मनुष्य की आवश्यकता भी है और उसकी प्रेरणा भी। वह संवाद किए बिना रह नहीं सकता। उसका समूची सृष्टि से रिश्ता है और संवाद है। जिसे हम प्रकृति से संवाद की भी संज्ञा देते हैं। मनुष्य के लिए संवाद कैसा हो इस पर बहुत विचार हुआ है। सूचना की भी इसमें एक बड़ी भूमिका है। इस भूमिका का वास्तविक निर्वाह ही हमें मनुष्य बनाता है। एक शायर शायद इसीलिए कहते हैं- आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना। यानि आदमी को इंसान या मनुष्य बनाने की यात्रा एक कठिन यात्रा है। कठिन संकल्प से ही  व्यक्ति रूपांतरित होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर व्यक्ति की सूचना का संचार कितना व्यापक हो। सवाल यह भी है कि क्या हर सूचना व्यक्ति के लिए जरूरी है। साथ ही ऐसा क्या किया जाए कि व्यक्ति को सूचना इस प्रकार दी जाए, जिससे उसके विकास में मदद मिले न कि वह भ्रमित हो।
मीडिया में लाइए शुभदृष्टिः
   एकात्म मानवदर्शन के आधार बनने वाले मीडिया और सूचना की दुनिया में सबका हित निहित होना है। वह एकांगी मीडिया नहीं होगा, वह सूचना को जारी करने से पहले उसके प्रभाव का भी आकलन करेगा। मीडिया और शुभ दोनों विरोधी लगते हैं। पश्चिमी अवधारणा में खबर तभी बनेगी, जब कुछ अशोभन हो, चौंकानेवाला हो, दर्द का विस्तार करने वाला हो, तो इसमें शुभदृष्टि कहां है? एकात्म भाव से भरा मीडिया इसके विपरीत चलेगा। वह हर सूचना में शुभदृष्टि का विचार करेगा। सूचनाओं को विद्रूप करने, उसे खींचने के बजाए- वह शुभदृष्टि के चलते उसकी न्यूनतम नकारात्मकता का विचार करेगा। जाहिर तौर पर यह मीडिया आज की मीडिया के लीक से अलग चलेगा। वह बाजार और व्यापार के लिए संवाद से सौदा नहीं करेगा। वह मनुष्यता और मनुष्य की मुक्ति को केंद्र में रखते हुए वही परोसेगा, जिससे समाज में जुड़ाव बढ़े और शुभदृष्टि का विचार हो। क्या ऐसा मीडिया संभव है? साथ ही यह सवाल भी है कि यदि समाज में शुभदृष्टि का विचार स्थापित हो जाता है तो क्या हमारा परंपरागत मीडिया अप्रासंगिक नहीं हो जाएगा? सवाल यह भी मौजू है कि मीडिया में सकारात्मकता का प्रसार क्या मुख्यधारा के मीडिया को शक्ति दे सकता है?
   क्या विचारों और सुसंवाद पर आधारित ऐसे मीडिया की रचना संभव है जिसकी दृष्टि बाजारू न हो? आज दुनिया में 24 घंटे का कोलाहल करने वाला मीडिया उपलब्ध है, क्या इसका भी नियमन नहीं होना चाहिए कि आखिर चौबीस घंटें हमें मीडिया क्यों चाहिए? नकारात्मकता, बिजनेस माडल के आधार पर चलने वाला मीडिया आखिर किसकी जरूरत है? भारत में अभी मीडिया का बहुत व्याप न होने के बावजूद भी अब इसके कंटेट और इसकी जरूरतों पर बात शुरू हो गयी है। हमें यह विचार करने का समय आ गया है कि हमें सोचें कि आखिर हमें कितना और कैसा मीडिया चाहिए? हम कैसे इस मीडिया में वह एकात्म भाव भर सकते हैं जो हर मनुष्य में मौजूद है और नैसर्गिक है। मीडिया की परंपरागत संवाद शैली से अलग हमें इसे शुभदृष्टि की ओर ले जाने की जरूरत है।
मीडिया और समाज अलग-अलग नहीं चल सकतेः
   जीवन मूल्यों की जितनी जरूरत मनुष्य को है, उतनी ही मीडिया को भी है। यह संभव नहीं है कि समाज तो मूल्यों के आधार पर चलने का आग्रही हो और उसका मीडिया, उसकी फिल्में, उसकी प्रदर्शन कलाएं, उसकी पत्रकारिता नकारात्मकता का प्रचार कर रही हों। समाज और मनुष्य को प्रभावित करने का सबसे प्रभावी माध्यम होने के नाते हम इन्हें ऐसे नहीं छोड़ सकते। इन्हें भी हमें अपने जीवन मूल्यों के साथ जोड़ना होगा, जो मनुष्यता और मानवता के विस्तार का ही रूप हैं। अगर हम ऐसा मीडिया खड़ा कर पाते हैं तो समाज के बहुत सारे संकट स्वयं दूर हो जाएंगें। फिर टीवी बहसों से निष्कर्ष निकलेगें, फिर फिल्में समाज में समरसता और ममता का भाव भरेंगीं, फिर खबरें डराने के बजाए जीने का हौसला देंगीं। फिर खबरों का संसार ज्यादा व्यापक होगा। वे जिंदगी के हर पक्ष का विचार करेंगीं। वे एकांगी नहीं होंगीं, पूर्ण होंगीं और शुभता के भाव से भरी-पूरी होंगीं। जाहिर है यहां किसी धार्मिक और आध्यात्मिक मीडिया की बात नहीं हो रही है। सिर्फ उस दृष्टि की बात हो रही है जो एकात्म मानवदर्शन हमें देता है। वह है सबको साथ लेकर चलने, सबका विकास करने और सबसे कमजोर का सबसे पहले विचार करने की बात है। जहां दुनिया को बनाने वाले सारे अववय एक दूसरे से जुड़े हैं। जहां सब मिलकर संयुक्त होते हैं और वसुधा को परिवार समझने की दृष्टि देते हैं।

  दीनदयाल जी की स्मृतियां और उनके द्वारा प्रतिपादित विचारदर्शन एक सपना भी है तो भी इस जमीं को सुंदर बनाने की आकांक्षा से लबरेज है। उसकी अखंडमंडलाकार रचना का विचार करें तो मनुष्यता खुद अपने उत्कर्ष पर स्थापित होती हुयी दिखती है। इसके बाद उसका समाज और फिल्में, उसका समाज और उसका मीडया, उसका समाज और उसके मूल्य, उसका राह और उसका मन सब एक हो जाते हैं।  एकात्म सृष्टि से, एकात्म व्यक्ति से, एकात्म परिवेश से जब हम हो जाते हैं तो प्रश्नों के बजाए सिर्फ उत्तर नजर आते हैं। समस्याओं के बजाए समाधान नजर आते हैं। संकटों के बजाए उत्थान नजर आने लगता है। दुनिया एकात्म मानवदर्शन की राह पर आ रही है, अपने भौतिक उत्थान के साथ आध्यात्मिकता को संयुक्त करने के लिए वह आगे बढ़ चुकी है। यह होगा और जल्दी होगा, हम चाहें तो भी होगा, नहीं चाहे तो भी होगा। क्या हम घरती पर स्वर्ग उतारने के सपने को अपनी ही जिंदगी में सच होते देखना चाहते हैं, तो आइए इस विचार दर्शन को पढ़कर, जीवन में उतारकर देखते हैं। यह हमें इसलिए करना है क्योंकि हमारा जन्म भारत की भूमि पर हुआ है और जिसके पास पीड़ित मानवता को राह दिखाने का स्वाभाविक दायित्व सदियों से आता रहा है। एक बार फिर यह दायित्व क्या हम नहीं निभाएंगें?

विनय उपाध्याय को पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान



मीडिया विमर्श के आयोजन में 7 फरवरी को होंगे अलंकृत
    भोपाल,7 जनवरी,2015। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष कला समय (भोपाल) के संपादक श्री विनय उपाध्याय  को दिया जाएगा।श्री विनय उपाध्याय  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। जनवरी,1998 से वे कला-संस्कृति पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका कला समयका संपादन कर रहे हैं। सम्मान कार्यक्रम 7, फरवरी, 2015 को गांधी भवन, भोपाल में सायं 5.30 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कार, बुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। सम्मान समारोह के मुख्यअतिथि कथाकार एवं उपन्यासकार तेजिंदर होंगे तथा अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें। आयोजन में साहित्यकार गिरीश पंकज, सृजनगाथा डाट काम के संपादक जयप्रकाश मानस और कमोडिटी कंट्रोल डाट काम (मुंबई) के संपादक कमल भुवनेश विशिष्ट अतिथि होंगें।
       पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयर, डा. सच्चिदानंद जोशी, डा.सुभद्रा राठौर और जयप्रकाश मानस शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज और व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपए, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।
कौन हैं विनय उपाध्यायः ­
  साहित्य,संस्कृति और कला पत्रकारिता में विगत 25 वर्षों से समान सक्रिय। दैनिक भास्कर और नई दुनिया समाचार समूह में लम्बी सम्बद्धता के बाद इन दिनों दो सांस्कृतिक पत्रिकाओं "कला समय" और "रंग संवाद" का सम्पादन और अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिए अनेक प्रादेशिक और राष्ट्रीय सम्मानो से विभूषित। जनवरी 1998 में कला और विचार की द्वैमासिक हिंदी पत्रिका  "कला समय" का सम्पादन आरम्भ। साहित्य और कला जगत से जुडी अनेक विभूतियों और घटना-प्रसंगों पर दस्तावेज़ी  अंकों का प्रकाशन। उनके द्वारा संपादित कलासमय पत्रिका माधवराव सप्रे समाचार पत्र और शोध संस्थान द्वारा रामेश्वर गुरु पुरूस्कार से सम्मानित। भारत सहित विदेशों में भी शोध-अध्ययन के लिए कला समय सन्दर्भ पत्रिका के बतौर मान्य। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और कंठ संगीत में विशारद। देश भर की  पत्र -पत्रिकाओं में सांस्कृतिक विषयों पर नियमित स्तम्भ और समसामयिक कला मुद्दों पर आलेख और टिप्पणियों का प्रकाशन। दूदर्शन के लिए अनेक वृत्तचित्रों का आलेख और पार्श्व स्वर तथा संगीत-नृत्य के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समारोहों के संचालन का सीधा प्रसारण। कई निजी प्रतिष्ठानो द्वारा निर्मित दृश्य-श्रव्य प्रस्तुतियों का संचालन। बतौर कला समीक्षक देश के विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक यात्राएं और अखबारों के लिए विशेष रिपोर्टिंग। कविता लेखन और संगीत  में भी विशेष  रूचि। प्रसार भारती द्वारा गणतंत्र दिवस के प्रतिष्ठित सर्व भाषा कविता सम्मलेन हेतु हिंदी के युवा कवि बतौर बनारस में शिरकत। मधुकली वृन्द द्वारा जारी संगीत अलबमों में गायक स्वर। एक  दर्जन से भी ज्यादा साहित्यिक -सांस्कृतिक संस्थाओं के मानद सदस्य। इन दिनों आईसेक्ट युनिव्हर्सिटी से सम्बद्ध वनमाली सृजन पीठ के राज्य समन्वयक। एक दशक पहले मॉरीशस का साहित्यिक प्रवास।


मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ मे दिनांक 30.12.2014 को छपा लेख


सोमवार, 29 दिसंबर 2014

जाते हुए साल का विदागीत!

-संजय द्विवेदी

    जाते हुए साल को विदाई देते हुए हम उम्मीदों से भरे हुए हैं, यह मानकर कि 2015 भारत के लिए कुछ ज्यादा रोशनी लेकर आएगा। देश उम्मीदों से भरा हुआ है और दुनिया भर में बसे भारतवंशी भी अपने देश से शिकायतें नहीं कर रहे हैं, उन्हें भी लगने लगा है कि कुछ अच्छा हो सकता है। इसलिए 2014 को थैंक्स कि उसने हमें सपने देखने लायक बनाया। उसने हमें पिछले दस सालों के अवसाद, पीड़ा और सत्ता की मदांध शैली से मुक्त किया। आज देश संवाद करता हुआ, बोलता हुआ, अपने सपनों की तरफ दौड़ लगाता हुआ, कुछ करने का भाव लिए हुए दिखता है। यह उम्मीदें ऐसे ही नहीं आयी हैं। ये आई हैं एक राजनीतिक परिवर्तन के नाते जिसके लिए 2014 को हम भूल नहीं सकते। साल-2014 भारत से भारत के परिचय का साल है। थके हुए लोगों और हारे हुए मन को दिलासा देने का साल है। हिंदुस्तान  ही वह देश है, जिसे कभी राजसत्ता ने बहुत आंदोलित नहीं किया। हमारा समाज अपने स्वाभिमान और स्वावलंबन पर भरोसा करने वाला समाज है। हमारा समाज सत्ता की ओर देखने वाला समाज नहीं है, ना ही वह सत्ता के बल पर आगे बढने वाला समाज है। इस समाज की जिजीविषा सालों साल से उसके साथ है। शासक और शासन की भूमिका को हमेशा हमने बहुत सीमित माना। किंतु यह अच्छे और बुरे का फर्क जानने वाला समाज जरूर है। उसे पता है कि सत्ता को कितना मान देना और कब बदल देना।
     आप कल्पना करें कि यूपीए-3 के हाथ इस देश की सत्ता लगी होती तो क्या हम 2014 को माफ कर पाते। आने वाला साल क्या उम्मीदों का साल होता। सत्ता की सीमित भूमिका के बावजूद उसका सकारात्मक और ऊर्जावान होना जरूरी है। उसकी ऊर्जा से ही समाज निश्चिंत होकर अपने सपनों में रंग भरता है। आप मानें या न मानें वह उत्साह और सकारात्मकता 2014 हमें देकर जा रहा है। यह सकारात्मकता बनाए रखना, सत्ता के नए सवारों का काम है। हमें अनूकूलता चाहिए, हम अपना श्रेष्ठतम देने के लिए आतुर समाज हैं। दुनिया इसीलिए हमें एक नई नजर से देख रही है। 2014 की सबसे बड़ी देन यही है कि वह एक ऐसे परिवर्तन का वाहक बना है, जिसका यह देश लंबे समय से इंतजार कर रहा था। समाज जीवन ऐसी ही सूचनाओं से ताकत पाता है। हम एक राष्ट्र हैं यह भावना भी हममें आज दिखने लगी है। जम्मू-काश्मीर की विकराल बाढ़ हो या सीमापार पाकिस्तान बच्चों की सामूहिक हत्या, देश का मन विचलित हुआ और उसने भावनाओं के माध्यम से इस दर्द को बांटा। यही इस भूभाग की विशेषता है। हम अपने और पड़ोसी दोनों के दुख में दुखी होते हैं और उसकी खुशी में खुश होते हैं। 2014 की बुरी सूचनाएं भी एक भावनात्मक क्षण थी, जिसमें देश एक दिखा। यही अपनी माटी और अपने लोगों से एकात्म होना है। अगर हमें अपनी धरती और अपने लोगों से प्रेम हो जाए तो सारा कुछ गलत होता हुआ रूक जाएगा। सवाल यह है कि क्या हम अपने देश से प्यार करते हैं। सवाल यह भी है कि क्या हम कुछ करने से पहले यह सवाल करते हैं कि इससे मेरा देश कैसा बनेगा? 2014 ने हमें वह नजर दी है जब हम देश की सोचने लगे हैं।
    युवा शक्ति के हाथों में स्वच्छता अभियान की झाड़ू बहुत प्रतीकात्मक प्रयास है, किंतु इसके बड़े मायने हैं। प्रधानमंत्री द्वारा लगातार आकाशवाणी पर देशवासियों से संवाद और उसमें हर बार किसी नए विषय पर बात बहुत प्रतीकात्मक है किंतु इसके मायने हैं। यह देश तो संवाद ही चाहता था। किंतु नेतृत्व दस वर्षों तक मौन रहा। बड़ी से बड़ी घटना पर मौन और अवश। आखिर यह देश चलता कैसे? लोग सत्ता से चाहते क्या हैं? वह उन्हें चैन से काम करने, जीने और आगे बढने का वातावरण उपलब्ध कराए। 2014 के आखिरी दिन काम को प्रतिष्ठा देने वाले दिन हैं। ये दिन अवसाद और काहिली के विदाई के भी दिन हैं। उत्साह और स्वाभिमान के संचार के दिन हैं। आज लोगों को लगने लगा है कि कुछ बदल रहा है, बदल सकता है। इसके पहले के मंत्र सुनें इस देश का कुछ नहीं हो सकता, कुछ नहीं बदलेगा, भगवान ही मालिक –ऐसा कहने वाले लोग घट रहे हैं। नकारात्मकता का भाव घटा है। परिर्वतन को किस तरह स्वीकारा गया इसे समझना हो तो नोबेल विजेता अर्थशास्त्री श्री अर्मत्य सेन की सुन लीजिए। वे कहते हैं-मैं श्री मोदी का आलोचक हूं,लेकिन मुझको कहना पड़ेगा कि उन्होंने जन-मन में यह आस्था पैदा कर दी है कि कुछ किया जा सकता है। मेरे विचार से यह  खासी बड़ी उपलब्धि है। यह उनके लिए मेरी तरफ से एक प्रशस्ति है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्षता और अन्य मुद्दों पर हमारा मतभेद खत्म नहीं हो जाता।
      अफसोस यह नकारात्मकता राजनीति ने पैदा की थी। नौकरशाही ने पैदा की थी। सेवकों के मालिक की तरह व्यवहार ने पैदा की थी। आज भी हमें इस तंत्र में बहुत कुछ बदलने की जरूरत है। आने वाले सालों में हमें सोचना होगा कि आखिर हम कैसे सरकार की सोच में आम लोगों के संवेदना भर सकते हैं? कैसे मालिक और शासक की तरह आचरण कर रही सरकारी नौकरशाही को बदल सकते हैं? कैसे इस मशीनरी में लगी जंग को साफ कर सकते हैं? 2014 हमें सपने देकर जा रहा है। अब हमें इसमें रंग भरने का काम करना है। उसने सपने जगाए हैं और देश ने अब अपने सपनों की तरफ दौड़ लगा दी है।
    सरकारें आज सुशासन की बात करने लगी हैं। संभव है कि वे बातों से आगे भी बढ़ें, क्योंकि देश आगे बढ़ चुका है, जनता आगे बढ़ चुकी है। कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव को साधारण सूचना मत मानिए- यह राजनीतिक संस्कृति में भी बदलाव की भी सूचना है। समाज अब बदला हुयी सरकार से बदले हुए तंत्र की भी अपेक्षा कर रहा है। सत्ता में जो लोग आए हैं, वे सत्ता के स्वाभाविक अधिकारी नहीं है, उन्हें जनता ने यह सत्ता अपनी घोर निराशा में सौंपी है। जाहिर तौर पर उनका दायित्व बहुत बढ़ गया है। उनके सामने भारत की विशाल जनता के मन के अनुरूप आचरण का दबाव है। जातियों, वर्गों, उपवर्गों और क्षेत्रीयताओं के नारों के बीच राष्ट्र की आत्मा को स्वर देने वाला नेतृत्व अरसे बाद मिला है। वह संवाद को कृति में बदलने का आह्वान कर रहा है, अपने पस्तहाल तंत्र को सक्रिय कर रहा है। काम के लिए प्रेरित कर रहा है। ऐसे में समाज की निष्क्रिय प्रतिक्रिया से आगे बढ़ने की जरूरत है। समाज को तय करना होगा कि आखिर वह कैसा देश देखना चाहते हैं? पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम विजन-2020 की बात करते हैं। अब इसमें वक्त कम बचा है। जाते हुए साल का संदेश है कि हम अपनी गति बढ़ाएं। ज्यादा तेजी से अपनी कमियों का परिष्कार करते हुए देश की जरूरतों को पूरा करें। बाजार और मीडिया के शोर में वास्तविकताओं का आकलन करें। छूट रहे लोगों और क्षेत्रों को भी साथ लें। एक ऐसा भारत बनाने की ओर बढ़ें जिसमें सबका साथ-सबका विकास का नारा हकीकत में बदलता हुआ दिखे। देश का समाज वास्तव में बहुत स्वावलंबी और कर्मठ समाज है। सरकारी तंत्र और नौकरशाही की अकर्मण्यता के बावजूद यह देश धड़क रहा है और अपने सपनों में रंग भरने के लिए आतुर है। लोगों की कर्मठता और लगातार अच्छा काम करने के कारण ही दुनिया की मंदी का असर भारत में नहीं दिखता। सरकारी नीतियों की विफलता के वावजूद देश ने अपनी विकास की गति बनाए रखी है। सन् 2015 की देहरी पर खड़े होकर हम यह कह सकते हैं कि जाते हुए साल ने हमें इस लायक तो बना ही दिया है कि हम नए साल के स्वागत में दिल से कह सकें-हैप्पी न्यू ईयर।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ में छपे लेख



नेशनल दुनिया और स्वदेश में छपे लेख



सोमवार, 22 दिसंबर 2014

करिश्माई नेता हैं वाजपेयी


जन्मदिन प्रसंगः २५ दिसंबर
-संजय द्विवेदी

  अटलबिहारी वाजपेयी यानि एक ऐसा नाम जिसने भारतीय राजनीति को अपने
 व्यक्तित्व और कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक साधारण परिवार में जन्मे इस राजनेता ने अपनी भाषण कलाभुवनमोहिनी मुस्कानलेखन और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। सही मायने में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के सबसे करिश्माई नेता और प्रधानमंत्री साबित हुए।

   एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संकल्प और विचारधारा कैसे एक सामान्य परिवार से आए बालक में परिवर्तन का बीजारोपण करती है। शायद इसीलिए राजनैतिक विरासत न होने के बावजूद उनके पीछे एक ऐसा परिवार था जिसका नाम संघ परिवार है। जहां अटलजी राष्ट्रवाद की ऊर्जा से भरे एक ऐसे महापरिवार के नायक बनेजिसने उनमें इस देश का नायक बनने की क्षमताएं न सिर्फ महसूस की वरन अपने उस सपने को सच किया जिसमें देश का नेतृत्व करने की भावना थी। अटलजी के रूप में इस परिवार ने देश को एक ऐसा नायक दिया जो वास्तव में हिंदू संस्कृति का प्रणेता और पोषक बना। याद कीजिए अटल जी की कविता तन-मन हिंदू मेरा परिचय। वे अपनी कविताओंलेखों ,भाषणों और जीवन से जो कुछ प्रकट करते रहे उसमें इस मातृ-भू की अर्चना के सिवा क्या है। वे सही मायने में भारतीयता के ऐसे अग्रदूत बने जिसने न सिर्फ सुशासन के मानकों को भारतीय राजनीति के संदर्भ में स्थापित किया वरन अपनी विचारधारा को आमजन के बीच स्थापित कर दिया।
समन्वयवादी राजनीति की शुरूआतः
सही मायने में अटलबिहारी वाजपेयी एक ऐसी सरकार के नायक बने जिसने भारतीय राजनीति में समन्वय की राजनीति की शुरूआत की। वह एक अर्थ में एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार थी जिसमें विविध विचारोंक्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम लोग शामिल थे। दो दर्जन दलों के विचारों को एक मंत्र से साधना आसान नहीं था। किंतु अटल जी की राष्ट्रीय दृष्टिउनकी साधना और बेदाग व्यक्तित्व ने सारा कुछ संभव कर दिया। वे सही मायने में भारतीयता और उसके औदार्य के उदाहरण बन गए। उनकी सरकार ने अस्थिरता के भंवर में फंसे देश को एक नई राजनीति को राह दिखाई। यह रास्ता मिली-जुली सरकारों की सफलता की मिसाल बन गया। भारत जैसे देशों में जहां मिलीजुली सरकारों की सफलता एक चुनौती थीअटलजी ने साबित किया कि स्पष्ट विचारधारा,राजनीतिक चिंतन और साफ नजरिए से भी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। विपक्ष भी उनकी कार्यकुशलता और व्यक्तित्व पर मुग्ध था। यह शायद उनके विशाल व्यक्तित्व के चलते संभव हो पायाजिसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना थी। देशप्रेम थादेश का विकास करने की इच्छाशक्ति थी। उनकी नीयत पर किसी कोई शक नहीं था। शायद इसीलिए उनकी राजनीतिक छवि एक ऐसे निर्मल राजनेता की बनी जिसके मन में विरोधियों के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं था।
आम जन का रखा ख्यालः
 उनकी सरकार सुशासन के उदाहरण रचने वाली साबित हुई। जनसमर्थक नीतियों के साथ महंगाई पर नियंत्रण रखकर सरकार ने यह साबित किया कि देश यूं भी चलाया जा सकता है। सन् 1999 के राजग के चुनाव घोषणापत्र का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने सुशासन प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धताजैसे विषय को उठाने के साथ कहा-लोगों के सामने हमारी प्रथम प्रतिबद्धता एक ऐसी स्थायी,ईमानदारपारदर्शी और कुशल सरकार देने की हैजो चहुंमुखी विकास करने में सक्षम हो। इसके लिए सरकार आवश्यक प्रशासनिक सुधारों के समयबद्ध कार्यक्रम शुरू करेगीइन सुधारों में पुलिस और अन्य सिविल सेवाओं में किए जाने वाले सुधार शामिल हैं। राजग ने देश के सामने ऐसे सुशासन का आदर्श रखा जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षाराष्ट्रीय पुनर्निर्माणसंघीय समरसताआर्थिक आधुनिकीकरणसामाजिक न्यायशुचिता जैसे सवाल शामिल थे। आम जनता से जुड़ी सुविधाओं का व्यापक संवर्धनआईटी क्रांति,सूचना क्रांति इससे जुड़ी उपलब्धियां हैं।
एक भारतीय प्रधानमंत्रीः
   अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को समझते थे।भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे पारकर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया। उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया। मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिलापर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। बदले की भावना न तो उनके जीवन में है न राजनीति में। इसी के चलते वे अजातशत्रु कहे जाते हैं।
  आज जबकि राष्ट्रजीवन में पश्चिमी और अमरीकी प्रभावों का साफ प्रभाव दिखने लगा है। रिटेल में एफडीआई के सवाल पर जिस तरह के हालात बने वे चिंता में डालते हैं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर बड़े पदों पर बैठे राजनेता जिस तरह अमरीकी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में खड़े दिखे वह बात चिंता में डालती है। यह देखना रोचक होता कि अगर सदन में अटलजी होते तो इस सवाल पर क्या स्टैंड लेते। शायद उनकी बात को अनसुना करने का साहस समाज और राजनीति में दोनों में न होता। सही मायने में राजनीति में उनकी अनुपस्थिति इसलिए भी बेतरह याद की जाती हैक्योंकि उनके बाद मूल्यपरक राजनीति का अंत होता दिखता है। क्षरण तेज हो रहा हैआदर्श क्षरित हो रहे हैं। उसे बचाने की कोशिशें असफल होती दिख रही हैं। आज भी वे एक जीवंत इतिहास की तरह हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वे एक ऐसे नायक हैं जिसने हमारे इसी कठिन समय में हमें प्रेरणा दी और हममें ऊर्जा भरी और स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरी राजनीति का पाठ पढ़ाया। हमें देखना होगा कि यह परंपरा उनके उत्तराधिकार कैसे आगे बढाते हैं। उनकी दिखायी राह पर भाजपा और उसका संगठन कैसे आगे बढ़ता है।
   अपने समूचे जीवन से अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता में रहकर भी वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैंइसे उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा। स्वतंत्र भारत के इस आखिरी  करिश्माई नेता का व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगावे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखासुना और उनके साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए उनको चाहनेवाले उनकी लंबी आयु की दुआ  करते हैं और गाते हुए आगे बढ़ते हैं चल रहे हैं चरण अगणितध्येय के पथ पर निरंतर

धर्मांतरणः हंगामा क्यों है बरपा?

                       -  संजय द्विवेदी

   धर्मान्तरण के मुद्दे पर मचे बवाल ने यह साफ कर दिया है कि इस मामले पर शोर करने वालों की नीयत अच्छी नहीं है। किसी का धर्म बदलने का सवाल कैसे एक सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाया जाता है और कैसे इसे मुद्दा बनाने वाले धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाने के विषय पर तैयार नहीं होते, इसे देखना रोचक है। भारत जैसे देश में जहां बहुत सारे पंथों को मानने वाले लोग रहते हैं यह विषय चर्चा के केंद्र में रहा है। खासकर ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम संगठनों की विस्तारवादी नीति के चलते यह मुद्दा हमेशा उठता आया है। लेकिन जादू यह है कि धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाने के लिए अल्पसंख्यक संगठन और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल तैयार नहीं हैं। यहीं पर हमारे विचारों के दोहरेपन का पता चलता और नीयत का भी। यानि हिंदू समाज के लोग धर्म बदलते रहें तो कोई समस्या नहीं किंतु कोई अन्य धर्मावलंबी हिंदू बन जाए तो पहाड़ सिर पर उठा लो। मतलब आप करें तो लीला कोई अन्य करे तो पाप
   आप देखें तो धर्मांतरण की बढ़ती वृत्ति ने ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार को गिरिजनों और आदिवासियों के बीच जाकर काम करने की प्रेरणा का आधार भी दिया है। आज ईसाई मिशनरियों की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित वनवासी कल्याण आश्रम और सेवाभारती जैसे संगठनों के कार्यकर्ता आपको आदिवासियों, गिरिजनों एवं वंचितों के बीच कार्य करते दिख जाएंगे। बात सिर्फ सेवा को लेकर लगी होड़ की होती तो शायद इस पूरे चित्र में हिंसा को जगह नहीं मिलती । लेकिन धर्मबदलने का जुनून और अपने धर्म बंधुओं की तादाद बढ़ाने की होड़ ने सेवाके इन सारे उपक्रमों की व्यर्थता साबित कर दी है। हालांकि ईसाई मिशनों से जुड़े लोग इस बात से इनकार करते हैं कि उनकी सेवाभावना के साथ जबरिया धर्मान्तरण का लोभ भी जुड़ा है। किंतु विहिप और संघ परिवार इनके तर्कों को खारिज करता है। आज धर्मान्तरण की यह बहस ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है, जहां सिर्फ तलवारें भांजी जा रही हैं। तर्क तथा शब्द अपना महत्व खो चुके हैं। जिन राज्यों में व्यापक पैमाने पर धर्मान्तरण हुआ है मसलन मिजोरम, अरुणाचल, मेंघालय, नागालैंड, छत्तीसगढ़ के ताजा हालात तथा कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्या के नाते उत्पन्न परिस्थितियों ने हिंदू संगठनों को इन बातों के लिए आधार मौजूद कराया है कि धर्म के साथ राष्ट्रांतरण की भी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। जाहिर है यह भयग्रंथि हिंदू मानसमें एक भय का वातावरण बनाती है।
   धर्मान्तरण की यह प्रक्रिया और इसके पूर्वापर पर नजर डालें तो इतिहास में तमाम महापुरुषों ने अपना धर्म बदला था। उस समय लोग अपनी कुछ मान्यताओं, आस्थाओं और मानदंडों के चलते धर्म परिवर्तन किया करते थे। वे किसी धर्म की शरण में जाते थे या किसी नए पंथ या धर्म की स्थापना करते थे। लंबे विमर्शों, बहसों और चिंतन के बाद यथास्थिति को तोड़ने की अनुगूंज इन कदमों में दिखती थी। गौतम बुद्ध, महावीर द्वारा नए मार्गों की तलाश इसी कोशिश का हिस्सा था वहां भी एक विद्रोह था। बाद में यह हस्तक्षेप हमें आर्य समाज, ब्रह्मा समाज, रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों में दिखता है। धर्म के परंपरागत ढांचे को तोड़कर कुछ नया जोड़ने और रचने की प्रक्रिया इससे जन्म लेती थी। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म स्वीकारना, एक लालच या राजनीति से उपजा फैसला नहीं था। यह एक व्यक्ति के हृदय और धर्म परिवर्तन की घटना है, उसके द्वारा की गई हिंसा की ग्लानि से उपजा फैसला है। बाद के दिनों में बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकारना एक लंबी विचार-प्रक्रिया से उपजा फैसला था। इसी प्रकार केशवचंद्र सेन भी ईसाई धर्म में शामिल हो गए थे। उदाहरण इस बात के भी मिलते हैं कि शुरुआती दौर के कई ईसाई धर्म प्रचारक ब्राम्हण पुजारी बन गए। कुछ पादरी ब्राह्मण पुजारियों की तरह रहने लगे । इस तरह भारतीय समाज में धर्मातरण का यह लंबा दौर विचारों के बदलाव के कारण होता रहा । सो यह टकराव का कारण नहीं बना । लेकिन सन 1981 में मीनाक्षीपुरम में 300 दलितों द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण करने की घटना ने एक बड़ा रूप ले लिए । सामंतों और बड़ी जातियों के अत्याचार से संतप्त जनों की इस प्रतिक्रिया ने कथित हिंदूवादियों के कान खड़े कर दिए। सही अर्थों में मीनाक्षीपुरम की घटना आजाद भारत में धर्मान्तरण की बहस को एक नया रूप देने में सफल रही । इसने न सिर्फ हमारी सड़ांध मारती जाति-व्यवस्था के खिलाफ रोष को अभिव्यक्त दी वरन हिंदू संगठनों के सामने यह चुनौती दी कि यदि धार्मिक-जातीय कट्टरता के माहौल को कम न किया गया तो ऐसे विद्रोह स्थान-स्थान पर खड़े हो सकते हैं। इसी समय के आसपास महाराष्ट्र में करीब 3 लाख दलितों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया । 26 जनवरी 1999 को तेजीपुर (उ.प्र.) में कई दलित काश्तकारों ने बौद्ध धर्म अपना लिया । लेकिन इन घटनाओं को इसलिए संघ परिवार ने इतना तूल नहीं दिया, क्योंकि वे बौद्धों को अलग नहीं मानते । लेकिन मिशनरियों द्वारा किए जा रहे धर्मान्तरण की कुछेक घटनाओं ने उन्हें चौकस कर दिया । संघ परिवार ने धर्म बदल चुके आदिवासियों को वापस स्वधर्म में लाने की मुहिम शुरू की, जिसमें स्व. दिलीप सिंह जूदेव जैसे नेता आगे आए। इस सबके साथ ईसाई मिशनों की तरह संघ परिवार ने भी सेवा के काम शुरू किए। इससे बिहार के झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में जमीनी संघर्ष की घटनाएं बढ़ी । जिसकी परिणति कई प्रदेशों में हिंसक संघर्ष रूप में सामने आई । इसका इस्तेमाल कर पाक प्रेरित आतंकियों ने भी हिंदू-ईसाई वैमनस्य फैलाने के लिए कुछ सालों पूर्व चर्चों में विस्फोट कराए थे। इन तत्वों की पहचान दीनदार अंजमुन के कार्यकर्ताओं के रूप में हो चुकी है। पूर्वाचल के राज्यों में आईएसआई प्रेरित आतंकियों से चर्च के रिश्ते भी प्रकाश में आए हैं। ऐसे एकाध उदाहरण भी देश के सद्भाव व सह अस्तित्व की विरासत को चोट पहुंचाने के लिए काफी होते हैं। जाहिर है ऐसे संवेदनशील प्रश्नों पर नारेबाजियों के बजाए ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में जहां साक्षरता के हालात बदतर हैं, लोग भावनात्मक नारों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदू समाज धर्मान्तरण के कारकों एवं कारणों का हल स्वयं में ही खोजे। धर्म परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी हक है। कोई भी व्यक्ति का यह हक उससे ले नहीं सकता, लेकिन इस प्रश्न से पीड़ित जनों को चाहिए कि वे लड़ाई हिंदू समाज में पसरी अमानवीय जाति प्रथा और पाखंडपूर्ण बहुरूपिएपन के खिलाफ शुरू करें।
   समाज को जोड़ने, उसमें समरसता घोलने का दायित्व बहुसंख्यक समाज और उसके नेतृत्व का दावा करने वालों पर है। सामाजिक विषमता के दानव के खिलाफ यह जंग जितनी तेज होती जाएगी। धर्मान्तरण जैसे प्रश्न जिनके मूल में अपमान ,तिरस्कार, उपेक्षा और शोषण है, स्वतः समाप्त करने के बजाए वंचितों के दुख-दर्द से भी वास्ता जोड़ना चाहिए। इस सवाल पर बहुसंख्यक समाज को सकारात्मक रुख अपनाकर बतौर चुनौती इसे स्वीकारना भी चाहिए। इसके दो ही मंत्र हैं-सेवा और सद्भाव ।
   राज्यसभा और लोकसभा को रोककर ये सवाल हल नहीं होंगें। हमें उस मानसिकता को भी देखना होगा जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहते हैं। क्यों उनमें विपरीत पूजा पद्धतियों के प्रति स्वीकार्यता नहीं है। ये दुनिया इंसानों के रहने लायक दुनिया बने। अगर हम विविधता और बहुलता का सम्मान नहीं करते तो ऐसे संकट हमारे सामने हमेशा खड़े होंगें। धर्म के लिए खून बहाते लोग अपने धर्म बंधुओं के भी खून की होली खेल रहे हैं। मानवता पर ऐसे विचार बोझ समान ही हैं। हमारी देश की परंपरा सबको आदर देने और सभी पंथों को मान देने की रही है। यहां धर्म जीवन शैली के रूप में पारिभाषित है। यह अधिनायकवादी वृत्तियों का वाहक नहीं है। हमारा धर्म उदात्त मानवीय संवेदना और सहअस्तित्व पर आधारित है। इसे खून बहा रही जमातों, लालच के आधार पर या धोखे के आधार धर्म बदलने के प्रयासों की प्रतिस्पर्धा में मत देखिए। हमारी अपनी पहचान और स्वायत्ता दूसरों को ही नहीं, विरोधियों को भी आदर देने में है। यही भारतीयता है, इसे आप कायरता कहते हैं तो कहते रहिए। क्योंकि आपकी बहादुरी के किस्सों ने सिर्फ खून बहाया है, अब इसे रोकने की जरूरत है। भारतीय विचार सबको साथ लेकर चलने वाला विचार है,वह किसी के खिलाफ कैसे हो सकता है? हम उन हथियारों से नहीं लड़ सकते, जो दुनिया में अशांति का कारण बने हुए हैं। हमारे समय के सबसे बड़े हिंदू नेता श्री अटलबिहारी वाजपेयी इसी हिंदू दर्शन को व्यक्त करते हुए जो लिखते हैं, वह कविता उनके समर्थकों को जरूर पढ़नी चाहिए। क्योंकि दूसरे विचारों से प्रेरित होकर अपना मूल विचार और स्वभाव छोड़ने की जरूरत कहां हैं? श्रेष्ठ होने का मतलब सभ्य होना भी है, शिष्ठ होना भी है। वह भाषा में भी, व्यवहार में भी और आचरण में भी। बकौल अटल जी-

होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम

मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।

गोपाल, राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया

कब दुनिया को हिन्दु करने घर घर मे नरसंहार किया।

कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी

भूभाग नही शत शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।

हिन्दु तन –मन, हिन्दु- जीवन रग- रग हिन्दु मेरा परिचय॥